‘मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं यहाँ आपके लिए हूँ'


किसी के भी जीवन में यह सबसे खूबसूरत घटना होती है जब कोई यह महसूस कर सके किे, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं यहाँ आपके लिए हूँ।’ मुझे ऐसी किस्मत मिली है कि मै शुरु से ही यह कह सकता था। मेरी इच्छा है कि अधिक से अधिक लोग ऐसा ही महसूस करें। क्या आप कल्पना कर सकते हैं समाज कैसा होगा जब हर कोई यही सोच रखेगा? यह गुण तो पहले से ही सब में है। पर यह कहीं छिप गया है।

जब एक राष्ट्र का नेता ऐसा महसूस करता है तभी देश प्रगति करता है। और जब उसका ध्यान देश और देशवासियों पर केन्द्रित होता है तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि उसकी ज़रुरतें ना पूरी हों। पर जब हम केवल अपनी ज़रुरतों पर ही ध्यान देते हैं तो हम अपने को और अपनी कुशलता को पूर्ण रूप से निखरने का मौका नहीं देते। हमे हमेशा यही चिश्वास रखना चाहिए कि हमारी ज़रुरते पूरी होंगी।

इसका मतलब यह नहीं है कि कोई ज़रुरत महसूस होती हो तो आप ज़बरदस्ती मन बनाए कि, ‘नहीं मेरी तो कोई ज़रुरत ही नहीं है।’ यह भाव पूर्णता की स्थिति में पनपता है, ना कि अपनी ज़रुरतों को दबा देने से या अनदेखा करने से। जब तुम सर्वोच्च ज्ञान की ओर ध्यान देते हो तो तुम्हारी ज़रुरतें समय से पहले ही पूर्ण हो जाती हैं।

यह बहुत खुशी की बात है कि आर्ट ऑफ़ लिविंग समाज के विभिन्न वर्गों  को एक साथ ला रहा है। किसी भी धर्म का केन्द्र प्रेम ही है और आर्ट ऑफ़ लिविंग भी इसी प्रेम के सिद्धांत पर आधारित है, ‘मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए, मैं यहाँ आपके लिए उपस्थित हूँ।’ दुनिया में अधिक से अधिक लोगों को ऐसी सोच अपनानी चाहिये।

अगर हर कोई ऐसा ही सोचने लगे तो यहे दुनिया स्वर्ग बन जायेगी। पर, हर कोई अगर यह सोचे कि वह दूसरों से क्या ले सकता है, तो दुनिया की मौजूदा हालत तो हम देख ही रहे हैं!

हम दुनिया को स्वर्ग बनाने में लगे हुए हैं, और इस काम को होता देख कर बहुत खुशी हो रही है। तो, हर दिन हम यह मान कर आगे बढ़ते हैं कि, ‘मैं आपका हूँ।’  इस ज्ञान से प्रेम, कर्म, मस्ती और उत्सव का उदय होता है।



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अपने मन और बुद्धि को ईश्वर में विश्राम दो

हमारे शास्त्रों में तीन मुख्य दर्शन हैं -
न्याय
वैशेषिक
सांख्य
उसके बाद योग आता है।
न्याय - सीखने के बाद हम यह देखते हैं कि वो कहाँ तक सही है। जो सुना है और अनुमान से प्राप्त होने वाले ज्ञान में जो भेद है, इसे परखने का तरीका है न्याय।


वैशेषिक तरीके में पदार्थ और उसके गुणों का विश्लेषण करते हैं। चीनी में मिठास नहीं हो तो उसे फ़िर भी चीनी कहोगे क्या? पदार्थ में गुण होते हैं। वैसे ही जगह और काल को भी पदार्थ (तत्व) गिना है। काल का प्रभाव मन और बुद्धि पर पड़ता है। सुबह जो हमारे मन को अनुभूति होती है, वैसे श्याम को नहीं।


ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव भी मन पर पड़ता है। कभी श्रद्धा आती है, कभी द्वेष उमड़ के आता है। इस तरह से तरह तरह की लहर...भाव मन में उठना सहज है। पर यह जानना कि मैं इन सबसे अलग हूं, मैं आत्मा हूं, यह समझदारी का लक्षण है। पदार्थों के विश्लेषण के बाद मन को वहां टिकाना जो बदलता नहीं है। सब कुछ बदल रहा है पर कुछ ऐसा है जो कभी नहीं बदलता, और मन को वहाँ टिकाना सांख्य योग है। भक्ति माने क्या? 'ईश्वर में मन को लगाओ। ईश्वर में बुद्धि को टिकाओ।' इतना ही करना है। जब श्रद्धा डगमगाती है तो बड़ों से आशीर्वाद लो, योग करो।


मैत्री और करुणा - चित शांत हो जाये, इसके लिये मैत्री भाव रखो, करुणा भाव रखो। यदि किसी में अपूर्णता यां त्रुटि मन को परेशान करे तो उस कमी को नज़र अंदाज करो। किसी के प्रति द्वेष करना ज़हर पीने बराबर है। पातांजलि ने कहा, 'विपरीत भावना को मन में जगाओ।' यही साधना है। गुस्सा आया, तो करुणा जगायें, तो शरीर में एक नयी रसायन प्रक्रिया शुरु हो जायेगी।


गुरु का स्मरण इसीलिये ही करते हैं, रासायनिक प्रक्रिया बदल जाती है। उल्लास, आनंद, वैराग्य खुद ही उठने लगता है।


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विरोधाभास मूल्य एक दूसरे के पूरक हैं

बैंगलौर, भारत

सितम्बर १९ २०१०

जीवन जीव जगत नश्वर - अष्टावक्र

यहाँ पर बैठे सालों साल बीते जा रहें हैं। यहाँ सब कुछ खतम हो जाता है। अच्छा समय भी

चला जाता है और बुरा समय भी चला जाता है। यह याद करके खुश रहो। जीवन और साधना

अलग नहीं हैं, हमारा जीवन ही साधना है। साधना का अर्थ है पूर्ण विश्राम। तुम क्या

जानना चाहते हो? यहाँ सबकुछ नश्वर है। सब कुछ बदल रहा है - तुम्हारा शरीर, तुम्हारी

बुद्धि। सब कुछ विलीन हो जाएगा। ३० साल पलक झपकते ही निकल गए। काल इतनी

तेज़ी से भाग रहा है। अगर तुम्हे लगता है कि कुछ नहीं बदल रहा है तो वो है चेतना। वहाँ

अड्डा जमा लेते हैं। अब इस समय का अच्छे से उपयोग करें। जीवन को साधना मानो।

साधना वही है जिसमें श्रम नहीं है। श्रम से साधना से शरीर मज़बूत, कुछ हद तक मन और

कुछ कुशलता आएगी। उदाहरण के लिए, सितार, कम्प्यूटर, व्यायाम। पर साधना विश्राम से

ही होता है। विश्राम से हमे बोद्ध प्रेम प्राप्त होता है। श्रम से प्रेम नहीं प्राप्त होता।

विश्राम से सुख आता है, भाव जगता है और बुद्धि तीक्ष्ण होती है - कविता लिखी, साहित्य

उमड़ा, योग्यता मिलती है।

विश्राम माने जड़ता का विश्राम नहीं। सुबह क्यों योगासन करें? नहीं ऐसा नहीं। कुछ परिश्रम

के बाद ही विश्राम मिलता है। आलस्य मिट जाए, ऐसी इच्छा जागे की आलस्य मिट जाए।

कामना में उलझे रहना और फ़िर नींद में गए - तम से रज और रज से तम में घूमते रहते हैं।

यह बंधन है। सतोगुण विश्राम और ज्ञान से प्राप्त होता है। अष्टावक्र का सार - जाग्रित

अवस्था में सुखपूर्वक विश्राम, सात्विक विश्राम। वो विश्राम सच्चा विश्राम है। उस में मोह

माया छूटी।

शिव को महाकाल कहते हैं। समय के दोष को हरने वाला। समय का कुछ नियम है, कुछ तरीका

है। कुछ मनचाही, कुछ अनचाही बातें होती रहती हैं। प्रकति बार बार हमे यही सिखाती है,

विरोधाभास मूल्य एक दूसरे के पूरक हैं।



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मेरे लिए पूरा विश्व एक परिवार है

प्रश्न: मुझे लोगों से बात करने में बढ़ी हिचकिचाहट होती है। इसका क्या इलाज है?
श्री श्री रवि शंकर: जब तुम में अपनेपन की भावना पनपती है तो हिचकिचाहट सहज ही दूर हो जाती है।

प्रश्न: अपनेपन और आत्मीयता का भाव जगाने का समसे तेज़ तरीका क्या है?
श्री श्री रवि शंकर: जब तुम तनाव से मुक्त होते हो तो पाते हो तुम में आत्मीयता और अपनेपन की भावना है ही। यही होता है जब लोग आर्ट ऑफ़ लिविंग का कोर्स करते हैं। यह बहुत आसानी से ही हो जाता है।

प्रश्न: जहाँ हमे पता है कि योगा व्यक्तित्व के निखार के लिए महत्वपूर्ण है, क्या स्कूल में योगा एक आवश्यक विषय होना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर: हाँ, ज़रूर। बहुत से स्कूलों में योगा एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना दिया गया है।

प्रश्न: क्या आप किसी धर्म को मानते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: मैं जन्म से हिन्दू हूँ और मैं हिन्दू धर्म को मानता हूँ। पर जो साधना हम सिखाते हैं वो बहुत धर्म निरपेक्ष है। किसी भी धर्म के लोग इसका अनुसरण कर सकते हैं।

प्रश्न: विश्व एक परिवार - वासुदेव कुटुम्भकंम आपके लिए क्या है? इस परिवार को सुख देने के लिए हम क्या कर सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: मेरे लिए पूरा विश्व एक परिवार है। मैं जहाँ भी जाता हूँ, घर जैसा ही अनुभव करता हूँ। मुझे कभी ऐसा नहीं लगा मेरी नहीं है। इसके साथ साथ मैं परिवार की परंपरा के हक में भी हूँ, यह समाज का आधार है।

प्रश्न: मैं हमेशा कैसे खुश रह सकता हूँ?
श्री श्री रवि शंकर: सबसे पहले अपने मन से किसी भी वस्तु की हमेशा की पकड़ की दौड़ से हटाओ। फ़िर तुम पाओगे तुम खुश ही हो। और अगर कभी कुछ दुख के पल आते भी हैं तो उन्हे भी स्वीकार करो।

प्रश्न: आपका विश्व में शांति लाने का स्वपन बहुत बड़ा है। अगर हम जीवन में ऐसे लोगों से मिले जो किसी धारणा को लेकर बहुत ही कट्टर हैं तो उनसे कैसे निपटें?
श्री श्री रवि शंकर: ऐसे में हमें उन्हे धैर्य और संयम के साथ जागरूक करना है। यह आसान नहीं है। पर समय के साथ ऐसा होगा।

प्रश्न: किसी एक विशेष वर्ग के लिए क्या कोई विशेष अभ्यास हैं?
श्री श्री रवि शंकर: जो प्रोग्राम हम सिखाते हैं वो समाज के किसी भी वर्ग में तनाव कम करने के लिए बहुत लाभदायक हैं - चाहे आप बुढ़े हों या जवान। तनाव किसी भी क्षेत्र में आम बात है और यह अभ्यास अवश्य ही किसी को भी तनाव से बाहर लाने में बहुत उपयोगी है। आज हमें सबसे ज़रुरी क्या चाहिए समाज में - हिंसा मुक्त समाज, बीमारी रहित शरीर, भ्रम रहित बुद्धि और किसी भी सदमें से परे स्मृति। हम अपने में बहुत से संकोच बनाए रखते हैं। अगर आप को दस तारीफ़ मिली हो और एक अपमान वाली घटना हुई हो तो आपको क्या याद रहता है? स्मृति की इस प्रवृत्ति को समझना ज़रुरी है। दुख रहित आत्मा हर किसी का जन्म सिद्ध अधिकार है और यह अभ्यास आप में यह सभ ही लाते हैं।

प्रश्न: आज की दुनिया में लोगों को अपना अस्तित्व बनाए रखने के साधन खोजने की आवश्यकता पड़ती है। इससे कैसे निबटा जाए।
श्री श्री रवि शंकर: अस्तित्व बनाए रखने की कोशिश स्वाभाविक ही है। पर अगर आत्मविश्वास और दृष्टि का सही विकास हो तो ऐसा करने में कोई चेष्टा ही नहीं करनी पड़ती, और बिना किसी भय के अस्तित्व बना रहता है। इन सबके बारे में मैने मौन की गूँज और सच्चे साधक के लिए अंतरंग वार्ता पुस्तकों मे बताया है। अगर आप में कोई जिज्ञासा उठे तो आप यह पुस्तके पढ़ सकते हैं ।

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हम में एक अमुल्य शक्ति है

जब हम बच्चे की तरह हो जाते हैं तो हम एहसास करते हैं कि हम में एक अमुल्य शक्ति है। यह हम सब में, हरेक में है। इसका आभास होना सबसे खूबसूरत है। सौंदर्य कपड़ों में नहीं है। सुन्दरता एक भीतरी गुण है। हम जैसे अपने को पेष करते हैं वो महत्व रखता है पर अगर क्रोध, ईर्ष्या या लालच से भरे हों तो वो हमारे व्यक्तित्व में झलकता है और सब सौन्दर्य गायब हो जाता है। उस भीतरी सुन्दरता में कैसे लौंटे जो हम में जन्म से ही थी? आप कहीं भी जाएं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर या दक्षिणी ध्रुव पर - हर जगह बच्चे बहुत सुन्दर होते हैं। बच्चों से प्रेम और आनंद झलकता है। हम जैसे जैसे बड़े होते हैं हम कई कौशल विकसित करते हैं पर कहीं हम अपनी उस भीतरी सुन्दरता को बनाए नहीं रख पाते। क्या हम सभी कौशल बनाए रखने के साथ साथ उस सुन्दरता को भी बनाए रख सकते हैं जो हम में जन्म से ही थी? मैं कहुंगा - हाँ, और आर्ट ऑफ़ लिविंग उसी के बारे में है - जीवन को उत्सव बनाना; तनाव मुक्त, हिंसा मुक्त, बीमारी से मुक्त शरीर, किसी भी दुविधा से मुक्त मन और दुख से मुक्त आत्मा। ऐसा कौन है जिसे यह सब नहीं चाहिए? यह संभव है। आर्ट ऑफ़ लिविंग के पिछले ३० सालों में हमने यही देखा है कि दुनिया के हर कोने में हर किसी को प्रेम चाहिए - वो प्रेम जो केवल कोई भावना नहीं है पर जो हमारा अस्तित्व है। और वही हम बांटते हैं।

रशिया के टुयर की बात करें तो मुझे यहाँ बिल्कुल घर जैसा लगता है। यहां बहुत अच्छे लोग हैं और मैं चाहुँगा कि यह अपनापन यहाँ बना रहे। पर युवा पीढ़ी में यह अपना पन कहीं खोता नज़र आता है।

युवाओं में अधिक तनाव जमा हो रहा है। और हमें यह देखना है कि हमारी युवा पीढ़ी तनाव और अवसाद से मुक्त हो। WHO के अनुसार यूरोप के ३० प्रतिशत लोग अवसाद से पीड़ित हैं। हम सब यह संकल्प लेते हैं कि हम आगे ऐसा नहीं होने देंगे। हम एक खुशहाल संसार देखना चाहते हैं। मैं हर आंसु एक मुस्कुराहट में बदलते देखना चाहता हूँ। और इसीलिए योगा, प्राणायामा और क्रिया तनाव से दूर होने के लिए इतने ज़रुरी हैं।

नृत्य के लिए एक पैर ज़मीन पर और एक हवा में होता है। व्यवहारिक और आध्यात्मिक जीवन में अच्छा आधार जीवन को उत्सव बनाता है। इन दो पहलुऒं में समता ही शक्ति का स्रोत है और जब हम यह समता खो देते हैं तो अपने को मुश्किल में पाते हैं।

प्राचीन आध्यात्म ने हर सभ्यता और धर्म को जोड़ा है। आपको नहीं लगता इसी की आज हमें ज़रुरत है? धर्म के नाम पर कितने युद्ध और आतंकवाद हो रहा है। इसका एक इलाज यही है कि सब आध्यात्म में वापिस आएं। उस खूबसूरती और शक्ति स्रोत में वापिस आएं जो भीतरी है। हम अपने शब्दों से कई अधिक अपने अस्तित्व से व्यक्त करते हैं।

मुझे जो कहना था मैं सब कह चुका हूँ और अब मैं आपके प्रश्न आमत्रित करता हूँ।

प्रश्नोतर अगली पोस्ट में...
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पिछली पोस्ट से आगे...

प्रश्न : मैंने अपने जीवन के कई वर्ष बर्बाद कर दिये हैं। कम से कम, अब मैं कुछ करना चाहता हूं और सफल होना चाहता हूं। मैं ६० साल का हूं, क्या अब बहुत देर हो चुकी है?

श्री श्री रवि शंकर : नहीं! कभी भी देर नहीं हुई होती, बिल्कुल नहीं, चिंता मत करो। भूतकाल पर अफ़सोस मत करो। अब भी देर नहीं हुई है। मुस्कुराओ, खुश रहो, हां...तुम सही जा रहे हो, सही रास्ते पर हो और सही जगह पर हो। आगे बढ़ो! बहुत से काम करने हैं और मुझे बहुत सी मदद की आवश्यकता है। बहुत सारे हाथों को साथ लेकर ये बड़ा काम करना है। ठीक है! पूरी दुनिया को एक परिवार के रूप में साथ लाना है - इसमें हम सब की बहुत अहम भूमिका है। चलो मिल कर हम सब इस काम को करते हैं।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, कृपया सलाह देकर मेरी मदद कीजिये। मेरे पति कंप्यूटर गेम्स के दीवाने हैं और वो पूरी रात उन्हें खेल सकते हैं। मैं उनकी इस तीव्र इच्छा से छुटकारा कैसे दिलाऊं, और इस अवस्था में मैं उनकी क्या मदद कर सकती हूं? बहुत बहुत धन्यवाद!

श्री श्री रवि शंकर: पूरी रात कंप्यूटर गेम्स! एक काम करो - उन्हें एक कमरे में बंद कर दो और पूरा दिन कंप्यूटर गेम्स खेलने को कहो, ना कि केवल रात को ही। अगर वो अपने आप को एक कमरे में बंद कर के दिन रात खेल सकते हैं - एक पूरा दिन...तीन दिन बाद, चौथे दिन वो कंप्यूटर गेम्स को अलविदा कह देंगे।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, मैंने सुना है कि कुछ लोग बिना भोजन के जीने की तैयारी कर रहे हैं। क्या ये उचित है?

श्री श्री रवि शंकर : कुछ लोग भोजन के बिना जीते हैं, पर उनमें बहुत शक्ति नहीं होती, वे कुछ खास करते नहीं हैं। अगर तुम एक नाज़ुक सी गुड़िया की तरह कहीं बैठ कर कुछ ना करना चाहते हो, तो तुम्हें भोजन की ज़रूरत नहीं है।कुछ लोगों ने बहुत समय तक इसका अभ्यास किया है। मैं ऐसे एक व्यक्ति को जानता हूं जो यहां आश्रम में आया था। उसने कहा कि उसने पिछले ३० सालों से कुछ के बराबर खाया था।
ठीक है, ऐसा अभ्यास करने में तुम्हें कितना समय लगा? उसने कहा, १७ साल। १७ साल केवल सूर्य को देखता रहा और धीरे धीरे भोजन को कम करता रहा, फिर एक ऐसा समय आता है जब कुछ भी खाने की ज़रूरत नहीं पड़ती; पर उसने इसके अलावा जीवन में कुछ भी हासिल नहीं किया है। तो अगर तुम इसे ही अपने जीवन का ध्येय बनाना चाहते हो कि बिना खाये रहने का अभ्यास करो, तो ठीक है! तुम ऐसा कर सकते हो, इसमें कोई शक नहीं है। देखो, कुछ लोगों के साथ ऐसा स्वाभाविक रूप से हुआ है। कुछ लोगों का शरीर ही प्रकृति ने ऐसा बनाया है कि उन्हें खाना नहीं पड़ता। जब वे प्रसन्न रहते हैं और ध्यान करते हैं तो स्वाभाविक रूप से भोजन की मात्रा कम हो जाती है। मुझे भारत की दो महान हस्तियों की याद गई जो कि समकालीन थे - भगवान बुद्ध और भगवान महावीर
भगवान महावीर कुछ नहीं खाते थे, ऐसा कहा जाता है कि वे साल में केवल एक बार खाते थे, या, तीन बार खाते थे, ऐसा कुछ कहा है। उन्हें भोजन करने की आवश्यकता नहीं लगती थी। वे भी गौतम बुद्ध या भगवान बुद्ध की तरह एक राजकुमार थे और एक राजकुमार होते हुये भी जीवन का अर्थ जानने के लिये निकल गये थे। बहुत ही कम बार उन्होंने भोजन किया, किसी ने भोजन लाकर उन्हें अर्पण किया तो उन्होंने खा लिया।
तो, भगवान बुद्ध ने भी ये प्रयोग किया; उन्होंने भी कहा, ‘ठीक है, मैं भी नहीं खाऊंगा और जीवन का अर्थ खोजूंगा। बुद्ध ने ज़बरदस्ती भोजन नहीं किया और उनका शरीर इतना कमज़ोर पड़ गया कि वे ना बैठ सकते थे, ना चल सकते थे और ना ध्यान ही कर सकते थे, वे बहुत बेबस हो गये थे। उस समय उन्हे एक भक्त ने खीर दी। उन्होंने थोड़ी खीर खाई, और कुछ प्राण आये। तब बुद्ध ने घोषणा की कि अधिक उपवास करना बेकार है! जितना चाहिए, महिने में एक यां दो बार उपवास उचित है। उन्होंने कहा कि उपवास करने से आत्मज्ञान नहीं प्राप्त होता है। भगवान कृष्ण ने भगवद गीता में साफ़ शब्दों में कहा है कि अधिक खाने वाले के लिये भी योग नहीं है और ना ही बिल्कुल ना खाने वाले के लिये ही है। योग ऐसे व्यक्ति के लिये नहीं है जो आलसी है और कुछ नहीं करता और ना ही ऐसे व्यक्ति के लिये है जो बहुत अधिक काम करता है, ‘युक्ताहार विहारस्य उसी तरह योग ना तो उसके लिये है जो बिल्कुल नहीं सोता और ना ही उसके लिये है जो हर समय सोता ही है।

योग उसके लिये है जो कि मध्य मार्ग पर चलता है, और उसे दुख से, पीड़ा से, कष्ट से बाहर निकालता है। जीवन में दुख से बाहर आने की ही कोशिश रहती है और हम ऐसा कैसे कर सकते हैं? ‘युक्ताहार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु युक्त स्वप्नबोधस्य, योगो भवति दुखा।जो भोजन करने में, कर्म करने में, सोने में, विश्राम करने में मध्य मार्ग पर चलता है, योग उसी के लिये है। योग से आत्मज्ञान होता है। योग से ऐसी स्थिति में पंहुचते हैं कि दुख से मुक्ति हो जाती है।

मध्य मार्ग का क्या अर्थ है? दिन में तीन बार भोजन करना मध्य मार्ग है, दो बार भोजन करना मध्य मार्ग है। एक बार भोजन करना? मध्य मार्ग? मध्य मार्ग क्या है ये आपको देखना है।

जब भूख लगे तब खाओ, उतना ही खाओ जितना आवश्यक है। आर्ट आफ़ लिविंग ने तुम्हें इतनी बढ़िया साधना पद्दत्ती दी है जो कि आज के व्यस्त जीवन के अनुकूल है, तुम्हारे शरीर के अनुकूल है, वातावरण के अनुकूल है, सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण के अनुकूल है।


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Global Website का शुभारंभ


गुरुजी के "वसुधैव कुटुम्बकम"
के सपने को पूरा करने में 
एक और कदम 
सभी देशों में फ़ैले "आर्ट ऑफ़ लिविंग परिवार"
के लिए एक सामुहिक वेबसाइट




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पूरी सृष्टि तुम्हरी देख भाल कर रही है

जर्मन आश्रम
अगस्त २७, २०१०

प्रश्न: प्रिय गुरुजी, ॐ नम: शिवाय’भजन इतना तीव्र है और इसका इतना महत्व है और आज सुबह आपने जिन कठिन परिस्थितियों के बारे में बताया था, उनमें यह कैसे लाभदायक होता है? पिछले साल हमें याद है कि हमने कुछ नये भजन गाये थे और आपने हमें इस भजन को भी गाने को कहा था।
श्री श्री रवि शंकर :
हाँ, ॐ नम: शिवाय एक शक्तिशाली मंत्र है। मंत्र के शब्दध्वनि से जो ऊर्जा उत्पन्न होती है, वह हमारी चेतना के विकास में सहायक होती है। यह गहरे व सूक्ष्म स्तर पर लाभदायक है। ॐ नम: शिवाय में निहित पाँच स्वर ’न’, ’म’, ’शि’, ’वा’ और ’य’ पाँच तत्व- पृथवी, जल, अग्नि, वायु व आकाश के प्रतीक हैं, और ’ॐ’ सम्पूर्ण ब्रहमांड की ध्वनि है। ॐ प्राण शक्ति का प्रतीक, ॐ मतलब शान्ति व प्रेम। और जब पाँचों तत्वों में लय औत शांति होती है तो केवल परम आनन्द और परम सुख है!
ॐ नम: शिवाय मंत्र ब्रह्माँड के सूक्ष्म स्तरों को ऊर्जित करने वाला और उस उच्चत्तम सर्वलौकिक चेतना का सूचक है।
 
प्रश्न: कभी कभी मुझे लगता है कि इतने करोड़ों लोगों व अन्य जीव जन्तुओं के बीच, इस जगत में मेरे अस्तित्व का कोई महत्व नहीं है। फिर मेरे जीने का क्या उद्देश्य है? कई बार आत्महत्या के विचार मन में उठते हैं।
श्री श्री रविशंकर:
तुम आत्महत्या के बारे में सोच रहे हो? कभी नहीं। यह कृत बुद्धिहीनता का है। आत्महत्या करना यह कहने समान है कि मुझे ठंड लग रही है और इसलिए मैं कोट उतार रहा हूँ। यह बात कहने समान है कि बहुत गरमी लग रही है और इसलिये पाँच क्म्बल ओढ़ने है। कठिनाइयाँ तो आती रहती हैं जीवन में पर तुम उन कठिनाइयों से कहीं बढ़कर हो। याद रखो जीवित रहने के लिये सदा पर्याप्त साधन होंगे, तुम्हरी कोई रक्षा कर रहा है। पूरी सृष्टि तुम्हरी देख भाल कर रही है, तुम्हें आत्महत्या करने का कोई अधिकार नहीं है।
हमारा शरीर सृष्टि की सम्पत्ति है और वही तुम्हारे शरीर की भी देख भाल करेगी। तुम्हारी आत्मा परमात्मा की देन है, वही दिव्य शक्ति तुम्हारी आत्मा की देख रेख भी करेगी। आत्म विश्वास रखो और आगे बढ़ो। कठिनाइयों का मुकाबला करते हुए आगे बढ़ो। किस पर कष्ट नहीं आते? किस पर मुसीबतें नहीं पड़ी भूतकाल में? हर एक के जीवन में कोई ना कोई कठिनाई आयी ही है।
बुद्धिमान लोग मुस्करा कर उसमें से निकल जाते हैं, पर बेवकूफ़ लोग दुखी रहते हैं और दूसरों को भी दुखी करते हैं। यदि कभी ऐसी भावना उठे मन में, तो सुदर्शन क्रिया करो और एडवान्स कोर्स में भी बैठो, ठीक है, चिंता ना करो, तुम्हारा सब कुछ ठीक होगा!

प्रश्न : मेरे अपने मन में बातें होती रहती हैं, मैं इनसे कैसे निपटूँ?
श्री श्री रवि शंकर :
चलो, आखिर अब तुम्हें इस बात का बोध तो हुआ! यह सब तो बहुत पहले से चल रहा था, पर तुमने अब पहला कदम ले लिया है - इसके प्रति सजगता। इसीलिये यहाँ हमारे कोर्स में केवल ज्ञान ही नहीं है, गान भी है।
इन प्रक्रियाओं में जो भी सिखाया जा रहा है, इन्हें करते रहने से मन शान्त होता चलेगा। इस एडवान्स कोर्स में तुम मन को शांत ही कर रहे हो। शुरु शुरु में कई विचार आते जाते रहेंगे। यह ऐसे ही है जैसे जब हम बहुत समय के बाद किसी कमरे की धूल निकाल कर साफ़ करते हैं तो पहले काफ़ी धूल निकलती है और जब बार बार सफ़ाई करते हैं तो धीरे धीरे कमरा साफ़ हो जाता है। वैसे ही मन की सफ़ाई के लिये कई एडवान्स कोर्स की जरूरत है। आप में से जिन्होंने दो, तीन, चार बार यह कोर्स किया है, आपने ध्यान दिया होगा कि अब मन शीघ्र ही शान्त हो जाता है।

शेष अंश अगली पोस्ट में...

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"विवेकशील तपस सभी तरह की यातनाओं से बाहर आने का उपाय है"

प्रश्न : लोगों को क्रोध से कैसे दूर किया जा सकता है, क्योंकि क्रोध करने वालों के साथ रहना कभी कभी बड़ा मुश्किल हो जाता है?

श्री श्री रविशंकर : केवल ज्ञान के द्वारा! विवेक, ज्ञान और ध्यान से।

प्रश्न: हमारी चेतना के किसी स्तर पर, जैसे कि स्मृति पर किसी सदमे या अन्य दुख से प्रभाव पड़ा हो तो उसका कितना असर रहता है और उससे उभर कर वापिस अपने आनंदस्वरूप में कैसे लौटा जा सकता है?

श्री श्री रविशंकर :
ध्यान द्वारा! जैसे अभी तुम कर रहे हो। योग, प्राणायाम और ध्यान से सब ठीक हो जाता है। हम अपने शरीर के साथ इतना दुर्व्यवहार करते हैं कि अगर हम इसका इस्तेमाल लंबे समय के लिए करना चाहतें हैं तो इस तरह का ध्यान देना आव्श्यक हो जाता है। इसी तरह हमने अपनी साँस का उपयोग और दुरुपयोग किया है। इन सबसे हमारा मन, बुद्धि, पूरा शरीर और जीवन्क्रम - सब उलट-पुलट होकर कष्टदायक हो जाता है और इन सबके अनुभव हमारी स्मृति में जमा हो जाते हैं। पर याद रहे, ये सब ध्यान द्वारा ठीक किये जा सकते हैं। एक बार अपनी आत्मा से साक्षात्कार होने से, स्मृति की परतों में पड़े घाव भी भर जाते हैं। एक बार जब तुम्हें अपनी चिन्ता, दुख या किसी सदमे के कारण का आभास हो जाता है, तब तुमहें यह पता चलता है कि तुम किसी भी अनुभव से बहुत ऊपर हो। और फिर यह भी सोचो, इस दुनियाँ में कितने करोड़ों लोग हैं और इन सब के कितने अनुभव हैं।

अब देखो पाकिस्तान में क्या हुआ?- बाढ़ आयी, कितने लोगों को आघात लगा। भारत के लेह लद्दाख में क्या हुआ?-अचानक बादल फटने से कितनी तबाही हुई- लोगों का घर बार, सब कुछ मिट गया! और फिर देखो, ये आतंकवादी, तालिबान व अन्य दल कितना आतंक फैला रहे हैं लोगों में। टाइम्स पत्रिका का आवरण पेज देख कर तो दिल दहल जाता है! अफ़गानिस्तान में महिलाओं के नाक काटे हैं तालिबान ने। इन सब अनुभवों के साथ रहते हुए भी लोग जिंदा हैं और जी रहे हैं। और हम परेशान हो रहे हैं अपनी छोटे मोटे दुखद अनुभव से! हर व्यक्ति को कुछ ना कुछ दुखद अनुभव होता ही है जीवन में, पर होश में आने पर पता चलता है कि ये छोटा सा दुखद अनुभव अन्य बातों की तुलना में कुछ भी नहीं है। तो यदि तुम दुनियां की अन्य बड़ी समस्याओं पर गौर करो तो तुम्हें अपनी समस्या कुछ भी नहीं लगेगी, ठीक है ना?

प्रश्न : मेरा एक सवाल है। जहाँ यह सब प्रकोप पाकिस्तन में हुआ, वही जगह आतंकवाद से भी सबसे ज्यादा प्रभावित है। क्या इसका लोगों के कर्मों से और प्रकृति के प्रकोप से कोई सम्बंध है?

श्री श्री रविशंकर :
ऐसे वक्त लोगों को यह कहना ठीक नहीं कि वे अपने कर्मों के कारण ये प्राकृतिक यातनाएं सह रहे हैं। यह विपत्ति प्राकृतिक कारण से हुई । शास्त्रों में तीन तरह की यातनायें बतायी गयी हैं।
ये तीन तरह की विपदायें हैं-

पहली- आदि भौतिक, जो प्राकृतिक कारण से होती है,

दूसरी- आदि दैविक विपदायें जो मनुष्य द्वारा उत्पन्न होती है, या कह सकते हो मनुष्य के अपने दुष्कर्मों के कारण पैदा करी हुई यातनायें,

और तीसरी विपदा है आध्यात्मिक- जिसे शायद आप ईसाई धर्म में, ’डार्क नाइट औफ़ सोल’ (आत्मा की काली रात) के नाम से कहते हो। इसमें सब कुछ होते हुए भी यातना महसूस होती है। धन दौलत, पदवी ,नाम-शौहरत सब कुछ हासिल करने के बाद भी मन पर एक उदासी और अंधकार की छाया का आभास होता रहता है। छटपटाहट होती रहती है, इस अंधकार को कैसे काटें? आत्मा में एक बेचैनी और अकुलाहट सी लगती है, एक आन्तरिक शून्यता का आभास होता है-जहाँ कोई सुख महसूस नहीं होता, सब कुछ मरा- मरा सा और बेकार लगता है।

इन तीन यात्नाओं को ’तापात्रिय’ कहते हैं। ताप यानि-दुख, कष्ट, पीड़ा, यात्ना और मनुष्य जीवन इन्हीं तीन प्रकार के कष्टों से प्रभवित होता है। तो इनसे उभरने का उपाय कैसे हो?- तपस से!

’तपस’- यानि सहनशीलता, ज्ञान, बोध, ध्यान, योग, प्राणायाम- ये सब। और तपस से इन तीन बताये गये तापों को मिटाया जा सकता है।

प्रश्न : कई बार हम अपने आप को आपसे जुड़ा नहीं पाते हैं, इसको कैसे सुधारें?

श्री श्री रवि शंकर : कभी कभी ना? तुम थोड़े समय दूर रहने के बाद फिर वापस जुड़ाव महसूस करने लगते हो, है ना। कोई बात नहीं।

प्रश्न : प्राकृतिक प्रकोप केवल कुछ ही स्थानों में क्यों होता है?

श्री श्री रवि शंकर :
कुछ स्थानों में ही प्राकृतिक प्रकोप क्यों होता है, मुझे नहीं मालूम, आपको इसके लिये धरती माता को पूछना होगा! हाँ, एक बात मैं बता सकता हूँ कि इस धरती का हम बहुत शोषण कर रहे हैं। प्रतिदिन इतना बारूद जो इसकी गोद में ड़ाला जाता है, विस्फोट किए जाते हैं तो उससे फिर धरती कंपन नहीं करेगी क्या? खान खोदना आज कल एक नया व्यापार बन गया है। दुनिया भर में, ५-६ कम्पनियाँ मिल कर बस खुदाई और खुदाई ही किये जा रही हैं और जितना धरती दे सके उससे ज्यादा की मात्रा में उसकी सामग्री को खत्म किये जा रहे हैं।

शेष अंश अगली पोस्ट में..

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"जन्माष्टमी का एक नया परिप्रेक्ष्य"

श्री श्री रविशंकर

जनमाष्टमी का दिन श्री कृष्ण के जन्म को मनाने का उत्सव है। अष्टमी एक महत्वपूर्ण दिन है। यह दर्शित और अदर्शित सत्यता, तथा दिखते हुए इस जगत लोक और अदृश्य आध्यात्मिक लोक के पूर्ण सन्तुलन को दर्शाता है।
कृष्ण का जन्म अष्टमी पर होना उनका सांसारिक लोक व आध्यात्मिक लोक दोनों पर आधिपत्य यां स्वामित्व होने को दर्शाता है। वह एक गुरु और आध्यात्मिक पथ प्रदर्शक के साथ-साथ एक कुशल राजनीतिज्ञ भी हैं। एक तरफ़ वे योगेश्वर (सब योग के अधिपति, एक ऐसा स्थान जिसे सब योगी पाना चाहते हैं) के रुप में जाने जाते हें तो दूसरी तरफ़ एके चोर के रूप में (माखन चोर)!

सबसे अद्वितीय गुण श्री कृष्ण का यह है, कि जहाँ एक संत के रूप में उनका चरित्र इतना श्रेष्ठ व पवित्र माना गया है, वहीं दूसरी ओर उन्हें सबसे शरारती और नट्खट माना गया है!
उनका व्यवहार दोनों चरम में पूर्ण समता दर्शाता हैं - शायद इसीलिये श्री कृष्ण को समझ पाना बहुत कठिन है। कोई अवधूत इस भौतिक जगत से अपरिचित सा लगता है तो कोई सांसारिक, राजनैतिक, या राज व्यक्ति, आध्यात्मिकता से अपरिचित लगते हैं, पर कृष्ण तो दोनों ही थे - द्वारकाधीश और योगेश्वर रूप में।
कृष्ण का दिया ज्ञान आज के युग में सबके लिये सबसे अधिक प्रासंगिक और उचित है, क्योंकि वह ना तुम्हें संसार की भौतिक साधनों में पूरी तरह से ड़ूबने देता है और ना ही संसार से भागने देता है। यह ज्ञान पुनर्जीवन देता है जिससे एक तनाव भरे, और बुझे व्यक्तित्व की बजाय एक संतुलित व जोशीला व्यक्तित्व उभरता है ।
कृष्ण हमें कुशलता से भक्ति सिखाते हैं। गोकुलाष्टमी उत्सव मनाने का अर्थ है इन विपरीत परंतु अनुकुल गुणों को अपने जीवन में सम्मिलित करना।

इसलिये जनमाष्टमी उत्सव मनाने का सबसे उचित तरीका यही होगा कि तुम द्विपद किरदार को निभाओ - देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने का और साथ ही साथ इस बात को ध्यान में रखने का कि तुम सब घटनाओं से परे, उनसे अप्रभावित केवल मात्र ब्रह्मन स्वरूप हो! कुछ अवधूत के और कुछ कार्यशीलता के अंश अपने जीवन में शामिल करना ही जनमाष्टमी का असली उद्देश्य है।


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