मेरे जीवन में ज्ञान का प्रकाश सदैव रहे

बैगलोर आश्रम, भारत

यह शुक्ल पक्ष का समय ईश्वर आराधना के लिये विशेष रहा है। हम प्रति दिन पूजा करते हैं। आज अंतिम दिन है और शरद पूर्णिमा भी है। हर पूर्णिमा की तिथि का एक विशेष ऐतिहासिक महत्व है।
वैशाख मास (अप्रैल/मई) में आने वाली बुद्ध पूर्णिमा, गौतम बुद्ध के जन्म, आत्मज्ञान पाने और महासमाधि की तिथि है। आषाण पूर्णिमा, महर्षि वेद व्यास को समर्पित है। व्यास जी भौतिक  और आध्यात्मिक, दोनों ही विषयों के महाज्ञानी थे। वे जगत को भी जानते थे और आत्मा को भी। वेद व्यास जी ने सभी प्रकार के ज्ञान को सुव्यवस्थित  किया।
पिछली पूर्णिमा अनंत को समर्पित थी। अनंतता का उत्सव - कोई दीवार नहीं, कोई आदि या अंत नहीं।
यह पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा है - सबसे उज्ज्वल, कोई दाग नहीं, ये लंबी भी चलती है, पूर्ण चन्द्र का उत्सव। हज़ारों साल पहले भगवान श्री कृष्णः ने इसी शरद पूर्णिमा के अवसर पर गोपियों के साथ नृत्य (रास) किया था। गोपियों के भक्ति का आचार्य कहा गया है। शरद पूर्णिमा नृत्य और उत्सव के लिये जाना जाता है। सभी भक्त भगवान श्री कृष्णः के साथ नृत्य करना चाहते थे। नाचते हुये सभी ने उन्हें अपने साथ ही पाया। शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा, सौंदर्य का भी प्रतीक है। आकाश साफ़ है, और बड़ा सा पूर्ण चन्द्र चमकता है। हमारा मन भी चन्द्रमा से संबंध रखता है। जब चन्द्रमा पूर्ण हो तो मन भी पूर्ण होता है। इस दिन ऊर्जा बहुत अधिक होती है, और उत्सव से ये और अधिक हो जाती है। परंतु, इस ऊर्जा का सही प्रयोग आवश्यक है।
हर पूर्णिमा पर हम उत्सव का कोई ना कोई प्रयोजन ढूंढ लेते हैं। आध्यात्मिक उत्सव। यह शुक्ल पक्ष एक दैवी समय था। हमने पूजा और यज्ञ किये। पूजा क्या है? जो ईश्वर हमारे लिये करते हैं, उसी का अनुकरण करना, पूजा है। भगवान सूर्य और चन्द्र को हमारे चारों तरफ़ घुमाते हैं, हमें बारिश, फल-फूल, इत्यादि देते हैं, तो हम भी इस ईश्वरीय प्रेम की अभिव्यक्ति का अनुकरण करते हैं। पूजा, अपनी कृतज्ञता और सम्मान दर्शाने का सब से स्वाभाविक तरीका है। हम पूजा में बिताये गये इस शुक्ल पक्ष के सुंदर समय की पूर्णाहुति, हृदय के उमड़ते आनंद के साथ इस संकल्प से करें कि, ‘मेरे जीवन में प्रकाश रहे और मेरे आस पास ज्ञान हमेशा रहे। मैं जीवन के प्रकश को अपने भीतर ग्रहण करूं। मैं प्रेम और ज्ञान को स्वीकार करूं।’

दिव्य शक्ति हर जगह है, जैसे कि हवा हर जगह है। पर, पंखे के पास हवा का विशेष अनुभव होता है। उसी तरह, दिव्य शक्ति हर जगह है, पर पंखे के पास उसका विशेष अनुभव होता है। ज्ञान, यज्ञ और गुरु उस पंखे की तरह हैं, जिस के पास आने पर उस दिव्य शक्ति का विशेष अनुभव होता है।

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मेरे जीवन में ज्ञान का प्रकाश सदैव रहे

बैगलोर आश्रम, भारत

यह शुक्ल पक्ष का समय ईश्वर आराधना के लिये विशेष रहा है। हम प्रति दिन पूजा करते हैं। आज अंतिम दिन है और शरद पूर्णिमा भी है। हर पूर्णिमा की तिथि का एक विशेष ऐतिहासिक महत्व है।


ैशाख मास (अप्रैल/मई) में आने वाली बुद्ध पूर्णिमा, गौतम बुद्ध के जन्म, आत्मज्ञान पाने और महासमाधि की तिथि है। आषाण पूर्णिमा, महर्षि वेद व्यास को समर्पित है। व्यास जी भौतिक  और आध्यात्मिक, दोनों ही विषयों के महाज्ञानी थे। वे जगत को भी जानते थे और आत्मा को भी। वेद व्यास जी ने सभी प्रकार के ज्ञान को सुव्यवस्थित  किया।


पिछली पूर्णिमा अनंत को समर्पित थी। अनंतता का उत्सव - कोई दीवार नहीं, कोई आदि या अंत नहीं।

यह पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा है - सबसे उज्ज्वल, कोई दाग नहीं, ये लंबी भी चलती है, पूर्ण चन्द्र का उत्सव। हज़ारों साल पहले भगवान श्री कृष्णः ने इसी शरद पूर्णिमा के अवसर पर गोपियों के साथ नृत्य (रास) किया था। गोपियों के भक्ति का आचार्य कहा गया है। शरद पूर्णिमा नृत्य और उत्सव के लिये जाना जाता है। सभी भक्त भगवान श्री कृष्णः के साथ नृत्य करना चाहते थे। नाचते हुये सभी ने उन्हें अपने साथ ही पाया। शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा, सौंदर्य का भी प्रतीक है। आकाश साफ़ है, और बड़ा सा पूर्ण चन्द्र चमकता है। हमारा मन भी चन्द्रमा से संबंध रखता है। जब चन्द्रमा पूर्ण हो तो मन भी पूर्ण होता है। इस दिन ऊर्जा बहुत अधिक होती है, और उत्सव से ये और अधिक हो जाती है। परंतु, इस ऊर्जा का सही प्रयोग आवश्यक है।


हर पूर्णिमा पर हम उत्सव का कोई ना कोई प्रयोजन ढूंढ लेते हैं। आध्यात्मिक उत्सव। यह शुक्ल पक्ष एक दैवी समय था। हमने पूजा और यज्ञ किये। पूजा क्या है? जो ईश्वर हमारे लिये करते हैं, उसी का अनुकरण करना, पूजा है। भगवान सूर्य और चन्द्र को हमारे चारों तरफ़ घुमाते हैं, हमें बारिश, फल-फूल, इत्यादि देते हैं, तो हम भी इस ईश्वरीय प्रेम की अभिव्यक्ति का अनुकरण करते हैं। पूजा, अपनी कृतज्ञता और सम्मान दर्शाने का सब से स्वाभाविक तरीका है। हम पूजा में बिताये गये इस शुक्ल पक्ष के सुंदर समय की पूर्णाहुति, हृदय के उमड़ते आनंद के साथ इस संकल्प से करें कि, ‘मेरे जीवन में प्रकाश रहे और मेरे आस पास ज्ञान हमेशा रहे। मैं जीवन के प्रकश को अपने भीतर ग्रहण करूं। मैं प्रेम और ज्ञान को स्वीकार करूं।’


दिव्य शक्ति हर जगह है, जैसे कि हवा हर जगह है। पर, पंखे के पास हवा का विशेष अनुभव होता है। उसी तरह, दिव्य शक्ति हर जगह है, पर पंखे के पास उसका विशेष अनुभव होता है। ज्ञान, यज्ञ और गुरु उस पंखे की तरह हैं, जिस के पास आने पर उस दिव्य शक्ति का विशेष अनुभव होता है।
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स्थिति को स्वीकार कर लेना मन में तुरंत शांति लाता है।

बैंगलोर आश्रम, भारत
अक्टूबर 18, 2010

प्रश्न : हम ये कैसे जाने कि हमे किस हद तक सत्य की खोज करनी चाहिये?

श्री श्री रवि शंकर : एक बहुत खूबसूरत कहानी है। एक बार एक साधू और एक आदमी के बीच चर्चा होनी थी। वह आदमी एक ही आँख से देख सकता था और सुन नहीं सकता था। उसका बड़ा भाई सोचता था कि वो बहुत बेवकूफ़ है। तो उसके भाई ने उसे चर्चा में चुप रहने का सुझाव दिया। साधु को बताया गया कि वह आदमी मौन में है। पर साधु को एक प्रश्न पूछना था। साधू ने इशारों में बात करते हुए एक उंगली दिखा कर पूछा, "ऐसा कौन सा एक परम सत्य है" तो आदमी ने सोचा कि साधु उसकी एक ही आँख होने के कारण उसका मज़ाक उड़ा रहा है। उसने गुस्से में उसे दो उंगलियां दिखाई। इस पर साधु बोला, " हाँ, सत्य दो हैं - ब्रह्म और माया।" थोड़ा सोचने के बाद साधु फिर बोला, "नहीं, सत्य तीन हैं - ब्रह्म, माया और दोनो के बीच में कुछ। इस पर आदमी ने सोचा कि साधू फिर से उसका मज़ाक उड़ा रहा है कि केवल तीन आँखों में ही बातचीत हो रही है, और उसने गुस्से में साधू को मुठ्ठी दिखाई। साधु फिर उस की बात का अपना अर्थ निकाल कर बोला, "हाँ, वास्त्विकता में तो सब एक ही है। इतना कहकर साधू उस आदमी के भाई से कहने लगा, "आपका भाई तो बहुत बुद्धिमान है, वो ब्रह्माण्ड का रहस्य जानता है।

ज्ञान तो सृष्टि के हर कण में व्यापक है और यह आप पर निर्भर करता है कि आप कितना ले सकते हैं।

प्रश्न: यह कहानी सुनते समय मैं यह समझ गया कि मैं दुनिया को अपने मन की कुछ धारणाओं से ही देख रहा हूँ। पर मेरी एक समस्या है कि मैं हमेशा हर चीज़ में कुछ गलत ही देखता हूँ। मैं क्या करुँ?

श्री श्री रवि शंकर: स्वीकार कर लेने का अवसर जीवन में कई बार आता है। क्या तुमने कभी गौर किया है तुम जीवन में कितनी बार परिस्थिति, व्यक्ति या वस्तु में दोष देखते हो? दोष देखना गलत नहीं है, जब दोष देखते हो तभी तो उसका निवारण कर सकते हो। पर सिर्फ़ दोष ही देखते रहना, अगर यह आत्मा में गहरा बैठ जाए तो धीरे धीरे तुम्हे पता भी नहीं चलता तुम स्वयं वो दोष बन जाते हो। फ़िर तुम वैसी ही परिस्थिति अपने आसपास आमंत्रित करते हो और तुम्हारे संकल्प की शक्ति कम हो जाती है।

एक प्रयोग करके देखो - तुम अपने किसी दोस्त या घर के सदस्य से पूछो कि कितनी बार तुम दोष देखते हो या कहते हो यह ठीक नहीं है, या वो ठीक नहीं है। तुम खुद हैरान हो जाओगे! तुम हर साल अपनी मानसिकता में विकास देख सकते हो। मन के प्रति सजगता की आवश्यकता है।

प्रश्न : क्या आध्यात्म के मार्ग में स्त्री या पुरुष में कोई फ़र्क है?

श्री श्री रवि शंकर : चेतना के स्तर पर किसी भी वस्तु में कोई भी भेद नहीं है।

प्रश्न : मेरे जीवन का क्या उद्देश्य क्या है?

श्री श्री रवि शंकर: इससे पहले तुम यह जानो कि क्या तुम्हारे जीवन का उद्देश्य नहीं है - सिर्फ़ खाना, सोना या टी वी देखते रहना जीवन का उद्देश्य नहीं है। सिर्फ़ अपने लिए आनंद ढूंढना जीवन का उद्देश्य नहीं है। हमें जानवरों से क्या अलग करता है? जानवर भी खा कर, सो कर खुश हो जाते हैं। थोड़ी बहुत देखभाल और अपनेपन की भावना जानवरों में भी होती है। तुम्हे पता है जब हाथी का बच्चा बीमार हो तो वो भी नहीं खाता। हमें मनुष्य जीवन मिला है। हम यहाँ दूसरों की देखभाल करने के लिए हैं। अपने जीवन को अधिक उपयोगी बनाओ।

हमारे भीतर में जो "मैं" है, वो क्या है? क्या "मैं" केवल यह शरीर हूँ, या मन, बुद्धि, श्वास, अहंकार या स्मृति हूँ। उत्तर की चिंता मत करो। केवल यह प्रश्न ही तुम्हे ध्यान में गहरा लेकर जाएगा।

प्रश्न: अपनी आध्यात्मिक उन्नति नापने का मापदण्ड क्या है?

श्री श्री रवि शंकर: जब तुम कनवेयर बेल्ट के ऊपर आ गये हो तो खुदबखुद बढ़ते ही जाओगे, ये जान कर तुम्हें विश्राम करना चाहिये।

प्रश्न : मैं बहुत संवेदनशील हूं।मुझे क्या करना चाहिए ?

श्री श्री रवि शंकर: तुम अपने आप पर ये लेबल क्यों लगा रहे हो? लेबल लगाने से तुम्हारी ऊर्जा तुम्हें उसी दिशा में ले जाती है। जब तुम में ऐसे भाव जागे, तो जान लो कि ये प्रार्थना करने का समय है। अपना मन और हृदय दिव्य शक्ति को समर्पित कर दो। अपनी बुद्धि, अपना मन, अपना हृदय, सब कुछ दिव्य शक्ति यां ईश्वर को समर्पित कर दो।

प्रश्न : किसी नास्तिक व्यक्ति को इस पथ पर कैसे लायें?

श्री श्री रवि शंकर :उससे कहो कि शुरुआत के लिए यह बिलकुल सही कदम है।

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प्राचीन ज्ञान पूर्ण रूप से वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है

16 अक्टूबर, 2010, बंगलौर, भारत
(वीणा बजाने से पहले गुरुजी ने 7 तारों में लय बिठाई)
संगीत तब होता है जब सांतों तार लय में होते हैं। हम यहाँ यही कर रहे हैं। सात स्तर - शरीर, मन, श्वास, बुद्धि, चित्त, अहंकार और आत्मा, जब सब लय में होते हैं तो दिव्य संगीत होता है।
हर एक प्राणी इस जगत में विशिष्ट तरंगे उतारता है, और अगर एक भी प्राणी खत्म हो जाए तो पृथ्वी टिक नहीं पाएगी। सुअर भी है, सांप भी है, कौआ भी है, मच्छी भी है, गाय भी है - सब तरह के जानवर हैं और इन सबके होने से हम होते हैं। वैज्ञानिक भी आज यही कहते हैं - प्राकृतिक नियम के अनुसार हर चीज़ से तरंग निकलते हैं। शेर के माध्यम से माँ दुर्गा की तरंग धरती पर आती है। जब कहते हैं माँ दुर्गा का वाहन शेर है तो उसका अर्थ यही होता है उस माध्यम से वो दिव्य तरंग उतरती है। प्रकृति अपने नियमों के अनुसार जानवरों को पैदा कर चुकी है। वो जानवर कहीं भी हों, उनके माध्यम से वो तरंग हमे मिलती है।
कौआ शनी देव की तरंग उतारता है। यह अदृश्य तरंगे इन जानवरों के होने से ही उपलब्ध हो रही हैं।
बैल - भगवान शिव की तरंग,
चूहा - भगवान गणेश की तरंग।
हम बहुत निश्चित रूप से तो नहीं कह सकते कौन सा जानवर कौन सी तरंग लाता है, क्योंकि अभी इस पर और संशोधन करने की आवश्यकता है। पुराने समय से हर चीज़ का संबंध ब्रह्म से जोड़ा गया है।
कितनी अच्छी बातें हैं और हम अनावश्यक बातों को पकड़कर बैठ जाते हैं, और सार छोड़ ही देते हैं। आने वाली पीढ़ि में गलत ज्ञान और अंधविश्वास तो भेज देते हैं पर असल सार नहीं देते।
 
हर मनुष्य को दिन में 5 कर्म करने होते हैं।
ब्रह्म यज्ञ - शांत बैठकर आत्म मंथन - मैं कौन हूँ? मैं यहाँ पर कब से हूँ?
वैश्न देन - पशु पक्षियों को खिलाना।
अतिथि सत्कार।
पेड़ पौधों का सरंक्षण।
कुछ ज्ञान पर विचार करना:जैसे भगवद गीता के कुछ श्लोक।
सभी चीज़ें समझ तो नहीं आ सकती, पर जब कुछ अनुभव होता है तो फ़िर थोड़ा बहुत समझ भी आता है, और थोड़ी जानने की प्यास भी होनी चाहिए।
एक तरफ़ा नही होना है।
गीता में भी बहुत खूबसूरत कहा है -
“न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषो अश्नुते।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥”.
मध्य मार्ग ही स्वर्ण मार्ग है।
बहुत ज़्यादा कर्म कांड में भी नहीं उलझना और इसकी निन्दा भी नहीं करनी है - मध्य मार्ग।
कर्म से नहीं, धन से नहीं, कीर्ति से भी नहीं पर अपने में ठहरने से सब होता है। भाव की ही प्रधानता है। प्रभु सिर्फ़ भाव से प्रसन्न होते हैं। और भाव के लिए क्या करें? संगीत, योग, मंत्र, ध्यान - सब हमारे भाव को शुद्ध करता है।
पुराने ज़माने के लोग इतने तीव्र बुद्धि के थे कि हर चीज़ में ब्रहांड को समाया। किसी भी चीज़ को एक देशीय नहीं रहने दिया।
यष्टि और समष्टि का संबंध जोड़ दिया - सबमें कितना वैज्ञानिक रहस्य है।


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अष्टमी

15 अक्टूबर, 2010

हम आज यज्ञों की चरम सीमा पर आ रहे हैं। दुर्गा सप्तशती के 13 अध्याओं में से श्लोक पढ़े जा रहे हैं और हर अध्याय के साथ अलग अलग आहुतियाँ चढ़ाई जा रही हैं जिसका अर्थ है हम सब कुछ समर्पित कर रहे हैं। इस भाव के साथ बैठे हैं कि देवी शक्ति हमारे साथ है। देवी चित्त स्वरूपी है। हम सब में, हर एक रूप में वही है। बुद्धि के रूप में, भूख के रूप में, चित्त के रूप में, दृष्य रूप में, आनंद के रूप में - अलग अलग रूप में देवी शक्ति ही है। तुम शरणागत हो जाओ, और ईश्वरीय शक्ति तुम्हे पाप से छुड़ा देगी। दक्षिण भारत और द्वाराका के बड़े बड़े मंदिरों से अलग अलग वेदों में निपुण पंडित आए हैं और हम सब भाव से तो कर ही रहे हैं, मन में कुछ भी आए सब की आहुती देते चले गए, और बाकी काम अपने आप हो रहा है।

जो भीतर से जागा हुआ है, वेद के मंत्र उसकी तरफ़ भागते हैं। ध्यान का फल इतना श्रेष्ठ होने के कारण ही ध्यान इतना आवश्यक है। इसीलिए यहाँ पर ध्यान, साधना और यज्ञ कर रहे हैं। जिस क्रम से सृष्टि बनी है, आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि - उसी का अनुकरण करना यज्ञ की प्रक्रिया है। इससे हमे मिलता क्या है? स्वास्थ, तीष्ण बुद्धि, विद्धा, यश, प्रज्ञा(होश) और आयुश बड़ता है। कोई ऐसी चीज़ छोड़ी ही नहीं! सब मिलता है, इस लौकिक प्रपंच का भी और आध्यात्मिकता का भी। जो यज्ञ में नहीं भाग लेते उन्हे ना कुछ इधर का मिलता है ना उधर का। हमने द्रव्य यज्ञ किया। ज्ञान यज्ञ, ध्यान यज्ञ, तरह तरह का यज्ञ होता है। सब बैठकर कीरतन करते हैं, वो भी एक यज्ञ है। यज्ञ का समागम उत्सव में करना बहुत अच्छा है। पर उत्सव के बीच में कुछ क्षणों के लिए मौन भी चाहिए। मंत्रों के उच्चारण से ध्यान के लिए एकदम सही माहौल बन गया है। हो सकता है स्थूल स्तर पर हमारी बुद्धि इनका असर ना समझ पा रही हो पर सूक्ष्म स्तर पर हम पर इसका सुंदर प्रभाव पड़ रहा है।

कल ऋषि होम है। कितने ही ऋषि मुनि हुए हैं। कल के दिन ज्ञान की देवी, सरस्वती का भी आहवान करते हैं। यह देवी माँ के लिए बहुत शुभ अवसर है। असल में दिव्यता यां ईश्वर का कोई लिंग नहीं है, पर क्योंकि हमारा सबसे पहला संबंध माँ से जुड़ता है, इसलिए यह भाव हमें अपने प्रेम रूपी स्वभाव से आसानी से जोड़ देता है।
अब हम कुछ क्षणों के लिए ध्यान करेंगे!



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आध्यात्म और दुनिया में स्मृद्धि का रहस्य

13 अक्तूबर, 2010
बंगलोर आश्रम, भारत

तीन स्तर हैं - परमात्मा, देवी सत्ता और जगत। सारा जगत देवी चेतना के अधीन है। यह सब अनुष्ठान सूक्ष्म जगत को जगाने की अनुठी प्रक्रिया है। देवी चेतना कण कण में व्यापक है, लेकिन उसको जाग्रित करना है। चारों वेदों के मंत्रों से सब क्षेत्रों से देवी

चेतना जाग उठती है। इसके दो लाभ हैं।

पहला - प्रपंची लाभ, दुनियावी सुख सुविधा।

दूसरा - आध्यात्मिक लाभ, जो मोक्ष चाहते हैं।

इसलिए दुनिया चाहने वाले भी और आध्यात्मिक प्रसाद पाने के इच्छुक भी यह अनुष्ठान करते हैं। सूक्ष्म जगत के दोनो के बीच में होने से मदद मिलती है। इसलिए चारों ओर जो हो रहा है उसे स्वीकार करते हैं। जब स्वीकार करते हैं तो मन शांत हो जाता है। इतने सारे शरीर और मन होने पर भी एक मन से इसको करते हैं, और विश्राम करते हैं।





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दिल्ली में सत्य साईबाबा अंतरार्ष्ट्रिय केन्द्र में दिए गए ज्ञान के कुछ अंश:

प्रश्न:अगर ईश्वर हमारे भीतर ही है तो बचपन में हमें बाहर मंदिर में पूजा करना क्यों सिखाया जाता है? हमे अपने भीतर ईश्वर ढूँढना क्यों नहीं सिखाया जाता? अगर हमे बचपन से ही यह सिखाया जाता तो कितना आसान हो जाता।

श्री श्री रवि शंकर: सारी परपंरा में यही कहीं असल अर्थ समझने में गलती हो गई। पहले 8-9 साल के बच्चे को सबसे पहले जो सिखाया जाता था - वह था मंत्र का जाप, और क्या करते थे इसके दौरान? इस भाव से जप करते थे कि सब मेरे भीतर ही है। इसीलिए इसे ब्रह्म उपदेश कहते थे। जैसे सूरज हमारे भीतर और बाहर है, वैसे ही आध्यात्मिक सूरज तुम्हारे भीतर है। चमकता हुआ सूरज बताता है कि तुम्हारे भीतर भी रोशनी देने वाला ऐसा ही सूरज है। बच्चे को पहले ध्यान और फ़िर कुछ अनुष्ठान (Ritual) सिखाए जाते थे। अनुष्ठान में भी थोड़ा कुछ तो है। हम उन्हे बिल्कुल अनदेखा नहीं कर सकते। उनके पीछे वैज्ञानिक गहराई है और उन्हे रखने का एक कारण है। उनसे एक वातावरण जगता है, भाव उदय होता है। मन हमेशा बाहर की वस्तु से जोड़ता है। मेरे आसपास कितना आकाश है, पर मन उससे नहीं जुड़ता। तुम उससे संबद्ध जोड़ते हो जिसे तुम देख सकते हो, सुन सकते हो या बात कर सकते हो। इसलिए लोगों ने यह मूर्तियाँ बनाई ताकि भाव जग सके। अगर गहराई से देखें तो मंदिर के बाहर रखी जाने वाली मूर्तियाँ एक वैज्ञानिक दिमाग की रचना है। 
सारी दुनिया में हर धर्म के साथ कुछ प्रतीक जुड़े हैं। सिख गुरु ग्रन्थ साहिब से जुड़े हैं, जेन महावीर भगवान की मूर्ति से जुड़े हैं और बौद्ध धर्म के लोग बुद्ध से जुड़े हैं। इसी तरह ईस्लाम धर्म के लोग भी। मस्जिद को देखते ही मन में एक भाव जगता है कि नहीं। कुरान को देखते ही मन में एक भाव उठता है कि नहीं? अगर हम किताब के साथ अपना भाव जोड़ सकते हैं तो राम की मूर्ति से क्यों नहीं! मूर्ति है ही इतनी खूबसूरत कि अपने आप ही भाव उमड़ता है। इन सब चीज़ों के पीछे एक गहरा मतलब छिपा है। मन प्रत्यक्ष से जल्दी जुड़ता है। नहीं तो इतने विद्वान रहे हैं यहाँ, वो यह सब हटाने के लिए कह सकते थे। पर उन्होने ऐसा नहीं किया। क्यों? उन्हे मालूम था कि कुछ लोगों को इससे फ़ायदा हो रहा है। पर अगर आप इन सब के ऊपर उठना चाहते हैं तो वेदान्त की ओर चलते हैं - अद्वैत ज्ञान (Knowledge of Non-dual existence) - द्वैत से अद्वैत - उसमें स्थिर होते हैं। 

मंदिर केवल पूजा का ही एक स्थान नहीं था, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का भी केन्द्र था। मंदिर में *प्राण उर्जा अधिक होती है और जहाँ जीवन उर्जा डली, वहाँ लोगों को फ़ायदा हुआ।         

एक बच्चे की कहानी है जब वो अपने गुरु से ईश्वर के बारे में पूछता है। किस तरह गुरु अपने शिष्य को धीरे धीरे उस परम सत्य के और लेकर चलता है, यह बहुत खूबसूरत है।
शेष अंश अगली पोस्ट में... 
*प्राण उर्जा: जीवन उर्जा जो सृष्टि में होने वाले हर प्राकृतिक गतिविधि के पीछे है।




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नवरात्रि: स्रोत की ओर एक यात्रा

नवरात्रि का त्योहार अश्विन(शरद) या चैत्र (वसंत) की शुरुआत में प्रार्थना और उल्लास के साथ मनाया जाता है| यह समय आत्म निरीक्षण और अपने स्रोत की ओर वापिस जाने का समय है| परिवर्तन के इस काल के दौरान प्रकृति भी पुराने को झाड़ कर नवीन हो जाती है; जानवर सीतनिद्रा में चले जाते हैं और बसंत के मौसम में जीवन वापिस नए सिरे से खिल उठता है|


वैदिक विज्ञान के अनुसार पदार्थ अपने मूल रूप में वापिस आकर फिर से अपनी रचना करता है। यह सृष्टि सीधी रेखा में नहीं चल रही है बल्कि यह चक्रीय है, प्रकृति के द्वारा हर वस्तु का नवीनीकरण हो रहा है - अपने मन को वापिस अपने स्रोत की ओर ले जाने के लिए है।


प्रार्थना, मौन, उपवास और ध्यान के माध्यम से जिज्ञासु अपने सच्चे स्रोत की ओर यात्रा करता है। रात को भी रात्रि कहते हैं क्योंकि वह भी नवीनता और ताज़गी लाती है। वह हमारे अस्तित्व के तीन स्तरों पर राहत देती है – स्थूल शरीर को, सूक्ष्म शरीर को, और कारण शरीर को उपवास के द्वारा शरीर विषाक्त पदार्थ से मुक्त हो जाता है, मौन के द्वारा हमारे वचनों में शुद्धता आती है और बातूनी मन शांत होता है, और ध्यान के द्वारा अपने अस्तित्व की गहराइयों में डूबकर हमें आत्मसाक्षात्कार मिलता है।

यह आंतरिक यात्रा हमारे बुरे कर्मों को समाप्त करती है। नवरात्रि प्राणों का उत्सव है जिसके द्वारा ही महिषासुर (अर्थात जड़ता), शुम्भ-निशुम्भ (अहंकार और शर्म) और मधु- कैटभ (अत्यधिक राग-द्वेष) को नष्ट किया जा सकता है। वे एक दूसरे से पूर्णत: विपरीत हैं, फिर भी एक दूसरे के पूरक हैं। जड़ता, गहरी नकारात्मकता और मनोग्रस्तियाँ (रक्तबीजासुर), बेमतलब का वितर्क (चंड-मुंड) और धुँधली दृष्टि (धूम्रलोचन्) को केवल प्राण ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठाकर ही दूर किया जा सकता है।

नवरात्रि के नौ दिन तीन मौलिक गुणों से बने इस ब्रह्मांड में आनन्दित रहने का भी एक अवसर है। यद्यपि हमारा जीवन इन तीन गुणों के द्वारा ही संचालित है, हम उन्हें कम ही पहचान पाते हैं या उनके बारे में विचार करते हैं।

दूसरे तीन दिन रजोगुण के और आखिरी तीन दिन सत्त्व के लिये हैं। हमारी चेतना इन तमोगुण और रजोगुण के बीच बहती हुई सत्वगुण के आखिरी तीन दिनों में खिल उठती है। जब भी जीवन में सत्व बढ़ता है, तब हमें विजय मिलती है। इस ज्ञान का सारतत्व जश्न के रूप में दसवें दिन विजयदश्मी द्वारा मनाया जाता है।

यह तीन मौलिक गुण हमारे भव्य ब्रह्मांड की स्त्री शक्ति माने गये हैं। नवरात्रि के दौरान देवी माँ की पूजा करके हम त्रिगुणों में सामंजस्य लाते हैं और वातावरण में सत्व के स्तर को कायाकल्प की यह एक सतत प्रक्रिया है| नवरात्रि का त्यौहार नवरात्रि के पहले तीन दिन तमोगुण के बढ़ाते हैं।


हालाकि नवरात्रि बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनायी जाती है, परंतु वास्तविकता में यह लड़ाई अच्छे और बुरे के बीच में नहीं है। वेदांत की दृष्टि से यह द्वैत पर अद्वैत की जीत है। जैसा अष्टावक्र ने कहा था - लहर अपनी पहचान को समुद्र से अलग रखने की लाख कोशिश करती है, लेकिन कोई लाभ नहीं होता।


हालाकि इस स्थूल संसार के भीतर ही सूक्ष्म संसार समाया हुआ है, लेकिन उनके बीच अलगाव की भावना ही द्वंद का कारण है। एक ज्ञानी के लिए पूरी सृष्टि जीवंत है। जैसे बच्चों को सब कुछ जीवित ही जान पड़ता है, ठीक उसी प्रकार उसे भी सब में जीवन दिखता है। देवी माँ या शुद्ध चेतना ही हर नाम और रूप में व्याप्त हैं। हर नाम और हर रूप में एक ही देवत्व को जानना ही नवरात्रि का उत्सव है। आखिर के तीन दिनों के दौरान विशेष पूजाओं के द्वारा जीवन और प्रकृति के सभी पहलुओं का सम्मान किया जाता है। काली माँ प्रकृति की सबसे भयानक अभिव्यक्ति हैं। प्रकृति सौंदर्य का प्रतीक है, फिर भी उसका एक भयानक रूप भी है। इस द्वैत यथार्थ को मानकर मन में एक स्वीकृति आ जाती है और मन को आराम मिलता है।



देवी माँ को सिर्फ बुद्धि के रूप में ही नहीं जाना जाता, बल्कि भ्रांति के रूप में भी; वह न सिर्फ लक्ष्मी (समृद्धि) है, वह भूख (क्षुधा) भी हैं और प्यास (तृष्णा) भी है। सम्पूर्ण सृष्टि में देवी माँ के इस दोहरे पहलू को पहचान कर एक गहरी समाधि लग जाती है। यह पश्चिम में चले आ रहे सदियों के पुराने धार्मिक संघर्ष का भी एक उत्तर है। ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्म के द्वारा अद्वैत सिद्धि प्राप्त की जा सकती है अथवा इस अद्वैत चेतना में पूर्णता की स्थिति प्राप्त की जा सकती है।



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दिल्ली में सत्य साईबाबा अंतर्राष्ट्रीय केन्द्र में श्री श्री रवि शंकर द्वारा दिये ज्ञान से कुछ अंश


प्रश्न: अगर ईश्वर हमारे भीतर ही है तो बचपन में हमें बाहर मंदिर में पूजा करना क्यों सिखाया जाता है? हमें अपने भीतर ही ईश्वर को ढूँढना क्यों नहीं सिखाया जाता? अगर हमें बचपन से ही यह सिखाया जाता तो कितना आसान हो जाता।
श्री श्री रवि शंकर: हाँ, परपंरा को समझने में कहीं गलती हो गई। पहले 8-9 साल के बच्चे को सबसे पहले जो सिखाया जाता था - वहथा गायत्री मंत्र का जाप। और क्या करते थे इसके दौरान? इस भाव से जप करते थे कि सब मेरे भीतर ही है। इसीलिए इसे ब्रह्मउपदेश कहते थे। जैसे सूरज हमारे भीतर और बाहर है, वैसे ही आध्यात्मिक सूरज तुम्हारे भीतर है। तो चमकता हुआ सूरज बताता हैकि तुम्हारे भीतर भी रोशनी देने वाला ऐसा ही सूरज है। बच्चे को पहले ध्यान और फ़िर कुछ अनुष्ठान (ritual) सिखाये जाते थे।अनुष्ठान में भी कुछ सार है। हम उन्हे बिल्कुल अनदेखा नहीं कर सकते। उनके पीछे वैज्ञानिक गहराई है और उन्हें रखने का एककारण है। उनसे एक वातावरण बनता है, भाव उदय होता है। मन हमेशा बाहर की वस्तु से जुड़ता है। मेरे आसपास कितना आकाश तत्व है, पर मन उससे नहीं जुड़ता। तुम उससे संबंध जोड़ते हो जिसे तुम देख सकते हो, सुन सकते हो या बात कर सकते हो। इसलियेलोगों ने यह मूर्तियाँ बनाई ताकि भाव जग सके। अगर गहराई से देखें तो मंदिर के बाहर रखी जाने वाली मूर्तियाँ एक वैज्ञानिक दिमागकी रचना है। जब पहले मूर्ति के अंगो पर ध्यान केन्द्रित करते हो और फ़िर ध्यान में गहरे उतरते हो तो मन से वो छाप धुल जातीहै।

सारी दुनिया में तुम पाते हो कि हर धर्म के साथ कुछ प्रतीक जुड़े हैं। सिख गुरु ग्रन्थ साहिब से जुड़े हैं, जैन महावीर भगवान की मूर्तिसे जुड़े हैं और बौद्ध धर्म के लोग बुद्ध से जुड़े हैं। इसी तरह इस्लाम धर्म के लोग भी...मस्जिद को देखते ही मन में एक भाव जगता हैकि नहीं? कुरान को देखते ही मन में एक भाव उठता है कि नहीं?

अगर हम एक किताब के साथ अपना भाव जोड़ सकते हैं तो राम की मूर्ति से क्यों नहीं! मूर्ति है ही इतनी सुंदर कि अपने आप हीभाव उमड़ता है। इन सब चीज़ों के पीछे एक गहरा मतलब छिपा है। नहीं तो इस देश में इतने विद्वान रहे हैं, वो यह सब हटाने केलिए कह सकते थे। पर उन्होने ऐसा नहीं किया। क्यों? उन्हे मालूम था कि कुछ लोगों को इससे फ़ायदा हो रहा है। पर अगर आप इनसब के ऊपर उठना चाहते हैं तो आप वेदान्त की ओर चलते हैं - अद्वैत ज्ञान। अद्वैत (Non-dual existence) का ज्ञान - द्वैत से अद्वैत -उसमें स्थिर होते हैं।



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