हमारी चेतना स्थूल जगत से अधिक शक्तिशाली है

२५ जनवरी, बैंगलोर आश्रम भारत
प्रश्न: ईश्वर के लिए जितना मेरा प्रेम खिलता है, मुझे अपनी चिन्ताएं और परेशानियां समर्पित करने में उतनी ही दिक्कत होती है। हम अपने सबसे प्रिय लोगों को अपनी परेशानी कैसे दे सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर:
कोई बात नहीं! परमात्मा तुमसे तुम्हारी परेशानी ले लेगा। तुम नहीं भी देना चाहते तो भी वो तुमसे छीन लेगा। जब तक तुम्हारा संबंध है, तब तक लेन देन तो चलता रहेगा। तुम्हे आशिर्वाद पहुँचता रहेगा। तुम्हे आनंद मिलता रहेगा और जो कुछ नहीं चाहिए वो अपने आप खत्म हो जाएगा।
तुम्हारा ऐसा सोचना भी अच्छा है। यह तुम्हारी चेतना के स्तर का लक्षण है। चेतना के इस स्तर पर मन को कुछ चुभता लगता हो तो अपना यां किसी और का मत देखो।

प्रश्न: मुझे मैं इस दुनिया में खोया हुआ सा लगता हूँ। पर आप कहते हैं कि जीवन के हर कण में रस है। किसी भी काम में सब रुखा सा ही लगता है। पता नहीं मैं क्या करुँ, कहाँ जायुं?
श्री श्री रवि शंकर:
तुम सही जगह पर हो! यहाँ पर रस नहीं है? यहाँ पर सब खाली है क्या? हाँ, जब तुम ध्यान में बैठते हो तो सब खाली हो जाता है, खोल हो जाता है पर अभी तो यहाँ उत्सव ही है। कोई कभी कह ही नहीं सकता यहाँ खाली है याँ रुखा है।
सब के चेहरे पर चमक देखो। हाँ जब तुम दुनिया से कुछ लेना चाहते हो तो दुनिया पूरी खाली लगेगी। पर जब तुम योगदान देना चाहते हो तो तुरन्त बदलाव आता है। 

प्रश्न: क्या शांति एक ऐसी मनोदशा है जब कोई चाह यां तृष्णा मन को तंग ना करे यां जैसे ही वो उठे वो शांत भी हो जाए। हमेशा के लिए शांति कैसे पा सकते है?
श्री श्री रवि शंकर:
जब तुम इस हमेशा की पकड़ को छोड़ दोगे तो शांति है ही!

प्रश्न: अगर मोक्ष मिलने तक आत्मा हमेशा रहती है तो नरक में कौन जाता है?
श्री श्री रवि शंकर:
तुम अभी नरक को क्यों खोजना चाहते हो? मैं वहाँ कभी नहीं गया तो बता नहीं सकता वो क्या है।

प्रश्न:बिना शर्त का प्रेम किसे कहते हैं और हम किसी से ऐसा प्रेम कैसे कर सकते हैं? और हम ऐसा कब कर सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर:
जब तुम्हे वापिसी में कुछ नहीं चाहिए तो वो बिना शर्त के प्रेम है। धन्यवाद यां शुकराने का भाव भी नहीं! बहुत बार हम लोगों को प्रेम करते हैं पर कुछ छोटी अपेक्षाएं रखते हैं, और यही उन्हे तंग करता है। यह भी एक शर्त हुई।
जब चेतना खिलती है तो एइसा प्रेम सहज ही मौजूद है। तुम इसे अपने पर थोप नहीं सकते यां ऐसा प्रेम पैदा नहीं कर सकते। मुझे तो नहीं मालूम ऐसा प्रेम कैसे पैदा कर सकते हैं, यह तो सहज ही होता है। जब चेतना विकसित होती है, खिलती है तो जो प्रकाशित होता है वही ऐसा प्रेम है। आप कह सकते हैं मैं यहाँ तुम्हारे लिए हूँ और मुझे कुछ नहीं चाहिए। कुछ लोगों के लिए तुम्हारा ऐसा भाव है ही, मगर कुछ अन्य लोगों के साथ तुम्हारी अपेक्षाएं हैं।

प्रश्न: ऐसी परिस्थिति को कैसे संभाले जब कोई बिना किसी कारण इल्ज़ाम दे?
श्री श्री रवि शंकर:
मुस्कान से! इस दुनिया में अज्ञानता के लिए भी स्थान है। अगर कोई तुम्हे इल्ज़ाम दे रहा है तो यह अज्ञानता के कारण है। और अगर अज्ञानता नहीं पर किसी बुरे संकल्प से यां ईर्ष्या के कारण ऐसा है तो इसे भी मैं अज्ञानता का नाम ही दूँगा। तो सबसे बेहतर है कि तुम आगे बड़ो और इस में मत फ़ंसो क्योंकि किसी और की राय पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है, और इसकी ज़रुरत भी नहीं है - हर कोई अपना मत रख सकता है। सबसे बेस्ट यही है कि तुम उन्हे शिक्षा दो और फ़िर नज़र अन्दाज़ करो। अगर तुम शुरुआत में ही नज़र अन्दाज़ करते हो तो यह उद्ददंडता होगी। शिक्षा भी भारी शब्द है, उन्हे अवगत कराओ  और नज़र अन्दाज़ करो। शिक्षा में अधिक श्रम है और क्रोध में तुम उन्हे कुछ पाठ पढ़ाना चाहते हो। तो अवगत कराओ और फ़िर नज़र अन्दाज़!

प्रश्न: कई बार पहले से योजना ना बनाई जाने पर गड़बड़ी हो जाती है। ऐसी गड़बड़ पैदा करने वाले व्यक्ति से कैसें निपटें?
श्री श्री रवि शंकर:
गडबड़ पैदा करने वाला परदे के पीछे रहना चाहता है और अपना चेहरा और पद बचाना चाहता है। वह बहुत से तर्क देकर अपनी सफ़ाई पेश कर सकता है। तो तुम उसकी हालत समझते हो। हो सकता है कि तुम उन हालात में वैसा ही करते। इसलिए दूसरे क्या कहते हैं इस पर निर्भर मत रहो। बहुत बार समस्या तब होती है जब हम दूसरों के शब्दों में फ़ंस जाते हैं बजाय उनकी असली भावना जाने। एक माँ अपने बच्चे को कहती है यहाँ से चले जाओ पर वो सच में ऐसा नहीं चाहती। वो शब्द बहुत गहरे आते हैं और अगर बच्चा उन्हे पकड़ लेता है तो बिना किसी कारण मुश्किल मे पड़ जाता है। इसलिए मैं कहता हूँ शब्दों के परे देखो। हमारी बातचीत शाब्दिक स्तर से अधिक होनी चाहिए। यह केवल शाब्दिक स्तर पर नहीं, पर उसके परे होनी चाहिए। अगर कोई तुम्हे सब बुरा भला भी कहता है क्या तुम अपने में स्थिर रह सकते हो? अपना मन शांत रख सकते हो? तब तुमने कुछ पाया है। तुम लोगों से उनके शब्दों के परे कनेक्ट कर सकते हो! तुम्हारे अन्दर की चेतना मास्टर की है। वो बहुत शक्तिशाली है और हर परिस्थिति बदल सकती है जैसा तुम चाहते हो। तुममें वो यकीन होना चाहिए। पाँच बार ना भी हो पर छठी बार हो सकता है। यह सब तुम्हारे यकीन और अटलता पर निर्भर करता है। और इसकी चिंता मत करो कि लोग क्या कहते हैं।

प्रश्न: चेतना पदार्थ से कैसे अधिक शक्तिशाली है?
श्री श्री रवि शंकर:
जब प्रेशर कूकर में अधिक प्रेशर होता है तो वो कैसे बनता है? भाप से! और क्या वो पानी से अधिक शक्तिशाली है कि नहीं? जितना तुम गहराई में जाते हो, सूक्ष्म उतना ही अधिक शक्तिशाली है। (हाथ में एक चांदी का खिलौना दिखाकर गुरुदेव पूछते हैं) इसमें चांदी के अणु हैं, और सूक्ष्म में जाएं तो परमाणु हैं, यदि और गहराई में जाएं तो उप परमाणु कण हैं। और इससे भी गहराई में जाएं तो सब wave function है। तो क्या अधिक शक्तिशाली हुआ - चांदी यां wave function? 
सारा जगत चेतना से ही बना है तो जितना सूक्ष्म हम जाते हैं वो और अधिक शक्तिशाली है।
मैं जापान की एक रिसर्च देख रहा था। एक बोतल में कुछ पानी रखकर उसकी तस्वीर खींची। प्रार्थना के बाद, विभिन्न प्रकार के संगीत के साथ, कुछ बुरे शब्द कहने के बाद, और यह कितना अद्भुत है जब तुम पानी का प्रभाव देखते हो। विचार की सूक्ष्म तरंगे पानी में गईं। उनका प्रभाव तो दिखना ही था!
भारते में इसे अभ्यमंत्र कहते हैं। मंत्र उच्चारण का पानी पर गहरा प्रभाव पड़ता है, और हमारा शरीर 70 प्रतिशत पानी है। रुद्राभिशेक के दौरान क्रिस्टल lingam पर जल डालते हैं जब एक विशेष मंत्र उच्चारण किया जाता है। उस जल में बहुत charged कण होते हैं और यह वातवरण में उच्च उर्जा प्रसारित करता है।
Micro scopic तस्वीरों में इसका प्रभाव अब उपलब्ध है।
इसी तरह एक सज्जन ने महाबलिपुरम, तमिलनाडु में एक प्रयोग किया जब वहाँ आरती हो रही थी। उसने तस्वीरें ली और देखा कि सभी नाकारात्मक कण वातावरण से गायब हो गए। सभी साकारात्मक में बदल गए और साकारात्मक कणों से ही सब होता है और यह सभी अभ्यास साकारात्मक तरंगों को बड़ाने का ही तरीका है। अग्नि का भी यही रोल है। जब एक विशेष संकल्प से अग्नि में आहुति देते हैं तो उसका वातावरण पर एक विशेष प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न: गुरुजी मैं यह मानता हूँ कि जैसे हम बोते हैं हम वो ही पाते हैं। पर बहुत बार ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति किसे बुरे दौर से गुज़र रहा होता है जबकि उसने कुछ ऐसा विशेष बुरा नहीं किया होता। ऐसा क्यों होता है?
श्री श्री रवि शंकर:
कर्मों की गति बहुत गहन है। कर्म एक समुद्र की तरह हैं। यह एक ही जीवन काल नहीं है, हमने बहुत से जीवनकाल में बहुत कुछ किया और उसका प्रभाव तो रहता है। कौनसा कर्म कौन से बीज से उपजा है और यह कर्म क्या बीज देगा यह कहना बहुत मुश्किल है। इसीलिए कहा गया है ’गहना कर्मणोगति’। इसलिए किस जीवन काल का कौनसा कर्म अब अंकुरित होता है यह कह नहीं सकते। इसलिए इसमें ज़्यादा मत फ़ंसो। सक्रिय रहो और अपनी चेतना की सुनो।

प्रश्न: हम बिना कर्तापन के भाव से अपने कृत की ज़िम्मेदारी कैसे ले सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर:
जब ज़िम्मेदारी लेते हो तो केवल ज़िम्मेदारी लो। कर्तापन मतलब परिणाम के बारे में सोचना। कुछ भी हुआ हो, जिस क्षण तुम ज़िम्मेदारी लेते हो तुम में शक्ति जगती है। तुम वर्तमान क्षण में आते हो और तुमने परिणाम को स्वीकार कर ही लिया है।
जब कोई काम करते हो तो कर्तापन - अकर्तापन की philosophy में मत पड़ो। अपना शत प्रतिशत दो। जब तुम अपना १०० प्रतिशत  देते हो तो अचानक तुम्हे लगता है कि तुम नहीं कर रहे हो, सब हो रहा है। अकर्तापन एक अनुभव है। यह ऐसा कुछ नही है जो तुम करने की यां पाने की चेष्टा करते हो।


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समय का मन पर प्रभाव का गहन विज्ञान


२६ जनवरी २०११, बैंगलोर आश्रम, भारत

प्रश्न: गुरुजी, क्या एक गुरु का शिष्य होने का यह मतलब है कि दूसरे गुरुओं के बताये गये मार्ग पर नहीं चलना चाहिये? क्या किसी व्यक्ति के एक से अधिक गुरु हो सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: ओह! एक ही गुरु को संभालना बहुत कठिन होता है, और तुम...! (हंसी।) यह आसान नहीं है। सब का आदर करो, परंतु एक ही मार्ग पर चलो। सभी का आदर करो, और तुम देखोगे कि सभी गुरु ने एक ही बात बताई है। सत्य एक ही है, इसलिये सभी ने एक ही बात बताई है, पर सब के तरीके समय की आवश्यकता के अनुसार भिन्न रहे।
इस मार्ग पर आये हो तो अपने मन में कोई दुविधा मत रखो। पहले तुम जिस भी मार्ग पर थे, उनके आशीर्वाद से ही यहां आये हो। तुम सच्चाई से उस पथ पर चले हो, गुरुओं की आज्ञा का पालन किया है, और उनके आशीर्वाद से ही तुम यहां पंहुचे हो। यह जान कर आगे बढ़ो। ठीक है?
अगर तुम हर मार्ग पर थोड़ा थोड़ा चल कर परखने का प्रयास करोगे तो भ्रांत हो जाओगे! तो, मैं यही कहूंगा एक में सब को और सब में एक को देखो।

प्रश्न: अगर गुरु अप्रसन्न हो तो क्या करना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर: शीघ्र प्रगति करो! गुरु तुम्हारी प्रगति से अप्रसन्न है। तो, अब अपनी गति बढ़ाओ, और प्रगति करो, जल्दी दौड़ो!

प्रश्न: गुरुजी, क्या व्यक्ति के मूड का कोई संबंध समय के साथ है? हम दिन के अलग अलग समय अलग अलग मूड क्यों अनुभव करते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: हां, हां! समय का मन पर प्रभाव पड़ता है। समय और मन एक दूसरे के पर्यायी हैं। आठ पदार्थ हैं: वैशेषिक, कनड़ा...इन सभी महापुरुषों ने देश, काल और मन के संबंध को बताया है। देश हुआ स्थान। काल, समय है। ये सभी तत्व हैं, सिद्धांत हैं। और ये सभी सिद्धांत आपस में संबंधित हैं। पृथ्वी पर एक दिन, किसी अन्य...चन्द्रमा पर कई दिनों के बराबर है। चन्द्रमा पर समय अलग चलता है। यदि तुम बृहस्पति ग्रह पर हो...मनुष्यों का एक साल वहां केवल एक महीने के बराबर है। बृहस्पति पर एक साल, पृथ्वी के १२ सालों के बराबर है। बृहस्पति को सूर्य की परिक्रमा लगाने में १२ साल लगते हैं। यदि तुम शनि ग्रह पर जाओ तो वहां ३० सालों का एक साल होता है!
हमारे पित्रों के लिये, दिवंगत आत्मा के लिये, पृथ्वी का एक साल, एक दिन के बराबर होता है। हमारे छः महीने उनके लिये एक दिन हैं, और छः महीने उनके लिये एक रात हैं। अलग अलग आयामों में काल और स्थान भिन्न होते हैं।
काल और स्थान आपस में संबंधित हैं। इसे टाइम-स्पेस कर्व कहते हैं। मन इसका तीसरा आयाम है!
मन-रहित काल के परे चेतना, महाकाल है, शिव है, चेतना की चौथी अवस्था है।
इसे महाकाल कहते हैं, अर्थात महा-काल, या मन-रहित, जो मन पार है। प्रातः ४.३० से ६.३० तक, सूर्योदय से पहले, भोर से पहले का समय बहुत ही रचनात्मक कहा गया है – ब्रहम-मुहूर्त! और फिर हर दो घंटे के अंतराल को एक लग्न कहते हैं, यानि समय का एक माप। समय के इस माप का संबंध मन से है। और फिर यह चन्द्र की गति, सूर्य की अवस्था से संबंधित है। बहुत सारी बाते हैं! मन पर दस चीज़ों का प्रभाव पड़ता है। केवल समय ही नहीं, दिनों का भी मन पर प्रभाव पड़ता है। ढाई दिनों में मन बदल जाता है! मन का मूड बदल जाता है! तो, अगर तुम परेशान हो, तो ज़्यादा से ज़्यादा ढाई दिनों तक उस मनोवस्था में रह सकते हो, फिर मन बदल जायेगा। उतार चढ़ाव आते हैं पर ढाई दिनों से अधिक तुम एक ही मूड को उतनी ही तीव्रता से नहीं बनाये रख सकते हो। असंभव! यह बहुत गहन विज्ञान है कि मन, मूड और समय का क्या संबंध है। ज्योतिष शास्त्र में इसके बारे में बहुत ज्ञान है। पर आजकल, आमतौर पर ज्योतिषी लोग साप्ताहिक भविष्यवाणियों में समय के बारे में कुछ ना कुछ बोलते हैं - यह समय अच्छा है, यां यह समर बुरा है। ज्योतिष विद्धा एक विज्ञान है पर हर ज्योतिष वैज्ञानिक नहीं। हालांकि, इसका आधार, समय का मन पर प्रभाव - यह सत्य है।

मन का अर्थ ही है मूड, विचार, इन सब को हम इकठ्ठा कर लेते हैं। मन-रहित होने का अर्थ है ध्यान। सुर्योदय और सुर्योस्त ध्यान करने के लिये अच्छा समय है। तो, जब भी बुरा समय आये, ध्यान करो। जब तुम ध्यान करते हो तब तुम मन के प्रभाव से बाहर निकल कर अपने भीतर अपनी आत्मा के निकट होते हो। आत्मा ही शिव तत्व है। शिव तत्व का अर्थ है हमेशा कल्याणकारी, प्रेम करने वाला, ऊपर उठाने वाला। तुम्हारे भीतर जो चेतना है, वह कल्याणकारी है, प्रेममयी है, ऊंचा उठाने वाली है, और वह मन के, समय के सभी बुरे प्रभावों को नष्ट कर देती है।

भारत में यह मान्यता है कि जब कभी बुरा समय आये तो ॐ नमः शिवाय का जप करने से वह बुरा समय चला जाता है। मन को उल्टा कर दें, तो हो गया नमः। जब चेतना बाहर के जगत की तरफ़ जाती है तो हो गया मन, और जब वही चेतना भीतर की ओर जाती है, तो नमः हो गया।
भीतर, शिव तत्व की ओर। शिव ही चेतना की चौथी अवस्था है, चेतना की सबसे सूक्ष्म अवस्था, शिव तत्व! तो, नमः, जब मन प्रकृति के मूल शिव तत्व की ओर जाता है, तो वह बुरे काल को भी पलट कर कल्याणकारी अनुभव से परिपूर्ण कर देता है।

प्रश्न: गुरुजी, आप सभी प्रश्नों के उत्तर कैसे जानते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: इस प्रश्न का मेरे पास कोई उत्तर नहीं है!

प्रश्न: गुरुजी, क्या हम जीवन और मृत्यु के चक्र से छूट सकते हैं? अगर हां, तो हमें इस चक्र से छूटने के लिये क्या करना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर: ध्यान करो, बस। और अचाह! ध्यान के लिये तीन चीज़ की आवश्यकता है – अप्रयत्न, अकिंचन, अचाह। ’मैं कुछ नहीं हूं, मुझे कुछ नहीं चाहिये, और मैं कुछ नहीं करूंगा, अप्रयत्न’। इन तीनों से, मुक्ति ही मुक्ति है।


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त्याग से जीवन सुन्दर और आनंदित बन जाता है

२४ जनवरी, २०११, बंगलोर
प्रश्न: ईषा उपनिषद में बहुत खूबसूरत कहा गया है "तेन त्यक्तेन भूनजिथा" - संसार त्याग कर संसार का आनंद लो। हम ऐसा कैसे कर सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: यही एक कला है। अगर कोई ज्वर नहीं है तो ऐसा होता है। कभी देखा है बच्चे चॉक्लेट देखर क्या करते हैं? कुछ खा लिए फ़िर कुछ एक जेब में खुसा लिए और कुछ दूसरी जेब में! बच्चा एक आवेश में होता है। व्यसक में ऐसी ज़्वरता नहीं होती। जब वस्तुओं के लिए ऐसी ज़्वरता नहीं होती तुम सही माइनो में आनंद ले सकते हो। नहीं तो केवल एक हड़बड़ाहट की जकड़!
तुम अनुभव करते हो, आनंद लेते हो पर तुम तृष्णा से परे रहते हो। तुम इस बोध में रहते हो कि आनंद का स्रोत तुम्हारे भीतर है, वस्तु केवल एक प्रतिभिंब है। जब तुम इसके प्रति सजग होते हो कि आनंद का स्रोत तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं तभी तुम आनंद ले भी पाते हो। यह थोड़ा गहन है और एक पक्व मन ही इसे पकड़ पाता है।

प्रश्न: कृष्णा अर्जुन से कहते हैं कि यह मत सोचो तुम इने मार रहे हो, यह तो पहले ही मरे हुए हैं। अगर एक आतंकवादी भी धर्म के नाम पर यही कारण बताए तो आप क्या कहेंगे?
श्री श्री रवि शंकर: यह बिल्कुल विपरीत परिस्थिति है और तुम इन्हे एक तरह नहीं देख सकते। एक आतंकवादी नफ़रत और अज्ञानता में करता है पर एक पुलिस अधिकारी बिल्कुल अलग कारण से ऐसा करता है। दोनो बन्दूक से मारते हैं पर जिस अन्देशे से वो ऐसा करते हैं वो भिल्कुल भिन्न है। मकसद और मानसिक दशा बिल्कुल अलग है। इसीलिए अर्जुन को कहा गया - न्याय के लिए युद्ध का हिस्सा बनो पर क्रोध, ईर्ष्या यां लालच के साथ नहीं, धर्म और न्याय के लिए!

प्रश्न: कहते हैं हमे ऊँचा स्वपन देखना चाहिए पर पीछे पीछे इतनी इच्छाओं का क्या करें?
श्री श्री रवि शंकर: विवेक के साथ! स्वपन रखो पर उसी समय अपनी जड़ों के साथ रहो।

प्रश्न: क्या हर वस्तु का स्त्री और पुरुष पहलू होता है। फ़िर हम वस्तुओं को स्त्री और पुरुष लिंग में क्यों विभाजित करते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: हाँ, एक निष्पक्ष लिंग भी होता है। तीन लिंग हैं और कुछ चीज़ें निष्पक्ष लिंग में भी आती हैं। पत्थर और पेड़ों के लिंग पर एक पूरा शिल्प शास्त्र है। Hawaiians भी विभिन्न पत्थरों के अलग अलग लिंगों की बात करते हैं। वो पहचान सकते हैं!
इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, आत्मा किसी भी लिंग से परे है।


प्रश्न: क्या एक विद्धार्थी को अच्छे अंक ना हासिल होने की पूरी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर: यह अच्छा है अगर वो पूरी ज़िम्मेदारी लेता है। तुम अध्यापक, परिवेश, मां-बाप पर इल्ज़ाम दे सकते हो, और फ़िर अंत में तुम खुद को इल्ज़ाम देते हो। पर blame game से बेहतर है ज़िम्मेदारी लेना।

प्रश्न: आध्यात्म के रास्ते पर बलिदान का क्या महत्व है?
श्री श्री रवि शंकर: यह ज़रुरी है, आध्यात्म के पथ पर बलिदान के लिए जोश होना चाहिए। आज ही मैं कई स्वामियों से, कम्प्यूटर इंजिनियर और काफ़ी अनुभवी लोगों से मिला। समाज में सेवा और पढ़ाई के लिए उन्होने अपना जीवन त्याग के रास्ते पर लिया। उन्होने अपना जीवन स्कूल निमार्ण, कौलेज निर्माण और लाखों लोगों को शिक्षा प्रदान करने के लिए किया। तो एक बड़े कारण के लिए यह ज़रुरी है। त्याग एक बड़े मक्सद के लिए होता है, वो आनंद कम नहीं करता पर बड़ा देता है। जब हमारी ज़रुरते अधिक होती हैं तो हम कम ज़िम्मेदारी लेते हैं। पर जब ज़रुरते कम होती हैं तो हम अधिक जिम्मेदारी लेते हैं, यह सबसे खुशहाल जीवन है।

प्रश्न: आप इतनी शांति और सुन्दरता कैसे प्रसारित करते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: क्योंकि तुम भी सुन्दर हो! तभी तुम वो देख सकते हो। अगर तुम भी खूबसूरत ना होते तो भीतरी खूबसूरती को तुम पहचान भी ना सकते। जो भी तुम्हारे भीतर होता है तुम वही बाहर भी देखते हो। जो तुम मुझ में देखते हो, उसे अपना ही मानो। अगर तुम अपनी भीतरी खूबसूरती को नहीं देख पा रहे, तो किसने मना किया है? खूबसूरती तो तुम्हारा स्वभाव है।

प्रश्न: क्या जन्म और मृत्यु का चक्र कभी खत्म नहीं होता?
श्री श्री रवि शंकर: पूरा विश्व ऐसा ही है - गोलाकार। सब चक्र में चलता है। वापिस आना होता है, पर तुम्हारे पास चुनाव है। अगर तुम बाध्यता के कारण आते हो तो वही पुरानी कहानी फ़िरसे! पर अगर तुम मुक्त होते हो तो तुम्हारे पास विकल्प होता है अपनी इच्छा के अनुसार जन्म लेने का। जब तुम मुक्ति के बाद वापिस आते हो तो वो आनंदित होता है।

प्रश्न:क्या यह सच है किसी जगह की साकारात्मक और किसी जगह की नाकारात्मक ऊर्जा होती है? नाकारात्मक जगह की ऊर्जा बड़ाने के लिए क्या किया जा सकता है?
श्री श्री रवि शंकर: हर जगह की ऊर्जा बड़ाई जा सकती है। हर जगह बदलाव लाया जा सकता है। केवल कुछ समय की बात है।

प्रश्न: मैं अपने क्रोध पर कैसे नियंत्रण पा सकता हूँ? मैं बहुत छोटी छोटी बातों पर क्रोधित हो जाता हूँ?
श्री श्री रवि शंकर: अगर तुम्हे क्रोधित होना ही है तो बड़ी बड़ी बातों पर क्रोधित हो। रोज़ाना की छोटी छोटी बातों पर क्रोधित होने का क्या फ़ायदा? भ्रष्टाचार यां तुम्हारे आस पास होने वाले अन्याय पर क्रोधित हो। मैं चाहता हूँ कि तुम अपने क्रोध को बड़ी दिशा दो और बाकी सब छोटी चीज़े ऐसे ही गायब हो जाएंगी। मैं चाहता हूँ तुम भारत में और विदेश में हर युवक से बात करो। उनसे बात करो और उन्हे भ्रष्टाचार के खिलाव आवाज़ उठाने के लिए कहो। अगर सरकार का अध्यक्ष गलत लोगों का परिरक्षण करता है तो तुम क्या कर सकते हो? लोगों को जागना ही होगा और यही हमे करना है। हम सभी को भ्रष्टाचार के खिलाफ़ बोलना ही होगा।

प्रश्न: किसी को अपनी ज़िम्मेदारी के प्रति जागरूक कराने का सबसे उच्च तरीका क्या है?
श्री श्री रवि शंकर: कुछ भी जो काम करे! जो भी उन्हे जागरूक करे वो अच्छा है। बैठ कर यह मत सोचो कि सबसे बेस्ट तरीका क्या है। जो भी विचार आते हैं उन्हे लाघु करो और देखो क्या काम करता है। जो काम करता है वही बेस्ट है।

प्रश्न: अगर आप कोई निर्देश देते हैं तो क्या उसका सार लेना चाहिए यां वैसे का वैसे लाघु करना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर: तुम बड़ा अस्पष्ट सवाल पूछ रहे हो और तुम उसका अपनी सुविधा के अनुसार अनुसरण करोगे। मैं इसमें फ़सने वाला नहीं हूँ!


प्रश्न: व्याकुलता और मुश्किलें रोज़मर्रा के जीवन में आती हैं। क्या एक पृथक और शांत जीवन व्यतीत करना बेहतर नहीं है?
श्री श्री रवि शंकर: गतिशीलता और मौन, अराजकता और वैराग्य। तुम्हे किसी से भी डरने की आव्श्यकता नहीं है। जो लोग उथल - पुथल से अभ्यस्त हैं वो मौन से ज़्यादा मैत्रीभाव नहीं रखते। कई बार सार्वजनिक बातचीत के दौरान मैने देखा है कि कई लोग अपनी आँखे भी बंद नहीं कर पाते, वह इतने भयभीत होते हैं। कई बार नेता और यहाँ तक कि प्रोफ़ैसर्ज़ भी दस मिनट भी आँखे बंद नहीं कर पाते। लोग शांति से, अपने भीतर से, आँखे बंद करने से इतना डरते हैं। और इसी तरह जो लोग मौन से यां अपने भीतर की शांति से लगाव रखते हैं वो अशांति और उपद्रव से भागते हैं। दोनो पूर्ण नहीं हैं। तुम्हे शौर में भी वैसा ही आराम देखना चाहिए जैसा तुम शांति में देखते हो और यही जीवन जीने की कला है। मौन में गतिशीलता और अराजकता में मौन। जब तुम दोनो स्तर पर अपने स्रोत में स्थित होते हो तो तुम दोनो परिस्थितिओं में योगदान दे सकते हो।

प्रश्न: भारत गुरुओं से भरा है। मुझे नहीं मालूम मैं किन्हे अपना गुरु स्वीकार करुँ? मुझे बताएं कि गुरु हमे चुनता है यां हम गुरु चुनते हैं? अगर मैं चुनता हूँ तो मैं कैसे चुन सकता हूँ?
श्री श्री रवि शंकर: मैं तुम्हे कोई माप - दंड तो नहीं बता सकता। तुम चुनाव करते हो और यह तुम पर है। यह तुम अपनी बुद्धि से तो नहीं चुनते। तुम्हारे दिल से कोई तुम्हे दिशा दिखाता है। तुम्हे घर जैसा लगता है, तुम्हारा मन विश्राम महसूस करता है। नहीं तो तुम यही प्रश्न बार बार हर जगह पूछ सकते हो। उसका कोई तुक नहीं है।

प्रश्न: साधना के बजाय भी लालच, ईर्ष्या और लालसा कभी कभी मन को तंग करती है। मैं इसके लिए क्या कर सकता हूँ?
श्री श्री रवि शंकर: तुम्हारी इससे मुक्त होने की इच्छा का मतलब ही यही है कि तुम इससे बाहर आ रहे हो। यह तो पहले ही बाहर जा रहा है। अपने पर इतना कठिन होने की आवश्यकता नहीं है।

प्रश्न: जब इच्छाएं मन को परेशान करें तो हम वैराग्य को कैसे मज़बूत कर सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: यह जानो कि सब बदल रहा है, सब नश्वर है। तुम में एक इच्छा उठी, वो पूर्ण हो जाएगी। तो क्या? समय के साथ सब नष्ट हो जाएगा। तो आगे बड़ते रहो। जब तुम जानते हो सब नश्वर है और फ़िर भी तुम बिना ज़्वरता से, सब का आनंद ले सकते हो, वो वैराग्य है।  

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ध्यान से हम विश्व की चेतना से जुड़ जाते हैं।

२१ जनवरी, बुद्ध जयन्ति, श्री लंका

२६०० के इस बुद्ध जयन्ति के मौके पर यह संगीत कार्यकम रखा गया है। यह समाज में धर्म वापिस लाने के लिए है। जब समाज से धर्म गिर जाता है, तभी पीड़ा और दुख के घेरे में आते हैं। जब अपने मूल्य भूल जाते हैं तब ऐसा होता है।
आप सबके साथ यहाँ मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। आप सब श्री लंका की उम्मीद हैं। हमे अपनी जड़ों को मज़बूत और दृष्टि को विशाल करने की आवश्यकता है।
जब अधर्म शिखर पर था, लोग धर्म का सही अर्थ भूल गए थे, तब भगवान बुद्ध ने धर्म को फ़िर से स्थापित करने के लिए अहिंसा का संदेश दिया - अहिंसा परमो धर्मा।
मुझे बहुत खुशी है कि अब श्री लंका में निर्भयता है और लोग हर जगह आ जा सकते हैं। सभी चैक पोस्ट हटा दिए गए हैं और लोगों में निर्भयता आई है।
हर सभ्यता और धर्म के लोग - तमिल, सिंगालिसेम, मुस्लिम और बुद्ध - सब एक साथ रह रहे हैं। समाज में और खुशी आएगी और इसके लिए युवाओं को सामने आना होगा। जब युवा भाग लेते हैं तो देश का विकास होता है। विकास के लिए चाह और रिसर्च के लिए विसतृत मानसिकता विकास का रास्ता है।
एक वैज्ञानिक मुझे बता रहे थे ४० वर्ष के अध्ययन के बाद उन्होने यही पाया कि यह कुछ है ही नहीं (Matter doesn't exist)। महात्मा बुद्ध और वेदान्त यह बात कितने वर्ष पहले ही कही।
युवाओं के लिए ध्यान का क्या लाभ है? कई लोग यह प्रश्न पूछते हैं। क्या आप एक पूर्ण व्यक्तित्व चाहते हैं?
अगर जीवन में उत्साह, खुशी, अच्छी स्मरण शक्ति, एकाग्रता, करुणा और प्रेम चाहिये, तो ध्यान करना ही होगा। ध्यान करने से ही ये सभी मानवीय गुण आपके भीतर खिलने लगते हैं।

ध्यान करने के तीन नियम हैं। पहला नियम यह कि अगले दस मिनट जब तक ध्यान करेंगे, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिये।’ ठीक है? यह कैसे संभव है? मुझे तो स्कूल-कालेज में अच्छे अंक लेने हैं, मुझे पढ़ाई में अच्छे अंक चाहिये, अच्छी नौकरी चाहिये, अच्छा परिवार चाहिये, जीवन में समृद्धि चाहिये। वो सब ठीक है पर, केवल अगले दस मिनट तक, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिये।’

फिर? ‘मैं कुछ नहीं करता हूं।’ ध्यान का अर्थ कुछ करना नहीं है। ध्यान का अर्थ कुछ भी नहीं करना है। एक बार एक महाकश्यप नाम के ब्राह्मण पंडित, भगवान बुद्ध के पास आये। महाकश्यप बहुत कुछ करते थे – जप, तप, यज्ञादि। भगवान बुद्ध ने उनसे कहा, ‘नहीं। विश्राम करो। भीतर से खाली हो जाओ।’ खोल और खाली।

तो, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिये।’ अगले दस मिनट तक, ‘मैं कुछ नहीं करता हूं।’ मैं अपने मन को एकाग्र नहीं कर रहा हूं। मैं अपने मन को पकड़ने की, विचारों से छुटकारा पाने की चेष्टा नहीं कर रहा हूं। अच्छे विचार आते है, तो आने दो। बुरे विचार आते हैं, तो आने दो। जो भी हो, होने दो। ‘मैं कुछ नहीं करता हूं। ना ही मैं अच्छे विचारों का स्वागत करता हूं, ना ही बुरे विचारों को रोकने की चेष्टा करता हूं।’

ध्यान करने का तीसरा नियम है, ‘मैं कुछ नहीं हूं।’
अगले दस मिनट के लिए ना मैं विद्धार्थी हूँ, ना मैं शिक्षक हूँ, ना मैं संगीतज्ञ हूँ .........कुछ नहीं हूँ।
(गुरुजी के साथ ध्यान और हमेशा की तरह समय कुछ क्षणों में बीत गया)
क्या तुम्हें पता है कि तुमने १५ मिनट तक ध्यान किया? कितने लोगों को समय का भान नहीं रहा? १५ मिनट तक तुमने ध्यान किया! समय का भान ना रहना ध्यान है। है ना? और तुम्हें विश्राम का अनुभव होता है। तुम विश्व की चेतना शक्ति से जुड़ जाते हो। हर दिन थोड़ा थोड़ा ध्यान करो। एक साथ मिलकर ध्यान करने से, संघ में ध्यान करने से ध्यान अधिक शक्तिशाली होता है। हर दिन स्कूल में प्रार्थना करने के बाद कुछ देर शांत बैठ जाओ। १०-१५ मिनट कुछ भी मत करो। ऐसा करने से हमारी काबलियत बढ़ती है। बहुत अच्छा! तुम सब युवाओं के साथ मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं चाहता हूं कि तुम सभी बहुत मेधावी बनो, करुणा रखो, और समाज को शक्तिशाली नेतृत्व दो। हम सभी को विश्व नागरिक बनना है। विश्व नागरिक बनने के लिये विश्व के हर भाग से अच्छी चीज़ें सीखो। हर जगह कुछ ना कुछ अच्छी बात होती है। भारत में श्री-लंका का नाम बच्चे बहुत जल्दी जानते हैं। श्री लंका कैसी थी? स्वर्णमयी लंका! श्री लंका में बहुत समृद्धि थी। श्री राम स्वयं कहते हैं, ‘स्वर्णमयी लंका’।

लंका में इतनी समृद्धि थी! मैं चाहता हूं कि तुम सब ऐसी ही स्वर्णमयी श्री लंका का स्वप्न देखो जहां हर युवा में उत्साह हो, प्रतिभायें हों, करुणा हो।

जापान से हम टीम में काम करना सीख सकते हैं। काम को बारीकी से करना जर्मन से। बिक्री की कला अमरीका से और मानवीय गुण एशिया से - भारत, नेपाल, श्री लंका... यहां से मानवीय गुण सीखने योग्य हैं। यह सब सीखने से हम संपूर्ण मनुष्य बनते हैं। ठीक है? मेरी शुभकामनायें तुम्हारे साथ हैं!

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सारा विश्व प्राण शक्ति की क्रीडा हैं

मुंबई , १३ जनवरी २०११
आज हम तनाव या तनाव से मुक्ति के बारे में बात नहीं करेंगे और संबंधो के बारे में भी नहीं। हम कुछ और गहराई की बात करेंगे!
आप अपनी उम्र को याद करें? वह जो भी हो...२५-३० वर्ष। आप इन २५-३० वर्ष के पहले कहाँ थे? आप ५०-६० वर्ष या १०० वर्षों के उपरांत कहाँ पर होंगे? मुंबई और यह सागर आपके पहले भी यहाँ थे।

क्या आपको याद है आपने अपनी माँ के गर्भ में कैसे प्रवेश किया?
क्या आप को यह याद हैं आप इस दुनिया में कैसे आये ?

पांच वर्ष की आयु तक एक शिशु को उसका पूर्व जन्म याद रहता है| शिशु कुछ रंगों को पहचानता है या कुछ बातें कहता है परन्तु उसके पालक/बड़े बुजुर्ग उसे अनदेखा कर देते हैं|
क्या आप को पता हैं यह सारा विश्व प्राण शक्ति की क्रीडा है | यहाँ  पर सब कुछ में कुछ प्राण शक्ति होती हैं | किन्तु प्राण के मात्रक (यूनिट) भिन्न होते हैं| पत्थर से लेकर वायु तक, जानवरों से लेकर मनुष्य तक, सब में अलग अलग मात्रा में प्राण उर्जा मौजूद है।

१. पत्थर (पृथ्वी) में प्राण का १ युनिट होता हैं |
२. जल में प्राण के २ युनिट होते हैं |
३. अग्नि में प्राण के ३ युनिट होते हैं |
४. वायु में प्राण के ४ युनिट होते हैं |
५. आकाश में प्राण के ५ युनिट होते हैं |
६. पेड़ और पशुओ में प्राण के ६-७ मात्रक होते हैं |

मानवो में प्राण के ८ मात्रक होते हैं |  इसलिए उसे अष्टवसु कहा जाता हैं | परन्तु मनुष्य प्राणों की उच्चतम ईकाई अभिव्यक्त करने की संभावना के साथ पैदा होता है। भगवान कृष्ण में प्राण की १६ कलाएं थी, उनकी चेतना पूर्ण विकसित है और इसलिए उन्हे पद्द्मनाभा भी कहते हैं।
आप अक्सर देखते हैं कि सभी देवी/देवताओं को किसी पशु-पक्षी पर सवारी करते दर्शाते हैं | माँ दुर्गा की शेर पर सवारी! देखने में तो कितना काल्पनिक प्रतीत होता है! इसे बुद्धि आसानी से स्वीकार नहीं करती, परन्तु यह बहुत वैज्ञानिक हैं| आज विज्ञान कहता है सब कुछ तरंगों से बना है और ३३ विभिन्न प्रकार की ऊर्जा के संयोग-वियोग से सब कुछ है। प्रत्येक पशु इस ग्रह पर कुछ ब्रह्मांडीय ऊर्जा को लाते हैं| उदाहरण के लिए मोर, सरस्वती देवी (ज्ञान की देवी) की ऊर्जा लाता है | बैल के शरीर का विकिरण भगवान शिव (The transformational energy in the Nature) की चेतना को लाता है (पृथ्वी का परिवर्तनशील और ध्यानस्थ स्वरुप)| अभी इस समय सारे देवी-देवता(विभिन्न प्रकार के ऊर्जा क्षेत्र) और विभिन्न उर्जायें इस चेतना में मौजूद हैं|  सारे मंत्र इन शुभ तरंगों को आमंत्रित करते हैं |

 क्या आपको महीनो का अर्थ मालूम हैं ?
जनवरी ,फरवरी...नवंबर , दिसम्बर | आप महीनो के नाम लेते रहते हो और आपको उनका अर्थ नहीं मालूम!

सितम्बर (सप्त +अम्बर): ७वा आकाश
नवंबर (नव+अम्बर):    ९वा  आकाश
क्या आपको पता हैं कि यह महीने किस भाषा की देंन हैं ?
(अंग्रेजी)
श्री श्री: नहीं , यह सभी संस्कृत भाषा से उत्पन्न हुए हैं | ब्रह्माण्ड के शुरुवात में केवल संस्कृत भाषा ही मौजूद थी|
फरवरी को फेग एंड ( अंतिम महीना ) कहा जाता हैं |
मार्च का अर्थ है आगे बढ़ो| इराक, इरान, कुर्दिस्तान में सभी जगहों पर नव वर्ष का उत्सव मार्च के महीने में मनाते हैं | भारत में भी कई हिस्सों में इसे मार्च के महीने में मनाया जाता हैं| इसलिए दिसम्बर (दस + अम्बर : १० वा आकाश )
आप की उम्र कुछ भी हो, पर आप, आपकी चेतना बहुत प्राचीन है। गहन ध्यान में आप इसका अनुभव करते हैं। अगर अभी यह समझ ना भी आए तो कोई बात नहीं। मन के किसी कोने में इसे रखें और कभी ना कभी आपके अनुभव में यह आ ही जाएगा!
क्या आप अब मुझे इस टोपी/पगड़ी को उतारने की अनुमति देंगे ? (गुरूजी चर्चा के शुरुवात में एक सुन्दर टोपी/पगड़ी पहने हुए थे और बहुत सारे लोगो ने उनसे उसे पहने रहने का निवेदन किया था )

हमेशा की तरह १० से १५ मिनिट का ध्यान कुछ ही क्षणों में गायब हो गया। और उसके उपरान्त मधुर भजनों के साथ सत्संग का समापन हुआ|

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प्राण शक्ति के बढ़ जाने पर सृष्टि के अलग अलग स्तरों पर हो रहीं गतिविधियों के बारे में बोध हो जाता है

बैंगलोर, भारत, १० जनवरी २०११
प्रश्न: ‘अपने जीवन में तुम जिस भी चीज़ के ख़िलाफ़ हो जाते हो, उस से छुटकारा नहीं पा सकते,’इस ज्ञानोक्ति को मैं समझ नहीं पा रहा हूं। क्या सिगरेट पीने की इच्छा हो तो उसे पूरा करना ठीक होगा, या फिर किसी बीमार व्यक्ति की बहुत अधिक कॉफ़ी पीने की इच्छा हो तो उसे पूरा करना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर: तुम्हारा मतलब है कि अगर तुम अपने जीवन में सिगरेट छोड़ना चाहते हो, सिगरेट के ख़िलाफ़ हो, तब भी सिगरेट पीने की इच्छा रहती है। इस से बाहर कैसे निकले, यह पूछ रहे हो?
जब तुम यह अनुभव करते हो कि सिगरेट ना पीने में जो सुख है, वह सिगरेट पीने के सुख से अधिक है, तब यह स्वाभाविक रूप से छूट जाती है! मन हमेशा वहीं जाता है जहां उसे कुछ सुख की आशा होती है। सुख की आशा में मन वहां भी चला जाता है जहां सुख है ही नहीं! तो, मन आदतों का ग़ुलाम हो जाता है, और इन आदतों से कोई सुख नहीं मिलता, दुख ही मिलता है। जब मन यह जान जाता है कि वहां सुख नहीं दुख है, तो वह आसानी से उस आदत से बाहर निकल आता है। जब तुम्हारी बुद्धि कहती है कि,‘यह मेरे लिये अच्छा नहीं है, फिर भी इसके प्रति मेरी लालसा है,’तो जीत किसकी होनी चाहिये - बुद्दि की, मन की, या भवनाओं की? इसीलिये मैं कहता हूं कि किसी भी बुरी आदत से छुटकारे के लिये तीन चीज़े बहुत सहायक हैं। जब तुम्हें किसी और चीज़ में अधिक प्रेम और आनंद मिलता है तब वह बुरी आदत छूट जाती है। सुदर्शन क्रिया करने पर लोगों के साथ ऐसा ही होता है। इतना आनंद मिलता है कि सिगरेट का नशा या कोई भी बुरी आदत अपने आप ही छूट जाती है। क्रिया और ध्यान करने से इस में सहायता मिलती है। तो, प्रेम होने से सहायता मिलती है, लालच भी सहायक सिद्ध होता है। यदि कोई तुमसे कहे कि ‘दो महीने तक सिगरेट नहीं पियोगे तो तुम्हारी लॉटरी निकल आयेगी,’तो उस लालच से तुम्हारा मन तुम्हें उस आदत से मुक्ति दिला देगा। तो, दूसरी ची़ज़ है, लालच!
तीसरी चीज़ जिस से तुम्हें बुरी आदत से छुटकारा पाने में मदद मिलती है वह है भय। यदि कोई तुम से कहे कि,‘शराब पीने से तुम्हारा लिवर खराब हो जायेगा, और तुम मर जाओगे,’ तो तुम बीमारी के भय से या किसी परेशानी में पड़ने के भय से तुम किसी भी सुख के प्रलोभन से बच जाओगे। कई लोग जो व्यभिचारी हुआ करते थे, एड्स के भय से यह आदत छोड़ चुके हैं। तो, एड्स के भय से वे अपने जीवन साथी के प्रति वफ़ादार बन गये! प्रेम, लालच या भय, इन तीन चीज़ों से तुम किसी भी बुरी आदत से छुटकारा पा सकते हो।

प्रश्न: योगवाशिष्ठ में देवी सरस्वती, लीला को चेतना के अलग अलग स्तरों की सैर करवाती हैं। वे लीला को एक ही समय पर अलग अलग जीवन जीने का अनुवव करवाती हैं। उन जीवनों को जीते हुये, हर एक जीवन में लीला, अन्य जीवनों की जीने वाली लीला को नहीं जानती है। मैं सोच रहा था कि क्या हम भी चेतना के अलग अलग स्तरों पर ऐसा ही जीवन जीते हैं, और उसके बारे में अनभिज्ञ हैं? आज वैज्ञानिक बताते हैं कि हमें जो वस्तुतः सत्य दिखाई पड़ता है, पर सृष्टि के रहस्य का केवल 0.03% भाग ही है!
श्री श्री रवि शंकर: हां, हां! हमारी चेतना में कई परतें हैं। बहुत सारी चीज़े हैं। एक स्वनावस्था है जिसमें सत्य की अलग अलग परते हैं। यही ठीक होगा कि जब तक तुम भीतर से बहुत मज़बूत ना बन जाओ, तुम चेतना के इन विभिन्न स्तरों के बारे में अनभिज्ञ रहो। जिन लोगों को स्कित्ज़ोफ़्रेनिया या कोई और मानसिक बीमारी होती है उन्हें चेतना के विभिन्न स्तरों का कुछ कुछ अनुभव होता है। वे यहां भी रहते हैं और वहां भी, इसलिये इस जीवन में इतनी रुचि नहीं लेते, उन्हें वह दूसरा स्तर अधिक लुभावना लगता है।
तुर्की की एक बुज़ुर्ग महिला है जिसे अचानक अलग अलग चित्र नज़र आते थे। उसे दवायें दी गई, पर दवा लेने से वह थकान महसूस करती थी, और उसने दवायें लेने से मना कर दिया। उसे अलग अलग भ्रांति दर्शन होते हैं। जब तक हम स्व में केन्द्रित नहीं हो जाते, चेतना के विभिन्न स्तरों को जानने में खतरा है। और इसकी आवश्यकता भी नहीं है। इसीलिये सरस्वती देवी, लीला को स्वयं हाथ पकड़ कर उस अनुभव में ले गई। सरस्वती, ज्ञान की देवी हैं। लीला के पास ज्ञान था। ज्ञान की शक्ति से चेतना के विभिन्न स्तरों को अनुभव करते हुये उनसे अछूता रहा जा सकता है।
बाईपोलर लोगों को ऐसी समस्या होती है। अचानक उन्हें अपने सामने कोई नज़र आता है, और वे उससे बातें करते हैं। तुम देखो तो वहां कोई और नज़र नहीं आता। यह चेतना के अलग स्तरों की बात है। जब तक तुम्हारी चेतना ज्ञान में सुदृढ़ता से स्थापित ना हो, और सत्य के विभिन्न स्तरों में फ़र्क जान सके, तब तक इस ज्ञान का उदय नहीं होता।

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मकर संक्रांति और पोंगल की शुभकामनाये


श्री श्री रवि शंकर :
 "मकर संक्रांति के शुभ पर्व पर यह कामना है कि सभी की वाणी में मिठास हो। 
आज के दिन तिल और गुड़ से बने मीठे पकवानों का आदान प्रदान करते हुये, हम एक दूसरे को यही शुभकामना दें कि हमारा स्वभाव भी साल भर ऐसा ही हो जाये।"

सबको मकर संक्रांति और पोंगल की शुभकामनाये!!!

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अपने ध्येय के लिये शत प्रतिशत प्रयास करना और साथ ही परमात्मा को उसे समर्पित कर देना, यह कौशल सीखने योग्य है

बैंगलोर आश्रम, भारत ९ जनवरी २०११
यथा दृष्टि तथा सृष्टि
तुम जैसा सोचते हो, जैसी तुम्हारी दृष्टि है, वैसा ही जीवन में होता जाता है। कोई इच्छा करना, उस पर अपने ध्यान को रखना, इतना करने से तुमने जो इच्छा की थी वह घटित होने लगती है, भले ही वह सकरात्मक हो या नकरात्मक; यह क्रम है। आध्यात्म मार्ग पर चरित्र में शील होना बहुत आवश्यक है। कुछ आचरण यहां अपेक्षित है, जैसे कि किसी को बुरा-भला ना कहें, श्राप ना दें। पहले तुम में श्राप देने की शक्ति आती है और फिर आशीर्वाद देने की शक्ति आती है। यदि तुम श्राप देने लगे तो फिर आशीर्वाद देने की शक्ति क्षीण पड़ जाती है। यदि तुम आशीर्वाद दो, तो तुम्हारी आशीर्वाद देने की शक्ति बढ़ती जाती है।
सत्य बोलो, पर सुखद सत्य बोलो। दुखद सत्य मत बोलो और ना ही सुखद झूठ बोलो। ऐसा करना बहुत सरल है और साथ ही जटिल भी। तुम जो भी इच्छा करते हो, वह मुड़ कर तुम्हारे पास वापस आती है। वह घूम कर वापस हमारे पास ही आती है। ब्रह्माण्ड की रचना ऐसी ही है।
जब तुम एकजुट होकर कोई कार्य करते हो, तब तारतम्यता होती है। तो, जब तुम कोई इच्छा करते हो तो सभी के लिये करो, तब वह स्वतः तुम्हारे लिये भी पूरी हो जाती है। तो, इस बात का ध्यान रखें कि हम किसी के उत्साह के ऊपर ठंडा पानी ना डाले। ऐसा करने पर वही तुम्हारे साथ भी हो सकता है। क्या तुमने ध्यान दिया है कि एक बच्चा कितनी बार कुछ अच्छा करना चाहता है और हम कहते हैं, ‘नहीं, ऐसा मत करना।’ इससे एक नकरात्मक तरंग पैदा होती है, और इसका एक तात्पर्य और भी है। इसीलिये, प्राचीन समय में ऐसा कहा जाता था कि किसी को हतोत्साहित ना करें, उसके सामने विकल्प ना रखें। एक विशेष समय रखा जाता था, जब वाद-विवाद किया जाता था। उसे उस समय तक ही सीमित रखा जाता था। यह बहुत वैज्ञानिक है। अगर कुछ अपशगुन दिख जाये तो फिर किसी किसी स्थान पर लोग शुभ कार्य शुरु नहीं करते थे। पर आज हम ऐसे शगुन-अपशगुन के आधार पर नहीं जी सकते हैं। कितने ही लोग कितनी ही बातें कहेंगे! यही अच्छा है कि अपने अंतर्मन की बात मानें।
पांच साल पहले जब रजत जयंती महोत्सव होने वाला था, तब बहुत से लोगों ने कहा कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिये। उस समय सभी जगह आतंकी हमले हो रहे थे। कुछ ही दिन पहले चिन्नई में भीड़ भाड़ में भगदड़ मचने की भी ख़बर थी। लोगों ने हर तरह का तर्क देकर यह प्रयास किया कि वह कार्यक्रम ना कराया जाये। पर हम नें किसी की नहीं सुनी। और, विश्व शांति के लिये विश्व में एक यादगार कार्यक्रम हुआ, जिसमें विश्व भर से विभिन्न जातियों और परंपराओं से आये २५ लाख लोगों ने एक साथ मिलकर यह महोत्सव मनाया। ऐसा ही ब्रह्मनाद भी हुआ! कई सितार वादक यह कहेंगे कि कई वादकों के लिये मिलकर एक साथ सितार बजाना असंभव बात है! पर ऐसा हुआ। तुम्हें सपने देखने चाहिये। बड़े बड़े सपने देखो और अपना ध्यान अपनी इच्छा पर रखो। और फिर उसमें जीत या हार, परमात्मा को समर्पित कर दो। जीत मिले या हार, दोनों ही स्थितियों में तुम्हें कुछ सीखने को मिलता है। कुछ सीख मिलती है कि क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये। इच्छा रखो, उसे पूरा करने के लिये काम करो, और साथ ही उसे परमात्मा को समर्पित भी कर दो। कुछ लोग इच्छा तो रखते हैं पर उसे पूरा करने के लिये तनाव में आ जाते है! एक दूसरी तरह के लोग होते हैं, ‘जो ईश्वर की मर्ज़ी होगी वही होगा,’ कहते हुये कोई परिश्रम नहीं करते हैं। बीच के मार्ग पर आओ। दोनों साथ में चलें – इच्छा पर ध्यान रखो और भक्ति में रहो।

प्रश्न: आप इतने प्रसिद्ध हैं, और सब आपको इतना प्रेम करते हैं। क्या इससे आपने अपनी स्वतंत्रता नहीं खोई है?
श्री श्री रवि शंकर: मैं अपनी स्वतंत्रता किसी भी क़ीमत पर नहीं छोड़ सकता। मेरे पास केवल समय की कमी है। मेरे पास समय के सिवा सभी कुछ बहुतायात में है।

प्रश्न: क्या एक आत्मज्ञानी के साथ होने से व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास तेज़ गति से होता है?
श्री श्री रवि शंकर: यह तो तुम बताओ, मैं नहीं बता सकता। क्या यहां आने से तुम्हारे आध्यात्मिक विकास में गति आ जाती है? जहां कहीं भी ध्यान हो रहा होता है और तुम जा कर बैठते हो तो तुम्हें वहां स्वाभाविक रूप से ही अच्छा लगने लगता है, क्योंकि हमारा मन हमारे आस पास के लोगों से प्रभावित होता है। जब तुम ऐसी जगह में होते हो जहां सकरात्मक ऊर्जा अधिक मात्रा में होती है तो तुम भी उस सकरात्मकता को ग्रहण कर लेते हो। सकरात्मकता तो भीतर है ही, बस तुम खिलने लगते हो।

प्रश्न: मन छोटी छोटी बातों में उलझा रहता है। तो क्या शरीर में पित्त दोष के बढ़ जाने से ऐसी दशा होती है?
श्री श्री रवि शंकर: कुछ भी हो सकता है। अगर पित्त दोष बढ़ा हुआ हो तो किसी आयुर्वेदिक डौक्टर से मिलो। दूध, त्रिफला, इत्यादि लेने से भी पित्त कम हो जाता है।

प्रश्न: कई बार शगुन-अपशगुन देखकर मुझे ऐसा लगता है कि प्रकृति मुझे कुछ करने या ना करने की सलाह दे रही है। आप इस बारे में क्या कहते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: जो कुछ हो रहा है उस में हर चीज़ के पीछे के अर्थ को जानने का प्रयत्न मत करो। मैंने ऐसे लोग देखें हैं जो हर बात के पीछे कोई अर्थ निकाल लेते हैं, ‘ओह! प्रकृति मुझे कुछ संदेश दे रही है! प्रकृति कह रही है कि मुझे नहीं जाना चाहिये!’पर अगर तुम उस से आगे निकल सको तो तुम पंहुच जाओगे। प्रकृति तुम्हें जाने से रोक नहीं रही है, वह देख रही है कि तुम्हारा संकल्प कितना दृढ़ है। फिर भी इतने भी अंधे होना ठीक नहीं कि आस पास के संकेत ना पढ़ सको। यदि, तुम अटक गये तो तुम्हारा अंतर्ज्ञान या परमात्मा से तारतम्यता खो जाती है। तो अपने इरादे को मज़बूत करो। विजय हमेशा तुम्हारे साथ होगी।

प्रश्न: आध्यात्मिक मार्ग बहुत कठिन है। इसमें केवल कुछ ही लोग क्यों आत्मज्ञान पाते हैं?
श्री श्री रवि शंकर:
कठिन क्यों? आध्यात्म का अर्थ केवल अपनी आंखों को बंद रखना ही नहीं है। आध्यात्म का अर्थ है परमात्मा के साथ एक रिश्ता। परमात्मा, या फिर उसे जिस भी नाम से पुकारना चाहो! बस इतना ही है!
क्या तुम परमात्मा से साथ एक जुड़ाव अनुभव करते हो? हर साधना का ध्येय इतना ही है कि वह जुड़ाव हो। बस यह जानना पर्याप्त है कि वह जुड़ाव है। क्या तुम कार चलाते हुये ऐसा नहीं कर सकते हो? बस इतना ही है! जीवन और आध्यात्म को अलग अलग मत करो। तुम्हारा पूरा जीवन ही आध्यात्मिक है। तुम्हारा जीवन ही साधना है। सब कुछ उसी का अंग है। पर इसे ध्यान में ना बैठने का बहाना मत बना लेना! ध्यान से तुम्हारे नर्वस सिस्टम को विश्राम मिलता है, भीतर से तनाव मिटता है। क्या तुम ने ध्यान दिया है कि जब तुम तनाव में होते हो तो तुम्हें अपने प्रिय जनों तक के पास बैठने की इच्छा नहीं होती? तुम एकांत में रहना चाहते हो, पर तुम नहीं जानते कि ऐसा क्यों होता है। जैसे, एक शिशु सोना चाहता है पर वह नहीं जानता कि कैसे सोये और वह रोता है। तब मां उसे लोरे सुनाती है, थपथापाती है, कुछ करती है, और वह सो जाता है। ऐसा सब के साथ होता है। सभी अपने स्त्रोत तक वापस जाना चाहते हैं पर वे नहीं जानते कि कैसे जायें। तनाव और कुछ नहीं है बस मन को शांत ना कर पाना है।

प्रश्न: आध्यात्म के पथ पर तमस की काली रात आये तो  क्या करें?
श्री श्री रवि शंकर:
तुम सही जगह पर आये हो। आसन, सत्संग, भजन, जप, इन सब से यह अंधेरा मिट जायेगा।

प्रश्न: बुरे विचारों को बढ़ावा ना देना और उन से बचना, इस में क्या अंतर है?
श्री श्री रवि शंकर:
तुम ने खुद ही जवाब दे दिया है। तुम दो शब्दों का प्रयोग कर रहे हो, इसका अर्थ है कि तुम उन में कोई बारीक अंतर पहले से ही देख रहे हो। अपने आप को नकरात्मक विचारों से दूर रखने के बजाये, अपने आप को व्यस्त रखो। अगर तुम व्यस्त हो तब वे तुम्हें परेशान नहीं करेंगे।

प्रश्न: आत्मज्ञान से आगे क्या है?
श्री श्री रवि शंकर:
कुछ कुतूहल बना रहने दो। अगर तुम सब कुछ अभी जान गये तो बोर हो जाओगे। ये तो ऐसा ही है जैसे कोई बच्चा पूछे, ‘आकाश के ऊपर क्या है?’आकाश के ऊपर आकाश है!

प्रश्न: भगवान ने भय क्यों बनाया? मैं भय से छुटकारा कैसे पाऊं?
श्री श्री रवि शंकर:
भगवान ने केवल प्रेम ही बनाया! प्रेम सिर के बल उल्टा खड़ा होकर भय बन गया।

प्रश्न: कुछ प्रार्थनाओं का जवाब क्यों नहीं मिलता?
श्री श्री रवि शंकर:
हो सकता है वे तुम्हारे भविष्य के लिये लाभकारी ना हो। देखो, तुम्हारे जीवन में ऐसा कितनी बार हुआ है कि तुमने भगवान से कुछ मांगा और वो नहीं मिला, और आगे जाकर तुमने धन्यवाद दिया कि तुम्हारी वह प्रार्थना पूरी नहीं हुई? तो, धीरज रखो। तुम्हारे लिये जो भी अच्छा होगा, वही होगा।

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दृढ़ संकल्प से कार्य पूर्ण होने में सफ़लता मिलती है

बंगलोर आश्रम, भारत जनवरी ४, २०१०
प्रश्न: हम युवा लोग, सेवा, पढ़ाई और परिवार की देखभाल के बीच संतुलन कैसे बनायें?
श्री श्री रवि शंकर: तुम साइकिल कैसे चलाते हो? क्या तुम उसे किसी एक तरफ़ गिरने देते हो? जब एक तरफ़ अधिक झुक जाओ तो अपना संतुलन बना लो। पर एक निष्ठा होनी चाहिये - मुझे सेवा करनी है, पढ़ाई करनी है और अपने परिवार की देखभाल भी करनी है, अपने बड़ों की इज़्ज़त करनी है। यह विश्वास रहे कि, मैं यह सब कर पाउंगा। अगर तुम्हें इस में कोई संदेह हो, तो यह जान लो कि वो तत्कालिक है। ये एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं, अपितु पूरक हैं। जब तुम सेवा करते हो तो तुम्हें पुण्य मिलता है और कार्य करने की शक्ति मिलती है, तुम्हारा भाग्य अच्छा बनता है।

सबसे महत्वपूर्ण बात है कि तुम्हारा व्यक्तित्व सुदृढ़ बने। कालेज जाना और बहुत सी जानकारी भर कर सिर्फ़ परीक्षा पास करना काफ़ी नहीं है। तुम में कितनी मिठास और ताकत आई है? तुम कितने मज़बूत हुए हो! क्या तुम्हारा व्यक्तित्व समग्र रूप से खिल रहा है? यह देखना आवश्यक है। होश के साथ जोश! सबको एक सूत्र में बाँध सकते हैं।

प्रश्न: ऐसा कहा गया है कि भगवान को भोले लोग पसंद हैं, और किस्मत भी भोले लोगों का साथ देती है। भोले बनने के लिये क्या करें?
श्री श्री रवि शंकर: भोलापन तो वैसे भी सभी में है ही। बस तुम्हें उसे खिलाने की ज़रूरत है। और ये कैसे करना है? बस, ध्यान में बैठ जाओ। मैं कुछ नहीं हूं - अकिंचन। मुझे कुछ नहीं पता। और, सभी मेरे अपने हैं। मैं सभी को स्वीकार करता हूं, और सभी मुझे स्वीकार करते हैं।
जब हम यह जानते हैं कि सभी हमें स्वीकार करते हैं तब हम सहज होकर आगे बढ़ते हैं। जब तुम सोचते हो कि तुम जैसे हो, लोग तुम्हें वैसा स्वीकार नहीं करते हैं, तब हम अपने आप को स्वीकार करवाने के लिये चतुरता का प्रयोग करने लगते हैं।

प्रश्न: जब से आप मेरे जीवन में आये हैं, मैं आप से कुछ ना कुछ मांगता ही रहता हूं। कभी कभी मुझे यह अच्छा नहीं लगता। आप थक नही जाते?
श्री श्री रवि शंकर: क्या मैं तुम्हें थका हुआ लगता हूँ! जब तुम कुछ मांगते हो और वो मिलता है तो तुम्हारा विश्वास और विकसित होता है, और फिर बिना मांगे ही तुम्हारी ज़रूरते पूरी होती जाती हैं।

प्रश्न: किसी के मरने के बाद श्राध, दस्वें और तेरहवें दिन पूजा की जाती है। इसका क्या महत्व है?
श्री श्री रवि शंकर: दस्वें दिन श्राध करने की परंपरा बहुत ही वैज्ञानिक है। दस दिन तक तुम मरने वाले प्रियजन के जाने के दुख में रहते हो, उनकी याद आती रहती है। तो जितना रोना है, दुख बाहर करना है, पूरा करो। दुख को पूरी तरह जी कर उसे वहीं खत्म कर देते हैं। फ़िर तेरहवें दिन तुम उस दिवंगत आत्मा के परमात्मा में विलीन होने की खुशी मनाते हो। वह आत्मा अपने परमस्रोत पंहुच गयी। फिर तेरहवें दिन तुम उत्सव मनाते हो, उपहारों का आदान प्रदान होता है, सब लोग साथ में मिल प्रीतिभोज करते हैं। जीवन एक उत्सव है और मृत्यु भी उत्सव है। आत्मा को अपने परम धाम में प्रसन्नता और शांति मिले, इसकी खुशी मनाते थे। अगर वह शांत है तो हम भी शांत हैं।

प्रश्न: आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिये कुछ प्रयास आवश्यक है। पर आप कहते हैं कि कोई श्रम नहीं करना है।इन दोनों में सही बात क्या है?
श्री श्री रवि शंकर: दोनों ही हैं। एक ट्रेन में चढ़ने के लिये तुम्हें प्रयास करना पड़ता है, तुम अपना सामान लेकर सही प्लेटफ़ार्म पर जाते हो। पर एक बार ट्रेन में चढ़ गये तो फिर अपना सामान किनारे रख कर आराम से बैठ जाते हो।

प्रश्न: पूरी लगन और मेहनत के बाद भी कुछ सपने सच नहीं हो पाते हैं, तब क्या करना चाहिये?
श्री श्री रवि शंकर: तुम अपना प्रयास जारी रखो। एक कहावत है कि बार बार प्रयास करते रहो, अंतः सफलता तुम्हारे हाथ आकर ही रहेगी। तो, हो सकता है कि एक बार तुम सफल ना हो, दूसरी बार भी सफल ना हो, पर अगर तुम्हारा संकल्प दृढ़ है तो सफलता मिलेगी।

प्रश्न: पृथ्वी की ऐसी हालत को देखते हुये, प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के चलते, आगे के समय में हम लोग कैसे जी पायेंगे?
श्री श्री रवि शंकर: लोग अब अधिक जागरूक हो रहे हैं। हम सब को इस दिशा में काम करने की आवश्यक्ता है।

प्रश्न: समर्पण के भाव को कैसे बढ़ायें?
श्री श्री रवि शंकर: बस, मान लो कि तुम समर्पित हो। इस में कोई प्रयास ना लगाओ। समर्पण तो है ही, ऐसा मान लो और आगे बढ़ो।

प्रश्न: स्वामी लोग अपने सिर के बाल और दाढ़ी क्यों बढ़ाते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: एक अर्थिंग है और एक ऐनटीना! यह बस एक यूनिफ़ार्म है! स्वामी लोग जो भी करते हैं, पूरी तरह से करते हैं, या सब छोड़ देते हैं, या फिर सब रख लेते हैं।

प्रश्न: मुझे बचपन से बताया गया है कि मांसाहार करना पाप है। क्या ऐसा है?
श्री श्री रवि शंकर: ऐसा मत सोचो कि मांसाहार करने वाले लोग पापी हैं। मांसाहार भोजन करने से उनकी तामसिक वृत्तियों को बढ़ावा मिलता है। ये ना उनके लिये अच्छा है, ना विश्व के लिये और ना समाज के लिये। अपने पेट को कब्रिस्तान मत बनाओ भई!

प्रश्न: क्या श्रद्धा के बिना ज्ञान संभव है, या फिर दोनों में कोई संबंध है?
श्री श्री रवि शंकर: श्रद्धा और ज्ञान साथ साथ चलते हैं, क्योंकि जहां ज्ञान होता है, वहां श्रद्धा भी होती है, और जहां श्रद्धा होती है, वहां ज्ञान भी होता है। तुम में श्रद्धा है, तभी तो तुम यह पूछ रहे हो। तुम्हें विश्वास है कि मैं तुम्हें जवाब दूंगा, और तुम मेरा जवाब स्वीकार कर लोगे। तो ज्ञान और श्रधा साथ साथ चलते हैं।

प्रश्न: भाग्य पूर्वनिश्चित है या बदला जा सकता है?
श्री श्री रवि शंकर: कुछ भाग्य पूर्वनिश्चित है, और कुछ चीज़ें बदली जा सकती हैं। तुम ज्ञान के सूत्र पढ़ सकते हो।

प्रश्न: क्रोध को नियंत्रित करना कठिन है। ऐसा क्या करें कि क्रोध आये ही नहीं?
श्री श्री रवि शंकर: पहले क्रोध पर काबू पा लो, और फिर मन तृप्त और प्रसन्न हो जाये, तब ध्यान करो। और गल्तियों को स्वीकार कर लो, तो फिर क्रोध आयेगा ही नहीं। यह जान लो कि कोई भी गल्ती, क्रोध से नहीं सुधरती। सजगता से ही कुछ भी ठीक कर सकते हो।
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जो ज्ञान त्रिकाल में सत्य है, वह शुद्ध ज्ञान है

बंगलोर आश्रम, भारत ३ दिसंबर २०११

प्रश्न: अगर एक व्यक्ति को लगता है कि वह किसी काम का नहीं है तो, वह जीवन में कैसे बढ़ सकता है?
श्री श्री रवि शंकर: कुछ समय यहां रहो, और यह जान लो कि भगवान कोई भी बेकार चीज़ नहीं बनाते हैं। इस पृथ्वी पर जो कोई भी मौजूद है वह किसी ना किसी काम का है ही।

प्रश्न: इन में से किस का महत्व अधिक है - मोक्ष यां प्रेम और कृतज्ञता?
श्री श्री रवि शंकर: अपने भीतर कुछ मात्रा में मुक्ति ना हो तो प्रेम या कृतज्ञता का अनुभव नहीं हो सकता है। मोक्ष मुक्ति है। यह सब साथ साथ ही चलते हैं। जीवन में जितनी मुक्ति होगी, उतनी ही कृतज्ञता का अनुभव होगा।

प्रश्न: मेरे बहुत से मित्र हैं, फिर भी मुझ में असुरक्षा का भाव अब भी है। मैं क्या करूं?
श्री श्री रवि शंकर: ऐसा पहले होता था ना! इस समय तो नहीं है न! बस आगे देखो।

प्रश्न: जब से यह ब्रह्माण्ड बना है, तभी से आत्मायें भी हैं। क्या उनकी संख्या बढ़ रही है या घट रही है? मुझे आत्माओं का गणित समझ नहीं आता।
श्री श्री रवि शंकर: कई प्रजातियां लुप्त भी हो रही हैं! कई सांप, बिच्छू, गौरेया, तितलिया...हो सकता है कि वे मनुष्य बन कर आ रहे हों!

प्रश्न: गीता के दस्वें अध्याय का अंतिम श्लोक किस प्रकार के लोगों के लिये कहा गया है?
श्री श्री रवि शंकर: भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘विश्व में तुम जो भी कुछ देखते हो वह सभी मेरा ही एक अंश है। जहां भी तुम कोई अच्छाई देखते हो, वो मैं ही हूँ। जहां भी तुम तीक्ष्ण बुद्धि देखते हो, वह मैं ही हूं। कहीं भी तुम वीरता देखते हो, वह मैं ही हूं। यह पूरा विश्व मेरा ही प्रतिबिंब है’।

प्रश्न: मेरी एक सहेली कुछ दिनों से अस्वस्थ है और साधना भी नहीं कर रही है। उसका बर्ताव समझ नहीं आता। इन सब की क्या वजह हो सकती है?
श्री श्री रवि शंकर: हो सकता है वह ठीक से भोजन नहीं ले रही है, अपने शरीर का ख्याल नहीं रख रही है। वह अपना नाड़ी परीक्षण करवा सकती है। शरीर में नरवस सिस्टम अगर कमज़ोर हो तब भी ऐसा हो सकता है। शरीर में अगर लीथियम की मात्रा कम हो तब भी मन खोया खोया सा रहता है। भोजन में प्रोटीन और मिनरल लेने से इस स्थिति का हल हो जायेगा।

प्रश्न: कई लोग कहते हैं कि हनुमान जी अब भी हिमालय में रहते हैं। क्या यह सच है? अगर यह सच है तो आप कितनी बार उनसे मिलते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: तुम्हें पता है ब्रह्माण्ड में सभी कुछ एक तरंग है। सब कुछ एक ही तरंग है। यहां कुछ भी ठोस नहीं है। अगर तुम डिस्कवरी चैनेल पर क्वॉन्टम फ़िसिक्स पर वैज्ञानिकों को बोलते हुये सुनो तो तुम पाओगे कि जो भी कुछ दिखाई देता है वह वास्तव में वैसा नहीं है। सूक्ष्म रूप में सब ऊर्जा ही है। हनुमान जी किसी जगह पर बैठे हुये व्यक्ति नहीं है, वे प्राण उर्जा में चेतना के रूप में विराजमान हैं।

प्रश्न: आत्मज्ञान एक मंज़िल है या यात्रा? अगर हमें आत्मज्ञान हो गया तो पता चल जायेगा कि आत्मज्ञान हो गया है, या चलते ही रहना होगा?
श्री श्री रवि शंकर: हां, यह दोनो ही है। एक तरह से यह एक यात्रा है, और एक दूसरी तरह से यही आखिरी मंज़िल है। जब तुम्हें तृप्ति का अनुभव हो और जीवन में कोई आवश्यकता बाकी ना रहे! कोई कमी बाकी ना रहे, और हम पूर्णता का अनुभव करें। यह तुम कैसे जानते हो कि तुम्हें कहीं दर्द हो रहा है? तुम दर्द को अनुभव करते हो इसलिये तुम यह जानते हो कि दर्द हो रहा है। आत्मज्ञान होने पर तुम्हें तृप्ति और पूर्णता का एहसास होता है! जब तुम्हारी मुस्कुराहट कभी फीकी नहीं पड़ती! यह सहज ही घटित होता है।

प्रश्न: अपने आप को दूसरों के नकरात्मक भावों से कैसे बचायें?
श्री श्री रवि शंकर: ॐ नमः शिवाय का जप करो! या, जय गुरुदेव से भी चलेगा!

प्रश्न: मन और आत्मा में क्या अंतर है?
श्री श्री रवि शंकर: मन यानि विचार। आत्मा वह है जिस के भीतर सब घटित हो रहा है।

प्रश्न: अपने जीवनसाथी को कैसे चुनें?
श्री श्री रवि शंकर: मुझे इसका अनुभव नहीं है!

प्रश्न: कोई शादी क्यों करता है? एक सफल विवाहित जीवन का रहस्य क्या है?
श्री श्री रवि शंकर: एक सफल विवाहित जीवन में पति-पत्नि दोनों ही सुखी होते हैं। तब उनके बच्चे भी खुश रहते हैं। चुनाव तुम्हारा है, और मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है! पर यह चुनाव तुम अपना दिमाग लगा कर नहीं करना। भविष्य में कुछ ठीक जमे, तो जोखिम उठा लेना। जीवन में जोखिम तो है ही।

प्रश्न: ज्ञान का मतलब क्या है?
श्री श्री रवि शंकर: ज्ञान का मतलब सूचना नहीं है। ज्ञान का अर्थ है सजगता। ज्ञान वह पात्र है जिस के भीतर सूचनायें हैं। चेतना ही ज्ञान है। सत्यम् ज्ञानम् अनंतम् ब्रह्म - ब्रह्म की चार विशेषतायें हैं सत्य, अनंतता, ज्ञान और ईश्वर। ज्ञान के यही चार पहलू हैं। सभी कुछ एक ही है। जो ज्ञान समय के सापेक्ष है वह सूचना है। जो ज्ञान त्रिकाल में सत्य है वही असल में ज्ञान है।

प्रश्न: मेरा जीवन किसलिये है? पृथ्वी पर मेरा जन्म क्यों हुआ है?
श्री श्री रवि शंकर: ताकि, जैसे तुम अभी मुस्कुरा रहे हो, वैसी ही मुस्कुराहट तुम दूसरों के जीवन में लाओ।

प्रश्न: फ़ोलो अप में सुदर्शन क्रिया करने के बाद मैं अपने भीतर बहुत ऊर्जा का अनुभव करता हूं। मैं उस ऊर्जा को संभाल नहीं पाता हूं। क्या मैं अडवांस कोर्स में भाग लूं?
श्री श्री रवि शंकर: आसन और प्राणायाम करके मज़बूत हो जाओ!

ज्ञान का मोती:
एक समय की बात है, तब मार्च को साल की शुरुवात माना जाता था। मार्च पहला महीना है। मार्च का अर्थ है आगे बढ़ना। उस समय सूर्य पहली राशि, मेष राशि में प्रवेश करता है। आज भी इराक़, ईरान, अफ़गानिस्तान, तुर्की, और भारत के कई भागों में मार्च को ही साल का पहला महीना माना जाता है। तो, असली नया साल, मार्च में शुरु होता है। इस तरह दिसंबर साल का दस्वां महीना हुआ। दश+अंबर=दिसंबर। संस्कृत में दश का अर्थ है दस। अंबर का अर्थ है आकाश। दिसंबर का अर्थ है दस्वां आकाश। इसी तरह नवंबर का अर्थ है नवां आकाश, और आगे भी ऐसा ही है। महीनों के इन नामों का जन्म संस्कृत से ही हुआ है। जनवरी ग्यारहवां महीना है और फ़रवरी आखिरी महीना है।
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सृष्टि की पूर्ण स्वीकृति पूर्ण आनंद का स्रोत है

जर्मन आश्रम, १ जनवरी २०११

पुराने समय में नव वर्ष पर नीम और गुड़ के साथ शुरुआत करते थे - जीवन में अच्छे और बुरे दोनो को स्वीकार करते हुए। जीवन में केवल मीठा ही हो तो वो गहराई नहीं आती। कुछ थोड़ा कड़वा जीवन में गहराई लाता है। जीवन में मुश्किल घड़ियों ने कहीं हमे मज़बूत बनाया है और अच्छे पल हमे आगे बढ़ाते हैं।पर अगर केवल मीठा ही हो जीवन में, सब अच्छा ही चलता रहे तब भी जीवन आगे नहीं चल सकता। जीवन मीठा और कड़वा, अच्छे और बुरे का मेल है। समय का फ़ेर ऐसा ही है - कभी अच्छा और कभी बुरा। जब कुछ बुरा होता है तो हमें होंसले और हिम्मत की ज़रुरत पड़ती है। जब अच्छा होता है तो दूसरों के साथ बांटने का रवैया। यह जीवन का तथ्य है। फ़िर कैलेंडर देखते थे। कैलेंडर देखकर यह याद करते थे कि पिछले बारह महीनों में कुछ अच्छा हुआ और कुछ बुरा और जिन महीनों में कुछ अच्छा नहीं हुआ उनके लिए तैयार होते थे। और फिर ध्यान करते थे ताकि सब तरह के बुरे प्रभाव कम हो जाएं और अच्छे बड़ जाएं और इस प्रार्थना के साथ कि कड़वे अनुभव हमें मज़बूत बनाएं। एक भीतरी शक्ति जाग्रित होती है। अपने भीतर उत्सव अनुभव करने के लिए सत्संग और सेवा बहुत ज़रुरी हैं। उत्सव होता है जब कुदरत की पूर्ण स्वीकृति होती है। समय और जीवन का आदर, और पिछले वर्ष में जो भी हमे मिला उसके लिए दिव्यता का शुकराना। चाहे अच्छा हुआ यां बुरा - हमे क्या करना चाहिए और हमे क्या नही करना चाहिए, और खुले दिल से नव वर्ष का स्वागत जो हमे और समृद्ध और उत्साह दे, और जीवन में और ज्ञान का समावेश हो। जब जीवन में ज्ञान होता है तो उत्सव सहज ही होता है।
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