“लयतरंग” संगीत और नृत्य का मधुर आध्यात्मिक संगम

२०, फरवरी २०११, नागपुर , भारत

सृष्टि के सुन्दर स्वरुप की महिमा में गायन के उपरांत गुरूजी ने कहा जो कोई भी संगीत में विलीन होना जानता हैं वह इस जीवनकाल में ही परिपूर्ण हो जाता है|

जब ज्ञान, ध्यान और संगीत लय में होते हैं तो जीवन सामंजस्यपूर्ण/मधुरमय हो जाता हैं |

प्रकृति की एक लय हैं !
हमारे शरीर की भी एक लय हैं !
जब हमारी लय प्रकृति के साथ सामंजस्य में होती हैं तो जीवन एक सुन्दर उत्सव हो जाता हैं|

जब हम प्रकृति का ध्यान रखते हैं तो प्रकृति हमारा ध्यान रखती है। जब हम पृथ्वी पर गलत पदार्थो को ड़ालते हैं तो, उसका प्रभाव हम पर ही होता है|

जैसे दूषित,रसायनिक और विस्फोटक पदार्थ।

अब यह समय आ गया हैं कि हम प्रकृति के और अधिक निकट आ जाएं और अब जैविक तत्वों का उपयोग करें| संगीत बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है|

संगीत मन में सामंजस्यता लाता हैं |

आज यहाँ पर कितने युवा हैं ?
रॉक संगीत!
क्या जापानी वैज्ञानिक द्वारा किये हुए शोध का आपने अध्ययन किया हैं – कैसे शब्द और स्पंदन हमारे शरीर-मन के जल तत्व पर प्रभाव डालते हैं!

संगीत में हमें फूल के जैसे खिलने की यां चट्टान के जैसे ठोस बनाने की क्षमता है|

एक और संगीत है – आपके भीतर का दिव्य संगीत !

जब आप ध्यान करते हैं तो आप स्वयं को भीतर के संगीत के स्रोत के निकट ले आते हैं , जो सिर्फ आनंदमय हैं |
हमारे संकल्प की शक्ति के अनुरूप हमारे कार्य पूर्ण होने लगते हैं |

महात्मा गाँधी का संकल्प कितना मजबूत था ?

ध्यान हमारे कार्यों की पूर्ती करता हैं ! वह प्रकृति को हमारी बात सुनने के लिए विवश कर देता हैं !

आध्यात्म का अर्थ हमारे अपनेपन के चक्र में बढ़ोतरी करना हैं। ब्रह्माण्ड के साथ स्वयं की एकाकी का अनुभव करना!

अब हम ध्यान करेंगे?
ठीक है! एक और गीत के बाद हम ध्यान करेंगे!

जीवन जीने की कला ने सेवा के ३० (तीस) वर्ष पूर्ण कर लिए हैं !

क्या आपको मालूम हैं कि हमारे पांच प्रमुख सिद्धांत क्या हैं !

लोगो और स्वयं को जैसे हैं वैसे ही स्वीकार करें और फिर कृत्य करें !

दूसरा: वर्तमान क्षण में रहे !

दूसरों के मंतव्यो का शिकार न बने |

जीवन में कभी अच्छा और कभी बुरा समय आता है! विरोधाभास मूल्य एक दुसरे के पूरक हैं !

दूसरों की गलतियों में कोई आशय न ढूंढें/खोंजे|

आज जीवन जीने की कला १५२ देशो में हैं ! आप उत्तरी ध्रुव के छोर पर जायें – आप को वहाँ पर आर्ट ऑफ लिविंग मिलेगा!

आप दक्षिणी ध्रुव पर जाये - आप को वहाँ पर भी आर्ट ऑफ लिविंग मिलेगा !

ठीक हैं! अब हम एक भजन के उपरान्त थोड़ी देर के लिए ध्यान करेंगे !

जब आप अकेले ध्यान करते हैं तो वह तपस्या है ! जब उसे समूह में किया जाये तो वह ध्यान यज्ञ है!

ठीक है! एक इच्छा!

एक इच्छा को मांगे और वह पूरी हो जायेगी!

ध्यान-शब्द से निशब्द, अस्थिरता से संतुलन, अव्यवस्था से परमानन्द की ओर ले जाता है!

ध्यान के तीन सुनहरे सूत्र :
आगे के कुछ मिनटों के लिए, मुझे कुछ नहीं चाहिए !

आगे के ८ - १० मिनिट तक मैं कुछ नहीं करूँगा !

तीसरा : मैं कुछ नहीं हूँ – न तो धनी और न निर्धन - न बुद्धिमान और न मंद बुद्धि – किसी भी किस्म का लेबल अगले १० मिनिट तक नहीं !

कोई प्रयास न करें , यदि विचार आते हैं तो आने दे! बस दृष्टा भाव में बैठ जाएं और ध्यान को होने दें।

ठीक हैं ! और अब ध्यान करते हैं !

हमने २० मिनिट ध्यान किया! क्या आपको समय का पता चला?
एक असीमित शक्ति आपसे प्रेम करती है! और वह शक्ति हमारे भीतर है! इसलिए इस विशवास के साथ आगे बढ़े! इस असीमित शक्ति का बोध होने का उपाय साधना है!

सेवा, साधना, सत्संग !!!

(समारोह का समापन शिव चेतना के सम्मान में समर्पित नृत्य से हुआ !!!! भारत में ब्रह्माण्ड के ध्यानस्थ स्वरुप को भगवान शिव के रूप में पूजा जाता हैं !)
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अपने भीतर के न बदलने वाले स्वरुप के साथ जुड़ने से जीवन विनोदपूर्ण बन जाता है


१८ , फरवरी २०११, नई दिल्ली
गुरूजी प्रतिदिन विभिन्न प्रकार के श्रोताओ को संबोधित करते हैं, कभी कभी समाज के विशेष वर्ग के लोगो को, इसलिए टीम ने ज्ञान को इस रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया हैं कि अधिक से अधिक लोग इससे लाभान्वित हो सके , हमें अपनी प्रतिक्रिया कमेन्ट बॉक्स में लिखे|
सत्य और झूठ की सीमा !!!!
प्रश्न : जो लोग झूठ बोलते हैं कोई उनसे कैसे निपटे? क्या सच्चाई के साथ किसी का विकास संभव है?
श्री श्री रविशंकर: नैतिकता के साथ विकास हो सकता है| आपको उन्हें वास्तव में एक बात समझानी होगी कि वे सत्यम के जैसे काफी ऊपर उठ सकते हैं और असत्यम के जैसे उनका पतन भी हो सकता है! ऐसे कितने उदहारण है! जो वास्तव में ईमानदार हैं, वह राजा के जैसे जीते हैं , और जो गलत मार्ग पर हैं उसका स्वयं का मन उसे दिल से मुस्कुराने की अनुमति नहीं देता| ऐसे लोग ठीक से सो भी नहीं पाते है|
ठीक है ! क्या इसका यह अर्थ हुआ कि राजा हरीशचंद्र के जैसे जीवन व्यतीत करना होगा? १०० % सत्य भी व्यावहारिक नहीं है| इसलिए शास्त्रों में बहुत ही सुन्दर रूप में इसकी व्याख्या की है| एक ब्राह्मण या सन्यासी को बिलकुल भी झूठ बोलने की अनुमति नहीं है| एक गुरु को भी नहीं है| परन्तु एक राजा, प्रशासक थोड़ा बहुत झूठ कह सकते हैं यदि वह सामान्य रूप से लोगो की भलाई के लिए है| व्यवसायीयो के लिए थोड़ी बहुत और गुंजाइश है| बहुत खुश नहीं हो जाना! इसका यह मतलब नहीं है कि आपको झूठ बोलने की अनुमति मिल गयी| भोजन में जितना नमक होता है व्यवसाय में उतना झूठ बोला जा सकता हैं | जैसे १ या २ बात उदहारण के लिए, यदि आपको अपना कोई उत्पाद बेचना है तो आप कह सकते हैं कि यह सबसे उत्तम है चाहे यह आपको पता है वह उत्तम नहीं है! इसमें आपको कोई पाप नहीं लगेगा| यह भोजन में नमक होने का उदाहरण है| यदि भोजन में अधिक नमक हो तो फ़िर भी क्या वह खाने योग्य होगा?
मृत्यु:
प्रश्न: मृत्यु की तयारी कैसे की जाए?
श्री श्री रविशंकर: मृत्यु के लिए कोई तैयारी करने की आवश्यकता नहीं है? आप अतीत के लिए मरते हैं, जब आप अतीत को मार देते हैं तो फिर आप वर्तमान में जीने लगते हैं | जब अतीत पर आप अपनी पकड़ डीली छोड़ देते हैं तो आप वर्तमान में आ जाते हैं। जीवन जीने की कला और मृत्यु की कला एक ही सिक्के के दो पहलू हैं| अतीत में जो कुछ बीत गया उसे भूल जाये| वर्तमान में जिए| यदि आप वर्तमान में जीना चाहते हैं तो अतीत में जो कुछ भी हो गया है उसे भूल जाये (तालियां)| हर क्षण अतीत भूलते जाए| यदि प्रत्येक क्षण में आपको मरने की कला आती है तो फिर जीवन सबसे उच्चतम अवस्था में खिल जाता है | प्रत्येक क्षण मन का मरना मृत्यु है| वैसे भी आत्मा का कोई अंत नहीं होता है | जो आप मृत्यु को समझते हैं वह सिर्फ शरीर और मन का वियोग है| शरीर ,मन, बुद्धि , सबकुछ बदल रहा है| जो नहीं बदलता है वह आपका भीतरी अविनाशी सत है|जब आप अपने भीतर के न बदलने वाले स्वरुप से जुड़ जाते हैं तो फिर जीवन विनोदपूर्ण बन जाता है| (ताँलिया )

भ्रष्ट बॉस से कैसे निपटा जाये
प्रश्न : यदि बॉस इतना भ्रष्ट है कि वह चाहता है कि आप भी उसका हिस्सा बने तो ऐसे साहब (बॉस) से कैसे निपटा जाये ? ऐसी स्थिति में जीवित रहना बहुत कठिन है|
श्री श्री रविशंकर : मुझे मालूम है( हँसते हुए, तालिया)! मैं आपकी परेशानी को समझ सकता हूँ| इसके लिए आपको काफी कुशलता चाहिए| आपको अपने बॉस से कहना होगा, “ साहब मैं इन सब बातो में बहुत कुशल नहीं हूँ , यदि मुझ से कोई गलती हो जाये तो आप परेशानी में आ सकते हैं| बेहतर होगा कि आप इसके लिए किसी अन्य व्यक्ति को चुने| मैं इसमें कुशल नहीं हूँ” आप उसे यह कह सकते हैं या अपना कोई सुझाव दे सकते हैं और कह सकते हैं, “ शायद यह बेहतर होगा | आप ज्यादा जानते हैं , आप सबसे उत्तम निर्णय ले सकते हैं” | जब आप यह आखिरी वाक्य कह दें , तो वह आपका सुझाव मानने के लिए तैयार हो सकता है| परन्तु यदि आप उसे से कहेंगे कि वो गलत है और आप ही सही हैं तो यह समझाने का गलत तरीका होगा | ना सिर्फ अपने साहब के साथ परन्तु आपके पालको के साथ भी और कभी कभी अपने जीवन साथी के साथ भी|


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आपकी भेजी गई प्रविष्टियां में से चुनिंदा कविता


इस पल की सोच

क्यों उलझा है तू
कल और कल में?
अगर कुछ सोचना है,
तो इस पल की सोच..

इस पल में हंसी है,
इस पल में नमी है..
ध्यान से देखो
तो इस पल में सभी है..

कल जो खो गया
उसे कल में ही छोड़
अगर कुछ सोचना है,
तो इस पल की सोच..

ख्वाब देखना अच्छा है,
पर ख्वाबों में न रहना..
वो ख्वाब सच हो
तो इस पल को याद करना..

इस पल को खोकर
वो ख्वाब को ना मोड़
अगर कुछ सोचना है,
तो इस पल की सोच..

खोजते ख़ुशी ज़िन्दगी हमारी,
कहीं यूही न कट जाए सारी
इस पल में रहकर तो देख,
शायद इस में खुदा मिल जाए..

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एक अद्भुत शक्ति है, ईश्वर, अल्ला यां कुछ भी नाम दो, आपके साथ हर समय है

१४ फ़रवरी, भारत
हमारे यहाँ आने का बस एक ही मकसद था, आपको ये याद दिलाना कि आप अकेले नहीं हो, आपके साथ एक अद्भुत शक्ति है। ईश्वर है आपके साथ, दिन रात - बस इतना याद दिलाना!

कुछ घबराने की बात नहीं है, जीवन में दु:खी होने की कोई दरकार नहीं है, प्रसन्नता से समाज सेवा करते चले जाओ। आपका काम हो जायेगा- ये मेरी जिम्मेदारी है।

आपको बस थोड़ी थोड़ी देर शांत होकर रहना है। थोड़ी देर मौन होकर, शांत होकर बैठोगे तो तभी आपका मेल (कनेक्शन) हो जाता है उस विराट शक्ति के साथ। शांत होकर बैठ जाओ थोड़ी देर!

एक ज़माना था जब हिन्दुस्तान की संस्कृति पूरी दुनिया में छाई हुई थी। आप दक्षिण अमरीका के एक दूरतम कोने में आज भी चले जाइये-वहाँ भी भारतीय idols की मूर्ति खुदाई में मिली है।

मैं सभी सरकारी अधिकारियों व भारत वासियों से अनुरोध करता हूँ कि हम सब दो वर्ष का समय अपनी पृथ्वि को दें, एक शांत, life supporting ग्रह बनाने के लिए।

क्या आप सभी युवा वर्ग के लोगों को इसमें जुड़ने में रुचि नहीं है? क्या आप सब अपनी धरती को भ्रष्टाचार से मुक्त देश देखना चाहते हो? (युवाओं की ज़ोरदार सहमति, एक सम्मिलित आवाज़ में - हाँ!)

आज हम फंसे हुए हैं भ्रष्टाचार और गंदगियों के दलदल के बीच- एक ओर बड़े बड़े घोटाले हैं तो दूसरी ओर फ़ैलती हुई गंदी बस्तियाँ। एक ओर हम धरती को विस्फ़ोटो से उड़ा रहे हैं तो दूसरी ओर Global warming | इस प्रकार यह कब तक चलेगा? तुम सब युवा पीढ़ी के लोग बड़े होकर एक life supporting ग्रह देखना चाहोगे यां?

हम ऐसा अपना विश्व चाहते हैं - मानवीय मूल्यों से भरपूर, करुणा, प्रेम से रत हमारी धरती! इसलिये अहिंसा, अत्याचार, भ्रष्टाचार को दूर करना होगा तभी यह धरा रहेगी।


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प्रेम के वास्तविक स्वरुप की गहन अनुभूति करे !

बुधवार, १६ फरवरी २०११
अपने दिल को सुरक्षित रखे, यह बहुत नाज़ुक होता हैं | कुछ छोटी छोटी बातें और घटनायें इस पर गहन प्रभाव छोड़ देती हैं | एक बहुमूल्य रत्न को सोने चांदी में मढ़ कर रखते हैं। उसी तरह ज्ञान और विवेक से अपने दिल के दिव्यत्व को सहेजो। मन और दिल को साफ और स्वस्थ्य रखने के लिए दिव्यता से उत्तम कुछ भी नहीं हैं | फिर गुजरता हुआ समय और घटनायें आपको स्पर्श भी नहीं कर पायेंगी और न कोई घाव दे पाएगी |

जब कोई आपके प्रति प्रेम को बहुत अधिक अभिव्यक्त करता है तो अक्सर आप समझ नहीं पाते कि उस पर प्रतिक्रिया कैसे करें या आभार कैसे प्रगट करें। सच्चे प्रेम को पाने की क्षमता प्रेम को देने/बाँटने से आती हैं | आप जितना अधिक केंद्रित होते हैं, अपने अनुभव के आधार पर आप यह समझ पाते हैं कि प्रेम सिर्फ एक भावना नहीं हैं, वह आपका शास्वत आस्तित्व हैं, फिर आप सहज हो जाते हैं, चाहे कितना भी प्रेम किसी भी रूप में अभिव्यक्त किया जाए|

प्रेम के तीन प्रकार होते हैं| प्रेम जो आकर्षण से मिलता हैं, प्रेम जो सुख सुविधा से मिलता हैं और फिर दिव्य प्रेम| प्रेम जो आकर्षण से मिलता हैं वह क्षणिक होता हैं क्योंकि वह अनभिज्ञता या सम्मोहन की वजह से होता हैं | इसमें आपका आकर्षण से जल्दी ही मोह भंग हो जाता हैं और आप ऊब जाते हैं। यह प्रेम धीरे धीरे कम होने लगता है और भय, अनिश्चित्ता,असुरक्षा और उदासी लाता है|

जो प्रेम सुख सुविधा से मिलता हैं वह घनिष्टता लाता हैं परन्तु उसमे कोई जोश, उत्साह, या आनंद नहीं होता है| उदहारण के लिए आप एक नवीन मित्र की तुलना में अपने पुराने मित्र के साथ अधिक सुविधापूर्ण महसूस करते हैं क्योंकि वह आपसे परिचित हैं | उपरोक्त दोनों को दिव्य प्रेम पीछे छोड़ देता हैं | यह सदाबहार और नवीन रहता है| आप जितना इसके निकट जायेंगे उतना ही इसमें अधिक आकर्षण और गहनता आती ह। इसमें कभी भी ऊबते नहीं हैं और यह हर किसी को उत्साहित रखता है|

सांसारिक प्रेम सागर के जैसे हैं , परन्तु सागर की गहराई का भी एक माप होता है| दिव्य प्रेम आकाश के जैसे हैं जिसकी कोई सीमा नहीं हैं | सागर की गहरई से आकाश की ओर ऊँची उड़ान को भरो |
प्राचीन प्रेम इन सभी संबंधो से परे हैं और इसमें सभी सम्बन्ध सम्मलित होते हैं |

अक्सर लोग पहली नज़र में प्रेम को अनुभव करते हैं | फिर जैसे समय गुजरता हैं, यह कम और दूषित हो जाता हैं और घृणा में परिवर्तित होकर गायब हो जाता हैं | जब वही प्रेम वृक्ष बन जाता हैं जिसमे ज्ञान की खाद डाली गई हो तो वह प्राचीन प्रेम का रूप लेकर जन्म जन्मांतर साथ रहता है| वह हमारी स्वयं की चेतना है| आप इस वर्तमान शरीर, नाम, स्वरूप और संबंधो से सीमित नहीं हैं | आपको अपना अतीत और प्राचीनता पता नहीं है। 
बस इतना जान लेना कि आप प्राचीन हैं पर्याप्त है।

जब प्रेम को चोट लगती हैं तो वह क्रोध बन जाता हैं, जब वह विक्षोभ होता हैं तो वह ईर्ष्या बन जाता है, जब उसका प्रवाह होता हैं तो वह करुणा है और जब वह प्रज्वलित होता हैं तो वह परमान्द बन जाता है|
( गुरुदेव ने नारद भक्ति सूत्र में प्रेम की और अधिक व्याख्या की है। )

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जब मन हर प्रकार के संस्कार से मुक्त होता है तो वो मुक्ति है!

१० फरवरी २०११, बैंगलुरु आश्रम
प्रश्न: गुरूजी निर्वाण क्या है? यां बेहतर होगा आप उसे हमें प्रदान करें?
श्री श्री रविशंकर: जीवन में संतुलन लाना और इच्छा के ज़्वर से मुक्त होना निर्वाण है। इच्छा का अर्थ है अभाव! जब कोई अभाव लगता है तभी ना इच्छा उठती है। जब आप कहते हैं मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं संतुष्ट हूँ, वह निर्वाण है| पर इसका अर्थ यह नहीं कि सब छोड़कर बैठ जाओ। अपना काम निष्ठा से पूरा करो, पर अपने केन्द्र से भी जुड़े रहो। यहाँ तक ज्ञानोदय की तृष्णा भी अपने केन्द्र से दूर ले जाती है|
सभी भावनाएं व्यक्ति, वस्तु और घटनाओं से जुडी हैं| वस्तु, व्यक्ति और सम्बन्ध में फंसे रहना मोक्ष और मुक्ति मिलने में बाधा है| जब मन सभी आवृत्तियों और अवधारणाओं से मुक्त हो जाता है तो आप को मोक्ष प्राप्त हो जाता है| कुछ भी नहीं या शून्य की अवस्था को निर्वाण, ज्ञानोदय, समाधी कहते हैं | मैं से स्वयं में जाना निर्वाण है |
मैं कौन हूँ? जब आप परत दर परत स्वयं के गहन में जाते हैं, तो आप स्वयं को पाते हैं, वह निर्वाण है| यह एक प्याज को छीलने जैसा है! आप प्याज के केंद्र में क्या पाते हैं ? कुछ नहीं!
जब आप समझ जाते हैं कि सारे सम्बन्ध, लोग, शरीर भावनाएं सब कुछ बदल रहे हैं – तो फिर वह मन जो दुखों में झूंझ रहा होता हैं, वह एकदम अपने स्वयं में वापस आ जाता है | मैं से स्वयं में वापसी संतोष देती है और दुःख से मुक्ति देता है | उस संतोष की अवस्था का विश्राम निर्वाण है |

प्रश्न : मोक्ष प्रयास से या बिना किसी प्रयास से प्राप्त होता है?
श्री श्री रविशंकर: दोनों से ! यह एक ट्रेन को पकड़ने के जैसे है | जब आप किसी ट्रेन में बैठ जाते हैं तो फिर आपको विश्राम करना होता है | पूरे समय आपको यह नहीं सोचना होता कि मुझे इस स्टेशन पर उतरना है| आपको सिर्फ विश्राम करना होता है | सिर्फ बैठ कर विश्राम करना होता है।

प्रश्न: जब किसी ने कोई गलती की है, उसके बावजूद भी यदि उसे उसका एहसास नहीं है, तो उसे कैसे माफ करें ?
श्री श्री रविशंकर: जब आप माफ कर देते हैं तो आपका मन शांत हो जाता है| उन्हें करुणा और प्रेम से समझाएं, क्रोध से नहीं | यदि आप किसी के मन में दोष देकर प्रसन्न होते हैं तो वह भी ठीक नहीं है| उन्हें प्रेम से समझाएं और फिर भूल जाएँ|


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विश्व दोनो से बना है - दिखने वाला प्रत्यक्ष ब्रह्मांड और ना दिखने वाली अप्रत्यक्ष चेतना

७ फरवरी २०११, सत्संग, बैंगलुरू, आश्रम

प्रश्न: वास्तविकता और अवास्तविकता क्या हैं ?
श्री श्री रविशंकर:
सबकुछ बदल रहा है, और सबकुछ जो बदल रहा है, वह अवास्तविक है!

प्रश्न : सिद्ध पुरुषों को भी ज्ञानोदय होने के लिए कुछ जन्म लेने पड़ते हैं| ज्ञानोदय को प्राप्त करना इतना मुश्किल क्यों हैं?
श्री श्री रविशंकर :यह कठिन नहीं है| यह चुनौतीपूर्ण है|

प्रश्न : क्या विभिन्न प्रकार के निर्वाण होते हैं ?
श्री श्री रविशंकर :
हां ! जैसे आइसक्रीम के कई स्वाद होते हैं , वैसे ही कई विचार धाराए हैं | परन्तु सब का सार एक ही है|

प्रश्न : ब्रह्मचर्य का क्या महत्त्व है?
श्री श्री रविशंकर:
ब्रह्मचर्य स्वाभाविक रूप से होता हैं | जब आपके शरीर की प्रत्येक कोषिका प्रसन्न होती है तो आप को प्रसन्न होने के लिए कोई कृत्य नहीं करना पड़ता|
यह कोई कृत्य नहीं, आभास है | और ब्रह्मचर्य कुछ हद तक अच्छा होता हैं क्युकि यह उर्जा को बचाता है|

प्रश्न : मैं आर्ट ऑफ लिविंग(जीवन जीने की कला ) का स्वयंसेवी हूँ | आर्ट ऑफ लिविंग का प्रतिनिधित्व करने से, मैं कैसे श्रेष्ठ हूँ ?
श्री श्री रविशंकर: सिर्फ यह बात कि आप प्रतिनिधित्व करते हुए कृतज्ञ हैं, वही आप को श्रेष्ठ बनाता हैं | विनम्रता इस गृह में सबसे उत्तम गुण है|

प्रश्न: इस अत्यंत सक्रिय मन का क्या करे ?विचार दुखद होते हैं , कृपया करके इसके लिए मार्गदर्शन करे ?
श्री श्री रविशंकर :
बहुत सारे विचार इसलिए आतें हैं क्युकि आपके पास बहुत सारा खाली समय हैं | बहुत सारे विचार आपके मन और दिल में असंतुलन को दर्शाता हैं | जब भावनाए प्रज्वलित हो जाती हैं तो विचार शांत हो जाते हैं |यह अनुचित पाचन की वजह से भी हो सकता हैं, इस लिये अपने पाचन क्रिया पर ध्यान रखें|

प्रश्न : क्या यह सच हैं कि भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी एक छोटी ऊँगली पर उठाया था श्री श्री रविशंकर:आजकल कई बड़े वेट लिफ्टर हैं | सबकुछ संभव हैं | कृष्ण भगवान ने गोवर्धन पर्वत को उठाया , इस पर विश्वास नहीं करने का कोई औचित्य नहीं हैं |( जिसे वह गोवर्धन पर्वत कहते हैं,वह एक छोटी पहाड़ी है। आप उसे जाकर देख सकते हैं|)

‘गौ’ का अर्थ ज्ञान हैं|

‘वर्धन’ का अर्थ ज्ञान की बढ़ोत्तरी|

बासुंरी को बजाते हुए हजारों लोगो की चेतना को उठाना, भगवान कृष्ण के लिए बहुत आसान था | इन्द्र सामूहिक सोच या सामूहिक चेतना को दर्शाता है| इसलिए भगवान कृष्ण ने अपने समूह के साथ सम्पूर्ण समाज की चेतना को उठाया| यही इसका अर्थ है |

प्रश्न : जय गुरुदेव का अर्थ बड़े मन की विजय है | परन्तु क्या इसमें छोटे मन की भूमिका भी हैं ?
श्री श्री रविशंकर : छोटे मन की अपनी भूमिका हैं | यह स्पष्ट हैं कि छोटे मन के कारण ही बड़े मन की विजय होती है| दो प्रकार के लोग होते हैं | पहले जो विजयी होते हैं और दुसरे वे जो अन्य को विजयी बनाते हैं|

प्रश्न : हिंदू पुराणो के अनुसार, प्रत्येक भगवान का कोई शस्त्र हैं | आपका शस्त्र क्या हैं ?
श्री श्री रविशंकर :मेरे अनुसार सिर्फ मुसकुराहट पर्याप्त हैं |जब सारे शस्त्र विफल हो जाते हैं तो यह काम करती है|

प्रश्न: क्या आप कुछ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष के बारे में बताएँगे? जैसे आपने मन को सामूहिक चेतना बताया हैं ?
श्री श्री रविशंकर :
आप मन को नहीं देख सकते ,आप सिर्फ उसे महसूस कर सकते हैं | आत्मा उर्जा है | विद्युत तरंगे हर जगह मौजूद होती हैं | शरीर तार के जैसा हैं ,जिसमे आत्मा उसकी विद्युत तरंग होती हैं |आकार और निर्विकार दोनों आवश्यक होते हैं |विश्व ईश्वर का प्रदर्शन है परन्तु वह स्वयं निर्विकार है| सारा विश्व दोनों, दिखने वाली प्रत्यक्ष और न दिखने वाली अप्रत्यक्ष चेतना हैं |

यहाँ भारत में इसे सहजता से स्वीकार किया जाता हैं |

* कर्म का सरल अर्थ कृत्य हैं |

कृत्य के तीन प्रकार होते हैं ; पहला अप्रत्यक्ष हैं, जो कृत्य बनने वाला हैं,

फिर कृत्य और फिर कृत्य का परिणाम |

पहला वृक्ष के बीज के जैसे हैं, दूसरा पूर्णता विकसित वृक्ष हैं और तीसरा जब वृक्ष फिर से बीज बन जाता है|
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योग जीवन का अध्ययन है, शरीर, श्वास, मन, बुद्धि, स्मृति और अहंकार!

पिछली पंजाब यात्रा में हुई श्री श्री रवि शंकर जी के साथ एक वार्ता

श्री श्री रवि शंकर: एक नेता को अपनी दृष्टि में विशालता लाने की ज़रुरत है। अगर नेताओं का सच में विस्तृत दृष्टिकोण होता तो summit in Copenhagen कभी रुकता ना। वो सारे ग्रह के बारे में नहीं सोच रहे हैं, परन्तु वो केवल अपने राष्ट्रिय हित के लिए एक छोटे दृष्टिकोण से सोच रहे हैं। अगर उनका राष्ट्रिय स्वार्थ मानवता यां ग्रह के हित से अधिक है तो वो खुद ही नुकसान में हैं। इसलिए मैं चाहता हूँ कि नेता अब आगे आएं। दुनिया में फ़ैलने वाले depression एक ज्वलंत मुद्दा है। ३० प्रतिशत यूरोप आज अवसाद से पीड़ित है और मनोविज्ञानिकों का कहना है कि इसकी संख्या बड़ सकती है। भारत में तो बहुत कम है पर यूरोप में ३० - ३८ प्रतिशत। शायद Metropolitan cities में १०-१२ प्रतिशत हो पर यूरोप में इसकी संखया ३०-३८ प्रतिशत है।

Interviewer: जो कोर्स आप ने बनाएं हैं क्या वो इसकी रोकथाम में सहायक हैं?
श्री श्री रवि शंकर:
हाँ! निश्चित रूप से।

Interviewer: क्या यह वैज्ञानिक तोर से भी सिद्ध हुआ है। मेरा मतलब क्या हम medical journals पर इसकी रिसर्च देख सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर:
हाँ! NIMHANS (National Institute of Mental Health and Neuro Sciences) और IAMS में यह प्रदर्शित हो चुका है।

Interviewer: गुरुजी, योग के कई रास्तों का प्रचलन है। कितने लोग अलग अलग योग अभ्यास करते हैं। पर एक अन्जान व्यक्ति के लिए योग का क्या अर्थ है?
श्री श्री रवि शंकर:
योग जीवन का अध्ययन है। जीवन के साथ स्तर - शरीर, मन, श्वास, बुद्धि, स्मृति, अहंकार! अपनी भीतरी परतों का अध्ययन!

Interviewer: वस्तुगत स्तर पर भी और राष्ट्रिय और अंर्तराष्ट्रिय स्तर पर भी हिंसा है। इसके लिए क्या किया जा सकता है?
श्री श्री रवि शंकर:
हिंसा का कारण जमा हुआ तनाव है। जब तनाव जमा होता रहता है और समय से उसे नही निकालते तो वो हिंसा यां depression का रूप ले लेता है। इन दोनो में से कोई हो सकता है। तो तनाव के साथ यां तो आत्म हत्या यां हिंसात्मक प्रवतियां पैदा होती हैं। तो योग से वो संतुलन आता है। शरीर, मन और बुद्धि में संतुलन। योग से वो योग्यता आती है। और इसीलिए कहते हैं जिस के पास कुछ योग्यता है उसके लिए मानव बनने की कला योग है। तब आप अपने भाव पर नियंत्रण कर सकते हैं, और आप का अपने व्यवहार पर काबु होता है। फ़िर आपका व्यव्हार आपके काबु में ही रहता है।

Interviewer: एक अंतिम प्रश्न! सबसे महत्वपूर्ण ऐसा क्या है जो हमे अपने जीवन में उतारने की आवश्यकता है?
श्री श्री रवि शंकर:
मानवीय गुण! जीवन को सम्मान देना और इसका मुख्य गुण कस्र्णा का भाव सबसे महत्व पूर्ण है!
Interviewer: शुक्रिया गुरुजी!
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नाद वैभवम्- संगीत वह अन्य शक्ति हैं जो हम सब को जोड़ कर रखती हैं |

३०, जनवरी २०११


संगीत का उद्देश्य आपके भीतर गहन मौन का सृजन करना होता हैं और मौन का उद्देश्य जीवन में सक्रियता का सृजन करना होता हैं
इसलिए वह मौन जो जीवन में सक्रियता का सृजन न कर सके, वह ठीक नहीं हैं और वह संगीत जिससे आपके भीतर मौन, शान्ति और सामंजस्य सृजन न कर सके वह भी ठीक नहीं हैं
यह एक विशाल यज्ञ हैं जिसमे हम सब हजारों की संख्या में एकाग्रित होकर गायन कर रहे हैं क्युकि संगीत हम सब को एक साथ जोड़ता हैं
सारी जातियो, धर्मो और महाद्वीपों में प्रेम के आलावा संगीत ही वह एक शक्ति हैं जो हम सभी को जोड़ती हैं
संगीत सब के दिल को छू लेता हैं, इसलिए यदि आप संगीतकार हैं या नहीं इसका कोई महत्त्व नहीं हैं, फिर भी सबको गाना चाहिए
जब आप गायन करने लगते हो तो आप भी संगीतकार बन जाते हैं


संगीत आपकी भावनाओ की सफाई करता हैं और उन्हें कोमल और हल्का करता हैं और जब भावनाए शुद्ध हो जाती हैं तो विचार शुद्ध हो जाते हैं ; और फिर आपको अच्छे विचार आने लगते हैं
आपका अंतर्ज्ञान का स्वरुप जाग जाता हैं और यही आध्यात्म हैं
संगीत और आध्यात्म आपस में ऐसे जुड़े हैं कि वे एक दुसरे के बिना नहीं हो सकते; विशेष रूप से इस देश में संगीत और आध्यात्म की परिकल्पना कभी भी भिन्न रूप में नहीं की गयी
५७०० संगीतकारों को एक मंच पर साथ देखना कितना आश्चर्यजनक हैं, कई और संगीतकार आना चाहते थे परन्तु मुझे बताया गया कि इस मंच पर सिर्फ इतने ही एकग्रित हो सकते हैं
मैं उन सब को भी गाता हुआ देख सकता हूँ और हम यही चाहते हैं
विश्व भर में इस कार्यक्रम में कई अन्य लोग भाग ले रहे हैं और वे भी गा रहे हैं


जब दिव्यता होती हैं तो सबकुछ संभव हैं, जब दिव्यता की कृपा हो और संगीत ही वह जरिया हैं जिससे आप स्वयं के गहन में जाकर विश्राम कर सकते हैं! एक शक्ति इस गृह के सारे जीवित प्राणियों ,पेड़ पक्षीयो और जानवरों में विराजमान हैं और उस शक्ति के कारण जब आप दिल से गाते हैं तो आप नृत्य करना शुरू कर देते हैं


जिस स्थान पर संगीत,कला,नृत्य ,ध्यान और योग मौजूद हो तो वहाँ पर हिंसा कैसे हो सकती हैं ?

योग,प्राणायाम,ध्यान और आयुर्वेद और जैविक पद्दति से उगाया हुआ भोजन ग्रहण करना , इन सब को अपने जीवन में सम्मलित करने का हमने संकल्प लेना चाहिए


क्या अब हम थोडा सा ध्यान करे ? ध्यान एकाग्रता नहीं हैं , ठीक हैं ,ध्यान एकाग्रता का अकेन्द्रिकरण हैं, वह गहन विश्राम हैं
ध्यान अस्थिरता से स्थिरता और ध्वनि से मौन की यात्रा हैं
हम अपनी खुशी/आनंद के लिए जिम्मेदार होते हैं
इसलिए हम अपने उत्साह और खुशी /आनंद को प्रबल रखने की जिम्मेदारी ले और उसके लिए आपको ध्यान, प्राणायाम , यह सब कुछ और समाज सेवा करनी होगी





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चेतना के विकास पर और गहन विज्ञान

जनवरी २०११, बंगलौर

प्रश्न : ओम शब्द और उसके महत्व के बारे में कुछ बतायें।
श्री श्री रवि शंकर: इसे एक कर्तल ध्वनि, यानि एक हाथ की ताली की आवाज़ में भी सुन सकते हैं। एक ऐसा शब्द जो ब्रह्मांड में उत्पन्न हुआ है, किसी घर्षण से नहीं, वही सर्वलौकिक शब्द है ओम । पुरातन काल में कुछ ऋषियों ने गहन ध्यान में इस शब्द को सुना और तब से, लाखों वर्षों से किसी न किसी तरह से इसका उच्चारण हो रहा है।
हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया कि ओम शब्द की ध्वनि की frequency पृथ्वी की अपनी धुर्री पर घूमने की रफ़्तार के बिल्कुल एक समान है।
ओम ध्वनि के स्पन्दन से प्राण शक्ति हमारे समूचे शरीर में प्रसारित होती है। ओम शब्द की ध्वनि प्रकृति की ही प्रतिध्वनि है। सागर के किनारे खड़े होकर यदि तुम उठती गिरती लहरों की आवाज़ ध्यान से सुनो, तो ओम की ही ध्वनि सुन पाओगे। ऊंचे पर्वत के शिखर पर खड़े होकर बहती हवा की आवाज़ सुनो-ओम की ही आवाज़ सुनने को मिलती।
योग के निर्माता महर्षि पतांजलि ने कहा था जीवन की सभी बाधाओं को दूर करने के लिये ओम का उपयोग किया जा सकता है। जब हम तीन बार ओम के उच्चारण के बाद जो भी सहज का मन्त्र है, ध्यान करते हैं तो अत्याअधिक गहन ध्यान होता है।

चीन के एक प्रसिद्ध डाक्टर ने, जो सात बड़ी बीमारियों से स्वयं पीड़ित थे, अपना यह अनुभव सुनाया कि उन्हें ५०० ग्राम दवाई का हर रोज़ सेवन करना पड़ता था पर कोई लाभ नहीं हो रहा था। फिर उन्होंने १-२ घंटे प्रतिदिन ओम के साथ अभ्यास करना शुरू किया  और दो वर्ष में ही वे उन सब बीमारियों से छुटकारा पागये जिनको दवाइयों द्वरा ठीक करना असम्भव था। उनके अन्य साथियों के लिये यह अचरज की बात थी। अब वो Music therapy के नाम से चीन के लोगों को अपने राष्ट्रीय टेलीविज़न पर सिखा रहे हैं!
 
यह अपना अनुभव जब उन्होंने सुनाया तब हमने कहा कि यह तो वही तथ्य है जो महर्षि पतांजलि ने वर्षों पूर्व कहा - "एक तत्व अभ्यास" ( एक तत्व या सिद्धान्त का अभ्यास करो। चीन में अब ओम के गान द्वारा उपचार को Music Therapy कहा जा रहा है।
ध्वनि एक ऊर्जा ही है, विद्युत की धारा ही है। हमारा सम्पूर्ण शरीर भी विद्युत शक्ति है और ओम का हमारे शरीर के सभी कोषों पर प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न : गुरुजी, ॐ ध्यान अन्य प्रकार के ध्यान से कैसे भिन्न है?
श्री श्री रवि शंकर: ध्यान कई प्रकार के होते हैं व प्रत्येक अपने तरीके से अद्भुत है। किसी एक की दूसरे से तुलना करना आवश्यक नहीं है क्योंकि हर किसी व्यक्ति के लिये सभी विधियां उपयुक्त नहीं होती हैं। अलग अलग व्यक्तियों के लिये कोई कोई विधियाँ ही ठीक होती हैं समय अनुसार। ओम शब्द (ओंकार) का प्रयोग सदा ध्यान के शुरु में करना बेहतर है पर इसका ध्यान के वक्त मन्त्र स्वरूप प्रयोग करना ठीक नहीं।

प्रश्न : बतायी गयी विधि से ध्यान करने और ओम विधि के ध्यान में क्या अंतर है?
श्री श्री रवि शंकर: बतायी गयी विधि द्वारा कराये ध्यान में, तुम्हें कुछ नहीं करना है, तुम्हारे लिये ध्यान कराया जा रहा है। बस केवल महसूस करो - "दिव्यता मेरे लिये ध्यान कर रही है, मुझे केवल विश्राम करना है"। यह तुम्हारे विमान में बैठने समान है, जिसमें कोई और विमान चला रहा है, तुम्हें केवल कुर्सी की पेटी (सीट बेल्ट) बाँध कर बैठना है और विश्राम करना है।

प्राण बढ़ाने के लिये प्राणायाम करना लाभदायक होता है पर, ओम ओम का रट लगाये मत बैठे रहना, इससे तुम्हें शक्ति के संचार में अचानक वृद्धि महसूस हो सकती है। इतनी बड़ी हुई ऊजा में नींद का अभाव भी हो सकता है।

प्रश्न: कई आध्यात्मिक मार्ग में स्त्री-पुरुष के प्रेम को बाधा माना जाता है| उद्धव गीता में कृष्ण ने कहा कि जब कोई निर्वाण पाने के करीब होता है तो देवता लोग उन्हें नीचे गिराने के लिये, उनका ध्यान भंग करने के लिये, किसी नारी को उनके पास भेज देते थे। उसे पथ भ्रष्ट कराने का सर्वोच्च साधन माना जाता है। आज के इस युग में भी क्या स्त्री को किसी पुरुष के आध्यात्म पथ यात्रा में बाधक माना जाता है? क्या स्त्री-पुरुष के प्रेम की सहमति नहीं है? क्या दिव्य प्रेम में इसके लिये स्थान नहीं?
श्री श्री रवि शंकर: तो तुम्हारा प्रश्न क्या यह है कि कृष्ण ने उद्धव को यह क्यों कहा? देखो, कृष्ण ने भिन्न भिन्न लोगों को भिन्न भिन्न बातें कहीं समयानुसार। मैं अभी यहाँ कृष्ण की वकालत नहीं करने वाला हूँ! पर हाँ, यदि उद्धव को कहा था तो अवश्य ही जीवन के मोड़ का कोई निश्चित समय होगा, ठीक? परन्तु तुम्हारी अवस्था में यदि तुम्हें अभी किसी से प्रेम हो गया हो तो कोई हर्ज़ नहीं!
यह सोच गलत है कि प्रेम के लिये कोई स्थान नहीं है या प्रेम आध्यात्म के खिलाफ़ है, बिलकुल नहीं । हाँ, Promiscuity आध्यात्म के विरुद्ध है। दूसरों का गलत फायदा उठाना आध्यात्म के विरुद्ध है। यदि तुम परस्पर एक दूसरे से वाकई में प्रेम करते हो तो विवाह अच्छा है। पर बाद में भी प्रेम बना रहे। दूसरों के साथ भी प्रेम हो तो गड़बड़ होगी दोनों ओर। फिर फ़ायदा केवल टेलिफोन कम्पनी को ही होगा! और हाँ, यदि तुम प्रेम करते हो और तुम्हारे माता-पिता भी सहमत हों तुम्हारे चयन से, तो बहुत ही अच्छा हो। और फिर तुम्हारा यह प्रेम बाद में भी उसी पार्टनर के साथ बना रहना चाहिये!

पिछले माह ही एक लड़के का विवाह हुआ था यहाँ। उसने कहा वह तीसरी बार शादी कर रहा है उसी लड़की से- पहले अमरीका में, फिर दिल्ली में और अब यहाँ। आध्यात्म किसी भी प्रकार की भ्रष्टता के विरुद्ध है। प्रेम के नाम पर यदि वासना के रूप में किसी का शोषण हो रहा हो तो वह ठीक नहीं है।
प्रेम कहता है- "मैं तुम्हारे लिये हूँ, मेरे पास जो कुछ भी है वह तुम्हारे लिए है"।
प्रेम में देना श्रेष्ठ है।
केवल भारत देश में ही दिव्य प्रेम की चर्चा है..राधा कृष्ण का नाम तो पूरा देश जानता है!
कृष्ण ने उद्धव को स्त्री बाधक समान कहा जब उद्धव काफ़ी वृद्ध हो चले थे। तुम भी यदि यहाँ पचास साल बाद आकर कहो कि तुम प्रेम में पड़ गये हो तो मैं कहूँगा यह बाधक है। हाँ, अभी यदि तुम २५ साल के हो और कहते हो कि प्रेम में पड़ गये हो तो अलग बात है। पर ५५ साल के हो तो!

प्रश्न: एकाग्रता और विचार के लिये उपयुक्त विधियों में क्या भिन्नता है?
श्री श्री रवि शंकर: साधारणतः हम बैठ कर ज्ञान की चर्चा करते है या ग्रंथों की बातों पर विचार करते हैं। इसमें हम मन को कार्यरत रखते हैं। मन फिर बस सोचता रहता है,सोचता रहता है। सोच भी एक कार्य है, और इससे मन को विश्राम नहीं मिल पाता। इसलिये सोचना विचार करना ध्यान नहीं है।
एकाग्रता में बहुत मेहनत होती है। तुम अपने मन को केन्द्रित कर एक जगह ठहराना चाहते हो, जो मन की आदत नहीं है। मन तो अति चलायमान है, एक जगह से दूसरी ओर , एक लुभवनी से दूसरी लुभावनी वस्तु पर जाता रहता है। मन सदा उस ओर भागता है जो ज़्यादा अच्छी चीज़ हो। जब तुम अच्छा भोजन कर रहे हो तो उसमें मन लगा होता है पर जैसे ही टी वी पर कोई लुभावना दृश्य दिखा तो खाने की ओर से मन हट कर सुन्दर दृश्य में जा अटकता है।
तुम्हारा मन इधर-उधर जाता रहता है। मन एक चीज़ से दूसरी पर जाता है और ज्यादा सुखदायक लगने वाली चीज़ पर जाता है। हालांकि, कोई ज्यादा सुखदायक चीज़ है, यह केवल मन की सोच है, असल में वह चीज़ सुख का स्त्रोत शायद नहीं या बिल्कुल ही नहीं हो।
एकाग्रता- मन को एक जगह केन्द्रित करना है जो उसकी प्रकृति के विपरीत है। इसमें हम अपने मन को केन्द्रित करने के लिये ताकत लगाते हैं। बच्चों में बहुत तनाव पैदा हो जाता है जब उनकी इच्छा के विपरीत मन को कहीं और लगाने की कोशिश की जाती है। उनको जिन विषयों में रुचि नहीं हो, उन्हें जबर्दस्ती पढ़ने पर मजबूर कर दिया जाता है। इससे तनाव और बडता है
एकाग्रता यानि मेहनत, तो फिर यह ध्यान नहीं हो सकता। हाँ, आपको जीवन में एकाग्रता की आवश्यकता जरूर पड़ती है। ध्यान से एकाग्रता और intelligence बड़ती है। ध्यान तो बिना किसी श्रम के, सहजता से होता है!
जब गहन ध्यान होता है तो मन एक दम ताज़ा और खिला हो जाता है।
तब ऎसे गहरे विश्राम के बाद एकाग्रता स्वयं होती है स्वाभाविक रूप से, और बेहतर निर्णय लिए जाते हैं। दुर्भाग्य से, विश्व के कई भागों में ध्यान को एकाग्रता या विचार करना समझा जाता है, जो सत्य नहीं है।
ध्यान कुछ भी नहीं करने की कला है। यह कला है मन को केवल शांत करने की और कुछ भी न करके केवल अन्तर मन की उस गहराई को मह्सूस करने की।
सहजता ही ध्यान की कुंजी और रोज़ कुछ मिनट ध्यान लगाने से तुम्हारी एकाग्रता बढ़ती है व बुद्धि तीव्र होती है।

प्रश्न : गुरुजी, सुदर्शन क्रिया के अभ्यास करने के बाद की ध्यान अवस्था अन्य ध्यान अवस्था से कैसे भिन्न है?
श्री श्री रवि शंकर : सुदर्शन क्रिया तुम्हें अपने अन्तःस्थल का अनुभव कराती है जो है एक शांत , स्थिर, विचार रहित अवस्था है। ध्यान की कला द्वारा उस अवस्था की और भी गहराई में जा सकते हैं। इस तरह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। यदि सुदर्शन क्रिया के बाद ध्यान करते हो तो गहन ध्यान लगता है और तुम यदि नियमित ध्यान करते हो तो क्रिया करना आसान व सहज हो जाता है।

प्रश्न: क्या यह कहा जा सकता है कि एक ही लक्ष्य तक ले जाने के लिए ध्यान की कला में मन शरीर का नेतृत्व करता है और क्रिया में शरीर मन का?
श्री श्री रवि शंकर :यह कहना उचित नहीं होगा कि शरीर मन का नेतृत्व करता है या मन शरीर का। यह कह सकते हो कि सुदर्शन क्रिया से शरीर, साँस व मन एक ताल में होते हैं। अन्तःकरण की गहराई का अनुभव और शरीर व श्वास के स्तर पर उस का आभास कर सकना ही ध्यान है। मंत्र द्वारा चेतना की गहराई का अनुभव कर रोज़मर्रा के जीवन में उसे उतारना - यही ध्यान है।


प्रश्न : प्राचीन काल से चली आ रही उन पवित्र वैदिक परम्पराओं के महत्व के बारे में बतायें जिन्हें गुरुओं ने आज भी सम्भाल कर जीवित रखा है। क्या ध्यान की कला इन गुरुओं के पवित्र परम्परा की ही देन माने?
श्री श्री रवि शंकर : हज़ारों सालों से, कई ऋषि मुनियों ने पारम्परिक रूप से इस ध्यान की कला को समभाल के रखा है और यह मानवता के लिये एक अमूल्य उपहार है। मध्य कालीन समय में, यह कला केवल सुपात्र शिष्य को व एक सच्चे जिज्ञासु को ही दी जाती थी । पर मैंने इसके विपरीत सोचा कि यदि ध्यान की कला आसानी से किसी को दी जाये तो सच्चाई उसके जीवन में खिलने लगेगी । अतः मैंने इसे सब जन तक पहुँचाने का बेड़ा लिया जिससे हर एक का जीवन बेहतर और सुखद बने और ध्यान की कला पाने से जब वे लोग ज्ञान में ऊपर उठना चाहें तो इसकी गहराई का अनुभव कर पाएं। इस तरह जिस भी स्तर तक वह जाते हैं सबके लिये कुछ न कुछ लाभ तो है ही।
मैं सागर का उदाहरण देना पसंद करता हूँ - जैसे, कुछ लोग सागर के किनारे टहलने जाते हैं, और बस शुद्ध हवा , आक्सीजन पाकर ही खुश हो जाते हैं। दूसरे कुछ लोग पानी में पाँव डुबोकर, टकराती लहरों के प्रवाह को महसूस करने से ही उस अथाह सागर का आनन्द लेते हैं ।
अन्य कुछ लोग सागर के भीतर गहरी डुबकी लगा कर अमूल्य चीजें खोज लेते हैं। तो इस प्रकार सब तुम पर निर्भर करता है कि तुम किनारे पर ही टहलना पसन्द करोगे, या तैर कर लहरों का प्रवाह देखोगे, या डुबकी लगाकर गहराई में उतरोगे । सागर तुम्हारे लिये सदा उपस्थित है।
यही उदाहरण ध्यान के लिये भी है। ध्यान लगाकर तुम शारीरिक स्थिति सुधार सकते हो, या मानसिक स्तर पर उन्नति करना चाहते हो या फिर उसी ध्यान कला द्वारा ही कुछ गहराई में उतर कर आध्यात्म पथ में ऊपर उठना चाहते हो।
सब मौजूद है!


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