६
२०१३
जून
|
बैंगलुरु आश्रम, भारत
|
प्रश्न : प्रिय गुरूजी, मेरा प्रश्न
हिंदू धर्म में सगुणोपासना के विषय में हैं| ईसाइयों के गिरिजाघर हर जगह नहीं होते,
मस्जिद, गुरूद्वारे भी सब जगह नहीं हैं| तो फिर हिंदुओं के मंदिर सब जगह क्यों होते
हैं? हर पेड़ के नीचे, हर कोने में आपको एक मंदिर दिखेगा| मूर्ती पूजा या सगुणोपासना
किस हद तक स्वीकार्य है?
श्री श्री रविशंकर : कौन कहता है ईसाई धर्म में मूर्ति पूजा नहीं होती? ईसाई धर्म
भी मूर्ति पूजा को महत्व देता है| वे सब जगह क्रॉस का चिन्ह बना देते हैं, सड़क पर भी,
पहाड़ों के ऊपर भी, है न?
बहुत सी मस्जिदें भी बहुत जगह पर बन रही हैं|
अब, किस हद तक मूर्ती पूजा हिंदू धर्म में स्वीकार्य है? यह
एक विचार करने लायक प्रश्न है| जब भी लोगों ने मूर्ति पूजा का विरोध किया है, किसी
और प्रकार का प्रतीकवाद उभर आया है|
एक मूर्ती क्या है? एक चिन्ह है| ईश्वर जो निराकार है, जिसका
विवरण नहीं हो सकता, जिसे देखा या छुआ नहीं जा सकता, उस ईश्वर को देखने और समझने के
लिए आपको एक माध्यम की आवश्यकता है| और उस माध्यम को आप मूर्ति कहते हैं|
भगवान उस मूर्ति में नहीं बस्ते परन्तु एक मूर्ति आपको ईश्वर
का मार्ग दिखाती है|
देखो, आपके घर में आपके दादा या नाना जी की एक तस्वीर है दीवार
पर| अब यदि कोई आपसे पूछे, “आपके दादाजी कौन हैं?” आप उस तस्वीर की ओर संकेत करते हैं|
क्या वह तस्वीर आपके दादाजी हैं? नहीं| आपके दादाजी अब नहीं हैं, पर यदि कोई पूछे तो
आप उस तस्वीर की ओर संकेत करके कहते हैं, “ये हैं मेरे दादाजी”|
तो एक तस्वीर, या मूर्ति एक माध्यम या प्रतीक है, इसी लिए उसे
प्रतिमा कहा जाता है|
और यह अच्छा है कि केवल एक छवि या प्रतीक नहीं है भगवान का|
अन्यथा लोग भगवान को उसी रूप में सोचेंगे| इसी लिए, यहाँ भारत में भगवान की हजारों
भिन्न प्रतिमाएं हैं| आप भगवान को किसी भी रूप देख सकते हैं, जो भी आपको प्रिय है,
आपके इष्ट देवता हैं|
सारी किरणें उसी सूर्य से आती हैं, पर इनके सात भिन्न रंग होते
हैं| इसी तरह, हमारे पञ्च देवता होते हैं, (ईश्वर के पांच रूप जो सब विधियों और धार्मिक
कार्यों में पूजे जाते हैं – शिव, पार्वती, विष्णु,
गणेश, और सूर्य देव), और सप्त मत्रिका (अर्थात दैवी शक्ति के सात स्वरुप – ब्रह्माणी, नारायणी, इन्द्राणी, महेश्वरी, वाराही, कुमारी और
चामुंडा)|
उसी प्रकार, भगवान एक है, पर हमारे पूर्वजों ने उन्हें भिन्न
नाम और आकार दिए हैं|
फिर एक प्रथा है भगवान की प्रतिमा को जाप द्वारा बनाना और भक्ति
पूजा करना| जो भी आकार जाप द्वारा बनता है, भक्ति के साथ, और एक सम्मान का स्थान पाता
है, वही पूजनीय हो जाता है|
देखिये, कोई भगवद गीता या गुरु ग्रन्थ साहिब को मात्र घर पर
रख सकता है| परन्तु, जब आप उसकी पूजा करते हैं, उसके सामने सर झुकाते हैं, उसको सेवा,
भोग, अर्पित करते हैं तो उसका अर्थ भिन्न होता है| और यदि आप उसे एक आकार या एक चेहरा
दे देते हैं तो वह आप में और भी अधिक भक्ति जागृत करता है|
उदाहरण के रूप में, भगवान कृष्ण के मुख मात्र को देख कर मीरा
बाई उनके इतने गहरे प्रेम में पड़ गयीं| श्री चैतन्य महाप्रभु चेतना की चरम स्थिति पा
गए भगवान कृष्ण का रूप देख कर जिसमे भगवान बांसुरी हाथ में लिए खड़े हैं, मोर पंख का
मुकुट पहने और चमकीली पीली पोशाक में, एक पेड़ के नीचे|
जिस व्यक्ति को प्रतिमा की आवश्यकता है, वह उसे सीड़ी के रूप में प्रयोग कर सकता है ईश्वर तक पहुँचने के लिए| पर उस मूर्ति में ही मत अटक जाइए| सर्वदा याद रखिये कि भगवान आपके भीतर है|
इसी लिए, पुराने समय में मंदिर जाने की प्रथा भगवान की प्रतिमा
देखने के बाद कुछ समय स्वयं के साथ बैठने की थी (अपने भीतर के ईश्वर को देखने के लिए)|
व्यक्ति को मंदिर से नहीं आना चाहिए बिना कुछ क्षण बैठे बिना| पर आजकल लोग कुछ क्षण
बैठते हैं, बस बैठने के नाम पर और फिर उठ कर चल देते हैं| यह स्वयं से छल करना है|
पुराने समय में, मूर्ति को अँधेरे में रखा जाता था, जिसे गर्भ
गृह कहते थे और आप तभी भगवान की मूर्ति का चेहरा देख सकते थे जब उसे दिए की रौशनी से
दिखाया जाए| इसके पीछे का सन्देश है कि आप को स्मरण रहे कि भगवान आपके मन की गहराईयों
में बसता है| आपको उसे स्वज्ञान के माध्यम से देखना है| यह सच्चा सार है|
प्राचीन समय में लोग प्रतिमाओं को बहुत सुंदरता से सजाते थे
ताकि आपका मन यहाँ वहाँ न भटके, और आप पूर्ण रूप से उस प्रतिमा से मोहित हो जायें|
वे संग-ए-मर्मर से सुन्दर मूर्तियां बनाते थे और उन्हें सुन्दर वस्त्र और गहनों से
सजाते थे| यह बाजार में जाने जैसा है| बहुत से लोग अभी भी बाजार बस घूमने और देखने
जाते हैं, है ना? वे सब सुन्दर वस्तुएं देखते हैं और अच्छा अनुभव करते हैं| क्यों?
क्योंकि मन सुन्दर वस्त्रों, अच्छी महक, फूल, फल और बढ़िया खाने की ओर आकर्षित होते
हैं| हमारे पूर्वज यह जानते थे, इस लिए, वे ये सब वस्तुएं मूर्तियों के समीप रखते थे
ताकि वह मन को इन्द्रियों के रास्ते पुनः वापस लाते थे और उसे भगवान की ओर केंद्रित
करते थे|
बौद्ध धर्म में भी इसी प्रकार से मन को वश में किया जाता है|
इसी लिए वे भगवान बुद्ध की और बोधिसत्व की अति सुन्दर प्रतिमाएं बनाते हैं हीरे, पन्ने,
स्वर्ण और चांदी के साथ| वे फल फूल अगरबत्ती, मिठाई इत्यादि मूर्ति के सामने रखते हैं
ताकि मन और सारी इन्द्रियाँ ईश्वर पर केंद्रित हो जायें|
एक बार मन ठहर जाता है, वे आपको आँखें बंद कर के ध्यान करने
को कहते हैं| यह दूसरा कदम है| ध्यान में आप भगवान को स्वयं में पाते हैं|
एक बहुत सुन्दर श्रुति है वेदंतो में, “मनुश्यनम अपसु देवता
मनिशिनम डीवी देवता| बलानम तोषा कश्तेशु ज्ञानिनो आत्मनि देवता”|
जब कोई व्यक्ति पूछता है, “भगवान कहाँ है?”, बुद्धिमान व्यक्ति
यह उत्तर देते हैं, जिसका अर्थ है, “मनुष्यों के लिए प्रेम ही भगवान है; बुद्धि जीवी
व्यक्तियों के लिए, वे ईश्वर को हर ईश्वरीय शक्ति और गुण में देखते हैं; कम बुद्धिमान
उन्हें लकड़ी और पत्थर की मूर्तियों में देखते हैं; पर बुद्धिमान लोग भगवान को स्वयं
में देखते हैं|
कल हम आश्रम में चतुर्दाशिहवन करेंगे| आप सब उसमें भाग ले सकते
हैं| जैसे जैसे जाप होगा, आप सब ध्यान कर सकते हैं|
देखिये, चाहे पूजा में बहुत से विस्तृत कार्य बताये जाते हैं,
हमें उन सबको करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जब हम ध्यान करते हैं तो हमें दिखता
है कि सब कुछ वह ईश्वर ही है| परन्तु प्राचीन परम्पराओं को बनाये रखने के लिए हमें
यह सब रीतिया और रस्में करनी चाहियें| इस लिए, हमें नियम से दिया जलाना चाहिए, भगवान
को पुष्प अर्पित करने चाहियें, ताकि हमारे बच्चे इस सब से कुछ सीखें और आने वाली पीढियां
भी हमारी प्राचीन परम्पराओं और संपन्न संस्कृति से अवगत हों|
हम क्यों दिवाली मनाते हैं? दिवाली मनाने का कोई असली कारण नहीं
है| पर यदि हम यह पर्व नहीं मनाएंगे तो हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को कैसे बताएँगे इस
त्यौहार के पौराणिक और सांस्कृतिक महत्व के बारे में? यदि हम यह सब नहीं करेंगे, तो
एक प्राचीन प्रथा, एक पावन परंपरा खो जायेगी| जब आप इसमें गहराई में जायेंगे, तो आप
देखेंगे सब कुछ कितना निराला है| इसी लिए भगवान कृष्ण कहते हैं, “सब कुछ मैं ही हूँ|”
इस लिए, आपको इन परम्पराओं और प्रथाओं को त्यागने की आवश्यकता नहीं है|
प्रश्न : गुरुदेव, आजकल टेलीविज़न
धारावाहिकों में जिस तरह से महादेव, पार्वती, जलंधर जैसे चरित्रों का चित्रण किया जा
रहा है, क्या आपको लगता है कि यह उचित है?
श्री श्री रविशंकर : मुझे भी यह कदापि उचित
नहीं लगता।
वे पार्वती को, जो भगवान शिव की अर्धांगिनी हैं
और ईश्वरीय शक्ति हैं, एक ऐसी महिला के रूप में दर्शाते हैं जो अक्सर आवेश में आ जाती
है, बात बात पर परेशान हो जाती है और चीखती-चिल्लाती रहती है। ये सब दैवी गुण नहीं
हैं। धैर्य, प्रसन्नता, सहजता और पूर्व ज्ञान - ये सब दैवी गुण हैं जिन्हें हमें दिखाना
चाहिए।
देखिये ब्रह्माण्ड में दैवी और राक्षसी दोनों
प्रकार की शक्तियां विद्यमान हैं।
पर ये धारावाहिक इस तथ्य की अवहेलना करते हैं।
जो दैवी चरित्र हैं उन्हें ये मानव की तरह प्रस्तुत करते हैं। और वो भी साधारण मानव
की तरह नहीं, बल्कि ऐसे लोगों की तरह जिनका आचरण नकारात्मक और दयनीय होता है, और जो
अक्सर भावना के आवेग में बह जाते हैं। यह पहली बात है|
दूसरी बात यह है कि हमें यह मान कर नहीं चलना
चाहिए कि जो कहानी में दिखाया जा रहा है वही सच है। बल्कि हमें इन कथाओं के पीछे छुपे
हुए सार को समझना होगा। नहीं तो ये मनोरंजन का एक और साधन मात्र बन कर रह जायेंगे ।
अब जैसे एक धारावाहिक में जलंधर नाम का एक असुर
उभर कर आता है| अब जब कि इस जगत में कण कण में शिव हैं, तो यह राक्षसी शक्ति कहाँ से
आ गई? जब इस ब्रह्माण्ड में शिव के अलावा कुछ भी नहीं है, तो यह असुर भी शिव से ही
आया होगा।
तो हमें ये समझना होगा कि जो भी असुरी शक्तियां
वर्तमान में हैं या भूतकाल में प्रकट हुई थीं वे ब्रह्म का ही हिस्सा हैं, उनसे अलग
नहीं हैं।
जैसे कि एक कथा हम सुनते हैं कि एक बार भगवन
शिव को इंद्र के अहंकार पर बहुत क्रोध आ गया था।
भगवान शिव शांति का स्वरुप हैं। वह विशुद्ध चैतन्य
हैं जबकि इंद्र संगठित चैतन्य या सामूहिक मानसिकता का प्रतीक हैं।
कहते हैं कि एक इंद्र १००० नेत्रों के बराबर हैं अर्थात वह ५००
व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जब कहीं कोई भीड़ एकत्र होती है तो उसका एक स्वयं
का बोध या दिमाग विकसित हो जाता है. इसे हम सामूहिक मानसिकता या भीड़ की मानसिकता कहते
हैं। यह मानसिकता सदैव विनाशकारी होती है। आमतौर पर जब भीड़ कहीं जाती है तो उपद्रव
करती है, उत्पात मचाती है। किसी राष्ट्रीय सम्पदा को जला देती है, नष्ट कर देती है।
भीड़ की मानसिकता की प्रवृत्ति सदैव हानिकारक होती है। शिव तत्व, जो कि विशुद्ध चेतना
एवं कल्याण का तत्व है, के लिए इंद्र की इस विनाशकारी चेतना पर क्रोधित होना स्वाभाविक
था।
अर्थात, क्रोध का उदय शांतिमय
शिव तत्व से हुआ। पर क्रोध यहीं आकर रुक नहीं गया। भगवान शिव के क्रोध ने एक असुर का
रूप धारण कर लिया जो कि ईश्वर के क्रोध के विनाशकारी स्वरुप का प्रकटीकरण था। क्रोध
की उत्पत्ति जैसे भी हुई हो, स्वयं ईश्वर से ही क्यूँ
न हुई हो, इसकी प्रतिक्रिया होगी और उस व्यक्ति के पास
वापस आएगी। इस जगत में हरेक चीज जहाँ से शुरू होती है वहां वापस आती है,
और क्रोध
इसका अपवाद नहीं है।
तो जलंधर के रूप में प्रस्तुत होने वाले क्रोध को भी भगवान शिव
के पास वापस लौटना था और उन्ही में विलीन हो जाना था क्यूंकि इसका स्त्रोत स्वयं शिव
थे। जलंधर का नाश करने के लिए भगवान शिव ने
आदि शक्ति का आह्वान किया।
भगवान शिव चैतन्य के शांत पक्ष का प्रतीक हैं,
जबकि आदि
शक्ति वह ऊर्जा हैं जिसने समस्त विश्व की संरचना की है। आदि शक्ति तीन ऊर्जाओं या शक्तियों
का संचय हैं - ज्ञान शक्ति, क्रिया शक्ति और इच्छा शक्ति।
तो जब भगवान शिव और आदि शक्ति मिलकर एक हो गए तो उन्होंने उस
क्रोध को पराजित कर दिया जो स्वयं शिव से उत्पन्न हुआ था। इस प्रकार उन्होंने जलंधर
नामक असुर का नाश कर दिया जो लोगों को अपनी मायाजाल में फंसा लेता था।
प्रश्न : गुरुदेव, यदि किसी महिला
के पति की मृत्यु हो जाती है, तो क्या वह अच्छे वस्त्र धारण कर सकती है? क्या वो दूसरों
की सेवा और सहायता में अपना जीवन लगा सकती है ? क्या वो पहले की तरह एक सामान्य जीवन
व्यतीत कर सकती है?
श्री श्री रविशंकर : निश्चित तौर पर। पर सबसे पहले आपका जो खोया है उसके शोक से
आपको बाहर आना होगा। आप केवल १३ दिनों तक ही शोक मना सकती हैं। अधिक से अधिक एक वर्ष
तक। उसके बाद आपको अपने शोक से बाहर आना ही होगा।
देखिये आपके पति जितने समय के लिए इस धरती पर
आये थे, उतना समय पूरा किया और चले गए। उनका समय संपन्न हो गया| अब आपको आगे बढ़ना पड़ेगा।
क्या आप दोनों इस संसार में साथ साथ आये थे?
नहीं न? आप अकेले आई थीं। आप उनसे बाद में मिलीं। इसलिए अब आप फिर से जीवन पथ पर अकेले
चल सकती हैं।
मन को शांत कीजिये और अपना ध्यान ईश्वर में लगाइए।
यही भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में कहा है कि
"मैं ही तुम्हारा पिता हूँ, मैं ही तुम्हारी माता। मैं ही तुम्हारा पितामह हूँ
और मैं ही वे सब जिनसे तुम इस संसार में मिले।"
जो भी तुम्हारे पास आया, जिस किसी भी रूप में
आया, वो ईश्वर ही था।
प्रश्न : गुरुदेव, मैं एक सरकारी
कर्मचारी हूँ। मामूली सी आय है। क्या मैं एक सफल और आरामदेह ज़िन्दगी बिता सकती हूँ
?
श्री श्री रविशंकर : क्या आप चैन से सोना
चाहते हैं? क्या आप बिना किसी भय के घूमना चाहते हैं? क्या आप अपना सर ऊंचा कर के जीना
चाहते हैं?
जो सुख आपको एक ईमानदार जीवन जीने से मिलता है
वह सुख आपको एक बेइमान जीवन जीने से कभी नहीं मिल सकता। आपके पास आराम के सारे सुख
साधन हो सकते हैं, पर इनका कोई अर्थ नहीं यदि आप चैन से सो ना पाएं?|
अब आप निर्णय लीजिये कि आपको क्या चाहिए। क्या
आप शांति से जीना चाहते हैं, चैन से सोना चाहते हैं, और सर ऊंचा कर के घूमना चाहते
हैं? क्या आप निडरता से कह सकते हैं कि आपने एक ईमानदार जीवन जिया है?
यदि आप इसका उत्तर हाँ में दे सकते हैं,
तो आपको
जितनी ख़ुशी मिलेगी, जितना संतोष मिलेगा, वह किसी और चीज से नहीं
मिल सकता।
प्रश्न : गुरुदेव, इस संसार में
प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी समस्या से परेशान है। क्या हम इस दुनिया में केवल समस्याओं
का समाधान करने के लिए आये हैं?
श्री श्री रविशंकर : यदि आप उन्हें समस्या
मानते हैं तो वे आपको समस्या की तरह दिखेंगे। पर यदि आप उन्हें सृष्टि के खेल की तरह
लेते हैं तो वो आपको एक स्वाभाविक खेल की तरह दिखेंगे.
कई बार हम अपनी समस्याओं के इतने आदी हो जाते
हैं की उनके बिना हम बेचैन सा महसूस करने लगते हैं| कई बार जब कोई समस्या नहीं होती
तो हम अपने लिए खुद समस्याओं का निर्माण कर लेते हैं और फिर अपने आसपास के लोगों के
लिए समस्या बन जाते हैं। हमें जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। एक व्यापक
दृष्टिकोण अपनाना होगा।
यह संसार विभिन्नताओं से भरा हुआ है और प्रतेक
व्यक्ति का स्वभाव और व्यवहार एक दूसरे से भिन्न है। इस बात को समझने की आवश्यकता है।
प्रश्न : गुरुदेव, मेरे माता-पिता
के विवाह को २५ साल पूरे होने को आये पर अभी भी उनमें आपस में नहीं बनती। जब मैं अपने
पिता की बात सुनता हूँ तो वो सही मालूम पड़ते हैं और जब मैं अपनी माँ की बात सुनता हूँ
तो वो सही जान पड़ती हैं। समझ में नहीं आता की क्या करूं?
श्री श्री रविशंकर : मेरा पहला सुझाव तो यह
होगा कि दोनों की बातें सुनते रहो| दोनों से कहो कि वह सही हैं और साथ ही साथ इस बात
का भी प्रयास करते रहो कि उन दोनों के सम्बन्ध मधुर हो जायें। हिम्मत मत हारो। अगर
१०० बार कोशिश करोगे तो एक बार तो कुछ अच्छा ज़रूर निकल के आएगा।
देखो! २५ साल पहले ही निकल चुके हैं। और बाकी
के २० -२५ साल भी ऐसे ही निकल जायेंगे। हम उसके बाद में देखेंगे कि क्या होता है।
पर हाँ! उनके सम्बन्ध मधुर बन जायें इसके लिए
बहुत ज्यादा प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। जैसा चल रहा है उसे स्वीकार करो और मन
को शांत रखो। मनुष्य की प्रवृत्ति को बदलना आसान काम नहीं है। इसलिए बेहतर ये होगा
कि जैसे वे हैं वैसे ही उन्हें रहने दो .
यदि कभी आग ज्यादा लग जाये तो उस पर थोडा पानी
डालो। अगर वो लड़ने लग जायें तो उनके बीच आ जाओ। तुम समझदार हो। हमारे समाज में चीजें
ऐसे ही चलती हैं।
एक बार किसी ने एक व्यक्ति से पूछा की "तुम
अपनी पत्नी से क्यूँ झगडा करते हो?"
तो उसने कहा, "क्या मतलब? वह मेरी पत्नी
है, मैं उससे प्यार करता हूँ। मैं किसी और के साथ जा के लड़ सकता हूँ क्या? मैं सिर्फ
उसी से लड़ सकता हूँ जिससे मैं प्रेम करता हूँ।“
यही सत्य है।
देखो! वे अक्सर एक दूसरे से लड़ते रहेंगे। पर
वो फिर से साथ भी आ जायेंगे और एक दूसरे को प्यार भी करेंगे। ये चलता रहता है। ज्यादा
हस्तक्षेप मत करो और ज्यादा चिंता भी मत करो।
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ज्ञान के मोती
सगुणोपासना किस हद तक स्वीकार्य है?
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