‘जो होगा, देखा जाएगा’ – बस ये कहिये, और देखिये कि क्या होता है!

२०१३
मार्च
बैंगलुरु आश्रम, भारत


प्रश्न : गुरुदेव, इस पूर्ण विश्वास के साथ कैसे जीवन जियें, कि समर्पण करने के बाद गुरु या भगवान मेरी देखभाल करने के लिए हमेशा हैं?
श्री श्री रविशंकर : ऐसा करने का कोई तरीका नहीं है! आपको इसकी जिम्मेदारी खुद ही उठानी पड़ेगी| जो होगा, देखा जाएगा बस ये कहिये, और देखिये कि क्या होता है|
यदि आप विश्वास को लाने का प्रयास कर रहे हैं, तो कुछ नहीं होगा|
मैं अपनी श्रद्धा बनाये रखना चाहता हूँ कौन सी श्रद्धा आप बनाये रखना चाहते हैं? फेंक दीजिए श्रद्धा को! आप अपनी श्रद्धा को बरकरार रखने का प्रयास कर रहे हैं ये कितना बड़ा बोझ है! उल्टा कहिये, मुझे कोई परवाह नहीं है!
यदि श्रद्धा है, तो है| यदि श्रद्धा नहीं है, तो नहीं है, आप कर भी क्या सकते हैं? ये सीधी सी बात है| श्रद्धा भी एक उपहार है| आप अपने दिल और दिमाग में श्रद्धा थोपने का प्रयास नहीं कर सकते|
कभी कभी, जब आपका दिमाग अपनी बक-बक और नकारात्मकता से श्रद्धा को नकार भी देता है, तब भी आपके अंदर कुछ होता है, जो आपको उस दिशा में ढकेलता है| जब ऐसा होता है, तो उसे पहचानिये| और ऐसा होता है|
कोई कहता है, मैं किसी में विश्वास नहीं करता, लेकिन फिर भी वह बैठकर ध्यान करता है| और यदि आप उससे पूछेंगे, कि आप ध्यान क्यों कर रहे हैं?, तो वे कहेंगे, मेरे अंदर कुछ है, जो मुझे ध्यान करने के लिए कहता है|
एक व्यक्ति कहता है, मैं गुरु में विश्वास नहीं रखता!, लेकिन फिर भी जब गुरुदेव आते हैं, वह कहता है, क्योंकि अब मेरे पास कुछ और करने के लिए नहीं है, तो चलो मैं वहीँ चलता हूँ, और वह वहां पहुँच जाता है| कुछ है, जो उस व्यक्ति को उस ओर खींचता है, उसे एअरपोर्ट की तरफ ले जाता है, या सत्संग में आने पर विवश कर देता है| वह क्या है?
आपने ये निर्णय ले लिया, कि आपको श्रद्धा नहीं है, और आपने अपनी श्रद्धा को मिटाने के लिए बहुत जतन कर लिए, या मना करते गए कि आपमें कोई श्रद्धा है, लेकिन फिर भी कुछ ऐसा हुआ, जिसने आपको बांधे रखा| वहीँ, आपको सजग हो जाना चाहिये, कि हाँ, श्रद्धा तो है!
इसलिए, श्रद्धा थोपी नहीं जा सकती, वह तो है ही| एक बार जब वह आ जाती है, तो हमेशा रहती है| अगर वह चली जाती है, तो वह आपको दुखी कर देती है| जब आप दुखी हों, तो इतना याद रखिये, श्रद्धा चली गयी है, इसीलिये मैं दुःख में हूँ| और आप दुखी नहीं रहना चाहते| तो इसीलिये, जिस क्षण आप ये ठान लेते हैं, कि मुझे दुखी नहीं रहना, तब श्रद्धा वापिस आ जाती है|
श्रद्धा तो हमेशा से ही थी, बस वह दोबारा प्रकट हो जाती है|
यदि आप श्रद्धा को रखने का भरपूर प्रयास करते हैं, तब वह एक बहुत ही मुश्किल काम है| कभी कभी लोगों को ऐसा लगता है कि वे सिर्फ गुरु या भगवान की वजह से अपनी श्रद्धा बरकरार रखे हुए हैं| भगवान के लिए, इतना याद रखिये, कि वह आप हैं, जो श्रद्धा रखते हैं| याद रखिये, कि यदि आप श्रद्धा नहीं रखते, तो उससे भगवान को कोई फ़र्क नहीं पड़ता| वह कहता है, ठीक है, विश्वास मत रखो, तो क्या हुआ? मैं तो यहीं हूँ! अगर तुम्हें लगता है कि मैं यहाँ नहीं हूँ, तो ठीक है, तुम्हें कुछ भी सोचने की आज़ादी है|
बहुत से लोग कहते हैं, ओह! मैं भगवान में इतना विश्वास करता हूँ| तो क्या हो गया यदि आप इतना विश्वास करते हैं? जो होना है, वो तो होगा ही| हमारी श्रद्धा इतनी खोखली होती है| हमारी श्रद्धा केवल हमारी सुविधा के हिसाब से है, जिससे छोटी छोटी चीज़ें हो जाएँ| हमारी श्रद्धा, खास तौर से हमारी खुद की इच्छाएं पूरी करने के लिए होती हैं| यदि हमारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं, तब हम कहते हैं, ओह, मुझे श्रद्धा है| यदि वे पूरी नहीं होती, तब हम कहते हैं, मेरी श्रद्धा हिल गयी है, मुझे श्रद्धा नहीं है| मैं आपसे कहता हूँ, जीवन इच्छाओं से कहीं ज्यादा है| और श्रद्धा जीवन से भी बढ़ कर है|
श्रद्धा रहती है, और वह तब प्रकट होती है जब आपके अंदर सत्व और सामंजस्य बना होता है| आप सिर्फ इतना कर सकते हैं कि सामंजस्य बनाये रखें, और उचित व्यायाम से, भोजन और ज्ञान से अपने मन को स्वच्छ रखें| ये सब उस दिशा में बढ़ने के लिए आपकी सहायता करेंगे|

प्रश्न : गुरुदेव, पहले मूर्खता के कारण मैं हमेशा भय में रहता था, लेकिन अब कभी कभी ज्ञान के कारण मुझे संशय होता है| मैं क्या करूँ?
श्री श्री रविशंकर : ये तो बढ़िया है! ज्ञान का उद्देश्य यही है कि वह आपको और भ्रम में डाले, दोबारा और तिबारा| ज्ञान का उद्देश्य आपको स्पष्टता देना नहीं है| जब जब आप कन्फ्यूज होते हैं, तब तब आप एक और सीधी चढ़ जाते हैं| इसलिए, कोई बात नहीं!
जब कोई कन्फ्यूजन (भ्रम) नहीं है, तब ये ऐसा है कि आप एक सीधे रैम्प (ज़मीन) पर चल रहे हैं, जिसमें कोई कूद-फांद नहीं है| लेकिन कभी कभी सीढियां होती हैं, जहाँ आपको एक सीढ़ी छोड़ कर, दूसरी सीढ़ी पर ऊपर चढ़ना होता है| और तभी कन्फ्यूजन होता है| अब आप मुझसे ये मत पूछियेगा, कि यदि मुझे कोई कन्फ्यूजन नहीं है, और मुझे अपने जीवन में पूरी स्पष्टता है, तो क्या इसका मतलब मैं आगे नहीं बढ़ रहा? क्या ज्ञान मेरे लिए काम नहीं कर रहा? ऐसा कुछ नहीं है! आपके लिए रास्ता एक दम सीधा है, रैम्प वॉक की तरह! यदि ऐसा नहीं है, तो आप एक ऊंची-नीची सड़क पर जा रहे हैं, और ये अच्छा है|

प्रश्न : गुरुदेव, दक्षिणामूर्ति का क्या अर्थ है?
श्री श्री रविशंकर : अमूर्त का अर्थ है, वह जिसका कोई रूप नहीं है, और जिसे व्यक्त न किया जा सके; वह जिसे देखा नहीं जा सकता| भगवान शिव का कोई रूप नहीं है, और वे इस अनंत संसार को व्यक्त करते हैं| वे कोई रूप ले ही नहीं सकते, ये असंभव सा ही है|
मूर्ति वह है जिसका कोई रूप है और जिसे देखा जा सकता है, और दक्ष मतलब कुशलता और सामर्थ्य|
तो जब दिव्यता को व्यक्त नहीं किया जा सकता, तब उसे एक कुशलता से व्यक्त किया जा सकता है, और तब उसे दक्षिणा कहते हैं|
देखिये, हम अपने अंदर की सभी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर सकते| कितनी बार, हम अपने अंदर की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए एक फूल भेंट करते हैं| फूल चढ़ाने के इस कृत्य के द्वारा हम अपनी भावनाओं को दिखाने का प्रयास करते हैं, है न? हम ऐसा कुछ नहीं दे सकते, जिससे हम अपने अंदर छिपी संवेदनाओं को पूरी तरह से स्पष्ट कर पाएं, लेकिन फिर भी हम कुछ देने का प्रयास करते हैं| इसे कहते हैं, दक्षिणा|
दक्षिणामूर्ति वह है, जिसे देखा तो नहीं जा सकता लेकिन फिर भी जो व्यक्त हो रहा है| वह जो अभिव्यक्ति के परे है, लेकिन फिर भी एक रूप के माध्यम से जिसे अभिव्यक्त किया जा रहा है| वह अदृश्य है, लेकिन फिर भी दिख रहा है, और सब कुछ उसी से बना है| जब वह, जो अनंत है, और जिसे न तो अभिव्यक्त किया जा सकता है, और न ही व्यक्त किया जा सकता है जब उसे इतनी कुशलता के साथ, एक रूप के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है, तब उसे दक्षिणामूर्ति कहते हैं|
सूर्य इतना बड़ा होता है, और हमसे कितनी दूर है, लेकिन यदि आप सूरज को एक छोटे से शीशे में देखते हैं, तो आप सूरज के प्रतिबिम्ब को उस कांच के छोटे से टुकड़े में देख सकते हैं| हालाँकि, वास्तविकता में सूरज इतना बड़ा है, लेकिन फिर भी आप कुशलता से सूरज की परछाई को उस कांच के टुकड़े में कैद कर सकते हैं, और अपने घर के अंदर ला सकते हैं| इसे कहते हैं दक्षता, और इसी सिद्धांत को दक्षिणामूर्ति कहते हैं|
भगवान शिव को आदि गुरु कहते हैं| वे सब कुछ हैं, और सब जगह हैं, लेकिन फिर भी वे एक गुरु के रूप में आते हैं| तो जब अनन्तता एक गुरु के रूप में आती है, तब उन्हें दक्षिणामूर्ति कहते हैं|
प्राचीन समय से ही, गुरु तत्व के मुख्य रूप को दक्षिणामूर्ति कहते हैं| देखिये, गुरु कोई व्यक्ति नहीं हैं| वह तो एक ऊर्जा है, जो गुरु के शरीर में मौजूद है; उस ऊर्जा को दक्षिणामूर्ति कहते हैं| यह वह दिव्यता है, जो सर्वव्यापी है, अनंत है, मार्गदर्शक ज्ञान है, जो अव्यक्त है लेकिन फिर भी व्यक्त होती है|
इसलिए भगवान शिव को दक्षिणामूर्ति कहते हैं, आदि गुरु| तो कहानी कुछ इस प्रकार है, कि भगवान शिव शांत बैठे हैं| उन्हें एक नवयुवक के रूप में दर्शाया है, और उनके सामने ज्ञान प्राप्त करने हेतु कुछ वृद्ध शिष्य बैठे हुए हैं| जैसे ही वे उनके सामने बैठते हैं, तो उन्हें मौन में ही सारा ज्ञान प्राप्त हो जाता है, और उनके सभी प्रश्न समाप्त हो जाते हैं| उनका प्रवचन मौन में था| इसका अर्थ हुआ कि उन सभी के ऊर्जा स्तरों की उन्नति हो गयी| यही गुरु तत्व है| वे वास्तविक गुरु, जहाँ से सारा ज्ञान शुरू हुआ, उन्हें ही दक्षिणामूर्ति कहते हैं|
इसलिए, बहुत ही कुशलता से अव्यक्त दिव्यता को व्यक्त किया गया है| यही दक्षिणामूर्ति का सार है|

प्रश्न : गुरुदेव, शिव के ऊपर खड़ी काली का क्या महत्व है?
श्री श्री रविशंकर : काली, एक भयंकर परिवर्तनशील ऊर्जा का प्रतीक हैं; विनाश करने वाली ऊर्जा| जब वे शिव तत्व के ऊपर खड़ी हुईं, तब वे भद्रकाली बन गयीं, जिसका अर्थ है वह ऊर्जा जो केवल लाभकारी परिणाम ही लाती है| ये पूरी बात प्रतीकात्मक है; यह उस ऊर्जा का प्रतीक है जो केवल उदारतापूर्ण प्रभाव ही लाती है| शिव एक ऐसी श्रेष्ठ अवस्था है, जो दुनिया में केवल कृपा और भलाई ही लाता है| तो जब काली, जो कि एक भीषण, विनाशकारी शक्ति हैं जब उन्हें क्रोध आया, तब उस क्षण शिव आये और उनके आगे लेट गए| जैसे ही उन्होंने शिव पर पैर रखा, काली की शक्ति काबू में आ गयी, और वे उदार हो गयीं| तो यदि विनाश होना भी है, तो वह भी लाभकारी ही होना चाहिये|
देखिये, जब आप पुरानी ईमारत को धराशायी करना चाहते हैं, तो आप क्या करते हैं? आप उस इमारत के नीचे धमाका करते हैं, और फिर वह इमारत नीचे आ जाती है, है न? कुछ नया बनाने के लिए, आपको किसी चीज़ का विनाश करना पड़ता है| इसलिए, किसी अच्छे काम के लिए, उदारता के लिए, यदि कोई विनाश किया गया है तो यह विनाश गुस्से, ईर्ष्या, नफरत या मूर्खता के द्वारा किये गए विनाश से बहुत अलग होता है| ये वैसे ही है, जैसे एक अणु का विनाश करके परमाणु ऊर्जा बनायी जाती है| लेकिन, यदि ये ऊर्जा ठीक से इस्तेमाल न की जाए, तो ये विनाशकारी हो सकती है| जब इसे इस दिशा मिल जाती है, तब ये बिजली बनाने के लिए, और अन्य सुख-सुविधा के लिए प्रयोग में लाई जा सकती है|
यही बात बिजली के साथ भी लागू होती है, जो कि दरअसल में एक विनाशकारी ऊर्जा है| जब बहुत ज्यादा पावर की बिजली का उत्पादन होता है, और यदि आप उसके संपर्क में आ जाते हैं, तो आप पल भर में ही खत्म हो जायेंगे| लेकिन जब बिजली को लाभकारी काम में, तारों और ट्रांसफोर्मर के ज़रिये लगाया जाता है, तब वह उस ऊर्जा को कम करती है और जनता के लिए उपलब्ध होती है और उनके लिए उपयोगी होती है| इसी तरह काली की ऊर्जा वैसे तो विनाशकारी ऊर्जा थी, सभी दुष्टों का विनाश करने के लिए वह बहुत तीव्र थी| तब शिव ने उनके आगे लेट कर उसे एक प्रवाह दिया और उसे लाभकारी बनाया, ताकि सृष्टि की रक्षा हो सके|
शिव हमेशा वही करते हैं जो संपूर्ण सृष्टि के लिए शुभ होता है| उन्होंने ज़हर तक पी लिया था| इसमें एक पौराणिक कथा है| जब देवता और असुर समुद्र-मंथन कर रहे थे, तब सबसे पहले उसमें से विष बाहर आया| जब विष बाहर आया तब वे शिव थे जिन्होंने उसे ग्रहण किया और पी लिया| जैसे ही उन्होंने विष पिया उनका कंठ नीला हो गया| इसीलिये उन्हें नीलकंठ कहते हैं; एक सुन्दर व्यक्ति जिसकी गर्दन नीली है| तो ये कहानी हिंदू पुराणों में प्रचलित है|
काली का अर्थ ज्ञान भी है; परिवर्तन का ज्ञान| जब काली शुभ पर खड़ी हुईं, शिव की उदारता पर खड़ी हुईं, तब उससे संसार का भला हुआ| इस तरह, वही ऊर्जा इतनी उदार हो गयी, और काली खुद इतनी उदार हो गयीं, कि उन्होंने संपूर्ण सृष्टि को ज्ञान का आशीर्वाद दिया| इसीलिये, उन्हें भद्रकाली भी कहते हैं, वे जो सदैव अच्छा ही करती हैं|

प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, यदि हर अरूप शिव हैं, और हर सरूप शक्ति हैं, तब साँस क्या है जो कि अरूप और सरूप दोनों है?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, हर अरूप शिव हैं, और हर सरूप शक्ति हैं| आप इसकी परिभाषा किसी भी तरह कर सकते हैं| प्रण को मुख्यप्राण भी कहते हैं|
हनुमान प्राण से सम्बंधित हैं, वायु प्राण से सम्बन्ध रखती है, ओंकार प्राण से सम्बंधित है| तो इसलिए, इस ब्रह्माण्ड में सब कुछ प्राण है| हम प्राण के समुद्र में हैं, और प्राण शिव भी है और शक्ति भी है|
एक जगह ऐसी आती है जहाँ आप शिव और शक्ति के बीच कोई भेद नहीं कर पाते| उनके बीच की सीमा समाप्त हो जाती है, अदृश्य हो जाती है| शिव और शक्ति एक हो जाते हैं| तब इसको ब्रह्मन कहते हैं, जिसका अर्थ है कि सब कुछ एक ही है कोई दूसरा नहीं है|
अद्वैत माने, कोई दूसरा नहीं, कोई दो नहीं| ये एक ही ऊर्जा का क्षेत्र है| उसके बिना किसी और का कोई अस्तित्व नहीं है| अद्वैत अर्थात जिसमें दो नहीं हैं, यह इस ब्रह्माण्ड की एकमात्र शक्ति है| यही सर्वोत्तम ज्ञान है; यानि अद्वैत, कोई दो नहीं हैं| ये पूरा ब्रह्माण्ड एक तत्व से ही बना है|
जब आप एक सीढ़ी नीचे आते हैं, तब क्वांटम भौतिकी जैसा होता है| एक और कदम नीचे आते हैं, तो ये रसायन विज्ञान की पीरीयोडिक टेबल की तरह है| क्या आप पीरीयोडिक टेबल के बारे में जानते हैं? उसमें अलग अलग तत्व होते हैं, अलग अलग पहलू, यही सब देवी और देवता हैं|

प्रश्न: कृष्ण कहते हैं, जो इच्छा धर्म के विरूद्ध नहीं है, वही मैं हूँ| क्या आप हमें बता सकते हैं कि ये कैसे पता लगाएं कि कौन सी इच्छाएं धर्म के अनुरूप हैं और कौन सी उसके विरोध में?
श्री श्री रविशंकर: ऐसी इच्छाएं जो आम हैं, प्राकृतिक हैं, और जो आपके अंदर किसी तरह का पछतावा, भय या बेचैनी पैदा नहीं करती, या आपको आपके सहज स्वभाव से दूर नहीं ले जाती वे धार्मिक इच्छाएं हैं| ऐसा कुछ भी जो आपको हिला देता है, आपको जलाता है, या आपको बेचैन कर देता है उस इच्छा से जुड़ी बेचैनी ही ये दर्शाती है कि वह धर्म नहीं है| यदि वह धार्मिक है, तो वह बहुत सहज और आरामदायक होगी| यदि वह धार्मिक नहीं है, तब उसके साथ भय, अपराध-बोध और परेशानी आएगी ही|

प्रश्न : असली सेवा क्या है? मेरा हर कर्म सेवा कैसे बन सकता है?
श्री श्री रविशंकर : सेवा मतलब, उसकी तरह करना| उसकी अर्थात सृष्टि का निर्माता| वह आपके लिए सब कुछ करता है और बदले में आपसे कुछ भी नहीं चाहता| इसलिए, आपसे जितना हो सके, वो करना और बदले में कुछ भी न चाहना इसी को सेवा कहते हैं|
हाँ, उसका फल निश्चित ही मिलता है| लेकिन जब आप उसके फल की इच्छा कर रहे होते हैं, तब वह सेवा नहीं रह जाता| बिना कुछ उम्मीद किये, बिना कुछ चाहे, सिर्फ कुछ करने के लिए जो किया जाए वही सेवा है|