"ऐसे सात गुण हैं जिन पर भारत को गर्व होना चाहिये"
चेन्नई, २६ नवंबर २००९
परम पूज्य श्री श्री रवि शंकर ने चेन्नई के Great Lakes Institute of Management में MILK (Meditation and Inspiration Center for Living and Kindness) केन्द्र का उद्घाटन किया। श्री श्री ने छात्रों के साथ कुछ समय बिताया जिसमें की गई कुछ बातें निम्नलिखित हैं:
विष्णु शक्ति :
‘विष्णु, नाग पर विश्राम करते हैं। उन्हें ज़्यादा कुछ नहीं करना पड़ता। बाकी के सब काम ब्रह्मा करते हैं। ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं और विष्णु उसका रखरखाव करते हैं। प्रबंधक लोग निर्माण और रखरखाव दोनो ही करते हैं।’
युवा शक्ति और बदलाव :
`आज दुनिया बदलाव की मांग कर रही है| युवाओं के पास अच्छा मौका है एक नई दुनिया बनाने का। आज दुनिया कुछ थम सी गई है। भारत से ही दुनिया में बदलाव आयेगा।
आर्थिक समृद्धि सच्ची समृद्धि नहीं है। जीवंतता, जोश, प्रेम, करुणा - भारत में से यह गुण प्रवाह हुए थे। जीवन का अर्थ ही है सृजन, उत्साह, प्रेम और करुणा। अगर ये गुण तुम में खत्म होने लगें तो तुम एक मृत शरीर रह जाओगे।‘
श्री श्री ने नई खोज और सृजन पर बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने जो है केवल उसीकी देखभाल करने के इलावा सृजनात्मक विचारों को बढा़ने पए प्रोत्साहन दिया।
वसुधैव कुटुम्बकं
‘समस्त विश्व एक ही परिवार है – वसुधैव कुटुम्बकं। उस मायने में हमने खुद को दूसरों से अलग नहीं समझा। हमने जापान से सीखा कैसे एक टीम अच्छी तरह से कार्य करती है। हमने अंग्रेज़ों से तौर तरीके सीखे। अमरीका से marketing सीखी। जर्मनी से हमने तकनीकी सूझबूझ सीखी, और भारत ने विश्व को मानवीय गुण दिये।
मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। एक बार मैनें सभी भक्तों से कुछ सृजनात्मक कार्य करने को कहा, क्योंकि सृजनात्मकता में आत्मा की झलक मिलती है। तीन महीने बाद सभी भक्त कुछ बढ़िया प्रोजेक्ट लेकर आये। एक टीम ने बिना अंडे की आइसक्रीम बनाई, और ये साबित करने में लग गये कि उनकी बनाई आइसक्रीम विश्व में सर्वश्रेष्ठ है। एक बुज़ुर्ग महिला अपना प्रोजेक्ट लेकर आई। उसने एक रुमाल बनाया था, और उसने उस रुमाल के १७ तर्कसंगत गुण बताये जिनसे ये साबित कर सकी कि वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ रुमाल था।
आपने देखा, अमरीका में marketing skills उनके product से बेहतर हैं। भारत में हमारे पास बढ़िया products हैं, पर हमारी marketing skills कमज़ोर हैं।
भारत :
ऐसे सात गुण हैं जिन पर भारत को गर्व होना चाहिये। अभी इन्हें पूरी तरह पहचाना नहीं गया है।
भोजन :
भारत में भोजन के अनेक प्रकार हैं। भारत के एक छोटे से प्रांत त्रिपुरा में ही २०० से अधिक भोजन व्यंजन हैं।
उत्तर भारत के लोग दक्षिण भारत में प्रचलित अलग अलग व्यंजनों को नहीं जानते। दक्षिण भारत के लोग उत्तर भारत के भोजन को पूरी तरह नहीं जानते हैं। हमारे पास भोजन की अधिकतम क़िस्में है, फिर भी इस गुण को हम ठीक तरह market /project नहीं कर पाये हैं।
पर्यटन :
भारत के इतिहास का एक बहुत बड़ा हिस्सा अभी पर्यटकों से अछूता है।
संगीत और नृत्य :
भारतीय संगीत और नृत्य के कई प्रकार हमने अभी तक दर्शाये नहीं हैं।
वस्त्र और आभूषण :
भारतीय वेषभूषा विश्व भर में सराही जाती है। हमें अपने वस्त्रों पर कोई मान ही नहीं है! थाइलैंड और मलेशिया के लोगों को अपने वस्त्रों और आभूषणों पर बहुत गर्व है। हमें गर्व नहीं है। हम अपने आप को अच्छा नहीं समझते। Low self esteem हमारी मानसिकता और संस्कृति को खाये जा रही है।
Information Technology :
ये भारत को नई ऊंचाइयों तक ले जायेगी।
आयुर्वेद :
भारत में २८० प्रकार के पौधे और जीव पाये जाते हैं जो विश्व में और कहीं नहीं पाये जाते। इस पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता! आयुर्वेद इक्कीसवीं सदी की लोकप्रिय चिकित्सा पद्दति होगी।
त्रिफला :
विदेश में त्रिफला का नुसख़ा ले लिया गया है। ऐसी और भी भारतीय वस्तुएं हैं जो विश्व में अपनाई जा रहीं हैं, पर भारतीय लोग उनकी उपयोगिता से अंजान हैं।
आध्यात्म :
केवल अमरीका में योग के व्यवसाय का बाज़ार मूल्य २७ बिलियन डालर का है, और इसमें 99% वर्चस्व अमरीकीयों का है। योग, भारत का विश्व को दिया गया उपहार है। अमरीका में योग के अभ्यास में उपयोग होने वाली वस्तुयें बनाई जाती हैं। न्यू यार्क में एक जगह भजन और मंत्र-जप के लिये लोगों को सादर बुलाया जाता है। और भारत में हम मंत्र जप की महत्वता को भूल गए है।
प्रश्न-उत्तर
प्रश्न : राजयोग के अनुसार ध्यान करना उनके लिये उपयुक्त है जिन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिये अभ्यास और एकांत का कठिन व्रत लिया हो। एक व्यक्ति जिस के पास कई ज़िम्मेदारियां हो, आसानी से ध्यान नहीं कर सकता। आप ने कहा कि सभी को ध्यान करना चाहिये। एक साधारण व्यक्ति के लिये इसका क्या अर्थ हुआ?
श्री श्री : योग के कई प्रकार हैं। राज योग एक राज-मार्ग है। योग के किसी किसी प्रकार में साधना-अभ्यास में बहुत समय देते हैं। योग के कुछ प्रकार उन लोगों के लिये भी होते हैं जिन के पास कई ज़िम्मेदारियां होती हैं, और थोड़े ही समय में साधना हो जाती है। ध्यान हरेक व्यक्ति के लिये उपयोगी है।
प्रश्न : आपने सृजनातमकता और नई खोज का महत्व बताया है। पर इनके साथ कुछ जोखिम और अनिश्चित्ता भी बनी रहती है। कोई नई तकनीक या वस्तु कई बार असफल होने के बाद ही सफल हो पाती है। इन असफलताओं से कैसे निपटें? बार बार असफल होने के बाद भी नई खोज की यात्रा कैसे जारी रखें?
श्री श्री : असफलता, विकास प्रक्रिया का एक अंग है। ध्यान करने से तुम्हें असफलताओं के बावजूद आगे बढ़ने में सहायता मिलेगी। असफलता के बिना भी कोई नई खोज और सृजन संभव है अगर तुम अपने अंतर्ज्ञान का सही प्रयोग करो तो। ध्यान से अंतर्ज्ञान विकसित होता है।
ध्यान और अंतर्ज्ञान के सामंजस्य से किसी नई खोज या सृजनात्मक कार्य में असफलता की संभावना शून्य हो जाती है। अगर अंतर्ज्ञान अधिक विकसित नहीं है तो असफलतायें अधिक आती हैं।
प्रश्न : भगवद् गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि कर्म करो, फल की चिंता मत करो। अगर हम फल के बारे ना सोचे तो कड़ी मेहनत से कर्म क्यों करना चाहेंगे?
श्री श्री : फल पर कोई नियंत्रण नहीं है। अगर तुम्हारा ध्यान केवल कर्म फल पर है तो तुम ठीक तरह अपना कर्म नहीं कर पाओगे।
एक दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेने वाले व्यक्ति का उदाहरन लेते हैं – अगर वह बार बार पीछे मुड़कर देखता रहे कि पीछे से कौन आ रहा है, और आगे के रास्ते से उसका ध्यान भटके, तो वो कितना ही अच्छा क्यों ना दौड़ता हो, पर वो हार जायेगा। तुम्हें अपने ही मार्ग पर आगे जाना है और दौड़ पूरी करनी है - चाहे तुम जीतो या हारों।भगवान श्री कृष्ण की सलाहें बहुत व्यवहारिक और उपयोगी है।
प्रश्न : साधना के अनेको प्रकार और पथ हैं। मैं किसे चुनूं?
श्री श्री : योग सभी को एक साथ लाता है। योग के साथ सब आ जाता है। सुदर्शन क्रिया तुम्हारी मदद करेगी। ये आज के नौजवानों के लिये उपयुक्त हैं जो कि बहुत व्यस्त रहते हैं। थोड़े समय में ही वे गहरे अनुभव प्राप्त करते हैं। इसका कोई हानिकारक प्रभाव भी नहीं है।
प्रश्न : क्या धार्मिक क्रियायें करना आवश्यक है? मैं ध्यान के पथ पर हूँ और कभी कभी धार्मिक क्रियायें करने में मेरी रुचि नहीं होती।
श्री श्री : ये संस्कृति की बात है। धार्मिक क्रियाओं से खुशी का माहौल बनता है। उत्सव में कोई बुराई नहीं है। पटाखे, इत्यादि..
पारंपरिक उत्सवों से परिवार में, खासतौर पर बच्चों में अपनापन बढ़ता है।
माओवादियों के घरों में भगवान के चित्र या दिया जलाने की प्रथा नहीं होती। जब बच्चे ऐसे माहौल में बड़े होते हैं तो वे अपने जीवन में बहुत खालीपन पाते हैं।
रूस में ४० सालों तक कोई धर्म नहीं था। कथीड्रलों को तोड़ा गया। और एक कथीड्रल को तोड़कर स्विमिंग पूल बना दिया गया! तबाही के उस समय के गुज़र जाने के बाद अब दोबारा उस चर्च को बनाया गया है। अगर लोग धर्म का पालन नहीं करते तो कुछ समय के बाद उन्हें खालीपन महसूस होता है। धर्म केले के छिलके की तरह हैं और आध्यात्म बीच का फल।
प्रश्न : गुरुजी, ऐसा क्यों है कि संस्कृत भाषा का जन्म भारत में हुआ पर उसका दूसरा संदर्भ शिकागो में पाया जाता है?
श्री श्री : तुमने तो मेरा सवाल पूछ लिया! हम संस्कृत पर अपना स्वामित्व खो रहे हैं। तुम्हें पता है डाक्टर भीम राओ अम्बेडकर ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने का प्रस्ताव रखा था और नसीरुद्दीन ऐहमद नें उनका समर्थन किया था। मलयालम के ८०% शब्द संस्कृत के हैं। तेलेगु के ७०% शब्द संस्कृत के हैं। तामिल के ३०% शब्द संस्कृत के हैं और हिंदी के ८०% शब्द संस्कृत के हैं। विदेशी भाषाओं में भी कई शब्द संस्कृत से मिलते जुलते हैं – जैसे कि ‘स्वसा – sister’, `दुहिता – daughter’ । हालांकि हमने इन के बीच की कड़ी खो दी है और संस्कृत की साख को नहीं बना सके।
तुम्हें पता है Italian में बारिश को क्या कहते हैं? ‘Piyorja!’ इसका संस्कृत शब्द है ‘पर्जन्य’। ऐसी बहुत सी मिसालें मिलती हैं।
प्रश्न : एक सोच के अनुसार हमें अपने प्रतिद्वंद्वी के कार्य-कलापों के बारे में सजग रहना चाहिये। अगर ऐसा नही किया तो हमारी स्थिति उस घोड़े जैसी होगी जिसे सामने के रास्ते के सिवा कुछ नहीं दिखता। नहीं तो ऐसा हो सकता है कि हम दुनिया का सबसे बढ़िया calculator बना पायें, जबकि दुनिया computer के युग में पंहुच चुकी हो! इन दोनों विपरीत विचारों के बारे में आप का क्या विचार है?
श्री श्री : युवाओं को दोनों ही स्थितियों का समन्वय करना है। अपने प्रतिद्वंद्वी के प्रति सजग रहना चाहिये, और साथ ही अर्जुन की तरह अपने ध्येय पर दृष्टि होनी चाहिये। अपने परिवेश के प्रति सजग रहो और अपने ध्येय के प्रति एकाग्रचित्त रहो। हद से अधिक महत्वाकांक्षी होने से कुछ लाभ मिलने वाला नहीं है। अपने अंतर्ज्ञान, जोश और विश्राम को बढ़ाओ। इससे तुम्हें वो सब मिलेगा जिसकी तुम्हें आवश्यकता होगी।
© The Art of Living Foundation For Global Spirituality
" अतीत एक स्मृति के सिवा कुछ भी नहीं है।"
बैंगलोर आश्रम,
२७ नवंबर २००९
प्रश्न : ये मेरा दसवां अड्वांस कोर्स है, पर मैं अभी तक भय से छुटकारा नहीं पा सका हूं। क्या करूं?
श्री श्री रवि शंकर : योगासन। योगासन से तुम्हारे नर्वस सिस्टम और एन्डोक्रिन सिस्टम दोनों की शक्ति बढ़ेगी।
प्रश्न : आप कहते हैं कि व्यक्तियों को वो जैसे हैं वैसा स्वीकार कर लो। मैं ऐसा करता हूं पर निराश और चिड़चिड़ा हो जाता हूं। कोई ऐसा उपाय बताइये कि मैं व्यक्ति को वो जैसा है वैसा स्वीकार भी कर लूं और चिड़चिड़ाऊं भी नहीं।
श्री श्री रवि शंकर : जब तुम अपने भीतर क्रोध महसूस करते हो, तो क्या अपने भीतर हो रही संवेदना को महसूस करते हो? दूसरे व्यक्ति को भूल जाओ। ये भीतर की संवेदना है जो तुम्हे कष्ट पंहुचा रही है। जब तुम उस संवेदना पर अपना ध्यान ले जाते हो, वो खत्म हो जाती है। अपने नर्वस सिस्टम को तुम खुद क्यों बिगाड़ रहे हो? तुम्हे पता है, तुम्हारे चेहरे पर व्यग्रता का भाव लाने के लिये ७२ मांस पेशियों पर दबाव होता है| तुम्हारे शरीर को ही नुक्सान होता है।
प्रश्न : मैं अपनी समस्याओं में फंस जाता हूं। इससे बाहर कैसे आऊं?
श्री श्री रवि शंकर : जब तुम सोचते हो कि तुम्हारी समस्या बहुत बड़ी है, जान लो कि तुम उन लोगों की समस्याओं से अन्जान हो जिनकी समस्या तुम्हारी समस्या से कई गुना अधिक है|। जब तुम अपनी समस्याओ की तुलना दूसरों की समस्याओं से करोगे तो तुम्हे अपनी समस्या बहुत छोटी जान पड़ेगी।
प्रश्न : वैराग्य और अस्वीकार की स्थिति में क्या अंतर है?
श्री श्री रवि शंकर : जब तुम अपनी भावनाओं को समझ ना पाओ, मैं कहता हूँ उन्हे समझने की कोशिश का त्याग कर दो। कई बार तुम अपनी मानसिक स्थिति से परेशान हो कर परामर्श लेने जाते हो, तो परामर्शकर्ता तुम्हें बताता है, "ओह! बचपन में तुम्हारी मां तुम्हें मेले में घुमाने नहीं ले गई, इसलिये तुम क्रोध का अनुभव करते हो।" मैं तुमसे कहूंगा, अपने अतीत को एक सपने की तरह जानो और आगे बढ़ जाओ, भविष्य की ओर।
किसी घटना से तुम्हें सुख हुआ, किसी घटना से तुम्हें दुख हुआ। अपनी स्मृतियों में रह कर तुम वर्तमान को ख़राब कर रहे हो। अतीत एक स्मृति के सिवा कुछ भी नहीं है। अतीत की उस घटना का कुछ प्रभाव आज भी हो सकता है, पर वो घटना अब नहीं है। जागो और अपने आप को झंकझोरो।
तुमने देखा है कैसे एक कुत्ता या बिल्ली जब वो गन्दा हो जाता है, अपने आप को झाड़ता है और आगे बढ़ जाता है? हमें अपने मन की रक्षा वैसे ही करनी चाहिये।
प्रश्न : क्या ये सही है कि माता पिता अपने बच्चे के सदगुणों को महत्व ना देकर, उसके अवगुणों की तुलना दूसरों बच्चों के सदगुणों से करते रहें?
श्री श्री रवि शंकर : अगर उनका लक्ष्य है कि उनका बच्चा कुछ सीखे, तो कभी कभी ऐसा करना ठीक होगा। परंतु हर बार अगर ऐसा हो, तो ये ठीक नहीं है।
प्रश्न : क्या कृपा से भाग्य बदल सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : हां। तभी तो उसे कृपा कहते हैं।
प्रश्न : गुरुजी, मुझमें क्रोध और अहंकार है। क्रोध के आवेश में मैं होश खो देता हूं। कृपया कोई उपाय बताइये।
श्री श्री रवि शंकर : जब तुम अपने आप पर क्रोध करते हो, तब तुम दूसरों पर भी क्रोध करोगे।
जब तुम दूसरों पर क्रोध करते हो, तो अपने आप पर क्रोध करते हो कि तुमने दूसरों पर क्रोध किया। ये एक पेन्ड्युलम जैसी प्रक्रिया है। इसे रोकना होगा।
अगर तुम्हें क्रोध आया, तो कोई बात नहीं। इस बात पर अपने आप पर क्रोध नहीं करना कि तुमनें दूसरों पर क्रोध कर लिया। कभी तुम्हें अच्छा लगता है, कभी बुरा लगता है। जीवन एक जंगल की तरह है। यहां कांटे भी हैं, फूल भी हैं, फल, मोर, हिरन, शेर, बाघ...सब हैं यहां। यहां सब का स्थान है। अपने दृष्टिकोण में समग्रता रखो।
तुम सहज रहो। विश्राम करो। घटनाओं को स्वीकार कर आगे बढ़ते रहो। एक जगह पर रुक मत जाओ। ये मन कई प्रक्रियाओं से तुम्हें दुख में उलझाये रखता है। गान, ध्यान और सेवा करो। हमें अपने मन की रक्षा करनी है।
प्रश्न : एक सीधी स्थिति आगे चलकर बहुत जटिल कैसे बन जाती है?
श्री श्री रवि शंकर : तो क्या हुआ? आगे चलकर एक जटिल स्थिति सामान्य हो जाती है। हर जटिलता तुम्हारे कौशल की परीक्षा है। जब तुम उस जटिलता को सुलझा कर एक सामान्य स्थिति बना लेते हो, और अपने आप को कर्ता समझने लगते हो, तुम पाओगे कि स्थिति फिर से जटिल हो गई है, ताकि तुम्हारे अहं पर नियंत्रण हो सके। जब तुम ये जान लेते हो कि जो भी हो रहा है, वो दिव्य शक्ति की इच्छा से हो रहा है, तो तुम अहं से मुक्त हो जाओगे।
प्रश्न : इच्छा और अहं मुझे परेशान कर रहे हैं। क्या करूं?
श्री श्री रवि शंकर : सहज रहो। जो जैसा है, उसे स्वीकार करो।
प्रश्न : मैं अपनी पत्नि से लड़ता क्यों हूं, जबकि मैं उससे प्रेम करता हूं?
श्री श्री रवि शंकर : किसी ने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा कि वो अपनी पत्नि से इतना लड़ते क्यों थे, तो मुल्ला ने जवाब दिया, "क्योंकि मैं उससे इतना प्रेम करता हूँ। लड़ाई और प्रेम अलग अलग व्यक्तियों से करना तो न्याय नहीं होगा। ऐसा नहीं हो सकता! मैं सब कुछ एक ही व्यक्ति के साथ करता हूं।" लड़ाई भी जीवन का एक हिस्सा है।
जब तुम एक दूसरे पर बहुत अधिक ध्यान देते हो, तब कलह होती है। अगर दोनों का ध्येय एक हो - सेवा करना, समाज का उत्थान करना, तब लड़ाई नहीं होती और प्रेम खिलता है। हरेक पति-पत्नि के लिये बहुत काम है।
भारतीय विवाह पद्दति में सात वचन होते हैं। उनमें से एक वचन है - पति पत्नि साथ में मिलकर समाज के उत्थान के लिये कार्य करेंगे।
प्रश्न : गुरुजी, मैं आपको चिठ्ठी नहीं लिखता क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी समस्या यूं ही सुलझा देंगे। कई लोगों ने मुझे आप को चिठ्ठी लिखने को कहा है, पर मैं नहीं लिखता। जब मैं अड्वांस कोर्स के लिये आया तो मैने देखा के कई लोग अपनी समस्यायें चिठ्ठी में लिख रहे थे। कृपया बताइये कि मैं चिठ्ठी लिखूं या ना लिखूं?
श्री श्री रवि शंकर : तुम अपने हिसाब से चलो। दूसरों को उनके हिसाब से चलने दो। ये आवश्यक नहीं कि सब रास्ते एक जैसे ही हों।
प्रश्न : हीन भावना से कैसे छुटकारा पाऊं?
श्री श्री रवि शंकर : जा कर गांवों और झुग्गी-झोपड़ीयों में काम करो, तुम्हारा आत्मसम्मान वापस आ जायेगा। एक हफ़्ते, दस दिन, चाहे सप्ताह के अंत में छुट्टी के दिन जाकर काम करो। बच्चों को कुछ सिखाओ, और देखो तुम्हारा आत्मसम्मान कैसे बढ़ता है।
© The Art of Living Foundation For Global Spirituality
एक भक्त ही दूसरों में भक्ति को जगा सकता है
चेन्नई, भारत
आज महासत्संग में उन तीनों तत्वों का समन्वय था, जो कि एक आर्ट आफ़ लिविन्ग उत्सव का समग्र हिस्सा हैं - गान, ग्यान और ध्यान। पाश्चात्य और भारतीय संगीत में निपुण गुणीजनों ने संगीत प्रस्तुत किया। तदुपरान्त, श्री श्री ने सबको संबोधित किया और सामूहिक ध्यान कराया।
किसी भी समय में गान, ध्यान और ध्यान का बड़ा महत्व है।
सत्य को आप ना नज़रअंदाज़ कर सकते हैं , ना नकार सकते हैं।
प्रेम वही है जिसे आप पूरी तरह छुपा भी नहीं सकते, जता भी नहीं सकते।
सौंदर्य को आप बांध कर नहीं रख सकते, उसका त्याग भी नहीं कर सकते।
प्रश्न: शरीर में मन किस स्थान पर रहता है?
श्री श्री: यह प्रश्न पूछने वाला कौन या क्या है? और वो क्या है जो इस प्रश्न का उत्तर सुनेगा? बुद्धि उत्तर को दर्ज करेगी, पर वस्तुतः वो मन है जो इस उत्तर की तलाश में है।
प्रश्न: पांचों इन्द्रियों को कैसे जीतें? क्या आप एक वाक्य में बतायेंगे?
श्री श्री: सूर्य के प्रकाश के आगे मोमबत्ती का महत्व नहीं रहता। वैसी ही अन्य चीज़ें निरर्थक हो जाती हैं।
प्रश्न: ये हम कब जान पाते हैं कि हम प्रेम से ही बने हैं?
श्री श्री: प्रेम को जाना या समझा नहीं जा सकता। इसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। एक बच्चा अपनी मां से नहीं पूछता कि, "तुम्हारी योग्यता क्या है? तुम क्या करते हो? तुम्हारे मित्र कौन हैं? मुझे बताओ। तब मैं तुम्हें प्रेम करूंगा।" जैसे हमारा शरीर कार्बोहाईड्रेट्स और अमीनो ऐसिडस से बना है, हम एक ऐसे तत्व से बने हैं जो कि प्रेम है। क्रोध, लालच, ईर्ष्या ये सब प्रेम के ही विकृत रूप हैं।
प्रश्न: आतंकवाद का नियंत्रण कैसे करें?
श्री श्री: समस्त संसार में सभी धर्मों में यही चर्चा चल रही है कि आतंकवाद को कैसे रोकें। भारत के आध्यात्म और ज्ञान में इतनी ताकत है जिससे कि आतंकवाद और धर्मांधता को नियंत्रित किया जा सकता है।
प्रश्न: क्या ज्योतिष एक विज्ञान है?
श्री श्री: हां, यकीनन ज्योतिष एक विज्ञान है। पर इसका अर्थ ये नहीं कि सभी ज्योतिषी वैज्ञानिक हैं!
प्रश्न: ऐलोपैथी में कैंसर या क्षयरोग का इलाज नहीं है। क्या आयुर्वेद या सिद्ध चिकित्सा पद्दति में इनका इलाज है?
श्री श्री: अवश्य है। तुम्हें पता है, सिद्ध चिकित्सा पद्दति केवल तमिल नाडू में ही उपलब्ध है। आयुर्वेद पूरे देश में उपलब्ध है।
प्रश्न: क्या २०१२ में दुनिया का अंत हो जायेगा? क्या ये सच है?
श्री श्री: १९९९ में लोग कहते थे कि नई सह्स्त्राब्दि के पूर्व दुनिया का विनाश हो जायेगा। कनाडा में तो कुछ लोगों ने छः छः महीने का राशन भी संग्रहित कर के रख लिया था! (हंसी)
२०१२ में एक सकरात्मक बदलाव आयेगा, और ये आध्यात्मिक होगा। तुम्हें पता है, दक्षिण ध्रुव के पास टेर डेल फ़िआगो में और उत्तरी ध्रुव के पास नौर्वे में लोग ध्यान कर रहे हैं, शाकाहारी हो रहे हैं, भारतीय परंपराओं को अपना रहे हैं और ॐ नमः शिवाय का जप कर रहे हैं।
प्रश्न: गुरुजी, हमारी दो बिनती हैं। आप चेन्नई में क्यों नहीं आते और यहां पर एक आश्रम क्यों नहीं शुरु करते?
श्री श्री: कल से यहाँ एक ध्यान केन्द्र खुलने जा रहा है। तुम सब यहाँ आकर ध्यान किया करना।
प्रश्न: हम ’आर्ट आफ़ लिविन्ग’ का एक टी वी चैनेल क्यों नहीं शुरु करते, ताकि ज्ञान सब तक पंहुचे?
श्री श्री: इसे सिर्फ़ एक चैनेल तक सीमित क्यों रखें? ये सभी चैनेलों पर होना चाहिये। (हंसी)
यदि तुम एक चैनेल शुरु करना चाहते हो तो मैं तुम्हारा प्रोत्साहन करता हूं। उस चैनेल में सिर्फ़ ध्यान और संगीत ना होकर आध्यात्मिक ज्ञान भी हो, और दुनिया में क्या हो रहा है उसकी भी खबर हो।
एक आखिरी बात, जब भी तुम्हें कोई चिंतायें सतायें, तुम पत्र या कोरियर के द्वारा मुझे दे दो। कुछ ऐसा करो जो तुम्हारे आसपास के लोगों के लिये उपयोगी हो। अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम्हारे बाकी सब विषयों की देखभाल हो जायेगी।
© The Art of Living Foundation For Global Spirituality
आज महासत्संग में उन तीनों तत्वों का समन्वय था, जो कि एक आर्ट आफ़ लिविन्ग उत्सव का समग्र हिस्सा हैं - गान, ग्यान और ध्यान। पाश्चात्य और भारतीय संगीत में निपुण गुणीजनों ने संगीत प्रस्तुत किया। तदुपरान्त, श्री श्री ने सबको संबोधित किया और सामूहिक ध्यान कराया।
किसी भी समय में गान, ध्यान और ध्यान का बड़ा महत्व है।
सत्य को आप ना नज़रअंदाज़ कर सकते हैं , ना नकार सकते हैं।
प्रेम वही है जिसे आप पूरी तरह छुपा भी नहीं सकते, जता भी नहीं सकते।
सौंदर्य को आप बांध कर नहीं रख सकते, उसका त्याग भी नहीं कर सकते।
प्रश्न: शरीर में मन किस स्थान पर रहता है?
श्री श्री: यह प्रश्न पूछने वाला कौन या क्या है? और वो क्या है जो इस प्रश्न का उत्तर सुनेगा? बुद्धि उत्तर को दर्ज करेगी, पर वस्तुतः वो मन है जो इस उत्तर की तलाश में है।
प्रश्न: पांचों इन्द्रियों को कैसे जीतें? क्या आप एक वाक्य में बतायेंगे?
श्री श्री: सूर्य के प्रकाश के आगे मोमबत्ती का महत्व नहीं रहता। वैसी ही अन्य चीज़ें निरर्थक हो जाती हैं।
प्रश्न: ये हम कब जान पाते हैं कि हम प्रेम से ही बने हैं?
श्री श्री: प्रेम को जाना या समझा नहीं जा सकता। इसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। एक बच्चा अपनी मां से नहीं पूछता कि, "तुम्हारी योग्यता क्या है? तुम क्या करते हो? तुम्हारे मित्र कौन हैं? मुझे बताओ। तब मैं तुम्हें प्रेम करूंगा।" जैसे हमारा शरीर कार्बोहाईड्रेट्स और अमीनो ऐसिडस से बना है, हम एक ऐसे तत्व से बने हैं जो कि प्रेम है। क्रोध, लालच, ईर्ष्या ये सब प्रेम के ही विकृत रूप हैं।
प्रश्न: आतंकवाद का नियंत्रण कैसे करें?
श्री श्री: समस्त संसार में सभी धर्मों में यही चर्चा चल रही है कि आतंकवाद को कैसे रोकें। भारत के आध्यात्म और ज्ञान में इतनी ताकत है जिससे कि आतंकवाद और धर्मांधता को नियंत्रित किया जा सकता है।
प्रश्न: क्या ज्योतिष एक विज्ञान है?
श्री श्री: हां, यकीनन ज्योतिष एक विज्ञान है। पर इसका अर्थ ये नहीं कि सभी ज्योतिषी वैज्ञानिक हैं!
प्रश्न: ऐलोपैथी में कैंसर या क्षयरोग का इलाज नहीं है। क्या आयुर्वेद या सिद्ध चिकित्सा पद्दति में इनका इलाज है?
श्री श्री: अवश्य है। तुम्हें पता है, सिद्ध चिकित्सा पद्दति केवल तमिल नाडू में ही उपलब्ध है। आयुर्वेद पूरे देश में उपलब्ध है।
प्रश्न: क्या २०१२ में दुनिया का अंत हो जायेगा? क्या ये सच है?
श्री श्री: १९९९ में लोग कहते थे कि नई सह्स्त्राब्दि के पूर्व दुनिया का विनाश हो जायेगा। कनाडा में तो कुछ लोगों ने छः छः महीने का राशन भी संग्रहित कर के रख लिया था! (हंसी)
२०१२ में एक सकरात्मक बदलाव आयेगा, और ये आध्यात्मिक होगा। तुम्हें पता है, दक्षिण ध्रुव के पास टेर डेल फ़िआगो में और उत्तरी ध्रुव के पास नौर्वे में लोग ध्यान कर रहे हैं, शाकाहारी हो रहे हैं, भारतीय परंपराओं को अपना रहे हैं और ॐ नमः शिवाय का जप कर रहे हैं।
प्रश्न: गुरुजी, हमारी दो बिनती हैं। आप चेन्नई में क्यों नहीं आते और यहां पर एक आश्रम क्यों नहीं शुरु करते?
श्री श्री: कल से यहाँ एक ध्यान केन्द्र खुलने जा रहा है। तुम सब यहाँ आकर ध्यान किया करना।
प्रश्न: हम ’आर्ट आफ़ लिविन्ग’ का एक टी वी चैनेल क्यों नहीं शुरु करते, ताकि ज्ञान सब तक पंहुचे?
श्री श्री: इसे सिर्फ़ एक चैनेल तक सीमित क्यों रखें? ये सभी चैनेलों पर होना चाहिये। (हंसी)
यदि तुम एक चैनेल शुरु करना चाहते हो तो मैं तुम्हारा प्रोत्साहन करता हूं। उस चैनेल में सिर्फ़ ध्यान और संगीत ना होकर आध्यात्मिक ज्ञान भी हो, और दुनिया में क्या हो रहा है उसकी भी खबर हो।
एक आखिरी बात, जब भी तुम्हें कोई चिंतायें सतायें, तुम पत्र या कोरियर के द्वारा मुझे दे दो। कुछ ऐसा करो जो तुम्हारे आसपास के लोगों के लिये उपयोगी हो। अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम्हारे बाकी सब विषयों की देखभाल हो जायेगी।
© The Art of Living Foundation For Global Spirituality
प्रयत्न और प्रार्थना, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं
बैंगलोर आश्रम, २२ नवंबर २००९
अगर हम रोज़ प्रेम व्यक्त करते रहते हैं तो वो सिर्फ़ शब्द रहे जाते हैं जिनमें भाव नहीं रहता। अगर रोज़ कहते रहो, "मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ।" तो अंतत: ये हो जाता है, "मैं तुम्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता।" ज़रुरत से अधिक अभिव्यक्ति बात को बिगाड़ देती है। अगर बिलकुल अभिव्यक्त ना करो, तब भी ठीक नहीं है। संतुलन होना चाहिये। जैसे कि एक बीज को अगर सतह पर ही रख दोगे तो वो उगेगा नहीं, और ना ही तब उगेगा जब वो धरती के भीतर बहुत गहरा दब गया हो। इसे सही गहराई पर बोने की आवश्यकता है, संतुलन की आवश्यकता है।
प्रश्न: औरा को साफ़ करने में नींबू का क्या महत्व है?
श्री श्री: तुमने कभी माइक्रोस्कोप से नींबू के रस को देखा है? वो सूर्य की किरणों की तरह दिखता है। विटामिन सी को माइक्रोस्कोप से देखो तो वो सूर्यमुखी के फूल की तरह दिखता है। कुछ पदार्थ जैसे कि नमक, नींबू और सही मात्रा में मिर्च ऐसी शक्ति रखते हैं कि वो नकरात्मक ऊर्जा को मिटा देते हैं। यहाँ श्रद्धा भी काम करती है। अगर तुम कोई दवा भी लेते हो और तुम्हें उस दवा या उसे देने वाले डाक्टर पर भरोसा नहीं है तो शायद वो दवा तुम पर असर ना करे।
प्रश्न: शक्ति और भक्ति कैसे प्राप्त कर सकते हैं?
श्री श्री: विश्राम से तुम भक्ति को प्राप्त करते हो। जब तुम विश्राम के साथ में प्रयत्न लगाते हो तब तुम्हें शक्ति मिलती है। प्रयत्न और प्रार्थना, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे के बिना दोनों अधूरे हैं। किसी कार्य की पूर्णता के लिये दोनों की आवश्यकता है। आमतौर पर महिलायें केवल प्रार्थना करती हैं और पुरुष केवल प्रयत्न करते हैं। प्रार्थना और प्रयत्न दोनों को ही करना होगा।
प्रश्न: मैं परिवार और आजीविका में किस को चुनू, ये तय नहीं कर पा रहा हूँ।
श्री श्री: आजिविका पर ध्यान दोगे तो माता पिता भी तुम पर प्रसन्न होंगे। अगर आजिविका के अभाव में तुम घर पर बैठ जाओ तो क्या उन्हें अच्छा लगेगा? नहीं! इस तरह से परिवार और आजिविका दोनों एक साथ आ गये।
प्रश्न: मैं जीवन में कभी सफल नहीं हुआ। मैं अपने आप को अपने माता पिता पर बोझ समझता हूँ।
श्री श्री: आलस छोड़ो और अधिक नुक्ताचीनी ना करो। जो भी काम मिले उसे करो। ये ना सोचो कि कोई काम तुम्हारे लिये तुच्छ है। ये ना सोचो कि तुम सफल नहीं हो। हर काम आदर और प्रतिष्ठापूर्ण है।
प्रश्न: गुरुजी, मेरे परिवार में कुछ अलगाव है। एक सदस्य ’आर्ट आफ़ लिविन्ग’ को मानता है। दूसरा सदस्य किसी और आध्यात्मिक मार्ग, प्राणिक चिकित्सा की पद्दति पर चलता है।
श्री श्री: दोनों अपने अपने आध्यात्मिक मार्ग पर दृढ़ रहो।
प्रश्न: ध्यान करते समय, मन कई जगह जाता है। एक बार आपने कहा था कि, "मन जहां भी जाये उसे जाने दो।" क्या इसका अर्थ हुआ कि मेरा और मेरे मन का अस्तित्व अलग अलग है? अगर ये सच है तो मेरा मन क्या है और मैं कौन हूं?
श्री श्री: जब तुम अपने मन को रोक कर रखने की कोशिश करते हो तो ये इधर उधर भागता है। जब तुम इस भागते मन को देखते हो तो तुम्हें ये एहसास होता है कि तुम अपने मन से बड़े हो। जब तुम ये जान लेते हो कि तुम मन नहीं हो, शरीर नहीं हो, कुछ और नहीं हो, जो बचता है वही तुम हो। अपने आप को जान कर तुम श्रेष्ठतम को जान लेते हो। तुम पाते हो कि तुम ही सर्व हो। तुम ही मन हो। तुम ही विचार हो। तुम ही पूरा संसार हो। पर ये होता है दूसरे स्तर पर। जब तुम स्वयं को जान लेते हो, तुम दैवी शक्ति को जान लेते हो। सर्व खल्विदम ब्रह्म - सब वही एक शक्ति है। ये जानकर ज्ञान में स्थापित हो जाओ।
प्रश्न: गुरुजी, एक बार आपने कहा था कि इच्छायें आती हैं, जाती हैं। जिन इच्छाओं को पूर्ण होना होता हैं वे रहती हैं, बाकी गायब हो जाती हैं। पर उन इच्छाओं का क्या जो रहती हैं, पर पूरी नहीं होती?
श्री श्री: प्रतीक्षा करो और दृढ़ रहो।
प्रश्न: मैं यहां आने के लिये इतना पागल क्यों रहता हूं?
श्री श्री: क्योंकि मैं भी ऐसा ही हूँ। कोई अमीर ही दूसरे को अमीर बना सकता है। कोई मुक्त ही दूसरों को मुक्त करा सकता है। एक भक्त ही दूसरों में भक्ति को जगा सकता है। ईशवर से प्रेम करने वाला व्यक्ति दूसरों को भी वैसा बना देता है। जो तुम्हारे भीतर है, वही दूसरे तुम से ले पाते हैं। जो तुम्हारे भीतर है, वही तुम दूसरों में देखते हो।
प्रश्न: जीवन साथी(Soul mate) क्या है?
श्री श्री: पहले अपनी आत्मा (Soul) से मिलो, फिर जीवन साथी (Soul mate) के बारे में जान सकते हो।
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अगर हम रोज़ प्रेम व्यक्त करते रहते हैं तो वो सिर्फ़ शब्द रहे जाते हैं जिनमें भाव नहीं रहता। अगर रोज़ कहते रहो, "मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ।" तो अंतत: ये हो जाता है, "मैं तुम्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता।" ज़रुरत से अधिक अभिव्यक्ति बात को बिगाड़ देती है। अगर बिलकुल अभिव्यक्त ना करो, तब भी ठीक नहीं है। संतुलन होना चाहिये। जैसे कि एक बीज को अगर सतह पर ही रख दोगे तो वो उगेगा नहीं, और ना ही तब उगेगा जब वो धरती के भीतर बहुत गहरा दब गया हो। इसे सही गहराई पर बोने की आवश्यकता है, संतुलन की आवश्यकता है।
प्रश्न: औरा को साफ़ करने में नींबू का क्या महत्व है?
श्री श्री: तुमने कभी माइक्रोस्कोप से नींबू के रस को देखा है? वो सूर्य की किरणों की तरह दिखता है। विटामिन सी को माइक्रोस्कोप से देखो तो वो सूर्यमुखी के फूल की तरह दिखता है। कुछ पदार्थ जैसे कि नमक, नींबू और सही मात्रा में मिर्च ऐसी शक्ति रखते हैं कि वो नकरात्मक ऊर्जा को मिटा देते हैं। यहाँ श्रद्धा भी काम करती है। अगर तुम कोई दवा भी लेते हो और तुम्हें उस दवा या उसे देने वाले डाक्टर पर भरोसा नहीं है तो शायद वो दवा तुम पर असर ना करे।
प्रश्न: शक्ति और भक्ति कैसे प्राप्त कर सकते हैं?
श्री श्री: विश्राम से तुम भक्ति को प्राप्त करते हो। जब तुम विश्राम के साथ में प्रयत्न लगाते हो तब तुम्हें शक्ति मिलती है। प्रयत्न और प्रार्थना, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे के बिना दोनों अधूरे हैं। किसी कार्य की पूर्णता के लिये दोनों की आवश्यकता है। आमतौर पर महिलायें केवल प्रार्थना करती हैं और पुरुष केवल प्रयत्न करते हैं। प्रार्थना और प्रयत्न दोनों को ही करना होगा।
प्रश्न: मैं परिवार और आजीविका में किस को चुनू, ये तय नहीं कर पा रहा हूँ।
श्री श्री: आजिविका पर ध्यान दोगे तो माता पिता भी तुम पर प्रसन्न होंगे। अगर आजिविका के अभाव में तुम घर पर बैठ जाओ तो क्या उन्हें अच्छा लगेगा? नहीं! इस तरह से परिवार और आजिविका दोनों एक साथ आ गये।
प्रश्न: मैं जीवन में कभी सफल नहीं हुआ। मैं अपने आप को अपने माता पिता पर बोझ समझता हूँ।
श्री श्री: आलस छोड़ो और अधिक नुक्ताचीनी ना करो। जो भी काम मिले उसे करो। ये ना सोचो कि कोई काम तुम्हारे लिये तुच्छ है। ये ना सोचो कि तुम सफल नहीं हो। हर काम आदर और प्रतिष्ठापूर्ण है।
प्रश्न: गुरुजी, मेरे परिवार में कुछ अलगाव है। एक सदस्य ’आर्ट आफ़ लिविन्ग’ को मानता है। दूसरा सदस्य किसी और आध्यात्मिक मार्ग, प्राणिक चिकित्सा की पद्दति पर चलता है।
श्री श्री: दोनों अपने अपने आध्यात्मिक मार्ग पर दृढ़ रहो।
प्रश्न: ध्यान करते समय, मन कई जगह जाता है। एक बार आपने कहा था कि, "मन जहां भी जाये उसे जाने दो।" क्या इसका अर्थ हुआ कि मेरा और मेरे मन का अस्तित्व अलग अलग है? अगर ये सच है तो मेरा मन क्या है और मैं कौन हूं?
श्री श्री: जब तुम अपने मन को रोक कर रखने की कोशिश करते हो तो ये इधर उधर भागता है। जब तुम इस भागते मन को देखते हो तो तुम्हें ये एहसास होता है कि तुम अपने मन से बड़े हो। जब तुम ये जान लेते हो कि तुम मन नहीं हो, शरीर नहीं हो, कुछ और नहीं हो, जो बचता है वही तुम हो। अपने आप को जान कर तुम श्रेष्ठतम को जान लेते हो। तुम पाते हो कि तुम ही सर्व हो। तुम ही मन हो। तुम ही विचार हो। तुम ही पूरा संसार हो। पर ये होता है दूसरे स्तर पर। जब तुम स्वयं को जान लेते हो, तुम दैवी शक्ति को जान लेते हो। सर्व खल्विदम ब्रह्म - सब वही एक शक्ति है। ये जानकर ज्ञान में स्थापित हो जाओ।
प्रश्न: गुरुजी, एक बार आपने कहा था कि इच्छायें आती हैं, जाती हैं। जिन इच्छाओं को पूर्ण होना होता हैं वे रहती हैं, बाकी गायब हो जाती हैं। पर उन इच्छाओं का क्या जो रहती हैं, पर पूरी नहीं होती?
श्री श्री: प्रतीक्षा करो और दृढ़ रहो।
प्रश्न: मैं यहां आने के लिये इतना पागल क्यों रहता हूं?
श्री श्री: क्योंकि मैं भी ऐसा ही हूँ। कोई अमीर ही दूसरे को अमीर बना सकता है। कोई मुक्त ही दूसरों को मुक्त करा सकता है। एक भक्त ही दूसरों में भक्ति को जगा सकता है। ईशवर से प्रेम करने वाला व्यक्ति दूसरों को भी वैसा बना देता है। जो तुम्हारे भीतर है, वही दूसरे तुम से ले पाते हैं। जो तुम्हारे भीतर है, वही तुम दूसरों में देखते हो।
प्रश्न: जीवन साथी(Soul mate) क्या है?
श्री श्री: पहले अपनी आत्मा (Soul) से मिलो, फिर जीवन साथी (Soul mate) के बारे में जान सकते हो।
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मानवीयता के अभाव में कोई भी वाद चल नहीं सकता
बैंगलोर आश्रम, भारत
१८ नवंबर, २००९ को परम पूज्य श्री श्री रवि शंकर ने बैंगलोर आश्रम में पधारे जर्मनी के मंत्री-राष्ट्रपति श्री गुन्थर ह. ओएट्टिंगर एवं उनके साथ पधारे राजनैतिक प्रतिनिधिमंडल का स्वागत किया। इस प्रतिनिधिमंडल में जर्मनी के वित्त एवं अर्थशास्त्र के राज्य मंत्री एवं अन्य संसद सदस्य शामिल थे। इस उपल्क्ष्य में कर्नाटक प्रदेश के उद्योग मंत्री श्री मुरुगेश रुद्रप्पा निरानी एवं फ़ेडरेशन आफ़ करनाटक चेंबर आफ़ कौमर्स एण्ड इन्डस्ट्री के अध्यक्ष श्री क्रास्टा भी मौजूद थे।
श्री श्री ने कहा:
आप सब का स्वागत है। हमें बहुत खुशी है कि आप जर्मनी के अपने घर से इस घर में आये। ये भी आपका घर है। इस देश में आपका स्वागत है। इसे अपना ही घर जान कर आराम करें।
इस देश की पुरातन विचारधारा रही है, "ये विशव एक ही परिवार है।" हम सब एक ही परिवार का अंश हैं। ऐसा परिवार जहां मानवीय गुणों की सत्ता का सर्वोच्च महत्व हो। मानवीय गुणों की आवश्यकता व्यापार, राजनीति और सामाजिक जीवन में भी है। किसी भी क्षेत्र में आप देखें, अगर वहां मानवीय गुण हैं, एक जुड़ाव है, सामंजस्य है तो समाज जीवित रहता है। १० वर्षों में कम्यूनिज़्म ढह गया। १० महीनों से भी कम समय में पूंजीवाद ढह गया। मानवीयता के अभाव में कोई भी वाद चल नहीं सकता। कुछ लोगों के लालच के कारण ही आज पूरी दुनिया एक वित्तीय संकट से जूझ रही है।
ये पुरानी बात है कि सब अलग अलग कक्षों में काम करें। समाज अलग था। राजनीति अलग थी। व्यापार का क्षेत्र अलग था। धर्म और आध्यात्म अलग थे। समाज के सर्वांगीण विकास के लिये समाज के सभी अलग अलग हिस्सों को एक ताल में सामंजस्य स्थापित कर के, एक दूसरे को सहयोग देते हुए काम करना होगा।
नैतिकता ही व्यापार की रीढ़ की हड्डी है। व्यापार से विश्व का पोषण होता है। व्यापार से ही विश्व से भुखमरी जायेगी और समाज में आत्मविश्वास जगेगा।
मुझे खुशी है कि भारतीय और जर्मन व्यापार मंडल यहां आये हैं। मैं चाहता हूं कि आप लोग आपस में बात करें और भारत, जर्मनी और यूरोप के बीच हमारी पुरानी परंपरा पुष्ट करें।
हम सब एक ही परिवार का अंग हैं। स्वस्थ शरीर, सौम्य समाज और प्रसन्न मन हरेक का जन्मसिद्ध अधिकार है। आइये, हम सब साथ मिलकर एक सुखी समाज के लिये काम करें । धन्यवाद।
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१८ नवंबर, २००९ को परम पूज्य श्री श्री रवि शंकर ने बैंगलोर आश्रम में पधारे जर्मनी के मंत्री-राष्ट्रपति श्री गुन्थर ह. ओएट्टिंगर एवं उनके साथ पधारे राजनैतिक प्रतिनिधिमंडल का स्वागत किया। इस प्रतिनिधिमंडल में जर्मनी के वित्त एवं अर्थशास्त्र के राज्य मंत्री एवं अन्य संसद सदस्य शामिल थे। इस उपल्क्ष्य में कर्नाटक प्रदेश के उद्योग मंत्री श्री मुरुगेश रुद्रप्पा निरानी एवं फ़ेडरेशन आफ़ करनाटक चेंबर आफ़ कौमर्स एण्ड इन्डस्ट्री के अध्यक्ष श्री क्रास्टा भी मौजूद थे।
श्री श्री ने कहा:
आप सब का स्वागत है। हमें बहुत खुशी है कि आप जर्मनी के अपने घर से इस घर में आये। ये भी आपका घर है। इस देश में आपका स्वागत है। इसे अपना ही घर जान कर आराम करें।
इस देश की पुरातन विचारधारा रही है, "ये विशव एक ही परिवार है।" हम सब एक ही परिवार का अंश हैं। ऐसा परिवार जहां मानवीय गुणों की सत्ता का सर्वोच्च महत्व हो। मानवीय गुणों की आवश्यकता व्यापार, राजनीति और सामाजिक जीवन में भी है। किसी भी क्षेत्र में आप देखें, अगर वहां मानवीय गुण हैं, एक जुड़ाव है, सामंजस्य है तो समाज जीवित रहता है। १० वर्षों में कम्यूनिज़्म ढह गया। १० महीनों से भी कम समय में पूंजीवाद ढह गया। मानवीयता के अभाव में कोई भी वाद चल नहीं सकता। कुछ लोगों के लालच के कारण ही आज पूरी दुनिया एक वित्तीय संकट से जूझ रही है।
ये पुरानी बात है कि सब अलग अलग कक्षों में काम करें। समाज अलग था। राजनीति अलग थी। व्यापार का क्षेत्र अलग था। धर्म और आध्यात्म अलग थे। समाज के सर्वांगीण विकास के लिये समाज के सभी अलग अलग हिस्सों को एक ताल में सामंजस्य स्थापित कर के, एक दूसरे को सहयोग देते हुए काम करना होगा।
नैतिकता ही व्यापार की रीढ़ की हड्डी है। व्यापार से विश्व का पोषण होता है। व्यापार से ही विश्व से भुखमरी जायेगी और समाज में आत्मविश्वास जगेगा।
मुझे खुशी है कि भारतीय और जर्मन व्यापार मंडल यहां आये हैं। मैं चाहता हूं कि आप लोग आपस में बात करें और भारत, जर्मनी और यूरोप के बीच हमारी पुरानी परंपरा पुष्ट करें।
हम सब एक ही परिवार का अंग हैं। स्वस्थ शरीर, सौम्य समाज और प्रसन्न मन हरेक का जन्मसिद्ध अधिकार है। आइये, हम सब साथ मिलकर एक सुखी समाज के लिये काम करें । धन्यवाद।
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"बुद्दि की शुद्धि ज्ञान से होती है"
बैंगलोर आश्रम
तुम्हें प्रतिदिन ध्यान करना चाहिये। तुम प्रतिदिन दांत मांजते हो। शरीर को स्वच्छ रखने के लिये नहाते हो। वैसे ही, प्रतिदिन थोड़ा ज्ञान सुनो और ध्यान करो। बुद्दि की शुद्धि ज्ञान से होती है। वो ज्ञान जो तुम्हें बोध कराता है कि यहां सब कुछ नाशवान है। संगीत और समरसता भावनाओं को शुद्ध बना कर हृदय को संपन्न बनाते हैं। कुछ देने से हृदय शुद्ध होता है। ज्ञान और ध्यान से सब शुद्ध हो जाता है।
प्रश्न : गुरुजी, किसी का देहांत होने पर ‘राम नाम सत्य है’ क्यों कहते हैं?
श्री श्री : किसी के देहांत पर तुम ये समझ जाते हो कि यही सत्य है। एक दिन हर किसी की मृत्यु होगी। जीवित रहते हुए तुम इस सत्य से अन्भिग्य रहते हो। तुम बेकार बातों में फंसे रहते हो।
सत्य को तुम टाल नहीं सकते। सौंदर्य का त्याग नहीं हो सकता। प्रेम की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हो सकती।
ये तीन बातें ही याद रखने के लिये बहुत हैं। इन्हें पचाओ।
प्रश्न : यज्ञ के क्या क्या अंग होते हैं?
श्री श्री : किसी भी यज्ञ में ध्यान, दान, ज्ञान और गान होता है। गान दिमाग के दायें भाग को पुष्ट करता है। ज्ञान दिमाग के बायें भाग को पुष्ट करता है। ध्यान से दिमाग के दोनों भाग पुष्ट होते हैं। यज्ञ से हमारा विकास होता है।
प्रश्न : गुरुजी, अपना जीवनसाथी चुनते समय हमें उस में किन किन गुणों को परखना चाहिये?
श्री श्री : (मुस्कुराते हुये) मुझे इस का अनुभव नहीं है! उन से पूछो जिन्हें अनुभव है। तुम यहाँ वैवाहिक विभाग से भी मदद ले सकते हो।
तुम्हें पता है ये क्यों कहते हैं कि ‘विवाह स्वर्ग में पूर्वनिश्चित किये जाते हैं’? क्योंकि, तुम्हारे लिये चुनाव हो चुका है। तुम्हें सिर्फ़ उसे लेना है और आगे बढ़ना है। तुम चुनाव की प्रक्रिया से मुक्त हो। जो तुम्हारी थाली में आये, उसे लो और आगे बढ़ो।
तुम्हें पता है, सबसे अच्छी बात होगी कि तुम अपने जीवनसाथी की कमियों पर ध्यान ना दो। किसी भी रिश्ते में अगर दोनों व्यक्तियों का ध्यान आध्यात्म पर होगा तो वे समांनांतर रेखाओं की तरह बिना किसी टकराव के अनंत तक साथ साथ आगे बढ़ पायेगें। जिस क्षण आध्यात्म से ध्यान हटा और एक दूसरे पर गया तो टकराव होंगे। आध्यात्म के पथ पर रहना बहुत महत्वपूर्ण है।
प्रश्न : गुरुजी, विशालाक्षी मण्डप का निर्माण कैसे हुआ?
श्री श्री : मनुजी (एक शिष्य) ने कहा, "गुरुजी, एक सभा कक्ष होना चाहिये जहां लोग ध्यान कर सकें।" तो मैनें एक चित्र बनाया और उसे बनाया गया। पहले कोई सभा कक्ष नहीं था। अष्टावक्र गीता की व्याख्या ऐसी जगह की गई थी, जहां बारिश का पानी भीतर आ जाता था।
जब हमने विशालाक्षी मण्डप का उद्घाटन किया, तो इतने लोग आये कि वो उसी वक्त छोटा पड़ गया! तुम्हें पता है, जब लोग एक साथ ध्यान करते हैं तो वो ऊर्जा विशव में प्रसारित होती है।
प्रश्न : गुरुजी, इस स्थान का रहस्य क्या है?
श्री श्री : (मुस्कुराते हुए) रहस्य यहाँ है (अपने हृदय को इंगित करते हुए)।
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तुम्हें प्रतिदिन ध्यान करना चाहिये। तुम प्रतिदिन दांत मांजते हो। शरीर को स्वच्छ रखने के लिये नहाते हो। वैसे ही, प्रतिदिन थोड़ा ज्ञान सुनो और ध्यान करो। बुद्दि की शुद्धि ज्ञान से होती है। वो ज्ञान जो तुम्हें बोध कराता है कि यहां सब कुछ नाशवान है। संगीत और समरसता भावनाओं को शुद्ध बना कर हृदय को संपन्न बनाते हैं। कुछ देने से हृदय शुद्ध होता है। ज्ञान और ध्यान से सब शुद्ध हो जाता है।
प्रश्न : गुरुजी, किसी का देहांत होने पर ‘राम नाम सत्य है’ क्यों कहते हैं?
श्री श्री : किसी के देहांत पर तुम ये समझ जाते हो कि यही सत्य है। एक दिन हर किसी की मृत्यु होगी। जीवित रहते हुए तुम इस सत्य से अन्भिग्य रहते हो। तुम बेकार बातों में फंसे रहते हो।
सत्य को तुम टाल नहीं सकते। सौंदर्य का त्याग नहीं हो सकता। प्रेम की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हो सकती।
ये तीन बातें ही याद रखने के लिये बहुत हैं। इन्हें पचाओ।
प्रश्न : यज्ञ के क्या क्या अंग होते हैं?
श्री श्री : किसी भी यज्ञ में ध्यान, दान, ज्ञान और गान होता है। गान दिमाग के दायें भाग को पुष्ट करता है। ज्ञान दिमाग के बायें भाग को पुष्ट करता है। ध्यान से दिमाग के दोनों भाग पुष्ट होते हैं। यज्ञ से हमारा विकास होता है।
प्रश्न : गुरुजी, अपना जीवनसाथी चुनते समय हमें उस में किन किन गुणों को परखना चाहिये?
श्री श्री : (मुस्कुराते हुये) मुझे इस का अनुभव नहीं है! उन से पूछो जिन्हें अनुभव है। तुम यहाँ वैवाहिक विभाग से भी मदद ले सकते हो।
तुम्हें पता है ये क्यों कहते हैं कि ‘विवाह स्वर्ग में पूर्वनिश्चित किये जाते हैं’? क्योंकि, तुम्हारे लिये चुनाव हो चुका है। तुम्हें सिर्फ़ उसे लेना है और आगे बढ़ना है। तुम चुनाव की प्रक्रिया से मुक्त हो। जो तुम्हारी थाली में आये, उसे लो और आगे बढ़ो।
तुम्हें पता है, सबसे अच्छी बात होगी कि तुम अपने जीवनसाथी की कमियों पर ध्यान ना दो। किसी भी रिश्ते में अगर दोनों व्यक्तियों का ध्यान आध्यात्म पर होगा तो वे समांनांतर रेखाओं की तरह बिना किसी टकराव के अनंत तक साथ साथ आगे बढ़ पायेगें। जिस क्षण आध्यात्म से ध्यान हटा और एक दूसरे पर गया तो टकराव होंगे। आध्यात्म के पथ पर रहना बहुत महत्वपूर्ण है।
प्रश्न : गुरुजी, विशालाक्षी मण्डप का निर्माण कैसे हुआ?
श्री श्री : मनुजी (एक शिष्य) ने कहा, "गुरुजी, एक सभा कक्ष होना चाहिये जहां लोग ध्यान कर सकें।" तो मैनें एक चित्र बनाया और उसे बनाया गया। पहले कोई सभा कक्ष नहीं था। अष्टावक्र गीता की व्याख्या ऐसी जगह की गई थी, जहां बारिश का पानी भीतर आ जाता था।
जब हमने विशालाक्षी मण्डप का उद्घाटन किया, तो इतने लोग आये कि वो उसी वक्त छोटा पड़ गया! तुम्हें पता है, जब लोग एक साथ ध्यान करते हैं तो वो ऊर्जा विशव में प्रसारित होती है।
प्रश्न : गुरुजी, इस स्थान का रहस्य क्या है?
श्री श्री : (मुस्कुराते हुए) रहस्य यहाँ है (अपने हृदय को इंगित करते हुए)।
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हमें आगे बढ़ कर, जनता को शिक्षित करना है
बैंगलोर आश्रम, १४ नवंबर २००९
कन्नड़ में हो रहे Advanced Meditation Course, के तहत:
प्रश्न: मैं अपने गांव में कुछ बदलाव लाना चाहता हूँ, पर हर कोशिश में कई बाधाओं का सामना कर के मैं परेशान हो गया हूँ। क्या करूं?
श्री श्री: संघे शक्ति कलियुगे - एक या दो व्यक्ति अकले बदलाव को नहीं ला सकते। एक साथ जुड़ने की आवश्यकता है। उसके लिये ज्ञान का उदय आवश्यक है। लोगों को ऐसे कार्यक्रमों के लिये लाओ। लोगों को साथ लाकर ये काम करो। कभी कभी हम जो काम करते हैं, उनमे असफलता मिलती है। अगर बार बार असफलता मिले तो कभी कभी हिम्मत हार जाते हैं। पर जब हम बदलाव लाना चाहते हैं, तो चाहे हम १० बार क्यों ना हार जायें, हमें आगे बढ़ते रहना चाहिये। हमें मज़बूत होना चाहिये। ये जान लो कि तुम कभी अकेले नहीं होगे। समाज में जागरूकता बढ़ाने के लिये लोगों को साथ में लेकर काम करो, सत्संग करो। मैं हमेशा तुम्हारा मार्गदर्शन करता रहूँगा।
प्रश्न: जब हम योगनिद्रा करते हैं तो अपने ध्यान को शरीर के विभिन्न भागों पर क्यों ले जाते हैं, जबकि हमें शरीर के स्तर से ऊपर उठना है?
श्री श्री: जब हम एक ऊंची इमारत बनाना चाहते हैं तो ध्यान रखते हैं कि उसकी नींव गहरी हो। धनुष की प्रत्यंचा को पूरी तरह पीछे तान कर खींचते हैं तो तीर आगे दूर तक जाता है। तो, मन के पार जाने के लिये हम अपना ध्यान शरीर पर लाते हैं, और फिर ये अनुभव करते हैं कि हम शरीर से परे हैं।
प्रश्न: दुनिया में इतनी समस्यायें हैं। ये अच्छा होता अगर हम में यह शक्ति होती कि हम उन सब समस्याओं को जान सकते, तो हम उनको सुलझाने में कुछ सहायता कर सकते।
श्री श्री: क्या जितना तुम टी वी पर देख रहे हो उतना काफ़ी नहीं है? तुम दुनिया की सब समस्याओं को क्यों जानना चाहते हो? अगर तुम्हें उन सब के बारे में ना भी पता हो, तब भी ध्यान और सत्संग से तुम बदलाव ला सकते हो। सभी समस्याओं को जानना कोई बड़ी बात नहीं है। तुम अपने ध्यान को जहां ले जाओगे वहां की जानकारी तुम्हें मिल जायेगी। जब तुम्हारे पास ये शक्ति आ जायेगी तो तुम इसका प्रयोग करना नहीं चाहोगे। एक विद्यार्थी हर समय अपनी सभी किताबें अपने सिर पर उठा कर नहीं घूमता। जब किसी किताब की आवश्यकता होती है तो वो उसे खोल कर देख लेता है। उसी तरह, तुम्हारे भीतर की चेतना सब जानती है। जब आवश्यक होता है वो जान लेती है। कुछ कर्मों को भोगना पड़ता है। कुछ कर्मों का असर उपायों द्वारा कम किया जा सकता है।
प्रश्न: भारत में चरणों में नमन करने का क्या महत्व है?
श्री श्री: केवल भारत में ही चरणों को इतना महत्व दिया गया है। चरण तुम्हें आगे ले जाते हैं। हमारी ऊर्जा, हाथों और पैरों द्वारा किसी को भी दी जा सकती है। ये ऊर्जा या स्पंदन सिर ग्रहण कर लेता है। उर्जा का संचरण सिर्फ़ एक दृष्टिपात से भी हो सकता है। केवल किसी की उपस्थिति में होने से भी दिव्य ऊर्जा ग्रहण की जा सकती है।
प्रश्न: गुरुजी, आप कहते हैं कि खुद पर दोषारोपण करना ठीक नहीं है। पर मुझे लगता है कि कभी कभी इससे व्यक्तित्व में उत्तमता आती है।
श्री श्री: अगर तुम्हें लगता है कि खुद पर दोशारोपण करने से तुम्हारे व्यक्तित्व में उत्तमता आती है, तो करो। पर अगर तुम बार बार अपने आप को दोषी समझते रहे तो ये उत्तमता नहीं है। साथ ही, इस बात का भी ध्यान रखो कि तुम दूसरों को भी दोष ना दो! दूसरों को उत्तम बनाने की कोशिश ना करो!
हम सब में दिव्य गुण हैं। जब तुम किसी में इन गुणों को बढ़ाना चाहते हो और वो ऐसा नहीं चाहते तो क्या फ़ायदा? ये तो ऐसा होगा जैसा एक बुज़ुर्ग महिला सड़क पार करना ना चाहे और आप उसे ज़बरदस्ती सड़क पार करा दें।
हम जो भी काम करें अच्छे भाव से करें। किसी का श्राप तुम्हें प्रभावित नहीं कर सकेगा अगर तुम्हारा हृदय शुद्ध है। अगर तुम्हारा हृदय शुद्ध नहीं है तो किसी के श्राप का असर ज़रूर पड़ेगा।
प्रश्न: नमक से बुरी नज़र उतारने का क्या महत्व है?
श्री श्री: हमारी ऊर्जा को नमक के प्रयोग से साफ़ किया जा सकता है। पश्चिम के देशों में लोग नमक से श्नान करते हैं। किसी और की भावनाओं से हमारी ऊर्जा में फ़र्क पड़ सकता है। इसकी चिंता करने के बजाय, नमक का प्रयोग कर लो।
हर वस्तु की अपनी ऊर्जा होती है। पानी में घुले नमक की वजह से लोगों को समुद्र के किनारे विश्राम महसूस होता है। नमक से शरीर और मन के विषाणु मिट जाते हैं। पर अगर नमक का अत्यधिक प्रयोग करोगे तो उच्च रक्तचाप हो सकता है। अगर रोज़ ही त्वचा नमकीन जल से स्पर्ष होती रहेगी तो त्वचा पर विपरीत असर पड़ेगा। मध्य मार्ग पर चलो-अति सर्वत्र वर्जयेत।
प्रश्न: शंख का क्या महत्व है? शंख का प्रयोग हर पूजा और उत्सव में होता है।
श्री श्री: प्राचीन समय में, शंख बजा कर लोग युद्ध की शुरुवात करते थे। हर वस्तु का एक विशेष स्पंदन होता है। शंख, शुभ और समृद्धि का प्रतीक है। शंख-भस्म स्वास्थ्य के लिये बहुत अच्छी है। ये शरीर में शक्ति लाती है।
इस सृष्टि में, घास के एक एक तिनके का भी महत्व है। बिल्व, परिजात, नीम – सब का अपना महत्व है। उससे भी अधिक, तुम सब का महत्व है। तुम्हारी चेतना महत्वपूर्ण है। तुम अपने आस पास के परिवेश को महत्व देते हो और अपने घर को कूड़े से भर लेते हो – तब इसका कोई महत्व नहीं होता। तो, पहले अपने हृदय को पवित्र रखो, तब तुम्हारे लिये सृष्टि की हर चीज़ महत्वपूर्ण होगी।
प्रश्न: कप्या वास्तु के महत्व के बारे में बताएं?
श्री श्री: सृष्टि में हरेक वस्तु का एक विशेष स्पंदन है। ये संसार स्पंदनों का एक सागर है। हर जीव का एक विशेष स्पंदन है। देवताओं को किसी ना किसी वाहन पर सवार दिखाया है। ये देवताओं के विशेष उर्जा के द्योतक हैं। हाथी अंतरिक्ष से श्री गणेश की विशेष उर्जा को आकर्षित करता है। शेर, देवी के विशेष स्पंदन को आकर्षित करता है। मोर, भगवान सुब्रमण्यम के विशेष स्पंदन को आकर्षित करता है। पर तुम इस सब की चिंता मत करो। बस ॐ नमः शिवाय कहो, वास्तु के सभी दोषों का निवारण हो जायेगा।
प्रश्न: क्या शास्त्रीय संगीत सीखने से हम आध्यात्मिक बनते हैं?
श्री श्री: संगीत लय योग है। भक्ति अलग है। भक्ति के बिना संगीत उतना सहायक नहीं है। उससे तुम्हारे दिमाग का केवल एक ही भाग विकसित होता है। संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास नहीं होता। ज्ञान, गान और ध्यान – तीनों की आवश्यकता है। ज्ञान से दिमाग के बाहिने भाग का पोषण होता है। गान से दिमाग के दाहिने भाग का पोषण होता है। ध्यान से दोनों भागों का पोषण होता है। ज्ञान, गान और ध्यान, तीनों की आवश्यकता है।
प्रश्न: मानव के रूप में जन्म को सभी जीवों से श्रेष्ठ क्यों कहा गया है?
श्री श्री: क्योंकि तुम ये प्रश्न पूछ सकते हो और उनके जवाब समझ सकते हो। अगर तुम पूछते नहीं और समझते भी नहीं हो, तो तुम और जीवों से बेहतर नहीं हो।
प्रश्न: ध्यान करने के बावजूद भी मुझे गुस्से और तनाव का अनुभव होता है। मैं क्या करूं?
श्री श्री: तुम अब भी तनाव का अनुभव करते हो, पर वो चला जाता है, है ना? गुस्सा, तनाव...कई लोग तो ये जानते भी नहीं कि वो ऐसे हैं! कम से कम तुम जानते तो हो। एक सफ़ेद कपड़े पर धूल का एक कण भी नज़र आ जाता है। जब मन साफ़ हो तो थोड़ा सा गुस्सा और तनाव भी नज़र आ जाता है। धीरे धीरे तुम पाओगे के तुम्हें किसी बात से फ़र्क नहीं पड़ता। कुछ महीनों या सालों की साधना से तुम पाओगे कि तुम्हें कुछ नहीं छू सकता।
प्रश्न: महिलाओं की शिक्षा के विरोध में फ़तवे के बारे में आपकी क्या सलाह है?
श्री श्री: ये अज्ञान है। ये विकास के पथ में बाधा है। महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार मिलने चाहिये। अर्धनारीश्वर एक प्रतीक है – आधा भाग शिव है, और आधा भाग शक्ति है। महिलाओं के साथ दूसरे यां तीसरे दर्जे यां नौकर की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिये।
‘वंदे मातरम नहीं गाना चाहिये क्योंकि वो धरती को मां का दर्जा देते हुये स्तुति है,’ - ऐसी बातों पर पर लोग अब ध्यान नहीं दे रहें हैं।
महिलाओं को सभी अधिकार मिलने चाहिये। महिलाओं को सशक्त बनाना चाहिये। हर बात में उनकी राय होनी चाहिये। वोट बैंक के लिए राजनेता समाज को विभाजित कर सुविधाओं का उपभोग करते हैं। वे नहीं चाहते कि गरीब लोगों तक शिक्षा पहुंचे, ताकि वे हमेशा गरीबों पर राज़ करते रहें। ये एक सड़ा हुआ दिमाग है। हमें आगे बढ़ कर, जनता को शिक्षित करना है। निरक्षरता की वजह से ही गलत लोग राजनीति में प्रवेश पाते हैं।
© The Art of Living Foundation For Global Spirituality
कन्नड़ में हो रहे Advanced Meditation Course, के तहत:
प्रश्न: मैं अपने गांव में कुछ बदलाव लाना चाहता हूँ, पर हर कोशिश में कई बाधाओं का सामना कर के मैं परेशान हो गया हूँ। क्या करूं?
श्री श्री: संघे शक्ति कलियुगे - एक या दो व्यक्ति अकले बदलाव को नहीं ला सकते। एक साथ जुड़ने की आवश्यकता है। उसके लिये ज्ञान का उदय आवश्यक है। लोगों को ऐसे कार्यक्रमों के लिये लाओ। लोगों को साथ लाकर ये काम करो। कभी कभी हम जो काम करते हैं, उनमे असफलता मिलती है। अगर बार बार असफलता मिले तो कभी कभी हिम्मत हार जाते हैं। पर जब हम बदलाव लाना चाहते हैं, तो चाहे हम १० बार क्यों ना हार जायें, हमें आगे बढ़ते रहना चाहिये। हमें मज़बूत होना चाहिये। ये जान लो कि तुम कभी अकेले नहीं होगे। समाज में जागरूकता बढ़ाने के लिये लोगों को साथ में लेकर काम करो, सत्संग करो। मैं हमेशा तुम्हारा मार्गदर्शन करता रहूँगा।
प्रश्न: जब हम योगनिद्रा करते हैं तो अपने ध्यान को शरीर के विभिन्न भागों पर क्यों ले जाते हैं, जबकि हमें शरीर के स्तर से ऊपर उठना है?
श्री श्री: जब हम एक ऊंची इमारत बनाना चाहते हैं तो ध्यान रखते हैं कि उसकी नींव गहरी हो। धनुष की प्रत्यंचा को पूरी तरह पीछे तान कर खींचते हैं तो तीर आगे दूर तक जाता है। तो, मन के पार जाने के लिये हम अपना ध्यान शरीर पर लाते हैं, और फिर ये अनुभव करते हैं कि हम शरीर से परे हैं।
प्रश्न: दुनिया में इतनी समस्यायें हैं। ये अच्छा होता अगर हम में यह शक्ति होती कि हम उन सब समस्याओं को जान सकते, तो हम उनको सुलझाने में कुछ सहायता कर सकते।
श्री श्री: क्या जितना तुम टी वी पर देख रहे हो उतना काफ़ी नहीं है? तुम दुनिया की सब समस्याओं को क्यों जानना चाहते हो? अगर तुम्हें उन सब के बारे में ना भी पता हो, तब भी ध्यान और सत्संग से तुम बदलाव ला सकते हो। सभी समस्याओं को जानना कोई बड़ी बात नहीं है। तुम अपने ध्यान को जहां ले जाओगे वहां की जानकारी तुम्हें मिल जायेगी। जब तुम्हारे पास ये शक्ति आ जायेगी तो तुम इसका प्रयोग करना नहीं चाहोगे। एक विद्यार्थी हर समय अपनी सभी किताबें अपने सिर पर उठा कर नहीं घूमता। जब किसी किताब की आवश्यकता होती है तो वो उसे खोल कर देख लेता है। उसी तरह, तुम्हारे भीतर की चेतना सब जानती है। जब आवश्यक होता है वो जान लेती है। कुछ कर्मों को भोगना पड़ता है। कुछ कर्मों का असर उपायों द्वारा कम किया जा सकता है।
प्रश्न: भारत में चरणों में नमन करने का क्या महत्व है?
श्री श्री: केवल भारत में ही चरणों को इतना महत्व दिया गया है। चरण तुम्हें आगे ले जाते हैं। हमारी ऊर्जा, हाथों और पैरों द्वारा किसी को भी दी जा सकती है। ये ऊर्जा या स्पंदन सिर ग्रहण कर लेता है। उर्जा का संचरण सिर्फ़ एक दृष्टिपात से भी हो सकता है। केवल किसी की उपस्थिति में होने से भी दिव्य ऊर्जा ग्रहण की जा सकती है।
प्रश्न: गुरुजी, आप कहते हैं कि खुद पर दोषारोपण करना ठीक नहीं है। पर मुझे लगता है कि कभी कभी इससे व्यक्तित्व में उत्तमता आती है।
श्री श्री: अगर तुम्हें लगता है कि खुद पर दोशारोपण करने से तुम्हारे व्यक्तित्व में उत्तमता आती है, तो करो। पर अगर तुम बार बार अपने आप को दोषी समझते रहे तो ये उत्तमता नहीं है। साथ ही, इस बात का भी ध्यान रखो कि तुम दूसरों को भी दोष ना दो! दूसरों को उत्तम बनाने की कोशिश ना करो!
हम सब में दिव्य गुण हैं। जब तुम किसी में इन गुणों को बढ़ाना चाहते हो और वो ऐसा नहीं चाहते तो क्या फ़ायदा? ये तो ऐसा होगा जैसा एक बुज़ुर्ग महिला सड़क पार करना ना चाहे और आप उसे ज़बरदस्ती सड़क पार करा दें।
हम जो भी काम करें अच्छे भाव से करें। किसी का श्राप तुम्हें प्रभावित नहीं कर सकेगा अगर तुम्हारा हृदय शुद्ध है। अगर तुम्हारा हृदय शुद्ध नहीं है तो किसी के श्राप का असर ज़रूर पड़ेगा।
प्रश्न: नमक से बुरी नज़र उतारने का क्या महत्व है?
श्री श्री: हमारी ऊर्जा को नमक के प्रयोग से साफ़ किया जा सकता है। पश्चिम के देशों में लोग नमक से श्नान करते हैं। किसी और की भावनाओं से हमारी ऊर्जा में फ़र्क पड़ सकता है। इसकी चिंता करने के बजाय, नमक का प्रयोग कर लो।
हर वस्तु की अपनी ऊर्जा होती है। पानी में घुले नमक की वजह से लोगों को समुद्र के किनारे विश्राम महसूस होता है। नमक से शरीर और मन के विषाणु मिट जाते हैं। पर अगर नमक का अत्यधिक प्रयोग करोगे तो उच्च रक्तचाप हो सकता है। अगर रोज़ ही त्वचा नमकीन जल से स्पर्ष होती रहेगी तो त्वचा पर विपरीत असर पड़ेगा। मध्य मार्ग पर चलो-अति सर्वत्र वर्जयेत।
प्रश्न: शंख का क्या महत्व है? शंख का प्रयोग हर पूजा और उत्सव में होता है।
श्री श्री: प्राचीन समय में, शंख बजा कर लोग युद्ध की शुरुवात करते थे। हर वस्तु का एक विशेष स्पंदन होता है। शंख, शुभ और समृद्धि का प्रतीक है। शंख-भस्म स्वास्थ्य के लिये बहुत अच्छी है। ये शरीर में शक्ति लाती है।
इस सृष्टि में, घास के एक एक तिनके का भी महत्व है। बिल्व, परिजात, नीम – सब का अपना महत्व है। उससे भी अधिक, तुम सब का महत्व है। तुम्हारी चेतना महत्वपूर्ण है। तुम अपने आस पास के परिवेश को महत्व देते हो और अपने घर को कूड़े से भर लेते हो – तब इसका कोई महत्व नहीं होता। तो, पहले अपने हृदय को पवित्र रखो, तब तुम्हारे लिये सृष्टि की हर चीज़ महत्वपूर्ण होगी।
प्रश्न: कप्या वास्तु के महत्व के बारे में बताएं?
श्री श्री: सृष्टि में हरेक वस्तु का एक विशेष स्पंदन है। ये संसार स्पंदनों का एक सागर है। हर जीव का एक विशेष स्पंदन है। देवताओं को किसी ना किसी वाहन पर सवार दिखाया है। ये देवताओं के विशेष उर्जा के द्योतक हैं। हाथी अंतरिक्ष से श्री गणेश की विशेष उर्जा को आकर्षित करता है। शेर, देवी के विशेष स्पंदन को आकर्षित करता है। मोर, भगवान सुब्रमण्यम के विशेष स्पंदन को आकर्षित करता है। पर तुम इस सब की चिंता मत करो। बस ॐ नमः शिवाय कहो, वास्तु के सभी दोषों का निवारण हो जायेगा।
प्रश्न: क्या शास्त्रीय संगीत सीखने से हम आध्यात्मिक बनते हैं?
श्री श्री: संगीत लय योग है। भक्ति अलग है। भक्ति के बिना संगीत उतना सहायक नहीं है। उससे तुम्हारे दिमाग का केवल एक ही भाग विकसित होता है। संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास नहीं होता। ज्ञान, गान और ध्यान – तीनों की आवश्यकता है। ज्ञान से दिमाग के बाहिने भाग का पोषण होता है। गान से दिमाग के दाहिने भाग का पोषण होता है। ध्यान से दोनों भागों का पोषण होता है। ज्ञान, गान और ध्यान, तीनों की आवश्यकता है।
प्रश्न: मानव के रूप में जन्म को सभी जीवों से श्रेष्ठ क्यों कहा गया है?
श्री श्री: क्योंकि तुम ये प्रश्न पूछ सकते हो और उनके जवाब समझ सकते हो। अगर तुम पूछते नहीं और समझते भी नहीं हो, तो तुम और जीवों से बेहतर नहीं हो।
प्रश्न: ध्यान करने के बावजूद भी मुझे गुस्से और तनाव का अनुभव होता है। मैं क्या करूं?
श्री श्री: तुम अब भी तनाव का अनुभव करते हो, पर वो चला जाता है, है ना? गुस्सा, तनाव...कई लोग तो ये जानते भी नहीं कि वो ऐसे हैं! कम से कम तुम जानते तो हो। एक सफ़ेद कपड़े पर धूल का एक कण भी नज़र आ जाता है। जब मन साफ़ हो तो थोड़ा सा गुस्सा और तनाव भी नज़र आ जाता है। धीरे धीरे तुम पाओगे के तुम्हें किसी बात से फ़र्क नहीं पड़ता। कुछ महीनों या सालों की साधना से तुम पाओगे कि तुम्हें कुछ नहीं छू सकता।
प्रश्न: महिलाओं की शिक्षा के विरोध में फ़तवे के बारे में आपकी क्या सलाह है?
श्री श्री: ये अज्ञान है। ये विकास के पथ में बाधा है। महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार मिलने चाहिये। अर्धनारीश्वर एक प्रतीक है – आधा भाग शिव है, और आधा भाग शक्ति है। महिलाओं के साथ दूसरे यां तीसरे दर्जे यां नौकर की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिये।
‘वंदे मातरम नहीं गाना चाहिये क्योंकि वो धरती को मां का दर्जा देते हुये स्तुति है,’ - ऐसी बातों पर पर लोग अब ध्यान नहीं दे रहें हैं।
महिलाओं को सभी अधिकार मिलने चाहिये। महिलाओं को सशक्त बनाना चाहिये। हर बात में उनकी राय होनी चाहिये। वोट बैंक के लिए राजनेता समाज को विभाजित कर सुविधाओं का उपभोग करते हैं। वे नहीं चाहते कि गरीब लोगों तक शिक्षा पहुंचे, ताकि वे हमेशा गरीबों पर राज़ करते रहें। ये एक सड़ा हुआ दिमाग है। हमें आगे बढ़ कर, जनता को शिक्षित करना है। निरक्षरता की वजह से ही गलत लोग राजनीति में प्रवेश पाते हैं।
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"यदि तुम अपनी भावनाओं को अपनी जिम्मेदारी बनाते हो, तुम्हें कोई भी सुखी या दुखी नहीं कर सकता|"
प्रश्न : हम कैसे जानें कि सच्चा प्यार क्या है?
श्री श्री रविशंकर : हम कैसे जाने कि झूठा प्यार क्या है? मेरे प्रिय ! प्यार प्यार है, तुम इसे सच्चा या झूठा नहीं कह सकते| प्रेम पर संदेह मत करो| हम घृणा पर संदेह नहीं करते| क्या गारंटी है कि लोग तुमसे घृणा करते हैं? हो सकता है कि उस समय वे तुमसे गुस्सा हों ! प्रेम हमारा स्वभाव है| इच्छाओं और लालच के कारण कभी-कभी प्रेम छिप जाता है| प्रेम के बिना कोई प्राणी नहीं है| प्राण उर्जा प्रेम से ही बनी है| हज़ारों परमाणु मिलकर शरीर का निर्माण करते हैं| प्रेम(प्राण उर्जा) के बिना ये सभी परमाणु अलग-अलग हो जायेंगे और वह मृत्यु के सिवा कुछ नहीं है| जब प्राण शरीर को प्रेम करते हैं, तो शरीर में रहते हैं और जीवन होता है| जब उस प्रेम का अंत हो जाता है, मृत्यु होती है| हमें भावनाओं को प्रेम नहीं समझना चाहिए। प्रेम हमारी प्रकृति है। भावनाओं और प्रेम में अलगाव को जानो|
प्रश्न : अप्रसन्नता क्यों होती है?
श्री श्री रविशंकर : ताकि परमात्मा कुछ कार्य कर सके| एक बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर का खेल समझता है| यह एक कठपुतली के खेल में होने जैसा है| जब तुम ज्ञान में होते हो, तुम परमात्मा के हाथों में तार की तरह हो| इस ज्ञान के बिना तुम कठपुतली हो जाते हो|
प्रश्न : ज्योतिर्लिंग का क्या महत्व है? (भारत में १२ वर्णित तीर्थ-स्थल ज्योतिर्लिंग कहलाते हैं)
श्री श्री रविशंकर : लिंग प्रतीक है| ज्योति प्रकाश है| ज्योतिर्लिंग प्रकाश का प्रतीक है| आदि-कालीन ऋषियों और साधुओं ने इन स्थानों पर ध्यान और तपस्या की, और इन स्थानों पर वो उर्जा प्रकट हुई| यहाँ (विशालाक्षी मंटप में) एक ज्योतिर्लिंग है| वह तुम्हें दिखाई नहीं देता, लेकिन वहाँ प्रकाश है| स्वयाम्ही तिर्तानी पुनाम्ही सन्तः -जहाँ कोई संत रमता है, वहीँ तीर्थ (पवित्र स्थल) होता है| प्रत्येक तीर्थ-स्थल वह स्थान है, जहाँ किसी संत ने ध्यान किया, तपस्या की और फिर अपनी शक्ति को पत्थर, पानी आदि में प्रेषित किया और वह स्थान उस चेतना से प्रकम्पित हो उठा| जब किसी स्थान में आध्यात्मिक ऊर्जा कम होती है, तब संघर्ष बढ़ता है| वहाँ ध्यान, पूजा, सेवा और आध्यात्मिक जीवन होना चाहिए| तब चैतन्य-शक्ति (आध्यात्मिक ऊर्जा) बढ़ती है|
प्रश्न: पानी भी भाप बनने में एक निश्चित समय लेता है| मेरी अज्ञानता दूर होने में कितना समय लगेगा|
श्री श्री रविशंकर: ‘मैं बस एक साधारण व्यक्ति हूँ| मेरे लिए यह कैसे संभव है?’ ऐसा मत सोचो| केवल एक साधारण व्यक्ति ही यह ज्ञान प्राप्त कर सकता है| एक पात्र खाली होने में कितना समय लेता है? चाहे वह चांदी, कीचड़ या सोने से भरा हो, यह खाली होने में उतना ही समय लेता है| कीचड़ भरने में कम समय लगता है, सोना भरने में अधिक| तुम्हें बहुत प्रयास करना पड़ता है| लेकिन खाली होने में कोई समय और कोई प्रयास नहीं लगता| ईश्वर को प्राप्त करने के लिए किसी योग्यता व किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं है|
अकिंचन- मैं कुछ नहीं हूँ।
अप्रयत्न- मैं कुछ नहीं करता।
अकाम- मैं कुछ नहीं चाहता।
जब तुम देखते हो कि किसी ने बड़ी तपस्या की और तब उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया, तो जानो कि ताप स्वयं को खाली करने के लिए था|
जब रजस शांत हो जाता है,सारी बेचैनी दूर हो जाती है| तब उसमें दैवी चेतना का अनुभव होता है| मत सोचो कि कोई प्रकट होगा और यह और वह बतलायेगा! वह केवल भ्रमित होना होगा| बस विश्राम करो| आराम और विश्राम में कोई दूरी नहीं है| ईश्वर तुम्हारे बिलकुल पास है| तो थोड़ी देर के लिए ध्यान करो| और महसूस करो कि तुम्हारा कुछ भी नहीं है| यदि तुम मंत्र-जाप करते हो, तो यह तुम्हें ध्यान में जाने में सहायता करता है| किसी भी पूजा में पहले ध्यान होता है| पूजा समाप्त होने पर भी ध्यान होता है| यह परम्परा छोड़ दी गयी है| इसके बिना यह चाबुक के बगैर घोड़े पर सवारी करने जैसा है| तुम घोड़े को कैसे नियंत्रित करोगे?
एक बार मुल्ला नसीरुद्दीन को एक ऐसे ही घोड़े की पीठ पर बिठाकर शहर के चारों ओर घुमाया जा रहा था| किसी ने मुल्ला से पूछा कि वे कहाँ जा रहे हैं| तो उन्होंने उत्तर दिया,‘घोड़े से पूछो|’
हमारा दिमाग भी ऐसा ही हो गया है| जहाँ कहीं हमारा दिमाग दौड़ता है, वहीं हम भी दौड़ते हैं| किसी को तुम्हारे बारे में सोचने की फुर्सत नहीं
है-कि तुम खुश हो या नहीं| यह ज्यादातर सिर्फ पूछने के उद्देश्य से है| वास्तव में कोई भी इसका उत्तर नहीं चाहता कि तुम कैसा महसूस कर रहे हो और तुम्हारा मन कैसा है, इसको खुश रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है| यदि तुम अपनी भावनाओं को अपनी जिम्मेदारी बनाते हो, तुम्हें कोई भी सुखी या दुखी नहीं कर सकता| जहाँ तुम्हें ईश्वर को बसाना है, वहाँ कूड़ा-करकट क्यों भरते हो? मन साफ़ रखो- यही ध्यान है| इसे आसक्ति और विरक्ति (लालसा और घृणा) से दूर रखो| यह शिष्य-वृत्ति है| एक शिष्य में घृणा का स्थान नहीं होना चाहिए| वहाँ केवल गुरु के लिए स्थान है|
मन निर्मल है|तुम्हारे संतुलन को बिगाड़ने का प्रयत्न करने वाली १,००,००० चीजें होंगी| अपनी घृणा का समर्पण कर दो, मन से इसे पूरी तरह निकाल दो यही अग्निहोत्र है| काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा अन्य सभी बुरे आशायों (इरादों) – इन सबको इस आग में जल जाने दो| अपने भीतर निर्मल ज्योति (दोष-रहित शुद्ध प्रकाश) जलने दो| पुन: पुन: ज्ञान में रहने से तुम्हारा मन और बुद्धि को शुद्ध होता है | तुम्हारे और ईश्वर के बीच बुद्धि है| ज्ञान से इस अलगाव को दूर (नष्ट) किया जा सकता है| समर्पण, ज्ञान, भक्ति और ध्यान से, अलगाव मिट जाता है|
प्रश्न : मुझे कैसे और कब मन्त्रों का प्रयोग करना चाहिए?
श्री श्री रविशंकर : मंत्र का उच्चारण बिना प्रयास के और स्वाभाविक ढंग से करो| तुम्हें एक दिन में २४ घंटे जप नहीं करना है| थोड़ी देर जाप करो और ध्यान करो| तम्हें साफ़ होने के लिए २४ घंटे नहाना नहीं पड़ता ! कुछ मिनटों की सफाई तुम्हें पूरे दिन या कम से कम आधा दिन तारो-ताज़ा रखने के लिए काफी है| उसी प्रकार मंत्र-स्नान महत्त्वपूर्ण है|
प्रश्न : गुरु जी, मैं क्या करूँ, मैं नास्तिक बनूँ या आस्तिक?
श्री श्री रविशंकर : तुम अपने आप पर ठप्पा क्यों लगाना चाहते हो? एक दिन नास्तिक हो और एक दिन आस्तिक| क्या तुम ऐसा करने के लिए तैयार हो? जो भी तुम बनो, सच्चे बनो| आजकल तथाकथित नास्तिक सच्चे नहीं हैं| नास्तिक कहते हैं, ‘ऐसा कुछ भी नहीं जिसे मैं नहीं जानता|उसी का अस्तित्व है जो मुझे दिखता है, अन्य किसी का नहीं|’ आस्तिक कहता है, ‘मैं जानता हूँ कि जो मैं जानता हूँ उससे परे भी बहुत कुछ अज्ञात है|’
सृष्टि में किसी भी चीज़ के अस्तित्व को नकारने के लिए तुम्हें सृष्टि में प्रत्येक चीज़ को जानने की आवश्यकता है| अब इस सृष्टि के बारे में प्रत्येक चीज़ कौन जानता है? तुम केवल यह कह सकते हो कि ‘मैं नहीं जानता कि इस चीज़ का अस्तित्व है या नहीं|’ बिना समय और अंतरिक्ष की पूरी जानकारी के, किसी वस्तु के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। इस सृष्टि में, इस समय और अंतरिक्ष में क्या तुम हर चीज़ को जानते हो?
तुम्हारी अनभिज्ञता के प्रति तुम्हारी स्वीकृति तुम्हें एक नास्तिक बनने की इज़ाज़त नहीं देती| इसलिए तुम एक सच्चे नास्तिक नहीं बन सकते|
प्रश्न : गुरु जी, मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?
श्री श्री रविशंकर : तुम बहुत भाग्यशाली हो| कितने लोग यह प्रश्न पूछे बिना ही जीवन जीते रहते हैं| इसका पोषण करो| यह प्रश्न तुम्हारे दिल
में है, तुम बहत भाग्यशाली हो| मैं तुम्हें एक बात बताता हूँ| वह जो इस प्रश्न का उत्तर जनता है, तुम्हें बतलायेगा नहीं और जो तुम्हें बतलाएगा,
वह जानता नहीं|
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श्री श्री रविशंकर : हम कैसे जाने कि झूठा प्यार क्या है? मेरे प्रिय ! प्यार प्यार है, तुम इसे सच्चा या झूठा नहीं कह सकते| प्रेम पर संदेह मत करो| हम घृणा पर संदेह नहीं करते| क्या गारंटी है कि लोग तुमसे घृणा करते हैं? हो सकता है कि उस समय वे तुमसे गुस्सा हों ! प्रेम हमारा स्वभाव है| इच्छाओं और लालच के कारण कभी-कभी प्रेम छिप जाता है| प्रेम के बिना कोई प्राणी नहीं है| प्राण उर्जा प्रेम से ही बनी है| हज़ारों परमाणु मिलकर शरीर का निर्माण करते हैं| प्रेम(प्राण उर्जा) के बिना ये सभी परमाणु अलग-अलग हो जायेंगे और वह मृत्यु के सिवा कुछ नहीं है| जब प्राण शरीर को प्रेम करते हैं, तो शरीर में रहते हैं और जीवन होता है| जब उस प्रेम का अंत हो जाता है, मृत्यु होती है| हमें भावनाओं को प्रेम नहीं समझना चाहिए। प्रेम हमारी प्रकृति है। भावनाओं और प्रेम में अलगाव को जानो|
प्रश्न : अप्रसन्नता क्यों होती है?
श्री श्री रविशंकर : ताकि परमात्मा कुछ कार्य कर सके| एक बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर का खेल समझता है| यह एक कठपुतली के खेल में होने जैसा है| जब तुम ज्ञान में होते हो, तुम परमात्मा के हाथों में तार की तरह हो| इस ज्ञान के बिना तुम कठपुतली हो जाते हो|
प्रश्न : ज्योतिर्लिंग का क्या महत्व है? (भारत में १२ वर्णित तीर्थ-स्थल ज्योतिर्लिंग कहलाते हैं)
श्री श्री रविशंकर : लिंग प्रतीक है| ज्योति प्रकाश है| ज्योतिर्लिंग प्रकाश का प्रतीक है| आदि-कालीन ऋषियों और साधुओं ने इन स्थानों पर ध्यान और तपस्या की, और इन स्थानों पर वो उर्जा प्रकट हुई| यहाँ (विशालाक्षी मंटप में) एक ज्योतिर्लिंग है| वह तुम्हें दिखाई नहीं देता, लेकिन वहाँ प्रकाश है| स्वयाम्ही तिर्तानी पुनाम्ही सन्तः -जहाँ कोई संत रमता है, वहीँ तीर्थ (पवित्र स्थल) होता है| प्रत्येक तीर्थ-स्थल वह स्थान है, जहाँ किसी संत ने ध्यान किया, तपस्या की और फिर अपनी शक्ति को पत्थर, पानी आदि में प्रेषित किया और वह स्थान उस चेतना से प्रकम्पित हो उठा| जब किसी स्थान में आध्यात्मिक ऊर्जा कम होती है, तब संघर्ष बढ़ता है| वहाँ ध्यान, पूजा, सेवा और आध्यात्मिक जीवन होना चाहिए| तब चैतन्य-शक्ति (आध्यात्मिक ऊर्जा) बढ़ती है|
प्रश्न: पानी भी भाप बनने में एक निश्चित समय लेता है| मेरी अज्ञानता दूर होने में कितना समय लगेगा|
श्री श्री रविशंकर: ‘मैं बस एक साधारण व्यक्ति हूँ| मेरे लिए यह कैसे संभव है?’ ऐसा मत सोचो| केवल एक साधारण व्यक्ति ही यह ज्ञान प्राप्त कर सकता है| एक पात्र खाली होने में कितना समय लेता है? चाहे वह चांदी, कीचड़ या सोने से भरा हो, यह खाली होने में उतना ही समय लेता है| कीचड़ भरने में कम समय लगता है, सोना भरने में अधिक| तुम्हें बहुत प्रयास करना पड़ता है| लेकिन खाली होने में कोई समय और कोई प्रयास नहीं लगता| ईश्वर को प्राप्त करने के लिए किसी योग्यता व किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं है|
अकिंचन- मैं कुछ नहीं हूँ।
अप्रयत्न- मैं कुछ नहीं करता।
अकाम- मैं कुछ नहीं चाहता।
जब तुम देखते हो कि किसी ने बड़ी तपस्या की और तब उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया, तो जानो कि ताप स्वयं को खाली करने के लिए था|
जब रजस शांत हो जाता है,सारी बेचैनी दूर हो जाती है| तब उसमें दैवी चेतना का अनुभव होता है| मत सोचो कि कोई प्रकट होगा और यह और वह बतलायेगा! वह केवल भ्रमित होना होगा| बस विश्राम करो| आराम और विश्राम में कोई दूरी नहीं है| ईश्वर तुम्हारे बिलकुल पास है| तो थोड़ी देर के लिए ध्यान करो| और महसूस करो कि तुम्हारा कुछ भी नहीं है| यदि तुम मंत्र-जाप करते हो, तो यह तुम्हें ध्यान में जाने में सहायता करता है| किसी भी पूजा में पहले ध्यान होता है| पूजा समाप्त होने पर भी ध्यान होता है| यह परम्परा छोड़ दी गयी है| इसके बिना यह चाबुक के बगैर घोड़े पर सवारी करने जैसा है| तुम घोड़े को कैसे नियंत्रित करोगे?
एक बार मुल्ला नसीरुद्दीन को एक ऐसे ही घोड़े की पीठ पर बिठाकर शहर के चारों ओर घुमाया जा रहा था| किसी ने मुल्ला से पूछा कि वे कहाँ जा रहे हैं| तो उन्होंने उत्तर दिया,‘घोड़े से पूछो|’
हमारा दिमाग भी ऐसा ही हो गया है| जहाँ कहीं हमारा दिमाग दौड़ता है, वहीं हम भी दौड़ते हैं| किसी को तुम्हारे बारे में सोचने की फुर्सत नहीं
है-कि तुम खुश हो या नहीं| यह ज्यादातर सिर्फ पूछने के उद्देश्य से है| वास्तव में कोई भी इसका उत्तर नहीं चाहता कि तुम कैसा महसूस कर रहे हो और तुम्हारा मन कैसा है, इसको खुश रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है| यदि तुम अपनी भावनाओं को अपनी जिम्मेदारी बनाते हो, तुम्हें कोई भी सुखी या दुखी नहीं कर सकता| जहाँ तुम्हें ईश्वर को बसाना है, वहाँ कूड़ा-करकट क्यों भरते हो? मन साफ़ रखो- यही ध्यान है| इसे आसक्ति और विरक्ति (लालसा और घृणा) से दूर रखो| यह शिष्य-वृत्ति है| एक शिष्य में घृणा का स्थान नहीं होना चाहिए| वहाँ केवल गुरु के लिए स्थान है|
मन निर्मल है|तुम्हारे संतुलन को बिगाड़ने का प्रयत्न करने वाली १,००,००० चीजें होंगी| अपनी घृणा का समर्पण कर दो, मन से इसे पूरी तरह निकाल दो यही अग्निहोत्र है| काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा अन्य सभी बुरे आशायों (इरादों) – इन सबको इस आग में जल जाने दो| अपने भीतर निर्मल ज्योति (दोष-रहित शुद्ध प्रकाश) जलने दो| पुन: पुन: ज्ञान में रहने से तुम्हारा मन और बुद्धि को शुद्ध होता है | तुम्हारे और ईश्वर के बीच बुद्धि है| ज्ञान से इस अलगाव को दूर (नष्ट) किया जा सकता है| समर्पण, ज्ञान, भक्ति और ध्यान से, अलगाव मिट जाता है|
प्रश्न : मुझे कैसे और कब मन्त्रों का प्रयोग करना चाहिए?
श्री श्री रविशंकर : मंत्र का उच्चारण बिना प्रयास के और स्वाभाविक ढंग से करो| तुम्हें एक दिन में २४ घंटे जप नहीं करना है| थोड़ी देर जाप करो और ध्यान करो| तम्हें साफ़ होने के लिए २४ घंटे नहाना नहीं पड़ता ! कुछ मिनटों की सफाई तुम्हें पूरे दिन या कम से कम आधा दिन तारो-ताज़ा रखने के लिए काफी है| उसी प्रकार मंत्र-स्नान महत्त्वपूर्ण है|
प्रश्न : गुरु जी, मैं क्या करूँ, मैं नास्तिक बनूँ या आस्तिक?
श्री श्री रविशंकर : तुम अपने आप पर ठप्पा क्यों लगाना चाहते हो? एक दिन नास्तिक हो और एक दिन आस्तिक| क्या तुम ऐसा करने के लिए तैयार हो? जो भी तुम बनो, सच्चे बनो| आजकल तथाकथित नास्तिक सच्चे नहीं हैं| नास्तिक कहते हैं, ‘ऐसा कुछ भी नहीं जिसे मैं नहीं जानता|उसी का अस्तित्व है जो मुझे दिखता है, अन्य किसी का नहीं|’ आस्तिक कहता है, ‘मैं जानता हूँ कि जो मैं जानता हूँ उससे परे भी बहुत कुछ अज्ञात है|’
सृष्टि में किसी भी चीज़ के अस्तित्व को नकारने के लिए तुम्हें सृष्टि में प्रत्येक चीज़ को जानने की आवश्यकता है| अब इस सृष्टि के बारे में प्रत्येक चीज़ कौन जानता है? तुम केवल यह कह सकते हो कि ‘मैं नहीं जानता कि इस चीज़ का अस्तित्व है या नहीं|’ बिना समय और अंतरिक्ष की पूरी जानकारी के, किसी वस्तु के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। इस सृष्टि में, इस समय और अंतरिक्ष में क्या तुम हर चीज़ को जानते हो?
तुम्हारी अनभिज्ञता के प्रति तुम्हारी स्वीकृति तुम्हें एक नास्तिक बनने की इज़ाज़त नहीं देती| इसलिए तुम एक सच्चे नास्तिक नहीं बन सकते|
प्रश्न : गुरु जी, मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?
श्री श्री रविशंकर : तुम बहुत भाग्यशाली हो| कितने लोग यह प्रश्न पूछे बिना ही जीवन जीते रहते हैं| इसका पोषण करो| यह प्रश्न तुम्हारे दिल
में है, तुम बहत भाग्यशाली हो| मैं तुम्हें एक बात बताता हूँ| वह जो इस प्रश्न का उत्तर जनता है, तुम्हें बतलायेगा नहीं और जो तुम्हें बतलाएगा,
वह जानता नहीं|
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"ईश्वर को देख नहीं सकते,पर हृदय उसकी उपस्थिति अनुभव करता है"
बैंगलौर आश्रम,(भारत), १२ नवम्बर २००९
श्री श्री रवि शंकर : तुम जानते हो, जब कोई स्वीकार कर लेता है कि वह मूर्ख है तब वह वास्तव में बुद्धिमान होता है| एक वास्तविक मूर्ख अपनी मूर्खता को नहीं पहचानता| हम एक रहस्यमय ब्रह्माण्ड में हैं। हम अनंत रहस्यों के समुद्र में गोते लगा रहे हैं| प्रत्येक परमाणु में
अनंत रहस्य हैं| विज्ञान इन रहस्यों को खोजने और प्रकट करने का प्रयत्न करता है लेकिन यह प्रयत्न एक छोटी नाव में समुद्र को खोजने के प्रयास के समान है| यह इतना छोटा है, और बहुत-कुछ खोजना अभी बाकी है, जो असंभव है| और जब विज्ञान एक रहस्य खोजने का प्रयत्न करता है, दस अन्य खड़े हो जाते हैं| कोई वैज्ञानिक नहीं कह सकता कि वह ब्रह्मंड के सारे रहस्यों को जानता है| कोई भी यह नहीं कह सकता| विज्ञान जितना खोजता है, वह पाता है कि अभी बहुत-कुछ बाकी है जो अज्ञात है-रहस्य है| तो रहस्य को सम्मान दो| यही चिदम्बर रहस्य है| चेतना में अनेक रहस्य हैं| तुम उन सबको नहीं समझ सकते| आकाश अनंत है| आकाश की तरह रहस्य भी अनंत हैं| हमारे पूर्वजों ने रहस्य का आदर किया| इसीलिए सहज समाधि का मंत्र गुप्त रखा जाता है| जिसे तुम गुप्त रखते हो, बढ़ता है| हम अपना प्रेम प्रतिदिन व्यक्त नहीं करते, हम प्रतिदिन ‘मैं तुम्हें प्यार करता हूँ’ नहीं कहते| जब तुम प्रेम में इतने गहरे होते हो, बस एक निगाह ही काफी होती है| कभी-कभी बार-बार कहने से प्रेम नष्ट हो जाता है| यदि तुम स्वयं को बिलकुल व्यक्त नहीं करते,तो भी यह बेकार है| अपने जीवन के अनुभवों को व्यक्त करने का एक उपयुक्त तरीका है| यह बीजारोपण की तरह होना चाहिए| यह कुछ इंच गहरा बोना चाहिए, न तो बस ज़मीन की ऊपरी सतह पर हो – न बहुत गहरा ही हो| तब संबंध पूरे जीवन भर चलता है| कोई बच्चा माँ से हर समय नहीं कहता ‘मैं तुम्हें प्यार करता हूँ’, यह उसके कार्यों से झलकता है|
एक योगी हमेशा संयमित रहता है – न तो बहुत अधिक कार्य न बहुत अधिक निद्रा (सो जाना)| न तो बहुत अधिक भोजन और न बहुत अधिक उपवास अनुकूल होते हैं| यह अनुकूल हल नहीं है| यदि तुम बहुत दिनों तक नहीं खाते यां इस तरह के काम करते हो तो यह केवल अपने शरीर को कष्ट देना नहीं, अपितु अपनी आत्मा को भी कष्ट देना है| तो अपने भोजन, आपसदारी और वाणी मैं संयम रखो| तब योग-सिद्धि (पूर्णता की स्थिति) प्राप्त होती है और सारी उदासी खत्म हो जाती है| तो दुःख से मुक्त होने के लिए अपनी साधना और ध्यान ज़ारी रखो|
ध्यान हमसे हो जाता है| हमें इसे प्रयत्न करके नहीं करना पड़ता| और सुंदर‘मैं नहीं जानता’ के भोलेभाव में बैठना, ध्यान की सभी बाधाओं से मुक्त होने का हल है|
चिदंबरम मंदिर में एक पर्दा है और उसके पीछे केवल एक दीवार है| ऐसा लगता है कि तुम एक दीवार को प्रणाम कर रहे हो, पर इसके पीछे एक गहरा अर्थ है| यह आकाश तत्त्व को सूचित करता है| जब तुम पर्दा हटाते हो, अंतरिक्ष प्रकट होता है| जब तुम मोह और कामनाओं के परदे को हटा देते हो, तो तुम विशाल अनंत आंतरिक विस्तार का अनुभव करते हो| कुछ क्षणों के लिए तुम्हारा मस्तिष्क विचारों से मुक्त हो जाता है| हम महसूस करते हैं कि कोई रहस्य है जिसकी हमने एक चमक जैसी, एक छोटी सी झलक देखी है और यह अनुभूति जीवन में एक बदलाव लाती है|
प्रश्न : हम कर्म से परे कैसे जा सकते हैं? यह कब शुरू हुआ और कब समाप्त होगा?
श्री श्री रवि शंकर : संसार की शुरुआत कब हुई?
श्रोता : नहीं पता|
श्री श्री रवि शंकर : संसार का अंत कब होगा?
श्रोता : नहीं पता|
श्री श्री रवि शंकर : यह प्रश्न भी उसी तरह का है| हम नहीं जानते कि कर्म-चक्र कब आरम्भ हुआ? हम आरम्भ तो नहीं जानते, पर कर्म के बीज ज्ञान की अग्नि में जलाए जा सकते हैं|
प्रश्न : गुरूजी, हमें अपनी पिछली छाप के कारण कष्ट क्यों भोगना पड़ता है अगर वर्तमान में हम निर्दोष होते हैं?
श्री श्री रविशंकर : यदि तुम तीन साल पहले एक नारियल का पौधा लगाते हो, तो तुम्हें फल का आनंद बाद में मिलता है| तुम बैंक में धन जमा करते हो और इसे ब्याज सहित वापिस पाने कि आशा रखते हो, है न? यदि बैंक तुमसे इसे भूल जाने को कहे क्योंकि तुमने धन कई साल पहले जमा किया था, तो क्या तुम सहमत होगे? हम केवल वह फल चाहते हैं जो हमारे अनुकूल हो| हमें आवश्यकता है कि अपनी गलती महसूस करें, स्वीकार करें और आगे बड़ें| तब कर्म की तीव्रता घटती है| जाने-अनजाने में की गयी सभी गलतियों के लिए क्षमा मांगना भी हमारी पूजा का एक अंग है|
प्रश्न : गुरु जी, अनेक आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक पाए जाते हैं,क्या हमें उन सबके पास जाने और उनकी शिक्षाओं को पढ़ने की आवश्यकता है?
श्री श्री रवि शंकर : प्रत्येक को आदर और सम्मान दो| एक मार्ग का अनुसरण करो| मान लो – तुम चार गुरुओं से मिलते हो और तुम चार मंत्र व विधियाँ लेते हो, तुम किसका उपयोग करोगे? यह चार अलग-अलग नावों पर अपने गंतव्य तक पहुँचने का प्रयास करने जैसा है| तुम कहीं नहीं पहुंचोगे| यदि तुम्हारे पहले कोई गुरु रहे हैं और अब तुम यहाँ आए हो, तो जानो कि उनकी वजह से ही तुम यहाँ तक पहुँचे हो|
सभी को गुरु कहना भी गलत है| केवल एक गुरु का सिद्धांत है| और सभी गुरु केवल तुम्हारी खुशी चाहते हैं| जब तुम कुआँ खोदना चाहते हो, तो यदि तुम दस जगह दो फुट गहरा खोदते हो, तुम्हें पानी नहीं मिलेगा| तुम्हें सिर्फ
एक जगह गहरे जाने की आवश्यकता है| सभी जगह जाने की आवश्यकता नहीं, यह ज़रूरी नहीं है| जब तुम एक मार्ग में विश्वास रखते हो और आगे बढ़ते हो, तब तुम निश्चय ही अपने गंतव्य तक पहुंचोगे|
प्रश्न : मैं स्वयं को दुर्बलता से कैसे मुक्त करूँ? क्या पूजा करना सहायक है?
श्री श्री रवि शंकर : तुम्हारे पास सत्संग, ध्यान और प्राणायाम सर्वोत्तम उपहार है| मंत्रोच्चारण और पूजा का अपना अलग स्थान है| इसके बारे में बहुत परेशान मत हो| ध्यान करो और थोड़ी पूजा करो| इसे न तो बिलकुल छोड़ो और न अति करो|
प्रश्न : मैं ईश्वर का दर्शन कैसे करूँ?
श्री श्री रवि शंकर : क्या तुमने हवा को देखा है? फिर भी तुम जानते हो कि वह है| तुम इसे महसूस कर सकते हो| इसी प्रकार तुम ईश्वर को देख नहीं सकते,पर हृदय उसकी उपस्थिति, प्राण (जीवन-शक्ति) का अनुभव करता है|
प्रश्न : गुरु जी, अपने रहस्य को प्रेम करने के लिए कहा है, पर मैं इसे जानने को भी उत्सुक हूँ|
श्री श्री रवि शंकर : उत्सुकता स्वाभाविक है| यह बुद्धि को तीव्र करता है| रहस्य के प्रति प्रेम, भावनात्मक स्तर को शुद्ध करता है| जीवन बुद्धि और भावनाओं का संतुलन है|
प्रश्न : यांत्रिकी और विज्ञान इतना आगे बढ़ चुके हैं, आध्यात्मिकता का उदय कब होगा?
श्री श्री रवि शंकर : यह पहले से ही हो रहा है| इतनी संख्या में तुम यहाँ हो| हमारे देश में विज्ञान और आध्यात्म विरोधी नहीं हैं| वे एक दूसरे के
पूरक हैं| दोनों आवश्यक हैं| भाव और बुद्धि दोनों ज़रूरी हैं| जैसे जब तुम दूरदर्शन (टी० वी०) देखते हो, तो देखना और सुनना दोनों महत्त्वपूर्ण हैं|
प्रश्न : गुरु जी, जब मैंने सुना कि २०१२ में विश्व का अंत होने जा रहा है, दूसरे रूप में मुझे यह वरदान लगी क्योंकि मैं अपनी दौड़ को रोकने, अपनी ओर वास्तव में देखने और जो मैं वास्तव में करना चाहता हूँ – उसे करने के योग्य हुआ| मैं अपने दिमाग को कुछ आराम दे सका|
श्री श्री रवि शंकर : प्रलय (मृत्यु) किसी समय भी आ सकती है| हजारों black holes हैं जो कभी भी सूर्य मंडल को निगल सकते हैं, सूर्य सावधानी से चल रहा है| मृत्यु आये या न आये, तुम्हें अपने शांति को बनाए रखना है। तृष्णा और घृणा में बिना फंसे न्याय और सत्य के समर्थन में कार्य करना है| जो तुम कर सकते हो, करो|
© The Art of Living Foundation For Global Spirituality
"यदि हम रूचि या अरुचि में फंस जाते हैं, तो जीवन सीमित हो जाता है"
बैंगलौर, ११ नवंबर २००९
ग्रामीण महाराष्ट्र के सैकड़ों युवाचार्यों और एक विशेष एडवांस कोर्स के ७३० सहभागी सत्संग
में थे | सत्संग में गहन ज्ञान से परिपूर्ण एक गीत गाया जाता है | गुरु जी इस गीत
के कुछ अंशों पर वार्ता की| फिर वह कहते हैं :
संगीत समझने के लिए नहीं, आनंदित होने के लिए है | यदि जो कहा जा रहा है तुम नहीं समझ पा रहे हो, तो पूरी वार्ता को संगीत की तरह सुनो| महाराष्ट्र के सभी युवाओं के लिए, मैं हिंदी में कुछ शब्द कहना चाहूंगा| तुम सभी ने बहुत अच्छा काम किया है |
जीवन में हम कुछ चीजें पसंद करते है और कुछ नहीं | किसी वस्तु के लिए पसंद और नापसंद केवल तभी उठती है जब हम उसके बारे में कुछ जानते हैं| यदि हम नहीं जानते, तो रूचि-अरुचि हो ही नहीं सकती | मोह (लगाव), राग (लालसा) और इच्छाएं उन्हीं के लिए उठती है, जिन्हें हम जानते हैं | अरुचि और घृणा भी उन्हीं के लिए उठती हैं, जिन्हें हम जानते हैं|
इस विश्व के बारे में हम कितना जानते हैं? इस सृष्टि के आकार की तुलना में हमारा ज्ञान सरसों के बीज के आकार से भी कम है| फिर भी हम केवल कुछ चीज़ों को पसंद करते हैं और उन्हीं में फंसे रहते हैं| तो, अब हम उन चीज़ों के बारे में बात करते हैं, जिनके बारे में हम नहीं
जानते – जो अज्ञात है|
श्री श्री रविशंकर : तुम कितनी बार जन्म ले चुके हो ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : तुम कितनी बार और जन्म लोगे ?
श्रोता: नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : ब्रह्मांड में पृथ्वी के समान कितने ग्रह हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : ब्रह्मांड में कितने तारे (नक्षत्र) हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : इस ग्रह पर कितने जीव हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : तुम्हारे द्वारा ली गयी प्रत्येक श्वास में कितने
परमाणु होते हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : इस पृथ्वी पर एक मुट्ठी में कितने परमाणु हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
हम कुछ नहीं जानते | (सब श्रोता हंसते हैं)
क्या तुम देख रहे हो कि हम जो नहीं जानते उसमें कितने प्रसन्न हैं? अंग्रेज़ी मैं
एक कहावत है, जिसका अर्थ है –’अज्ञानता वरदान है’ |
हम एक पृथ्वी को जानते हैं। कहते हैं कि इस तरह की १४ पृथ्वी हैं, पर हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते| प्रेम, जिसे हम नहीं जानते, श्रद्धा या विश्वास कहलाता है| क्या हम ईश्वर को जानते हैं? क्या बच्चा माँ को जानने की कोशिश करता है? वह बस उसे प्यार करता है और उसमें विश्वास रखता है। क्या वह इसकी जांच करता है कि वह किस स्कूल में गयी या कौन सी डिग्री (उपाधि) पायी| बच्चा तो तीन-चार साल तक अपनी माँ का नाम भी नहीं जानता| तुम इस सृष्टि की सन्तान हो| तुम इसके बारे में कुछ भी नहीं जानते। फिर भी तुम विश्वास कर सकते हो|
शरणु विश्वमात्मादलि मंकुतिम्मा........(कन्नड़ भजन की पहली पंक्ति)
विश्वात्मा- विश्व संसार है, आत्मा चेतना है| विश्वात्मा शाश्वत चेतना है| क्या तुम अपने जीवन के बारे में जानते हो? तुम तो यह भी नहीं जानते कि तुम कौन हो?तुम अपनी नींद या स्वप्नों के बारे में नहीं जानते – स्वप्न क्यों आते हैं, हम नहीं जानते|
अहंकार तब आता है जब तुम सोचते हो कि तुम कुछ जानते हो| तुम निर्हंकारी (अहंकार से मुक्त) हो सकते हो, जब तुम्हारा मन शांत होता है और तुम जानते हो कि तुम कुछ नहीं जानते| जब तुम मंदिर जाते हो, तुम नहीं जानते कि पुजारी क्या कर रहा है या कौन सा मंत्र पढ़ रहा है, पर तुम्हें विश्वास होता है कि कुछ भला ही होगा| गांवों में लोगों में बहुत विश्वास होता है| तुम डॉक्टर से दवा लेते हो, पर तुम नहीं जानते कि यह कैसे काम करती है| यदि तुम जानने का प्रयास करो कि तुम्हारा भोजन कैसे पचता है तो तुम आश्चर्य-चकित हो जाओगे| भोजन को सिर्फ पचाने के लिए कितना काम ज़रूरी होता है| इसे मुख में रखकर चबाना, इसमें लार मिश्रित करना, निगलना, फिर भोजन का पेट के सभी रास्तों से होकर गुजरना, जठराग्नि और पाक~रसों का इस पर कार्य करना, फिर समान्गीकरण के लिए बड़ी आंत में घूमना आदि-आदि| कितना कुछ होता है!! हम सब भोजन को मुंह में रखना जानते हैं| इसके बाद हम नहीं जानते कि क्या होता है| जो हम जानते हैं-उसका महत्व है,पर जो हम नहीं जानते-उसका और अधिक महत्व है| इस पूरी सृष्टि के बारे में हर चीज़ जानना संभव नहीं है| पुराणों में एक कथा है| ब्रह्मा (बनाने वाले) और विष्णु (पालन करने वाले) ने शिव (संहारक/रूपांतरक शक्ति) के बारे में जानना चाहा| शिव आदि या अंत से परे अनंत हैं| तो ब्रह्मा, शिव के सिर और विष्णु, उनके पैरों की खोज के लिए चल पड़े| वे युगों तक चलते रहे, पर शिव के आदि यां अंत में से किसी का पता नहीं लगा सके| उन्होंने वापिस लौटने का निर्णय लिया| अपने लौटने के मार्ग पर ब्रह्मा ने एक केतकी का फूल गिरते हुए देखा और उससे पूछा कि वह कहाँ से आ रहा है| फूल ने उत्तर दिया कि वह शिव के सिर का श्रृंगार था| फूल के वचनों को सच मानते हुए ब्रह्मा ने सोंच लिया कि उन्होंने शिव के सिर को देख लिया और यही विष्णु को बता दिया| विष्णु ने कहा कि वह शिव के पैरों को नहीं पा सके| यह ब्रह्माण्ड अनंत विस्तार (अनंत फैलाव का) है| इस अनंत ब्रह्माण्ड में व्याप्त चेतना भी अनंत और अज्ञेय ( जिसे जान नहीं सकते) है|यह केवल चाहने(प्रेम करने) योग्य है|
ईश्वर को जानने की चेष्टा न करो| ईश्वर, जिसे जाना नहीं जा सकता, उससे बस प्रेम करो| यही श्रद्धा है| जब तुम ध्यान करते हो और अन्य लोगों के इतने अच्छे अनुभवों के बारे में सुनते हो, तो तुम सोचने लगते हो, "मेरी क्या स्थिति है?" । इसमें मत फंसो| यह जानो कि ईश्वर को जाना नहीं जा सकता। "मैं कुछ नहीं जानता" - यह ध्यान का मूल है। पर इसका गलत प्रयोग मत करो| यदि कोई तुमसे पूछता है कि तुम कहाँ से आ रहे हो या कहाँ जा रहे हो या क्या समय है, तो यह मत कहो कि "मैं नहीं जानता"| यह ठीक नहीं है|जब तुम ध्यान में बैठो, तब इसका उपयोग करो|
यदि हम रूचि या अरुचि में फंस जाते हैं, तो जीवन सीमित हो जाता है| सीमित होने में आनंद नहीं है|
नाल्पे सुकमस्ती- तुच्छ चीज़ों में आनंद नहीं|
योवाई भूमा सुकम – विस्तार में,विशालता में आनंद है|
जब तुम आनंद में होते हो, तुम्हारी चेतना का विस्तार होता है और जब तुम पीड़ा या दुःख में होते हो, तुम्हारी चेतना संकुचित होती है।
वृत्ति तन मौअवाहुदु मंकुत्तिमा.. (कन्नड़ भजन की दूसरी पंक्ति)
यह पंक्ति गाते हुए कवि ने वृत्तियों की दैवी चेतना में विलयन की अनुभूति की है| वृत्ति, विश्वात्मा में घुल जाती है| जब तुम अनजानेपन के क्षेत्र में होते हो तो मन शांत और केंद्रित हो जाता है| जिसे तुम नहीं जानते, उसके बारे में नहीं सोच सकते| तो स्वीकृति भावनाओं के स्तर पर होती है|
सोचने के लिए तुम्हे उसके बारे में कुछ जानने की ज़रुरत है। निर्विचार, आत्मज्ञान का मूल है|
श्रृद्धा या विश्वास अंधा नहीं होना चाहिए| इसीलिए हम साधना करते हैं| विश्लेषण और तार्किक विचार दिन-प्रतिदिन के कार्य-कलापों के लिए आवश्यक होते हैं| परंतु वे ध्यान के लिए नहीं चाहिए|
नाद और वेद दोनों आवश्यक हैं| वेद प्राचीन ज्ञान है| नाद संगीत है जो तुम्हे ज्ञात से परे ले जाता है| श्रृद्धा दोनों को बड़ाती है| यह शांत चेतना का आकाश है| साधारणतः जब कुछ नहीं जानते या नहीं जान पाते हैं, तो हम चिड़ते हैं या क्रोधित हो जाते हैं| परन्तु यह ’न जानना’ बहुत सुंदर है| जब यह ’न जानना’ आ जाता है, तो मन स्थिर और शांत हो जाता है| यह ध्यान का क्षेत्र है और मौन इसका मार्ग है|
प्रश्न : गुरु जी,हम सभी सही और गलत जानते हैं, फिर भी हम गलत चीज़ें क्यों करते हैं? ऐसा क्यों होता है?
श्री श्री रविशंकर : केवल कुछ चीज़ें हमें गलत करने को प्रेरित कराती हैं :
क्रोध – हम जानते हैं कि क्रोध हमारे लिए अच्छा नहीं है,फिर भी हम क्रोध करते हैं|
काम – हम जानते हैं कि यह ठीक नहीं है,फिर भी मन दौड़ता है|
लोभ – हम जानते हैं कि यह नियमानुसार गलत है,फिर भी हमारा लालच बड़ता जाता है|
बेईमानी – तुम जानते हो कि झूठ बोलना अच्छा नहीं है, फिर भी ऐसा करते हो|
क्रोध केवल निर्बलता से आता है| तुम देखोगे कि ध्यान और प्राणायाम का अभ्यास करने से यह कम हो जाता है| जब तुम निरंतर ज्ञान में
रहते हो,तुम्हारा क्रोध घट जाता है| क्रोध के पीछे इच्छा होती है| क्रोध आता है चाहे तुम्हारी इच्छा पूरी हो यां ना हो|
इच्छाएं दो प्रकार की होती हैं – शारीरिक स्तर से और मानसिक स्तर से|
शारीरिक स्तर पर इच्छाएं भोजन, जल, वातावरण, तुम्हारे संगति, और उम्र के कारण तुम्हारे शरीर में होने वाली रासायनिक क्रियाओं से प्रभावित होती हैं|
मानसिक स्तर पर उठने वाली इच्छाएं पिछली छापों से प्रभावित होती हैं| केवल ध्यान और प्राणायाम इसमें बदलाव ला सकता है|
खूब पढ़े-लिखे लोग भी गलतियाँ करते हैं| यह ठीक है| जो बीत गया,वह ठीक है| इसे छोडो| वर्तमान क्षण में तुम निर्दोष हो| जो स्व-आरोप ( खुद को दोषी ठहराना) में फंस जाता है, वह वही गलतियां बार-बार दोहराता है| तो इसके लिए तुम्हें भक्ति-सूत्रों को सुनना चाहिए| ईश्वर को अपनी गलतियां समर्पित कर दो| मात्र समर्पण से तुम अपनी हजारों इच्छाएं शांत कर सकते हो|
इच्छाओं का कोई अंत नहीं है| कुछ लोग, किसी अन्य से अधिक धन पाने की इच्छा में अपना जीवन धन कमाने में गुज़ार देते हैं| लोग कभी-कभी अपने उपयोग से अधिक कपड़े व जूते खरीदते रहते हैं| वहाँ संतोष नहीं है| केवल सेवा के द्वारा तुम सच्चे संतोष और आनंद का अनुभव कर सकते हो| और वह आनंद तुम्हारी इच्छाओं को कम कर देगा| लोभ का कोई अंत नहीं| इच्छाएं रखना ठीक है| इसमें कोई नुकसान नहीं है| लेकिन तुम्हें प्रसन्न रहना चाहिए| तुम्हारी प्रसन्नता, तुम्हारी किसी इच्छा की पूर्ति पर निर्भर नहीं होनी चाहिए|
हमे शांत और केंद्रित प्रवृत्ति रखनी चाहिए, सजगता रखनी चाहिए और यम-नियम (जीवन के निर्देशक सिद्धांत) से रहना चाहिए| अपने जीवन में जहाँ तक हो सके उन्हें अपनाओ। किसी चीज़ की अति मत करो| कहा गया है-’अहिंसा परमोधर्म’-हिंसा न करना सबसे बड़ा धर्म है| जब तुम बोलते हो- बहुत से जीवाणु मर जाते है, इसीलिये कुछ लोग अपने मुंह को हमेशा ढके रखते हैं| इतनी दूर तक जाने की आवश्यकता नहीं है| जितना अधिक तुम यम-नियम का पालन करोगे, उतना ही अधिक तुम चमकोगे| जीवन में तुम्हारी रूचि और आकर्षण इन नियमों की ओर होना चाहिए| हिंसा दिमाग में शुरू होती है| हिंसा का मूल कारण तृष्णा और घृणा है| इनको स्वतः मन में खत्म किया जा सकता है| अपने जीवन में इस ज्ञान को इस तरह अपनाओ कि तुम्हारा जीवन स्वतः ज्ञान हो जाए| और यह केवल ध्यान से संभव हो सकता है| केवल
ध्यान से ही तुम्हारे अंदर सच्चे ज्ञान का उदय हो सकता है| और तब तुम विश्व को नए आयामों में देखोगे|
प्रश्न : प्रिय गुरु जी, मैं ईश्वर के साथ एकाकार कब हो सकता हूँ?
श्री श्री रविशंकर : लहर समुद्र से कब मिलेगी ? मेरे प्यारे, लहर कहाँ है? यदि तुम अशांति और कामना को महसूस करते हो, तो तुम भाग्यवान हो| तुम्हारी आतंरिक यात्रा शुरू हो चुकी है| सेवा,साधना और सत्संग करो| वे तुम्हें अशांति से मुक्ति दिलायेंगे और तुम्हें प्रेम के स्रोत में डुबो देंगे|
© The Art of Living Foundation For Global Spirituality
ग्रामीण महाराष्ट्र के सैकड़ों युवाचार्यों और एक विशेष एडवांस कोर्स के ७३० सहभागी सत्संग
में थे | सत्संग में गहन ज्ञान से परिपूर्ण एक गीत गाया जाता है | गुरु जी इस गीत
के कुछ अंशों पर वार्ता की| फिर वह कहते हैं :
संगीत समझने के लिए नहीं, आनंदित होने के लिए है | यदि जो कहा जा रहा है तुम नहीं समझ पा रहे हो, तो पूरी वार्ता को संगीत की तरह सुनो| महाराष्ट्र के सभी युवाओं के लिए, मैं हिंदी में कुछ शब्द कहना चाहूंगा| तुम सभी ने बहुत अच्छा काम किया है |
जीवन में हम कुछ चीजें पसंद करते है और कुछ नहीं | किसी वस्तु के लिए पसंद और नापसंद केवल तभी उठती है जब हम उसके बारे में कुछ जानते हैं| यदि हम नहीं जानते, तो रूचि-अरुचि हो ही नहीं सकती | मोह (लगाव), राग (लालसा) और इच्छाएं उन्हीं के लिए उठती है, जिन्हें हम जानते हैं | अरुचि और घृणा भी उन्हीं के लिए उठती हैं, जिन्हें हम जानते हैं|
इस विश्व के बारे में हम कितना जानते हैं? इस सृष्टि के आकार की तुलना में हमारा ज्ञान सरसों के बीज के आकार से भी कम है| फिर भी हम केवल कुछ चीज़ों को पसंद करते हैं और उन्हीं में फंसे रहते हैं| तो, अब हम उन चीज़ों के बारे में बात करते हैं, जिनके बारे में हम नहीं
जानते – जो अज्ञात है|
श्री श्री रविशंकर : तुम कितनी बार जन्म ले चुके हो ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : तुम कितनी बार और जन्म लोगे ?
श्रोता: नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : ब्रह्मांड में पृथ्वी के समान कितने ग्रह हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : ब्रह्मांड में कितने तारे (नक्षत्र) हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : इस ग्रह पर कितने जीव हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : तुम्हारे द्वारा ली गयी प्रत्येक श्वास में कितने
परमाणु होते हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
श्री श्री रविशंकर : इस पृथ्वी पर एक मुट्ठी में कितने परमाणु हैं ?
श्रोता : नहीं मालूम |
हम कुछ नहीं जानते | (सब श्रोता हंसते हैं)
क्या तुम देख रहे हो कि हम जो नहीं जानते उसमें कितने प्रसन्न हैं? अंग्रेज़ी मैं
एक कहावत है, जिसका अर्थ है –’अज्ञानता वरदान है’ |
हम एक पृथ्वी को जानते हैं। कहते हैं कि इस तरह की १४ पृथ्वी हैं, पर हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते| प्रेम, जिसे हम नहीं जानते, श्रद्धा या विश्वास कहलाता है| क्या हम ईश्वर को जानते हैं? क्या बच्चा माँ को जानने की कोशिश करता है? वह बस उसे प्यार करता है और उसमें विश्वास रखता है। क्या वह इसकी जांच करता है कि वह किस स्कूल में गयी या कौन सी डिग्री (उपाधि) पायी| बच्चा तो तीन-चार साल तक अपनी माँ का नाम भी नहीं जानता| तुम इस सृष्टि की सन्तान हो| तुम इसके बारे में कुछ भी नहीं जानते। फिर भी तुम विश्वास कर सकते हो|
शरणु विश्वमात्मादलि मंकुतिम्मा........(कन्नड़ भजन की पहली पंक्ति)
विश्वात्मा- विश्व संसार है, आत्मा चेतना है| विश्वात्मा शाश्वत चेतना है| क्या तुम अपने जीवन के बारे में जानते हो? तुम तो यह भी नहीं जानते कि तुम कौन हो?तुम अपनी नींद या स्वप्नों के बारे में नहीं जानते – स्वप्न क्यों आते हैं, हम नहीं जानते|
अहंकार तब आता है जब तुम सोचते हो कि तुम कुछ जानते हो| तुम निर्हंकारी (अहंकार से मुक्त) हो सकते हो, जब तुम्हारा मन शांत होता है और तुम जानते हो कि तुम कुछ नहीं जानते| जब तुम मंदिर जाते हो, तुम नहीं जानते कि पुजारी क्या कर रहा है या कौन सा मंत्र पढ़ रहा है, पर तुम्हें विश्वास होता है कि कुछ भला ही होगा| गांवों में लोगों में बहुत विश्वास होता है| तुम डॉक्टर से दवा लेते हो, पर तुम नहीं जानते कि यह कैसे काम करती है| यदि तुम जानने का प्रयास करो कि तुम्हारा भोजन कैसे पचता है तो तुम आश्चर्य-चकित हो जाओगे| भोजन को सिर्फ पचाने के लिए कितना काम ज़रूरी होता है| इसे मुख में रखकर चबाना, इसमें लार मिश्रित करना, निगलना, फिर भोजन का पेट के सभी रास्तों से होकर गुजरना, जठराग्नि और पाक~रसों का इस पर कार्य करना, फिर समान्गीकरण के लिए बड़ी आंत में घूमना आदि-आदि| कितना कुछ होता है!! हम सब भोजन को मुंह में रखना जानते हैं| इसके बाद हम नहीं जानते कि क्या होता है| जो हम जानते हैं-उसका महत्व है,पर जो हम नहीं जानते-उसका और अधिक महत्व है| इस पूरी सृष्टि के बारे में हर चीज़ जानना संभव नहीं है| पुराणों में एक कथा है| ब्रह्मा (बनाने वाले) और विष्णु (पालन करने वाले) ने शिव (संहारक/रूपांतरक शक्ति) के बारे में जानना चाहा| शिव आदि या अंत से परे अनंत हैं| तो ब्रह्मा, शिव के सिर और विष्णु, उनके पैरों की खोज के लिए चल पड़े| वे युगों तक चलते रहे, पर शिव के आदि यां अंत में से किसी का पता नहीं लगा सके| उन्होंने वापिस लौटने का निर्णय लिया| अपने लौटने के मार्ग पर ब्रह्मा ने एक केतकी का फूल गिरते हुए देखा और उससे पूछा कि वह कहाँ से आ रहा है| फूल ने उत्तर दिया कि वह शिव के सिर का श्रृंगार था| फूल के वचनों को सच मानते हुए ब्रह्मा ने सोंच लिया कि उन्होंने शिव के सिर को देख लिया और यही विष्णु को बता दिया| विष्णु ने कहा कि वह शिव के पैरों को नहीं पा सके| यह ब्रह्माण्ड अनंत विस्तार (अनंत फैलाव का) है| इस अनंत ब्रह्माण्ड में व्याप्त चेतना भी अनंत और अज्ञेय ( जिसे जान नहीं सकते) है|यह केवल चाहने(प्रेम करने) योग्य है|
ईश्वर को जानने की चेष्टा न करो| ईश्वर, जिसे जाना नहीं जा सकता, उससे बस प्रेम करो| यही श्रद्धा है| जब तुम ध्यान करते हो और अन्य लोगों के इतने अच्छे अनुभवों के बारे में सुनते हो, तो तुम सोचने लगते हो, "मेरी क्या स्थिति है?" । इसमें मत फंसो| यह जानो कि ईश्वर को जाना नहीं जा सकता। "मैं कुछ नहीं जानता" - यह ध्यान का मूल है। पर इसका गलत प्रयोग मत करो| यदि कोई तुमसे पूछता है कि तुम कहाँ से आ रहे हो या कहाँ जा रहे हो या क्या समय है, तो यह मत कहो कि "मैं नहीं जानता"| यह ठीक नहीं है|जब तुम ध्यान में बैठो, तब इसका उपयोग करो|
यदि हम रूचि या अरुचि में फंस जाते हैं, तो जीवन सीमित हो जाता है| सीमित होने में आनंद नहीं है|
नाल्पे सुकमस्ती- तुच्छ चीज़ों में आनंद नहीं|
योवाई भूमा सुकम – विस्तार में,विशालता में आनंद है|
जब तुम आनंद में होते हो, तुम्हारी चेतना का विस्तार होता है और जब तुम पीड़ा या दुःख में होते हो, तुम्हारी चेतना संकुचित होती है।
वृत्ति तन मौअवाहुदु मंकुत्तिमा.. (कन्नड़ भजन की दूसरी पंक्ति)
यह पंक्ति गाते हुए कवि ने वृत्तियों की दैवी चेतना में विलयन की अनुभूति की है| वृत्ति, विश्वात्मा में घुल जाती है| जब तुम अनजानेपन के क्षेत्र में होते हो तो मन शांत और केंद्रित हो जाता है| जिसे तुम नहीं जानते, उसके बारे में नहीं सोच सकते| तो स्वीकृति भावनाओं के स्तर पर होती है|
सोचने के लिए तुम्हे उसके बारे में कुछ जानने की ज़रुरत है। निर्विचार, आत्मज्ञान का मूल है|
श्रृद्धा या विश्वास अंधा नहीं होना चाहिए| इसीलिए हम साधना करते हैं| विश्लेषण और तार्किक विचार दिन-प्रतिदिन के कार्य-कलापों के लिए आवश्यक होते हैं| परंतु वे ध्यान के लिए नहीं चाहिए|
नाद और वेद दोनों आवश्यक हैं| वेद प्राचीन ज्ञान है| नाद संगीत है जो तुम्हे ज्ञात से परे ले जाता है| श्रृद्धा दोनों को बड़ाती है| यह शांत चेतना का आकाश है| साधारणतः जब कुछ नहीं जानते या नहीं जान पाते हैं, तो हम चिड़ते हैं या क्रोधित हो जाते हैं| परन्तु यह ’न जानना’ बहुत सुंदर है| जब यह ’न जानना’ आ जाता है, तो मन स्थिर और शांत हो जाता है| यह ध्यान का क्षेत्र है और मौन इसका मार्ग है|
प्रश्न : गुरु जी,हम सभी सही और गलत जानते हैं, फिर भी हम गलत चीज़ें क्यों करते हैं? ऐसा क्यों होता है?
श्री श्री रविशंकर : केवल कुछ चीज़ें हमें गलत करने को प्रेरित कराती हैं :
क्रोध – हम जानते हैं कि क्रोध हमारे लिए अच्छा नहीं है,फिर भी हम क्रोध करते हैं|
काम – हम जानते हैं कि यह ठीक नहीं है,फिर भी मन दौड़ता है|
लोभ – हम जानते हैं कि यह नियमानुसार गलत है,फिर भी हमारा लालच बड़ता जाता है|
बेईमानी – तुम जानते हो कि झूठ बोलना अच्छा नहीं है, फिर भी ऐसा करते हो|
क्रोध केवल निर्बलता से आता है| तुम देखोगे कि ध्यान और प्राणायाम का अभ्यास करने से यह कम हो जाता है| जब तुम निरंतर ज्ञान में
रहते हो,तुम्हारा क्रोध घट जाता है| क्रोध के पीछे इच्छा होती है| क्रोध आता है चाहे तुम्हारी इच्छा पूरी हो यां ना हो|
इच्छाएं दो प्रकार की होती हैं – शारीरिक स्तर से और मानसिक स्तर से|
शारीरिक स्तर पर इच्छाएं भोजन, जल, वातावरण, तुम्हारे संगति, और उम्र के कारण तुम्हारे शरीर में होने वाली रासायनिक क्रियाओं से प्रभावित होती हैं|
मानसिक स्तर पर उठने वाली इच्छाएं पिछली छापों से प्रभावित होती हैं| केवल ध्यान और प्राणायाम इसमें बदलाव ला सकता है|
खूब पढ़े-लिखे लोग भी गलतियाँ करते हैं| यह ठीक है| जो बीत गया,वह ठीक है| इसे छोडो| वर्तमान क्षण में तुम निर्दोष हो| जो स्व-आरोप ( खुद को दोषी ठहराना) में फंस जाता है, वह वही गलतियां बार-बार दोहराता है| तो इसके लिए तुम्हें भक्ति-सूत्रों को सुनना चाहिए| ईश्वर को अपनी गलतियां समर्पित कर दो| मात्र समर्पण से तुम अपनी हजारों इच्छाएं शांत कर सकते हो|
इच्छाओं का कोई अंत नहीं है| कुछ लोग, किसी अन्य से अधिक धन पाने की इच्छा में अपना जीवन धन कमाने में गुज़ार देते हैं| लोग कभी-कभी अपने उपयोग से अधिक कपड़े व जूते खरीदते रहते हैं| वहाँ संतोष नहीं है| केवल सेवा के द्वारा तुम सच्चे संतोष और आनंद का अनुभव कर सकते हो| और वह आनंद तुम्हारी इच्छाओं को कम कर देगा| लोभ का कोई अंत नहीं| इच्छाएं रखना ठीक है| इसमें कोई नुकसान नहीं है| लेकिन तुम्हें प्रसन्न रहना चाहिए| तुम्हारी प्रसन्नता, तुम्हारी किसी इच्छा की पूर्ति पर निर्भर नहीं होनी चाहिए|
हमे शांत और केंद्रित प्रवृत्ति रखनी चाहिए, सजगता रखनी चाहिए और यम-नियम (जीवन के निर्देशक सिद्धांत) से रहना चाहिए| अपने जीवन में जहाँ तक हो सके उन्हें अपनाओ। किसी चीज़ की अति मत करो| कहा गया है-’अहिंसा परमोधर्म’-हिंसा न करना सबसे बड़ा धर्म है| जब तुम बोलते हो- बहुत से जीवाणु मर जाते है, इसीलिये कुछ लोग अपने मुंह को हमेशा ढके रखते हैं| इतनी दूर तक जाने की आवश्यकता नहीं है| जितना अधिक तुम यम-नियम का पालन करोगे, उतना ही अधिक तुम चमकोगे| जीवन में तुम्हारी रूचि और आकर्षण इन नियमों की ओर होना चाहिए| हिंसा दिमाग में शुरू होती है| हिंसा का मूल कारण तृष्णा और घृणा है| इनको स्वतः मन में खत्म किया जा सकता है| अपने जीवन में इस ज्ञान को इस तरह अपनाओ कि तुम्हारा जीवन स्वतः ज्ञान हो जाए| और यह केवल ध्यान से संभव हो सकता है| केवल
ध्यान से ही तुम्हारे अंदर सच्चे ज्ञान का उदय हो सकता है| और तब तुम विश्व को नए आयामों में देखोगे|
प्रश्न : प्रिय गुरु जी, मैं ईश्वर के साथ एकाकार कब हो सकता हूँ?
श्री श्री रविशंकर : लहर समुद्र से कब मिलेगी ? मेरे प्यारे, लहर कहाँ है? यदि तुम अशांति और कामना को महसूस करते हो, तो तुम भाग्यवान हो| तुम्हारी आतंरिक यात्रा शुरू हो चुकी है| सेवा,साधना और सत्संग करो| वे तुम्हें अशांति से मुक्ति दिलायेंगे और तुम्हें प्रेम के स्रोत में डुबो देंगे|
© The Art of Living Foundation For Global Spirituality
"केवल आध्यात्म और ज्ञान तुम्हारे जीवन को आकर्षक बना सकता है"
बैंगलोर आश्रम, १० नवंबर २००९
प्रश्न : गुरुजी, आप कहां गये थे और वहां आपने क्या किया?
श्री श्री : मैं जहाँ भी जाता हूं सत्संग होता है, उत्सव होता है।
प्रश्न : पिछले चार सालों से मैं एक लड़की से प्यार करता हूँ। हाल ही में एक गलतफ़हमी की वजह से उसने मुझसे रिश्ता तोड़ दिया है। मैं उसके साथ विवाह करना चाहता हूँ, पर मैं नही जानता कि इसके लिये क्या करूँ।
श्री श्री : जब तुम किसी इच्छा की पूर्ति के लिये बेचैन होते हो तो तुम्हारा मन उत्तेजित हो जाता है। तुम्हारा व्यक्तित्व का आकर्षण कम हो जाता है। तुम्हें अपने भीतर की गहराई में जाना होगा। तुम्हें शांत और केन्द्रित होना होगा।तुम्हें अपने आप को खुश, आकर्षक, मज़बूत और सूक्ष्म बनाना है। किसी दुखी व्यक्ति के साथ कौन रहना चाहता है? पहले अपने दुख से छुटकारा पाओ।
जो बीत गया उसे जाने दो। बीते हुये जीवन से शिक्षा लो और आगे बढ़ो। तुम्हें मज़बूत, सौम्य और शांत बनना है।
जब तुम ध्यान, प्राणायाम, सुदर्शन क्रिया और योगासन करते हो, तो तुम तुरंत ही फ़र्क देखोगे। जब फ़र्क आयेगा तो तुम पाओगे कि तुम्हारी इच्छायें पूरी होने लगी हैं।
जब तुम किसी इच्छा की पूर्ति के लिये बहुत बेचैन होते हो, तो दो ही विकल्प रहते हैं – आत्महत्या या योग में विश्राम। केवल आध्यात्म और ज्ञान ही तुम्हारे जीवन में आकर्षण ला सकता है। एक योगी ऐसा व्यक्ति होता है जो अपनी इच्छायें तो पूरी कर सकता है, औरों की इच्छायें भी पूरी कर सकता है।
प्रश्न : गुरुजी, मैं समझना चाहता हूँ कि लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद हमें अपनी आंखें, शरीर के अंग, इत्यादि दान कर देने चाहिये। हम कैसे दान कर सकते हैं, जब ये शरीर ही हमारा नहीं है?
श्री श्री : अपनी आंखों या शरीर के अंगों का दान देना ठीक है। ये जानो कि जब तुम नहीं रहोगे, तो ये शरीर तुम्हारा नहीं रहेगा। तुम्हें पता है, विदेशों में लोग ये भी तय कर लेते हैं कि वो मरने के समय क्या कपड़े पहनेंगे, कहाँ दफ़नाये जायेंगे। वे अपने शरीर से बहुत आसक्त रहते हैं। ऐसी सोच भय को जन्म देती है। तुम क्या दान दे रहे हो ये महत्व नहीं रखता क्योंकि वो तुम्हारा है ही नहीं। तो, इसके बारे में इतना सोचने की और चिंता करने की ज़रूरत नहीं है।
प्रश्न : गुरुजी, कभी कभी ध्यान करने में मुश्किल होती है। मुझे क्या करना चाहिए?
श्री श्री : कभी कभी तुम्हें लगता है कि तुम्हारे मन में बहुत सारे विचार आ रहे हैं। अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा मन शांत हो, तो तुम्हें अभ्यास और वैराग्य करना होगा। अभ्यास और वैराग्य से तुम ध्यान कर पाओगे। मन अगर ज़रुरत से ज़्यादा महत्वाकांक्षी हो तो भी मन में ज़्वरता रहती है। रोज़ १५-२० मिनट ज्ञान सुनो और फिर साधना का अभ्यास करो, तुम पाओगे तुम सहज ही ध्यान हो रहा है।
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प्रश्न : गुरुजी, आप कहां गये थे और वहां आपने क्या किया?
श्री श्री : मैं जहाँ भी जाता हूं सत्संग होता है, उत्सव होता है।
प्रश्न : पिछले चार सालों से मैं एक लड़की से प्यार करता हूँ। हाल ही में एक गलतफ़हमी की वजह से उसने मुझसे रिश्ता तोड़ दिया है। मैं उसके साथ विवाह करना चाहता हूँ, पर मैं नही जानता कि इसके लिये क्या करूँ।
श्री श्री : जब तुम किसी इच्छा की पूर्ति के लिये बेचैन होते हो तो तुम्हारा मन उत्तेजित हो जाता है। तुम्हारा व्यक्तित्व का आकर्षण कम हो जाता है। तुम्हें अपने भीतर की गहराई में जाना होगा। तुम्हें शांत और केन्द्रित होना होगा।तुम्हें अपने आप को खुश, आकर्षक, मज़बूत और सूक्ष्म बनाना है। किसी दुखी व्यक्ति के साथ कौन रहना चाहता है? पहले अपने दुख से छुटकारा पाओ।
जो बीत गया उसे जाने दो। बीते हुये जीवन से शिक्षा लो और आगे बढ़ो। तुम्हें मज़बूत, सौम्य और शांत बनना है।
जब तुम ध्यान, प्राणायाम, सुदर्शन क्रिया और योगासन करते हो, तो तुम तुरंत ही फ़र्क देखोगे। जब फ़र्क आयेगा तो तुम पाओगे कि तुम्हारी इच्छायें पूरी होने लगी हैं।
जब तुम किसी इच्छा की पूर्ति के लिये बहुत बेचैन होते हो, तो दो ही विकल्प रहते हैं – आत्महत्या या योग में विश्राम। केवल आध्यात्म और ज्ञान ही तुम्हारे जीवन में आकर्षण ला सकता है। एक योगी ऐसा व्यक्ति होता है जो अपनी इच्छायें तो पूरी कर सकता है, औरों की इच्छायें भी पूरी कर सकता है।
प्रश्न : गुरुजी, मैं समझना चाहता हूँ कि लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद हमें अपनी आंखें, शरीर के अंग, इत्यादि दान कर देने चाहिये। हम कैसे दान कर सकते हैं, जब ये शरीर ही हमारा नहीं है?
श्री श्री : अपनी आंखों या शरीर के अंगों का दान देना ठीक है। ये जानो कि जब तुम नहीं रहोगे, तो ये शरीर तुम्हारा नहीं रहेगा। तुम्हें पता है, विदेशों में लोग ये भी तय कर लेते हैं कि वो मरने के समय क्या कपड़े पहनेंगे, कहाँ दफ़नाये जायेंगे। वे अपने शरीर से बहुत आसक्त रहते हैं। ऐसी सोच भय को जन्म देती है। तुम क्या दान दे रहे हो ये महत्व नहीं रखता क्योंकि वो तुम्हारा है ही नहीं। तो, इसके बारे में इतना सोचने की और चिंता करने की ज़रूरत नहीं है।
प्रश्न : गुरुजी, कभी कभी ध्यान करने में मुश्किल होती है। मुझे क्या करना चाहिए?
श्री श्री : कभी कभी तुम्हें लगता है कि तुम्हारे मन में बहुत सारे विचार आ रहे हैं। अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा मन शांत हो, तो तुम्हें अभ्यास और वैराग्य करना होगा। अभ्यास और वैराग्य से तुम ध्यान कर पाओगे। मन अगर ज़रुरत से ज़्यादा महत्वाकांक्षी हो तो भी मन में ज़्वरता रहती है। रोज़ १५-२० मिनट ज्ञान सुनो और फिर साधना का अभ्यास करो, तुम पाओगे तुम सहज ही ध्यान हो रहा है।
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प्रत्येक संकट तुम्हें सजग करता है कि सबकुछ अस्थायी है
बैंगलोर आश्रम, भारत
प्रश्न : गुरु जी, आजकल बहुत पति - पत्नि अलग हो रहे हैं । ऐसा क्यों है?
श्री श्री : जब लोग अपने निजी तनाव और नकारात्मक भावों के साथ समझौता नहीं कर पाते, वे अपने सबसे नज़दीकी लोगों पर आरोप लगाते हैं, साधारणतः पति या पत्नी। यदि एक का मन शांत है और भाव संयत है, तो वहाँ प्रेम और समझ हो सकती है,जो किसी भी वैवाहिक सम्बन्ध के लिए ज़रूरी है।
प्रश्न : समर्पण के साथ तृष्णा (चाह) का संतुलन कैसे करें?
श्री श्री : चाह स्वतः उत्पन्न हो जाती है। इस पर आपका कोई नियंत्रण नहीं है। यह आपकी आज्ञा नहीं लेती। इसे किसी प्रवेश-पत्र की आवश्यकता नहीं होती। तो, बस कहो, जैसा ईश्वर चाहे वैसा हो जाए।
प्रश्न : क्षेत्रों को ब्लेस कैसे करें (आशीर्वाद कैसे दें)जैसे-महामारी से प्रभावित क्षेत्र?
श्री श्री : प्रत्येक क्षेत्र ब्लेस्ड (आशीष-प्राप्त) है। प्रत्येक क्षेत्र ईश्वर का है।
प्रश्न : गुरु जी, महामारी से पीड़ित लोगों से हम क्या कहें?
श्री श्री : उनसे कहो कि वे अपनी सारी चिंताएं मुझे सौंप दें। देवी-आपदा और महामारी में भी कुछ अच्छा निहित है। वे लोगों को एक-साथ लाती है। प्रत्येक विनाश के बाद नव-निर्माण होता है। कुछ भी स्थाई नहीं है। प्रत्येक
संकट में एक अवसर है। प्रत्येक संकट तुम्हें मुस्कराने की याद दिलाता है, सबकुछ अस्थायी है - इसके प्रति सजग करता है।
तो बैठने और दोषारोपण के बजाय देखो कि हम कैसे आगे बढ़ सकते हैं, पुनर्निर्माण तथा दूसरों की सहायता कर सकते हैं।
प्रश्न : गुरु जी, ॐ नमः शिवाय का क्या अर्थ है? मंत्रोच्चारण से क्या होता है?
श्री श्री :ॐ जीवनी-शक्ति है। ध्वनि ऊर्जा है। जब पूरे दिल से ध्वनि की जाती है, तो इसका बहुत सकारात्मक प्रभाव होता है। नमः शिवाय में पांच तत्त्व हैं – न - मः – शि - वा – य : पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश।
प्रश्न : गुरु जी, आप हमेशा इतने लोगों से घिरे रहते हो, आप अपनी शक्तियों को कैसे संतुलित रखते हो?
श्री श्री : वे स्वयं संतुलित होती हैं ! जो मेरी प्रकृति में नहीं है, मैं वैसा कुछ नहीं करता। जैसे हवा चलती रहती है, कभी थकती नहीं क्योंकि यह उसकी प्रकृति है।
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प्रश्न : गुरु जी, आजकल बहुत पति - पत्नि अलग हो रहे हैं । ऐसा क्यों है?
श्री श्री : जब लोग अपने निजी तनाव और नकारात्मक भावों के साथ समझौता नहीं कर पाते, वे अपने सबसे नज़दीकी लोगों पर आरोप लगाते हैं, साधारणतः पति या पत्नी। यदि एक का मन शांत है और भाव संयत है, तो वहाँ प्रेम और समझ हो सकती है,जो किसी भी वैवाहिक सम्बन्ध के लिए ज़रूरी है।
प्रश्न : समर्पण के साथ तृष्णा (चाह) का संतुलन कैसे करें?
श्री श्री : चाह स्वतः उत्पन्न हो जाती है। इस पर आपका कोई नियंत्रण नहीं है। यह आपकी आज्ञा नहीं लेती। इसे किसी प्रवेश-पत्र की आवश्यकता नहीं होती। तो, बस कहो, जैसा ईश्वर चाहे वैसा हो जाए।
प्रश्न : क्षेत्रों को ब्लेस कैसे करें (आशीर्वाद कैसे दें)जैसे-महामारी से प्रभावित क्षेत्र?
श्री श्री : प्रत्येक क्षेत्र ब्लेस्ड (आशीष-प्राप्त) है। प्रत्येक क्षेत्र ईश्वर का है।
प्रश्न : गुरु जी, महामारी से पीड़ित लोगों से हम क्या कहें?
श्री श्री : उनसे कहो कि वे अपनी सारी चिंताएं मुझे सौंप दें। देवी-आपदा और महामारी में भी कुछ अच्छा निहित है। वे लोगों को एक-साथ लाती है। प्रत्येक विनाश के बाद नव-निर्माण होता है। कुछ भी स्थाई नहीं है। प्रत्येक
संकट में एक अवसर है। प्रत्येक संकट तुम्हें मुस्कराने की याद दिलाता है, सबकुछ अस्थायी है - इसके प्रति सजग करता है।
तो बैठने और दोषारोपण के बजाय देखो कि हम कैसे आगे बढ़ सकते हैं, पुनर्निर्माण तथा दूसरों की सहायता कर सकते हैं।
प्रश्न : गुरु जी, ॐ नमः शिवाय का क्या अर्थ है? मंत्रोच्चारण से क्या होता है?
श्री श्री :ॐ जीवनी-शक्ति है। ध्वनि ऊर्जा है। जब पूरे दिल से ध्वनि की जाती है, तो इसका बहुत सकारात्मक प्रभाव होता है। नमः शिवाय में पांच तत्त्व हैं – न - मः – शि - वा – य : पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश।
प्रश्न : गुरु जी, आप हमेशा इतने लोगों से घिरे रहते हो, आप अपनी शक्तियों को कैसे संतुलित रखते हो?
श्री श्री : वे स्वयं संतुलित होती हैं ! जो मेरी प्रकृति में नहीं है, मैं वैसा कुछ नहीं करता। जैसे हवा चलती रहती है, कभी थकती नहीं क्योंकि यह उसकी प्रकृति है।
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