५
२०१३
फरबरी
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बैंगलुरु आश्रम, भारत
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प्रश्न : ईश्वर
सर्वव्यापक हैं और किसी को गुरु के साथ गहरे नाते की अनुभूति होती है, तो क्या फिर
भी मंदिर जाने की आवश्यकता है ? रीति रिवाज़ों का क्या महत्त्व है ?
श्री श्री
रविशंकर :
देखिये, आपको किसी भी मंदिर, मस्जिद अथवा चर्च में जाने की आवश्यकता नहीं है ।
जहाँ भी आप हैं, बैठ जायें और ध्यान करें, वहीं आप को ईश्वर दिखाई देंगे । परंतु
जीवन में रीति रिवाज़ों का होना भी अच्छा है । बहुत ज्यादा नहीं, बस थोड़ा सा ही ।
रीति रिवाज़ों
के बिना जीवन थोड़ा रूखा और एक रस हो जाता है । रीति रिवाज़ ही हैं, जो जीवन में कुछ
स्वाद, कुछ मस्ती, कुछ रंग भर देते हैं । इसलिये मैं कहूँगा कि, हमें समय समय पर
कुछ रीति रिवाज़ों को शामिल करते रहना चाहिये; यह अच्छा है ।
देखिये, किसी
ऐसे घर में जायें जहाँ बिल्कुल भी रीति- रिवाज़ न निभाये जाते हों , और फिर ऐसे घर
में जायें जहाँ हर दिन दिया जलाया जाता है, अगरबत्ती जलाई जाती है, और जहाँ
शुद्धता हो; तो दोनों के वातावरण में अंतर होता है । आप में से कितने लोगों ने यह
अनुभव किया है ?
कुछ अंतर होता
है। यह एक तरह के वातावरण का निर्माण करता है । सूक्ष्म भी वहां जीवंत हो जाता है
। ऐसा ही है न ?
इसलिये
रोज़मर्रा के जीवन में थोड़े से रीति रिवाज़ अच्छे रहते हैं । प्रात: जब आप उठते हैं,
तो बैठ जायें और ध्यान करें । हाँ, आपको ध्यान के साथ प्राणायाम भी अवश्य करना है
।
चाहे घर का एक
सदस्य ही घर में कहीं दिया जलाये: हरेक को ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है , घर का
एक सदस्य ही दीपक जलाता है तो यह सारे वातावरण को जीवंत कर देता है । मैंने
व्यवहारिक रूप से यही देखा है । मैं कितने ही घरों में गया हूँ : छोटे, बड़े, झोंपड़े,
बंगले और सब जगह, मैंने एक बात अवश्य देखी है , यहाँ तक कि एक छोटी झोंपड़ी में भी
,उन्होंने एक छोटा सा आला बना रखा है और उसमें मोमबत्ती या कुछ और रख रखा है; और
सारे वातावरण में इसका प्रभाव है, कुछ अच्छा सा ।
यदि किसी ऐसे
घर में आप जायें, जहाँ कुछ नहीं है, पवित्रता का कोई भी प्रतीक या दिया आदि नहीं जलाया
जाता, वहाँ एक प्रकार की नीरसता की अनुभूति होती है ।
मैंने ऐसा
देखा है । इसीलिये मैं कहूँगा कि, घर में आले का होना, थोड़ी रीतियों का होना
आवश्यक है । घर में कोई एक ऐसा कर सकता है; घर की स्त्री या पुरुष कोई भी । बच्चों
के लिये भी यह देखना ठीक है कि उन्हें भी धर्म या अध्यात्म के स्वाद को ग्रहण करने
के लिये कुछ करना चाहिये ।
इस देश में
आपको ऐसा बसों में भी मिल जायेगा । हर बस, टैक्सी, कार, रिक्शा का चालक सुबह सब से
पहले एक छोटा फूल रख कर या अगरबत्ती जला कर सिर झुकाता है और यह छोटी सी चीज़ उनके
जीवन में गुणकारी परिवर्तन लाती है । भारत में दुकानों और होटलों में भी दीपक रखने
का आला बना रहता है ।
आप उनसे पूछ
सकते हैं कि “आप ऐसा क्यों करते हैं?” शायद कोई इस पर शोध भी कर सकता है ।
यह उन्हें एक
प्रकार का मानसिक बल प्रदान करता है । एक प्रकार से यह वातावरण को जीवंत बनाता है
। मुझे ऐसा ही लगता है । भारत में, सरकारी दफ्तरों में भी ऐसा किया जाता है । अपने
दफ्तर में हर अफसर ने दिया जलाने का स्थान बना रखा होता है ।
कर्नाटक में
तो यह कुछ ज्यादा ही है । यदि मुख्यमंत्री को शपथ लेनी होती है , या फिर नये दफ्तर
में जाना होता है, तो वह वहाँ एक सम्पूर्ण पूजा या और सब का आयोजन किया जाता है ।
विश्व भर में
ऐसा ही है । यू एस की सीनेट में और कनाडा के सदन में, हर रोज़ प्रार्थना का समय
होता है । हर सदन के लिये एक पादरी है, जो आता है और पवित्र बाइबल का पाठ करता है
। केवल भारत में ही हम धर्म निरपेक्षता और धर्म निरपेक्षता की बात करते हैं । यह
एक प्रकार की बीमारी है जिस से कि हम स्वयं को सारी समझ, ज्ञान और प्राचीन
परम्पराओं से दूर रखने का प्रयत्न करते हैं । लोग ऐसा करने का प्रयत्न तो करते
हैं, परंतु ऐसा होता नहीं है । यह हर एक में इतने गहरे से धँसा है ।
प्रश्न : गुरुदेव,
किसी भी प्रकार के अन्याय से निपटने का सर्वोत्तम तरीका क्या है ?
श्री श्री
रविशंकर :
कभी कभी आप जिसे अन्याय समझते हैं वो दूसरे की दृष्टि में अन्याय नहीं होता । हो
सकता है कि यह अन्याय हो ही न ।
आपको अन्याय
के खिलाफ खड़ा होने की आवश्यकता है, परंतु बुद्धिमत्ता और जागरुकता के साथ, क्योंकि
हर कोई जो गुस्सा या परेशान होता है, हमेशा कहता है, “मैं अन्याय सह रहा हूँ ।”
गुस्से की आग
के पीछे, न्याय के लिये पुकार होती है, या न्याय की गुहार होती है। परंतु, जब आप
विश्लेषण करते हैं, इसकी गहराई में जाते हैं, तो इसको बिल्कुल भी सही नहीं पाते। यह
बिल्कुल भी ठीक नहीं होता ।
इसलिये, मैं
कहूँगा कि,पहले आपको शांत दिमाग से विश्लेषण करना चाहिये, और फिर अन्याय के खिलाफ
खड़े होना चाहिये ।
प्रश्न : गुरुदेव,
यह कहा गया है कि अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ने के लिये ब्रह्मचर्य एक महत्त्वपूर्ण
अंग है । ब्रह्मचर्य को मन में कैसे लाया जाये ? क्या यह केवल शारीरिक है या
मानसिक अधिक है?
श्री श्री
रविशंकर :
दोनों ही है । ब्रह्मचर्य का पालन हो जाता है , इसे आप स्वयं पर थोप नहीं सकते । देखिये,
जब परीक्षा के दिन होते हैं और आप परीक्षा के लिये पढ़ रहे होते हैं , उन दिनों ,
सभी विद्यार्थी अपरिहार्य रूप से यह कहते हैं, “हमें सेक्स के विषय में कोई विचार नहीं आते । हम
परीक्षा में इतने व्यस्त होते हैं ।”
इसी प्रकार जब
आपको कोई अति महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट पूरा करना होता है और आप बहुत मेहनत कर रहे
होते हैं, तो भी ब्रह्मचर्य का पालन स्वयं ही हो जाता है ।
ऐसे ही ध्यान
के द्वारा; जब आपके भीतर ऊर्जा जागृत होती है तो आपको ऐसे परमांनद, रोमांच व
हर्षातिरेक की प्राप्ति होती है कि ब्रह्मचर्य का पालन स्वयं ही होने लग जाता है ।
वास्तव में, ऊपरी तौर पर यह पीड़ादायी है ।ब्रह्मचर्य मन के भीतर की ओर जाने का ही
परिणाम है । जब आप देखते हैं कि ये सब कुछ नहीं है ; कोई भी चीज़ कुछ भी नहीं है ।
यदि कुछ हो भी रहा है तो यह ऊपरी स्तर पर ही हो रहा है । ऊपरी स्तर से सम्बन्धित
होने के कारण सभी क्रियायें हैं लगभग अप्रासंगिक हो जाती हैं, और यहीं पर
ब्रह्मचर्य का पालन शुरु हो जाता है ।
इसका अर्थ यह
नहीं है कि आप यह कहें कि , ‘ओह, जब ऐसा होगा तब होगा ।
तब तक ऐसे ही चलने दो’। नहीं !
मध्य पूर्व के
एक प्रोफेसर ने बहुत ही दिलचस्प बात कही है । उसने कहा कि शरीर का हर द्रव्य
मस्तिषक के द्रव्य से जुड़ा है, और किसी भी द्रव्य के नष्ट होने पर मस्तिष्क का
द्रव्य 20% तक कम हो जाता है । यह एक बहुत बड़ा शोध कार्य है, जोकि वे लोग कर रहे
हैं ।
तो इसीलिये,
पहले समय में लोग यह कहते थे कि यदि आप विद्यार्थी हैं और आप को दिमागी काम करना
पड़ता है, तो आप को ब्रह्मच्र्य का पालन अवश्य करना चाहिये ।
इसलिये, पहले
पच्चीस साल में, व्यक्ति को ब्रह्मचर्य (शिक्षा का यौवनावस्था के पूर्व का वो
समय,जिसमें कि ब्रह्मचर्य को कड़ाई से अपनाना होता था) का पालन करना चाहिये।
फिर 25 से 50
साल तक आता है – गृहस्थ आश्रम । तब आप पारिवारिक
जीवन का आनंद व मज़ा ले सकते हैं, परंतु 50 के बाद नहीं ।
50 के बाद,
आपको धीरे धीरे बाहर निकलना होता है, नहीं तो यह आपके लिये लत बन जायेगी ।जब लोगों
को यह लत लग जाती है तो शरीर काम नहीं कर पाता, पर दिमाग इसी लिये उत्कण्ठित रहता
है । मन और शरीर को साथ साथ चलना चाहिये । नहीं तो, यह एक प्रकार की बीमारी, मैं
कहूँगा कि ब्युलीमिया, बन जाती है । आपका शरीर तो कहता है कि और खाना नहीं, पर, मन
कहता है, नहीं, और खाओ ।
इसी प्रकार,
70-80 साल के लोग पोर्नोग्राफी देखते हैं, चाहे वे कुछ नहीं कर सकते । यह बहुत ही
अफसोसजनक स्थिति है । यह ब्रह्मचर्य नहीं है। यह मन है जो कि होश में नहीं है ।
संयम ही
ब्रह्मचर्य कहलाता है ; संयम ब्रह्मचर्य है ।
प्रश्न : गुरुदेव,
आज जो भोजन हम खा रहे हैं, उसमें बहुत से रसायन हैं और सरकारी नीतियां इसको बढ़ावा
देती हैं । इस से कैसे निपटें ?
कृप्या जैविक
भोजन और जैविक कृषि के विषय में भी चर्चा करें ।
श्री श्री
रविशंकर :
जैविक कृषि धरती का भविष्य है । यदि हम चाहते हैं कि धरती पोषित रहे, तो हमें
जैविक होना ही पड़ेगा । कोई और रास्ता नहीं है । ऐसे लोग भी हैं, जोकि इतने लोभी और
स्वार्थी हैं कि वह पृथ्वी की चिंता नहीं करते, इसलिये वे किसानों में इन हानिकारक
पदार्थों का प्रचार करते हैं । एक या दो फसलें बहुत अच्छी आ जाती हैं और यह
किसानों को लुभाता है और वे इन्हें ले लेते हैं । एक बार वे इसका प्रयोग करते हैं
तो, तीसरी या चौथी फसल से सब खराब होने लग जाता है और यहां तक कि धरती की बेकार हो
जाती है । धरती कृषि के योग्य नहीं रहती । यही समस्या है ।
इसीलिये, हमने
किसानों को जैविक कृषि; प्राचीन समय जैसी खेती, सिखाने के लिये एक कृषि संस्थान की
स्थापना की है ।
प्राचीन समय
में, वे तीन फसलें एक साथ उगाते थे । यदि एक फसल मर भी जाती तो दो अन्य तो बनी
रहती । इसलिये लोग कभी भूखे नहीं मरते थे । वे कभी दिवालिया नहीं होते थे, और न ही
कभी घाटे में जाते थे । वे गन्ने को, किसी दाल के साथ उगाते थे और यदि एक फसल खराब
हो जाती, तो बाकि दो तो रहती ही । प्राय : तीनों फसलों की ही पैदावार हो जाती थी
और विवधता के कारण धरती में नाइट्रोजन की मात्रा अपनेआप ही बनी रहती थी । यही वो
खेती है, जिसकी ओर कि हमें वापिस जाना होगा ।
हमें “अग्निहोत्र यज्ञ” करना होगा और यह हानिकारक कीड़ों व विनाशकारी कीटों को
नियंत्रित करेगा । इसलिये आपको कीट नाशकों के छिड़काव की आवश्यकता नहीं है । फिर
प्राकृतिक कीट नाशक, जैसे कि ग़ौमूत्र, नीम के पत्ते और ऐसी बहुत सी चीज़ें भी तो
हैं ।
इसलिये हमें
इस प्रकार की खेती को ओर वापिस जाने की आवश्यकता है जोकि जल, पृथ्वी और लोगों के
स्वास्थ्य का नाश न हो ।
प्रश्न : गुरुदेव,
मैंने अपने परिवार के तीन सदस्यों को खो दिया, क्योंकि हम तीन गलत डॉक्टरों के पास
चले गये । हम चिकित्सीय सेवायों के साथ क्या गलत कर रहे हैं, और हम इन्हें कैसे
सुधार सकते हैं ?
श्री श्री
रविशंकर :
इस विषय में तो चिकित्सकों को बैठ कर चर्चा करनी होगी ।
सबसे पहले तो
मैं कहूँगा कि, चिकित्सकों को ध्यान करना चाहिये । जब वे ध्यान करेंगे, तो उनके मन
साफ होंगे और वो अपने भीतर गहरे में छिपे अंतर्ज्ञान तक पहुँच पायेंगे ।
आयुर्वैदिक
चिकित्सक ऐसा ही करते हैं । वे बस आप की नब्ज़ पकड़ते हैं और बता देते हैं कि आपको
क्या परेशानी है । ऐसा करने के लिये भी उन्हें ध्यान करना चाहिये, यह बहुत
महत्त्वपूर्ण है । अंतर्ज्ञान के भीतरी स्रोत तक पहुँचने के लिये मन का कम्पायमान
होना आवश्यक है ।
देखिये यदि
उन्हें अंतर्ज्ञान नहीं होगा तो वे अंधकार में ही तलाशते रहेंगे कि कौन सी दवा दें
। इसी कारण, चिकित्सक तो बहुत से हैं परंतु कुछ के पास ही लोगों को स्वस्थ करने की
प्रतिष्ठा है । क्यों ? ऐसा इसलिये कि उनके पास अपनी अंतर्ज्ञान की योग्यता तक
पहुँचने का और रोगी को सही दवा देने का उपहार है ।
चिकित्सकों को
ध्यान करना चाहिये और फिर शांत मन से रोग की पहचान करके दवा देनी चाहिये । हाल ही
में, मैंने एम्ज़ द्वारा किये गये एक सर्वे को पढ़ा जहाँ पर कि उन्हें पता चला कि
60% चिकित्सक स्वयं ही बीमार हैं । उनके ध्यान का विस्तार इतना कम है । इसीलिये
नर्स को ऑप्रेशन के दौरान चिकित्सक को दिये जाने वाले औज़ारों को गिन कर देना पड़ता
है और फिर वापिस लेने के बाद फिर से गिनना पड़ता है । बहुत बार वे चिमटी, चाकू या
सूइयां शरीर के अंदर ही छोड़ देते हैं और इसे सी देते हैं ।
इसलिये उन्हें
सूचि बनानी पड़ती है कि कितने औज़ार उन्होंने दिये और कितने वापिस लिये ।
इसलिये हर चिकित्सक
को कुछ समय निकाल कर विश्राम करने की आवश्यकता है, वे तनावयुक्त होने का खतरा मोल
नहीं ले सकते ।
पायलट, एयर
कंट्रोल टॉवर में काम करने वाले लोग, चिकित्सक, ये कुछ ऐसे कार्य हैं जहाँ बहुत
मात्रा में मानसिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है । उन्हें हमेशा तैयार रहना पड़ता है ।
उन्हें सदा सचेत रहना होता है । वे एक छोटी सी गलती करने का भी जोखिम नहीं उठा
सकते ।
एयर कंट्रोल टॉवर में बैठा व्यक्ति एक मिनट ले
लिये भी झपकी नहीं ले सकता, उसे बहुत ही निश्चित और सचेत रहना होता है । पर वे ऐसा
कैसे कर सकते हैं जब तक कि उनके पास मानसिक ऊर्जा या ध्यान से प्राप्त जागरुकता न
हो ? इसीलिये इन लोगों के लिये, जिन्हें कि अति दबाव और अति जोखिम में काम करना
होता है, के लिये ध्यान आवश्यक है ।
प्रश्न : गुरुदेव,
सहज रहना मुझे जीवन में कैसे सफल बना सकता है ? कृप्या विस्तार से बतायें ।
श्री श्री
रविशंकर : जैसे
कि तीर को आगे की ओर छोड़ने के लिये आपको इसे पीछे की ओर खींचना पड़ता है न ?इसी
प्रकार सहजता आपको गहन विश्राम प्रदान करती है, और यह आपको अंतर्ज्ञान,
सृजनात्मकता और ऊर्जा के स्रोत तक पहुँचने में सहायता करती है । तब आप उसमें से
बाहर आकर काम करते हैं ।
आप यह नहीं कह
सकते कि, “मैं सितार या गिटार सीखने के
लिये कोई यत्न नहीं करूँगा, पर मैं एक महान सितार वादक बनना चाहता हूँ ।” यह असम्भव है । आपको यत्न करना पड़ता है । साथ ही,
सहजता आपको यत्न करने में सहायता करती है ।
प्रश्न : क्या
हर आत्मा को एक दिन मोक्ष की प्राति होगी ? यह सृष्टि कब तक चलेगी और क्या हमें
अगले जन्म में भी कृपा की प्राप्ति होगी ?
श्री श्री
रविशंकर :
आप अपनी बात करिये । आप विश्व की सब आत्मायों के बारे में क्यों पूछ रहे हैं ? सबसे
पहले तो क्या सारी आत्मायें मोक्ष चाहती भी हैं ? वे शायद चाहती ही न हों, है न ?
जानते हैं,
कभी कभी हम ऐसे व्यापक कथन बोलते हैं और ऐसे ही व्यापक प्रश्न पूछते हैं । मुझे
बिल्कुल भी पता नहीं कि सभी आत्मायों को मोक्ष की प्राप्ति होगी या नहीं, परंतु
यदि आप इसे पाना चाहते हैं, तो हाँ, यह सम्भव है । पूरी पूरी सम्भावना है ।
आइये इसे इसी
जन्म में पूरा कर लें, मुझे अगले जन्म में भी क्यों घसीट रहे हैं?
ईश्वर हर रूप
में है । कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ ईश्वर मौजूद न हों । ईश्वर हर जगह है ।
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अपने जीवन में रंग भरिये
शांत मन में ही सारे उत्तर निहित है
९
२०१२
फरबरी
|
बैंगलुरु आश्रम, भारत
|
प्रश्न : गुरुदेव,
कृपया प्रश्न पूछने की कला के बारे में बात करें, क्योंकि कभी कभी, मुझे जो उत्तर
प्राप्त होता है, उससे मैं संतुष्ट नहीं होता, या फिर मैं उत्तर से और ज्यादा भ्रमित
हो जाता हूँ|
श्री श्री
रविशंकर : ध्यान!
जब मन बेचैन
होता है, तब फिर चाहे जो भी उत्तर हो, वह अंदर नहीं जाता| जब मन शांत होता है, तब
एक इशारा ही काफी होता है, और आप उत्तर खुद ही पहचान लेते हैं, क्योंकि आप खुद ही
तो सभी उत्तरों के स्त्रोत हैं| जब आप शांत होते हैं, तब आपके अपने भीतर से ही
सारे उत्तर आ जाते हैं| इसीलिये, विश्राम के कुछ पल आवश्यक हैं|
आप एक बेचैन
व्यक्ति को कुछ भी कहें, वह कहेगा, ‘लेकिन’| आप उन्हें कोई उत्तर दीजिए, तब भी वे कहेंगे, ‘ठीक है! लेकिन...’ और फिर वे एक विषय से दूसरा
विषय बदलते जायेंगे|
ये एक ऐसे मन
का लक्षण है, जो इतने सारे विचारों और धारणाओं से भरा हुआ है, कि नए ज्ञान और नयी
बुद्धि के प्रवेश की कोई जगह ही नहीं है|
यही बात एक
गुरु और उनके शिष्य में भी हुई थी|
एक बार एक
शिष्य अपने गुरु के पास आया, और वह कुछ प्रश्न पूछ रहा था (ठीक वैसे ही जैसे आप
पूछ रहे हैं)| वह एक के बाद एक प्रश्न पूछे जा रहा था, लेकिन गुरु उनका जो भी
उत्तर देते, वह उनसे संतुष्ट नहीं हो रहा था| तब गुरु ने कहा, कि ‘ठीक है, चलो! चाय पीते हैं|’
गुरु ने पूछा,
‘तुम्हें चाय पसंद है?’
उसने कहा, ‘हाँ’|
तो गुरु ने
शिष्य के प्याले में चाय डालनी शुरू करी| प्याला भर गया, लेकिन वे फिर भी चाय
डालते गए| चाय प्याले में से निकल कर बाहर गिरने लगी, और टेबल पर गिर गयी, फिर
ज़मीन पर|
शिष्य ने
पूछा, ‘गुरु, आप ये क्यों कर रहे हैं? प्याला
भर गया है| अब तो चाय बाहर निकल कर पूरे कालीन पर गिर रही है!’
तब गुरु
मुस्कुराये और बोले, ‘यही तो स्थिति है| तुम्हारा
प्याला भर गया है और अब इसमें कुछ भी नया लेने की जगह नहीं है, लेकिन तुम्हें और
चाहिये| पहले, अपना प्याला खाली करो, जो तुम्हारे पास है उसे पियो’|
प्राचीन
ऋषियों ने वेदों में कहा है, ‘श्रवण’, पहले सुनो, फिर ‘मनन’, यानि फिर उसके बारे में सोचो| आप कोई उत्तर सुनें और फिर
उसके बारे में सोचें| फिर उसे अपना बना लें| यह देखें कि क्या ये आपके अनुभव में
है? कोई कह रहा है, सिर्फ इसीलिये उस पर विश्वास ना करें| ये तो एक मूल बात है, को
हमें याद रखनी चाहिये|
मेरा अनुभव
अपना है, और आपका अनुभव अपना है| कुछ भी बात इसलिए मत मानिये, क्योंकि उसे मैं कह
रहा हूँ| साथ ही साथ, किसी और की बात को नकारों भी मत, आपको एक अच्छा श्रोता होना
चाहिये| सबसे पहले, ‘सुनिए’, फिर
उस पर ‘सोचिये’| फिर उसे अपना खुद का अनुभव बना लीजिए| तब वह ज्ञान बन जाता
है| ज्ञान तब बुद्धिमत्ता बन जाती है – श्रवण, मनन, निधिध्यासन|
गीता के सभी
700 शोल्क बोलने के बाद, भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘देखो
अर्जुन, मैंने सब कुछ कह दिया है| तुम इसके बारे में सोचो| अगर तुम्हें सही लगता
है, तो ले लो|’
यही है, जो
देना चाहिये – विचार करने की स्वतंत्रता, धारणाएं
बनाने की स्वतंत्रता, विश्वास करने और श्रद्धा की स्वतंत्रता| आप किसी भी चीज़ को
किसी के सिर पर थोप नहीं सकते| श्रद्धा खुद अपने अंदर से उभरनी चाहिये|
प्रश्न : गुरुदेव,
आध्यात्म की ओर चलने में और एक सुरक्षित समाज को बनाने में आज शराब की लत सबसे बड़ी
चुनौती है| लेकिन Corporate Culture & Spirituality
Conference के
इन दो दिनों में, किसी ने भी इसके बारे में बात नहीं करी| कृपया हमारा मार्गदर्शन
करें|
श्री श्री रविशंकर
: हम तो
लोगों को ये बताते हैं कि हमारे पास एक और बहुत बड़े नशे की वस्तु है – ध्यान, गान और सेवा| ये ज्यादा नशा करता है; आपको बहुत
ऊंचाईओं तक भी ले जाता है| लोगों को बस इस ब्रांड की शराब के बारे में मालूम नहीं
है| बस इतना ही है|
लोगों की सेवा
करने में और अपने आस-पास मुस्कुराते चेहरे देखने में भी आनंद है| बहुत से लोगों को
इस तरह के नशे के बारे में पता नहीं है| ध्यान में आनंद है, गहरी शांति है और ऐसा
असीम सुख है जिसे लोग नहीं जानते| हमें लोगों को इसके बारे में बताना है, तब वे
सारी शराब की बोतलें फेंक देंगे|
प्रश्न : गुरुदेव,
कुछ चंद अंग्रेजों ने भारत जैसे विशाल आध्यात्मिक देश पर कैसे राज किया? क्या इससे
कुछ सीख सकते हैं?
श्री श्री
रविशंकर : भई,
आप इसके बारे में केवल आश्चर्य कर सकते हैं! भारत की एक विशेषता यह थी कि इसमें
कभी भी एकता नहीं रही|
एक बार में यूरोप
में था, और एक पत्रकार ने मुझसे पूछा, ‘गुरुदेव, कृपया मुझे बताईये
कि सबसे ज्यादा भारतीय पत्रकार ही क्यों भारत की बुराई करते हैं?’
मैंने कहा, ‘ये हमारी विशेषता है, हम एक दूसरे से लड़ते हैं|’
ये तो उस समय
के राज्यों के बीच के आपसी झगड़ों के कारण था, और उस समय के राजाओं के स्वार्थ के
कारण – कि ऐसी नौबत आ गयी थी| एक तरह से ये
अच्छा भी था, अंग्रेजों ने उपनिवेशी भारत के लिए बहुत कुछ अच्छा भी किया| आपको हर
एक चीज़ की सकारात्मक पहलू को देखना चाहिये| हाँ, औपनिवेशिक शासन के बहुत से
नकारात्मक पहलू हैं, लेकिन उसमें कुछ अच्छा भी था, वह भी आपको देखना चाहिये| नहीं
तो, हम लोग आज अंग्रेजी में बात नहीं कर रहे होते, और भारत कभी भी कंप्यूटर के
क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ता| तब इसका हाल चीन जैसा होता| हमारी अपनी अलग अलग भाषाएँ
होतीं, 600 बोलियां, 24 भाषाएँ, और भारत सचमुच में बिखर गया होता|
आजकल अंग्रेजी
तो जैसे एक आम भाषा बन गयी है, और भारत पूरे विश्व से खुद को जोड़ सकता है| इसलिए,
कुछ फायदे भी हुए हैं, कुछ अच्छी बातें भी हैं|
हाँ, बहुत सी
बुरी बातें भी थीं| उस समय के बहुत से कानून अब पुराने हो गए हैं, लेकिन फिर भी
लागू हैं| इसलिए सभी युवाओं को, जैसे आपको, कानून निर्माता बनना चाहिये, और इन सब
कानूनों को बदल देना चाहिये|
महिलाओं ने तो
पहले से ही बागडोर संभाल ली है, और कुछ कानूनों को बदल रहीं हैं| मुझे यकीन है,
ऐसा और ज्यादा ही होगा|
प्रश्न : गुरुदेव,
मैं देख रहा हूँ कि पढ़े लिखे ग्रेजुएट को भी इंडस्ट्री में काम करने के लिए ट्रेन
करना पड़ता है| हम आपकी यूनिवर्सिटी के साथ कैसे सांझा कर सकते हैं कि कोई ऐसी
शिक्षा प्रारंभ करें जो हमारी इंडस्ट्री के सन्दर्भ में हो?
श्री श्री
रविशंकर : हाँ
बिल्कुल, हम कुशलता केंद्र खोल सकते हैं| आप डॉ. मिश्रा से बात करिये, वे श्री
श्री यूनिवर्सिटी (उड़ीसा) के उप-चांसलर हैं| बाकी बोर्ड मेम्बर भी यहाँ हैं| हम
सोच कर विद्यार्थियों के लिए कुछ नए कार्यक्रम और नयी पाठ्यचर्या निर्धारित
करेंगे|
मैं छात्रों
को पश्चिम का भी और पूर्व का भी सबसे उत्तम देना चाहता हूँ|
आज सीमाओं का
कोई अर्थ नहीं है, बल्कि सीमाएं तो खो सी गयी हैं| हम आज एक सार्वभौमिक समाज में
रहते हैं, और आने वाली पीढ़ियों को एक संगठित विश्व का सपना देखना चाहिये| हमें ‘मेरा देश’, ‘तुम्हारा देश’ ये सब भूल जाना चाहिये| हम
एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ कुछ दूरियां है ही नहीं|
देखिये, अब कल
यहाँ एक कांफेरेंस हुई थी, इसमें 90 से भी ज्यादा देशों ने ऑन-लाइन भाग लिया था|
इतने सारे देशों से लोग इस वेबकास्ट को ऑनलाइन देख रहे थे| हम ज्ञान के एक दूसरे
युग में प्रवेश कर रहे हैं| इसलिए हमें अपनी मानसिकता को इसके अनुकूल करना होगा,
इसीलिये मैं इस ग्रह के बच्चों को पूर्व और पश्चिम दोनों का सर्वोत्तम ज्ञान देना
चाहता हूँ, ताकि वे एक सार्वभौमिक नागरिक बनें, और जिस देश में वे रहते हैं, वहां
की सेवा करें|
प्रश्न : गुरुदेव,
मैं उत्कृष्टता हासिल नहीं कर पाता हूँ, और इसीलिये मैं असंतुष्ट रहता हूँ| क्या
बिना उत्कृष्टता प्राप्त किये संतुष्ट रहना संभव है? अगर हाँ, तो कृपया मार्गदर्शन
करिये|
श्री श्री
रविशंकर : यदि
निराशा उत्कृष्टता को जन्म देती होती, तो ऐसे बहुत से देश हैं, जो इतने निराश हैं,
लेकिन हमें वहां उत्कृष्टता नहीं मिलती|
लोग कहते हैं,
‘ओह, संतुष्टि आपको सुस्त और निष्क्रिय बना देती है’| अगर निराशा रचनात्मकता ला सकती होती, तो लेबनोन,
अफघानिस्तान और ये सारी जगहें दुनिया की सबसे ज्यादा रचनात्मक जगहें होतीं| लेकिन
ऐसा नहीं है, है न?
इसलिए,
संतुष्टि एक बात है, और रचनात्मकता दूसरी बात| जब आप शांत, निर्मल और स्थिर होते
हैं, तब आपके मन की गहराई में आप रचनात्मकता के उस स्त्रोत तक पहुँच जाते हैं|
प्रश्न : गुरुदेव,
मैं बिना ज्यादा काम किये बहुत सा पैसा कैसे कमा सकता हूँ? क्या इसका कोई मन्त्र
है?
श्री श्री
रविशंकर : बस
ऐसे ही घोटाले शुरू होते हैं! (सभी हँसते हैं)
आपने सभी
घोटालों के बारे में सुना है, है न? बहुत से हैं, एक के बाद एक, हर महीने|
नहीं, जल्दी
मिलने वाले पैसे के पीछे मत भागिए, आप उसे उतनी ही जल्दी खो भी देंगे| एक निरंतर
चलने वाली अर्धव्यवस्था अच्छी है| यदि आपके नैतिक मूल्य मज़बूत हैं, तब आप कहेंगे, ‘मैं बहुत सा पैसा कमाऊँगा लेकिन नैतिकता के साथ| और कोई भी
पैसा धोखे से नहीं कमाऊँगा|’
पिछली सदी
में, लोगों को बुरे कर्म का डर था, या फिर ये कि भगवान नाराज़ हो जायेंगे| भगवान का
डर या कर्म का डर, इससे लोग अनैतिक कार्य नहीं करते थे|
लोग कहते थे, ‘ओह ये बुरा कर्म है, मैं ये पैसा नहीं लेना चाहता|’ क्या आप जानते हैं क्यों? क्योंकि लोगों को ये पक्का यकीन
था, कि गलत तरीके से कमाया गया धन इस तरह खर्च होता है जो आपको खुशी तो नहीं देता|
वे कहते थे, ‘इससे मैं और दुखी हो जाऊँगा|’ ये
बहुत पक्का विश्वास था|
बल्कि, लोग तो
यहाँ तक कहते थे, ‘अगर आप गलत तरीके से धन कमाएंगे, तो
वह धन कोर्ट कचेहरी या अस्पतालों में खर्च होगा|
तो इस तरह की
मानसिकता थी, जो लोगों को कचोटती थी| आज ये नहीं है|
वे कहते थे,
यदि हम CSR (Corporate Social
Resposibility)
करेंगे, तो यही पैसा हमारे पास दोगुना तिगुना होकर वापिस आएगा|
CSR को हमेशा लोग एक तरह का निवेश समझते
थे, और अनैतिक पैसे को एक सज़ा| आज ये मूल्य समाज से बिल्कुल गायब से हो गए हैं|
इसलिए, हमें इसे देखना चाहिये|
प्रश्न : गुरुदेव,
आज हर क्षेत्र में, चाहे वह कॉरपोरेट हो या समाज सेवा, अच्छे और बुरे लोगों में
फ़र्क करना बहुत मुश्किल हो गया है| अब क्योंकि CSR हर
कॉरपोरेट का अभिन्न हिस्सा हो गया है, ऐसे में हम एक सही संस्था (NGO) के साथ कैसे जुड़ें?
श्री श्री
रविशंकर : ये
देखिये कि वह संस्था पारदर्शी है और उसका कोई धार्मिक झुकाव नहीं है; ये बहुत
ज़रूरी है|
कभी कभी लोग CSR के कार्य करते हैं लेकिन उनकी प्रेरणा कहीं और से आ रही होती
है| वे लोगों को एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तित करना चाहते हैं, या फिर एक
विचारधारा से दूसरी विचारधारा, वोट बैंक के एक सेट से दूसरे सेट में| हमें इनसे
बचना चाहिये, क्योंकि ये वास्तव में समाज सेवा नहीं है, ये तो समाज सेवा के नाम पर
धोखा है, और ऐसा नहीं होना चाहिये| आपकी मंशाएं शुद्ध होनी चाहिये, आपके दिल साफ़
और निर्मल होने चाहिये|
ऐसी बहुत सी NGOs हैं, जिनकी मंशा सिर्फ इतनी है कि वे सिर्फ लोगों के चेहरे
पर खुशी और मुस्कुराहट लाना चाहती हैं| उन्हें देखिये, कि उनकी मंशाएं कितनी सही
हैं, क्या उनकी बैलेंसशीट सही है, क्या वे अपने पैसे को पारदर्शी रूप से खर्च करती
हैं, क्या उनके प्रशासनिक खर्चे कम हैं?
उनके
प्रशासनिक खर्चे बहुत अधिक नहीं होने चाहिये| कभी कभी प्रशासनिक खर्चे इतने ज्यादा
होते हैं कि लाभार्थियों तक कुछ पहुँचता ही नहीं है, ऐसा नहीं होना चाहिये|
बहुत सी
संस्थाएं, वे कहती हैं कि उनका 40% से 50% तक केवल प्रशासनिक खर्चों में चला जाता
है| ऐसा ठीक नहीं है| इसे कम से कम रखना चाहिये, 5% से 10%, ज्यादा हुआ तो 15%| तो
ये भी देखिये, और फिर देखिये कि कौन लोग उस संस्था के साथ काम कर रहे हैं, उनकी
मदद लीजिए|
प्रश्न : गुरुदेव,
मेरे पिता कहते हैं कि मैं खुद तनाव नहीं लेता, लेकिन दूसरों को तनाव देता हूँ|
यदि मैं तनाव देता हूँ, तो मेरा प्रश्न है कि वे उसे लेते क्यों हैं? क्यों दूसरे
लोगों को अपना तनाव नहीं संभालना चाहिये?
श्री श्री
रविशंकर : इस
बात को देखने का यह एक दूसरा तरीका है|
कभी कभी लोग
कहते हैं, ‘मैं यहाँ आपकी सहनशीलता परखने आया
हूँ| मुझे भगवान ने इस पृथ्वी पर सिर्फ इसीलिये भेजा है, याकि मैं सबके सब्र का
इम्तेहान लूं|’
एक पुरानी
कहावत है, ‘कोई भी किसी दूसरे को दुःख या सुख
नहीं दे सकता| दुःख और सुख हमारे ही मन द्वारा रचित है|’
हम कहीं भी
आराम महसूस कर सकते हैं, और कहीं भी कष्ट में रह सकते हैं, ये पूरी तरह से हमारी
मर्जी है|
प्रश्न : गुरुदेव,
एक पुरानी कहावत है कि जब आप किसी सच्चे गुरु के पास आते हैं, तब आपके अंदर की
कुशलता उभरने लगती है| क्या ये सही है? क्योंकि मैं तो यहाँ आश्रम में एक हाथी को
भी माउथ-ऑर्गन बजाते हुए देखता हूँ|
श्री श्री
रविशंकर : हाँ,
लगता है यहाँ ऐसे ही हो रहा है|
बहुत से लोग
जो संगीत से कोसों दूर थे, उन्होंने गाना शुरू कर दिया है| बहुत से लोग कविता
लिखते हैं| मुझे चारों तरफ बहुत रचनात्मकता दिखती है| ऐसा लगता है कि वे इस पुरानी
कहावत को सच कर रहे हैं!
देखिये, जब भी
आपका मन शांत और शुद्ध हो जाता है, जब आप ध्यान करते हैं, जब आप अंदर से खुश होते
हैं, तब रचनात्मकता तो उसके साथ आती ही है| ये सहज ही है, और अगर ऐसा नहीं होता
है, तब आपको आश्चर्य करना चाहिये|
प्रश्न : गुरुदेव,
आजकल सभी लोग नफरत के भाषण दे रहे हैं और लोगों के मन में अशांति फैला रहे हैं, और
फिर वे उसके लिए गिरफ्तार हो रहे हैं| कोई भी नेता आज प्रेम का भाषण नहीं दे रहा|
क्या करें?
श्री श्री
रविशंकर : अब
सबसे पहले तो आप ये शब्द ‘सभी लोग’ हटा दीजिए| सभी लोग ऐसा नहीं कर रहे हैं| ऐसे कुछ लोग हैं,
एक या दो, यहाँ वहां| वे ऐसे काम करते हैं, क्योंकि सिर्फ तभी मीडिया उन्हें
चुनेगी| मीडिया नफरत के भाषण ही चुनती है| उन्हें मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचना
है, इसलिए वे ऐसा करते हैं| और यदि वे गिरफ्तार हो जाते हैं, तो वे एक विशेष
संप्रदाय में हीरो बन जाते हैं| आप क्या कर सकते हैं? वे नकारात्मक प्रचार करते
हैं, क्योंकि उन्हें सकारात्मक प्रसिद्धि नहीं मिलती| इसलिए आसान तरीका है, कि जाओ
और किसी के भी बारे में उल्टा-सीधा बोलो, या कहीं कोई नफरत भरा भाषण दे दो| मज़े की
बात है, कि बहुत से लोग उनके लिए ताली भी बजाते हैं, क्योंकि उनके लिए ये मनोरंजन
है|
मीठी मीठी
बातें, कुछ प्रेम भरी बातों में लोगों को दिलचस्पी नहीं होती| ‘चलो आओ, उस आदमी को एक घूँसा मारें’, और सब लोग मान जाते हैं|
इसी को भेड़चाल
कहते हैं| एक गुट हमेशा दुनिया में कुछ विध्वंसक करना चाहता है| कभी किसी गुट ने
शायद ही कभी कुछ निर्माण किया होगा, एक गुट हमेशा विनाश ही करता है| कभी कभी विनाश
ज़रूरी भी हो सकता है| एक उदाहरण था आज़ादी की लड़ाई, जब वे इस उपनिवेशी परंपरा को
खत्म करना चाहते थे| तब एक भीड़ जुट गयी, लेकिन अहिंसा के साथ| और ऐसा क्यों हुआ?
क्योंकि उनका नेता एक आध्यात्मिक व्यक्ति था – महात्मा गाँधी| वे सत्संग
करते थे, ठीक वैसे ही जैसे हम लोग कर रहे हैं| हर दिन भजन होते थे, ध्यान होता था,
और देश-विदेश के मुद्दों के बारे में विचार-विमर्श होता था|
तो इस तरह
प्रशासन को हिलाने का आन्दोलन चला, लेकिन बिना खून खराबे के, बिना किसी हिंसा के|
यह इतिहास में सबसे अलग था, जहाँ भीड़ इकठ्ठा तो हुई, लेकिन किसी भी चीज़ का विनाश
नहीं किया, किसी को दुःख या कष्ट नहीं पहुँचाया|
ठीक इसी तरह
की भीड़ अब दुनिया भर में इकठ्ठा हो रही है| अरब देश में देखिये, क्या हो रहा है?
लोग एक दूसरे को मार रहे हैं, और कितना कष्ट है|
मैं तो एक
बहुत ही अलग पहलू का स्वप्न देख रहा हूँ| मैं चाहता हूँ कि लोग नए नए रचनात्मक
विचारों और प्लान के साथ आगे आयें| एक ऐसे ही आन्दोलन का बीज 3 फरवरी को दिल्ली
में बोया गया था, जहाँ की भीड़ ‘भ्रष्टाचार के विरुद्ध’ आन्दोलन से तीन गुणा ज्यादा थी|
इतनी भीड़ जमा
थी कि वह एक रिकॉर्ड था, और उन सबने कुछ निर्माणकारी करने का वचन लिया|
सरकार थोड़ा
घबरा गयी थी, और उन्होंने बहुत से पुलिस वालों को वहां तैनात कर दिया था| हर एक
किसी की चेकिंग हो रही थी, जब वे अंदर आ रहे थे, इसीलिये लोगों को अंदर आने और
बाहर जाने में इतना समय लग रहा था| लेकिन सब लोग इतना हैरान रह गए, ये देख कर कि
यहाँ न तो कोई दोषारोपण हो रहा है, न कोई नफरत भरा भाषण दे रहा है, सब लोग साथ
मिलकर कुछ अच्छा करने का सोच रहे हैं|
हमारे युवाओं
में ये ऊर्जा है, हमें सिर्फ ज़रूरत है उसे एक दिशा देने की|
क्या आप सोच
सकते हैं, कि केवल दो महीनों में, बिना किसी साधन के, दिल्ली में 1000 प्रोजेक्ट
पूरे किये गए थे? 17 झोपड़ पट्टियों में, जिन्हें आर्ट ऑफ लिविंग ने अपनाया था,
वहां 1000 छोटे छोटे प्रोजेक्ट पूरे हुए| तो अब स्वयं सेवकों ने 100 झोपड़ पट्टियों
में काम करना शुरू कर दिया है|
भारत घोटालों
और झोपड़ियों के बीच डांवाडोल हो रही है, और हमें लोगों के अंदर इसी तरह का उत्साह
चाहिये, कि वे कुछ रचनात्मक करें|
यहाँ एक नदी
है, जिसका नाम है कुमाद्वती, जो सूख गयी है| तो हमारे कुछ स्वयंसेवकों ने इस नदी
को उसके स्त्रोत से, और जिन 12 तहसीलों से वह गुज़रती है , वहां से वापिस
पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया है| ये एक बहुत ही बढ़िया पहल है, जिससे बहुत से
गावों की पानी की समस्या हल हो सकती है|
पानी का स्तर
इतना नीचे चला गया है, पहले ये 20-30 फीट होता था, अब तो ये 600 फीट चला गया है,
इतना नीचे! तो ये स्वयंसेवक उसे पुनर्जीवित करेंगे| ये लोग बारिश के पानी का संचयन
कर रहे हैं, और बाकी जो भी कुछ उसे पुनर्जीवित करने के लिए ज़रूरी है|
ऐसे प्रोजेक्ट
को पूरा करने के लिए किसी को करोंड़ों रुपये खर्च करने पड़ेंगे| लेकिन लोग अपना खुद
का पेट्रोल इस्तेमाल कर रहे हैं, अपनी खुद की गाड़ियों से जा रहे हैं, और काम कर
रहे हैं| ये होता है सेवा करने का आनंद और नशा| और तो और, यहाँ हमारे दो स्वयंसेवक
आये हुए हैं, जिन्होंने एक ऐसा प्रोजेक्ट साइन किया है जिसमें वे गरीब लोगों के
लिए 1000 शौचालय बनायेंगे|
प्रश्न : गुरुदेव,
क्या काम-वासना बुरी है? क्या हमें काम-वासना के आगे झुक जाएँ, क्योंकि हम जिस चीज़
को रोकते हैं वही ज्यादा बढ़ चढ़ कर सामने आती है|
श्री श्री
रविशंकर : संयम
से! किसी भी चीज़ की अति नहीं करनी चाहिये|
काम-वासना
इसलिए है, क्योंकि आपके पास ज्यादा कुछ करने के लिए नहीं है| यदि आप व्यस्त रहते
हैं, तब यह आपके मन के ऊपर इतना हावी नहीं होती| आपको अपनी ऊर्जा और अधिक रचनात्मक
कार्यों में लगानी चाहिये, तब आप पाएंगे कि आप ज्यादा संयम में रहेंगे|
|
इस होली पर “भीतर के स्वयं” को रंग लिजियें !!!
२७
२०१३
मार्च
|
बैंगलुरु आश्रम, भारत
|
होली के पावन पर्व पर ज्ञान के
मोती की वेब टीम की ओर से सभी पाठकों को हार्दिक सुभकामनायें !!!
होली रंगों का त्यौहार है | प्रकृति के जैसे हमारे मोनोभाव और भावनाओं के अनेक रंग होते हैं
| प्रत्येक व्यक्ति रंगों का फुहारा हैं, जो बदलता रहता है | अग्नि के जैसे आपकी भावनाए
आपको भस्म कर देती है | परन्तु जब वे रंगों के फुहारे के जैसी होती हैं, तो वे आपके
जीवन मे आनंद ले आती है |
सभी विचार और भावनाए स्वयं(आत्मा)
से उत्पन्न होते हैं, जो शरीर के भीतर और बहार आकाश तत्व के जैसे हैं | यह आकाश तत्व
आपके जीवन पर राज करता है, और आप सिर्फ एक कठपुतली के जैसे हैं | मानवों के साथ कठनाई
यह हैं कि, वे कभी कभी अपने भावनाओं और विचारों पर ध्यान देने के लिए समय निकालते हैं,कि
कैसे भीतर क्या बदलाव हुआ| हम बिना सोचे और अपने भावनाओं का समाधान किये बिना कृत्य
करते हैं | इसके कई नियम है, परन्तु जब आपकी भावनायें उच्च स्थर की होती हैं, तो आप
अपनी स्वयं की भावनाओं का शिकार बन जाते हैं | भीतर के नियम चौकीदार और दरबान के जैसे
हैं ,परन्तु घर का मालिक सिर्फ भावनाए हैं | इसलिए जब घर का मालिक हस्तक्षेप करता है
तो दरबान को रास्ता देना ही पड़ता है |
विचार और भावनाए आती है और चली
जाती है लेकिन जब आप भीतर जाकर स्वयं की गहन अनुभूति करते हैं, तो उसे आप सिर्फ खाली
पाते हैं और वही आपका वास्तविक स्वभाव है | जब आप अपनी पहचान मनोभाव,भावनाओं और विचारों
से करते हैं, तो आप अपने आप को बहुत छोटा और फँसा हुआ पाते हैं | परन्तु वास्तव में
आपका भीतर का आकाश तत्व बहुत ही उदार है और उसमे आप पूर्ण शान्ति का अनुभव करते हैं
| उन क्षणों में जब आप पूर्णता प्रेम और शांति का अनुभव करते हैं तो आप स्वयं में फैलाव,असीमता
अनुभव करते हैं जो आपका वास्तविक स्वभाव है | और वही सबसे सुन्दर है | इसलिए अज्ञानता
में भावनाए आपको परेशान करती है और ज्ञान में उन्ही भावनायो में रंग आ जाता है |
होली के जैसे जीवन भी रंगमय होना
चाहिए जिसमे प्रत्येक रंग स्पष्ट रूप से दिखाई देता है | प्रत्येक भूमिका और भावनाए
स्पष्ट रूप से परिभाषित होना चाहिए | भावनात्मक भ्रम परेशानी उत्पन्न करता है | आप
अपने आप से कहे कि मैं प्रत्येक भूमिका के साथ न्याय करूँगा | आप प्रत्येक भूमिका निभा
सकते हैं | “ मै अच्छी पत्नी,अच्छा बालक,अच्छा
पालक और अच्छा नागरिक हूँ |” आप ऐसा
मान ले कि आप में यह सभी समानतायें मौजूद है | यह सभी वास्तव मे आप मे मौजूद है | इसे
बस खीलने दीजिए | विविधता में सामंजस्यता जीवन को आनंदमय और रंगमय बना देता है |
उत्सव की अवस्था मे मन अक्सर
दैव को भूल जाता है | आपको दिव्यता की उपस्थिति का अनुभव करना चाहिए जिसमे किसी भी
किस्म का कोई वियोग नहीं होता है | क्या आप अपने आप को इस पृथ्वी,वायु और सागर का हिस्सा
मानते हैं? क्या आप इस आस्तित्व मे अपने आप को विलीन होने का अनुभव करते हैं ? इसे
ही दिव्य प्रेम कहते हैं ! दिव्यता को देखने का प्रयास न करे | उसे सिर्फ और सिर्फ
मान कर चले | वह वायु के जैसे मौजूद है | आप श्वास के द्वारा वायु को लेकर उसे छोड़
देते है | आप वायु को देख नहीं सकते परन्तु आप को मालूम है कि वायु मौजूद हैं | उसी
तरह दिव्यता सब जगह मौजूद है | सिर्फ दिल उसकी अनुभूति कर सकता है | जब आप पूर्णता
विश्रामयुक्त होते हैं,तब आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मे दिव्यता की अनुभूति करते हैं
| जब आपका मन और शरीर पूर्णता विश्रामयुक्त होता है, तो फिर, पक्षियों का चहकना,पत्तियों
का हिलना, जल का बहना सब कुछ मे दिव्यता की अनुभूति होती है, यहाँ तक लोगो का लड़ना
और पर्वत मे भी प्राचुर्य और समृद्ध दिव्यता अनुभव होती है | इन सभी बातो से परे एक
शक्ति या आभास आस्तित्व मे होता हैं,वही दिव्यता है | जब स्वाभाविक रूप से उत्सव का
उदय होता है तो जीवन पूर्णता रंगमय बन जाता है |
|
दुनिया में प्रकाश लाइयें
१४
२०१३
मार्च
|
बैंगलुरु आश्रम, भारत
|
सत्संग
में बैठकर अपने भीतर में जाएँ, सिर्फ यही महत्त्वपूर्ण है |
दर्शक
: आप मत जाइयें |
आपको यह
नहीं कहना चाहिए | और भी कार्यक्रमों में लोग मेरा इन्तजार कर रहे हैं | मैं किसी को
भी निराश नहीं करना चाहता | आज ही, मैंने कहा, मैं कुछ देर और सत्संग में रुक जाऊंगा,
और इतने सारे लोगों को निराश नहीं करूँगा | और इस वजह से ही मैंने अपनी उड़ान का समय
परिवर्तित किया | तो १० मिनट के लिए मैं आप के साथ रुक सकता हूँ |
अपनी साधना,
सेवा और सत्संग करते रहें | और इस बारे में सोचें की कैसे हम इस दुनिया को ज्यादा प्रकाशवान,
और अधिक ज्ञान लोगों के जीवन में ला सकते हैं |
देखिये,
वैसे भी, हम सबको और ४०-५० साल जीना है | इसलिए जीवन का कुछ उद्देश्य होना चाहिए |
हमें यह सोचने की जरुरत है कि हम जीवन में क्या करना चाहते हैं ?
खाने,
सोने, सोचने, अखबार पढ़ने और टेलिविज़न देखने के अलावा भी हमें और कुछ करने की भी जरुरत
है, और वह क्या है जो हम कर सकते हैं ?
लोगों
तक ज्ञान पंहुचाइये | लोगों को खुशी दीजिए | और लोगों को खुशी देने के लिए उन्हें ज्ञान
की ओर लाना होगा |
अगर कोई
खुश नहीं हैं, इसका मतलब है कि उसने ज्ञान प्राप्त नहीं किया है ; उन्होंने ज्ञान को
अपनाया नहीं है, ओर इसलिए वे खुश नहीं हैं |
आप कह
सकते हैं, ‘गुरुदेव, कुछ लोग हैं जिनके पास पानी नहीं है, खाना नहीं है
और वे पीड़ा में हैं | इसलिए वे खुश नहीं हैं | वे खुश कैसे हो सकते हैं ?’
यह एक
अलग मुद्दा है | यह दुःख अलग है | लोगों को प्राकृतिक विपदा, सूखे या बाद की वजह से
दुःख मिलता है | इस परिस्तिथि में आपको सेवा करनी चाहिए | और यहाँ पर भी ज्ञान के साथ
सेवा ज्यादा बेहतर होगी |
जीवन में
कठिनाईयां आती हैं, परन्तु कठिनाईयों से पार पाने के लिए किसी को भी मजबूत होना होगा,
और ताकत अध्यात्मिक ज्ञान से आती है |
देखिये,
दक्षिण अमेरिका में एक तितली के पंख फडफडाने से चीन के बादल प्रभावित होते हैं | इसका
मतलब है कि पूरा ब्रह्माण्ड आपस में जुड़ा हुआ है | हर चीज हर दूसरी चीज से जुडी हुई
है | तो भावनाओं के साथ कुछ पूजा करने से, वातावरण में कुछ सुन्दर और सकारात्मक प्रभाव
पड़ता है, और यह ब्रह्माण्ड को भी प्रभावित करता है |
कितने
लोगों ने गुरु पूजा करने से फर्क को महसूस किया है ? सिर्फ गुरु पूजा को गाने से ही
अंतर आता है !
अभी हाल
ही में किसी ने मुझे लिखा था कि कोई अस्पताल में था, और गुरु पूजा करने से, वह ठीक
हो गया |
एक बालक
लगातार रो रहा था, और गुरु पूजा गाने से, वह बालक शांत हो गया |
तो इस
तरह के कितने उपचारात्मक उदहारण हैं, और ये आश्चर्य नहीं है | इसी तरह से होता है और
होता ही है | यह स्वाभाविक है | और अगर यह नहीं होगा तो यह आश्चर्य का विषय है |
तो जीवन
में, दिशा का होना आवश्यक है, और दिशा का मतलब है – हम कैसे प्राचीन ज्ञान
ज्ञान को सब तक पहुंचा सकते हैं ?
प्राचीन ज्ञान वैसे भी साथ
है, हम इसे कैसे इस जीवनकाल में आगे बढ़ाये ताकि अनंतकाल तक इसका प्रवाह बना रहे, इस
विषय पर सोचना होगा | हमें अपनी उर्जा इस दिशा में लगानी होगी | |
शिव !
बैंगलुरु आश्रम, भारत
|
|
श्री श्री रविशंकर जी ने शिव और शिवरात्रि के सार के बारे में बताया | शिव तत्त्व के बारे में हम थोड़ी जानकारी ले लें | थोड़ा जानने की ही जरुरत है | बुद्धि को तृप्त और सुन्दर भावनाओं को जागृत होना चाहिए | इस पवित्र और पूर्ण ज्ञान को पाने की तृप्ति के लिए विज्ञान की और अध्यात्मिक ज्ञान इन दोनों की ही जरुरत है | भगवान की खोज के लिए आपको लंबी तीर्थ यात्रा पर जाने की कोई जरुरत नहीं है | अगर आप जहाँ हो वहाँ रहकर आपको भगवान नहीं मिलते तो यह कहीं भी जाकर मिलना संभव नहीं है | जहाँ मन की सीमा खत्म होती है, वहाँ पर शिव हैं |आप जहाँ हैं वहीँ स्थापित रहें | जिस क्षण आप स्थिर, केंद्रित होंगे, आप देखेंगे की भगवान हर जगह पर है | यही ध्यान है | भगवान शिव का एक नाम विरूपाक्ष है – इसका अर्थ है की जिसका कोई रूप नहीं है परन्तु फिर भी वह सब को देखता है | हम जानते हैं कि हमारे चारों तरफ हवा है, और हम यह महसूस भी करते हैं | परन्तु तब क्या जब हवा भी आपको महसूस करने लगे ? हमारे सब ओर आकाश है, हम यह जानते हैं | परन्तु तब क्या जब आकाश भी हमें महसूस करना शुरू कर दे ?यह होता है | बस हमें इसकी जानकारी नहीं है | वैज्ञानिक ये जानते हैं और वे इसे Theory of Relativity कहते हैं | जो दिखता है और जो देखता है दोनों ही प्रभावित होते हैं जब उन्हें देखा जाये | भगवान आपके चारों तरफ है और आपको देख रहा है | उसका कोई रूप नहीं है| वह अस्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण भाग और ध्येय है जिसका कोई स्वरुप नहीं है | यह स्वरुपहीन भगवान ही शिव हैं | जागृत होकर शिव तत्त्व का अनुभव करना ही शिवरात्रि है | जब कोई उत्सव होता है तो प्राय: जागरूकता खो जाती है | जागरूकता और पूर्ण आराम के साथ उत्सव ही शिवरात्रि है | जब आप पर कोई विपत्ति आती है, तब आप सतर्क और जागरूक हो जाते हैं | जब सब अच्छा होता है तब हम सुकून से रहते हैं ; शिवरात्रि में हम जागरूकता के साथ आराम करते हैं | यह कहा जाता है के जब सब सो रहे होते हैं तो साधक जागते रहता है | योगी (साधक) के लिए हर दिन शिवरात्रि है| आदि शंकराचार्य के द्वारा रचित एक छंद शिव जी का सुन्दर वर्णन करता है | (श्री श्री ने छंद की कुछ पंक्तियाँ दोहराई) अद्यांताहिनाम - जिसका कोई शुरू या अंत नहीं है | सर्वदा – वह भोलेनाथ है (सब का भोले राजा) जो हर समय हर जगह है | हम सोचते हैं की शिव जी अपनी गर्दन में सांप लिए हुए कहीं और बैठे हैं | जिसने जन्म लिया है, उन सब में शिव हैं, जो इस क्षण हर चीज में शामिल हैं,और जिनमें जाकर संपूर्ण सृष्टि खत्म होती है | इस सृष्टि का हर स्वरुप उनका रूप है | वे सारी सृष्टि में व्याप्त हैं | उनका ना कभी जन्म हुआ था, ना ही कोई अंत है | वे अविनाशी हैं | वे चेतना की चौथी अवस्था हैं, तुरीय अवस्था, ध्यान की अवस्था, जो सचेत से परे है, गहरी निद्रा और सपनों की अवस्था | वे सिर्फ एक चेतना हैं जो हर जगह व्याप्त है | इसलिए शिव जी की पूजा के लिएअपने आपको शिव में लीन करना होगा | शिव होकर ही आप शिव पूजा कर सकते हैं | चिदानन्द रूप – वे वो चेतना हैं जो परम आनंद है | तपो योग गम्य – जिसको हम तप और योग से जान सकते हैं | वेदों के द्वारा हम शिव तत्त्व को समझ सकते हैं | शिवोहम की अवस्था (मैं शिव हूँ), से ही शिव केवलोहम (सिर्फ शिव ही है) की अवस्था प्राप्त की जा सकती है | शिवरात्रि का दिन आनंद और तृप्ति का अनुभव करने के लिए है | योग के बिना, शिव जी का अनुभव नहीं हो सकता | योग का मतलब सिर्फ आसनों से नहीं है, परन्तु शिव तत्त्व जिसका अनुभव हमें ध्यान और प्राणायाम से ही होता है : तब वह ‘WOW’ अंदर से ही उपजता है | शम्भू शब्द भी उसी स्रोत से आया है – भगवान, सृष्टि और आत्म कितना सुन्दर है ! यह एक चमत्कार ही है कि कैसे एक ही चेतना हर प्राणी में कैसे विद्यमान है ! इससे बड़ा चमत्कार कुछ है ही नहीं | कैसे यह एक अनेक बन गया ? यह प्रथा (शिवरात्रि) जिसमें अनेक से एक की और बढ़ना कितना अद्वितीय है | योग और ध्यान इस के लिए आवश्यक हैं | ध्यान के बिना मन शांत नहीं होगा | शिवरात्रि के दौरान ध्यान, भजन उत्सव का अंग हैं | सब लोग पूरे उत्साह से इसमें भागलेते हैं | सबको गाना चाहिए | शिव सब कार्यों के कर्ता हैं | जिनकी वजह से सब कुछ है – उगते हुए पेड़, उगता हुआ सूरज, बहती हुई हवाएँ ... घटनाओं के कारक शिव हैं – जिनके कारण सब घटित हो रहा है और जिनके बिना कुछ भी घटित नहीं होगा | पंचमुख, पंचतत्व – शिव जी के पांच मुख हैं – पानी, हवा, धरती, अग्नि और आकाश l पाँचों तत्त्व की जानकारी तत्त्व ज्ञान है | शिव जी को अष्टमूर्ति के रूप में भी पूजा जाता है – मन, स्मृति, अहंकार भी सम्मिलित हैं | ये शिव के दोनों रूप और रूपहीन पहलु हैं | अपने को शिव तत्त्व में समाहित करके शुभ की कामना करना ही शिव आराधना है | क्या कामना करनी चाहिए | उदार दिल से कामना कीजिये विश्व की भलाई के लिए, और दुनिया में कोई भी दुखी ना रहे | ‘सर्वे जनः सुखिनो भवन्तु’ | और इस अवसर पर एक संकल्प लीजिए | इस तरह से जिस तरह से कोई चीज बार बार आपके पास आती है जैसे की आपकी सांस, आपके ह्रदय की धडकन | और इस तरह के संकल्प को भगवान को समर्पित करते हैं, तो वह जरूर पूरा हो जाता है | हम प्रकृति की भी पूजा करते हैं | भगवान पृथ्वी की हर वास्तु में व्याप्त है | पेड़, पहाड़, नदियों, पृथ्वी और इस पर रहने वाले लोगों के सम्मान और आव्हान के बिना कोई भी पूजा पूरी नहीं होती | सब का सम्मान दक्षिणा है | द का अर्थ है देना और जो देने से अपवित्रता दूर होती है, दक्षिणा का यही अर्थ है | चढावा जिससे सारे पाप मिट जाते हैं| कोई भी पूजा दक्षिणा के बिना संपन्न नहीं हो सकती | जब हम कुशलतासे और मन की विकृति से मुक्त होकर समाज में कार्य करते हैं,तमाम ऋणात्मक प्रवृत्ति जैसे क्रोध, चिंता, दुःख का नाश होता है | मैं यह कहूँगा की दक्षिणा के रूप में अपने तनाव, चिंता और दुःख दे दो |और यह कैसे होगा ? साधना, (अध्यात्मिक साधना), सेवा, और सत्संग के जरिये | प्रश्न : गुरूजी, शिव जी के बारे में कुछ कहिये | मैं शिव भक्त हूँ और वे ही मुझे आर्ट ऑफ लिविंग और आप के करीब लाये हैं | श्री श्री रविशंकर : शिव वह मूल तत्त्व है जिसमें हर चीज ने जन्म लिया, और जिसमें हर चीज समा जायेगी | शिव से कोई बचाव नहीं है| शिव तत्त्व का मतलब है शिव के सिद्धांत | शिव कोई व्यक्ति नहीं है| शिव आकाश हैं, चेतना हैं | यह दर्शाने के लिए शिव जी को नीले रंग का दिखाया जाता है | नीले का मतलब है आकाश के समान | आपको मालूम है, शिव का वर्णन इतना सुन्दर है (संस्कृत का दोहा बोलते हुए)| यह मुक्ति के समान है, हर चीज से मुक्ति | वे भगवान हैं , सबसे बलवान, हर तरफ व्याप्त, हर तरफ फैले हुए | कोई भी ऐसी जगह नहीं जहाँ वे ना हों | यहाँ पर ही सारा ज्ञान, सारी चेतना सारा आकाश है |उनका कोई गुण नहीं है | वे ना जन्मे हैं, शिव ना जन्मे हैं, और ना ही उनका कोई गुण | वे समाधी की अवस्था है जहाँ कुछ भी नहीं है, चेतना का आंतरिक आकाश | यही शिव है | जहाँ पर जागरूकता और कोई क्रियाकलाप नहीं है | जागरूकता को दर्शाने उनके गले में एक सांप है | उनके हाथ में एक त्रिशूल है – वे तीनों अवस्था जैसे जागने, सपना देखने और सोने के ऊपर हैं | शिव जी के हाथ का त्रिशूल उनके तीनों अवस्थाओं के पार होना दर्शाता है, चौथी अवस्था में, जो पूर्ण सद्भावपूर्ण है | वह एक अवस्था जिसमें संसार की हर चीज का वास है – वह काला आकाश, काली शक्ति – वैज्ञानिकों ने भी यह कहना शुरू कर दिया है के वह काला आकाश, काली शक्ति जिसमे हर चीज का वास है | सूर्य, चन्द्रमा, तारे सभी का अस्तित्व इसी चेतना की इसी ठोस अवस्था में है | |
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