"आक्रमण के बाद श्री श्री रवि शंकर द्वारा कहे गए शब्द"

श्री श्री रवि शंकर ने अपनी भक्तों को चिंता ना करने को कहा।




जो ध्यान करते हैं, उनके सानिध्य में सब वैर छूट जाता है। आज सारी दुनिया आतंकवाद से पीड़ित है। ध्यान और साधना एक ही रास्ता है जिससे इस वैर को खत्म किया जा सकता है। आज श्याम यहाँ भी एक आतंकवादी आया था। उसने गोली तो चलाई पर किसी को ज़्यादा नुकसान नहीं हुआ। इस वातावरण में आकर उसके भीतर भी ज़्यादा नुकसान करने का भाव नहीं आया, वो एक गोली चला के भाग गया। उसका भी मन परिवर्तन हो गया। एक जन को पैर में थोड़ा सा लगा, नहीं तो कुछ भी हो सकता था।योगासूत्र में दिया गया ज्ञान,तत सानिध्य वैर त्याग:, ध्यान करने वालों के सानिध्य में किसी भी तरह का वैर छूट जाता है। जहाँ सब ध्यान करते हैं वहाँ ज़्यादा नुकसान हो ही नहीं सकता। जब हम २५ वर्ष पूरे होने पर उत्सव की तैयारी कर रहे थे, तब भी किसी ने कहा था, "यह हो ही नहीं सकता"। और हमने कहा था कि यह होकर ही रहेगा। हम सबको मिलकर इस ज्ञान को घर घर में फ़ैला देना है। घर घर में लोग ध्यान और योग करें तो देश भर में एक नई लहर हमको ले के आनी है। अभी एक तारीक को कई नक्सल लोग जो हिंसा में लगे हुए हैं, आ रहे हैं। वो बोले दर्शन करना चाहते हैं। हमा लोगों के साथ बैठकर वो सत्संग करेंगे, सब हिंसा छोड़ देंगे और फूल की तरह खिल जाएंगे।
देशभर में जितने लोग आतंक में लगे हुए हैं हम उन सबका स्वागत करते हैं। इस दैवी उर्जा में उनका भी मन बदल जाएगा। हरेक इंसान के अन्दर कुछ मान्यता है, दैवी गुण हैं, बस वो जगने की ज़रुरत है। कई लोग हमसे पूछते हैं कि इतने प्रचार और प्रसार की क्या ज़रुरत है। हमे क्या ज़रुरत है! हमे कुछ भी नहीं चाहिए पर जब तक यह ज्ञान लोगों तक नहीं पहुँचता, समाज शांति से नहीं रह सकता। इसलिए समाज में शांति और लोक कल्याण के लिए हम सबको काम करना पड़ेगा। अगर यहाँ एक एक आदमी ज्ञान, भक्ति और ध्यान फैलाने की ज़िम्मेदारी ले ले तो सोचो समाज कितना सुन्दर हो जाएगा। आप लोग भी प्रसन्नता से और निर्भय होकर आगे बड़ो, यह जानकर की आपको एक सुरक्षा का कवच मिल गया।

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"हरेक के जीवन में कर्म स्वातंत्र भी है और पूर्वांचित कर्मों का असर भी"

बैगलोर आश्रम, भारत
२७ मई २०१०


प्रश्न : हम जो भी कर रहे हैं सु:ख के लिए ही कर रहें हैं तो संसार में इतना दु:ख और पीड़ा क्यों है?

श्री श्री रवि शंकर :
मुल्ला नज़रुदिन की एक कहानी है। उसकी पत्नि गर्भवती थी, और जन्म देने का समय आ गया था। पर बच्चा बाहर नहीं आ रहा था। जब डाक्टर ने मुल्ला को यह बताया तो वो दोड़ा खिलौनों की दुकान पर, खिलौना लाया और पत्नि के सामने रखकर बोला, "है तो मेरा ही बच्चा, लालाच से तो आ ही जाएगा"। पैदा होने के पहले से हम लालच लगाए बैठते हैं। जैसे खरगोश गाजर के पीछे भागता है। जीवन भर कुछ मिलने के पीछे भागते रहते हैं। कहीं से कुछ तो मिल जाए। कहाँ क्या लाभ होगा। लाभ का ही सोचते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति को सु:ख कैसे मिलेगा? ना लोभी को सुख मिलता है और ना कामी को। जो अपनी चेतना में विश्राम करता है, सुख उसी को मिलता है। जो व्यक्ति अपने में केन्द्रित होता है वही सुखी है। सुख हमारे स्वभाव में है। व्यक्ति, परिस्थिति यां वस्तु से मिलने वाला सुख दो कोड़ी का है। अपने वास्तविक स्वभाव में केन्द्रित होकर जिस सुख की उपज होती है वही सच्चा सुख है। मै यह नहीं कह रहा कि व्यक्ति, परिस्थिति यां वस्तु में कोई सुख नहीं है, मोबत्ती में रोशनी है। पर अपने भीतर से जो सुख मिलता है उसकी किसी ओर सुख से तुलना ही नहीं की जा सकती।
सुख की तालाश में दौड़ी जा रही है दुनिया। तन जल गया, मन जल गया, प्राण जल गए और बुद्धि भ्रमित हो गई पर फिर उसी तालाश में अटके रहते हैं। जब गुरु मिलते हैं तो तुम जानते हो कि तुम प्रकाशमय हो, सुखमय हो। फिर मन शांत हो जाता है और तुम जानते हो कि जिसकी तालाश में तुम जगह जगह भटक रहे थे वो तुम ही हो। 

प्रश्न : अनंत काल से पृथ्वी पर जीवन चल रहा है। किसी जीव को बड़े स्मृद्ध घर में जन्म मिलता है और कई जीव ऐसे हैं जिन्हें भरपेट खाने को भी नहीं मिलता। इसके पीछे क्या रहस्य है? किस आधार पर किसी जीव को जन्म मिलता है?

श्री श्री रवि शंकर :
पांच रहस्यों में से एक रहस्य है जन्म रहस्य। कुदरत ने बहुत कृपा करके जन्म को रहस्य बनाया है। नहीं तुम दु:खी होते रहोगे पुरानी सारी बातों को याद करके। अच्छा है कि तुम नहीं जानते हो। एक समय ऐसा आएगा जीवन में जब तुम्हारा मन पूरी तरह से वर्तमान में टिकने लगेगा, तुम्हारी स्मृति भी जागेगी और तुम जान पाओगे कि तुम क्या थे, तुम कहाँ थे, तुम कौन थे। यह सब स्मृति तुममे जगने लगेगी। किसी किसी में ना भी जगे तो कोई हर्ज नहीं है।
यह सारा संसार कार्य और कारण से बना है (Cause and effect)। जो कुछ भी हो रहा है उसका कोई कारण है। पर फिर हमें कोई आज़ादी नहीं है क्या? ज़रूर आज़ादी है। कुछ हम लेकर आएं है और कुछ हम यहाँ करते हैं। हमें कर्म स्वातंत्र भी है, विवेक भी है। और हम कर्म का फल भी भोग रहे हैं। जैसे तुम्हे किसी ने पूंजी दिया, अब तुम उस पूंजी को कैसे बढ़ाओगे, उसका क्या करोगे यह तुम पर निर्भर करता है।
हरेक के जीवन में कर्म स्वतंत्र है और पूर्वाचिंत कर्म का भी असर है। गरीब भी अमीर हो सकता है और अमीर भी गरीब हो सकता है। यह सब सम्भावना है। जहाँ तुम पैदा हुए हो वो तुम कर्म से पैदा हुए हो पर जहाँ तुम पहुँचना चाहते हो वो तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है।

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"बुद्धि शुद्ध होते ही श्रद्धा मज़बूत हो जाती है"

बैंगलोर आश्रम, भारत

प्रश्न : आदरणीय प्रणाम। गुरुदेव आप कौन हैं?

श्री श्री रवि शंकर : पहले तुम अपने आप को जानो। मुझे जानने की चेष्टा क्यों कर रहे हो? तुम खुद को जानो, तुम्हे अपना ही परिचय नहीं है। तुम कितनी बार दुनिया में आए हो पहले यह तो जानो। फिर मुझे जानना आसान हो जाएगा।

प्रश्न : कभी कभी लगता है आप मेरे साथ हो और हमेशा मुझे देख रहे हो। पर कभी कभी लगता है कि संपर्क टूट गया है। उस समय मन विचलित हो जाता है। विचलित मन से साधना भी नहीं होती। ऐसे में क्या करें?

श्री श्री रवि शंकर : तुमने प्रश्न में उत्तर भी दे दिया। प्रेम का स्वरूप ही ऐसा है कि इसके ना होने पर विरह की पीड़ा होती है। जिन्हे दिल में भक्ति की एक झलक भी मिल जाए तो ना होने पर जी घबराता है। ऐसा नहीं है कि भक्ति नहीं होती पर ऐसा भास होता है, और उससे मन विचलित हो जाता है। अगर ज्ञान पूर्वक देखें तो श्री नारद ने भक्ति सूत्र में कहा है भक्ति का लक्षण ही यही है कि उसके होने में परमांनद और ना होने से परम व्याकुलता का अनुभव होता है। यही भक्ति की ख़बर देता है। इसलिए तुम अपने को भाग्यवान मानो जब इस तरह से जी मचलता है। थोड़े समय के लिए ही ऐसा लगता है। भक्ति तो रहेगी ही। वो मिटती नहीं। भक्ति तो है ही अमृत स्वरूप। भक्ति कभी मिटती नहीं पर घट जाती है। जब घट जाती है तो इस तरह की बेचैनी होती है। यह सहज ही है। ऐसा बहुत भाग्य से होता है। नहीं तो जड़ता में जो व्यक्ति आ जाता है उसमे ना भक्ति होती है, और भोग और चिंता खा जाते हैं।

प्रश्न : श्रद्धा को कैसे दृढ़ करें?

श्री श्री रवि शंकर : श्रद्धा को दृढ़ करना है, इस भाव से ही दृढ़ हो गया। ’मुझ में अटूट श्रद्धा है’ - यह मान कर चलो। बुद्धि शुद्ध होते ही श्रद्धा मज़बूत हो जाती है। बुद्धि शुद्ध करने के लिए हमारा आहार शुद्ध हो। भोजन पर ध्यान दीजिए। यदि भोजन करते वक्त दुनिया भर की गलत बातें सोचते रहें तो इसका भी बुद्धि पर प्रभाव पड़ता है। कई बार तो लोगों को बात करने का समय भी केवल भोजन के वक्त मिलता है, और भोजन परोसते और करते समय बीमारी इत्यादि की बात करते हैं। यह बहुत गलत है। इस आदत से हमको छुटकारा पाना चाहिए। जैसा अन्न वैसा तन।और जैसा मन वैसा तन भी होने लगता है। अन्न से ही मन पर प्रभाव पड़ने लगता है। इसलिए बुद्धि शुद्ध होने के लिए प्रसन्न चित्त से खाना खाओ। अक्सर जब हम बहुत खुश होते हैं तो, जल्दी में भोजन गले से ठीक से नीचे भी नहीं उतरता। और व्याकुलता में हम ज़रुरत से अधिक भोजन कर लेते हैं। इसलिए होश के साथ भोजन करना उचित है।

प्रश्न : जब भी आपको देखता हूँ तो आँखों से आँसु बहने लगते हैं। ऐसा लगता है मैं आपको बहुत लंबे समय से जानता हूँ। क्या यह सत्य है?

श्री श्री रवि शंकर : तेरा अनुभव है और तुझे इसपर ही संशय हो रहा है। तब तो बिल्कुल सच है। सच पर ही संशय करते हैं, झूठ पर कभी संशय नही करते। किसी की ईमानदारी पर ही संशय करते हैं। किसी की बेईमानी पर आजतक किसी ने संशय नहीं किया। इसी तरह से कोई तुमसे पूछे कि तुम सुखी हो तो कहते हैं पता नहीं।दुख को निश्च्य रूप से जानते हैं। सुख को निश्च्य रूप से नहीं जानते। सुख पर संशय करते हैं। ईश्वर है कि नहीं इस पर संशय होता है। इस अस्थायी और नश्वर जगत के होने पर संदेह नहीं होता। पर एक विकसित वैज्ञानिक यह समझता है कि यह सब दिखाई देने वाले संसार के अस्तित्व पर एक प्रश्न चिन्ह है।

प्रश्न : आपने कहा की निष्क्रिय होने पर दिव्यता अनुभव होती है। निष्क्रिय होने का क्या भाव है?

श्री श्री रवि शंकर : निष्क्रिय होना मतलब यह नहीं कि सब काम करना छोड़ दें। यह गहराई की बात है। अपना जो काम है वो करते जाएं और करते हुए भी भीतर यह जानो कि तुम कुछ नहीं कर रहे हो। शुरु शुरु में थोड़ी देर बैठकर यह अनुभव करो कि तुम कुछ नहीं कर रहे हो। फिर लगेगा करते हुए भी मेरे अंदर एक सत्ता है जो कुछ नहीं कर रही है।
इसको समझाने के लिए ॠषियों ने बड़ा सुन्दर बताया है। एक ही वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हुएं हैं। एक खा रही है और दूसरा सिर्फ़ साक्षी होकर देख रही है। यहाँ मुक्त पक्षी की बात कह रहें हैं जो साक्षी है, निष्क्रिय है। उसकी तरफ़ भी ध्यान दो। जो दो पक्षी हैं वो सखा हैं। साथ साथ रहते हैं। एक निरंतर साक्षी बनी हुई है और दूसरा निरंतर कार्य में लगा हुआ है। इस बात को जानो। बिना काम किए हुए वैसे ही बैठ जाना निष्क्रियता नहीं है। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं एक क्षण के लिए भी बिना क्रिया करते कोई टिक नहीं सकता। कर्म करते जाओ। कर्म के भी साक्षी बनते जाओ। यह बहुत गहरा ज्ञान है।

श्री श्री ने ’Understandind Shiva’ नाम की पुस्तक का शुभारंभ किया। इस पुस्तक में सर्वव्यापी शिव तत्व का एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण सम्मिलित किया गया है।


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"हमारा अस्तित्व हमारे शब्दों से अधिक व्यक्त करता है"

मई २०१०,
जर्मन

भारतीय दूतावास को संबोधित करते हुए श्री श्री रवि शंकर द्वारा कहे शब्दों के कुछ अंश:

आपको पता है हम जीवन में इतनी नीरसता क्यों अनुभव करते हैं? क्योंकि हम एक बहुत औपचारिक महौल में रह रहे हैं। हमारे शब्दों में भी औपचारिकता होती है। हम ऐसे माहौल में रह रहे हैं जहाँ केवल शब्द हैं पर उनके पीछे भावनाएं कम ही दिखती हैं। क्या आप संतुष्ट होते हैं यदि आप किसी के घर जाते हैं और वो आपको केवल औपचारिक तरीके से मिलते हैं। अगर आप भारत के गाँव में किसी के घर जाते हैं तो उनके व्यवहार में भावनाएं होती हैं। वो व्यवहार दिल को छूता है।हमारा अस्तित्व हमारे शब्दों से अधिक व्यक्त करता है। हमें सच में तृप्ति तभी मिल सकती है जब हम अपने केन्द्र से जुड़े होते हैं। और यह कैसे संभव हो सकता है? जब हम तनाव मुक्त होते हैं।

प्रश्न : आप शत्रुता मिटाने के लिए क्या दृष्टिकोण रखते हैं?

श्री श्री रवि शंकर : बहुत बार जो शत्रु दिखाई पड़ते हैं वास्तव में उनमें शत्रुता नहीं होती। मैं आपको इराक में हमारे किए गए कार्य का उदाहरण देता हूँ। हमने वहाँ के पीड़ित युवायों को ध्यान और सुदर्शन क्रिया दिया। इससे उनमें बड़ा परिवर्तन आया। वहाँ के युवा मंत्री ने ५० युवायों को बैंगलोर आश्रम प्रशिक्षिण के लिए भेजा। शुरु में ऐसा करना चुनौती था पर एक महीने के समय में उनमें अद्भुत परिवर्तन था। इन लोगों ने वापिस जाकर हज़ारों लोगों को मन में शांति बनाए रखना सिखाया। ना ही घर में और ना ही स्कूल में किसी ने हमें नकारात्मक भावनाओं को संभालना सिखाया। मन में गुस्सा, लालच, परेशानी, उदासी इत्यादि भावनाएं उठती हैं पर इनको कैसे सम्भाला जाए और मन को कैसे शांत किया जाए, यह हमें किसी ने नहीं सिखाया।
मैं यह नहीं कहता कि हमारे पास दुनिया भर के संघर्ष को कल ही समाप्त करने का समाधान है। यह संभव नहीं है। पर हमें आक्रामक या दुश्मन लगने वाले व्यक्तियों में ध्यान से आए बदलाव को देखकर बहुत उम्मीद मिली है।
२००१ में कश्मीर में बड़ी मुश्किल परिस्थिति थी पर अब वहाँ हालात काफी बेहतर हैं। हम थोड़ा थोड़ा करके बदलाव ला सकते हैं। जहानाबाद में भी हमारे प्रयास का अच्छा परिणाम है। इससे मुझे दुनिया के तमाम संघर्ष क्षेत्रों में काम करने का प्रोत्साहन मिला है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक बड़ी चुनौती है।
जब कुछ लोग यह सोचते हैं कि केवल वो ही स्वर्ग में जाएंगे और बाकी सब नर्क में तो वो ओरों के किए नर्क बना देते हैं। हमें उन्हे एक व्यापक मानसिकता लाना आवश्यक है। हर बच्चे को दुनिया के अन्य धर्मों के बारे में थोड़ा थोड़ा ज्ञान होना चाहिए। हमें खाद्य पदार्थों के साथ साथ ज्ञान को सार्वभौमिक बनाने की आवश्यकता है। तनाव के कारण व्यक्ति यां तो आक्रमक हो जाता है यां आत्मघाती। दोनो का ही समाधान है कि व्यक्ति को मन शांत रखना सिखाया जाए। यह बहुत ज़रूरी है कि उन्हे नकारात्मक भावनाओं और तनाव से कैसे मुक्त होना है, यह सिखाया जाए। हमें देखना है कि हम उनका घाव कैसे भर सकते हैं। घाव भरना अत्याधिक आवश्यक है।

प्रश्न : कृप्या आप सदमे से बाहर आने की बारे में कुछ बताएं।

श्री श्री रवि शंकर : सुनामी के बाद मछुआरों को समुद्र के पास जाने से भी डर लगता था। वे किसी दूर स्थान पर जाने की प्रार्थना कर रहे थे। सारे जीवन काल में उन्होंने इसके इलावा कुछ और नहीं किया था। ध्यान के कुछ ही मिनटों और प्राणायाम से वे तीन दिनों में ही इस सदमे से बाहर आ गए। तीसरे दिन इन्ही लोगों ने समुद्र में वापिस जाने की इच्छा ज़ाहिर की। 9 / 11 की घटना के बाद भी यही देखा गया। ’आर्ट ओफ़ लिविन्ग’ के कई स्वयंसेवक ऐसे क्षेत्रों में शांति लाने के लिए समर्पित हैं।

प्रश्न : क्या आप बदलाव लाने में एक महिला के योगदान के बारे में बता सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर : महिलायों की महान भूमिका है। एक महिला कई पुरुषों को प्रभावित कर सकती है - भाई को, पिता को, पुत्र को, पति को। महिलाओं में अधिक शक्ति और प्रभाव है। भारतीय संस्कृति में रक्षा मंत्रालय माँ दुर्गा के पास, वित्त मंत्रालय माँ लक्ष्मी के पास और शिक्षा मंत्रालय माँ सरस्वति के पास रहे हैं। सभी शक्तिशाली विभाग महिलाओं के पास ही रहे हैं। भारत में पुरुष और महिला को बराबर के भागीदार मानते हैं। वहाँ अर्धनारिश्वर की अवधारणा है - ईश्वर ना स्त्री है और ना पुरुष। परमात्मा आधा पुरुष और आधा महिला है। हर कोई ऐसे ही है। कोई पूर्ण पुरुष या महिला नहीं है। हम में हमारे माता और पिता दोनो के भाग हैं। हमे महिलाओं का आदर करना चाहिए। महिलाओं को समाज में और अधिक नेतृत्व लेना चाहिए। मुझे लगता है महिलाएं बेहतर शांति ला सकती है। तब दुनिया में संघर्ष, लालच और भ्रष्टाचार कम होगा। भ्रष्टाचार केवल अपनेपन की सीमा से बाहर हो सकता है। दिल भ्रष्ट नहीं हो सकता। यह दिमाग है जो भ्रष्ट हो जाता है। दिल की तड़प हमेशा पुराने की होती है पर मन नए की ओर भागता है। मन में और अधिक पाने की दौड़ लगी रहती है लेकिन दिल कहता है, "मैं खुश हूँ"। दिल कुछ देना चाहता है और मन कुछ लेना चाहता है। महिला में दिल का उपयोग अधिक होता है। नेतृत्व के विकास और अधिक सामाजिक जिम्मेदारी लेने के साथ साथ महिला को यह गुण भी कायम रखना चाहिए।

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सत्य कभी संशय से नहीं घबराता

२६ मई २०१०,
बैंगलोर आश्रम, भारत


प्रश्न : गुरुजी, क्या आप सच में प्रबुद्ध हैं? मैं इस प्रश्न का सीधा उत्तर लिए बिना जाने वाली नहीं हूँ?

श्री श्री रवि शंकर :
किसी भी प्रश्न का उत्तर तुरंत ही नहीं दे देते। एक बार एक जोड़ा किन्हीं गुरु के पास गए और दो प्रश्न पूछने की इच्छा ज़ाहिर की। गुरु बोले दो प्रश्नों का उत्तर दो साल सेवा करोगे तो देंगे। प्रश्न जितना महंगा होता है उत्तर के लिए उतनी मेहनत भी करनी पड़ती है। ठीक है तुम्हें उत्तर देंगे। पर अगर तुमने शर्त रखी है तो हम भी शर्त रखेंगे।

प्रश्न : कैसे मालूम हो कि किस पर विश्वास करें और किस पर ना करें?

श्री श्री रवि शंकर :
अपने उपर भरोसा करो। जो तुम करोगे और जिस पथ पर चलोगे - उस पर विश्वास करो। अगर तुम्हें अपने पर ही विश्वास नहीं तो गुरु पर कैसे विश्वास करोगे। अपने उपर विश्वास हो जाए तो बहुत है।
गुरु संशय दूर नहीं करते बल्कि और संशय पैदा करते हैं। जितना तुम संशय की आग में पकोगे, तुम उतना ही पक्के हो जाओगे। सत्य कभी संशय से नहीं घबराता। सत्य छिप नहीं सकता।
रावण भी तो संत के भेस में आया था सीता मइया को हरणे। अगर तुम यह सोचो कि हर संत रावण है तो कैसे होगा? कितने संत हुए - वाल्मिकी, गौतम, विश्वामित्र..। अगर हर किसी को रावण समझोगे तो वाल्मिकी आश्रम से भी वंचित रह जाओगे। असली को देखोगे तो नकली पर संदेह आएगा। सिर्फ़ नकली को ही देखोगे तो असली पर भी संदेह होगा।

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"शुद्ध बुद्धि में ही पश्चाताप का भाव जगता है"

२५ मई २०१०
बैंगलोर आश्रम, भारत


प्रश्न : मैने अतीत में बहुत पाप किए हैं? क्या मैं इस पवित्र पथ के लायक हूँ? मैं पश्चाताप करना चाहता हूँ।

श्री श्री रवि शंकर :
पश्चाताप करने का भाव उठा तो काम बन गया। सत्बुद्धि जागी तभी तो पश्चाताप का भाव उठा। नहीं तो हम यही कहते हैं जो किया वो सही है। कुछ गलत हुआ और उसका पश्चाताप करना मतलब वर्तमान में तुम शुद्ध हो गए। शुद्ध बुद्धि में ही पश्चाताप का भाव जगता है। अशुद्ध बुद्धि हो तो व्यक्ति अपनी की हुइ गलती का भी समर्थन करता रहता है। इसलिए अगर कोई व्यक्ति गलती करता है और उसका समर्थन करने लगता है तो मान लेना उसमे अभी सात्विकता नहीं जागी। पश्चाताप करने का मन हुआ तो शुद्ध बुद्धि जागी। वर्तमान में तुम शुद्ध हो गए हो। भूतकाल में मत रहो। यह संकल्प लो कि भविष्य में तुम ऐसा नहीं करोगे।
कुछ लोग आत्म ग्लानी के साथ पश्चाताप करते हैं। उससे भी काम नहीं बनता और तृप्ति नहीं होती। इसीलिए गुरु-शिष्य परंपरा है। गुरु कह देते थे यह कर लो और हो गया खत्म। यां अपने मन की बात गुरु से कह दिया तो भी खत्म हो गया। अपने मन में भी यह कह देने से कि भूल हो गइ, मन शांत हो जाता है। भूल क्यों हुइ? अज्ञान की वजह से। अब ज्ञान का दिया जल गया भीतर तो तुम वर्तमान में शुद्ध हो गए।

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"तुम्हारे भीतर प्रार्थना और संकल्प शक्ति की असीम ताकत है"

२४ मई २०१०,
बैंगलोर आश्रम, भारत


प्र : यहाँ मुझे बहुत ख़ुशी और शांति मिल रही है|  मेरा ह्रदय सचमुच तृप्त हो गया है| जैसे ही मैं बाहर जाता हूँ, सारी नकारात्मकता वापिस आ जाती है| मुझे भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है|इन समस्याओं से कैसे लडूँ? यहाँ से जाने के बाद सकारात्मकता कैसे बनाए रखें?

श्री श्री रवि शंकर :
तुम अपने भीतर की एक ताक़त को भूल रहे हो - प्रार्थना और तुम्हारे संकल्प की शक्ति| तुम साधना करते रहो और तुम्हारी देख-भाल होती रहेगी| प्रार्थना में छोटी-मोटी चीज़ें मत माँगो| बड़ी चीज़ माँगो - सरकार अच्छी और स्थिर हो, ये ज्ञान और भी ज़्यादा लोगों तक पहुंचे| इस समाज को दिव्य बनाना तुम्हारा कार्य है| तुम एक सामूहिक आन्दोलन शुरू कर सकते हो| अच्छे लोग ज़्यादा हैं और जो दंगे करते हैं वे बहुत कम मात्रा में हैं लेकिन उनके प्रभाव से लगता है कि वे कई सारे हैं| तुम सब साथ में एकजुट हो जाओ फिर देखो तुम कैसा परिवर्तन ला सकते हो|

प्र : अपने आप पर तरस करने पर कैसे काबू पाएँ?

श्री श्री रवि शंकर :
जिस क्षण तुम उसे पहचान लेते हो, उसे बंद कर सकते हो| बस, इतनी-सी बात है| अगर तुम ये किसी और के लिए पूछ रहे हो, तो केवल वे स्वयं ही इससे बाहर आ सकते हैं| इसमें सिर्फ ध्यान मदद कर सकता है| एडवांस कोर्स से भी लाभ होगा|

प्र : कई लोगों ने सुदर्शन क्रिया जैसी साधना कराना शुरू कर दिया है| इसके लिए क्या करें?

श्री श्री रवि शंकर :
कई लोगों ने अपनी ख़ुद की प्रणालियाँ शरू कीं हैं| इस तरह के गलत अभ्यास ज़्यादा लंबे समय तक नहीं चलते| इन सब के बारे में फ़िक्र मत करो| लोग एक बार करके देखते हैं फिर सर दर्द के मारे यहीं वापिस आते हैं| सुदर्शन क्रिया जैसी आध्यात्मिक साधना सिर्फ शारीरिक स्तर पर नहीं होतीं| इसमें दैवी कृपा कार्य करती है| अगर कोई यह सुन्दर ज्ञान फैलाना चाहता है तो २१ दिन की टीचर ट्रेनिंग के बाद टीचर बन कर ये ज्ञान सब जगह फैलाया जा सकता है|

प्र : नकारात्मक उर्जाओं को सकारात्मक उर्जाओं में परिवर्तित कैसे किया जाए?

श्री श्री रवि शंकर :
यही तो हमें करना है और यही हम कर रहे हैं| ज़्यादा से ज़्यादा युवायों को साथ में लाओ और समाज का माहौल बदलने के लिए कार्य करो |

प्र : स्मृति आशीर्वाद है या अभिशाप?

श्री श्री रवि शंकर :
बुरी बातें भूलना आशीर्वाद है|अच्छी बातें भूलना अभिशाप हो सकता है|

प्र : अपनी गलती पहचानने के बाद क्या करना सबसे अच्छा होगा?

श्री श्री रवि शंकर :
गलती पहचानने के बाद जीवन में चलते रहना अच्छी बात है| उसे छुपाने या सही साबित करने से कुछ नहीं होगा| अपने मन में शांति बनाए रखना ज़रुरी है। जब मन में एक ठहराव आ जाए तो चाहने पर भी तुम गलतियाँ नहीं करोगे|आत्मा के ज्ञान से भय, क्रोध और दुःख जैसी नकारात्मक भावनाएँ गायब हो जाती हैं|

प्र : आत्मा और मन में क्या फर्क है?

श्री श्री रवि शंकर :
आत्मा सागर है और मन एक लहर है|

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"जब तुम समाज की भलाई का कार्य करते हो तो भगवान भी तुम्हारा कार्य करते हैं"

२२ मई २०१०,
बैंगलोर आश्रम, भारत

प्रश्न : आपके लिए खुशी की क्या परिभाषा है?

श्री श्री रवि शंकर :
जिस दिशा में जीवन के बहने की प्रवृत्ति है।

प्रश्न : आपकी खुशी की सबसे अच्छी स्मृति क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
खुशी तब है जब तुम अपने लिए कुछ नहीं चाहते, और केवल देना चाहते हो। जहाँ इच्छाएं खत्म होती हैं और साझा करना(बांटना) शुरु होता है, वहीं खुशी है। स्मृति खुशी नहीं है। जब तुम खुश होते हो, तुम सब भूल जाते हो। जब खुशी नहीं रहती, तब तुम अपनी स्मृति में खुशी तलाशते हो। संसार में लोग खुशी की कल्पना यां खुशी की संमृति में रहते हैं। यह यां तो भूतकाल में रहना है यां भविष्य में। पर खुशी वर्तवान में है। यह तुम्हारा स्वभाव है।

प्रश्न : जब मैं एकांत में होता हूं तो भीतर आनंद अनुभव करता हूं। पर लोगो के साथ मन बाहरी परिस्थितियों में फ़ंस जाता है। क्या कोई ऐसा तरीका है कि सबके साथ रहते हुए भी मै वही भीतर का आनंद महसूस करूँ।

श्री श्री रवि शंकर :
तुम सही जगह पर हो।

प्रश्न : पाप और पुण्य क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
पाप वही है जो तुम्हे भी दुख दे और औरों को भी दुख दे। पुण्य वही है जो तुम्हे भी खुशी दे और औरों को भी खुशी दे।

प्रश्न : ऐसा कहा गया है कि भगवान श्री कृष्ण १६ गुण सम्पन्न थे, श्री राम १२ गुण सम्पन्न थे, और हनुमान १४ गुण सम्पन्न थे। तो फ़िर श्री राम को अवतार कैसे कह सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
ऐसा भक्तों की महिमा गाने के लिए कहा गया है। असल में गुरु और शिष्य दोनो भगवान हैं। भक्तो की महिमा गाने के लिए और उनका स्तर ऊँचा करने के लिए भगवान स्वयं झुक जाते हैं। यह ऐसा है जैसे एक पिता अपने पुत्र को अपने से ऊँचा अपने कंधे पर उठा लेता है। अगर हनुमान श्री राम से बलिष्ठ नहीं होते तो उनकी सहायता कैसे करते? यह ऐसा है जो मुझसे बलवान है वही मेरा सामान उठा सकता है।

श्री राम को भी हनुमान की सहायता की आवश्यकता थी। इसी तरह ईश्वर भी तुमसे सहायता चाहते हैं। इसलिए हमें धर्म का कार्य,समाज की भलाई का कार्य, करना चाहिए। जो समाज की भलाई का कार्य करता है, ईश्वर भी उनका ध्यान रखते हैं। ईश्वर का काम करना, समाज के लिए काम करना, हमारे में दैवी गुण खिलने का संकेत है।
इसीलिए हनुमान जी श्री राम का काम करते रहे, पर उनमें कभी यह अहंकार नहीं आया कि वह श्री राम की सहायता कर रहे हैं। वह जानते थे कि यह तो केवल माया है और उन्हे ऐसा भाग्य मिला है कि वह श्री राम का काम कर सकें। वह श्री राम के दास बनकर उनका सारा काम करते रहे।

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" 'तेरा मैं’ साल में एक बार नहीं बल्कि हर दिन और हर क्षण होना चाहिए"

जर्मनी आश्रम

मनुष्य जीवन में सबसे सौभाग्य की बात यही हो सकती है कि आप कह सकें ,"मुझे कुछ नहीं चाहिए और मैं यहाँ आपके लिए हूँ"। मुझे शुरु से ही ऐसा महसूस करने की किस्मत मिली है। मेरी इच्छा है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग ऐसा कह सकें। कल्पना कीजिए वो परिवार कैसा होगा जहाँ हर सदस्य ऐसा महसूस करता हो। ऐसी भावना सब में पहले से ही है, बस कहीं छुपी हुइ है। जब एक देश का मुखिया यह महसूस करता है कि उसे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए और वो देश के लोगों के लिए मौजूद है तो देश का विकास होना स्वाभाविक है। और जब देश विकास करता है तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि मुखिया की कोई ज़रुरत पूरी ना हो। पर अगर हम केवल अपनी ज़रुरत पर ही ध्यान देते रहें तो हम खुद को और अपनी क्षमतायों को खिलने का मौका नहीं देते। हमे यह विश्वास होना चाहिए कि हमारी ज़रुरत पूरी होगी।

इसका यह मतलब नहीं है कि अपनी कुछ ज़रुरत होने पर तुम अपने पर दबाव डालो कि "मुझे कुछ नहीं चाहिए"। "मुझे कुछ नहीं चाहिए" - पूर्णता की स्थिति से आता है, अस्वीकार यां नकारने से नहीं। पूर्णता आध्यात्मिक ज्ञान से आती है। जब तुम सर्वोच्च ज्ञान की ओर ध्यान देते हो तो तुम्हारी ज़रुरतें समय से पहले ही पूर्ण हो जाती हैं। समाज में उपभोक्तावाद केवल भीतरी आनंद से ही रोका जा सकता है, और ऐसी खुशी आध्यात्म से ही आ सकती है। यह बहुत खुशी की बात है कि ’आर्ट ऑफ़ लिविन्ग’ विश्व की विभिन्न सुंदर सभ्यतायों को एक साथ जोड़ रहा है। हर सभ्यता और धर्म का केन्द्र प्रेम ही है, और ’आर्ट ऑफ़ लिविन्ग’ का यही आधार है। "मुझे कुछ नहीं चाहिए और मैं यहाँ आपके लिए हूँ" - विश्व भर में अधिक से अधिक लोगों में ऐसा कहने की क्षमता खिलनी चाहिए।

१३ मई  - तेरा मैं, का मतलब है मैं आपका हूँ। १३ मई साल में एक बार नहीं बल्कि हर दिन और हर क्षण होना चाहिए।

अगर हमें कोई इच्छा रखनी हो तो वो यह होनी चाहिए कि विश्व में ज़्यादा से ज़्यादा लोगो का ऐसा सुन्दर भाग्य हो कि वो यह महसूस कर सकें - "मुझे कुछ नहीं चाहिए और मैं यहाँ आपके लिए हूँ"। जब हर कोई ऐसा सोचेगा तो यह दुनिया एक स्वर्ग होगी। अगर हर कोई किसी से कुछ लेने की ही सोचे तो हम वर्तमान दुनिया की स्थिति देख ही सकते है।

हम दुनिया को स्वर्ग बनाने में विकास कर रहे है, और यह देखकर बहुत अच्छा लग रहा है। तो हम हर दिन ऐसे ही मनाते हैं जैसे ’तेरा मैं’। इस ज्ञान में प्रेम, कर्म, मज़ा और उत्सव सब ही है। और इस ज्ञान से यह सब आता है।


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"समय से पहले जरूरत से ज्यादा मिल जाना ही सिद्धि है"


प्रश्न : गुरूजी,यह प्रश्न मूर्खतापूर्ण हो सकता है परन्तु मुझे धन की समझ नहीं है| क्या आप मेरे लिए इसका वर्णन करेंगे? यह कितना महत्वपूर्ण है? मुझे यहाँ लाने के लिए धन्यवाद|

श्री श्री रवि शंकर :
वेदों के साहित्य में लिखा है धर्म सच्चाई है| तब अर्थ आता है जिसका मतलब है माध्यम। धन एक माध्यम है| तब इच्छाएं आती है| और फ़िर मोक्ष आता है| इस तरह धर्मस्य मूलं अर्थ| इसका अर्थ है धार्मिकता समृद्धि पर निर्भर करती है| यदि सभी समृद्ध होंगे तो कोई भी चोरी नहीं करेगा| धर्म का आधार समृद्धि है| और धन का आधार राष्ट्र है| इस तरह ये सब सम्बंधित है| धन महत्वपूर्ण है परन्तु धन केवल एक साधन है| यह सब कुछ नहीं है| धन को कभी भी ख़ुशी से नहीं जोड़ना चाहिए| यदि आप देखो तो पाओगे यहाँ तक कि गरीब से गरीब लोग भी खुश होते हैं | वास्तव में वे ज्यादा खुश हैं| धन सुरक्षा की एक गलत धारणा बन जाता है| आप सोचते हो यदि आपके पास धन है तो सब कुछ है।
धन का ख्याल आराम के लिए है| आप धन क्यों चाहते हो? आराम के लिए| परन्तु धन आपको केवल एक तरह का आराम दे सकता है| आराम के तीन प्रकार हैं| शरीरिक आराम,भावात्मक और मानसिक आराम, और अध्यात्मिक आराम यां आन्तरिक आराम| जबकि धन केवल एक तरह का आराम दे सकता है| यह भावनात्मक और अध्यात्मिक आराम नहीं देता| यह आवश्यक है| जैसे हम जीवित रहने के लिए खाते हैं, परन्तु यदि हम केवल खाने के लिए जीवित रहे (हंसी) तो हमारे साथ बुनियादी तौर पे कुछ गलत है|
ग्रन्थ और प्राचीन लोग बड़ी खूबसूरती से बताते हैं कि आपको अपने धन को इस्तेमाल कैसे करना चाहिए। आप धन को २०% के पांच भागों में बाँट लो| एक भाग आप अपने इस्तेमाल के लिए रखो| एक भाग आप बचा लो| २०% आप तुरंत ज़रुरतों पर खर्च कर लेते हो| २०% आप परिवार के लिए खर्च करते हो जिससे मेरा मतलब है तत्काल जरूरतों के लिए| २०% आप समाज के लिए इस्तेमाल करते हो| एक वह है जिसे आपद धन कहतें हैं जो आपातकालीन,भविष्य की जरूरतों के लिए होता है| २०% जो आप बचाते हो, उसे बाद में अपने मित्रों,परिवार या अपने वंशजों को दे देते हो|
एक और विचारधारा है जो कहती है १०% दान करो| ३०% बचत करो| ६०% को जैसे चाहो इस्तेमाल करो|
मैं कहूँगा आपको १०% भी दान देने की जरुरत नहीं है| कम से कम २% या ३% अपनी आमदनी से अलग रख दो| यदि आप बिलकुल भी दान नहीं देते तो आपका पैसा कचेहरी में मुकद्दमों और अस्पतालों में खर्च होगा| इसलिए आपके धन का कुछ हिस्सा २% या ३% अलग रखा जाना चाहिए| यहाँ तक कि १% भी चलेगा| २% फिर ३| २ से १०%दुनिया के लिए अलग रखो| तब आपके मन में लालच नहीं आएगा| लालच आदमी को खत्म करता है और बाद में उसके व्यापर को भी खत्म कर देता है|
परन्तु लक्ष्य ठीक है| आपके पास लक्ष्य होना चाहिए| आप में और धन कमाने की कामना होनी चाहिए| और अधिक धन बनाना एकदम गलत नहीं है| धन कमाओ| समझ गए आप?इस तरह से धन के लिए संतुलित रवैया होना चाहिए| धन ही जीवन में सब कुछ नहीं होना चाहिए| यह आपको बनाये रखने के लिए और शरीर को आराम देने के लिए होना चाहिए| यह केवल आध्यात्मिकता है जिससे पूर्ण विश्राम मिलता है| और यदि मानसिक और अध्यात्मिक आराम होगा, जब आप ईश्वर से जुड़े हों तो आप धन के बारे में सोचते भी नहीं| चीजें अपने आप आती हैं|
इस आश्रम को अगले साल २० साल हो जायेंगे| उससे पहले ५ बर्ष तक जब मैं उत्तरी अमेरिका में आता था तो हम यहाँ वहां किराये पर जगह लेते थे| बहुत सारे लोग आते थे| हमें शाकाहारी भोजन के लिए रसोई चाहिए थी| होटल में अडवांस कोर्स करने में मुश्किल होते थे| तब मैंने कहा अगली बार जब मैं आयूँ तो हमारे पास अपना स्थान होना चाहिए जहाँ हम पवित्र वातावरण रख सकें, ऐसे स्थान पर ध्यान लगता है और स्थान का भाव अधिक सात्विक,अधिक अनुकूल और प्रकृति के साथ लय में होता है| तब हमारे कुछ भक्त लोग यहाँ आये और स्थान के लिए छान बीन करने लगे परन्तु हमारे पास इतने पैसे नहीं थे| पर हमें बिलकुल भी चिंता नहीं हुई| हम केवल योजना बनाते हैं और बाकि सब बातो का ध्यान अपने आप रखा जाता है| सभी ने थोड़ा थोड़ा कुछ करना शुरू किया| और यह जगह सुंदर बन गई। इसे ही सिद्धि कहतें हैं| सिद्धि का मतलब है आपको जो चाहिए समय में मिल जाता है|
भारत में एक कहावत है - आप बादाम खाना चाहते हो और ये आपको तब मिलते हैं जब आपके सारे दांत गिर जाते हैं| (हंसी) आप बादाम के लिए प्रार्थना करते हो और जब आपको बादाम मिलते हैं आपके दांत जा चुके होतें हैं| इसका कोई फायदा नहीं| इस तरह सिद्धि का मतलब है समय से पहले जरूरत से ज्यादा मिल जाना|
हम कभी यह चिंता नहीं करते कि काम कैसे होगा? इसे ही सिद्धि कहते हैं। जब आध्यात्मिक उर्जा होती है तो काम सहजता से ही पूर्ण होते चले जाते हैं। इस आत्म विश्वास के साथ चलो| पर हमे ज़्यादा हवा में भी नहीं रहना चाहिए। थोड़ा सा व्यवहारिक भी होना चाहिए| जब तक आप उस अंदरूनी अध्यात्मिक निर्भरता,अध्यात्मिक ऊंचाई तक नहीं पहुँच जाते,आपको तर्कसंगत होना चाहिए,और तर्कसंगत तरीके से जागरूक होकर आपको पैसों का प्रबंध करना है। और यह आप कैसे कर सकते हो? जब एक पैर नीचे जमीन पर होगा एक उपर उठा होगा| इस तरह यह एक नाच की तरह है| नाच कैसे होगा? यदि दोनों पैर कीचड़ में दबे होंगे तो क्या आप नृत्य कर सकते हो? और यदि दोनों पैर उपर हवा मैं होंगे तो भी आप गिर जाओगे| दोनो परिस्थितियों में नाच नहीं हो सकता| नाच तभी हो सकता है जब एक पैर नीचे जमीन पर होगा और दूसरा उपर हवा में| यही सम्पूर्ण ज्ञान है - व्यवहारिक लेकिन सूक्ष्म,अध्यात्मिक दृष्टिकोण से|
परन्तु मैंने कुछ लोगों को देखा है जो बहुत अधिक काल्पनिक होतें हैं| वे कोई काम नहीं करते परन्तु बैठे रहतें हैं,'मुझे २० मिलियन डॉलर चाहिए, मुझे १०० मिलियन डालर चाहिए|' वे थोड़े पैसों के लिए भी नहीं सोचते| :हंसी) केवल मिलियन के लिए सोचतें हैं| हर दिन इसके लिए प्रार्थना करते हैं| कुछ देर बाद आप जाते हो,खाना पकाते हो और भूल जाते हो| यह सही नहीं है|
इस संतुलन को जानो|

प्रश्न : गुरूजी मुझे लगता है मैं अपने परिवार में किसी की मृत्यु के शोक से नहीं निकल पाया हूँ और यह मुझे अपने सम्बन्धों और अपना निजी परिवार की ओर चलने से रोक रहा है| मैं इस ओर आगे बढ़ना चाहता हूँ परन्तु ऐसे लगता है मैं स्वयं ही अपना शत्रु हूँ| गुरूजी कृपया मेरी मदद करें| मैं धैर्यपूर्वक आपके जबाब का इंतजार कर रहा हूँ|

श्री श्री रवि शंकर :
जब आप ध्यान करते हो,भजन करते हो तो इसकी उर्जा उन तक पहुँच जाती है| आप शांत हो तो शांतिपूर्ण भावनाएं उन तक जाती है| इसीलिए आध्यात्मिकता को संस्कृत में साधना भी कहतें हैं,इसका मतलब है असली दौलत,असली मुद्रा जो यहाँ वहां जा सकता है|(हंसी) दूसरी डालर मुद्रा दूसरी तरफ़ नहीं चल सकती|इसीलिए हम कहतें हैं जब आप सत्संग करते हो,गाते हो,ध्यान करते हो,ये सकरात्मक भाव उन तक जाते हैं| और जब ऐसे भावनाएं आती है उनका निरीक्षण करो,ध्यान से देखो| वे आयेगीं और लुप्त और गायब हो जायेंगीं| हाँ? आगे बढ़ो|

प्रश्न : गुरूजी, क्या आप दूसरे ग्रहों पर जीवन के बारे में कुछ बताएँगे? क्या उनके पास प्रेम है जैसे हमारे पास पृथ्वी पर प्रेम। जय गुरुदेव|

श्री श्री रवि शंकर :
प्राचीन लोगों को १४ ब्रह्मांडों का पता था| १४ में से हम बीच में हैं-७ उपर ७ नीचे| अनंत ब्रह्मांड है, अनंत ग्रह है केवल एक ही नहीं है| यहाँ पर भी अस्तित्व के अलग अलग स्तर हैं| जो हम देखते हैं वह केवल एक भाग है| भौतिक विज्ञान भी यही कहता है।यहाँ पर भी बहुत से स्तर हैं| हाँ? परन्तु यह एक ब्रह्मांड हमारे लिए बहुत अच्छा और पर्याप्त बड़ा है| (हंसी)अभी इसी के बारे में सोचते हैं।

प्रश्न : गुरूजी, यह इतना सुंदर ज्ञान देने के लिए मैं आपका बहुत आभारी हूँ| मुझे बहुत जिज्ञासा होती है कि यह अंतर्दृष्टि कहाँ से आती है| जब मैं ध्यान करता हूँ कभी कभी इसके बाद शांत हो जाता हूँ और प्रभावकारी भी,परन्तु ब्रह्मांड के रहस्य अपने आप नहीं पता चलते| इसकी बजाय मैं इसी तरह के नाटक या आत्म सम्मोहन में फंस जाता हूँ| यह रास्ता मेरे लिए अच्छा है| इसका मुझे विश्वास है|परन्तु मुझ में धैर्य नहीं है|मुझे आपके प्रकृति और ईश्वर के बारे में कहे हुए शब्द शहद जैसे लागतें हैं जिनके लिए मुझे भूख है| क्या आप इसी विषय में कुछ कहेंगे| मैं प्रकृति के साथ गहरा सम्बन्ध महसूस करता था| आजकल मैं रोबोट की तरह महसूस करता हूँ| क्या मुझ में अनुग्रह नहीं रहा या कोई और बात है?

श्री श्री रवि शंकर :
नहीं नहीं| मुझे लगता है आपके पास बहुत समय है| आप बैठकर अपने बारे में बहुत सोचते रहते हो| व्यस्त हो जाओ| आप जानते हो जितना अच्छा काम आप करते हो, अपने आसपास सकरात्मक वातावरण और भाव बनाते हो| जब आप सकरात्मक भाव बनाते हो तो आपको अपने भीतर गहरे जाने में मदद मिलती है| यह आवश्यक है कि दूसरों का ध्यान रखा जाए और जो आप के पास है दूसरों के साथ बांटा जाए| जिस तरह भी आप कर सकते हो करो| किसी प्रोजेक्ट में शामिल हो जाओ| ध्यान करो| बैठ कर चिंता मत करो,'ओह आज मुझे यह अनुभव हुआ| कल क्या होगा|' यह तो आते जाते रहेंगे| आप इन सब अनुभवों से ज्यादा हो।
एक साधक को क्या करना होता है ,जो भी अनुभव हो, चाहे सबसे अच्छा अनुभव हो, को भी सवीकार करो और उसका समर्पण करो।
स्वीकारना और समर्पण करना, दोनो ही ज़रुरी हैं। यदि आप केवल त्यागने की कोशिश करते हो तो आप उनको रोकने की कोशिश कर रहे हो| यदि आप केवल स्वीकार करते हो तो आप उनको पकड़ लेते हो| इसीलिए आपको दो हाथ दिए गए हैं| एक तरफ़ से आप स्वीकार करते हो और दूसरी तरफ़ आप समर्पण कर देते हो।यह अनुभव तो आते जाते रहतें हैं ,कोई बड़ी बात नहीं|

प्रश्न : गुरूजी, कल रात आपने कहा था कि ,'यदि आप जो कर सकते हो नहीं करते हो तो आपकी चेतना में आपको पीड़ा होती है। मुझे पता है मुझमें बहुत सी योग्यताएं हैं,परन्तु कभी कभी यह बहुत कठिन काम लगता है| मैं हमेशा अपनी तरफ से अच्छा कार्य करती हूँ,हमेशा सेवा करती हूँ| मैं सेवा को बिना बोझ समझे कैसे कर सकती हूँ?

श्री श्री रवि शंकर :
केवल उतना ही करो जितना तुम कर सकते हो| कभी कभी आप प्रतिबद्धता लेते हो| उस क्षण यह बहुत अधिक लगता है| परन्तु यह समाप्त हो जाता है| उस प्रतिबद्धता को पूरा करो और फ़िर उसके बारे में सोचो भी मत| आपको पता है यदि आप सोचोगे ,'मैंने कितना सारा काम कर लिया' तब वह बोझ लगने लगता है| हर रोज आप में नई शक्ति आ जाती है| अगर हम देखें हमने कितना हवा,पानी और भोजन का उपभोग किया है तो हम हैरान रह जाएंगे। इसकी कोई गिनती ही नहीं है| इसलिए आप जो सेवा करते हो उसे गिनो मत| जो आपने उपभोग किया है उस सब के मुकाबले में यह बहुत कम है|

प्रश्न : जब मुझ पर करो या मरो जैसा दबाव होता है तो मेरे अंदर जो भी अच्छा है बाहर आ जाता है| यह वह समय होता है जब अपनी इच्छाओ और इरादों को पूरा करने के लिए मेरे पास प्रकाश की किरण की तरह तेज जैसी एकाग्रता,मानसिक शांति,नियन्त्रण और प्रेरणा होती है| परन्तु जब मैं खुश,विश्राम में और आनंद में होता हूँ तो मुझ में वह मानसिक शांति और अपनेआप को प्रेरित करने की शक्ति नहीं होती| मैं इस पैटर्न को कैसे बदल सकता हूँ?

श्री श्री रवि शंकर :
तो किसी को आप पर ऐसा दबाव डालने के लिए कहो।सुनो यदि आपको लगता है 'मेरा अच्छा तभी बाहर आता है जब मैं खतरे में हूँ, यां दबाव में हूँ’ तो आपने ऐसा इरादा बना लिया है,ऐसा विचार मन में बना लिया है| इसलिए ऐसा ही होता रहा है|
आप तब भी उतनी ही उर्जा और एकाग्रता से काम कर सकते हैं जब आप खुश होते हो,जब आप आनंद में होते हो,जब आप मुक्त होते हो। इसलिए जब आप इस पैटर्न के प्रति सजग हो जाते हो तो यह आपकी जिम्मेवारी है कि आप इससे बाहर आएं| कोई और आपकी मदद नहीं कर सकता। केवल आप अपनी मदद कर सकते हो| आप कह सकते हो 'अभी आज मैं खुश हूँ, मैं ऐसा करने जा रहा हूँ!'

प्रश्न : गुरूजी,यह पहली बार है मैं आपकी धन्य महिमा देख रहा हूँ| क्या आप मुझे बता सकते हैं कि मैं स्वयं को सम्मानित और प्रेम करना कैसे सिखा सकती हूँ?मैं अपने शरीर को दुःख देती हूँ क्योंकि मैं अपने आप को किसी योग्य नहीं समझती| मुझे क्या करना चाहिए?आपका जबाव बहुत महत्वपूर्ण है| जय गुरुदेव|

श्री श्री रवि शंकर :
सबसे पहले यह मत सोचो कि आप खुद से प्यार नहीं करते| यह किसने कहा? यहाँ तक जो व्यक्ति आत्महत्या करते हैं वे भी खुद से प्यार करते हैं| वे अपने आप से बहुत प्यार करते हैं और इसलिए पीड़ा नहीं चाहते| पीड़ा सहन नहीं कर सकते| पीड़ा से छुटकारा चाहते हैं| इसलिए जब लोग पीड़ा या दुःख सहन नहीं कर सकते,वे ख़ुशी चाहते हैं,वे आत्महत्या कर लेते हैं| इसलिए कि वे खुद को बहुत प्यार करते हैं| वे दूसरों से प्यार नहीं करते| यदि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अपनी माता या पुत्री या पत्नी या और कोई प्रिय को प्रेम करे तो आत्म हत्या कैसे कर सकता है?यदि आपको दूसरों की फ़िक्र होगी तो आप कभी आत्महत्या नहीं कर सकते|
उन्हें पता होता है कि यदि वे खुद को फंदा लगा लेंगे, वे अपने प्रिय जनो के लिए समस्या खड़ी कर देंगे| वे बहुत दुखी हो जायेंगे।
उनका यह सोचना, "मैं उन्हें उदास नहीं कर सकता,मैं उन्हें रुलाना नहीं चाहता| मैं उन्हें खुश देखना चाहता हूँ| यदि मैं उन्हें खुश देखना चाहता हूँ तो मैं खुद को दुःख क्यों दूँ? मैं केवल अपनी ख़ुशी के बारे में सोच रहा हूँ,अपनी तकलीफ के बारे में सोच रहा हूँ| मैं आराम चाहता हूँ,ख़ुशी चाहता हूँ| मैं खुद को बहुत अधिक प्यार करता हूँ| तभी मैं खुद को फंदा लगाता हूँ" उन्हे कभी ऐसा कदम उठाने नहीं देगा।
इस तरह अपने लिए अपने प्यार पर शंका मत करो| कौन कहता है आप खुद को प्यार नहीं करते? यह असम्भव है क्योंकि आप स्वयं प्रेम हो|यह केवल कहीं खो गया है| कहीं आप इसे महसूस नहीं कर पा रहे हो| और आप सही जगह पर हो|अभी तक कोई भी माँ इस ग्रह पर बुरी पैदा नहीं हुई है| एक माँ के रूप में ऐसा मत सोचो कि आप बुरी या कुछ और हो। यह असम्भव है| हाँ? विश्राम में रहो और अपना काम करते आगे बढ़ो|
जो हो गया उसके बारे ज्यादा विश्लेषण मत करो। क्योंकि धरती पर कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जो पूरी तरह दोष से मुक्त हो| हर कार्य में कहीं ना कहीं कुछ दोष होता ही है। और बुरे से बुरे कार्य में भी कुछ अच्छा होता है। अच्छे से अच्छे कार्य में भी २ प्रतिशत दोष होता है। इसलिए दोष पर इतना ध्यान मत दो।

अन्य अंश अगले हिस्से में:

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"जब आप विरह अनुभव करते हो तो वास्तव में आप पथ पर हो"

पिछले पोस्ट के शेष अंश

प्रश्न : गुरूजी,महत्वकांक्षा और लालच क्या है? दोनों को अलग करने वाली लकीर क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
लालच वह है जब आपके लिए धन और अपने आप के इलावा कुछ महत्व नहीं रखता।
लालच वह है जब आप अपनी योग्यता से परे किसी वस्तु की कामना करते हो और किसी भी तरह उसे पाना चाहते हो| यही लालच है| महत्वकांक्षा वह है जब आप कोई लक्ष्य रखते हो और उसे पाना चाहते हो| यह ठीक है| लालच वह है 'मुझे ये किसी भी तरह किसी भी कीमत पर चाहिए ही चाहिए| चाहे इससे मुझे या किसी और को तकलीफ हो|

प्रश्न : गुरूजी, सब कुछ के लिए धन्यवाद| मैंने छ महीने पहले आर्ट ऑफ़ लिविंग शुरू किया| मुझे पता है मैं इस यात्रा को जरी रखूंगी क्योंकि यह जीवन को बदलने वाला है| मुझे जिज्ञासा हो रही है आप किस तरह अपने व्यस्त जीवन में अपने आप को आधुनिक तकनीक और ख़बरों से सूचित रखते हो|
(श्री श्री केवल मुस्कुराये)

प्रश्न : गुरूजी, मैंने देखा है कि अनजाने में मैं अपनी तुलना अन्य लोगों के साथ करने लगती हूँ| इसे कैसे बंद करूँ? कृपया मेरी मदद करो|

श्री श्री रवि शंकर :
अनजाने में रोकने से यह आदत अनजाने ही खत्म हो जायगी| आप जानते हुए इसे क्यों रोकना चाहते हो? इसे ऐसे ही रहने दो| समझे! आपकी रोकने की कोशिश समस्या बन जायेगी| आप इसमें अटक कर रह जाओगे| केवल विश्राम में रहो| और अधिक ध्यान, अडवांस कोर्स और मौन रहने वाले कार्यक्रम करो| इससे अपने आप आदत छूट जाएगी|

प्रश्न : गुरूजी संतुलन और संयम को कैसे बनाये रखें? यदि मैं अपना जीवन १०० प्रतिशत रह कर जीउँ तो मैं घटनायों के प्रति लगाव और प्रेमातुर बन जाती हूँ| यदि मैं वैराग में रहूं तो थोड़ी सुस्त हो जाती हूँ| ओर कैसे खुद्द को जुड़ा हुआ महसूस करूँ?मुझे अभी भी खालीपन और विरह लगती है| इनसब का कोई जबाब नहीं मिलता|

श्री श्री रवि शंकर :
यह बहुत अच्छा है| आप भाग्यशाली हो| जब आप विरह अनुभव करते हो तो वास्तव में आप पथ पर हो| बहुत अच्छा| इसके बारे में चिंता मत करो|

प्रश्न : जय गुरुदेव! क्या आप २०११ के बारे में बताएँगे? हम चिंतित हैं|

श्री श्री रवि शंकर :
क्या आप को याद है ,यदि आपमें से कुछ लोग १९९९ में इसी आश्रम में थे तो बहुत से लोग डरे हुए थे,डर से लगभग पगला गए थे। वे पूछ रहे थे कि १९९९ में कम्प्यूटर क्रैश हो जायेंगे तो वे क्या करेंगे? हमें भोज नहीं मिलेगा| लोगों ने अपने घरो के भूतल में दूध और खाद्य समग्री इकट्ठी करनी शुरू कर दी थी| मैं उस वक्त हैलिफक्स में था और लोगों ने मुझे से यही एक प्रश्न किया था| लोग सामान इकट्ठा कर रहे थे और उन्होंने मुझे बताया, "हमने तीन महीने का अनाज इकट्ठा कर लिया है|" मैंने तब भी कहा था कि कुछ नहीं होगा| सब व्यवसाय हमेशा की तरह होंगे| अब भी मैं कह रहा हूँ २०१२ हम देखेंगे,१३ हम देखेंगे और सब व्यवसाय हमेशा की तरह होगें। सिर्फ यह होगा की लोग और अधिक अध्यात्मिक हो जायेंगे| आपने देखा होगा अभी के युवा और बच्चे (येस और येस + के बच्चे) कैसे प्रश्न पूछ्तें हैं| मुझे लगता है पुरानी पीढ़ी के लोग देख कर हैरान हो जायेंगे की युवा पीढ़ी कितनी अध्यात्मिक बनती जा रही है| जो प्रश्न आपको ४०-५० वर्ष की उम्र में आये उन्हें वे १५ बर्ष की उम्र में आ रहे हैं|"जीवन क्या है", जो यहाँ पर ५० या उससे ज्यादा उम्र के लोग हैं मैं उन से पूछता हूँ - क्या आपको ऐसे प्रश्न उस उम्र में आये थे? आज बच्चे इतने अध्यात्मिक हैं| समय आएगा जब आप देखोगे कि बच्चे और अधिक जागरूक हो जायेंगे| वे कपडे,गहनों और बहुत ज्यादा दिखावे में नहीं हैं| यद्यपि उनमें इलेक्ट्रोनिक चीजों के लिए इच्छा है और हाँ कारों के लिए भी| फिर भी यह इतना अधिक नहीं है जितना पहले के लोगों को था| आप लोगों में, युवाओ और बच्चों में बहुत अंतर देखोगे| वे ऐसे होंगे| शुरू में जब वीडियो खेल आए तो सब को वीडियो खेलों का कितना शौक था, वे सभी हिंसात्मक खेल| समय के साथ साथ यह कम होता जा रहा है| मुझे लगता है यह कम हो रहा है| यह होगा कि अधिक से अधिक लोगों का आध्यात्मिकता की ओर झुकाव होगा|

प्रश्न : मैंने इटरनिटी प्रोसेस किया| पिछले जन्मो से मैंने बहुत कुछ देखा| बहुत भक्ति का अनुभव हुआ| यहाँ तक मैंने आपको भी देखा| इसमें कितनी सचाई है? क्या मैं ऐसे ही बात को बढ़ा रही हूँ?

श्री श्री रवि शंकर :
देखो इसमें संदेह मत करो| ये अनुभव एक मिश्रण है, एक तो आपकी पवित्र चेतना और आपके गहरे अनुभवों से आता है, और कुछ आपकी कल्पना से भी आ सकता है| कभी कभी आप जो कल्पना करते हो वो अनुभव हो जाता है| यह आम तौर पर मिश्रण होता है - २०% कल्पना ८०% वास्तविकता से मिल जाती है| आप को बैठ कर चिंता या सोचने कि आवश्यकता नहीं है| यह एक अनुभव है, जैसे भी यह आये इसे स्वीकार करो और आगे बढ़ो| लोगों को कई बार कूछ भ्रम भी हो जाते हैं। इसीलिए मैं कहता हूँ अपने आप को किसी भूमिका के साथ जोड़ लेना अपने आप को सीमित कर लेना है| आप इन सब अनुभवों से कहीं अधिक हो| आप इन सब पहचानो से और बहुत कुछ हो| यही आत्म ज्ञान है| यही अध्यात्मिक ज्ञान है| यही उपनिषद ज्ञान है|

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अंहकार का अर्थ है किसी एक पहचान में फंस जाना

प्रश्न: विकास के आधुनिक सिद्धांत (Modern theory of evolution) के बारे में आपके क्या विचार हैं? अगर यह सत्य है तो आत्माएं किस चरण में आती हैं? उससे पहले आतमाओं की क्या स्थिति होती है?

श्री श्री रवि शंकर: आधुनिक सिद्धांत विकसित हो रहे हैं | उनके अनुसार सब कुछ कहीं से शुरु हुआ है |मैं इसे linear understanding कहूँगा| लेकिन एक spherical thinking भी है जिसकी यहाँ कमी है| ओरिएंट में sperical thinking रही है| पच्छम में linear understanding| सबका कहीं से शुरु होना आवश्यक है| एक एडम और ईव होने ही चाहिए जिनकी सब संतान हैं| इसके आधार पर हर कोई एक दूसरे का भाई यां बहिन है| तो फिर कोई किसी से शादी कैसे कर सकता है? इस तरह से शादी ही एक अपराध हुआ| अगर ईश्वर एक एडम और ईव बना सकते हैं तो वह ऐसे और भी बना सकते थे| और फिर ईश्वर ने ऐसा ज्ञान का फल क्यों बनाया जिसे खाने के लिए मना ही करना था? इस तरह से हमारी सोच बहुत संकुचित है और हमे व्यापक समझ अपनाने की आवश्यकता है| हमे गोलाकार सोचने की आवश्यकता है| शुरुआत में किसी एक जीव का नहीं बल्कि सबकी, सब वस्तुयों की एक साथ रचना हुइ| अगर मैं तुमसे पूछ्ता हूँ कि टैनिस की गेंद का प्रारंभ बिन्दु कौन सा है तो तुम्हारा क्या उत्तर होगा? गेंद पर हर एक बिन्दू पहला है, और अंतिम भी | प्राचीन लोगों की यही सोच रही| तभी उन्होने कहा, "संसार आदि है और अनंत भी", अर्थात इसकी ना शुरुआत है और ना ही अंत| आत्मा की ना कोई शुरुआत है और ना अंत| जिस कारण ब्रह्मांड का अस्तित्व है , उस दिव्यता की ना शुरुआत है और ना ही अंत| तीनो एक ही हैं| यही अद्वैत का सिद्धांत है कि सब कुछ एक ही तत्व से बना है| यही theory of relativity है| String theory और आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही कहना है| आइन्सटाईन भगवद गीता का अध्ययन करके हैरान रह गया था|
ब्रह्मड में सबकुछ, चाहे जीवीत है यां अजीवित, एक ही चेतना से बना है| प्राचीन ग्रंथ जैसे उपनिष्द और गुरु ग्रंथ साहिब में भी यही कहा गया है|  सिक्खों में अभिवादन करने का बहुत उत्तम तरीका है - सत्श्रियाकाल| सत+ श्री + अकाल: सत - सत्य, श्री - धन, अकाल - जो समय से परे है| तो जब आप यह कह कर अभिवादन करते है, आप एक दूसरे को अपना वासत्विक स्वरूप याद दिलाते हैं, वो स्वरूप जो समय से परे है और आपका असली धन है| तुम अपने से बाहर क्या ढूंढते हो, सब कुछ अपने भीतर ही है|

प्रश्न: यदि सब कुछ बदल रहा है, कुछ भी करने का क्या मतलब है?

श्री श्री रवि शंकर: यह सवाल पूछने में क्या मतलब है? उत्तर समझने में क्या मतलब है? हम कुछ करते हैं क्योंकि हम कुछ किए बिना नहीं रह सकते
यह भी बदलाव का हिस्सा है|
'सब कुछ बदल रहा है' - यह समझने के लिए है|
पर हमें कुछ करते रहना है, और यदि हम ऐसा करते हैं जो हमे शांति देता है और विकास की तरफ ले जाता है तो यह बहाव की दिशा में तैरने जैसा है|
और कुछ ऐसा करना जो हमे विकास से दूर ले जाता है, बहाव की उल्टी दिशा में तैरने जैसा है|

प्रश्न: अपने प्रति अपराधबोध और आलोचना के भाव से कैसे बाहर आ सकते हैं? मुझे ऐसा करके बहुत दुख होता है जब्कि मैं जानता हूँ जो मैने किया वो मेरे लिए सबसे बेहतर था|

श्री श्री रवि शंकर: और Advance कोर्स

प्रश्न: अहंकार क्या है? क्या अहंकार और प्रेम एकसाथ चल सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर:
अहंकार अलगाव की भावना है, एक अलग पहचान की भावना
तीन प्रकार का अहंकार है:

१. 'मैं यह हूँ'
२. 'मैं यह नहीं हूँ'
३. 'मैं दूसरों से भिन्न हूँ'

अहंकार कैसे लुप्त हो सकता है?
जब अहंकार का विस्तार होता है  'मैं यह हूँ', 'मै यह भी हूँ', 'मैं वो भी हूँ'| मुश्किल तब होती है जब हम किसी एक पहचान में फंस जाते है| जैसे कि अगर तुम सेना अधिकारी हो और घर पर भी तुम वैसा ही व्यवहार करते हो तो मुश्किल होती है| तुम सेना अधिकारी हो, यह तुम्हारी एक पहचान है| पर तुम एक पिता, एक पति, एक पुत्र भी हो यह सभी तुम्हारी पहचान है| जब तुम इन सब भूमिकाओं को एक जैसा महत्व देते हो तो अहंकार घुल जाता है| एक संकुचित पहचान से दिव्यता के साथ पहचान करना ही अहंकार का विस्तार करना है तुम मैंपन से अहं ब्रह्म की ओर बढ़ते हो| 'मैं कुछ हूँ' से 'मैं कुछ नहीं हूँ', और 'मैं कुछ नहीं हूँ' से 'मै सबकुछ हूँ' पर यह बहुत दार्शनिक लगता है तुम अपने दफ्तर में जाकर यह नहीं कह सकते कि तुम कुछ नहीं हो ना ही तुम अपने घर पर कह सकते हो कि तुम सबकुछ हो ऐसा करने से कुछ नहीं होगा| मैं कहूँगा, अपने अहंकार से बाहर आने का सबसे श्रेष्ठ तरीका है - सहजता|
अहंकार से तुम असहज, अप्राकृतिक और अलग महसूस करते हो हर किसी से हर परिस्थिति में सहजता से व्यवहार करना, यह एक बच्चे की तरह सरल रहना है|
अहंकार के बारे में एक अंतिम बात यह कहूँगा कि अगर तुम्हे लगता है कि तुममें अहंकार है तो इससे छेड़-छाड़ मत करो| इसे अपनी जेब में रखो और चिन्ता मत करो
प्रश्न: मैं अपने शरीर को शुद्ध कैसे कर सकता हूँ?

श्री श्री रवि शंकर: प्राणायाम, सही भोजन, मन और शरीर को विश्राम देकर, और सही मार्गदर्शन में उपवास रखकर

प्रश्न: हम कौन से निर्णय दिल से लेते हैं और कौन से दिमाग से?

श्री श्री रवि शंकर: व्यापार दिमाग से और सेवा दिल से करो

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