"अगर किसी व्यक्ति ने तुम्हारा बुरा किया है तो उसे सुधारो"

बैंगलोर आश्रम, ५ सितंबर २००९

श्री श्री रवि शंकर ने आज कहा –


प्रश्न : अगर कोई राजनेता सत्ता में है और भ्रष्ट है, उसकी वजह से बहुत लोग दुख उठा रहे हैं, तो क्या ये ठीक होगा कि उसके मरने के लिये प्रार्थना की जाये?

श्री श्री रवि शंकर :
प्रार्थना करो कि उसे सद्‍बुद्धि मिले। अगर ऐसा नही होता तो प्रार्थना करो कि वो सत्ता में ना रहे। कई मंदिरों के प्रवेश द्वार पर तुम देखोगे कि राक्षसों की मूर्तियां बनाई गई हैं। राक्षसों को भी भगवान के दरबार के बाहर या उनके चरणों में शरण मिली है। पर अगर उन्हें मंदिर के गर्भ-गृह में सिंहासन पर बिठा दिया जाये तो गड़बड़ हो जायेगी।

प्रश्न : जब मैं आपको नहीं देखता हूं या किसी दिन सुदर्शन क्रिया नहीं कर पाता हूं, या सत्संग नहीं कर पाता हूं, तो मैं बहुत व्याकुल हो जाता हूं। क्या मैं आप से या Art of Living में आसक्त हो रहा हूं?

श्री श्री रवि शंकर :
ये आसक्ति ठीक है।

प्रश्न : ऐसा कहा गया है कि कर्म करने की प्रेरणा चेतना से आती है। साथ ही, ये भी कहा गया है कि कर्म करने की प्रेरणा आती है पूर्व संसकारों से। (हमारे मन पर पड़े पिछले कर्मों की छाप से।) इन दोनों में से कौन सी बात सही है?

श्री श्री रवि शंकर :
दोनों ही बातें अलग-अलग स्तर से सही हैं। कर्म से संस्कार बनता है, और संस्कार से परम चेतना का अनुभव होता है। तो इस बारे में सोचो कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये।

प्रश्न : बदला लेना बुरी बात क्यों कही गई है, जबकि प्रकृति भी मनुष्यों के कर्मों का फल देती है?

श्री श्री रवि शंकर :
बदले की भावना, मनुष्यों के लिये उपयुक्त नहीं है। ये un-evolved जानवरो की प्रकृति है।
बदले की भावना से तुम बहुत परेशान होते हो। जब तक तुम बदला नहीं ले लेते, तुम नर्क जैसी स्थिति में रहते हो। बदला लेने का विचार ही तुम्हें नर्क में डाल देता है। तुम भी यातना सहते हो और दूसरों को भी यातना देते हो। किसी को कोई लाभ नहीं होता। दूसरों को शिक्षित करना आवश्यक है।

अगर किसी ने तुम्हारा बुरा किया है, तो उन्हें समझाओ और सुधारो। इसके बिना तुम स्थिति को नहीं सुधार सकते हो। सजग रहो। अगर कोई तुम्हें धोखा देता है तो इससे तुम्हारा अज्ञान उजागर होता है। हम बुद्धिमान हो सकते हैं और दूसरों को ज्ञान दे सकते हैं। जब बदला लेने का विचार आये, तो विचार करो कि इससे तुम्हें कितना नुक्सान होगा, और हासिल क्या होगा?


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"ध्यान में बैठना सर्वोत्तम पूजा है"


बैंगलोर आश्रम, ४ सितंबर २००९

प्रश्न : लाखों लोग आध्यात्म के पथ पर चलते हैं, पर कोई कोई व्यक्ति ही लक्ष्य तक पहँच पाता है। क्या मैं उन भाग्यशाली व्यक्तियों की गिनती में आ सकता हूं?

श्री श्री रवि शंकर :
ये कोई नई बात नहीं है। भगवद गीता में भगवान कृष्णः ने कहा था कि विश्व की इतनी जन्संख्या में से कुछ ही लोग इस पथ पर चलते हैं।

जैसे प्रधान मंत्री की कुर्सी के लिये कई लोग चुनाव लड़ते हैं, पर अंत में एक ही चुना जाता है। जैसे कई लोग IPS, IAS अफ़सर बनना चाहते हैं..। आध्यात्म के पथ पर ये अच्छी बात है कि हर व्यक्ति लक्ष्य तक पहुँच सकता है।

बुद्ध के काल में दस हज़ार लोगों ने मुक्ति प्राप्त की। आज भी लाखों लोग साधना कर रहें हैं और उन में से कई लक्ष्य को पा लेंगे।

सागर के पास कुछ लोग जाते हैं ताज़ी हवा खाने के लिये। कुछ लोग सागर से मोती निकालने जाते हैं। कुछ लोग सागर से तेल निकालने के लिये जाते हैं। हमारी पात्रता ये निर्धारित करती है कि हम कहां पहुँचेंगे। इस पथ पर एक भी कदम बेकार नहीं जाता है। वो तुम्हें आगे ही ले जायेगा।

एक बार तुम प्रेम में पीड़ा का अनुभव कर लेते हो तो तुम मुक्ति चाहते हो। शांति और प्रेम के बिना, आनंद अधूरा है। आनंद हमारा स्वभाव है। वहाँ पहुँचने में कोई व्यवधान नहीं है। ये ना सोचो कि तुम वहाँ पहुँच पाओगे या नहीं। अगर तुम ऐसा चाहते हो, तो ये होगा – आज या कल।

प्रश्न : ईसाई धर्म में ‘फ़ैसले के दिन’ का क्या रहस्य है?

श्री श्री रवि शंकर :
ईसाई धर्म कहता है कि फ़ैसले का दिन आयेगा। उस दिन सभी मुर्दे धरती से बाहर आ जायेंगे, और उनसे उनके अच्छे और बुरे कर्मों का हिसाब लिया जायेगा, जिसके हिसाब से उन्हें स्वर्ग यां नर्क में भेजा जायेगा।

आज जो ‘फ़ैसले के दिन’ का मतलब समझा जाता है, वो उसका असल रूप नहीं है। समय के फेर और भिन्न व्याख्याओं से इसका अर्थ वो नहीं रहा जो कि असल में था। जिस भौगोलिक स्थान पर ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म का जन्म हुआ था, वहाँ लकड़ी की कमी थी। वहाँ की धरती पहाड़ी और पथरीली थी। वहाँ मुर्दों को दफ़न करना बेहतर विकल्प था, और ये महंगा भी नहीं था।

भारत में लकड़ी की तादाद बहुत थी, तो यहां मृत शरीर को जलाने की प्रथा चली। जबकि इस्लाम और ईसाई धर्म जहाँ जन्में वहाँ मुर्दों को जलाना संभव नहीं था। तो, स्थान के अनुसार लोग प्रथा बनाते हैं।

‘फ़ैसले के दिन’ की लोक प्रचलित व्याख्या ये है कि मरे हुये लोग अपनी समाधि से बाहर आयेंगे। पर ऐसा नहीं है।

बाइबल में ईसा ने कहा है, ‘Judge not and ye shall not be judged.’ ईसा कहते हैं, किसी व्यक्ति की आलोचना मत करो। निर्णय का काम भगवान पर छोड़ दो। एक दिन (फ़ैसले के दिन), भगवान अपना निर्णय उस व्यक्ति को देंगे।

भारत में हम कर्म पर विश्वास करते हैं, जिसका अर्थ है कि तुम अपने सभी कर्मों का फल भोगोगे। अच्छे कर्म सुख लायेंगे और बुरे कर्म दुख लायेंगे। इसी तरह, ईसाई धर्म में कहा कि किसी के कर्म की आलोचना मत करो, सबको अपने कर्मों का सलीब उठाना ही है।

प्रश्न : कभी कभी मैं अपने भीतर कई विकार पाता हूं, और ये महसूस करता हूं कि मैं आध्यात्म के पथ पर चलने लायक नहीं हूं। मैं क्या करूं?

श्री श्री रवि शंकर :
आत्मग्लानि से छुटकारा पाओ। अभी तक तुम आत्मग्लानि में तप रहे थे और तुम्हें ये पता तक नहीं था। अब जब तुम ये जान गये हो, तो इसे और नहीं सह पाओगे। इससे तुम साधक बन गये। कितने लोगों ने अपने विकार छोड़ दिये हैं। सत्संग और सेवा करते रहो और ध्यान की गहराई में जाओ – इस से तुम्हारे सब विकार और पुराने संस्कार मिट जायेंगे। अगर तुम एकदम नाकारा होते तो तुम्हें यहाँ, सत्संग में, इस पथ पर आने का सौभाग्य नहीं मिलता। तुमने कुछ अच्छे कर्म किये हैं। अपने अच्छे कर्मों पर भी ध्यान दो।

प्रश्न : क्या समाधि से आगे भी कुछ है?

श्री श्री रवि शंकर :
समाधि से आगे है बोध मात्र शुद्ध सत्ता।

ऐसी सजगता जो ना भीतर की है और ना बाहर की। बेहोशी नहीं है। शुद्ध चेतना है। कोई फ़र्क नहीं पड़ता चाहे आंखें खुली हों या बंद – सब एक जैसा ही लगता है।

प्रश्न : समाधि क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
जब मन केन्द्रित और विश्राम में होता है, तब समाधि की एक झलक मिलती है। सुदर्शन क्रिया के बाद जब तुम लेटते हो तो ये अनुभव तुम्हें होता है। जब तुम्हें लगता है – मुझे पता नहीं मैं कहाँ हूं, पर मैं हूं।

प्रश्न : आप कहते हैं कि भगवान के सभी रूप चित्रकार की कल्पना से बने है। फिर मंत्रजाप से इनका क्या संबंध है?

श्री श्री रवि शंकर :
कांचीपुरम के कामाक्षी मंदिर में एक सुंदर स्वरूप है। वहाँ तुम्हें प्रसाद मिलता है। पर ऐसा कहा जाता है कि इस का फल तुम्हें तब तक नहीं मिलेगा जब तक तुम इसे मंदिर के पीछे अरूप लक्ष्मी को अर्पित नहीं करते। अरूप लक्ष्मी से तुम्हें फिर प्रसाद मिलता है।

इसका अर्थ बहुत गहरा है। ये एक प्रथा है जिसकी जड़ वेदांत में है। तुम्हें रूप से अरूप तक ले जाया जाता है। पहले तुम रूप की पूजा करते हो, फिर शालिग्राम (काले रंग का गोलाकार पत्थर) की। मन, जब रूप में केंद्रित हो जाता है, तब उसे गोल पत्थर में केंद्रित किया। जब वहाँ मन लग जाये तो उससे आगे मंत्र आता है।

भगवान कहीं आसमान में नहीं हैं, बल्कि स्पंदन में है – हमारी चेतना है। ध्यान में बैठना सर्वोत्तम पूजा है। उस में मंत्रों को भी समर्पित कर देते हैं। मंत्र का उपयोग भी कुछ कुछ रूप जैसा ही है (केंद्रित करने के लिये)। ये एक पड़ाव है।

प्रश्न : प्रसाद का वैज्ञानिक महत्व क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
प्रसाद वही है, जिसके मिलने से मन प्रसन्न हो जाता है। कर्नाटक के एक संत ने लिखा है कि, ये समय जो हमें मिला है, ये प्रसाद है, हमारी सांस, शरीर, मन, प्राण और भाव, सभी प्रसाद हैं। हमें जीवन में जो भी मिला है वो प्रसाद है। जो मैंने बिछाया है वो प्रसाद है, और जिससे मैंने अपने आप को ढका है, वो भी प्रसाद है।


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"मन की आनंदित और जागृत अवस्था के बीच चैतन्य विश्राम करता है। "

बैगलोर आश्रम, ३ सितम्बर २००९

प्रश्न: कई बार सुख की इच्छा और पुरानी याद की वजह से मैं गलतियां दोहराता हूं। इससे ऊपर कैसे उठूं?

श्री श्री रवि शंकर: इससे ऊपर उठने के तीन उपाय हैं। सबसे पहले, अपने आप को याद दिलाओ कि पूर्व भी तुम्हें इसकी वजह से कितना कष्ट उठाना पड़ा था। हर बार सुख की लालसा से तुम्हें दुख ही मिला है। यां तो खुद पर बीते अनुभव याद करो यां दूसरों के अनुभव से सीख लो।

दूसरा उपाय है, सर्वोत्तम आनंद की एक झलक भर पा लो। बिना प्रयत्न के जो सुख प्राप्त होता है, वो प्रयत्न से प्राप्त सुख से श्रेष्ठ है।

तीसरा उपाय है, अपने आप को व्यस्त रखो। जब तुम व्यस्त रहोगे तो सुख का लालच छिपा रहेगा, यां उसका बीज अंकुरित नहीं होगा।

प्रश्न: अनंत पद्म चतुर्दशी का क्या महत्व है, और कलाई पर लाल धागा बांधने का क्या उद्देश्य है?

श्री श्री रवि शंकर: अनंत पद्म चतुर्दशी का त्यौहार अनंत को मनाने का उत्सव है। (अनंत चतुर्दशी के दिन अनंत पद्मनाभ स्वामी (भगवान विष्णु) की पूजा होती है।)

जीवन का उच्चतम ध्येय है अनंत का अनुभव करना। बिना अनंत के अनुभव के मनुष्य जीवन पशु के जीवन के समान है। आत्मा की अनंतता की एक झलक मात्र पा जाने से जीवन में बदलाव आ जाता है। सभी साधक इसके ज़रिये ही साधक बनते है - ध्यान में साधक अनंत की एक झलक का अनुभव कर लेते हैं।

चित्रकार ने भगवान विष्णु को क्षीर सागर (दूध के सागर) पर नाग के बिछौने पर विश्राम करते हुये दिखाया है। मन की आनंदित स्थिति क्षीर सागर है, जहाँ संतोष की लहरे हिलोरे लेती हैं। नाग, मन की जागृत अवस्था का प्रतीक है - कुण्डलिनी शक्ति जो कि हमारे भीतर है। मन की आनंदित और जागृत अवस्था के बीच, चैतन्य विश्राम करता है। इसकी तीन परते हैं। दूध के सागर का अर्थ है कि वातावरण अनुकूल है। वातावरण के अनुकूल होने पर ही समाधि संभव है। शास्त्रों का अध्य्यन मनन करने के लिये भी ये आवश्यक है कि वातावरण में कोई व्यवधान ना हो। अगर आस-पास भूकंप यां बाढ़ आई हो, तो कोई बैठ कर शास्त्र का पाठ, यां ज्ञान की चर्चा नहीं करेगा। इसीलिए क्षीर सागर अनुकूल वातावरण का प्रतीक है।

जब तक ज्ञान का गहराई से अनुभव ना हो, वह ज्ञान सतही रहता है। जितना चाहे कोई वेदांत का अध्य्यन कर ले, पर बिना अनुकूल वातावरण के...।

जब कुण्डलिनी शक्ति ऊपर उठती है, तब हमारे भीतर जो चैतन्य शक्ति है, जो अनंत है, उसी का राज हो जाता है। उस अनंत शक्ति की नाभि से बिना किसी प्रयास के ही कमल का प्रागट्य हो जाता है। इसी तरह सृजन शक्ति का जन्म हुआ।

चैतन्य के आनंदित स्वरूप से सृजन शक्ति का उदय होता है। बड़े से बड़े वैज्ञानिकों ने विश्राम करते हुये ही नये अविष्कार किये हैं।

शोधकर्ताओं के लिये ये परम आवश्यक है कि उनका वातावरण अनुकूल हो - कोई शोर या व्यवधान ना हो। आप किसी से दो दिन में कोई नया अविष्कार करने को नहीं कह सकते हैं। अविष्कार, समय के बंधन से परे है, और प्रतिकूल वातावरण में नहीं हो सकता है।

नाभि को दूसरा मस्तिष्क भी कहा जाता है। इस तरह, हमारे शरीर में दो मस्तिष्क हैं। एक तो सिर है, और दूसरा है नाभि। इसे मणिपुर चक्र (solar plexus) कहते हैं। दिमाग जो कार्य करता है, मणिपुर चक्र उसकी सहायता करता है। आधा कार्य तो मणिपुर चक्र ही करता है। इसीलिये, जब पेट अस्वस्थ होता है, तो अक्सर दिमाग में उथल पुथल होती है, मन में बहुत सारे विचार होते हैं।

इसलिये कहा गया है कि योग साधना से मणिपुर चक्र खिल उठता है। जो लोग योग साधना नहीं करते, उनका मणिपुर चक्र एक आमले के आकार का होता है। जब कुण्डलिनी शक्ति विकसित हो, तो मणिपुर चक्र का आकार एक संतरे से भी बड़ा हो जाता है - एक खिले हुये कमल के फूल की तरह।

धागा एक बहुत बढ़िया प्रतीक है। भारत में हर महीने कोई ना कोई उत्सव होता है। जिसका उद्देश्य है किसी ना किसी तरह उत्सव मना कर चेतना को ऊँचा उठाना। कुछ लोग व्रत करते है, कुछ लोग पूजा करते हैं, और एक प्रतीक के रूप में एक धागे में १४ गांठ लगा कर कलाई में बांधते हैं। हमारे देश में, पूर्णिमा के एक दिन पहले यां बाद में अक्सर कोई ना कोई उत्सव होता है। मन का संबंध चंद्रमा से है। पूर्णिमा और अमावस्या के आस पास के दिनों में मन में अधिक हलचल रहती है। इस दौरान मानसिक और शारीरिक रोग बढ़ जाते हैं। इन दिनों अगर हम उत्सव में व्यस्त हों तो स्वास्थ्य भी ठीक रहता है।

पूर्णिमा के दिन, नींद भी कम आती है। इस समय उत्सव की व्यस्तता के बाद नींद में भी मदद मिलती है।

हर व्रत के साथ कोई कथा जुड़ी है। इन कथाओं में किसी राजा यां व्यापारी की कहानी होती है जो वह व्रत करने से अपनी समस्याओं को सुलझा सका, और बहुत लाभ प्राप्त किया। तो, इस लालच से कई लोग कोई व्रत-नियम करते हैं। हर कथा ये दर्शाती है कि कैसे पूजा करने से समस्या का समाधान हो गया। आजकल लोग सोचते हैं कि इन कथाओं के श्रवण मात्र से वे अपनी समस्याओं से छुटकारा पा जायेंगे। हमारे पूर्वज बड़े कुशल थे। हर उत्सव के साथ उन्होंने कोई लाभ जोड़ दिया था।

जीवन में हमें जो कुछ मिला है, उसके लिये कृतज्ञ होना सर्वश्रेष्ठ है। किसी लाभ के लोभ में पूजा करना, मध्यम प्रकार की पूजा है। और भय के कारण पूजा करना निम्न प्रकार की पूजा है। पर, कैसे भी करें, लाभ ही है।

प्रश्न: ये कैसे जाने कि हमें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया है या नहीं?

श्री श्री रवि शंकर: इसका क्या प्रमाण है कि तुम्हारे पैर में दर्द है? तुम ये कैसे जानते हो कि तुम्हारे पैर में दर्द है? आत्मज्ञान हो जाने पर ऐसे प्रश्न मन में नहीं उठेंगे। दूसरों से पूछना कि तुम्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया है कि नहीं, ये अज्ञान है। आत्मज्ञान हो जाने पर हमें प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती है। जैसे तुम्हारा दर्द, स्वयं ही प्रमाण है, वैसे ही आत्मज्ञान स्वयं ही प्रमाण है। पर कल्पनाओं में नहीं फंसना कि आत्मज्ञान कैसा होगा। सहज रहो।

तुम वो हो, जो तुम हो, इसलिये विश्राम करो। कुछ करने से आत्मज्ञान नहीं होता, अपितु विश्राम करने से आत्मज्ञान होता है। और विश्राम तुम कुछ करने के बाद ही कर सकते हो।

प्राणायाम और आसन करने से रजोगुण से तुम निवृत्त होते हो। और तब सत्वगुण बढ़ता है। जब ऐसा होता है तब हम ध्यान कर सकते हैं और सजगता बड़ती है। अगर ठीक तरक से नींद ना आये तो सत्वगुण नहीं जगेगा।रजोगुण के द्वारा तमोगुण से ऊपर उठा जा सकता है। और रजोगुण से ऊपर उठने के लिये आवश्यकता है विश्राम की और कर्म की।

भगवद् गीता में कहा है, 'युक्ताहार विहारस्य योगः भवति सिद्धितः।' समाधि ना तो अधिक सोनेवाले लोगों के लिये है, और ना ही उनके लिये जो बहुत अधिक कार्यों में पूरे दिन व्यस्त रहते हैं।


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"थोड़ा सा त्याग करने से भी व्यक्ति का व्यक्तित्व खिल उठता है"

बैंगलोर आश्रम, १ सितंबर २००९

प्रश्न: हम मे से हरेक के पास विश्व के लिये एक संदेश है, पर वह माया से ढक जाता है। उस संदेश को बाहर कैसे लायें?

श्री श्री:
जब हम शांत और अनासक्त होते हैं, तो हमारा संदेश खुद ही बाहर आ जाता है।

प्रश्न: संकल्प का क्या महत्व है, और इसे कैसे शक्तिशाली बनायें? क्या विश्व संकल्प के बल पर ही चलता है?

श्री श्री:
मन में संकल्प और विकल्प भरे हुये हैं। हर काम संकल्प से ही पूरा होता है। अपना हाथ हिलाने की प्रक्रिया के पहले हाथ हिलाने का संकल्प आता है। अगर मन में एक साथ २० संकल्प उठें तो कोई काम नहीं होता। जब हमारा मन शांत और विश्राम की स्थिति में हो तो हमारा संकल्प शक्तिशाली बनता है।

एक कमज़ोर मन का संकल्प कमज़ोर होता है, और शक्तिशाली मन का संकल्प शक्तिशाली होता है। हम अपने मन को साधना और ज्ञान से शक्तिशाली बना सकते हैं। तब संकल्प भी शक्तिशाली होगा। एक ज्ञानी व्यक्ति ५० दिनों के बाद एक संकल्प करता है और एक अज्ञानी व्यक्ति एक दिन में ५० संकल्प करता है।

प्रश्न: अगर विपरीत मूल्य एक दूसरे के पूरक होते हैं, तो क्या मैं अच्छा हूं या बुरा, या दोनो ही?

श्री श्री:
तुम अपने आप पर अच्छे या बुरे होने का लेबल क्यों लगाना चाहते हो? लेबल को छोड़ो और सहज हो कर रहो। शांति से रहो। जब हम किसी दुर्गुण को अपना समझते हैं तो हम आत्मग्लानि से भर जाते हैं। जब हम किसी सदगुण को अपना समझते हैं तो हम घमंड से भर जाते हैं। ये दोनों ही स्थितियां मन की अस्वस्थता दिखाती हैं। सदगुण और दुर्गुण, दोनों ही परमात्मा को समर्पित कर दो।

एक समर्पित व्यक्ति अच्छा ही होगा। समर्पण से जीवन केंद्रित और चरित्रवान हो जाता है। इन दोनों के बिना जीवन को दिशा नहीं मिलती।

थोड़ा सा त्याग करने से भी व्यक्ति का व्यक्तित्व खिल उठता है। त्याग के बिना तेज नहीं आता। त्याग से जीवन में लंबा सा दुखी चेहरा लटकाकर नहीं रहना होता। विरक्त आनंद में रहते हैं, जबकि कामी लोग दुख के बोझ से दबे रहते हैं। अपने आप को खाली कर देना, समर्पण है, साधना है।

प्रश्न: क्या आत्मसाक्षात्कार के लिये दिन में एक घंटे की साधना काफ़ी है?

श्री श्री:
२४ घंटे भी काफ़ी नहीं हैं और दस या दो मिनट की समाधि भी काफ़ी है। साधना समय सापेक्ष नहीं है। अपने पूरे जीवन को साधना बना लो। पर, साधना ना करने के लिये ये बहाना नहीं बनाना! और ये भी मत सोचना कि दिन में एक घंटे साधना कर लेने पर तुम बाकी समय मनमानी कर सकते हो।

प्रश्न: मैं परमात्मा पर केंद्रित हूं, फिर भी बेचैनी है। हालांकि बाहर से सब एकदम ठीक लगता है।

श्री श्री:
हरेक साधक के जीवन में ऐसा समय आता है जब दिल बेचैन हो जाता है। पश्चिमी देशों में इसे कहते हैं - आत्मा के लिये काला दिन।

ऐसा समय आता है जब सत्वगुण कम हो और रजोगुण और तमोगुण अधिक हो, तो बेचैनी का जन्म होता है। तीन तरह की ताप जीवन में आते हैं, जिनमें से एक है, आध्यात्मिक ताप। पर ये थोड़े समय के लिये ही होता है। इसीलिये सत्संग बहुत आवश्यक है, खासतौर पर तब जब तुम्हारा मन सत्संग करने का बिल्कुल नहीं होता। १२ वर्षों में एक बार आध्यात्म में कमी आती है। तब अपने आप पर, साधना के मार्ग पर और गुरु पर शंका होती है। शास्त्रों में ऐसा बताया है। इसीलिये कुंभ मेला १२ साल में मनाया जाता है और तब सब संत मिलकर अपने सभी पाप धो लेते हैं। ये परंपरा बहुत पुरानी है। जिस स्थान पर साधक सत्संग करते हैं और जहाँ वेदों का उच्चारण होता है, वहां कलियुग कभी नहीं आता।

प्रश्न: कोई कार्य करने से पहले मुहूर्त देखने का क्या महत्व है?

श्री श्री:
ज्योतिष को ज्ञान की आंख कहा गया है। पर आजकल के ज्योतिषियों पर पूरी तरह विश्वास नहीं कर सकते हैं। ज्योतिष के पीछे दौड़ो मत। ज्योतिष ज्ञान का एक क्षेत्र है, शास्त्र है, और सत्य है। ज्योतिष एक विज्ञान है पर हर ज्योतिषी विज्ञानी नहीं है। साधना में बहुत शक्ति होती है। शिवजी, महाकाल हैं। जैसा भी काल हो, बस ॐ नमः शिवाय कहो। शिव में सभी पंचतत्व आ जाते हैं। शिव के बाहर कुछ नहीं है। ये बहुत शक्तिशाली मंत्र है।

जब तुम मंत्र का जप करो तो ये मत समझ लेना कि शिव यानि पूरे शरीर पर भस्म लगाये, हाथ में त्रिशूल लिये कहीं बैठें हैं...ये सिर्फ़ एक चित्रकार की कल्पना है। शिव, चैतन्य तत्व है, हमारी आत्मा है, हर जगह वर्तमान है, ऊर्जा का क्षेत्र है।

तुम्हें पता है कि हम माथे पर भस्म क्यों लगाते हैं? हमारे माथे पर तीन प्रकार के mites होते हैं, जो कि हमारे अंगूठे के निशान की तरह हर व्यक्ति में दूसरों से अलग होते हैं। इन mites को इनके स्थान में रखने के लिये हम माथे पर तीन रेखायें बनाते हैं।

रूस में हुये एक अध्य्यन में ये पाया गया कि गाय के गोबर या अग्निहोत्र की भस्म से लिपे हुये स्थान पर Chernobly disaster के दौरान परमाणु radiation से हुये बुरे असर बहुत कम हो गए थे।

प्रश्न: मै आश्रम में अपने आप को सुरक्षित महसूस करता हूं। बाहर की दुनिया में वापिस जाने के विचार से ही मुझे भय लगता है। मैं क्या करूं?

श्री श्री:
ठीक है, भय को रहने दो। जोश को जागृत करो। जो भी हो उसे होने दो। कम से कम ये विश्वास रखो कि तुम अकेले नहीं हो। दिव्य शक्ति तुम्हारे साथ है।

इस बात पर गौर करो कि भय के स्पंदन को तुम शरीर में कहां मह्सूस करते हो? हृदय में, कंठ में, शरीर के अन्य भागों में? प्राणायाम, भस्त्रिका और सुदर्श्न क्रिया करो। अपने आप को व्यस्त रखो, खाली बैठकर सोचने का समय ना दो। तब भय के लिये कहां समय है?


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"आध्यात्म, इस नये युग की भाषा है"

बैंगलोर आश्रम, २ सितंबर २००९

श्री श्री ने आज कहा -

प्रश्न : मैं अपने प्रदेश में एक सम्मानित, प्रतिष्ठित और जाना माना, उच्च पदाधिकारी हूं। जब मैं किसी अन्य जगह जाता हूं तो कभी कभी मुझे लगता है कि वहां मेरा महत्व कुछ कम है। मैं अपनी identity पर प्रश्न चिह्न लगा लेता हूं। इससे छुटकारा कैसे पाऊं?

श्री श्री :
तुम्हें पता है, तुम्हें एक सूट पहनना आना चाहिये – और उसे उतारना भी! अपने घर में सब राजा होते हैं। अकिंचन रहना सीखो – मैं कुछ नहीं हूँ। जीवन की पूरी यात्रा है, ‘मैं कुछ हूँ’ से ‘मैं कुछ नहीं हूँ’ और फिर ‘मैं ही सब हूँ।’ आमतौर पर जीवनयात्रा होती है, ‘मैं कुछ हूँ’ से ‘मैं कुछ नहीं हूँ’ और फिर, ‘मैं कुछ हूँ’!

सत्संग में बैठो। अपने वजूद को घुल जाने दो। अपने वजूद को घुलकर जाने देना, समाधि है, आनंद है। तुम जान जाओगे कि तुम अमर हो।

प्रश्न : Art of Living संस्था के लिये आपका क्या vision है?

श्री श्री :
आध्यात्म, इस नये युग की भाषा है। तुम अपना vision खुद बनाओ। मैं कहूंगा कि तुम दृष्टा बन जाओ, अपने दृश्य खुद बनाओ। परमात्मा तुम्हें नींद देंगे, स्वप्न तुम खुद बनाओ।

प्रश्न : अगर १ से १०० तक की rating करें और एक पत्थर का स्तर शून्य है और मनुष्य का १००, तो बीच के बाकी जीवों का क्या स्तर तय करेंगे?

श्री श्री :
Rating की क्या आवश्यकता है? सब कुछ उस एक का है। उसका ही अंग है। उस एक ने ही ये सभी अनंत रूप लिये हैं। शून्य और १००, सभी में वही है। एक पत्थर में भी जड़ता और चैतन्य होगी। ब्रह्म में जड़ और चैतन्य दोनों का ही समन्वय है। वे ब्रह्म का अंग हैं।

भगवान श्री कृष्ण, भगवद्गीता में कहते हैं, ‘माया भी मुझ से ही है। समस्त विश्व मुझ में ही है। फिर भी मैं किसी में नहीं हूं।’ भगवद्गीता की philosophy भ्रामक लग सकती है। बिना सत्य के अनुभव के philosophy केवल कुछ सिद्धांत मात्र हैं। अपने आप का सत्य अनुभव करने के लिये तुम अपने भीतर, गहरे उतर जाओ।

प्रश्न : मैं अपनी नकरात्मक भावनाओं से ज्ञान के द्वारा कैसे छुटकारा पा सकता हूं? अगर मैं उन्हें हटाने के लिये प्रतिबद्ध हो जाऊं तो वे मेरा विरोध करेंगे। अगर मैं उनका विरोध ना करूं, तो वे यथावत रहेंगे।

श्री श्री :
नकरात्मक भावनाओं के साथ लड़ो मत, और उनसे मित्रता भी मत करो। युक्ति से, सांस से, सही दृष्टिकोण से, सभी नकरात्मकता से छुटकारा हो सकता है। अष्टावक्र गीता में कहा गया है, ‘सही तरीके से मन के ऊपर जाओ।’

प्रश्न : शिव जी के परिवार में हरेक का वाहन, जीव जगत में आपस में दुश्मन है। एक बैल है, चूहा है, मोर इत्यादि है – फिर भी वे आपस में शांते से रहते है! ऐसा कैसे?

श्री श्री :
शिव का शांत, अद्वैत तत्व, हरेक को संग लाता है, और सद्भावना लाता है।

प्रश्न : जिज्ञासा का सार तत्व क्या है?

श्री श्री :
तुम्हारा प्रश्न ही जिज्ञासा के सार तत्व का उदाहरण है। जो तुम पूछ रहे हो, वही इसका उत्तर है। ये तो ऐसा ही है जैसे कोई पूछे कि ध्वनि क्या है?


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"परमात्मा तुम्हें नींद देंगे, स्वप्न तुम खुद बनाओ"

बैंगलोर आश्रम, २ सितंबर २००९
श्री श्री ने आज कहा -


प्रश्न : मैं अपने प्रदेश में एक सम्मानित, प्रतिष्ठित और जाना माना, उच्च पदाधिकारी हूं। जब मैं किसी अन्य जगह जाता हूं तो कभी कभी मुझे लगता है कि वहा मेरा महत्व कुछ कम है। मैं अपनी पहचान पर प्रश्न चिह्न लगा लेता हूं। इससे छुटकारा कैसे पाऊं?

श्री श्री : तुम्हें एक सूट पहनना आना चाहिये – और उसे उतारना भी! अपने घर में सब राजा होते हैं। अकिंचन रहना सीखो – मैं कुछ नहीं हूँ। जीवन की पूरी यात्रा है, ‘मैं कुछ हूं’ से ‘मैं कुछ नहीं हूं’ और फिर ‘मैं ही सब हूं।’ आमतौर पर जीवनयात्रा होती है, ‘मैं कुछ हूं’ से ‘मैं कुछ नहीं हूं’ और फिर, ‘मैं कुछ हूं’!
सत्संग में बैठो। अपने वजूद को घुल जाने दो। अपने वजूद को घुल जाने देना, समाधि है, आनंद है। तुम जान जाओगे कि तुम अमर हो।

प्रश्न : Art of Living संस्था के लिये आपकी क्या दृष्टि है?

श्री श्री :
आध्यात्म इस नये युग की भाषा है। तुम अपनी दृष्टि खुद बनाओ। मैं कहूंगा कि तुम दृष्टा बन जाओ, अपने दृश्य खुद बनाओ। परमात्मा तुम्हें नींद देंगे, स्वप्न तुम खुद बनाओ।

प्रश्न : अगर १ से १०० तक की rating करें और एक पत्थर का स्तर शून्य है और मनुष्य का १००, तो बीच के बाकी जीवों का क्या स्तर कैसे तय करेंगे?

श्री श्री : Rating की क्या आवश्यकता है? सब कुछ उस एक का है। उसका ही अंग है। उस एक ने ही ये सभी अनंत रूप लिये हैं। शून्य और १००, सभी में वही है। एक पत्थर में भी जड़ता और चैतन्य होगी। ब्रह्म में जड़ और चैतन्य दोनों का ही समन्वय है। वे ब्रह्म का अंग हैं।
भगवान श्री कृष्ण भगवद‍ गीता में कहते हैं, ‘माया भी मुझ से ही है। समस्त विश्व मुझ में ही है। फिर भी मैं किसी में नहीं हूं।’ भगवद गीता का ज्ञान भ्रमक लग सकता है। बिना सत्य के अनुभव के ज्ञान केवल कुछ सिद्धांत मात्र हैं। अपने सही स्वरूप के अनुभव के लिये तुम अपने भीतर, गहरे उतर जाओ।

प्रश्न : मैं अपनी नकरात्मक भावनाओं से ज्ञान के द्वारा कैसे छुटकारा पा सकता हूं? अगर मैं उन्हें हटाने के लिये प्रतिबद्ध हो जाऊं तो वे मेरा विरोध करेंगे। अगर मैं उनका विरोध ना करूं, तो वे यथावत रहेंगे।

श्री श्री :
नकरात्मक भावनाओं के साथ लड़ो मत, और उनसे मित्रता भी मत करो। युक्ति से, सांस से, सही दृष्टिकोण से, सभी नकरात्मकता से छुटकारा हो सकता है। अष्टावक्र गीता में कहा गया है, ‘सही तरीके से मन के ऊपर जाओ।’

प्रश्न : शिव जी के परिवार में हरेक का वाहन, जीव जगत में आपस में दुश्मन है। एक बैल है, चूहा है, मोर इत्यादि है – फिर भी वे आपस में शांति से रहते है! ऐसा कैसे?

श्री श्री :
शिव का शांत, अद्वैत तत्व, हरेक को संग लाता है, और सद्भावना लाता है।

प्रश्न : जिज्ञासा क्या है?

श्री श्री : तुम्हारा प्रश्न ही जिज्ञासा के सार तत्व का उदाहरण है। जो तुम पूछ रहे हो, वही इसका उत्तर है। ये तो ऐसा ही है जैसे कोई पूछे कि ध्वनि क्या है?



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