श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

२२, अगस्त २०११
जन्माष्टमी के दिन भगवान श्री कृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है | अष्टमी इसलिये महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वह वास्तविकता के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष स्वरुप के संतुलन को दर्शाती है, जो प्रत्यक्ष सांसारिक दुनिया और अप्रत्यक्ष आध्यात्मिक स्वरुप है |

भगवान श्री कृष्ण का अष्टमी के दिन जन्म होना उनकी आध्यात्मिक और सांसारिक दुनिया में श्रेष्ठ होने का प्रतीक है | वे महान गुरु और आध्यात्मिक प्रेरणा स्रोत हैं और परिपूर्ण राजनीतिज्ञ भी हैं | एक ओर वे योगेश्वर हैं (योगियों के परमेश्वर - यह वह अवस्था है जिसे प्रत्येक योगी प्राप्त करने की कामना करता है) ओर दूसरी ओर वे शरारती चोर हैं |

भगवान श्री कृष्ण का सबसे अद्भुत गुण यह है कि वे संतों से भी अधिक पवित्र हैं और फिर भी एक शरारती व्यापारी हैं | उनका आचरण दोनों चरम सीमाओं का संतुलन हैं | शायद इसलिये भगवान श्री कृष्ण के व्यक्तित्व के गहन कों समझना कठिन है | एक अवधूत सांसारिक दुनिया से बेखबर होता है ओर एक सांसारिक व्यक्ति, राजा या राजनीतिज्ञ आध्यात्मिक दुनिया से बेखबर होता है | लेकिन भगवान श्री कृष्ण द्वारकाधीश और योगेश्वर दोनों हैं |

भगवान श्री कृष्ण का ज्ञान आज के समय के लिये भी अत्यंत यथार्थ है क्योंकि वह किसी व्यक्ति को पूरी तरह सांसारिक दुनिया में फँसने नहीं देता और पूरी तरह से आपको विरक्त भी नहीं होने देता | वह आपके जीवन को पुनः प्रज्वलित करता है और निराश और तनावपूर्ण व्यक्तित्व को अधिक केंद्रित और गतिशील होने के लिये परिवर्तित करता है | भगवान श्री कृष्ण आपको भक्ति कौशल के साथ सिखाते हैं | गोकुलाष्टमी का उत्सव मनाने का तात्पर्य है कि विरोधाभासी परन्तु फिर भी अनुकूल गुण आपके व्यक्तितिव में स्थापित हो सकें और वह आपके जीवन में प्रदर्शित हो सके |

जन्माष्टमी का उत्सव मनाने का सबसे प्रामाणिक तरीका यह समझना है कि आपको दोहरी भूमिका निभानी होगी | इस गृह पर जिम्मेदार नागरिक बन कर और उसी समय यह अनुभव करना होगा कि आप सभी घटनाओं से परे हैं, और अप्रभावित ब्राह्मण हैं | आपके  जीवन में थोडा अवधूत और गतिशील होने को  विकसित करना ही जन्माष्टमी का उत्सव मनाने का महत्त्व है |

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ध्यान करें, सुदर्शन क्रिया करें, सत्संग में भाग लीजिये

१४, अगस्त २०११, बैंगलुरू आश्रम

प्रश्न: गुरूजी मैंने यस प्लस कोर्स किया है | दो वर्ष उपरांत मैं आश्रम आया हूँ और मैं यहां पर कुछ दिनों से हूँ, और मैं यहां से कभी वापस नहीं जाना चाहता हूँ | मैं अपने घर की जिम्मेदारियों और यहां पर रहने की इच्छा के बीच में कैसे संतुलन स्थापित करूं ?
श्री श्री रवि शंकर:
दोनों को करे | आपको अपनी घरेलू जिम्मेदारी का ध्यान भी रखना है और यहां आने की प्रतिबद्धता को बनाये रखना है |

प्रश्न: गुरूजी  मैं आश्रम पहली बार आया हूँ, और यहां मुझे अच्छा लग रहा है | मुझे ऐसा लगता है कि आपने मुझे यहां लेकर आये हैं | हमारी रोज की जिंदगी में हमें अच्छी और बुरी चीजों का सामना करना पड़ता है जिसके कारण हम इस पथ से भटक सकते हैं | मैं प्रतिदिन ध्यान और योग क्रिया करता हूँ | जब मैं एकांत में होता हूँ, तब केंद्रित रहना आसान होता है और सात्विक गुणों का पालन कर पाता हूँ | सब की तरफ से मेरा प्रश्न है कि इस शुद्धि को कैसे बरक़रार रखें जबकि इस संसार में हम पर सकारक और नकारक बातों का प्रभाव होता है ?
श्री श्री रवि शंकर:
इस बात की सजगता ही आपको इसमें से निकाल देगी | ध्यान करें, सुदर्शन क्रिया करें, सत्संग में भाग लीजिये और अच्छे लोगों की संगत में रहें, इससे यह संभव हो जायेगा |

प्रश्न: गुरु और सद्गुरु में क्या अंतर है ?
श्री श्री रवि शंकर:
सिर्फ गुरु के पहले सद् उपसर्ग लगा हुआ है | इससे कोई फर्क नहीं पड़ता | यह सिर्फ एक नाम है परन्तु दोनों सामान हैं |

प्रश्न: भगवद गीता में लिखा गया है कि धर्म के अनुसरण के चार कदम होते हैं | सत्य, तप, शुद्धि और करुणा | कृषि विभाग में प्रभारी पर्यवेक्षक होने के कारण मैं अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के प्रति करुणा का अनुसरण नहीं कर पाता हूँ क्योंकि मुझ पर वरिष्ठ अधिकारीयों  से उत्पादन और कार्यक्षमता बढाने का प्रभाव दिया जाता है |
श्री श्री रवि शंकर:
जो दुखी हैं उसके लिये दया  दिखाई जाती है न कि उसके लिये जो अहंकारी हैं या जो बुरे कर्म करता है | ऐसे लोगों के साथ सख्ती से पेश आया जाता है ईमादारी का समझौता किये बिना | इन चार गुणों में : मित्रता, करुणा, मुदिता और उपेक्षा में आप सिर्फ यह कर सकते हैं कि वरिष्ठ अधिकारीयों से उपेक्षा करे और उदासीन रहे |
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हिंदुत्व कोई धर्म नहीं है, वह सिर्फ जीवन जीने की शैली है !!!

१३, अगस्त २०११, बैंगलुरू आश्रम

आज पूर्णिमा है और इसे रक्षा बंधन भी कहते हैं | आज कल जिसे हम फ्रेंडशिप डे कहते हैं और लोग एक दूसरे की कलाई पर फ्रेंडशिप बैंड को बांधते हैं, यह एक नया तरीका है परन्तु असल में यह एक पुरानी परंपरा का नया रूप है | सदियों से रक्षा बंधन पर राखी बाँधने की परंपरा रही है | बहनें अपनी भाई की कलाई पर राखी बांधती हैं और कहती हैं “मैं तुम्हारी रक्षा करूंगी और तुम मेरी रक्षा करो | पिछली पूर्णिमा पर गुरु पूर्णिमा का पर्व था और आज की पूर्णिमा पर रक्षा बंधन हैं | इस तरह प्रत्येक पूर्णिमा किसी न किसी उत्सव के लिये समर्पित है | सबसे महत्वपूर्ण है कि आप जीवन का उत्सव मनाएं | यही महत्वपूर्ण है और भारत में कई उत्सव होते हैं | एक उत्सव समाप्त होता है और आपको नवीन उत्सव की तैयारी में जुटना पड़ता है | और अभी बारिश का मौसम है | प्राचीन काल में लोगो को घर पर कुछ अधिक करने के लिये नहीं होता था | बारिश के मौसम में फसल की कटाई नहीं होती है | जब बारिश आती है तब आप घर पर होते हैं | इसका भी उत्सव बनायें, विभिन्न किस्म के भोजन को बनायें और गान करें, एक दूसरे को शुभकामनायें दीजिये, और उनका अच्छा होने की कामना कीजिये | यह एक अत्यंत सुन्दर प्रथा है |
(प्रिय पाठकों सत्संग के दौरान श्री श्री रविशंकर द्वारा प्रदान किया हुआ ज्ञान का शेष भाग शीघ्र उपलब्ध करवाया जायेगा )
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यह जान लीजिये कि मैं आपके साथ हूँ

१२, अगस्त २०११, बैंगलुरू आश्रम

प्रश्न: गुरूजी मैं चाहता हूँ कि आप हर समय मेरे साथ रहें | इसके लिया मैं क्या करूं?
श्री श्री रविशंकर:
यह जान लीजिये कि मैं आपके साथ हूँ | साधना, सेवा और सत्संग को करें -  उसे न छोड़ें या भूलें | अपने कर्म को करें और ध्यान भी करें |

प्रश्न: धारणा और संकल्प में क्या अंतर है ?
श्री श्री रविशंकर:
धारणा का अर्थ है कि किसी विशेष विचार को मन में रखना, जैसे जो आप ध्यान के शुरुआत में करते हैं | जैसे आप योग निद्रा में शरीर के विभिन्न हिस्सों में ध्यान को ले जाते हैं | उसी तरह जब आप श्वास या सिर के ऊपर के भाग पर ध्यान रखते हैं, उसे धारणा कहते हैं | 
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‘मुझे करना हैं', और ‘मैं इसे करूंगा’ यह मनोभाव सर्वश्रेष्ठ हैं !!!

बेंगलोर आश्रम २ अगस्त २०११ 

क्या आप लोगों ने उन योजनाओं के बारे में सोचा जिसे हमें करना हैं ? क्या आपको अनेक विचार आये? इसे जिम्मेदारी लेना कहते हैं | आपने यह नहीं कहना चाहिए कि गुरूजी आपने मुझे यह नहीं कहा विचारों को बास्केट में रख दीजिये, और आपने सिर्फ यही कहा कि अपने  नाम लिखकर दीजिये | ऐसा नहीं करना हैं | सबसे पहले आप अपने बारे में सोचते हैं कि यह कार्य करना हैं और उसके लिये आप को क्या करना हैं | आप सोचते हैं फिर वैसा करते हैं |

अपने स्वयं की पहल के द्वारा कार्य करना श्रेष्ठ होता हैं और दूसरों के बताने पर किया हुआ कृत्य औसत श्रेणी का माना जाता हैं | और किसी के बताने पर भी कृत्य नहीं करना सबसे खराब श्रेणी में आता हैं | इसलिये आप आज यह निर्णय करें  कि आप किस श्रेणी में आना चाहते हैं | ‘मुझे करना हैं’ , और ‘मैं इसे करूंगा’ और १००% करूंगा, यह मनोभाव सर्वश्रेष्ठ हैं | मैं इसके बारे में सोचूंगा कि इसे कैसे करना हैं | किसी योजना को अपनी स्वयं की समझकर उस पर कार्य करना, सबसे श्रेष्ठ हैं |

प्रश्न :मृत्यु के उपरांत गरुड़ पुराण का क्या महत्व है ?
श्री श्री रवि शंकर: गरुड़ पुराण में मृत्यु के उपरांत के जीवन के बारे वर्णन किया गया हैं | आत्मा कहाँ और कैसे जाती है इसके बारे में बताया गया है | इसका एक निश्चित समय है जब आप इसे सुन सकते है (आत्मा के शरीर छोड़ने के कुछ दिन उपरांत  ) इसे सुनने पर आपको यह मालूम पड़ता है कि स्वर्ग वासी आत्मा कहाँ गई और उसके साथ क्या हुआ | गरुड़ पुराण में ऐसी कई बातें है |

प्रश्न: प्रिय गुरूजी षोडश संस्कार क्या होता हैं ?
श्री श्री रवि शंकर: षोडश संस्कार! षोडश का अर्थ होता हैं, १६ | मानव जीवन १६ संस्कार होते हैं |
किसी पुरुष या महिला के जीवन में १६ ऐसी रस्मे या अनुष्ठान होते हैं जिसका जीवन पर प्रभाव होता हैं | वे क्या हैं ? इसकी शुरुआत  गर्भाधान ( गर्भ का धारण ) होने से होती हैं | गर्भ धारण होने की एक प्रक्रिया हैं | गर्भ के धारण का एक पूरा संस्कार हैं, कैसे पुरुष और महिला को किस समय साथ में होना चाहिए और कब गर्भ(शिशु) को धारण होना चाहिए | इस ज्ञान को गोपनीय रखा गया हैं | यदि आप को पुत्री चाहिए तो किस दिन गर्भ को धारण होना चाहिए या यदि आपको पुत्र चाहिए तो गर्भ को किस दिन धारण होना चाहिए इत्यादि  | गर्भाधान संस्कार गर्भ के धारण होने के बारे में हैं | इसे कुछ मंत्र और रस्मों के द्वारा किया जाता हैं | यह बिलकुल प्रचलन में नहीं हैं | इसे विवाह की रात्रि को  ही कुछ मंत्रोचारण के उपरान्त संपन्न कर दिया जाता हैं, जैसे कि पूरी रस्म समाप्त हो गयी हो | पांचवे महीने में एक रस्म होती हैं जिसे पुमांसं कहते हैं और आठवें महीने में सीमंत की रस्म की जाती हैं |  और स्त्री की सभी इच्छायें पूरी की जाती हैं और उसे जो कुछ भी चाहिए, वह दिया जाता हैं | उसे जो कुछ भी चाहिये वह उसे उपहार में यह कह कर दिया जाता हैं कि तुम अपने भीतर एक नए ब्रह्माण्ड की रचना कर रही हो और इस कारण उसे खुश किया जाता हैं | गर्भाधान, पुमांसं और सीमंत, यह तीन संस्कार हैं | फिर नामकरण संस्कार होता हैं जिसे जन्म के ११ दिन उपरांत किया जाता हैं | माता, पिता शिशु के लिये एक नाम चुनते हैं और उसकी जिव्हा पर शहद चटा कर उसके दायें कान में शिशु के नाम का उच्चारण करते हैं | फिर मुंडन संस्कार होता हैं जिसमे पहली बार शिशु के केश कटवायें जाते हैं, और इसे पहली से तीसरी वर्षगांठ के दौरान करवाया जाता हैं | चौल का अर्थ हैं प्रथम  केश को काटना | जब पहले केश को काटा जाता हैं तब शिशु के कान भी छिदवायें जाते हैं | विज्ञानिक दृष्टिकोण से कान की लोलकी अधिक सजगता और बुद्धि प्रदान करती हैं | फिर आठवें और ११ वर्ष के मध्य में उपनयन संस्कार किया जाता हैं, जब बालक/बालिका को प्रथम बार विद्यालय शिक्षा के लिये ले जाया जाता हैं | जब वे बचपन से किशोर अवस्था में पहुँचने से पहले उन्हें उनकी जिम्मदारियों के बारे में समझाया जाता हैं जो उन्हें निभानी होती हैं | फिर उन्हें गायत्री मंत्र दिया जाता हैं | ब्रह्म उपदेश का अर्थ है “ आप यह हैं” ‘आप यहीं हैं” उन्हें यह उपदेश दिया जाता हैं | उपनयन के उपरान्त व्यक्ति शिक्षा के लिया विद्यालय जाता और गुरुकुल में गुरु के साथ रहता हैं | समवर्तन शिक्षा ग्रहण करने उपरान्त आता हैं, जब व्यक्ति कार्य करता हैं, इसके उपरान्त विवाह | इस तरह मृत्यु तक संस्कार निभाने पड़ते हैं | जीवन की अंतिम रस्म होती अंत्येष्टि संस्कार | यह सारे संस्कार जीवन का हिस्सा हैं | प्राचीन लोगों के पास इन सभी के लिये मंत्र होते थे |

प्रश्न - गायत्री मंत्र का क्या महत्त्व है ?
श्री श्री रवि शंकर - ॐ सारी सृष्टि का सार है | ॐ सबसे महान मंत्र है, जिसमे सब कुछ मौजूद है और जब ॐ  का विस्तार हुआ तो वह गायत्री मंत्र बना | फिर गायात्री मंत्र सारे वेदों का सार है | ऐसा कहा जाता है कि गायत्री मंत्र से श्रेष्ठ कोई मंत्र नहीं है | गायत्री  मंत्र का अर्थ है मेरे सारे पाप नष्ट  हो जाएँ और मेरी चेतना में दिव्यता का उदय हो, दिव्यता प्रेरित हो कर मुझ में अंतरज्ञान प्रदान करे | यह इसकी संक्षिप्त व्याख्या है और इसकी विस्तृत व्याख्या भी हो सकती है| अभी के लिये इतना पर्याप्त है |

प्रश्न – अधिकांश  भारत में सिर्फ बुद्धिजीवी ही अष्टवक्र गीता के बारे में जानते है, जबकि सभी लोग भगवत गीता के बारे में जानते है - ऐसा क्यों है ?
श्री श्री रवि शंकर: यह बात सही हैं | अष्टवक्र गीता  स्नातकोत्तर साधकों के लिये है | इसे समझना आसान नहीं हैं | इस ज्ञान को एक राजा को प्रदान किया गया था | भगवत गीता से शुरुवात करनी चाहिये | उसमे हर किसी को कुछ समझ में आयेगा | अष्टवक्र गीता राजा जनक को प्रदान की गयी जबकि भगवत गीता एक हताश  युवा को प्रदान की गई , इसमें यही अंतर हैं | सामाज में सामान्य व्यक्ति उदासी में रहता हैं और उसमें सजगता नहीं होती | अष्टवक्र गीता राजा जनक को तब प्रदान की गयी जब वे सत्य और माया के ज्ञान के गहन में उतरने के लिये उत्सुक थे | आप के जैसे बहुत ही कम लोगों में ज्ञान को जानने की जिज्ञासा नहीं होती | इस पर विश्वास न करे कि इस वक्त यहां कोई उदास हैं ! कोई हैं क्या ?


श्रोताओं ने उत्साह के साथ उत्तर दिया, नहीं !!!!

सत्संग में कोई भी उदास नहीं रह सकता |
भगवत गीता एक निराश और दुखी युवा को प्रदान की गयी थी जबकी अष्टवक्र गीता सत्य और ज्ञान को जानने की जिज्ञासा रखने वाले व्यक्ति को प्रदान की गयी थी |  इसीलिए यह थोड़ी कठिन और भिन्न है | भगवत गीता हर किसी व्यक्ति का ध्यान रखती है, यहां तक उनका भी जो दुखी, निराश और उदास है | जो जीवन का कुछ अर्थ समझना चाहता है और जीवन से कुछ प्राप्त करना चाहता है, यह उन सबके लिये है  |

प्रश्न : गुरूजी भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग का क्या महत्त्व है ? क्या इनका दर्शन करना आवश्यक है ?
श्री श्री रवि शंकर: तीर्थ स्थानो का उद्देश्य लोगों को साथ में लेकर आना होता है और देश को कश्मीर से रामेश्वरम और कामाख्या से सोमनाथ तक जोड़ना भी है | भगवान शिव सिर्फ मंदिरों में ही निवास नहीं करते | वे आपके दिलों में भी निवास करते है | आप जहाँ पर भी है उनका स्मरण करें और वे प्रकट हो जायेंगे |

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आध्यात्म रस, रोमांच,जोश और आनंद से परिपूर्ण हैं


प्रश्न:गुरूजी जब भगवान श्री कृष्ण थे तो क्या गोपियों ने भी ध्यान किया ?
श्री श्री रवि शंकर: क्या गोपियों ने ध्यान किया ? उन्होंने ध्यान किया या नहीं इससे क्या फर्क पड़ता हैं? यह एक पुरानी बात हैं| ध्यान जीवन का दूसरा रूप हैं, जब आप चलते, बैठतें और बात करते समय भी ध्यान की अवस्था में होते हैं | भगवान श्री कृष्ण प्रतिदिन प्रातःकाल में ध्यान करते थे, अपने दिनचर्या में वे प्रातः ४ बजे उठकर एक घंटा ध्यान करते थे और फिर वे विद्वानों का सम्मान करते थे और ८ बजे वे नगर का दौरा करते हुये आम जनता से मुलाकात करते थे और संध्या काल में वे अपने तरह से उत्सव मनाते थे (शरारत के साथ ) |

प्रश्न: क्या वैराग्य और लालसा साथ में चल सकते हैं ?
श्रीश्री रवि शंकर: उनको साथ में ही चलना होता हैं, यही विवेक हैं | लालसा और वैराग्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं | जब वैराग्य न हो तो लालसा कड़वाहट में परिवर्तित हो जाता हैं | जब सिर्फ वैराग्य ही हो तो जीवन में रस नहीं रह जाता हैं और और जीवन जीने के लिये रस,रोमांच और विनोद आवश्यक हैं | आध्यात्म रस, रोमांच,जोश और आनंद से परिपूर्ण  हैं | यह दुर्भाग्यपूर्ण हैं कि आध्यात्म को मंद,उबाऊ, नीरस और गंभीर विषय माना जाता हैं , यह ऐसा बिलकुल नहीं हैं | दिव्यता और आध्यात्म रस से परिपूर्ण हैं | इसलिये जो भी दिव्यता या स्रोत के निकट चला जाता हैं, वह रसमय बन जाता हैं और रूखा नहीं रह पाता |

प्रश्न: सारा संसार मन की क्रीड़ा हैं, इसका एहसास कैसे किया जा सकता हैं ?
श्री श्री रवि शंकर:आपको इसका एहसास अभी तक नहीं हुआ ? अच्छा यह बताये कि कितने बार आपके निर्णय या राय गलत साबित हुई ? कई बार? ८०% से ९०% आपके निर्णय या राय गलत साबित हुई ?(उत्तर ७०% से ८०%)| जब कभी भी आप किसी लिये राय बनाते हैं, तो वह गलत ही निकल जाती हैं | उससे आपको क्या सीख मिलती हैं कि यह सब कुछ माया ही हैं? आपका मन आपको सिखाता हैं कि सब कुछ माया हैं | आपको कभी कभी भय, आशंका  और कल्पनायें होती हैं और फिर अचानक आप पाते हैं कि वह सब गलत हैं | यह सब आपके मन की ही देन हैं | उस क्षण आपको एहसास होता कि यह मन माया हैं और यह उसकी क्रीड़ा हैं | अपने मन का अवलोकन करे, किसी व्यक्ति को देखे और उनके लिये राय बनाये और आप पायेंगे कि वह सही नहीं हैं | सारी गलत धारणायें, समझ, धारणायें, गलत कल्पनायें और राय आप को यह बताने के लिये पर्याप्त हैं कि मन माया या मिथ्या हैं |

प्रश्न: जीवन में कर्म की क्या भूमिका हैं ?
श्री श्री रवि शंकर: सब कुछ कर्म हैं ! आप एक प्रश्न कर रहे हैं वह कर्म हैं;कर्म का अर्थ हैं कृत्य | और आपके प्रश्न को सुनना मेरा कर्म हैं | परन्तु आपके कर्म या प्रश्न का उत्तर देना की नहीं यह मेरा चुनाव हैं, समझ में आया ?  सबकुछ कर्म हैं |

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सत्यम् परम् धीमहि

बेंगलोर आश्रम, १ अगस्त २०११  
अभी हम भगवत गीता के १६ वे अध्याय को पढ़ रहे है, इसमें अच्छे गुणों, दिव्य गुण, के बारे में बताया गया है जिसके साथ आप पैदा होते हैं और यह आपके भीतर होते हैं | नकारक भावनायें बाहरी सतह पर होती है | वह आपकी अच्छाइयों को चादर के जैसे ढक लेती है | इसलिये भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि आप में सारे अच्छे गुण होते हैं | आप उनके साथ पैदा होते हैं और नकारक गुण सिर्फ उसे ढक लेते हैं और आप उन से छुटकारा पायें | सबसे पहले उन्हें पहचानें और फिर उनसे छुटकारा पायें |

उन्होंने असुर संपत्ति के बारे में बताया है, सारे नकारक गुण  जैसे घमंड, मुझ से कोई प्रेम नहीं करता, हर समय शिकायत करते रहना इत्यादि | इन सभी नकारक प्रवृतियों ने सकारक गुणों को ढक लिया है | यह नकारक गुण आपके नहीं है और आप इनसे छुटकारा पा सकते हैं | फिर आप क्या करें ? आप कहें, “सत्यम् परम् धीमहि”, इस बुद्धि में दिव्यता का उदय होये | आप लोग मंत्रोचारण की कक्षाएं शुरू करें और “सत्यम् परम् धीमहि” का मंत्रोचारण करें | मेरी चेतना और बुद्धि में सत्य और दिव्यता का उदय होये |

आप अपने देश के लिये क्या कर सकते हैं और संसार में इस ज्ञान का प्रचार करने के लिये क्या कर सकते हैं | इन दो विषय पर सोचें | इस ज्ञान का और अधिक प्रचार करने के लिये हम क्या कर सकते हैं | आप सब लोग क्या कहते हैं  ? (सभी ने उत्तर हाँ दिया) | आपमें से ऐसे कितने यह सोचते हैं कि हमने यह सोचना चाहिये ? आप अपने विचार और सुझाव मुझे दीजिये | अब एक दिमाग को हिला देने वाले सत्र को करें | तूफान काफी छोटा होता है, इसलिये इसे दिमाग की सुनामी कहें |

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आत्मशक्ति किसी भी आकार और रूप से अधिक शक्तिशाली होती है !!!

३१ जुलाई, २०११
प्रश्न: नकारक विचारों को कैसे टाला जाये ? 
श्री श्री रवि शंकर: नकारक विचारों को आप क्यों टालना चाहते है ? उन्हें आने दीजिये और वे चले जायेंगे | उसे टालने का अर्थ हैं कि आपने उसे पकड़ने का प्रयास कर रहे है | यदि वे आते हैं उन्हें कहे “ओह आप आ गये हाय! बाय बाय!” और वे चले जायेंगे |

प्रश्न: जय गुरुदेव ! पिरामिड में ध्यान करना क्या किसी अन्य स्थान पर ध्यान करने से भिन्न है ?
श्री श्री रवि शंकर: पिरामिड एक बाहरी वातावरण है | परन्तु ऐसा नहीं है कि पिरामिड में आपका कुछ विशेष ध्यान लगेगा, नहीं | किसी गुम्बद (डोम) में आपका अच्छा ध्यान लग सकता है और खुले आकाश के नीचे आपका और अधिक अच्छा ध्यान लगेगा | आत्मशक्ति किसी भी आकार और रूप से अधिक शक्ति शाली होती है | आकार और रूप के प्रभाव का सीमित दायरा होता है और मंत्र की ध्वनि अत्यंत प्रभावकारी होती है | मंत्र आकार और रूप की तुलना में कई गुना अधिक प्रभावकारी होता है और मौन मंत्र से और अधिक प्रभावकारी होता है | और यह सब तभी प्रभावकारी हो सकते है जब ध्यान लग सके |

प्रश्न: श्रोताओं में से किसी ने यह प्रश्न किया परन्तु आवाज़ धीरे होने से सुना नहीं जा सका ?
श्री श्री रवि शंकर: आध्यात्म में होने से आपके मित्र आपका मजाक उड़ाते है ? मुस्कुराते हुये आप उनसे कहे कि “तुम को नहीं पता कि तुम कितनी महान चीज़ से वंचित हो रहे हो” | “वैसे भी एक दिन तुम भी इस पथ पर आ ही जाओगे, यह सिर्फ समय की बात है” | “पाँच वर्ष उपरान्त तुम भी ज्ञान के इस पथ पर आ जाओगे” | “मैं हर बार सबसे पहला व्यक्ति हूँगा, मैं पहले स्वाद लेता हूँ और फिर जो बच जाता है तुम उसे लेते हो” | यदि आपका कोई मज़ाक उड़ाता है फिर भी आप मुस्कुराते रहें और अपनी मुस्कराहट को न खोएं | उनसे कहे कि “यह सिर्फ कुछ वर्षों की बात है, तुम भी यही सब करोगे” | “तुम्हे तो बासा खाना खाने का शौक है, और मैं अभी ताज़े भोजन का लुफ्त उठा रहा हूँ |

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दिव्यता को विविधता से प्रेम है


जुलाई ३०, २०११

प्रश्न : उपनिषद के इस श्लोक ‘‘तैल्यधारावत् अनुसन्धानम् नैरंतर्यध्यानं’’ की व्याख्या आपने यह की है कि तेल के प्रवाह के जैसे चेतना में धुंधली सी कल्पना रह जाती है| यह धुंधली कल्पना क्या है ? क्या यह जीवन में ज्ञान के सिद्धांत है या यह हमारे भीतर ऊर्जा का प्रवाह है ?
श्री श्री रवि शंकर: यह उर्जा का धुंधला प्रवाह है | जब आप सहज ध्यान करते है तो मंत्र तो है, परन्तु जो धुंधलीसी कल्पनाये होती है, यह वहीं है |

प्रश्न : जब मेरे बुरे कर्म दूसरों को दुःख देते है, फिर उस स्थिति को कैसे संभाला जाये ?
श्री श्री रवि शंकर: जब आपके  बुरे कर्म से दूसरों को दुःख हुआ है तो फिर यह संकल्प लीजिये कि आप उसे फिर से नहीं दोहराएंगे | अपने आप से कहे, मैने ऐसा कुछ किया है जिससे दूसरों को दुःख हुआ है, अब मैं इसे दोबारा नहीं करूंगा ’| इस संकल्प से आपको सहायता मिलेगी, आप दो तीन बार असफल हो सकते है परन्तु अपने संकल्प पर दृढ रहे |

प्रश्न: इस बात का ज्ञान होना कि मैं खाली और खोखला हूँ और दुःख होने के कारण जानने के उपरान्त भी मेरा मन वस्तुओं और लोगों में फँस जाता है? यह तूफ़ान के जैसे आकार निकल जाता है |विशेष रूप से लड़कियों के उम्र के इस पड़ाव पर ऐसा होता है, मैं क्या करू ?
श्री श्री रवि शंकर: मन वस्तुओं और लोगों में फँस जाता है, परन्तु अभी ध्यान कैसा हुआ?(उत्तर – गुरूजी बहुत अच्छा ) |क्या मन उन चीजों से मुक्त हुआ ?(उत्तर-हाँ)| फिर उसे निरंतर करते रहे | समय समय पर इस तरह की चीजे आती जाती रहती हैं | आप उनका पीछा न करे | यदि वे आती है तो उन्हें रहने दीजिये | हमारा नियम है क्या ? और उसका सिद्धांत है कि उसे रहने दीजिये |

प्रश्न: गुरूजी आप बहुत सारा ज्ञान प्रदान करते है, आपके बहुत सारे ज्ञान के सत्र होते है | कभी वे मुझे समझ में आ जाते है और कभी कभी वे मेरे सिर के ऊपर से निकल जाते है | गुरूजी मैं क्या करूं जिससे मेरी ज्ञान को सुनने और समझने की क्षमता बढ़ जाये ?
श्री श्री रवि शंकर: उसे सुनते रहे और फिर किसी दिन आप कहेंगे कि “अच्छा गुरूजी यह कह रहे थे” | इसके तीन चरण होते है, पहला- श्रवण –सुनना, दूसरा- मनन- उसके बारे में बार बार सोचते रहना, तीसरा- निधिध्यास- जब वह आपका अपना बन जाता है, जब वह ज्ञान आपका हिस्सा बन जाता है |

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