पाँच-सिर वाले काले सांप का महत्व!!!

११
२०१२
अक्टूबर
बैंगलुरु आश्रम, भारत
यदि आप पौराणिक चित्रों को देखेंगे, तो पायेंगे कि महावीर एक पाँच-सिर वाले काले सांप (कोबरा) के आगे बैठे हैं| या भगवान विष्णु ध्यान में बैठे हैं, और उनके पीछे एक कोबरा है|
यहाँ तक कि ऋषियों के चित्रों में भी, आप पाएंगे कि एक काला विषैला सर्प है जो अपना फन उठाये पीछे बैठा है|
क्या आपने ऐसे चित्र देखें हैं?
यह एक बहुत ही रहस्यपूर्ण बात है|
देखिये, जब आप ध्यान में बैठे होते हैं, तब क्या होता है? आपकी चेतना जागृत हो रही होती है, प्रस्फुटित और प्रबुद्ध हो रही होती है, बिल्कुल ऐसे जैसे आपके पीछे एक हज़ार सिर वाला कोबरा हो| कोबरा सजगता का प्रतीक है|
आपमें से कितने लोगों को ध्यान करते समय अपने सिर के पिछले हिस्से में सजगता महसूस होती है? एक तरह की जागृति! तो, कोबरा उस ऊर्जा का प्रतीक है जो ऊपर की ओर उठती है और खुलती है, वह ऊर्जा जो सतर्क है और साथ ही विश्राम भी देती है|
ऐसा नहीं था, कि वाकई में उनके सिर के पीछे कोई कोबरा बैठा था| वह मात्र उनके जागृत होने और गहरे विश्राम में होने का प्रतीक था, और यही ध्यान है पूरी तरह से विश्राम| कुछ न चाहना, कुछ न करना, कुछ न होना और पूरी तरह से खुले होना| बिल्कुल एक कोबरा के सिर के समान; बिना किसी परिश्रम के पूर्णतः सजग रहना|
इसके दो प्रकार के वर्णन हैं| एक है, जिसमें वे कोबरा के बारे में बात करते हैं, और एक दूसरे वर्णन में वे एक पुष्प के बारे में बात करते हैं, जैसे एक सौ पंखुड़ियों वाला कमल होता है, जो सिर के ऊपर खिल रहा है, सहस्रार! तो कुछ उसका पुष्प की तरह वर्णन करते हैं, बहुत कोमल, और कुछ उसका वर्णन एक कोबरा की तरह करते हैं, जिसका अर्थ है सतर्क होना| ये दोनों ही उपयुक्त हैं|
अब अगर आप ऐसा महसूस नहीं करते, तो इसका अर्थ है कि आपने अपने शरीर में बहुत सा भोजन ठूंस लिया है| तब आपको कोई कोबरा नहीं मिलेगा, केवल एक भैंस मिलेगी, (हँसते हुए) क्योंकि आपने अपने अंदर इतना कुछ ठूंस लिया है, कि आप बहुत सुस्त महसूस करेंगे|
इसीलिये, दुनिया भर में लोग उपवास रखने के बारे में बात करते हैं, प्रार्थना के बारे में बात करते हैं; उपवास और ध्यान|
लेकिन, आपको बहुत ज्यादा उपवास रखने की भी ज़रूरत नहीं है| कभी कभी लोग पूरा दिन व्रत रखते हैं, और फिर रात में बहुत सारा भोजन खा लेते हैं| ये भी ठीक नहीं है| उपवास रखने के भी कुछ नियम होते हैं, जिन्हें मानना चाहिये|
प्राकृतिक चिकित्सक और डॉक्टर आपको बताएँगे, कि आपको किस तरह व्रत आरंभ करना चाहिये, और किस तरह धीरे धीरे आपको व्रत से बाहर आना चाहिये|
कभी कभी नवरात्री में हम व्रत रखते हैं, और व्रत के नाम पर हम दावत करते हैं|
लोग कहते हैं, हम कोई अनाज नहीं खायेंगे, हम केवल आलू खायेंगे| और फिर हम फ्रेंच फ्रायेज़ (आलू के तले हुए चिप्स) और पता नहीं क्या क्या खाते हैं|
हम चावल नहीं खायेंगे, लेकिन हम केवल इडली खायेंगे ’|
ये तो छल है भई| असली व्रत में किसी भी तरह का हलवा-पूरी नहीं खाया जाता| यह गलत तरह का व्रत है| आपको ऐसे व्रत नहीं रखना चाहिये|
अल्पाहार मिताहार थोड़ा बहुत भोजन और आसानी से पचने वाला भोजन|
इसे भी व्रत माना जाता है| थोड़े बहुत फल और पानी|
तो जब शरीर इतना भारी और सुस्त नहीं होता, तब वह खिलता है, और ध्यान और बेहतर होता है|
लेकिन साथ ही साथ, बहुत ज्यादा उपवास रखने से भी आपका पित्त बढ़ जाता है और तब भी आप ध्यान नहीं कर पाते| इसीलिये, भरपूर पानी पीजिए, ताकि आपके शरीर में पित्त बहुत ज्यादा न बढ़ें|

प्रश्न : गुरुदेव, हालाँकि भगवान विष्णु और भगवान शिव में कोई अंतर नहीं है, लेकिन फिर भी किसमें से कौन निकला? विष्णु पुराण विष्णु की महिमा का गुणगान करता है, और शिव पुराण भगवान शिव की महिमा का|
श्री श्री रविशंकर : जब आप सोचते हैं कि किसमें से कौन निकला तब आप लैखिक तरह से सोच रहें हैं| लेकिन, सत्य लैखिक नहीं है, वह तो गोलाकार है|
इसीलिये, यह भी सच है और वह भी सच है| आप जिस ओर से देखेंगे, वही से वह आएगा| यदि आप उधर से देखेंगे तो वह भी सच है| अगर आप इधर से देखेंगे, तो यह भी सच है| लेकिन दरअसल में ये दोनों ही एक समान हैं| इसी को गोलाकार सोच कहते हैं|
ये इस पर निर्भर करता है कि आपने शुरुआत कहाँ से करी और आप कहाँ जाते हैं|
शिव और विष्णु दोनों भिन्न हैं, लेकिन फिर भी दोनों एक ही हैं|

प्रश्न : अष्टावक्र गीता में आपने कहा है, आप शास्त्रों को पढ़ते जाईये, लेकिन आपको मोक्ष तभी प्राप्त होगा जब अप शास्त्रों को भूल जायेंगे| तो फिर शास्त्र पढ़ने का क्या फ़ायदा है?
श्री श्री रविशंकर : देखिये, आप एक बस में चढ़ते हैं, लेकिन फिर आपको बस से उतरना भी पड़ता है|
अब यदि आप मुझसे बहस करेंगे, कि अगर मुझे बस में से उतरना ही है, तो मैं बस में चढूं ही क्यों?
अरे आप बस में चढ़ते कहीं और हैं और उतरते कहीं और हैं|
अगर आपको बस में से उतरना ही है, तो बस में चढ़े क्यों यह तर्क तो यहाँ सही नहीं है|
इसलिए, शास्त्र आपको आपकी प्रकृति के बारे में समझाते हैं, इस सृष्टि की प्रकृति के बारे में समझाते हैं, इस मन की प्रकृति के बारे में, जो छोटी छोटी बातों में उलझ जाता है, और आपको एक विशाल दृष्टिकोण देते हैं|
इसलिए, ज्ञान साबुन के समान है| देखिये, आप अपने शरीर पर साबुन लगाते हैं, लेकिन एक समय पर आप उसे धो भी देते हैं, है न?
उसी तरह, आपके मन में यह इच्छा है, मुझे मोक्ष प्राप्त करना है, और यह इच्छा आपको बाक़ी छोटी-छोटी इच्छाओं से दूर ले जाती है| लेकिन यदि आप इसी विचार को पकड़ के बैठ जायेंगे, तब ये भी किसी न किसी समय आपकी मुसीबत का कारण बन जायेगी| आपको इसे भी धो देना है, और मुक्त हो जाना है|
मुझे मोक्ष चाहिये, मुझे मोक्ष चाहिये, मुझे मोक्ष चाहिये तब आपको मोक्ष नहीं मिलेगा| लेकिन बाकी छोटी छोटी इच्छाओं से मुक्ति पाने के लिए, इस एक इच्छा का होना ज़रूरी है| तब फिर एक समय आता है, जब आप कहते हैं, अब अगर मुझे मोक्ष मिलना है, तो ठीक है, नहीं तो जैसी आपकी मर्ज़ी’|
उस पल आप मुक्त हो गए हैं!

प्रश्न : महालय अमावस्या की क्या विशेषता है?
श्री श्री रविशंकर : दरअसल ये अमावस्या दिवंगत आत्माओं को समर्पित होती है|
जब आप इस शरीर को छोड़ देते हैं, तब कुछ देव या देवदूत आपको मार्ग दिखाते हुए दूसरी दुनिया में ले जाते हैं| पुरुरवा, विष्वेदेव ये उनके नाम हैं| वे आते हैं और रास्ता दिखाते हुए आपको एक स्तर से दूसरे स्तर ले जाते हैं| महालय अमावस्या वह दिन है जब आप सारी दिवंगत आत्माओं को याद करते हैं, और उन्हें धन्यवाद देते हैं और उनके लिए शान्ति की प्रार्थना करते हैं|
एक पुराने ज़माने की प्रथा के अनुसार, परिवार के सभी लोग कुछ तिल के और थोड़े चावल के दाने लेते हैं और अपने पूर्वजों को याद करते हुए कहते हैं, आपको संतुष्टि मिले, आपको संतुष्टि मिले, आपको संतुष्टि मिले|
वे ऐसा तीन बार कहते हैं, और फिर वे कुछ पानी के साथ उन तिल के दानों को नीचे बिखेर देते हैं|
इस प्रथा का यह अर्थ था, कि पूर्वजों को ये बताना, यदि आपके मन में अभी भी कुछ इच्छाएं बाक़ी रह गयी हैं, तो यह जानिये कि वे तिल के दानों के समान हैं| वे आवश्यक नहीं हैं, उन्हें छोड़ दीजिए| हम आपके लिए उन्हें संभाल लेंगे| आप मुक्त हो जाईये, खुश और संतुष्ट हो जाईये! आपके सामने पूरा ब्रह्माण्ड है| ब्रह्माण्ड अपार है, इसलिए आगे बढ़िए और जाईये, जो कुछ भी आपको पीछे खींच रहा है, उसे छोड़ दीजिए|
उसी को तर्पण कहते हैं| तर्पण का अर्थ है, कि जो जा चुके हैं उन्हें तृप्ति और पूर्णता लाना| ये इसलिए किया जाता है, ताकि उन्हें कह सकें कि वे तृप्त हो जाएँ और आगे बढ़ें|
जल प्रेम का प्रतीक है| किसी को जल अर्पण करने का अर्थ है, कि आप उन्हें प्रेम दे रहे हैं|
संस्कृत में, अप का अर्थ होता है पानी, और उसका अर्थ प्रेम भी होता है| और संस्कृत में जो कोई बहुत प्रिय होता है उसे आप्त भी कहते हैं|
इसलिए, अपने पूर्वजों की याद में, आप उन्हें प्रेम और जीवन रुपी पानी अर्पित करते हैं, और इसलिये इसे महालय अमावस्या कहते हैं|
इस दिन अपने सभी पूर्वजों के बारे में सोचिये|
वैदिक धर्म में, अपनी माता की तरफ की तीन पीढ़ियाँ, और पिता की तरफ की तीन पीढ़ियों को याद करते हैं| और बाकी सभी मित्र, बंधु या कोई भी और जो दूसरी ओर चला गया है| उन्हें याद करिये और उन्हें कहिये कि वे तृप्त हो जाएँ|
आमतौर पर उनकी याद में, लोग कुछ दान भी करते हैं, कुछ लोगों या जानवरों में खाना बांटते हैं| ऐसा दुनिया भर की लगभग सभी संस्कृतियों में होता है| मैं तो यह देखकर अचंभित रह गया कि ऐसा मेक्सिको में भी होता है|
मेक्सिको में २ नवम्बर, हर साल लोग इसे मनाते हैं|
इसी तरह चीन में भी होता है| चीनी परंपरा में, एक ऐसा दिन होता है जब वे अपने पूर्वजों को याद करते हैं, और जो कुछ भी पूर्वजों को पसंद होता था, वे उसे बनाते हैं और उन्हें समर्पित करते हैं| ऐसा सिंगापुर में भी होता है| हालाँकि, सिंगापुर बहुत साफ़ शहर है, लेकिन साल में एक दिन वह कुछ घंटों के लिए बहुत गन्दा हो जाता है, क्योंकि वे लोग सड़कों पर इसे मनाते हैं|
क्या आप जानते हैं, कि वे क्या करते हैं? वे कार्डबोर्ड की बड़ी बड़ी गाड़ियां और घर बनाते हैं, और फिर सड़कों पर उन्हें जला देते हैं, ताकि वे उनके पूर्वजों तक चले जाएँ|
वे बहुत से नकली नोट भी खरीदते हैं, और उन्हें भी जलाते हैं ताकी जो लोग दूसरी ओर जा चुके हैं, उन तक वे पहुँच जाएँ, और बदले में उन्हें आशीर्वाद मिले|
तकरीबन पूरे विश्व में, पुरातन सभ्यताओं से लेकर, सभी कोई इसको मनाते हैं|
ईसाई धर्म में भी, एक दिन होता है, ‘All Saints’ Day’ जब पूर्वजों को याद करते हैं| इस दिन, लोग कब्रिस्तान जाते हैं और दिवंगत आत्माओं के लिए प्रार्थना करते हैं|
ऐसा इसलिए भी करते हैं, ताकि हम खुद को याद दिला सकें, कि जीवन नश्वर है, और इतने साल ये सब लोग यहाँ जिए, और अब ये चले गए हैं| हम इस दुनिया में आये हैं, और एक दिन हम भी यहाँ से चले जायेंगे|
इसलिए, आप उनके लिए शान्ति चाहते हैं और उन्हें धन्यवाद देते हैं| यही उसके पीछे का मुख्य कारण है|
भारत में, ये सभी धार्मिक संस्कार संस्कृत में हैं, और इसीलिये लोग इन्हें समझ नहीं पाते| पंडित कुछ कहते हैं, और फिर वे आपको भी कुछ कुछ करने के लिए कहते हैं, और आप सिर्फ श्रद्धा रखते हुए, वैसे वैसे करते हैं|
वो भी बुरा नहीं है, लेकिन अच्छा होता है, यदि आप थोड़ा समझ कर करें|

प्रश्न : हमारे पूर्वजों और माता-पिता के कर्म हमें कैसे प्रभावित करते हैं? क्या उनके बुरे कर्मों की कारण हमें सज़ा मिलती है?
श्री श्री रविशंकर : देखिये, यदि आपके पूर्वज आपके लिए एक घर छोड़ कर गए हैं, तो क्या वह आपके लिए आज एक वरदान नहीं है?
जो बात इतनी स्पष्ट है उसके बारे में आप प्रश्न क्यों पूछ रहें हैं?!
उन्होंने बहुत सा पैसा कमाया, मेहनत करी और एक घर बनाया और आपके सुपुर्द करके चले गए| आप उनके कर्म का सुख भोग रहें हैं, है कि नहीं!? और यदि वे बैंक से एक बहुत बड़ा कर्जा लिए हुए ही ऊपर चले गए हैं, और यदि आपको उसे चुकाना पड़ता है, तब वह भी आपका कर्म बन जाता है| तो निश्चय ही वह आपको प्रभावित करता है|
सिर्फ माता-पिता ही नहीं, आपकी संगति भी आपको प्रभावित करती है|
यदि आप हमेशा बहुत दुखी और अवसादग्रस्त लोगों के साथ बैठे रहते हैं, तब आप भी दुखी और परेशान महसूस करने लगते हैं| यदि आप प्रसन्नचित और आध्यात्मिक लोगों की संगति में बैठते हैं तो आपका कर्म भी बेहतर हो चलता है|
इस दुनिया में आप अच्छे और बुरे कर्म से नहीं बच सकते| आपको इसके साथ ही चलना है, क्योंकि कभी कभी आपको ऐसे लोग के साथ निभाना पड़ता है जो बीमार हैं| आप ऐसा नहीं कह सकते, कि मैं बीमार लोगों के आस-पास नहीं होना चाहता| अगर हर कोई यही कहेगा, तो सारे अस्पतालों और मरीजों का क्या होगा?
इसलिए, दुनिया में हमें हर एक किसी के साथ होना पड़ता है, और इसीलिये, ज्ञान में रहना और सेवा आपकी रक्षा करेगी| इन्हें कवच कहते हैं|
ॐ नमः शिवाय का जाप करना आपके लिए चारों ओर एक कवच के समान है| यह सभी अनचाहे कर्मों से आपकी रक्षा करता है और किसी भी तरह के बुरे प्रभावों से आपको बचाता है|
लेकिन आपको चौबीस घंटे ॐ नमः शिवाय का जाप नहीं करना है| अगर आप ऐसा करेंगे, तो आपका दिमाग बहत सुस्त हो जाएगा| हर दिन, सिर्फ कुछ मिनट, जैसे आप अपने दांत मांजते हैं|
आप हर एक घंटे में अपने दांत तो नहीं मांजते, क्यों है न? अगर कोई हर एक घंटे में अपने दांत मांजता है, तो कुछ समय के बाद उसका एक भी दांत नहीं बचेगा| वे सब गिर जायेंगे| और यदि आप बिल्कुल भी ब्रश नहीं करेंगे, तो वह भी ठीक नहीं है| उसी तरह, जिस तरह आप दांतों की सफाई रखते हैं, आपको मन की सफाई भी रखनी चाहिये| हर दिन, कुछ मिनट जाप करना, कुछ मिनट ध्यान करना, इन सबसे फ़ायदा मिलेगा|
हम केवल कुछ ही मिनट तक नहाते हैं, है न?
वैसे, हम सबको पानी बचाना चाहिये| पूरे विश्व भर में अचानक पानी की बेहद कमी आ गयी है| बंगलौर में भी ऐसा हो रहा है| सारे तालाब सूख गए हैं, और इस साल ज्यादा बारिश भी नहीं आयी| तो हम सब पानी बचायेंगे| सिर्फ उतना ही पानी का उपयोग करिये, जितनी आपको आवश्यकता है|

गुरू और आध्यात्मिक पथ!!!

०९
२०१२
अक्तूबर
बैंगलुरु आश्रम, भारत
प्रश्न : गुरुदेव! उपनिषदों में हमें अक्सर समित-पाणि (गुरु को सूखी डंडियाँ देने की प्रथा) का ज़िक्र मिलता है| गुरुदेव, कृपया बताएं कि इसका क्या महत्व है?
श्री श्री रविशंकर : समित वो लकड़ी होती है जो आग पकड़ने के लिए एकदम तैयार होती है, यहाँ ये तैयार होने का सूचक है अर्थात जब आपको ज्ञान दिया जाता है आप उसे ग्रहण कर सकें, समझ सकें| समित-पाणि के बहुत से अर्थ हैं, एक है, सजग होना,दूसरा है कि १००% देने को तैयार रहना| आप जानते हैं, समित वो लकड़ी है जिसे जब अग्नि में डाला जाता है तब वो पूरी तरह से जल जाती है और कुछ भी शेष नहीं बचता| तो समित पाणि का अर्थ है कि ज्ञान को समझने के लिए पूरी तरह से तैयार रहो, उसको समझो, उसको जियो, अपनी तरफ से १००% दो|
समित का अर्थ गुरु के पास स्थिरता से जाना भी होता है, एक विद्यार्थी को कुछ सहनशीलता और धैर्य रखना भी ज़रूरी होता है, अगर विद्यार्थी थोड़ी सी कठिनाई से डर के चला जाता है तो वो कभी कुछ सीख नहीं पायेगा, अक्सर ऐसा होता है कि इंजीनियरिंग कॉलेज और मेडिकल कॉलेज के छात्र सिर्फ यूँ ही पल्ला झाड के वहां से चले जाना चाहते हैं, ऐसा आपके साथ भी हुआ है ! कितने मेडिकल कॉलेज और इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों को ऐसा महसूस हुआ है? ऐसा इसलिए क्योंकि ये बहुत कठिन प्रतीत होता है लेकिन आपको इस से गुज़ारना होता है, इस कठिन वक़्त से आपको गुज़ारना ही होता है| समित पाणि का अर्थ धैर्य और सहनशीलता भी होता है| पूर्व समय में ऐसा कहा जाता था कि गुरु के पास कभी ख़ाली हाथ नहीं जाना चाहिए, कुछ लेकर जाना चाहिए| गुरु आपको ज्ञान देता है और आप उन्हें उसके बदले एक छोटी लकड़ी दे सकते हैं, कुछ कुछ बदले में अवश्य देना चाहिए क्योंकि ज्ञान आदान प्रदान के साथ फैलता है, कुछ प्राप्त किया जाता है और कुछ दिया जाता है|
तो इस तरह से समित-पाणि के बहुत से अर्थ हैं, अध्यन के लिए पूर्ण उत्साह, जोश और लगन के साथ जाना चाहिए किसी भी तरह की कठिनाई झेलने को तैयार रहना चाहिए| एक कहावत है, "अगर आप विद्यर्थी है तो आपके लिए कोई सुख नहीं है और अगर आप सुखों के पीछे भागने वाले हैं तो आपके लिए कोई ज्ञान नहीं है", तो एक विद्यार्थी को कठिनाइयों से गुज़ारना ही पड़ता है| इसका अर्थ है कि अगर आप केवल सुख के पुजारी हैं तो आप पढने वाले लोगो में से नहीं हैं| अंग्रेजी में studious शब्द का अर्थ है अधिक ध्यान देना और सुख या इच्छा के पीछे नहीं भागना बल्कि अपने आरामदायक स्तिथि से बाहर निकलना|

प्रश्न : गुरुदेव, अक्सर पुराणों में कहा जाता है की इंद्र ने कुछ पाप किया हमने कभी अग्नि, वायु, वरुण या किसी और देवता को पाप करते हुए नहीं सुना, इसके पीछे भी कुछ महत्वपूर्ण बात या सीख होगी, जैसे गणेश जी की कथा से मिलती है,कृपया इसका आध्यात्मिक महत्त्व बताएं|
श्री श्री रविशंकर : इंद्र एक सामूहिक मानसिकता है, हम सामूहिक वृत्ति को क्या कहते हैं? एक समूह की अपनी कुछ सोच होती है, इस सामूहिक सोच को इंद्र कहते हैं| कहते हैं की इंद्र की एक हज़ार आँखें थी, इसका ये अर्थ नहीं की किसी के सारे शरीर पर १००० आँखें थी, इसका अर्थ ये है कि 500 लोगों की एक समूह था, एक भीड़ थी| ये समूह ने एक चेतना जागृत की, एक सोच बनायीं, जिसका नाम इंद्र है| इसीलिए जब कोई विद्वान व्यक्ति पैदा होता है तब इंद्र को ये पसंद नहीं आता क्योंकि सामूहिक सोच उसको अपना नहीं पाती| एक विद्वान् एवं जागरूक व्यक्ति सामूहिक मानसिकता को उभरने नहीं देता, आप समझ रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूँ| वो लोगो के दिमाग में बुद्धि डालता है, वो हर एक को कहता है कि अपने खुद के दिमाग से सोचो, जागो, हर एक व्यक्ति अपने दिमाग से सोचो| इसीलिए जब भी कोई ऋषि या साधू समाधी में बैठे हैं, इंद्र को डर लगने लगता है| ये सामूहिक सोच, मानसिकता ये इंद्र कहलाती है, इंद्र कोई वहां आसमान या स्वर्ग में बैठा व्यक्ति नहीं है, वो तो यहाँ ही है| जैसे हम सब के पास ५ तत्व; धरती, जल, वायु, अग्नि एवं आकाश होते हैं ऐसे ही इंद्र में भी होता है| सामूहिक मानसिकता के साथ अक्सर ऐसा ही होता है, कोई कहता है कि हमारे नेता का अपमान हो गया और बस सारी भीड़ उग्र हो जाती है, बसें जलने लगती है, मूर्तियाँ टूटती है, आदि| वो बिना सोचे समझे बस आगे बढती जाती है, वो उपद्रव मचाती है, लोगों को नुक्सान पहुंचाती है, जीवन और सामान को नष्ट करती है| है ! तो ये सामूहिक मानसिकता है| ये वहां नहीं टिक सकती जहाँ ज्ञान होता है, बुद्धि होती है, जागरूकता होती है|

प्रश्न : ऐसा क्यों है कि बहुत से विद्वत्त गुरुओं को, जिन्होंने बहुत से लोगों को ठीक किया, उन्हें खुद बहुत तकलीफ से गुज़ारना पड़ा?
श्री श्री रविशंकर : देखिये, आत्मा या बुद्धि को कोई तकलीफ नहीं होती, ये सिर्फ शरीर है जिसकी अपनी कुछ सीमाएं होती हैं इसलिए अगर आप शरीर को बहुत ज्यादा फैलायेंगे तो सीधी सी बात है कि उसको अपनी दिनचर्या से गुज़ारना ही होगा, इसलिए शरीर को खांसी-जुकाम होगा, ये सब बीमारियाँ आएँगी| एक संत का शरीर श्रद्धा, प्यार और विश्वास से बना हुआ होता है, तो जब विश्वास और प्यार टूटता है तो शरीर पर भी प्रभाव आता है, ऐसा कहा जाता है कि पुराने समय में संत और विद्वान उन लोगो को दुर्वचन कहते थे जो उनके बहुत क़रीब होते थे, ऐसा इसलिए किया जाता था क्योंकि जब किसी प्रकार की बुरी भावनाएं या क्रोध उन व्यक्तियों में उभरता था जो उनके क़रीब होते थे, उसका असर उन संतों पर भी पड़ता था|
उदाहरण के लिए, एक ब्यक्ति जो घर में बैठा हुआ उत्पात मचा रहा है, वो आपको ज्यादा नुक्सान पहुंचाएगा बजाय उस के जो बाहर उत्पात मचा रहा है, जैसे कि जो कचरा बाहर सड़क पर है उस से आपको उतना फर्क नहीं पड़ेगा जितना कि घर के अंदर के कचरे से| ऐसा होता है ! इसी तरह ये भी है| इसलिए ही कहा जाता है कि चरित्र की शक्ति बहुत आवश्यक है, हर एक के पास षत संपत्ति ( संपत्ति, या प्रकार के गुण) होनी चाहिए :
. साम (मन की शांति)
. दाम (आत्मसंयम)
. उपरति (संतृप्ति)
. तितिक्षा (सहनशीलता)
. श्रद्धा (विश्वास) और
. समाधान (मन की एकाग्रता)
जब तक व्यक्ति के पास ये ६ धन नहीं होते, वो मुमुक्षु (जिसे मोक्ष की इच्छा हो) नहीं बनता और जब तक वो मुमुक्षु नहीं बनता उसे ज्ञान नहीं दिया जाता| इसलिए मुमुक्षु बनने के लिए विवेक, वैराग्य और षट संपत्ति होनी चाहिए तभी आपको एक भक्त, छात्र, एक अनुयायी की उपाधि दी जा सकती है| वरना ये ऐसा है कि एक मूर्ख व्यक्ति को नाव में बैठा लिया जाए और अगर उसे पागलपन का दौरा चढ़ जाए या वो मूर्खो के जैसे नाचना शुरू कर दे तो वह नाव और बाकि के सब यात्री भी डूब जायेंगे|
इसीलिए बुद्ध ने भी कहा है एक शिष्य में शील, समाधी, और प्रज्ञा होनी चाहिए| उसके पास, अहिंसा, शील आदि गुण होने चाहिए, उसने समाधी की अवस्था का अनुभव किया हुआ हो तभी वो प्रज्ञावान (जिसके पास ज्ञान और बुद्धि होती है) बन सकता है|

प्रश्न : गुरुदेव आप कहते हैं कि हमें संयमशील होना चाहिए, लेकिन मैं आपके प्रति ऐसे संयम-शाली कैसे बनूँ? मैं आपसे प्रेम करता हूँ और आपके प्रति मेरा लगाव दिन प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा है|
श्री श्री रविशंकर : अगर इस लगाव की वजह से आप बेकार की बातों से हट पा रहे हो, अगर इससे आपका ध्यान केन्द्रित हो रहा हो तब तो ठीक है और अगर इसकी वजह से आपमें जलन, क्रोध लालच और इस तरफ के और नकारात्मक भाव उठने शुरू हो गए हो तो आपको खुद के उपर काम करने की आवश्यकता है| कोई भी लगाव अगर आपको ऊपर ले जाता है तब तो वो ठीक है लेकिन अगर वो आपको नीचे खींच रहा हो तब आपको ज्ञान में वापस आना चाहिए|
हम अपने किसी भी कृत्य के लिए खुद के अंदर देखना चाहिए, अगर हम किसी और पर दोषारोपण कर रहे हो तो उसका अर्थ ये है की हम उसके बिना नहीं रह सकते अधिकतर ये देखा जाता है कि अगर कोई बहुत बुरा है तब आप उससे दूर हो जाते हैं, लेकिन अगर आप उससे घृणा करने लगते हैं, तो उसका अर्थ ये है कि आपका उस से अंदर कोई गहरा सम्बन्ध है जिसकी वजह से आप उस से दूर नहीं हो पा रहे हैं| आप उनके साथ रहना चाहते हैं और इसी वजह से आप उन्हें नापसंद करने लगते हैं|
मैं बताता हूँ, ये मन बहुत पेचीदा है, जटिल है| इसीलिए मैं कहता हूँ कि आपको मनोरंजन के लिए किसी भी और माध्यम की आवश्यकता नहीं, ये मन ही पर्याप्त है आपका मनोरंजन करने को, इसमें ही सब कार्यक्रम चलते रहते हैं, जो व्यक्ति मन के इस भंवर में फँस गया हो उससे करुणा रखनी चाहिए क्रोध नहीं| ज़्यादातर आप क्या करते हैं? अगर कोई गलत है, या आपके खिलाफ है तो आप उनसे नाराज़ हो जाते हैं आपको लगता है कि उनके पास आजादी है| मैं इसका उल्टा सोचता हूँ, मुझे उन पर दया आती है क्योंकि वो बेचारे मन के इस भंवर में फँस गए हैं, उन्हें समझ ही नहीं आता कि वो क्या कर रहे हैं, और ये उनके कार्यों से साफ़ दिखता है| और ऐसे लोग अगर कहीं कुछ गलत हो रहा हो तो बहुत खुश होते हैं अगर कहीं कोई अच्छा कार्यक्रम चल रहा हो और बारिश आकर उसे खराब कर दे तो वो लोग कहते हैं, "देखो, बारिश गयी, यहाँ तक कि भगवान ने भी उसका साथ नहीं दिया ", वो इस बात से बहुत खुश होते हैं लेकिन ये ग़लत बात है| अगर कोई व्यक्ति अन्दर से नकारात्मक भाव में घिरा हुआ है तो वो केवल तब खुश होगा जब कहीं कुछ ग़लत हो जायेगा| ये बहुत अजीब सी बात है, इससे पता चलता है कि उस व्यक्ति का मन बीमार है, वो संसार में कहीं किसी के साथ कुछ अच्छा हो ये बर्दाश्त नहीं कर पाते| तो ऐसे व्यक्तियों के प्रति आप सिर्फ करुणा रख सकते हैं|

प्रश्न : गुरुदेव, यदि हम अपनी चप्पल खो दें, या कोई उसे उठा कर ले जाये, तो क्या यह सच है कि वे हमारे बुरे कर्म भी ले जाता है?
श्री श्री रविशंकर : यदि वह कीमती चप्पल थी, तो हाँ, ऐसा सोचना ही उपयुक्त है| कम से कम आपको रात को शांत नींद तो आएगी| पर यदि वे सस्ती चप्पलें थीं, (गुरूजी अपना सिर हिलाते हैं)
देखिये, प्रमुख विचार था लोगों को वर्तमान क्षण में रहने के लिए कहना| अतीत में मत अटके रहिये, और उसके बारे में सोच कर इस क्षण को खराब मत करिये| जो हो गया, वो हो गया| समाप्त| आप यातायात अवरोध में फंसे हैं, बस| अब जब आप घर पहुँच जाते हैं, उसके बाद दो घंटे उसके बारे में बोल कर समय न व्यर्थ कीजिये, कि कैसे आपको दूसरा रास्ता ले लेना चाहिए था| यह बेकार की समय की खपत है| हमारे पूर्वजों के पास इतने अच्छे उपाय होते थे, इस लिए वे आपसे कहते थे, ओह, यह तो सितारों के कारण तुम्हारे साथ ऐसा हो गया| अब आप सितारों पर तो क्रोधित नहीं हो सकते| इस लिए, आस पास के लोगों पर क्रोधित होने के बजाय आप कहते थे, ओह, यह तो मेरे कर्मों या सितारों के कारण हुआ है|
तो आपको कुछ शान्ति, और स्वीकरण मिलता है, और यह आपको जीवन में बिना कड़वाहट के आगे बढ़ने में सहायक होता है| यह भारत के बारे में बहुत खूबसूरत बात है| भारतीय समाज में चाहे बुरी घटनाएं हों, पर हम उसके कारण कड़वाहट नहीं रखते, और उसके बारे में शिकायत नहीं करते रहते| काश कि सारा विश्व यह सबक सीखे|
यह हमारी संस्कृति में ही है, हमारे खून में है| यदि समाज में कुछ बुरा होता है, हम काफी लचीले रहते हैं, उसके बारे में निरोध करे बिना आगे बढ़ जाते हैं| यह बहुत रोचक है|
आमतौर पर लोग कहते हैं, तुमनें ५० वर्ष पहले मेरे साथ ऐसा किया था, इस लिए तुम आज भी मेरे दुश्मन हो| लोग यह दुश्मनी, यह वैरभाव अपने मन में और दिल में रखे रखते हैं| पर यहां यह बहुत ही विशिष्ट बात है| हम बैर या दुश्मनी नहीं पालते|

प्रश्न : आप कहते हैं कि समाज का भ्रष्टाचार समाज की आध्यात्मिकता से जुड़ा है| पर यह कैसे है कि पश्चिमी देशों में जबकि आध्यात्मिकता भारत से कम है, उनमें भ्रष्टाचार भी भारत से कम है? चीन में भी आध्यात्मिकता कम है पर फिर भी वे भारत से बहुत अच्छा कर रहे हैं यदि प्रगति की बात करें तो|
श्री श्री रविशंकर : भारत अभी भी अपनी पहले की आध्यात्मिकता की झलक पर जिंदा है| जैसे रसोई में खाने की गंध है पर बर्तनों में खाना नहीं है| आप रसोई में घुसते हैं और वहां बज्जी और बोंडे की खुशबू आ रही है, पर ये मत सोचिये की बर्तनों में अभी भी बोंडे हैं|
तो यह भारत के पास अपने अतीत से है| वे बहुत बोंडे बनाते थे और सब खाते थे| भारत आध्यात्मिकता के बहुत ऊंचे स्तर पर था| पर आज और पिछले २० वर्षों से, समाज गैर ज़िम्मेदारी के बहुत ही निचले स्तर तक गिर गया है और अपनत्व एवं सत्यनिष्ठा की कमी हो गई है, खासकर राजनीति में और इसका प्रभाव देश पर पड़ रहा है|
आम आदमी चाहे बहुत ईमानदार हो, पर जब नेतृत्व ईमानदार नहीं है, तो समाज में भ्रष्टाचार रिसने लगता है| एक कहावत है, यथा रजा, तथा प्रजा| यह यथा प्रजा, तथा राजा नहीं है| ऊपर से नीचे प्रवाह होता है| यदि ऊपर भ्रष्टाचार है, तो वह रिसने लगता है| कम से कम भारत अभी अखंड है| यह इसलिए क्योंकि कुछ आध्यात्मिकता का भाव है जिसने चीज़ों को संभाल कर और लोगों को जोड़ कर रखा है| नहीं तो भारत के बहुत पहले टुकड़े हो गए होते|

प्रश्न : गुरुदेव, आध्यात्म के मार्ग पर चलने के लिए क्या हमें अच्छा स्वाभाव विकसित करने के लिए प्रयत्न करना पड़ेगा, जैसे सहजता, सादगी? या ये अपने आप बन जाते है?
श्री श्री रविशंकर : नहीं, व्यक्ति को अच्छे गुण विकसित करने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता| सद्गुण स्वयं ही अपने में पनप उठते हैं| ठीक वैसे ही जैसे एक कली अपने आप फूल बन जाती है, वैसे ही सद्गुण स्वाभाविक रूप से आप में आ जाते हैं| आपको बस ऊपर से ढक्कन उठाना है| देखिये, यदि आप कली पर एक ढक्कन रख दें, तो क्या वो खिल पायेगी? आपको वो ढक्कन हटाना है और फिर वो खिल पायेगी| सदगुणों के साथ भी ऐसा ही है| केवल प्रयत्न करने से अच्छे गुण हम में नहीं पनपते| यह गहन विश्राम, यानि ध्यान, से होता है| जब आप तनाव मुक्त, निश्चिन्त और स्वयं में स्थिर होते हैं, तब सद्गुण सहज ही आप में पनप उठते हैं|

प्रश्न : गुरुदेव, बहुत बार कार्यालय में बहुत से लंबित काम होते हैं, मन अस्थिर होता है और हम बहुत हैरान महसूस करते हैं और जान नहीं पाते कि क्या हो रहा है| ऐसे वक्त में क्या करें?
श्री श्री रविशंकर : एक सूची बनाइये अपने सारे कार्यों की और फिर उन्हें प्राथमिकता के आधार पर रखिये| और इन सब प्राथमिकताओं में ध्यान को भी एक स्थान दीजिए| आपको विश्वास होना चाहिए कि आपकी सारी कामनाएं पूरी होंगी, और इस भावना के साथ ध्यान करने के लिए बैठें|
भगवान कृष्ण ने यह वचन दिया है कि जो भी अपना मन और मति मुझ पर केंद्रित करेगा, मैं उस से कभी दूर नहीं हूँ, और वो मुझ से दूर नहीं है| इस लिए, यह याद रखिये|
हमें प्रतिदिन कुछ समय ध्यान करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए| तब भगवान अवश्य हमारी प्रार्थनाओं को सुनेंगे| बल्कि, तब हमें मांग करने का हक भी होगा!
जैसे आप पॉइंट जमा कर के उनके बदले कुछ ले सकते हैं| तो जब आप सेवा करते हैं, आपको पॉइंट मिलते हैं जिनके बदले आप कुछ मांग सकते हैं| कई बार जब मैं बाहर किसी सत्संग में जाता हूँ, लोग मुझे ऐसे ब्लैकमेल करते हैं| (हंसी) जब मैं अपने कमरे में विश्राम करने जाता हूँ कार्यक्रम के बाद, तब भी लोग आते हैं, ११, १२ बजे दर्शन के लिए| आयोजक मुझे कहते हैं, इन लोगों ने इतनी सेवा की है और आपका आशीर्वाद लेने आये हैं| कृपया इन्हें मिल लीजिए गुरूजी| तब मैं कहता हूँ, ठीक है, मैं आऊंगा| क्योंकि उन्होंने बहुत सेवा की है, मेरे पास कोई चारा नहीं है दर्शन देने के अलावा| तो इस तरह हमें अपने पोइंट्स बढ़ाते रहना चाहिए| इस तरह एक भक्त भगवान से अपनी प्रार्थनाओं को पूरा करवा सकता है| भगवान के पास कोई विकल्प नहीं होता अपने भक्तों के कार्यों को पूरा करने के सिवा| इसी प्रकार हम संसार में भी जीत सकते हैं|
जब हम भले काम करेंगे तो कोई क्यों हमें नापसंद करेगा? क्या कोई भले काम करने वाले को नापसंद करता है? ऐसा कभी नहीं हो सकता|
आमतौर पर हम अपने आराम के दायरे में ही रहते हैं, और अपने आराम को अधिक महत्व देते हैं और वही करते हैं जो हम करना पसंद करते हैं| तब क्या कोई हमें पसंद करेगा?

प्रश्न : गुरुदेव, आपने धर्म के दस विशिष्ट लक्षणों के बारे में कहा है| क्या आप बता सकते हैं हम कैसे इन गुणों को बढ़ा कर इस गृह पर धर्म को ला सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर : वही कर के जो हम इस वक्त कर रहे हैं| अधर्म है क्योंकि दिमाग में स्पष्टता की कमी है, और तनाव के कारण| जब दिमाग केंद्रित नहीं होता और दिल दुखी होता है तब अधर्म होता है|
इस लिए, ज्ञान और बुद्धि आपको धर्म के मार्ग पर लायेंगे|

प्रश्न : गुरुदेव, प्राण किस प्रकार शरीर को छोड़ते हैं और क्या निर्धारित करता है कब ये शरीर में आते हैं?
श्री श्री रविशंकर : अच्छा, मैं आपसे एक प्रश्न पूछता चाहता हूँ! आप अपने वस्त्र क्यों बदलते हैं? आप वही कमीज़ आजीवन क्यों नहीं पहेनते? आप कपड़े बदलते हैं क्योंकि वे घिस जाते हैं, है ना?
मिल गया उत्तर?

प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, मेरु पर्वत कहाँ है? उसका महत्व क्या है?
श्री श्री रविशंकर : मेरु पर्वत शक्ति का काल्पनिक प्रतीक है| इसका कोई वास्तविक स्थान नहीं है|

प्रश्न : गुरुदेव, मैं २१ वर्ष का हूँ और बहुत सी लड़कियां मुझ से आकर्षित होती हैं| मेरे शिक्षक मुझे कहते हैं कि वे मेरे भीतर की गुरु शक्ति से आकर्षित होती हैं| मैं क्या करूं?
श्री श्री रविशंकर : २१ साल की उम्र बहुत छोटी है कोई भी फैसला लेने के लिए|
आपके पास बहुत से विकल्प हैं पर आपको कुछ वर्ष इन्तज़ार करना है निर्णय लेने के लिए| देखिये, यदि कोई आपकी तरफ आकर्षित नहीं होगा, तो भी समस्या है| यदि लोग आपकी ओर आकर्षित हो रहे हैं, तो आपको यह भी समस्या प्रतीत हो रही है| जीवन हर ओर से एक संघर्ष है| बस उसको स्वाभाविक रूप से लीजिए और आनंद उठाइए|
इस सब का आनंद लीजिए पर अभी अपना फासला बनाये रहिये| उनसे कहिये आप अभी तैयार हो रहे हैं और दो तीन साल और तक उपलब्ध नहीं है|