तामसिक और राजसिक अहंकार से सात्विक अहंकार में आओ


प्रश्न : अगर भगवान एक ही है तो इतने अवतार होने का क्या महत्व है?

श्री श्री रवि शंकर :
अवतार वो है जिसने केवल जन कल्यान के लिए जन्म लिया है। उसे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए।

प्रश्न : हम अपने को बुरे विचारों से कैसे बचा सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
हम जैसा सोचते हैं वैसा ही बन जाते हैं। विशेषकर एक भक्त जो सोचता है वो सच हो जाता है। जब तुम एक भक्त होते हो तो बुरे विचार नहीं आते। भक्ति से सब विकल्प दूर हो जाते हैं।

प्रश्न : कुंभ के दौरान गंगा स्नान करने का क्या महत्व है?

श्री श्री रवि शंकर :
जैसे तीरथ सबको पवित्र करता है वैसे ही साधू गंगा को पवित्र करते हैं। गंगा चेतन्यमयी और ब्रह्म रूप है। यहाँ स्नान करते ही तुम नया और ताज़ा महसूस करते हो। मन की सारी अशुद्धता धुल जाती है और मन स्वस्थ बनता है।
पर कानपुर और उसके आगे के गंगा के हिस्से के लिए मैं ऐसा नहीं कहूँगा। गंगा के जल को शुद्ध रखने की आवश्यकता है।

प्रश्न : कृप्या अहंकार के बारे में बताएं।

श्री श्री रवि शंकर :
कई कहते है अहंकार को खत्म करो। कई कहते है अहंकार को त्याग दो। मैं कहता हूँ उसे अपनी जेब में रखो। यह सोचना कि मैंने अहंकार को खत्म कर दिया उससे भी बड़ा अहंकार बन जाता है। इस छोटे अहंकार को सम्पूर्ण सृष्टि के अहंकार में मिलने दो। भगवद गीता में इस विष्य में बहुत सुन्दर वर्णन है।
तीन तरह का अहंकार है - तामसिक, राजसिक और सात्विक। तामसिक और राजसिक अहंकार से सात्विक अहंकार में आओ। समाधि में सात्विक अहंकार सहज ही ब्राह्मन में लीन हो जाता है।

प्रश्न : शादी में दो लोग होते हैं - पति और पत्नी। मेरी पत्नी साधना और सतसंग को पसन्द नहीं करती। मुझे क्या करना चाहिए?

श्री श्री रवि शंकर :
युक्ति से चलो। यह तुम्हारे अच्छे साधक होने की परीक्षा है। धीरे धीरे वो भी पथ पर आएगी।

प्रश्न : आलस्य से कैसे छुटकारा पाएं?

श्री श्री रवि शंकर :
जहाँ लालच हो वहाँ आलस नहीं होता। जहाँ भय हो वहाँ आलस नहीं होता। और जहाँ प्रेम हो वहाँ आलस हो ही नहीं सकता।

प्रश्न : काम भावना से कैसे छूट सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
अगर तुम इसके बारे में सोचते रहोगे तो इसकी झकड़ मज़बूत हो जाएगी। उसी वासना को तुम प्रसन्नता और प्रेम में बदल सकते हो। जहाँ तृप्ति और मस्ती हो वहाँ काम की पकड़ सहज ही ढीली हो जाती है। जहाँ सूरज हो वहाँ मशाल की ज़रुरत नहीं रह जाती।

प्रश्न : आलस में पड़े रहने में और विश्राम में क्या अंतर है?

श्री श्री रवि शंकर :
जब शरीर में तमो गुन बढ़ जाए तो तुम आलसी हो जाते हो। आलस में पड़े रहने में तुम्हे कोई शक्ति नहीं मिलती। ऐसे में तुम बैचेन ही रहते हो और मन इच्छाओं से झूंझता रहता है।
जो तुम्हे काम करने के बाद मिलता है वो विश्राम है। शरीर को पूर्ण विश्राम काम करने के बाद ही मिल सकता है। जब शरीर को पूर्ण विश्राम मिलता है तो मन प्रसन्न होता है। उससे तुम्हे शक्ति मिलती है और संकल्प सिद्धी होने लगती है।


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"समिष्टि अर्थात सारी सृष्टि"

आज श्री श्री ने क्या कहा:
बेंगलोर आश्रम,फ़रवरी 25:

प्रश्न : यष्टि और समष्टि क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
क्या तुम रोज़ गाती हो?(महिला ने कहा कि वह अकेले में गाती हैं|) जब तुम अकेले गाती हो तो वह यष्टि है,जब यहाँ पर सब के साथ मिलके भजन गाती हो तो यह समष्टि है| समष्टि का अर्थ है सारी सृष्टि|

प्रश्न : यह कहा जाता है की आत्माएं अपने माता - पिता चुनती हैं| तो फिर गर्भपात और बलात्कार क्यों होतें हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
इसे कहते हैं जन्म रहस्य| बहुत सी आत्माएं शरीर लेने के लिए होड़ लगाती हैं केवल कुछ ही जीत पाती हैं| यह एक तरह की दौड़ प्रतियोगिता जैसी होती है| जैसे लाखों प्रतियोगियों में केवल एक ही जीतता है, उसी तरह से वहां भीड़ है और केवल एक को ही शरीर मिल पाता है| इसीलिए कहा गया है मनुष्य जन्म बहुत मूल्यवान है| इन्हें बेकार की बातों में मत गँवाओ| बहुत सी संभावनाएं हैं - कौनसी आत्मा आयेगी और कौनसी नहीं| अनगिनत संभावनाएं हैं| कोई नहीं जानता|

प्रश्न : असंवेदनशील लोगों से कैसे निभाया जाए?

श्री श्री रवि शंकर :
इस के प्रभाव में मत आओ| जब तुम कहते हो कि कोई असंवेदनशील है तो तुम अपने आप को बहुत संवेदनशील बता रहे हो| जब तुम अपने आप को संवेदनशील होने का लाइसेंस दे देते हो, खुद का परेशान होना सही साबित करने लगते हो| दुनिया बहुत बड़ी है और यहाँ सब तरह के लोग हैं| हमें सबके साथ रहना और काम करना है|

प्रश्न : स्त्रीधन क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
प्राचीन भारत में एक प्रथा थी| घर का पुरुष अपनी पत्नी को कुछ धन देता था| इस पैसे को कोई हाथ नहीं लगाता था| पत्नी के पैसे हमेशा बढ़ते रहते थे| पुरुष अपनी कमाई का एक हिस्सा ,पांच-दस प्रतिशत, अपने वेतन में से स्त्री को दे देता था। पुरुष को इस पैसे को खर्च करने का अधिकार नहीं था| स्त्री इस पैसे को इकट्ठा करती थी|
यह हमारी प्रथा होती थी| यह सब खत्म हो गई| सब अच्छी प्रथाओं को हमने भुला दिया और बुरी आदतें अपना ली|

प्रश्न : गुरूजी, श्रीमद भागवद से अजमिला की कहानी के बारे में बताइये|

श्री श्री रवि शंकर :
श्रीमद भागवद में राजा अजमिला की एक कहानी है| उसमें बहुत सी बुराइयाँ थीं| उसका नारायण नाम का एक बेटा था। अपनी मृत्यु के समय उसने अपने बेटे को पुकारा| और जैसे ही उसने नारायण कहा उसे मुक्ति मिल गई| यह कहानी लोगों को विश्वास दिलाने के लिए है कि अतीत चाहे कैसा भी रहा हो, उसके लिए परेशान होना बेकार है और अतीत को लेकर किसी तरह का अपराध बोध नही होना चाहिए| यदि आप अंतिम पलों में भी नारायण (भगवान) का नाम लोगे तो भी मुक्ति मिल सकती है| परन्तु इसका यह मतलब भी नहीं कि आप सारी उम्र चाहे जो मर्जी करो और अंत में नारायण का नाम लो| इस से आप को बुराइयाँ करने का लाइसेंस नहीं मिल जाता| इस से केवल यह संकेत मिलता हैं कि आप को अपने अतीत को ले कर अपराध बोध नहीं होना चाहिए और उस पर पश्चताप नहीं करते रहना चाहिए| तुम वर्तमान में भक्त बन जाओ और इश्वर से जुड़ जाओ|

प्रश्न : समय क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
(अपने हाथ को उपर से नीचे लाकर) पता चला? यदि नहीं पता चला तो कभी भी पता नहीं चलेगा|

प्रश्न : क्या प्रतिस्पर्धा कि भावना होनी चाहिए?

श्री श्री रवि शंकर :
अपने आप से| अपने आप से होड़ लगाओ|


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"जो मोक्ष की भी परवाह नहीं करते उन्हें ईश्वरीय प्रेम मिलता है"

श्री श्री रवि शंकर ने आज क्या कहा:
बंगलौर आश्रम,फरवरी 24:

प्रश्न : संस्कृत भाषा के लिए आपकी क्या दृष्टि है?

श्री श्री रवि शंकर :
इसमें कोई शक नहीं कि संस्कृत एक महान और सुंदर भाषा है| ये बहुत सी भाषाओं की जननी है| रशियन,जर्मन,इंग्लिश और बहुत सी भारतीय भाषाएँ संस्कृत से जन्मी हैं| भाषा का अपना एक स्थान है पर मैं भाषाओं के परे देखता हूँ| मेरी रुचि चेतना और मन की स्तिथि में ज्यादा है - दुनिया में चेतना का स्तर कैसे बड़ाया जाए!

प्रश्न : हमें कैसे पता चल सकता है कि हमारी भक्ति पूरी तरह से परिपक्व हो गई है?

श्री श्री रवि शंकर :
इस बारे में चिंता मत करो कि तुम्हारी भक्ति परिवक्व हो गई है या नहीं| इतना जान लो कि भक्ति है| कभी भी यह मत सोचो कि तुम्हारे पास भक्ति नहीं है या तुममे में भक्ति की कमी है|

प्रश्न : दिल और दिमाग के बीच संतुलन कैसे लायें जब दोनों ही विपरीत कह रहे हों?

श्री श्री रवि शंकर :
यदि आप किसी व्यापार में हो तो अपने दिमाग की सुनो,और यदि घर या रिश्तों की बात हो तो दिल की सुनो|

प्रश्न : अच्छे और बुरे विचार आते जाते रहतें हैं,क्या इनसे कर्म बनतें हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
नहीं, जब आप विचारों के आने जाने के साक्षी होते हो,तो कोई कर्म नहीं बनता| जब आप बुरे विचार को ले कर परेशान हो जाते हो तो आपके मन पर इसका प्रभाव पड़ता है|

प्रश्न : कृप्या कर्म और कर्म फल के बारे में बताइए|

श्री श्री रवि शंकर :
तुमने यह प्रश्न पूछा - यह कर्म है| तुम मेरे जबाब को सुन रहे हो यह भी कर्म है| जीवन केवल कर्मफल है|

प्रश्न : गुरूजी,वैदिक गणित के बारे कुछ बताइए|

श्री श्री रवि शंकर :
आश्रम में गणित का विभाग है जिसमें बहुत से वैदिक गणित के अध्यापक हैं| कुछ 16 -17 फोर्मुले (सूत्र) हैं जिनसे गणित के प्रश्न आसानी से हल किये जा सकतें हैं| सभी गणित प्रेमियों को यह जरूर पढ़ना चाहिए।

प्रश्न : आध्यात्मिकता में मोक्ष अधिक महत्वपूर्ण है या ईश्वरीय प्रेम?

श्री श्री रवि शंकर :
जिन्हें ख़ुशी की परवाह नहीं होती उन्हें मोक्ष मिलता है और वे जो मोक्ष की परवाह नहीं करते उन्हें ईश्वरीय प्रेम मिलता है|

प्रश्न : हर मनुष्य पवित्र क्यों नहीं है?

श्री श्री रवि शंकर :
प्रत्येक व्यक्ति पवित्र है। हर व्यक्ति हीरे की तरह है| हीरा मिट्‌टी में होने पर भी हीरा ही रहता है। उसे केवल उठा कर साफ़ करने की आवश्यकता है,और यह फिर से चमकने लगता है| हीरे की चमक हमेशा रहती है परन्तु धूल और कीचड़ से ढकी हो सकती है।

प्रश्न : अपने व्यवसायिक और आध्यत्मिक जीवन में संतुलन कैसे बनाएं?

श्री श्री रवि शंकर :
क्या तुमको साईंकल या मोटर बाइक चलानी आती है?कैसे संतुलन करते हो? बस वैसे ही करो|


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"हर कली के पास वो सब होता है जो फूल बनने के लिए आवश्यक होता है"

बंगलौर आश्रम,23 फ़रवरी

प्रश्न : गुरूजी,मैं चाहता हूँ कि कुछ ऐसा हो जाए कि मेरी कोई इच्छा ही न रहे|

श्री श्री रवि शंकर :
तुम्हारी यह इच्छा कि कोई इच्छा न रहे अपने आप में एक इच्छा ही है| यह एक समस्या है| जो जैसा है ठीक है - यह संमति है| चाहे तुम्हारे पास पूछने के लिए प्रश्न है या नहीं,यह ठीक है| चाहे तुम्हे जबाब मिले या नहीं ,यह ठीक है| 'सब सही है' यह निवृति का रास्ता है| हम प्राय: कहते हैं, यह सही नहीं है, वह सही नहीं है| कुछ सही न होने पर मन का प्रवाह उसे सही करने की दिशा में रहता है। ऐसे में तुम विश्राम नहीं कर सकते क्योंकि मन उसी दिशा में रहता है और कुछ करने का रवैया बना रहता है| इस कारण से तनाव होता है और अच्छा आराम नहीं मिल पाता|
हमें जीवन में दो तरह से सोचना चाहिए - प्रवृति और निवृति|
जब आप दुनिया के कार्य करते थक जाएँ तो यह आवश्यक है की आप अपने आप में विश्राम करे| प्रकृति ने भी इसी तरह से बनाया है:12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात | कुछ जगहों पर जैसे उतरी और दक्षिणी ध्रुव में ग्रीष्म ऋतु में रात लगभग चार घंटे की और दिन लगभग 18 से 20 घंटे का होता है| परन्तु सर्दियों में यह विपरीत हो जाता है और दिन केवल चार - पांच घंटे का रह जाता है| इस तरह से प्रकृति इस संतुलन को बनाये रखती है|12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात यह प्रकृति का नियम है| रात का अपने आप में अर्थ है किसी भी प्रकार की कोशिश से निवृति| दिन प्रवृति का प्रतीक है और रात निवृति का प्रतीक है|

विवेक मतलब प्रवृति और निवृति क्या है इसकी समझ| हम सोचतें है की निवृति का मतलब है 60 साल की उम्र में नौकरी से निवृत हो जाना और छूटी पर जाना| नहीं ,वेदों में बार बार कहा गया है ,निवृति का रास्ता अपनाओ| अर्थात अपने भीतर जाना जिससे पूर्ण विश्राम मिलता है। और ऐसा तभी होता है जब तुम कार्य करके थक जाते हो। पूर्ण विश्राम लेना ही निवृति है|
दो प्रकार के आराम हैं| एक तो कुछ कार्य किये बिना आराम। इससे कुछ आराम मिलता है परन्तु मन को पूर्णतया आराम नहीं मिलता| दूसरा है सजगता से विश्राम करना।आप आराम कर रहे हो परन्तु भीतर से आप जागरूक और सजग होते हो,यह ध्यान है| सजगता से आराम ध्यान है|
ध्यानमय आराम बहुत बेहतर है क्योकि इसी से पुरे शरीर को वास्तविक आराम मिलता है| जब हम ध्यान में जाना चाहतें हैं तब उस समय 'सब सही है' वाला रवैय्या अपनाना चाहिए| किसी चीज की कमी नहीं है और 'अभी इस क्षण में मुझे कुछ भी नहीं चाहिए'| जब आप सोचते हो कि सब ठीक है तो आपका मन शांत होता है और आप भीतर जा सकते हो|
अपने भीतर जाते ही आप ख़ुशी,संतुष्टि,आनंद और शांति अनुभव करते हो। उसके बाद तुम्हे प्रवृति के पथ पर आना होता है| इस तरह से प्रवृति का अर्थ है जब तुम्हे लगे कि चीजें सही नहीं हैं और इन्हे सही करना है| कब निवृत होना है और कब प्रवृत - यह ज्ञान अध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा आता है|
मानव कि संरचना ऐसे है कि कोई भी हमेशा न तो केवल निवृति में और न केवल प्रवृति में रह सकता है| दोनों जीवन में निरंतर साथ साथ चलेंगे| जब हम प्रवृति में आतें हैं तभी हम कार्य करने लगतें हैं और हम चीजों को सुधारने लगतें हैं|(अपने आस पास बहुत छोटी छोटी त्रुटियों की ओर इशारा करते हुए) छोटी छोटी बातें आपका ध्यान अपनी ओर ले जाती है और आप सब को सही करना चाहते हो| यह प्रवृति है| परन्तु यदि कोई इस रवैये में अटक के रह जाए तो आँखें बंद करके भी इन्ही त्रुटियों के बारे ही सोचता रहेगा और निवृति में नहीं जा पायेगा| इस से कोई भी पगला जायेगा और तनाव से भर जायेगा| इसे कहतें है असुरी वृति |
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में इसके बारे में कहा है| तमोगुण कि प्रवृति वाले व्यक्ति को पता नहीं चलता कि कब दोनों में से किस रास्ते पर चलना है|उसमें विवेक नहीं होता| जब काम कर रहा होता है तो वह सोचता है कि सब ठीक चल रहा है| यह निवृति को प्रवृति में इस्तेमाल करने का एक उदहारण है| वह सोचता है कि भ्रष्टाचार भी ठीक है,क्योंकि इसको होना ही है| वह कार्य नहीं करता और उदासीनता का मनोभाव रखता है| वह सोचता है कि उसे काम करके क्या लेना है। और फ़िर वह प्रवृति को निवृति में इस्तेमाल करता है| सारी रात वह सोचता है और परेशान रहता है| सिर्फ सोचने से कोई कार्य पूरा नहीं हो सकता| जब दोनों रुख साथ साथ चलें तब आप निपुणता,सफलता और बिना तनाव के कार्य पूरा कर लेते हो|
गीता में यह भी कहा गया है कि बुद्धिमान व्यक्ति जानता है कि निवृति के लिए कौन सा मनोभाव ठीक है| जब आप अंतर्ध्यान होना चाहतें हैं तो उस समय यह मनोभाव होना चाहिए "इश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ती भी नहीं हिलती| सब सही है और उत्तम है|" तब मन स्थिर होता है, आपको पूरा आराम मिलता है और गहरे ध्यान में डूब जाते हो| एक बार जब ध्यान से बाहर आते हो तो आप और भी स्पष्ट व चौकस हो जाते हो, तथा छोटे से छोटे दोष को भी पकड़ लेते हो| जब आप दोष देखते हो आप उन्हें सुधार सकते हो| आपमें बहुत छोटी सी गलती को देखकर, उसमें सुधार ला सकने की कुशलता आती है|
आप कभी भी सारा समय ध्यान में नहीं रह सकते। आपको कार्य और निष्क्रियता में बदलाव करना पड़ता है| कार्य और आराम मानव व्यक्तित्व के दो पहलु हैं और दोनों की जरूरत मानव विकास के लिए जरुरी है| दोनो में संतुलन बनाए रखना एक कला है| पूरा जीवन आप को इस पर चलना है| ध्यान कैसे करें?यहाँ तक की मुश्किलों में आप अपने मन को बंद करके रखें| इस तरह से आप देखोगे कि आप का आधा काम अपने आप हो जाता है और जो आधा रह जाता है वह प्रवृति के मनोभाव से पूरा हो जाता है| इसलिए दोनों की जरूरत है|

प्रश्न : प्रकृति पूर्ण संतुलित है। तो हम प्रकृति में यह संतुलन कैसे देख सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
प्रकृति में इस तरह का संतुलन है| गर्मियों में दिन बड़े होतें हैं और सर्दियों में रातें बड़ी होती हैं| इस प्रकार प्रकृति किसी तरह से संतुलन बनाये रखती है| एक स्थान पर ठण्ड होगी तो दूसरी किसी जगह गर्मी होगी| इस तरह गर्मी और सर्दी,रात और दिन, प्रकृति में संतुलन लातें हैं| और ये बहुत से तरीकों से आप को बतातें हैं कि आपको कार्य और आराम में संतुलन लाना है|

प्रश्न : लोग भगवान शिवजी के प्रसाद के रूप में अफीम खातें हैं| क्या मुझे खाना चाहिए? और यदि यह सही नहीं है तो मैं बाकि लोगों को कैसे समझाउं?

श्री श्री रवि शंकर :
आप को नहीं खाना है| यहाँ सत्संग में जो रस मिलता है वो किसी भी और वस्तु से अधिक आनंद देता है। ज़रा उन लोगों के चेहरे देखो जो अफीम खातें है| क्या आपको उनके चेहरे पर तेज़ दिखता है? क्या वे बहुत संतुष्ट और आनंदपूर्ण लगते हैं?बिलकुल भी ऐसा नहीं लगता| उनके चेहरे पर कोई चमक,रौनक या मुस्कान नहीं होती| भगवान शिवजी का प्रसाद मिल जाए तो आनंदमय,संतुष्ट और खुश रहने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं रहता| परन्तु जो लोग अफीम खाते हैं उनमें ऐसा नहीं दिखता| मैं इसे प्रसाद नहीं समझता|

अपनी समझदारी से उन्हें ऐसा करने से रोक सकते हो| उन्हें सुदर्शन क्रिया का अनुभव करवाओ|

प्रश्न : जीवन में सामजस्य(consistency) कैसे प्राप्त करें? मैं अपने आप को प्रगति करते देखता हूँ और तब अचानक अपने आप को नीचे जाते देखता हूँ|

श्री श्री रवि शंकर :
सामजस्य लाने की इच्छा ही तुम्हे सही रास्ते पर ले जायेगी| जब तक तुम प्रगतिशील हो, एक दो बार नीचे आ भी जाते हो तो उस पर ध्यान देने की आवश्यक्ता नहीं| यदि तुम इसके लिए चिंता करते हो, यां तो तुम खुद को दोषी ठहराने लगते हो यां गुस्से और तनाव में आ जाते हो। इसलिए इसको स्वीकार करो|
(प्रशनकर्ता:परन्तु नीचे गिरने के डर के लिए मैं क्या कर सकता हूँ?)
पीछे मुड़ के देखो और समझो| यदि तुम दस कदम आगे बड़े हो तो कभी भी पूरे दस कदम पीछे नहीं गए| यदि आप उपर चढ़ रहे हो तो आप तीन,चार या पांच कदम वापिस आ सकते हो परन्तु कभी भी सारे दस कदम वापिस नहीं आ सकते|
क्या तुमको अपने आप में सकरात्मक बदलाव दिखते हैं?
(जबाब:हाँ)
इस से आपको पूर्ण आत्मविश्वास आता है कि आप कभी भी दस कदम वापिस नहीं आये|

प्रश्न : गुरूजी,सत्व के बढ़ने से हमारे कार्य पूरे हो जाते हैं| तब समाज में उन लोगों के काम कैसे पूरे होतें है जो बुरे काम करतें हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
ऐसा केवल कुछ समय के लिए ही होता है| बाद में आप देखते हो कि वे बुरी तरह से नाकामयाब होतें हैं| अमेरिका में बर्नार्ड मैडोफ्फ़ था| लोग उसके साथ फोटो लेने के लिए लट्टू थे| वह इतना बड़ा व्यपारी था कि वह जो भी कहता था एकदम पूरा होता था| फ़िर क्या हुआ?उसके बारे में सब सच पता चल गया| वह अब जेल में है| उसके अपने बेटे ने ही उसे पकड़वाया|
इस तरह जो कोई भी झूठ के रास्ते पर चलता है, उनके लिए कुछ अच्छा समय आता है परन्तु बाद में उनका पतन होना निश्चित है|
झूठ के रास्ते की समस्या है कि तुम्हे नींद ठीक से नहीं आती और बेचैन रहते हो| कम से कम जो सच के रास्ते पर चलता है चैन की नींद सोता है|

प्रश्न : गुरूजी,वो क्या है जो आसक्ति और अनासक्ति से परे है?

श्री श्री रवि शंकर :
मैं !

प्रश्न : कृपया महाराष्ट्र में छात्रों में बढती आत्महत्या के बारे बताइए|

श्री श्री रवि शंकर :
महाराष्ट्र में छात्रों में आत्महत्या की संख्या बढ़ रही है। इसलिए हमने अखबारों में एक विज्ञापन दिया था कि वे लोग हमारे साथ सम्पर्क करें जिन में ज़रा सी भी आत्महत्या की प्रवृति है| दो दिन में ही 250 के करीब फ़ोन आये| तब वे कोर्स में आये और ध्यान किया| एक व्यक्ति ने बताया कि वह और उसके पिता दोनों आत्महत्या करने वाले थे परन्तु अब वे कोर्स करने के बाद ऐसा कभी नहीं करेगें| इस तरह से लोगों को कोर्स में लेकर आओ ओर ध्यान करवाओ|

प्रश्न : गुरूजी, आप कहते हो कि आप में और मुझ में कोई अंतर नहीं है, पर आप में इतना तेज़ है और मेरे में नहीं है?

श्री श्री रवि शंकर :
आप खिलो और तब आपको पता चलेगा कि सब जगह रोशनी है| हर कली के पास वह सब है जो उसे एक फूल बनने के लिए चाहिए| एक कली और फूल में बहुत ज्यादा अंतर नहीं होता| कली अभी पूरी खिली नहीं है पर खिल जायेगी| यदि आप भी ऐसे सत्संग में जाते रहोगे तो पता चलेगा आप के पास भी वही तेज़ है| वो तेज़ आपके पास बड़ी आसानी से आने लगेगा|

प्रश्न : गुरूजी,समर्पण के बाद भी मन अटक जाता है| मुझे क्या करना चाहिए?

श्री श्री रवि शंकर :
कम से कम थोड़े समय के लिए तो मन आज़ाद होता है| मन के साथ ऐसे ही होता है| माया की पहुँच दूर तक है| ये कई तरफ से आप को पकड़ लेती है| जब आपको लगता है कि यह आप को कोई ख़ुशी दे रही है तो मन इसकी ओर आकर्षित हो जाता है| इसे समर्पण, भोग या समझदारी से खत्म कर दो| यदि कुछ भी नहीं तो समय के साथ यह अपने आप समाप्त हो जाएगा|


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तृप्त होने के लिए विज्ञान और ज्ञान दोनो चाहिए

कोलकता (भारत), १२ फ़रवरी २०१०

रुद्र पूजा शुरु करने से पहले, श्री श्री ने शिव तत्व और शिवरात्रि का सार बताया:

आइये हम सब शिव तत्व के बारे में थोड़ा जानने का प्रयास करते हैं। थोड़ा ही जान सकते हैं। इसे समझने के लिए बुद्धि को संतुष्ट और शुद्ध भावनाओं का उदय करने की ज़रुरत है।

हमें विज्ञान और ज्ञान, दोनों से तृप्त होना है। ईश्वर की खोज के लिये लंबी तीर्थयात्राओं पर जाना आवश्यक नहीं है। जहां तुम हो, वहां तुम्हें ईश्वर की प्राप्ति न हो, तो कहीं और भी नहीं हो सकती। जब मन लीन हो जाता है, वही शिव है। जहां तुम हो, वहीं स्थिर हो जाओ। जैसे ही तुम अपने भीतर के केन्द्र में स्थिर हो जाते हो, तुम ईश्वरीय दिव्य शक्ति को हर जगह पाते हो। यही ध्यान है।
शिव का एक नाम विरूपाक्ष है। इसका अर्थ है कि वह निराकार है, परंतु सब को देख रहा है। हम जानते हैं कि वायु हमारे इर्द गिर्द सभी जगह व्याप्त है। हम वायु को महसूस कर सकते हैं।अगर वायु भी हमको महसूस करने लगे, तो? हम आकाश तत्व से घिरे हैं, और उसे पहचानते हैं। अगर आकाश भी तुम्हें देखने और महसूस करने लगे, तो? ऐसा होता है। बस, हम इसके प्रति सजग नहीं है। विज्ञान की भाषा में इसे Theory of Relativity कहते हैं। देखने की प्रक्रिया में दृष्य और दृष्टा, दोनों पर कुछ प्रभाव पड़ता है। ईश्वर की दिव्य शक्ति चारों ओर से तुम्हें देख रही है। ये निराकार दिव्य शक्ति है। ये निराकार तत्व ही सृष्टि के अस्तित्व का मूल है और लक्ष्य भी। दृष्टा भी वही है, दृष्टि और दृश्य भी। ये निराकार दिव्य शक्ति शिव है। इस तत्व को अपने भीतर जगाना और इसे अनुभव करना ही शिवरात्रि है।

आमतौर पर उत्सव के जोश में हम होश खो देते हैं। शिवरात्रि उत्सव में गहन विश्राम के साथ सजगता का समन्वय है। शिवरात्रि में हम सजगता के साथ विश्राम करते हैं। कहा गया है कि जब सब सो रहे हों, तब भी योगी सचेत रहता है। एक योगी के लिये हर दिन शिवरात्रि है। भगवान शिव की व्याख्या आदि शंकराचार्य ने बड़े सुन्दर भाव से इन पंक्तियों में की है... (श्री श्री उनमें से कुछ पंक्तियां गाते हैं।)
आदिय्न्तहीनं – जिस का ना आदि है ना अंत। भोलेनाथ, जो सभी लोगों के भोले नाथ हैं। और सर्वदा सभी जगह उपस्थित हैं। हम सोचते हैं कि शिव गले में सर्प डाल कर कहीं बैठे हैं। ऐसा नहीं है। यह केवल चित्रकारों की एक कल्पना है। शिव वो है जिस में सृष्टि का जन्म हुआ है, जिसमें इस समय सब मौजूद हैं, और जिसमें सृष्टि लीन होती है। तुम जगत में जितने भी आकार देखते हो, सब उसी शिव के आकार हैं।

समस्त सृष्टि में शिव समाये हैं। शिव अजन्मा है, और उनका अंत भी नहीं है। शिव चेतना की चौथी अवस्था हैं; तुरीया अवस्था, ध्यान की अवस्था - जो जाग्रत, सुषुप्त और स्वप्नावस्था से ऊंची है।

ये अद्वैत चेतना सब जगह उपस्थित है। इसीलिये शिव की पूजा शिवमय होकर करनी चाहिये। चिदानंदरूप – शिव सत चित आनंद है।

तपोयोगम्य – जिसे तप और योग से जाना जा सकता है। शिव तत्व को वेदों के ज्ञान में अनुभव किया जा सकता है, शिवोहं (मैं शिव हूं), शिवकेवल्योहं (केवल शिव ही है) की अवस्था तक जीव पंहुच जाता है।

शिवरात्रि का दिन आनंद और संतोष के अनुभव के लिये है। योग के बिना शिव तत्व का अनुभव नहीं हो सकता। योग का अर्थ केवल योगासन नहीं है। योग का अर्थ है शिव तत्व की अनुभूति जो प्राणायाम और ध्यान से होती है - जब हम भीतर से ‘वाह’ अनुभव करते है।

शंभो शब्द भी उसी मूल से आया है – ये अनुभव करना कि दिव्यता, यह सृष्टि, और अपना खुद का स्वरूप कितना सुंदर है! ये एक आश्चर्य है कि वही दिव्य चेतना इस जगत के हरेक जीव के भीतर है! इससे बड़ा कोई आश्चर्य नहीं है। वह एक अनेक कैसे बना? शिवरात्रि हमें अनेक से एक की ओर ले जाती है। इसके लिये योग और ध्यान आवश्यक हैं। ध्यान के बिना मन शांत नहीं होता।

भजन और ध्यान शिवरात्रि के उत्सव का अंग हैं। पूर्ण हृदय से सभी इस में सहभागिता करते हैं। सभी को गाना चाहिये।

शिव सभी कारणों के कारण हैं। शिव के कारण ही सब हो रहा है। शिव के कारण ही सब है – पेड़ उग रहे हैं, सूर्योदय हो रहा है, हवा चल रही है...हर कार्य का कारण शिव है। शिव के बिना कुछ नहीं होता।
पंचमुख यां पंचतत्व – शिव के पांच मुख हैं – जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि और आकाश। इन पांच तत्वों को जानना तत्वज्ञान है।
फिर शिव की उपासना अष्टमूर्ति (आठ आकारों) में होती है – मन, चित्त और अहंकार इसी में आते हैं। यह शिव का साकार और निराकार रूप हुआ।

शिव की उपासना का अर्थ है, शिव तत्व में लीन होकर शुभ कामना करना। क्या कामना करें? उदार हृदय से विश्व के कल्याण के लिये कामना करें। कोई दुखी ना रहे। सर्वे जनः सुखिनो भवन्तु।
हां, इस मौके पर एक संकल्प कर सकते हो। ऐसा संकल्प जो तुम्हारी सांस की तरह, तुम्हारे हृदय की धड़कन की तरह बार बार तुम्हारे ज़हन में आये। जब तुम ऐसा संकल्प दिव्य शक्ति को समर्पित करते हो, तो वह अवश्य पूरा होता है।

हम प्रकृति की भी उपासना करते हैं। इस धरती पर जो कुछ भी है, उसमें दिव्य शक्ति का समावेश है। वृक्ष, पहाड़, नदियां, पृथ्वी और उस पर रहने वाले सब लोग - इन सब का आदर किये बिना पूजा पूर्ण नहीं होती। सब का सम्मान करना, दक्षिणा है। दा का अर्थ है, देना। दक्षिणा का अर्थ है, जिसे देने से हमारे भीतर की अपवित्रता दूर हो जाती है। दक्षिणा के बिना पूजा अधूरी है।
जब हम समाज में दक्षता से, और मन की भ्रांतियों से मुक्त होकर कार्य करते हैं, तो नकरात्मक वृत्तियां, जैसे क्रोध, चिंता और दुख नष्ट हो जाते हैं।

मैं कहूंगा अपनी समस्यायें, चिंता और दुख, मुझे दक्षिणा में दे दो। ये कैसे होता है? साधना, सेवा और सत्संग (सत्य का संग) से।


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सेवा के कार्य में सबको योगदान का मौका मिलना चाहिये

बैंगलोर आश्रम, ९ फ़रवरी २०१०

श्री श्री रवि शंकर रात्रि ८.३० बजे आश्रम पंहुचे, और सीधे सत्संग के लिये विशालाक्षी मण्डप में पधारे। वे तमिलनाडू के वेलंगन्नी से वापस आये हैं। श्री श्री ने इंडियन प्रेसटीज़ कौंग्रेस में रोमन कैथोलिक चर्च के पादरियों को संबोधित करने का अपना अनुभव सब के साथ बांटा।

तदुपरान्त एक छोटी लड़की ने उठ कर कहा कि उसके शहर में ’आर्ट आफ़ लिविंग’ का केन्द्र ना होने के कारण ’आर्ट आफ़ लिविंग’ के कार्यक्रम नहीं हो पाते हैं। ऐसा कह कर वो रोने लगी। श्री श्री ने उसे आश्वासन दिया कि उसके शहर में आर्ट आफ़ लिविंग का केन्द्र अवश्य खुलेगा। उस लड़की की मां ने खड़े होकर कहा, ‘हमारे पास जो भी है, उसे दे कर हम एक ज़मीन का टुकड़ा खरीदना चाहते हैं जिस पर ’आर्ट आफ़ लिविंग’ का केन्द्र बना सकें।’

श्री श्री ने कहा, ‘तुम भावुकता में आकर अपना सब कुछ नहीं दे सकते। मैं उसे स्वीकार नहीं करूंगा। इस केन्द्र को बनाने में कई लोगों को मिलकर थोड़ा थोड़ा योगदान देना चाहिये। हरेक को इस कार्य में योगदान का मौका मिलना चाहिये।’



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मंत्र किसी धर्म विशेष के ना होकर सार्वलौकिक हैं

बैगलोर आश्रम, ८ फ़रवरी २०१०

प्रश्न : गुरुजी, सत्संग में गाये जाने वाले भजनों और मंत्रों का क्या महत्व है? हालांकि हम इनसे सकरात्मक ऊर्जा पाते हैं, फिर भी कई लोग भजन गाने में कुछ संकोच करते हैं। वे सत्संग के असली महत्व और मंत्रो के गहन अर्थ को नहीं जानते। इसके बारे में कुछ बताएं।

श्री श्री रवि शंकर :
ॐ नमः शिवाय मंत्र में पंचतत्वों का समावेश है – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। हज़ारों वर्षो से इन मंत्रों का उच्चारण हो रहा है। मंत्र वो ध्वनियां हैं जिन्हे ध्यान में भीतर की गहराई में सुना गया। मंत्रों का उद्देश्य तुम्हें अपने स्तोत्र तक वापस ले जाना है। मंत्रों में कुछ ऊर्जा निहित है। ये मंत्र किसी धर्म विशेष के ना होकर सार्वलौकिक हैं।
लैटिन अमरीका के चर्चों में भी ‘मारा: नाथ’ मंत्र का उपयोग होता है। इसका संस्कृत और लैटिन में अनुवाद बहुत मिलता जुलता है। नाथ संस्कृत में भगवान को कहते हैं। मारा: का अर्थ हुआ, मेरे। ’मारा: नाथ’ का अर्थ हुआ - My Lord।
इस तरह चर्च में इस्तेमाल होने वाले, ‘मारा: नाथ’ का मूल संस्कृत भाषा में है।
संस्कृत मंत्रो का उच्चारण लाभकारी है। संस्कृत मानव सभ्यता की सबसे पुरानी भाषा है। संस्कृत का हमारी चेतना पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।
हम सभी भजनों का स्वागत करते हैं – जापानी, कोरियन, स्पैनिश...आप कोई भी भजन गाना चाहें, आपका स्वागत है। दक्षिण अमरीका में सत्संग में हम कई स्पैनिश और पुर्तगाली भजन गाते हैं। भारत में सभी लोग मंत्रों से आसानी से संबंध बना लेते हैं। किसी भी भाषा में गाओ, साथ में संस्कृत मंत्र भी गाओ।
आप में से कितने लोग मंत्रों के उच्चारण और गायन से उत्पन्न हुई ऊर्जा को महसूस करते हैं? (बहुत से लोग हाथ उठाते हैं।) ये प्रत्यक्ष है।
वैदिक मंत्रो के उच्चारण का कभी- कभी अर्थ समझ नहीं आता, पर उसका सकरात्मक असर महसूस होता है।
आज सुबह हमनें जो रुद्राभिषेक किया, ये हज़ारों सालों से चला आ रहा है। हम स्फटिक(crystal), दूध, दही, फूल, इत्यादि का उपयोग करते हैं। इस सब का कुछ सकरात्मक असर होता है।

प्रश्न : हम शिवरात्रि के बारे में बहुत कुछ सुन रहे हैं। शिवरात्रि का क्या महत्व है?

श्री श्री रवि शंकर :
हमारी चेतना इन तीन में से किसी एक अवस्था में होती हैं – जागृत, सुषुप्त या स्वप्न। चेतना की चौथी अवस्था शिव है – ध्यान की अवस्था। शिवरात्रि के दिन लोग उत्सव मनाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन जो भी मनोकामना हो, वो पूरी होती है। साधारण लोगों के लिये शिवरात्रि की रात उत्सव की रात है। साधक के लिये हर दिन और हर रात उत्सव है।

प्रश्न : हम अपने पिछले जन्मों का वजूद कैसे भूल जाते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
ये जानना कठिन नहीं है। Eternity process में तुम ये जान सकते हो।

प्रश्न : गुरुजी, हम सब रजत जयंती(silver jubilee) समारोह से बड़ा उत्सव कब देखेंगे?

श्री श्री रवि शंकर :
क्या रजत जयंती महोत्सव से बड़ा उत्सव करें? (दर्शकों ने एक स्वर मे कहा, ‘हां’।) हां, क्यों नहीं! अगले साल, २०११ में आर्ट आफ़ लिविंग के ३० साल पूरे हो जायेंगे - तीन दशक। कुछ विचार करते हैं। तुम भी सोचो। हम विचारों को इकट्ठा कर लेते हैं...|


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तुम्हारे जीवन में जितना ही सत्व उभरता है, उतनी आसानी से तुम्हारे कार्य पूरे होते जाते हैं।

बैंगलोर आश्रम, ७ फ़रवरी २०१०

शाम के सत्संग में स्वामी रामदेव ने आकर श्री श्री का अभिवादन किया। स्वामी रामदेव का स्वागत करते हुए श्री श्री ने कहा ’भारत का उत्थान हमेशा संतों, सन्यासियों, वैरागियों द्वारा ही हुआ है। भारत के गांवों तक योग और आयुर्वेद के प्रचार में स्वामी रामदेव ने बहुत योगदान दिया है।’

स्वामी रामदेव ने भारत को भूख, गरीबी, भ्रष्टाचार और अन्य सामाजिक व्यभिचार से छुटकारा दिलाने का अपना संकल्प दोहराया, और श्री श्री का आभार प्रकट करते हुए ’आर्ट आफ़ लिविंग’ के सामाजिक विकास में रहे योगदान को सराहा।

प्रश्न : हमारे जीवन में सत्व और ध्यान की क्या महत्वता है?

श्री श्री रवि शंकर :
तुम्हारे जीवन में जितना ही सत्व उभरता है, उतनी आसानी से तुम्हारे कार्य पूरे होते जाते हैं। हमारे भीतर का सत्व और पवित्रता, हमारे कार्यों की पूर्णता निर्धारित करते हैं।अगर तुम बहुत मेहनत कर रहे हो, पर परिणाम तुम्हारी उम्मीद से कम है, तो इसका अर्थ हुआ कि जीवन में सत्व और पवित्रता की कमी है। जब हम ध्यान करते हैं तो हमारे कार्य आसानी से पूरे होते हैं। तुम में से कितनों को इसका अनुभव है? ( कई लोगों ने हाथ उठाया।)
लोगों को इस राज़ का पता नहीं है। वे सोचते हैं कि ध्यान में क्यों २०-३० मिनट गंवायें, जबकि उस समय में कोई और कार्य किया जा सकता हैं। पर वो इस बात से अंजान है।
जब भी समय मिले ध्यान करना बहुत आवश्यक है, ताकि तुम अपने कार्य आसानी से और कुशलता से पूरे कर सको।

प्रश्न : कई लोगों में जानवरों की बलि को लेकर कुछ धारणाएं हैं। इसके बारे में आपके क्या विचार हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
जानवरों की बलि को रोकना होगा। किसी भी शास्त्र में निरीह जानवरों को मारने की स्वीकृति नहीं दी गई है। बलि का अर्थ है - अपनी पशु वृत्तियों का समर्पण करना। तुम ये बात दूसरे लोगों को भी समझा सकते हो।

प्रश्न : गुरुजी, झारखंड में कई संतों ने नक्सलवाद की समस्या से लड़ने का प्रयास किया है, पर कोई उपाय काम नहीं आ रहा।

श्री श्री रवि शंकर :
नक्सली भी मूल रूप में अच्छे लोग हैं। उन्हें बस थोड़ी समझ और दिशा देने की आवश्यकता है। धर्म और आध्यात्म की शिक्षा के अभाव में ऐसा हुआ है। अगर शिक्षा संस्थानों में थोड़ी सी धर्म और आध्यात्म की शिक्षा भी हो जाये, तो कोई नक्सली नहीं बनेगा। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धर्म की सही शिक्षा के प्रति लापरवाही बरती गई है।

प्रश्न : हर दिन लोग आपसे इच्छा पूर्ति के लिये प्रार्थना करते है। ये प्रार्थनायें वे लोग सीधा ईश्वर से भी कर सकते हैं। क्या आपके माध्यम से प्रार्थना करने पर ईश्वर ज़्यादा ध्यान देते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
मैं तुम्हें इस प्रश्न के साथ रहने को कहूंगा। विस्मय मे रहने के लिये तुम्हें भी तो कुछ चाहिये। और, तुम सारी रहस्यमय बातें क्यों जान लेना चाहते हो? (हंसी)

प्रश्न : युवाओं के लिये आपकी क्या सलाह है?

श्री श्री रवि शंकर :
उन्हें सलाह चाहिये तो वे ले सकते हैं। आमतौर पर सलाह लेने को अगर कोई इच्छुक ना हो, तो मैं सलाह नहीं देता। अगर सलाह दी जाये, और उसे लेनेवाला कोई ना हो, तो वो हवा में ही रह जाती है।
मैं हमेशा से संयुक्त परिवार के पक्ष में रहा हूं - जहां कई पीढ़ियां मिल कर रहें। पर इसके लाभ और दिक्कतें, दोनों ही हैं।


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"तुम एक पूर्णता से दूसरी उच्चतर (higher) पूर्णता की ओर बढ़ते हो"

बंगलौर आश्रम, ०६ फरवरी २०१०

प्रश्न : गुरु जी, मैं अक्सर लोगों को आपको प्रणाम करते देखता हूँ| क्या यह सब करना ज़रूरी है?

श्री श्री रविशंकर :
नहीं। बाहरी दिखावे निरर्थक हैं| उनको बहुत अधिक महत्व मत दो| हम सब गहरे स्तर, दिल के स्तर से जुड़े हैं| इसी कारण हम मिले हैं और हम सब यहाँ हैं|

प्रश्न : कल आपने लीला के बारे में बताया था| इसे बौद्धिक स्तर पर तो समझा जा सकता है, पर इसे आतंरिक अनुभव कैसे बनाएँ?

श्री श्री रविशंकर :
तुम इसे अनुभव मत बनाओ| तुम्हें बस जागना है और देखना है कि जीवन एक खेल है| इसी क्षण, जब मैं बोल रहा हूँ, जागो| अब तक जो घटित हुआ, क्या वह सपने जैसा नहीं है? तुमने आज शाम भोजन किया, सुबह ध्यान किया, सुबह योग किया और पिछली रात सोने गए,और यदि तुम याद करो तो कुछ अच्छी घटनाएं हुईं, कुछ बुरी घटनाएं हुईं, तुम्हें लाभ हुआ, तुम्हें हानि हुई, पर ठीक इस क्षण यह सब गुज़र चुका है|

इस क्षण जागो और देखो कि आने वाले कल से अगले १० साल का समय सब सपने जैसा ही है| जब तुम इस पूर्ण सत्यता का अनुभव करते हो कि भूत या भविष्य में होने वाला सब कुछ एक खेल जैसा है,तो तुम्हें यह एक धारणा नहीं लगती। यह तुम्हारा अनुभव होता है| जो अभी हो रहा है वो भी एक सपना हो सकता है| इस बात का एहसास होते ही तुम राहत महसूस करते हो| किसी दिन की प्रतीक्षा मत करो जब तुम्हें यह अनुभव होगा कि यह एक खेल है| इसी क्षण जाग कर देखो।
हो सकता है कि शरीर छोड़ने के बाद किसी दिन तुम्हें यह महसूस हो| तब तुम यह महसूस करोगे कि यह तो तुम पहले भी कर सकते थे|

प्रश्न : विराग (dispassion) और विरक्ति(indifference) में क्या अंतर है?

श्री श्री रविशंकर :
विरक्ति में उदासीनता, अस्वीकृति और निराशा का भाव होता है, जबकि वैराग्य में आनंद और उत्साह होता है|

प्रश्न : क्या हम सब के जीवन का कोई उद्देश्य है? यदि केवल एक उद्देश्य है,तो वह क्या है?

श्री श्री रविशंकर :
तुम्हारे लिए अच्छा है कि तुम कागज़ और कलम लो, और सूची बनाओ कि जीवन का उद्देश्य क्या नहीं है| ऐसा करने से जीवन का उद्देश्य समझना आसान हो जाएगा।

प्रश्न : उपनिषद क्या है?

श्री श्री रविशंकर :
निकट बैठना और ध्यान से सुनना उपनिषद है| उपनिषद सर्वोच्च ज्ञान के वचनों का संग्रह है।

प्रश्न : ईश्वर क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
एक उपनिषद में ईश्वर का बहुत सुन्दर वर्णन है। एक बार एक लड़का अपने पिता के पास गया और पूछा - ईश्वर क्या है?पिता ने उत्तर दिया ‘भोजन ईश्वर है, क्योंकि भोजन से सबका पालन होता है।’ तो बालक गया और कई महिनों तक इसके बारे में सोचा, भोजन के बारे में सब कुछ समझा और अपने पिता के पास वापिस लौटकर फिर पूछा ‘ईश्वर क्या है?’
पिता ने कहा ‘प्राण ईश्वर है|’ लड़का गया, चिंतन किया, प्राण के बारे में सबकुछ समझा कि कैसे प्राण उर्जा शरीर के अंदर और बाहर आ-जा रही है, प्राण कितने प्रकार के होते हैं और प्राण से सम्बंधित सभी प्रयोगों को पढ़ा| वह पुनः अपने पिता के पास लौटा और पूछा ‘ईश्वर क्या है?’
पिता ने बच्चे का तेजस्वी चेहरा देखा और कहा ‘मन ब्रह्म है, मन ईश्वर है' | पहले की तरह लड़का चला गया और तब तक मनन किया जब तक कि उसने अंतिम परमानंद (bliss) को नहीं प्राप्त कर लिया|
बच्चे ने अपने पिता से कभी शिकायत नहीं की कि उसे बताया गया था कि ‘भोजन ईश्वर है',लेकिन यह परम सत्य नहीं है। वह
उत्तर को समझकर वापिस आया और प्रश्न को पुनः पूछा| यह शिक्षा की प्राचीन विधि रही - एक
कदम से अगले कदम पर लेजाने की।
पहले भोजन, फिर प्राण, फिर मन, फिर अंतरात्मा, फिर परम ब्रह्म-परमानंद|

परमानंद ही देवत्व है| तुम्हारा अस्तित्व आकाश की तरह सर्व व्यापक है| फिर पिता ने बच्चे से कहा ‘तुममें, मुझमें और अनंत आत्मा में कोई अंतर नहीं है| हम सब एक हैं| स्वयं, गुरु और शाश्वत ऊर्जा अलग-अलग नहीं हैं| सभी एक ही तत्त्व से बने हैं| यदि तुम उन वैज्ञानिकों से बात करो, जो string theory यां परमाणु भौतिकी (quantum physics) पढ़ते हैं, वे वही कहेंगे, जो उपनिषदों में कहा गया है| उपनिषदों में यह हज़ारों साल पहले कहा गया था ‘ईश्वर स्वर्ग में कहीं बैठा हुआ कोई व्यक्ति नहीं है, अपितु वह हर जगह मौजूद है| वह सर्वव्यापी (omnipresent) और सर्वशक्तिमान (omnipotent) है| वह है और उसकी शक्ति से तुम भी बने हो, प्रत्येक चीज़ बनी है|'


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