त्याग से बल मिलता है!


२०१२बैंगलुरु आश्रम, भारत
जून
हम परेशान किससे होते हैं? पशु-पक्षी से नहीं होते हैं, बादल से नहीं होते हैं, प्रकृति से नहीं होते हैं, आज तो विश्व-पर्यावरण दिवस भी है| तो हम किससे परेशान होते हैं? हम अपने आस-पास के लोगों से परेशान होते हैं| हमारे दोस्त भी हमें परेशान करते हैं, और दुश्मन भी परेशान करते हैं, है न? मन कहाँ पर अटक जाता है? दोस्तों में अटकता है, या दुश्मनों में अटकता है| हम या तो दोस्त के बारे में दिन भर सोचते रहते हैं, या दुश्मन के बारे में|
क्या आपने देखा है कि कभी कभी हमारे कुछ गलत किये बिना, किसी का कुछ बुरा किये बिना भी, लोग हमारे दुश्मन हो जाते हैं| होते हैं, कि नहीं? ऐसा आपमें से बहुत लोगों का अनुभव रहा है| हमने कभी किसी के साथ कुछ गलत नहीं किया, किसी के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया, फिर भी लोग हमारे दुश्मन बन जाते हैं| आश्चर्य होता है हमें, कि अरे ये क्यों हमारे दुश्मन बन गये? कल तक तो दोस्त थे!
इसी तरह से हमने किसी पर कभी कोई विशेष उपकार नहीं किया पर वे हमारे गहरे मित्र बन गए|
इसलिए, मैं कहता हूँ, कि यह कोई विचित्र कर्म है, कि कुछ भी पता नहीं कोई कैसे दोस्त बन जाते हैं, और कैसे दुश्मन बन जाते हैं|
इसलिए, हमें क्या करना चाहिये? हमें दोस्तों और दुश्मनों, दोनों को एक टोकरी में डालकर, खुद खाली हो जाना चाहिये| (हँसते हुए) बिल्कुल मस्त हो जाना चाहिये| क्योंकि यह सब कुछ तो किसी नियम से चलता है, पता नहीं कैसे, कौन, कहाँ से आये| है न? किसका क्या भाव कैसे बदल जाएगा, कब किसका कौन सा भाव अनुकूल होगा, या प्रतिकूल होगा कुछ कह नहीं सकते| इसलिए, हमें अपने विश्वास को अपने परमात्मा और अपनी चेतना पर टिकाना चाहिये| दोस्ती और दुश्मनी पर अपना विश्वास नहीं लगाना चाहिये, अपना समय व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिये| क्या ख्याल है, ठीक है न?
इसका मतलब यह नहीं है, कि आप दोस्त की दोस्ती से दूर हो जाओ| दोस्ती न करो मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ! मित्रता हमारे स्वभाव में होनी चाहिये| हम स्नेही हैं| कोई पास आकर बैठ जाएगा, तो हम उससे दो-चार बात करेंगे ही| मेरी बात का यह मतलब यह नहीं है, कि आप कहें क्या दोस्त है, क्या दुश्मन है, मुझे किसी से कोई मतलब नहीं है, और आप अपना मुहँ फुलाकर एक कोने में बैठ जाएँ! नहीं! यह ज्ञान नहीं है, यह अज्ञान है| आप व्यवहार सबके साथ करें, मगर अपने में टिके हुए! क्या आप समझ रहें है, मैं क्या कह रहा हूँ? तब हमारे मन को न दुःख होगा, न द्वेष उठेगा, न गुस्सा आएगा| है न? ठीक है न? और आपको किसी तरह की निराशा भी नहीं होगी|
हम कभी कभी उदास हो जाते हैं, कि देखो, हमने इसके साथ इतनी दोस्ती निभाई, और ये तो अब हमसे बात ही नहीं करते| हमने इसका इतना उपकार किया, लेकिन अब तो ये हमारे विरोध में हो गयें| यही सब सोच सोच कर, हम वर्तमान का समय खराब कर देते हैं| यह नहीं करना चाहिये, ठीक है?
जिंदगी थोड़ी सी है, कम समय के लिए है, और इस कम समय की जिंदगी में, कुछ अच्छा कर जाईये| कुछ भला कर जाईये| त्याग बुद्धि होनी चाहिये| त्याग से बल मिलता है| जितना बल त्याग से मिलता है, उतनी मजबूती और किसी चीज़ से नहीं मिलती| जब आप त्याग करते हैं, तो एकदम मजबूती आ जाती है| और त्याग तो हम करते ही हैं, थोड़े थोड़े अंश में हम सब त्याग करते हैं| आज दुनिया में एक भी व्यक्ति त्याग के बिना नहीं है| उनको करना ही पड़ता है, कुछ न कुछ त्याग करते ही हैं| जहाँ प्यार होता है, वहां त्याग होता ही है| एक माँ बच्चे को इतना प्यार करती है, तो उसको अपना सुख तो त्याग करना ही पड़ता है, करती भी है| हर माँ रात भर जगी रहती है, जब बच्चा छोटा होता है, तो माँ कितना कम सोती है| माँ की निगाह उस पर (बच्चे पर) रहती है| दिन रात अपनी सुख सुविधा को वह भूलकर बच्चों के लिए करती है| फिर इसी तरह से, कुछ लोग होते हैं, जो समाज के लिए करते हैं| है न? इसी तरह से एक पिता घर के लिए दिन रात मेहनत करता है| नहीं तो एक अकेला आदमी क्यों इतनी मेहनत करे? मेहनत किसलिए करता है? अपने लिए थोड़े ही न करता है| अपनी सुविधा को त्याग करके, अपने परिवार के लिए मेहनत करता है| है न? एक अकेले व्यक्ति को क्या चाहिये, कितना चाहिये? बैठने-उठने के लिए, खाने-पीने के लिए, उसके लिए तो पर्याप्त हो ही जाता है| उसके लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती| एक बुद्धिमान को इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती, वह अपने आप में संतुष्ट रहता है| मगर, बाकी परिवार की ज़िम्मेदारी, समाज की जिम्मेदारी - उसके लिए मेहनत करनी पड़ती है| अपनी सुख-सुविधा का त्याग करना पड़ता है|
तो हर व्यक्ति, हर इंसान, कुछ न कुछ अंश में, चाहे ५ प्रतिशत, या १० प्रतिशत, या १५ प्रतिशत कुछ तो त्याग उसको करना ही पड़ता है| वह करता भी है| और त्याग की मात्रा जितनी अधिक होती है, उतनी ही व्यक्ति के अंदर अधिक मजबूती आ जाती है|
कुछ लोग तो अपनी सुख-सुविधा त्याग करने के लिए तैयार हैं| कुछ लोग अपने धन को त्याग करने के लिए तैयार हैं| कुछ लोग अपने रिश्ते-नातों को त्याग करने के लिए तैयार हैं, कुछ लोग अपने मान-सम्मान का त्याग करने के लिए तैयार हैं|  और अगर विपरीत दृष्टि से देखिए, तो कुछ लोग ऐसे हैं, कि वे अपने मान-सम्मान को त्याग नहीं कर सकते| कुछ लोग ऐसे हैं, कि उनके लिए बाकी सब ठीक है, लेकिन अगर कोई उनका अपमान कर दे, तो बस वह आदमी खत्म हो जाता है| तो उसकी कमजोरी वहां है| यह सब हमको देखना पड़ेगा| ठीक है?
(सत्संग में बैठे लोग गुरूजी के साथ हंसी-मज़ाक कर रहें हैं)
मस्ती के साथ-साथ थोड़ा ज्ञान भी तो चाहिये| यहाँ सुनकर, कभी तो काम आ ही जायेगा| हम अपने मन से ही तो परेशान होते हैं| अपने मन, अपनी बुद्धि से ही हम परेशान रहते हैं| जब मन से परेशान होते हैं, तब सुनी हुई कुछ बातें बुद्धि में झलकने लगती हैं, तब थोड़ा ब्रेक लगने लगता है| (हँसते हुए) नहीं तो ब्रेक-डाउन होने लगते हैं| तो ब्रेक-डाउन न हो, और मन की परेशानी पर थोड़ा ब्रेक लग जाए, इसीलिये हम थोड़ी-थोड़ी ज्ञान की बातें बताते हैं, वह मस्तिष्क में बैठ जाती है, और कभी याद आ जाती है, तो अच्छा होता है| (हँसते हुए) हाँ, अगर आपने एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया, तब भी कोई बात नहीं है| तब भी आपने कम से कम सुन तो लिया! थोड़ा बहुत ही सही!
इसीलिये, जिस व्यक्ति में जितना अधिक मात्रा में त्याग होता है, उसमें मज़बूती आती है| जिसके पास कुछ भी नहीं है, अगर वह कहे, कि मैंने सब कुछ त्याग कर दिया, तो वह सही नहीं है| सब कुछ होते हुए, सारी जिम्मेदारी निभाते हुए, जिसके मन में त्याग की बुद्धि रखे, वह सबसे श्रेष्ठ है| एक फ़कीर कह सकता है, कि मेरे पास कुछ भी नहीं है, झोपड़ी भी नहीं है, मैं तो बड़ा त्यागी हूँ| तो उनके त्याग को मैं त्याग नहीं मानता हूँ| क्योंकि उनके पास कोई जिम्मेदारी ही नहीं है| मगर जिनके पास इतने आश्रम हैं, इतने लोग हैं, इतनी बड़ी संस्था है, और इस सबको चलाना भी है, फिर भी वे इससे अलिप्त रहें और त्याग भी रहा, तो यह भगवान कृष्ण का तरीका है| ये तरीका सबसे श्रेष्ठ है| तो अर्जुन ने कहा, कि मैं सब कुछ छोड़कर हिमालय जा रहा हूँ, न युद्ध करना है, न राज्य चाहिये, न भोग चाहिये, मैं यह सब क्यों करूँ? कृष्ण, तू मुझे क्यों मजबूर करता है? मुझे जाने दो, मैं हिमालय जाता हूँ| तब भगवान कृष्ण बोले, नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिये| कर्म का त्याग मत करो, कर्म-फल का त्याग करो|
सब काम करिये, सब जिम्मेदारी उठाईये, और त्यागी बनिए| देश का नेतृत्व करिये, लेकिन मन में त्यागी बनिए| ऐसा नहीं, कि देश के सारे पैसे उठाकर विदेश में रख दिए| देश को ही त्याग दिया| काले धन को अपने पास रख लिया, यह त्याग तो गलत हो गया न! (हँसते हुए) सारी जनता जिसपर भरोसा रखे, जिसको एक आसन पर बिठाया, उस व्यक्ति ने क्या किया? बस देश को ही त्याग दिया! देशवासियों को भी त्याग दिया| यहाँ के सारे सफ़ेद धन को काला कर के, सफ़ेद देश में ले जाकर रख दिया! बर्फ में रख दिया! (हँसते हुए) ये काले धन को सफ़ेद देश में रखने की जो कला है, इसको इन लोगों ने अच्छे से आजमाया है| यह गलत है| ऐसा नहीं करना चाहिये| काले धन को छोड़कर, जनता के साथ जुड़ना चाहिये|
कबीरदास ने एक बहुत सुन्दर बात कही है, झूठ न छोड़ा, क्रोध न छोड़ा, सत्य-वचन क्यों छोड़ दिया; क्रोध न छोड़ा, काम न छोड़ा, नाम-जपन क्यों छोड़ दिया
नाम जपना क्यों छोड़ दिया! हाँ, जब नाम पक जाता है, तब नाम पकड़ कर मत रखिये| नाम जपने से अजप में चले जाईये ऐसा कहते हैं| पर पहले ही छोड़ दिया यह गड़बड़ है| अरे भई, यहाँ गाड़ी में चढ़ना है, और जहाँ जाना है, वहां पहुँच कर उतरना है| कोई कह सकता है, कि जब उतरना ही है, तो हम गाड़ी में चढ़े ही क्यों? ये कुछ लोग कहते हैं| (हँसते हुए) इनको समझ नहीं है, कि हम चढ़ते कहीं और हैं, और उतरते कहीं और हैं! इसलिए, पकड़ते कहीं और हैं, और उस पकड़ से छूटते कहीं और हैं| यही जीवन की धारा है, जीवन की शैली ऐसी होनी चाहिये|
तो त्याग आवश्यक है| त्याग के बिना सिर में बोझ हो जाता है| एक त्यागी को जितनी भी प्रशंसा मिले, वह टिकती ही नहीं| मन में लगती ही नहीं| ज्ञानी, त्यागी और भक्त को प्रशंसा से कोई दिक्कत नहीं होती| लेकिन अगर कोई भीतर से मज़बूत नहीं है, और फिर उन्हें किसी को प्रशंसा मिल गयी, तो थोड़े समय के बाद वह उनको बोझ लगता है| प्रशंसा भी, और प्रेम भी बोझ लगने लगता है|
तो बोझ उतरने की जब वे चेष्टा करते हैं, तो वे भागते हैं| भगोड़े बन जाते हैं| है न? कई प्रेम-विवाह ऐसे ही टूटते हैं| कैसे? कि एक व्यक्ति अपने पति या पत्नी के प्रति इतना प्रेम दिखाता है, कि दूसरा उसे सहन नहीं कर पाता| वे समझ नहीं पाते, कि इसको कैसे लें, कैसे समझाएं, इन्हें कैसे संभालें? उनको लगता है, कि अरे भई, कहीं भाग जाते हैं! ऐसा कितने लोगों ने होते हुए देखा है? (बहुत लोग हाथ उठाते हैं) कई लोग हमारे पास आकर बोलते हैं, मैं किसी के प्रेम में पड़ा हुआ हूँ| मैं जिस जिस से प्रेम करता हूँ, वे सब मुझसे भाग जाते हैं (हँसते हुए) मैंने उनसे कहा, कि अरे बेवक़ूफ़, तुम उनको दिन-रात ये बताते हो, कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, तुम उनके सामने गिडगिडाते रहते होंगे, तो यह सुन सुन कर उनके कान पक गए होंगे! खास तौर पर विदेशों में, लोग हर समय आय लव यू, आय लव यू कहते रहते हैं| बात बात में हनी, हनी करते चलते हैं| फिर बाद में उनको डायबिटीज़ हो जाता है! उठते बैठते, वे कहते हैं, हनी, हनी.. बस बाद में कहते हैं, ‘Can’t Stand!! (बर्दाश्त नहीं कर सकता)| प्रेम को भी बहुत ज्यादा व्यक्त नहीं करना चाहिये, थोड़ा सा ही करना चाहिये| भारत में प्रेम बिल्कुल व्यक्त नहीं करते थे| गांव में जाईये, वहां अगर मन में प्रेम है भी, तो वो हमेशा मन में ही रहता है, वहीँ मुरझा जाता है, वे उसको व्यक्त नहीं करते| और विदेश में इतना व्यक्त कर देते हैं, कि फिर वह उड़ जाता है, रहता ही नहीं है| तो प्रेम एक बीज की तरह है| जैसे मिट्टी को थोड़ा सा खोद कर, आप बीज रखते हैं| आपको उसको इतनी गहराई में नहीं रखना है, कि फिर अंकुर फूटे ही नहीं! दस फीट गहराई पर यदि कोई बीज लगा दो, तो बस वो मर ही जायेगा| हिंदुस्तान के गांवों में यही हालत है| जिंदगी भर जीते हैं, साथ साथ रहते हैं, कभी एक दूसरे से प्रेम व्यक्त नहीं करते|
पर शहरों में, विदेशों, में यह समस्या है, कि रात दिन, उठते बैठते, आय लव यू, आय लव यू फिर उस बात की गहराई नहीं रहती| फिर वो ऐसा ही होगा, जैसे सॉरी और थैंक्यू बोलते हैं| किसी ने आपको एक ग्लास पानी दिया, तो आप बोलेंगे, ‘Thank you sooooooo much’ (बहुत बहुत धन्यवाद)| एक ग्लास पानी यदि किसी ने यहाँ से उठाकर वहां आपको दे दिया, तो फिर ‘Thank you sooooooo much’ कहने का क्या अर्थ है! (हँसते हुए) अरे, कोई मरुस्थल में होता, तीन दिन से बिना पानी के तड़प रहें होते, तब कोई पानी का ग्लास आपको देता, और आप ‘Thank you sooooooo much’ कहते, तब ईमानदारी की बात होती! (हँसते हुए) अपने ही घर में आप इधर से उधर डब्बा दे रहें हैं, तो उसमें Thank you sooooooo much बोलते हैं! इसका कोई मतलब नहीं होता|
इसलिए, हमें चाहिये कि भाषा भाव की गहराई को पकड़े| पूरी तरह से तो वह पकड़ नहीं सकता, भाव की गहराई को थोड़ा भाषा में लपेट कर देना पड़ेगा| भाव को वैसे प्रकट करना बहुत मुश्किल है| तो भाषा का प्रयोग और उपयोग भी ऐसे ही करना चाहिये|
कन्नड़ में एक बहुत सुन्दर दोहा है| हमारी वाणी कैसी होनी चाहिये, जब बोलते हैं, तो जैसे मोती की माला, सफ़ेद माणिक्य की भांति चमक होनी चाहिये, और स्फटिक की तरह पारदर्शी होनी चाहिये| और बोलने से ऐसा होना चाहिए, कि शिव भी सिर हिलाकर, हाँ हाँ, सही कह रहें हैं ऐसा बोलें| शिव जी हमेशा चुप बैठे रहते हैं, तो वे भी हाँ, हाँ कहें और आपकी बात शिव को भी पसंद होनी चाहिये|
ऐसा इस दोहे में कहा गया है|

प्रश्न : गुरूजी, यदि चेतना के स्तर पर ही प्रेम स्थायी है, तो संबंधों की क्या आवश्यकता है?
श्री श्री रविशंकर : चेतना व्यक्ति से ही तो प्रकट होता है| और व्यक्तियों से संबंध तो बन ही जाता है| संबंध की आवश्यकता तुम्हें लगता है, कि नहीं है, तो आप ज़बरदस्ती संबंध नहीं बना सकते| अब जब आप पूछ रहें हैं, कि संबंध की क्या आवश्यकता है, तो इसका मतलब, आपको कहीं तो लग रहा है, कि आवश्यकता है! नहीं तो प्रश्न ही नहीं उठता| यानी, आप खुद से लड़ रहें हैं| संबंध की आवश्यकता लग रही है, लेकिन ऊपर से आपका अहंकार आ रहा है| नहीं मुझे आवश्यकता नहीं है| इसलिए मैं कहता हूँ, कि संबंध रहें, या न रहें, आपको कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिये| आप विश्राम करिये, अपने में| ठीक है न?
जब आप ध्यान में जाते हैं, अपने में जाते हैं, तब सब कुछ छोड़ कर बैठिये| और जब व्यवहार में आते हैं, तब सबसे अच्छा सम्बन्ध बनाईये| ठीक है?

प्रश्न : गुरूजी, आकर्षण से कैसे बचें, और प्रेम में कैसे रमें?
श्री श्री रविशंकर : ये बचने की बात से ही एक ब्रेक लग गया समझिए| वैसे अच्छा है, गाड़ी में ब्रेक होना चाहिये| नहीं तो आप मुसीबत में पड़ जायेंगे| (हँसते हुए)
जीवन में प्रेम है यह मान कर चलिए| प्रेम की वृद्धि करने की चेष्टा हम नहीं कर सकते| तनाव मुक्त होते ही हमारे भीतर प्रेम पूर्ण रूप से व्यक्त हो जाता है| बस तनाव से मुक्ति, और विश्राम ये दो चीज़ होनी चाहिये|

प्रश्न : गुरूजी, कभी घर की घंटी बजे, दरवाज़ा खुले और आप निकलें? मोबाइल की घंटी बजे, जब उठाएं तो आपकी आवाज़ आये? गुरूजी साधना करने वाले के लिए तो सब कुछ संभव है| तो क्या मैं इंतज़ार करूँ?
श्री श्री रविशंकर : हाँ हाँ, बिल्कुल! मैं बताऊँ एक दिन मैं यहाँ आश्रम से निकल गया था| एक जन मेरे साथ और थे, और हम ड्राईवर और गाड़ी लेकर निकल गए| और किसी को यहाँ आश्रम में पता नहीं था कि हम कहाँ गए| (हँसते हुए) हम चले गए, और दूर जाकर एक जगह एक गांव में एक मकान के सामने हमने कहा कि यहाँ गाड़ी रोक दो| और उस मकान के अंदर गए, वहां एक आदमी बैठा था| वह आदमी एक किसान था, उसके पास आधा एकड़ से भी कम ज़मीन थी, जहाँ वह टमाटर उगाता था| उसकी छोटी सी झोपड़ी थी, लेकिन घर में टीवी था| उसने टीवी में हमारा प्रोग्राम देखा था| उसे देखने के बाद उसके मन में इतनी उत्कंठा हुई, इतनी इच्छा जागी, कि “कैसे मैं गुरूजी से मिलूँ!” वह सोच रहा था, कि “मैं बंगलौर भी नहीं जा सकता, मेरे पास इतने पैसे भी नहीं हैं| किसी तरह से मुझे गुरु जी से मिलना है|” और उसी घर में जाकर हम खड़े हो गए| और एक दम उस व्यक्ति को अचम्भा हुआ! वह गिडगिडा कर रोने लगा! वह एक किसान था, सिर्फ टमाटर उगाता था, आधा एकड़ से भी कम जगह थी उसके पास| छोटा सा घर और छोटा सा परिवार था|
तो इसी तरह से हम एक बार एक स्कूल में चलें गए| और उस स्कूल में सारे टीचर और बच्चों की हमने एक-दो घंटे की क्लास ली| उन लोगों से बात करी| वे एक-दो घंटे में ही इतने प्रोत्साहित हो गए! गांव में सारे टीचर ऐसे उदास उदास बैठे थे| तो मैंने कहा कि “गांव तो हमारे देश की नींव है| गांव के ऊपर तो देश खड़ा है|” और टीचर को भी हमने प्रोत्साहन दिया| सबके चेहरे चमकने लगें|
ज्ञान की बात सुनने से, और जीवन में अमल करने से चमक अपने आप आ जाती है| तो कुछ भी, कभी भी संभव है|
एक बार हम किशोर दा के साथ असम से अरुणाचल प्रदेश जा रहे थे| रास्ते में असम का एक गांव था, वहां हमने एक घर के बाहर गाड़ी रोकने के लिए कहा| हमने कहा, कि इस घर के अंदर जाकर एक महिला को ७०० रुपये दे देना| जब रुपये दे दिए, तब उसके बाद हम भी अंदर चले गए| उस महिला के पति का कोई ऑपरेशन होना था, जिसमें उसे २१०० रुपये चाहिये थे| उसके पास केवल १४०० रुपये थे| वह वहां बैठी थी, और उसके सामने काली माँ की मूर्ती थी, और साथ में रामकृष्ण परमहंस का चित्र लगा था, और वह प्रार्थना कर रही थी, कि भगवान, अब तुम ही मुझे कुछ देना, मेरी मदद करो| तो हम गाड़ी से वहां से जा रहें थे, तो हमने उसे वो पैसा दे दिया| हम उनसे मिल कर भी आये|
मैं यह कह रहा हूँ, कि यह सारी सृष्टि एक शक्ति से बनी हुई है| वही तत्व मैं हूँ, वही आप हो| ठीक है न? इसलिए, कोई कहीं भी प्रणाम करे, तो वह एक ही जगह आता है| अब यह बात कोई २० साल पुरानी रही होगी| वह महिला हमें जानती भी नहीं थी| लेकिन उसके मन में गहरी भक्ति थी| इसलिए सच्चे दिल से जब हम पुकारते हैं, हमारा सब काम होता ही है| (लोग ताली बजाते हैं) ऐसे तो आप सब लोगों के साथ हुआ ही है, किसके साथ नहीं हुआ? कितने सारे लोगों के साथ कितने चमत्कार हुए हैं! (अधिकतर लोग हाथ उठाते हैं) अगर चमत्कार नहीं हो, तब आश्चर्य करना चाहिये! कहिये, कि क्यों नहीं हुआ चमत्कार! कुछ तुरंत होते हैं, कुछ देरी से होते हैं|

प्रश्न : (अश्राव्य)
श्री श्री रविशंकर : त्याग से बल मिलता है, त्याग के लिए आत्मबल और मनोबल चाहिये| और यही ज्ञान से मिलता है| अज्ञान में त्याग का बल नहीं होता, ज्ञान में त्याग का बल मिलता है| देखिए, जब आपने यह बात सुनी, तब सुनते ही बल मिला न? यह तुरंत होता है, फ़ौरन होता है!

प्रश्न : गुरूजी, कहते हैं, कि प्रेम गली अति-संकरी, जा में दो न समाएं हमारे गली में तो पहले से ही हमारे जीवनसाथी हैं, और अब आप भी आ गयें हैं| तो क्या गली में एक की जगह तीन चल जायेंगे?
श्री श्री रविशंकर : (हँसते हुए) आजकल की गलियां थोड़ी सी बड़ी हो गयी हैं| तो कोई बात नहीं|
दो होते ही नहीं, दो नहीं समझना चाहिये| एक ही चेतना का सारा खेल है| तुम और मैं अलग नहीं हैं|

प्रश्न : (एक बच्चे के द्वारा) गुरूजी, हमारी माँ कहती हैं, कि बड़े होकर बहुत कुछ अच्छा बनना चाहिये| उससे क्या फ़ायदा होगा?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, अच्छे से फ़ायदा ही होता है, बुरा करने से नुकसान होता है| अच्छे से कभी नुकसान होता है क्या? (उत्तर- नहीं) और फ़ायदा अभी नहीं दिखेगा, उस वक्त जो चाहिये, वही होगा| फ़ायदा तो होगा ही|

प्रश्न : गुरूजी, आपके YLTP प्रोग्राम से हमारे इलाके में बहुत परिवर्तन आया है| इस क्रांति का उद्देश्य क्या है, और एक युवाचार्य बनकर मुझे अपने कार्य में क्या उद्देश्य रखना चाहिये?
श्री श्री रविशंकर : श्रेयस और प्रयास दोनों| तुम्हारा अपना उत्थान, अपनी उन्नति, और साथ ही साथ समाज और देश की उन्नति| ये दोनों| एक के बाद एक नहीं होगा, यह युगपथ होगा, ये दोनों साथ साथ होने चाहिये| ठीक है न? तो यही YLTP का उद्देश्य है| तुम्हारा भी उत्थान, और एक से डेढ़ साल के लिए, तुम देश के लिए अपनी सुख-सुविधा त्याग करके खड़े हो जाओ, देश की भलाई करो, देखना तुम्हारा और अधिक उत्थान होने लग जाएगा| जितना हम किसी इमारत को ऊंचा करना चाहते हैं, उतना ही नीचे भी खोदना पड़ेगा| इसलिए, जितना तुम अपने आप को एक अच्छे, उन्नत पदवी पर देखना चाहते हो, उतना ही तुमको त्याग भी करना पड़ेगा, और मेहनत भी करनी पड़ेगी| खाली बैठे बैठे, आराम से बैठे-बैठे आप यह सोचो कि मैं ऊपर चढ़ जाऊँगा, ये बात नहीं बनेगी| इसके लिए थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी| मेहनत का फल ज़रूर मिलेगा|

पद्मसाधना


पद्मसाधना एक सुन्दर योग मुद्राओं की शृंखला है, जिससे आप का स्वयं प्रेम और आनंद से खिल उठेगा!!!! ~ श्री श्री रविशंकर
पद्म का अर्थ होता है कमल और साधना का अर्थ आपका प्रयास’| इसलिये इस अभ्यास को कमल के हलकेपन के जैसे बिना प्रयास के किया जाना चाहिए| साधना आसन पर बैठने के लिए एक सहज उपाय के जैसा है और कमल आपकी प्रतिभाओं को परत दर परत निखारने के जैसा| पद्मसाधना में आप योग मुद्राओं के द्वारा भीतर से खिल जायेंगे|
आध्यात्मिक पथ पर प्रगति के लिए साधक को सही दिशा की आवश्यकता होती है| योग साधक के अभ्यास को गहन करने लिए लिए एक अमूल्य शस्त्र है पद्मसाधना”|
'अगमा परंपरा में, देवी की गद्दी पाँच परतों से बनी हुई है, प्रत्येक परत हमारी साधना (योग अभ्यास) के एक पहलू का प्रतिनिधित्व करती है|
पहली परत है कछुआ, जो स्थिरता का प्रतीक हैआसन के दौरान कछुए की तरह आसन को स्थिर रखें|
दूसरी परत है सांप, जो सजगता का प्रतीक है| सजगता के बिना स्थिरता सुस्ती लाती है| इसलिए स्थिर रहें और साथ में सजग भी|
तीसरी परत है सिंह| यह कृपा का प्रतीक है जिसे दो भागों में समझा जा सकता है| पहला शाही पहलू है; सिंह जो कुछ भी करता है उसमें वह प्रतापी होता है|  दूसरा पहलू यह है कि सिंह उतना ही करता है जितना आवश्यक होवह शिकार करता है और फिर जब तक आवश्यक हो तब तक विश्राम करता है| यह कृपा की पहचान है| पद्मसाधना में  बहुत ज्यादा प्रयास नहीं करें| जितना आवश्यक हो उतना ही करें|
चौथी परत है सिद्धि या उत्तमता| अपनी मुद्राओं को सिद्ध या उत्तम करें| जैसा आप नियमित रूप से अभ्यास करते हैं तो मुद्रा में उत्तमता या सिद्धि प्राप्त होती है| जिसका तात्पर्य है शारीरिक रूप से सही मुद्रा और मानसिक रूप से शांत मन|
पांचवी परत है कमल; पूरी तरह से खिली हुई स्थिति और इस पर देवी बैठी है| दिव्यता, चेतना में निहित है, और इन पाँच पहलुओं की गद्दी पर बैठती है|
आध्यात्मिक प्रगति करने के लिए साधक पद्मसाधना के इन पांच पहलुओं का विकास और अपने अभ्यास को गहन कर सकते हैं|
पद्मसाधना योग आसन, प्राणायाम और ध्यान की एक सुंदर शृंखला है, जिससे साधक अपने अभ्यास में गहन हो सकता है| आसन मुद्राएँ शरीर और मन को केंद्रित करते हैं और प्राणायाम तंत्र को उर्जायुक्त और शांत करता है, जिससे कोई गहन ध्यान में जा सके|

प्रश्न : पद्मसाधना का अभ्यास कैसे करें?
श्री श्री रविशंकर : प्रवाह के साथ चलें| पद्मसाधना में मुद्रा दर मुद्रा एक सुंदर प्रवाह के जैसे है| इसमें  ऐसा लगता है जैसे पूरा अनुक्रम एक प्रक्रिया है; आसन, प्राणायाम, ध्यान सब एक में समाये हुए हैं| इस प्रक्रिया की प्रकृति ध्यानयुक्त होती है, इसलिए यह सबसे उत्तम होगा कि इसे सुदर्शन क्रिया करने से पूर्व किया जाये| योग आसान को धीरे धीरे करें जैसे यह भी एक ध्यान हो!
 
उज्जई श्वास लें| आप योग आसान में उज्जई श्वास का उपयोग करें| इससे आप किसी मुद्रा में अधिक समय तक बने रह सकते हैं| हर आसान मे ३-४ श्वास लेने की अनुशंसा की जाती है| उज्जई श्वास को सौम्य रखना सबसे उत्तम है, और इसके लिए अधिक प्रयास करने की आवश्कता नहीं है|
समयबध्द रहें| यह पूरी शृंखला ४० मिनिट तक चलती है|  १० मिनिट आसन,  ५ मिनिट प्राणायाम, २० मिनिट ध्यान और ५ मिनिट प्राणायाम| इस क्रम में समयबध्द रहना सबसे उत्तम है|
आसन में विश्राम करें| हर एक आसन में एक मुद्रा में ३०-४० सेकंड तक रहें| यदि आप उज्जई श्वास ले रहे हैं तो उसका अर्थ है कि ३-४ उज्जई श्वास| आप इसका प्रयोग करते हुए निर्णय ले सकते हैं कि आपको एक मुद्रा मे कितनी श्वास लेनी है, जिससे आप यह पूरी आसन की शृंखला को १० मिनिट में समाप्त कर सकें|
स्थिरं सुखं आसनं”| आसन मे सौम्य और ध्यानयुक्त होना है इसे याद रखें| योग आसन का उद्देश्य किसी भी चिंता को मुक्त करना होता है, जिससे शरीर ध्यान के लिए तैयार हो सके| महर्षि पातंजलि अपने योग सूत्र में कहते हैं "स्थिरं सुखं आसनं" स्थिरं का अर्थ है स्थिरता| सुखं का अर्थ है आनंद| महर्षि पातंजलि कहते हैं कि आसन मे स्थिर बने रहें और आसन का आनंद लेते हुए मुस्कुराते हुए योग करें|
प्राणायाम पर केंद्रित रहें|
पद्मसाधना के दौरान नाड़ी शोधन प्राणायाम करें| नाड़ी शोधन प्राणायाम नाड़ीयों का संतुलन बनाने मे सहायक है जिससे यह ध्यान में जाने और उसमे से निकलने का आसान उपाय सिद्ध होता है|
सरलता से ध्यान में जाएँ|
पद्मसाधना के दौरान हम 'सहज समाधि' ध्यान का उपयोग करते हैं| यदि आपने कोर्स नहीं किया है तो उसे संभवत: शीघ्र करें जिससे आप आसानी से ध्यान कर सकते हैं|
पद्मसाधना को एडवांस कोर्स और डी.एस.एन.(दिव्य समाज का निर्माण) कोर्स में सीखा जा सकता है|
पद्मसाधना को अपनी प्रातःकाल और सायंकाल की योग साधना का अनिवार्य हिस्सा बनायें और अपनी आंतरिक शक्ति में बढोत्तरी करें|

ध्यान करने से आप भाग्यशाली बन जाते हैं!!!


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२०१२ बैंगलुरु आश्रम, भारत
जून
हमारा देश ऋषि और कृषि की भूमि है| देव पूजा से पहले हम बीज वापना और अंकुरार्पनाकरते हैं| जीवन और पूजा अलग अलग नहीं हैं| हमारा जीवन ही पूजा है| हम जहाँ भी चलें, वह प्रदक्षिणा बन जाए| हमें जीवन के प्रति ऐसी सोच रखनी चाहिये| जीवन में सात्विकता होनी चाहिये| जब सात्विकता होती है, तो मन शक्तिशाली होगा, बुद्धि तीक्ष्ण होगी और जीवन में उत्साह होगा| इसलिए, धरती में कोई बीज बोने के लिए भी, वे बिल्कुल उपयुक्त समय का इंतज़ार करते थे| वे बहुत श्रद्धा के साथ बीज बोते थे|
और, हमारे पूर्वज भोजन करने से पहले अपने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते थे, ‘अन्नदाता सुखी भव:’| इसका मतलब, ‘मुझे भोजन प्रदान करने वाला सदैव खुश रहे’| यह हम सबको करना चाहिये| क्या आप सब यह हर दिन करेंगे?
हमें भोजन प्रदान करने वाला सबसे पहला व्यक्ति किसान है| उसके बाद व्यापारी आते हैं| तीसरी हैं घर की महिलाएं|
किसान अन्ना उगाते हैं| व्यापारी निश्चित करते हैं, कि यह अन्न हम तक उपलब्ध हो, और घर की महिलाएं, माएँ इस भोजन को पकाती हैं और हमें परोसती हैं| हम यह प्रार्थना करते हैं, कि ये तीनों खुश रहें| अगर इनमें से कोई भी दुखी है, तो हमारा जीवन भी उससे प्रभावित होगा|
किसान बढ़िया फसल उगाते हैं, लेकिन अगर व्यापारी और वितरक किसानों को उसका सही मोल नहीं देंगे, या उसके वितरण की सही तरह से व्यवस्था नहीं करेंगे, तो वे बहुत बड़ी गलती कर रहें हैं|
इसी तरह किसानों को देखना चाहिये, कि वे धरती और पानी को रसायनों से दूषित नहीं कर रहें हैं| हमें कभी भी Genetically Modified (GM) फ़सल के लिये नहीं जाना चहिये| हमें रसायन-मुक्त खेती करनी चहिये| बहुत से लोग अब Zero Budget खेती कर रहें हैं| (http://www.artofliving.org/chemical-free-farming)
किसान बीज खरीदने के लिये पैसा खर्च करते हैं, और फिर रसायन से उन्हें दूषित कर देते हैं| अगर हम ऐसा करना बंद कर दें, और इसके बजाय खेतीबाड़ी के पुराने नुस्खे अपनाएं, तो किसान खुश रहेंगे| अगर व्यापारी बिना किसी लालच के अपना व्यापार करेंगे, तो वे भी खुश रहेंगे| और अगर घर की महिलाएं, खुश रहें, और खुश रह कर हमें खाना परोसें, तो हमारा पाचन भी बढ़िया रहेगा| अगर वे आँसू बहाते हुए खाना पकायेंगी, तो हमें भी उसे पचाने के लिए आँसू बहाने पड़ेंगे| हमारे शरीर में दर्द होगा, सिर दर्द, पेट दर्द और तरह तरह की बीमारियाँ|
इसलिए, ये तीनों सुखी रहें, इसके लिए ही हम प्रार्थना करते हैं, अन्नदाता सुखीभव| हर दिन भोजन करने से पहले इसका जाप करना चाहिये|
अच्छा, अब एक बुद्धिमान व्यक्ति का क्या लक्षण होता है?
बुद्धिमान लोगों का लक्षण होता है, कि वे बुरे से बुरे व्यक्ति में भी अच्छाई ढूँढ लेते हैं| हर एक इन्सान में अच्छाई छुपी होती है| बुद्धिमान लोग तो अपराधियों में भी अच्छे गुण निकाल लेते हैं| वे उनसे कहते हैं, जो भी कुछ तुमने भूतकाल में किया, उसे भूल जाओ| अब आगे से, अपने अंदर सिर्फ अच्छाई देखो| तुम्हारे अंदर अच्छाई है|
वे उन्हें ऊपर उठाने की कोशिश करते हैं|
मूर्ख लोगों का लक्षण है, कि वे लोगों को नीचे खींचने में लगे रहते हैं| वे अच्छे लोगों में भी बुराई ढूँढने लग जाते हैं| वे हर एक किसी में बुराई ढूँढ़ते हैं|
आप किस तरह एक अच्छे और बुरे दोस्त में अंतर कर सकते हैं? एक अच्छा मित्र वह है, जिसके साथ जब आप अपनी तकलीफें बांटें, तब वे आपको ऐसा महसूस कराएँगे जैसे आपकी परेशानी बहुत छोटी है| उनसे बात करने के उपरांत अगर आप जोश और उत्साह से भर जाते हैं, तभी वे आपके सच्चे मित्र हैं| लेकिन, अगर किसी से बात करके आपको ऐसा लगता है, कि आपकी परेशानी और अधिक बढ़ गयी हैं, तब वे आपके अच्छे मित्र नहीं हैं|
हमें यह देखना चाहिये, कि क्या हम लोगों को जोश से भर देते हैं, या हम उन्हें नीचे खींचते हैं? हम यह बिना जाने करते हैं| हमें इन बातों पर गौर करना चाहिये|
मेरे पास आपके लिए एक अच्छी खबर है| असम में १००० आतंकवादियों ने आर्ट ऑफ लिविंग का कोर्स किया और आत्म-समर्पण कर दिया| वे सब यहाँ (बैंगलुरु आश्रम) आयेंगे ट्रेनिंग के लिए| गृह-मंत्रालय उन्हें यहाँ भेज रहा है|

प्रश्न : हम बुरी आदतों से कैसे बाहर आयें? ये विचार बार बार हमें आते रहते हैं|
श्री श्री रविशंकर : बुरी आदतों से बाहर आने के लिए, और अधिक प्राणायाम करिये| यह इस पर भी निर्भर करता है, कि हम कैसे लोगों के साथ समय व्यतीत करते हैं| अगर आपके पास बहुत अधिक खाली समय होता है, तब बुरी आदतें आपके मन में आती हैं| अगर आप समाज-सेवा में अपने आपको लगा लें, तो ये बुरी आदतें खुद-ब-खुद चली जायेंगी|

प्रश्न : क्या गुरु चुनने से पहले गुरु दीक्षा लेनी आवश्यक होती है?
श्री श्री रविशंकर : आपको गुरु चुनने की कोई ज़रूरत नहीं है| आप जीवन में जो भी अच्छी बातें सीखते हैं और जहाँ से भी सीखते हैं, उन सबमें गुरु तत्व मौजूद है|
आपकी माँ आपकी प्रथम गुरु है| जैसे जैसे आप बड़े होते हैं, आपको शिक्षा देने वाले गुरु मिलते हैं| इसी तरह, जीवन के हर मोड़ पर आपके जीवन में एक गुरु होते हैं| गुरु तत्व तो हमेशा आपके साथ रहता है| तो जब भी आपके मन को लगता है, कि हमें जीवन में आगे बढ़ने के लिए कोई हमारी सहायता कर रहा है, इसका मतलब कि गुरु तत्व मौजूद है|

प्रश्न : ऐसा कहा जाता है कि हमें राहु-काल के समय कोई पूजा नहीं करनी चाहिये| लेकिन फिर भी आश्रम में हमारा रविवार का सत्संग क्यों हमेशा राहु-काल में ही होता है?
श्री श्री रविशंकर : ऐसा नहीं कहा गया है, कि राहु-काल के समय हमें कोई पूजा नहीं करनी चाहिये| बल्कि, राहु-काल के समय पूजा करना तो शुभ माना जाता है| हाँ, शादियाँ और गृह-प्रवेश इस समय नहीं करना चाहिये|
केवल इतना ही कहा गया है, कि हमें कोई सांसारिक कार्य इस समय नहीं करने चाहिये; यह नहीं कि इस समय भगवान को याद नहीं कर सकते, या सत्संग नहीं कर सकते| बल्कि, राहु-काल में सत्संग करना अच्छा रहता है|
ग्रहण और राहु-काल के समय सत्संग करना अच्छा होता है| सत्संग करने के लिए तो हर समय अच्छा होता है| दूसरे लोगों की मदद करने के लिए, और भगवान को याद करने के लिए हमें किसी शुभ समय की ज़रूरत नहीं है| इसके लिए तो चौबीसों-घंटे बढ़िया होते हैं|

प्रश्न : क्या अच्छे लोगों की रक्षा करना पुलिस का काम होता है या नागरिकों का?
श्री श्री रविशंकर : यह प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है|
आपको सचमें पुलिस वालों की तारीफ़ करनी चाहिये|
जब मैं झारखण्ड में था, तो झारखण्ड के पुलिस महानिरीक्षक मुझसे मिलने आये थे| उनकी आँखों में आंसूं थे| वे बोले, गुरूजी, मैंने पिछले साल अपने २०० आदमी खो दिए हैं| जब मैं और अन्य पुलिसकर्मियों को भर्ती करता हूँ, तो मेरे अंदर उनके परिवारों का सामना करने की शक्ति करने की हिम्मत नहीं होती, क्योंकि मैं नहीं जानता कि नक्सलवादियों के कारण कल को उन्हें क्या हो जाए|
पुलिसवाले अच्छे लोग हैं| वे अपने जीवन और समय का त्याग कर रहें हैं| वे कोई त्यौहार नहीं मना सकते| उन्हें अपनी ड्यूटी करनी है; रात हो या दिन| उनकी जाति जिंदगी बहुत मुश्किलों में रहती है| वे भले ही अपनी ड्यूटी कर रहें हो, लेकिन यह एक अकृतज्ञ नौकरी है|
लोग भी, और राजनेता भी, हर एक कोई पुलिस वालों को डाँटता है| वे बीच में फँस गए हैं, लेकिन मैं आपको बताता हूँ, कि आज वे ही हैं, जो हमारे समाज के कानून और व्यवस्था की रक्षा कर रहें हैं|
हालाँकि, जब कोई आमतौर पर पुलिस वाला शब्द कहता है, उसका मतलब बुरा व्यक्ति| हमें ऐसे नहीं सोचना चाहिये| हमें उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिये, कि वे एक अकृतज्ञ नौकरी कर रहें हैं|
मैं पिछले १५ सालों से पुलिसकर्मियों की दिक्कतों के बारे में सुन रहा हूँ| उन्हें अच्छा काम भी करना है, और लोगों से गाली भी खानी है| हमें पुलिसकर्मियों को अपने से अलग नहीं समझना चाहिये| वे हममें से ही एक हैं| हालाँकि वे जीवन में इतनी मुश्किलें उठाते हैं, वे फिर भी हमारी रक्षा करने के लिए काम कर रहें हैं| हमें उसके लिए उनका कृतज्ञ होना चाहिये, और उनकी निंदा नहीं करनी चाहिये|

प्रश्न : माता के चरणों और गुरु के चरणों में कितना फ़ासला है?
श्री श्री रविशंकर : माता में थोड़ा बहुत स्वार्थ हो सकता है, लेकिन एक गुरु में वह भी नहीं होता|

प्रश्न : हमारे देश में बारह ज्योतिर्लिंग हैं| कृपया हमें उनका महत्व बताएं|
श्री श्री रविशंकर : हमारे देश को एकजुट करने के लिए ही अलग अलग जगहों पर ज्योतिर्लिंगों की स्थापना की गयी है| इस तरह लोग इन अलग अलग जगहों पर जायेंगे, और जब वे पूरे देश भर में घूमेंगे, तो वे पाएंगे, कि हमारा देश एक है|

प्रश्न : गुरूजी, आप कहते हैं, कि ध्यान करने से हमारी किस्मत चमक जाती है| ऐसा कैसे संभव है?
श्री श्री रविशंकर : ध्यान करने से आपकी तरंगें सकारात्मक हो जाती हैं| आपकी तरंगें जितनी अधिक सकारात्मक होंगी, उतना ही आपके जीवन में भाग्य अधिक होगा| यह सहज ही तो है|

प्रश्न : जीवन में बहुत द्वन्द्व है|
श्री श्री रविशंकर : उसे थोड़ा समय दें| द्वन्द्व स्वतः ही दूर हो जाएगा| जब हमारा मन द्वन्द्व में होता है, तब हमें लगेगा, कि हमारे सारे निर्णय गलत ही हैं| हमें यह ही लगेगा, कि हमें कुछ और करना चाहिये था|

प्रश्न : हम अहंकार को कैसे जीते?
श्री श्री रविशंकर : सहज रहिये| सबके साथ दोस्ती रखिये| अगर हम सहज रहते हैं, तब अहंकार स्वयं ही गायब हो जाता है| अहंकार मतलब आपने अपने और बाकी लोगों के बीच एक कृत्रिम दीवार खड़ी कर ली है| और आप यह सोचने लगते हैं, कि जो आप कह रहे हैं, केवल वही सही है| यह हमें भी नुकसान पहुंचाता है, और दूसरों को भी| अगर हम सहज रहें, और ऐसा महसूस करें कि सभी अपने हैं, और अपनी सोच में खुलापन रखें, तब हमारे मन में किसी तरह का दबाव नहीं रहेगा| मन हल्का रहेगा|
इसीलिये, हमें एक बच्चे की तरह सहज रहना चाहिये| यह कार्य-सिद्धि लाता है| हम जो भी इच्छा करते हैं, वह अपने आप पूरी हो जाती हैं|

प्रश्न : मैंने बायो-टेक्नोलॉजी में M.Tech किया है| मैं रसायन-मुक्त खेती के व्यापार में रूचि रखता हूँ| मैं रसायन-मुक्त खेती को किस तरह अपना रोज़गार बना सकता हूँ?
श्री श्री रविशंकर : आजकल इसकी बहुत मांग है| अगर रसायन-मुक्त उत्पादन का ठीक तरह से वितरण हो, तो इससे काफी मदद मिलेगी| इसीलिये, हमने ‘Sri Sri Institute of Agricultural Sciences’ खोला है| आप उनसे बात करिये| हम निश्चित ही इसके बारे में कुछ कर पाएंगे|

आयुर्वेद


आयुर्वेद प्राचीन भारतीय पद्धती की प्राकृतिक और संपूर्ण औषधि है| जब आयुर्वेद का संस्कृत से अनुवाद करें तो उसका अर्थ होता है "जीवन का विज्ञान" (संस्कृत में मूल शब्द आयुर का अर्थ होता है "दीर्घ आयु" या आयु और वेद का अर्थ होता है "विज्ञान"|
एलोपैथी औषधि (विषम चिकित्सा) रोग के प्रबंधन पर केंद्रित होती है, जबकि आयुर्वेद रोग की रोकथाम, और यदि रोग उत्पन्न हुआ तो कैसे उसके मूल कारण को निष्काषित किया जाये, उसका ज्ञान प्रदान करती है|
मूल सिद्धांत
आयुर्वद का ज्ञान भारत के ऋषि मुनियों के वंशो से मौखिक रूप से आगे बढ़ता गया जब तक उसे पांच हजार वर्ष पूर्व एकत्रित करके उसका लेखन किया गया| आयुर्वेद पर सबसे पुराने ग्रन्थ चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांग हृदय हैं| यह ग्रंथ अंतरिक्ष तंत्र में पाये जाने वाले पाँच तत्व-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश, जो हमारे व्यतिगत तंत्र पर प्रभाव डालते हैं उसके बारे में बताते हैं| यह स्वस्थ और आनंदमय जीवन के लिए इन पाँच तत्वों को संतुलित रखने के महत्व को समझते हैं|
आयुर्वेद के अनुसार हर व्यक्ति दूसरों के तुलना में कुछ तत्वों से अधिक प्रभावित होता है| यह उनकी प्रकृति या प्राकृतिक संरचना के कारण होता है| आयुर्वेद विभिन्न शारीरिक संरचनाओं को तीन विभिन्न दोषों में सुनिश्चित करता है|
. वात दोष, जिसमे वायु और आकाश तत्व प्रबल होते हैं|
. पित्त दोष, जिसमे अग्नि दोष प्रबल होता है|
. कफ दोष, जिसमे पृथ्वी और जल तत्व प्रबल होते हैं|
दोष सिर्फ किसी के शरीर के स्वरुप पर ही प्रभाव नहीं डालता परंतु वह शारीरिक प्रवृतियाँ (जैसे भोजन का चुनाव और पाचन) और किसी के मन का स्वभाव और उसकी भावनाओं पर भी प्रभाव डालता है| उदहारण के लिए जिन लोगो मे पृथ्वी तत्व और कफ दोष होने से उनका शरीर मजबूत और हट्टा कट्टा होता है| उनमे धीरे धीरे से पाचन होने की प्रवृति, गहन स्मरण शक्ति और भावनात्मक स्थिरता होती है| अधिकांश लोगों में प्रकृति दो दोषों के मिश्रण से बनी हुई होती है| उदहारण के लिए जिन लोगों में पित्त कफ दोष होता है, उनमें पित्त दोष और कफ दोष दोनों की ही प्रवृत्तियाँ होती हैं परन्तु पित्त दोष प्रबल होता है| हमारे प्राकृतिक संरचना के गुण की समझ होने से हम वो सब अच्छे से कर सकते हैं जिससे हम अपने आप को संतुलित रख सकें|
आयुर्वेदिक जीवन शैली
आयुर्वेद किसी के पथ्य या जीवन शैली (भोजन की आदतें और दैनिक जीवनचर्या) पर विशेष महत्त्व देता है| मौसम में बदलाव के आधार पर जीवनशैली को कैसे अनुकूल बनाया जाये इस पर भी आयुर्वेद मार्गदर्शन देता है|

जहाँ कहीं भी श्रद्धा होती है, वहाँ चमत्कार होते हैं!!!


०३
२०१२ कीव, युक्रेन
मई

हमें ख़ुशी फैलानी है, जो परमानन्द हमें मिला है| ज्यादा से ज्यादा लोगों को यह जानना होगा कि जीवन में कितना कुछ है| हमें जीवन के बारे में थोड़ा सा ही पता है| जो हमें पता करना है वह बहुत है| यह ज्ञान कितना कीमती है, नहीं? तो हम सोचते हैं कि शरीर के भीतर मन हैं| नहीं, मन के भीतर शरीर है| यह शरीर मोमबत्ती की बाती की तरह है| मन चारों ओर चमक की तरह है| जितना ज्यादा आप विश्राम करते हैं, उतना ही ज्यादा आपका मन फैलता है और विस्तृत होता है| जितना ज्यादा मन भरा हुआ और संतुष्ट होता है, उतना ही ज्यादा आप बड़े और उज्जवलित होते हैं|

प्रश्न : गुरूजी, कीव में, सौ से भी ज्यादा पुण्यशाली पुरुषों के शरीर हैं| क्या इनके बारे में आप कुछ कहना चाहेगे?
श्री श्री रविशंकर : संत शरीर नहीं होता| संत एक आत्मा है| शरीर सब्जियों से, धान्य से और खाने से बनता है| यह कई युगों से हैं| शरीर का एक एक कण पृथ्वी से सम्बंधित होता है| यह इससे आया है और उसमें ही विलीन हो जाता है| लेकिन आत्मा बहुत महत्वपूर्ण है| यह सर्वव्यापी है|

प्रश्न : इन शरीरों का नाश नहीं होता| यह जैसे थे वैसे ही रहतें हैं|
श्री श्री रविशंकर : हाँ, यह भक्ति की वजह से है| जितनी ज्यादा भक्ति और प्रेम होता है, हमारे शरीर के हर एक कण को बदल देता है और कितना तेज उत्पन्न करता है| जहां कहीं भी श्रद्धा होती है, वहाँ चमत्कार होते हैं| यह न सोचें कि आत्मा केवल शरीर से ही जुड़ी है| आत्मा सर्वव्यापी है| तो आप जहां पर भी है, जब भी आप सोचते हैं, आप आत्मा से पहले से ही जुड़े हुए होते हो| हमारा शरीर एक टीवी की तरह है| जो असली उर्जा है वह चैनल की आवृत्ति है| तो जब भी आप टीवी चालू करते हो, आप चैनल देखते हैं परन्तु चैनल सिर्फ टीवी में ही नहीं हैं, वह पूरे कमरे में होता है|

प्रश्न : मन की नकारात्मक आदतों से कैसे छुटकारा पाया जाएँ?
श्री श्री रविशंकर : अच्छी संगत|
सच्चा मित्र वह होता है, जिसके साथ आप कुछ समय बैठते हो, आप नकारात्मक बातें करते हो और फिर आप सकारात्मक हो जाते हो| एक बुरा मित्र वही होता है जिससे आप थोड़ा सा नकारात्मक बोलते हो और आपकी नकारात्मकता बहुत बड़ी हो जाती है| तो पहला है अच्छी संगत, दूसरा है प्राणायाम, सुदर्शन क्रिया और ध्यान और तीसरा है शरीर की शुद्धि|
कभी कभी यदि आपकी शौच क्रिया अच्छी नहीं होती है, यदि आपकी अंतड़ी सख्त होती है, वह आपके माथे/सिर को भी असर करती है| कभी कभी आपको शरीर की शुद्धि भी करनी पड़ती है| जीव विष की शुद्धि करें या अल्प आहार करें| आयुर्वेद और पंचकर्म, यह सब आपकी मदद करेगा|

प्रश्न : जीवन में रोग क्यों आते हैं? उनका उद्देश्य क्या है?
श्री श्री रविशंकर : इसका कारण यह है कि हम कुदरत के नियमों का उल्लंघन करते हैं| हम वह खाते हैं जो हमे नहीं खाना चाहिये या बहुत खाते हैं| हम पर्यावरण की भी अच्छी देखभाल नहीं करते हैं| सभी जगहों पर कितने सारे (दूरसंचार) टावर्स हैं| कितना विकिरण है| यह सब हमको असर करता है| और, यदि मन तनावपूर्ण है तो वह रोग प्रतिकारक शक्ति को भी असर करता है|

प्रश्न : हम किसके लिये जियें?
श्री श्री रविशंकर : पहले, उन चीज़ों की प्रति बनाएं जिनके लिये आप नहीं जीते हो| जीवन का उद्देश्य दुखी होना और दुसरो के जीवन को दुखी करना नहीं है| क्या यह नहीं है? तो फिर क्या उद्देश्य है हम हमारे भीतरी जीव, भीतरी स्वः से कैसे जुड़ सकते हैं? पता करें हम कौन हैं? यह अध्यात्मिकता है और आप सही जगह पर हो|

प्रश्न : दिव्य बच्चे के लिये मन और ह्रदय को कैसे तैयार करें?
श्री श्री रविशंकर : बच्चे की तरह रहें| एक बेबी की तरह रहें| कोई निषेध, पूर्वाग्रह नहीं| बस सरल, सहज रहें|

प्रश्न : मैं सोच रहा था कि मेरी किस्मत लोगों को संगीत और गान से ख़ुशी देना है ताकि वे ऊपर उठें|
श्री श्री रविशंकर : जीवन संगीत के बिना अधूरा है लेकिन संगीत ही जीवन में सबकुछ नहीं है| तो संगीत एक चीज़ है| आपके पास दूसरी भी चीजें हैं जीवन में करने के लिये| वह करें| लेकिन, इन सभी चीज़ों में से, पहला है ज्ञान| ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण है| आध्यात्मिक ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण है|

प्रश्न : मैं मेरे बेटे के जुए की लत से बहुत पीड़ित हूँ|
श्री श्री रविशंकर : आपका एक बेटा है, मेरे पास लाखों बेटे हैं, जो सभी गलत चीज़ों से आसक्त है| ज़रा जागिये और देखिये आप कैसे दुसरे लोगों की मदद कर सकते हैं जो आपके बेटे जैसे हैं| यह पीड़ा आपके भीतर इसीलिये है कि आप इसके बारे में कुछ कर सकें, कुछ समाज के लिये, दुसरे बच्चों के लिये|

कर्म की गति अद्भुत होती है!!!


२०१२ बैंगलुरु आश्रम
जून

आप में से कितनों ने ऐसा महसूस किया है कि बिना किसी को नुकसान पहुंचाए, बिना कुछ गलत किये हुए भी लोग आपके दुश्मन बन जाते हैं| (बहुत से लोगों ने अपना हाथ उठाया) बहुत से! अब मुझे बताइए कि आपने कुछ लोगों से साथ कुछ भी अच्छा नहीं किया होता, उनका कुछ काम नहीं किया होता तब भी वो आपके दोस्त बन जाते हैं| आपमें से कितनों ने ऐसा भी अनुभव किया है? (बहुत से लोगों ने हाथ उठाया) ये देखिये!
आपने किसी के साथ कुछ गलत नहीं किया तब भी वो आपके दोस्त बन गए और कुछ भला नहीं किया तब भी वो आपके बहुत अच्छे दोस्त बन गए| कर्म कि गति बहुत अद्भुत होती है| इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि कर्म कि गति अगाध है, अज्ञेय है| "होने वाले कर्म और करने वाले कर्म में बहुत फर्क है|"
आपके कार्यों के अलावा जिन घटनाओं ने होना है वो होती ही रहती हैं| इसलिए कहा जाता है कि  कर्म की गति बहुत अद्भुत है| इसलिए ही मैं आपसे कहता हूँ कि  दोस्तों और दुश्मनों को एक तरफ रखो और आराम से बैठो, विश्राम करो और अपना ध्यान ईश्वर पर रखो|
इसलिए ही भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, "समः शत्रु मित्रे तथा मनापमानायोह्सितोश्ना - सुखः दुखेशु - समः - विवेर्जितः|"
अपने मन के साम्य को मत खो, आपको नहीं पता कि कब, कहाँ, क्या होगा| कब एक दोस्त एक दुश्मन बन जाये, और कब एक दुश्मन दोस्त बन जाये| कोई इस संसार के बारे में नहीं जानता, इसलिए अपना ध्यान सत्य पर रखो और अपने कर्तव्य पूरी ईमानदारी से करो और पूरी निष्ठा से ध्यान करो|

प्रश्न : गुरुजी ऐसा कहा जाता है कि गुरु से पूर्णिमा के दिन मिलना बहुत शुभ होता है|
श्री श्री रविशंकर : हाँ, क्या आप जानते हो की चंद्रमा समुद्र पर प्रभाव डालता है? पूर्णिमा के दिन समुद्र की लहरें बहुत ऊंची होती हैं| चाँद जल पर प्रभाव डालता है,ये हम सब जानते हैं| हमारा शरीर जल से बना है, हमारा शरीर लगभग ६० % जल से बना हुआ है| और इसमें नमक मिला हुआ होता है, समुद्र के जैसे| इस तरह आपका शरीर समुद्री जल का एक छोटा सा प्रतिरूप है, इसलिए चंद्रमा का शरीर पर प्रभाव पड़ता है और जो कुछ भी शरीर पर प्रभाव डालता है, वो मन पर भी प्रभाव डालता है| इसिलए जो लोग उन्मादित हो जाते हैं उन्हें मूर्ख कहा जाता है, ये शब्द स्वयं ही कहता है मूर्खता पूर्ण| और इसलिए ही हमारे पूर्वज एकादशी (ग्यारहवे चाँद के दिन ) को उपवास रखने को कहते थे, ऐसा इसलिए कहते थे क्योंकि जब पेट खाली होता है तब शरीर का विष साफ़ हो जाता है| उपवास का शरीर पर एक साफ़ कर देने वाला प्रभाव पड़ता है, और ये सब बिना हज़म हुए भोजन, विष आदि को साफ़ कर देता है| इसलिए अगर आप पूर्णिमा से दिन पहले उपवास रखते हो तो आपको पूर्णिमा के दिन कोई बीमारी नहीं होगी, ऐसा माना जाता है| ऐसा ज़रूरी नहीं कि आप को एकादशी के दिन उपवास करना ही है, लेकिन अगर साल में २-३  दिन उपवास करें तो अच्छा है|

प्रश्न : मैं आपके जैसा शक्तिशाली कैसे बन सकता हूँ? इस संसार में ताक़त सभी को प्रिय है|
श्री श्री रविशंकर : सबसे बड़ी ताक़त है विश्राम, गहरा विश्राम, और प्यार| अगर जीवन में ये चीज़ें हैं तो बाक़ी सब जाता है, ये अपने आप होगा| देखो अभी मैं आपका हूँ और आप मेरे हो तो आपको प्रचुरता महसूस करनी चाहिए| मान लो कि आपके पास सब कुछ है और किसी चीज़ की कमी नहीं है| अगर आपको खुद में कोई कमी या दोष नज़र आये तो ध्यान करो, साधना करो| आपके अभ्यास से वो सब दूर हो जायेगा|

प्रश्न : गुरुजी, ऐसा कहा जाता है कि पथ पर रहते हुए सब कुछ समर्पण कर दो, और सभी प्रकार के लक्ष्य और उद्देश्यों से मुक्त हो जाओ| मैं एक व्यस्त प्रबंधक हूँ, बिना किसी उद्देश्य या लक्ष्य के मैं ज़िम्मेदारी कैसे उठा सकता हूँ?
श्री श्री रविशंकर : देखिये दो बातें हैं, प्रवृत्ति और निवृत्ति, इन दो को मिलाइए नहीं| ये दो तरह के भाव हैं, जिन पर हमें ध्यान देना है| एक है, जब आप अन्दर की और जाते हो (निवृत्ति) और आपको लगता है कि सब ठीक है, मुझे कुछ नहीं चाहिए, इसे ध्यान कहते हैं| जब आप उस से बाहर आते हो और काम करते हो (प्रवृत्ति), तब हर छोटी छोटी बात में कौशल को देखो, अपना पूरा ध्यान वहां लगाओ और ज़िम्मेदारी उठाओ, भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण के जीवन का यही संदेश है| जब आप बाहर आते हो और कार्य करते हो (प्रवृत्ति), तब हर छोटी बात में निपुणता को देखो, जब भी आपको कुछ कमी दिखती है, उस पर पूरा ध्यान दो और उसको ठीक करो| और जब आपको बाहर आना हो तब कहो कि सब ठीक है, यह भाव आपको ध्यान में जाने में मदद करेगा| ये निवृत्ति का पथ है| इसलिए जिसे प्रवृत्ति और निवृत्ति के भेद का ज्ञान है, कहते हैं कि उसके पास सात्विक ज्ञान है, वो समझदार है|
ज्ञानी का दूसरा लक्षण क्या है? वो जो बुरे व्यक्ति में भी कुछ अच्छाई देख सकता है और जो सब में अच्छाई देखता है| आप जेल में जाओ, वहां आप सबसे बड़े अपराधी में भी कुछ अच्छाई ढूँढ सकते हैं| दोषी में अच्छाई को ढूँढना, ये समझदारी है| इसलिए एक समझदार व्यक्ति सबसे बुरे व्यक्ति में भी अच्छाई ढूँढता है और एक मूर्ख व्यक्ति सबसे अच्छे इंसान में भी कुछ बुरे ढूँढ लेता है, और ऐसे लोग हैं जो ऐसा करते हैं|
किसी ने अमेरिका में किसी पुस्तक में लिखा है कि रामकृष्ण परमहंस पागल थे , उसने ये साबित भी किया है कि उनमें कितनी सारी खराब बातें थी,और विवेकानंद में भी बहुत सारी बुराइयां थी, और सभी हिंदू संतो में कुछ कुछ बुरी आदतें थी, और उसने इससे एक पुस्तक भी बनायीं है| ये मूर्खता की निशानी है, और ज्ञानी की निशानी ये है कि वो एक बुरे व्यक्ति को भी उठा देता है|

प्रश्न : भगवान  श्रीकृष्ण के बहुत से रूप हैं, सौम्य, सुन्दर, असीमित, करुणामय लेकिन हम हमेशा उन्हें मन-मोहन ( सबसे मनमोहक) के रूप में ही क्यों पूजते हैं?
श्री श्री रविशंकर : नहीं, अगर आप गुजरात में जाओगे तो उन्हें रणछोड़ राय के रूप में पूजते हैं,कुछ उन्हें बाल-कृष्ण के रूप में पूजते हैं, तो जिस रूपमें वो आपको अच्छे लगते हैं उस रूपमें आप उन्हें पूज सकते हैं| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस रूपमें कोई मुझे पूजता है उस ही रूप में मैं उस के पास जाता हूँ| अब हम उन्हें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं लेकिन भगवान श्रीकृष्ण के समय में ऐसे लोग भी थे जो उन्हें भला बुरा कहते थे, उस वक़्त बहुत कम लोग थे जिन्होंने उन्हें समझा|
भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है "अवजानन्ति मम मुधा मनुसिम तनुम असृतम; परम भवम अज्नान्तो मम भूत महेस्वरम|"
"ये मूर्ख लोग मुझे नहीं समझते और मुझे इस शरीर के रूप में देखते हैं, वो मेरी अति-इन्द्रिय, गूढ़ स्वभाव को नहीं जानते; लोग सोचते हैं मैं सिर्फ एक साधारण मानव हूँ|" ऐसा वो कहा करते थे|
इसीलिए कहा जाता है कि ईश्वर सर्व व्यापी है| इस ब्रह्माण्ड के हर कण में, आप में, मुझ में, और सब में; क्योंकि वो सब में हैं इसलिए उन्हें परमात्मा (भगवान्) कहते हैं|