"क्रोध को औजार की तरह प्रयोग करो, तुम क्रोध के औजार मत बनो"

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प्रश्न : मैंने अभी अभी इस पथ पर शुरुवात की है। आत्मा क्या है मैं कैसे समझूं?

श्री श्री रवि शंकर :
दुनिया में सब कुछ बदल रहा है। हमारा अनुभव बदलता है, हमारी बुद्धि बदलती है। हम अलग अलग समय अलग तरह से सोचते हैं। हमारे विचार बदल रहे हैं, और हमारी भावनायें भी बदल रहीं हैं। ये कैसे जानते हो कि सब कुछ बदल रहा है? क्योंकि ऐसा कुछ है जो नहीं बदलता। वो जो नहीं बदल रहा है उसके अस्तित्व के बिना तुम ये जान भी नहीं सकते हो कि सब बदल रहा है।

तो तुम अनुमान लगाते हो। अगर धुंआ देखा तो तुम कहोगे कि, ‘कहीं आग होगी।’ तुम केवल धुंये को देख कर ये अनुमान लगा लेते हो कि कहीं आग होगी। उसी तरह जो बदल नहीं रहा है तुम उसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर सकते, फिर कैसे जान लेते हो? अनुमान से।

प्राचीन समय के लोग कहते थे कि कुछ जानने के तीन उपाय हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। एक है प्रत्यक्ष – तुम सीधे उसे देख रहे हो। दूसरा है अनुमान – तुम अंदाज़ा लगाते हो। जैसे कि, तुमने धुंआ देखा तो ये जान लिया कि कहीं आग है। है ना? तो जब तुम देखते हो कि सब कुछ बदल रहा है, तो तुम ये अनुमान लगाते हो कि, ‘हमारे भीतर ऐसा कुछ है जो नहीं बदल रहा है, और वो आत्मा है। तुम उसे जो भी नाम दो!’

तो, हम शरीर से सूक्ष्मतर में गये – शरीर, सांस, मन, बुद्धि, स्मृति और अहंकार। इन सब से सूक्ष्म है आत्मा। ये आत्मा क्या है, ये जानना ही आध्यात्म है, ध्यान है! और ये आत्मा किस चीज़ से बनी है? ये है!

प्रश्न : कुछ विचारधाराओं में आत्मा के अस्तित्व को, या विश्व की चेतना शक्ति के अस्तित्व को नकारा गया है। आप इस बारे में क्या कहेंगे?

श्री श्री रवि शंकर :
ऐसा नहीं कहा जा सकता कि आत्मा नहीं है। जो भी ये घोषणा करता है कि आत्मा नहीं है, वो ये कैसे जानता है? कौन जानता है? कौन कह रहा है? हां?

अगर मैं कहूं कि मैं किसी चीज़ में विश्वास नहीं करता तो कम से कम मैं अपने इन शब्दों पर तो विश्वास करता हूं! मैं ये तो नहीं कह सकता कि, ‘मैं किसी चीज़ में विश्वास नहीं करता, अलावा अपने इन शब्दों के जिन्हें मैं अभी कह रहा हूं।’

तुम्हें पता है ये इस पूरे विश्व में सबसे बेवकूफ़ी भरी बात होगी, अगर कोई कहे कि, ‘मैं किसी चीज़ में विश्वास नहीं करता हूं।’ जो व्यक्ति ऐसा कह रहा है कम से कम अपने आप में तो विश्वास करता होगा! क्या तुम समझ रहे हो कि मैं क्या कह रहा हूं? समझे?

अगर मैं कहूं कि मुझे किसी चीज़ में विश्वास नहीं है, तो मुझे ये भी कहना होगा कि, ‘ये शब्द जो मैं तुम्हें अभी कह रहा हूं, मुझे उन में भी विश्वास नहीं है।’ ये वाक्य कि, ‘मुझे किसी चीज़ में विश्वास नहीं है।’ झूठ है, क्योंकि तुम कम से कम इस वाक्य पर तो विश्वास करते हो, वर्ना तुम ये वाक्य क्यों कहते?

तो कोई भी व्यक्ति ये पूर्ण रूप से नहीं कह सकता है कि वो किसी भी चीज़ में विश्वास नहीं करता है।

अगर वो ऐसा कहता है तो या तो वो मानसिक रूप से असंतुलित है या आत्मज्ञानी है (हंसी)। ये शब्द जो हम कहते हैं कि, ‘सब कुछ बदल रहा है’ किसी संदर्भ में लिये जाते हैं। तुम जो भी देखते हो, छूते हो, महसूस करते हो, ऐसा पंचेन्द्रियों के ज़रिये करते हो। इसीलिये हम कहते हैं कि सब कुछ बदल रहा है, पर ऐसा कुछ है जो नहीं बदलता है। अगर एक बार हम उसे जान लेते हैं जो नहीं बदलता, तो फिर हमें कुछ भी हिला नहीं सकता है! ये आत्मज्ञान है! आत्मज्ञान क्या है? मुझमें ऐसा कुछ है जो नहीं बदलता है, मैं नहीं बदलता हूं।
अपनी आत्मा की एक झलक भर मिल जाने से जीवन में कोई भय नहीं रहता।

जब तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास सब कुछ है, मन शांत हो जाता है, स्थित, सृजनात्मक, बुद्धि और अंतरज्ञान से पूर्ण और तुम्हारे भीतर से प्रतिभा खिल उठती है – और जब तुम ध्यान में बैठते हो तब ऐसा होता है, तुम सब कुछ छोड़ देते हो और बस बैठ कर ध्यान करते हो। सब कुछ छोड़ दो। और यदि कुछ क्षणों के लिये भी मन स्थिर हो जाता है और आपके उस ना बदलने वाले अस्तित्व से मिल जाता है, तो काम हो गया! जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया!
हर मानव मन-शरीर, सागर की एक लहर की तरह है। तब तुम ये जान जाते हो कि इस पूरे विश्व के कण कण में जीवन व्याप्त है। हमारा शरीर इस सागर में तैरते ख़ाली सीपियों की तरह हैं। जीवन सागर में कई शरीर हैं। तो, केवल शरीर में जीवन हो, ऐसा नहीं है। जीवन में शरीर है।

अगर ये बहुत ज़्यादा हो गया और तुम्हें अभी समझ नहीं आया, तो इसे अपने मन के किसी पिछले हिस्से में सहेज लो, किसी दिन तुम ये बात समझ जाओगे। ठीक है? ये केवल एक सिद्धांत हो सकता है, और तभी तो हम सिद्धांतों के साथ क्या करते हैं? उन्हें मन में किसी पिछले भाग में सहेज लेते हैं। हम केवल अपने अनुभव के अनुसार चलते हैं। देखो, हम अपने अनुभव के साथ और अधिक परिपक्व होते जाते हैं...हां। अच्छा है!

प्रश्न : आपने हमें आत्मा का अनुभव करने के लिये कहा। आपने अपनी आत्मा को कब सब से पहले अनुभव किया? हमें जानकर बहुत खुशी होगी।
श्री श्री रवि शंकर :
मेरा पहला अनुभव कब हुआ था? मुझे नहीं पता! वो बचपन में था, फिर मैं बड़ा हुआ और ये अनुभव और भी स्पष्ट हो गया। शायद १७-१८ साल की उम्र में।

प्रश्न : हम ये कैसे जाने कि हम अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा कर रहे हैं या किसी और का काम कर रहे हैं?
श्री श्री रवि शंकर :
ठीक है! हम ये कैसे जाने कि हम जीवन में जिस काम को करने आये हैं वो कर रहे हैं कि नहीं? हम यहां क्या करने आये हैं? देखो क्या तुम खुश हो और तुम्हारे आस पास लोग खुश है। क्या तुम अपने आस पास के लोगों के लिये जो भी कर सकते हो, कर रहे हो? क्या तुम प्रेम बांट रहे हो और ज्ञान प्राप्त कर रहे हो? जो भी ज्ञान तुम्हारे पास है क्या तुम उसे लोगों के साथ बांट सकते हो? तुम्हें अपने आप से बार बार ये प्रश्न पूछने चाहिये, और तुम्हें पता है, कभी कभी हमें खुद पर बहुत शक नहीं करना चाहिये – कभी कभी खुद पर शक होता है, ‘क्या मैं ये ठीक कर रहा हूं?’

बस स्वाभाविक रहो। हर काम में कुछ अच्छाई और कुछ बुराई होती है। कोई भी कर्म निर्दोष नहीं है। कर्म के क्षेत्र में कुछ ना कुछ कमी रहती ही है चाहे वो १ या २ प्रतिशत ही क्यों ना हो। तो, हर काम में कुछ ना कुछ कमी हो सकती है।

उसी तरह, बोला गया कोई भी शब्द अपूर्ण हो सकता है। निर्दोष क्या हो सकता है – हमारा उद्देश्य, हमारा भाव। क्या तुम समझ रहे हो कि मैं क्या कह रहा हूं? तुम किसी के प्रति दुर्भाव ना रखो, ऐसा संभव है।

तुम्हें पता है, मैंने इतने सालों में कभी किसी से बेइज़्ज़ती के शब्द नहीं कहे। ज़्यादा से ज़्यादा जो शब्द मेरे मुंह में आता है, वो है, ‘बेवकूफ़’। जब मुझे बहुत गुस्सा आता है, तो मैं आवाज़ ऊंचीं कर के कहता हूं, ‘अरे, बेवकूफ़!’ पर मैंने कभी किसी को श्राप नहीं दिया, मैं ऐसा ही बना हूं। मैं इसके लिये कोई श्रेय नहीं ले सकता हूं, क्योंकि इसमें मेरा कोई प्रयत्न नहीं है। ये सीखने के लिये मैं किसी कोर्स या स्कूल में नहीं गया – कि कैसे मैं किसी को बुरा-भला ना कहूं, इल्ज़ाम ना दूं। चीखना, चिल्लाना, या परेशान होना मेरे स्वभाव में नहीं है। बुरे शब्द मेरे मुंह में आते ही नहीं हैं।

प्रश्न : क्या कभी क्रोध नहीं करना चाहिये?

श्री श्री रवि शंकर :
ऐसा मत सोचो कि तुम सब को हर समय क्रोध से मुक्त होना चाहिये। ज़रूरत पड़ने पर क्रोध को एक औज़ार की तरह प्रयोग करो। मैं ऐसा करने का प्रयत्न करता था, पर बहुत सफल नहीं रहा। कभी कभी मैं अपना क्रोध दिखाने का प्रयत्न करता हूं, पर इससे कोई फ़ायदा नहीं होता क्योंकि मुझे जल्दी ही हंसी आ जाती है और बाकी सब लोग भी साथ में हंसने लगते हैं। लोग विश्वास ही नहीं करते कि मैं गुस्सा हूं।

पर, कभी कभी क्रोध अच्छा होता है। ख़ासतौर पर जब दुनिया में भ्रष्टाचार है, अन्याय है, और हर तरह के लोग हैं जो हर तरह के ग़लत काम करते हैं और तुम्हारा फ़ायदा उठाते हैं। ऐसी स्थिति में ये आवश्यक है कि तुम थोड़ा भंवों को चढ़ाओ, गुस्सा दिखाओ, ये अच्छा रहेगा।

पर ये ख़्याल रखना कि तुम गुस्सा दिखाओ पर उसे अपने हृदय में मत उतारो, परेशान मत हो।

देखो, ऐसा एक ही दिन में नहीं हो जाता है, और यहीं पर साधना से मदद मिलती है। हां, मैं ये नहीं कह रहा हूं कि सब्जी की तरह बन जाओ, या मानसिक रूप से अविक्सित व्यक्ति बन जाओ, हमेशा मुस्कुराओ और कभी परेशान ही मत हो – जब स्थिति की मांग हो, तो गुस्सा दिखाओ। पर कभी भी उस क्रोध को अपने मन में नफ़रत की सड़ान्ध मत बनने दो। क्रोध को क्षणिक ही रखो।

तुम्हें पता है स्वस्थ क्रोध क्या है? पानी की सतह पर लकीर खींचो तो वो कितनी देर टिकती है? बस उतनी ही देर क्रोध टिके तो वो स्वस्थ क्रोध है। अगर क्रोध क्षणिक है और उस पर तुम्हारा नियंत्रण है तो वो स्वस्थ क्रोध है, और तुम ठीक हो। तुम गुस्सा हो सकते हो, पर गुस्सा तुम पर हावी ना हो जाये। अक्सर क्या होता है कि क्रोध तुम पर हावी हो जाता है और तुम मुश्किल में पड़ जाते हो। ज्ञान इसका विरोधात्मक है। समझे? तुम छुरी का प्रयोग करो पर छुरी तुम्हारा प्रयोग ना करे!


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विज्ञान से तुम ये जान पाते हो कि, ‘ये क्या है।’ आध्यात्म से तुम ये जान पाते हो कि, ‘मैं क्या हूं।’

आज श्री श्री ने क्या कहा..

जर्मन आश्रम

२६ अगस्त २०१०

प्रश्न : एक प्रश्न मैं अपने आप से बहुत समय से करता आया हूं, पर समझ नहीं पा रहा हूं कि उसे किन शब्दों में कहूं। ये अजीब लग सकता है, पर जब मैं पूरे ब्रह्माण्ड को आपस में जुड़ा हुआ पाता हूं, तो सोचता हूं कि इस में मनुष्य का क्या कोई उपयोगी महत्व है, और हम जब तक यहां हैं, क्या हमारे अस्तित्व से दूसरों को कोई लाभ है भी?

श्री श्री रवि शंकर : बहुत अच्छा प्रश्न है! जीवन का क्या महत्व है और हम यहां किसलिये हैं? तुम्हें खुद को शाबासी देनी चाहिये अगर ये प्रश्न तुम्हारे जीवन में आया है, इसका अर्थ है कि तुम्हारी बुद्धि प्रौढ़ है। यहां लाखों लोग बिना ये प्रश्न पूछे कि, ‘जीवन का ध्येय क्या है? मैं यहां क्यों आया हूं?’ अपना पूरा जीवन बिता देते हैं। वे बस भोजन करते हैं, पीते हैं, टेलिविज़न देखते हैं, प्रेम या लड़ाई करते है और मर जाते हैं। उन्हें इस बारे में ज़रा भी ख़्याल नहीं आता। वे एक मिनट भी रुक कर ये नहीं सोचते कि, ‘जीवन क्या है? मैं कौन हूं? मुझे क्या चाहिये? मैं क्या कर सकता हूं? मैं कैसे उपयोगी हो सकता हूं?’ इन में से कोई भी प्रश्न उनके मन में नहीं आते। अगर ये प्रश्न तुम्हारे भीतर आया है तो इसका अर्थ है कि तुमने जीवन जीना शुरु कर दिया है।

तुम्हारी जीवन यात्रा सही रास्ते पर जा रही है। इस यात्रा को आध्यात्म कहते हैं – ये जानना कि, ‘इस जीवन का ध्येय क्या है। मुझे क्या चाहिये? जीवन क्या है? मैं कौन हूं?’ इससे पहले कि तुम अपने आप से ये प्रश्न करो कि, ‘मुझे क्या चाहिये?’ तुम्हें ये जानना चाहिये कि तुम कौन हो। जीवन क्या है? इस प्रश्न के दो महत्वपूर्ण भाग हैं – एक विज्ञान है और एक आध्यात्म है। विज्ञान से तुम ये जान पाते हो कि, ‘ये क्या है।’ आध्यात्म से तुम ये जान पाते हो कि, ‘मैं क्या हूं।’

‘मैं’ और ‘ये’। ‘ये’ की समझ तुम्हें विज्ञान से आती है। ‘मैं’ की समझ तुम्हें आध्यात्म से आती है। ये ‘मैं’ क्या है? ‘मैं’ को जानने के लिये पहले ‘ये’ को जानो। ‘ये क्या है?’ ‘ओह! ये संसार है।’ ‘ये शरीर है।’ और, ‘ये शरीर कैसे आया?’ ‘ये शरीर एक ४-५ किलो के बच्चे के रूप में आया। फिर उस बच्चे ने इस धरती से ही सब सामग्री ली और अब ५० किलो का हो गया है।

तो, इस शरीर में क्या है? ये शरीर कैसे बना है? यह ध्यान देने योग्य है।

प्रश्न : आपने शरीर के बारे में बताया है। मैं शरीर और पंचतत्वों के संबंध को जानना चाहता हूं।

श्री श्री रवि शंकर : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और अंतरिक्ष – ये पंचतत्व हैं। अगर इन में से एक भी तत्व ना हो तो ये शरीर टिक नहीं पायेगा। है ना? पृथ्वी तत्व से भोजन मिलता है। जल तत्व तो आप जानते ही हैं। फिर, अग्नि तत्व की, गर्मी की आवश्यकता होती है। गर्मी के बिना ये शरीर जी नहीं सकता। फिर वायु तत्व आया। शरीर के लिये वायु और अंतरिक्ष तत्व के बिना रहना भी संभव नहीं है।

इस शरीर का अस्तित्व पंचतत्वों से है। और फिर इस शरीर का क्या होता है? ये शरीर पंचतत्व से आया है और उन्हीं में वापिस चला जायेगा। ये विज्ञान है। एक मृत शरीर में भी पंचतत्व विद्यमान होते हैं। तो फिर, एक मृत और जीवित शरीर में क्या अंतर है? जीवित शरीर में जीवन होता है। और, जीवन क्या है?

जब ये प्रश्न आया, तब तुम देखते हो, ‘ओह! प्राण – जीवन शक्ति!’ और फिर तुम प्राण के गहन अध्धयन में जाते हो, और प्राण के बारे में समझते हो। ‘ये क्या है? ये मन है। ओह! तो ये मन क्या है? मन कितने प्रकार का होता है? मन क्या क्या करता है?’ इस जिज्ञासा से तुम आर्ट आफ़ लिविंग में आ जाते हो।

प्रश्न : अस्तित्व के इतने स्तरों के बारे में आपने बताया है, कृपया इन पर कुछ और विस्तार कीजिये।

श्री श्री रवि शंकर : मन, बुद्धि, स्मृति और अहंकार मन के ये चार पहलू हैं।
तो, मन क्या है? क्या तुम सुन रहे हो? अगर तुम्हारी आंखें खुली हैं, और कान में तो आवाज़ जाती ही है पर यदि तुम्हारा मन कहीं और है, तो क्या तुम मेरी बात सुन सकोगे? नहीं। है कि नहीं? तो, इस मन से ही तुम महसूस करते हो। ठीक है ना? जो पांचों इन्द्रियों के ज़रिये बाहर जाता है और अनुभव करता है, वो मन है।

अच्छा, अगर तुम मन से अनुभव कर रहे हो तो बुद्धि क्या है? जब तुम अनुभव करते हो, तो कहते हो, ‘ओह! ये अच्छा है। ये अच्छा नहीं है। मुझे ये चाहिये। मुझे वो नहीं चाहिये।’ तुम्हारी बुद्धि तय करती है। ये विवेक शक्ति है। मैं बोल रहा हूं और तुम्हारा मन कह रहा है, ‘ये बात मुझे पसंद नहीं है।’ या, ‘मैं ये बात मानता हूं।’ या, ‘मैं ये बात नहीं मानता।’ तुम अपने भीतर एक वार्तालाप कर रहे हो। ये बुद्धि है।

और फिर, स्मृति वो है जो जानकारियों को संभाल कर रखती है। तो, कभी कभी कोई अनुभव करते हुये तुम्हें लगता है, ‘ओह! मैंने ऐसा अनुभव पहले किया है।’ अगर तुम एक सेब की मिठाई का मज़ा पहले ले चुके हो तो तुम कह उठते हो, ‘ओह! मैं पहले भी इसका मज़ा ले चुका हूं। मैंने ये सेब की मिठाई पहले भी खाई है।’ तो स्मृति का काम है अनुभव को पहचानना और उसे स्मृति में संजो कर रखना।

फिर आया अहंकार। अहंकार है – ‘मैं कुछ हूं। मैं बुद्धिमान हूं। मैं मूर्ख हूं। मुझे ये पसंद है। मुझे वो पसंद नहीं है। मैं अमीर हूं। मैं बहुत ग़रीब हूं। मैं बदसूरत हूं। या, मैं सुंदर हूं। मैं कुछ हूं। मैं हूं,’ ये अहंकार है।
जब तुम अहंकार को जान गये, तो कहोगे कि क्या बस इतना ही है? नहीं! अहंकार को जानने के बाद भी कुछ जानना बाकी है। वो क्या है? वो आत्मा है।

इससे आगे अगली पोसट में..


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"जीवन का क्या महत्व क्या है"

आज श्री श्री ने क्या कहा..

२६ अगस्त २०१०


प्रश्न : एक प्रश्न मैं अपने आप से बहुत समय से करता आया हूं, पर समझ नहीं पा रहा हूं कि उसे किन शब्दों में कहूं। ये अजीब लग सकता है, पर जब मैं पूरे ब्रह्माण्ड को आपस में जुड़ा हुआ पाता हूं, तो सोचता हूं कि इस में मनुष्य का क्या कोई उपयोगी महत्व है, और क्या हम जब तक यहां हैं, क्या हमारे अस्तित्व से दूसरों को कोई लाभ है भी?

श्री श्री रवि शंकर :
बहुत अच्छा प्रश्न है! जीवन का क्या महत्व क्या है और हम यहां किसलिये हैं? तुम्हें खुद को शाबासी देनी चाहिये। अगर ये प्रश्न तुम्हारे जीवन में आया है, तो इसका अर्थ है कि तुम्हारी बुद्धि प्रौढ़ है। यहां लाखों लोग बिना ये प्रश्न पूछे कि, ‘जीवन का ध्येय क्या है? मैं यहां क्यों आया हूं?’ अपना पूरा जीवन बिता देते हैं। वे बस भोजन करते हैं, पीते हैं, टेलिविज़न देखते हैं, प्रेम या लड़ाई करते है और मर जाते हैं। उन्हें इस बारे में ज़रा भी ख़्याल नहीं आता। वे एक मिनट भी रुक कर ये नहीं सोचते कि, ‘जीवन क्या है? मैं कौन हूं? मुझे क्या चाहिये? मैं क्या कर सकता हूं? मैं कैसे उपयोगी हो सकता हूं?’ इन में से कोई भी प्रश्न उनके मन में नहीं आते। अगर ये प्रश्न तुम्हारे भीतर आया है तो इसका अर्थ है कि तुमने जीवन जीना शुरु कर दिया है। तुम्हारी जीवन यात्रा सही रास्ते पर जा रही है। इस यात्रा को आध्यात्म कहते हैं – ये जानना कि, ‘इस जीवन का ध्येय क्या है। मुझे क्या चाहिये? जीवन क्या है? मैं कौन हूं?’ इससे पहले कि तुम अपने आप से ये प्रश्न करो कि, ‘मुझे क्या चाहिये?’ तुम्हें ये जानना चाहिये कि तुम कौन हो। जीवन क्या है? इस प्रश्न के दो महत्वपूर्ण भाग हैं – एक विज्ञान है और एक आध्यात्म है। विज्ञान से तुम ये जान पाते हो कि, ‘ये क्या है।’ आध्यात्म से तुम ये जान पाते हो कि, ‘मैं क्या हूं।’

‘मैं’ और ‘ये’। ‘ये’ की समझ तुम्हें विज्ञान से आती है। ‘मैं’ की समझ तुम्हें आध्यात्म से आती है। ये ‘मैं’ क्या है? ‘मैं’ को जानने के लिये पहले ‘ये’ को जानो। ‘ये क्या है?’ ‘ओह! ये संसार है।’ ‘ये शरीर है।’ और, ‘ये शरीर कैसे आया?’ ‘ये शरीर एक ४-५ किलो के बच्चे के रूप में आया। फिर उस बच्चे ने इस धरती से ही सब सामग्री ली और अब ५० किलो का हो गया है।
तो, इस शरीर में क्या है? ये शरीर कैसे बना है?

प्रश्न: आपने शरीर के बारे में बताया है। मैं शरीर और पंचतत्वों के संबंध को जानना चाहता हूं।

श्री श्री रवि शंकर :
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और अंतरिक्ष – ये पंचतत्व हैं। अगर इन में से एक भी तत्व ना हो तो ये श्रीर टिक नहीं पायेगा। है ना? पृथ्वी तत्व से भोजन मिलता है। जल तत्व तो आप जानते ही हैं। फिर, अग्नि तत्व की, गर्मी की आवश्यकता होती है। गर्मी के बिना ये शरीर जी नहीं सकता। फिर वायु तत्व आया। शरीर के लिये वायु और अंतरिक्ष तत्व के बिना रहना भी संभव नहीं है।

इस शरीर का अस्तित्व पंचतत्वों से है। और फिर इस शरीर का क्या होता है? ये शरीर पंचतत्व से आया है और उन्हीं को वापस चला जायेगा। ये विज्ञान है। एक मृत शरीर में भे पंचतत्व विद्यमान होते हैं। तो फिर, एक मृत और जीवित शरीर में क्या अंतर है? जीवित शरीर में जीवन होता है। और, जीवन क्या है?

जब ये प्रश्न आया, तब तुम देखते हो, ‘ओह! प्राण – जीवन शक्ति!’ और फिर तुम प्राण के गहन अध्धयन में जाते हो, और प्राण से अधिक कुछ पाते हो। ‘ये क्या है? ये मन है। ओह! तो ये मन क्या है? मन कितने प्रकार का होता है? मन क्या क्या करता है?’ इस जिज्ञासा से तुम आर्ट आफ़ लिविंग में आ जाते हो।

प्रश्न : अस्तित्व के इतने स्तरों के बारे में आपने बताया है, कृपया इन पर कुछ और विस्तार कीजिये।

श्री श्री रवि शंकर :
मन, बुद्धि, स्मृति और अहंकार, मन के चार कार्य हैं। या, मन के ये चार पहलू हैं।

तो, मन क्या है? क्या तुम सुन रहे हो? अगर तुम्हारी आंखें खुली हैं, और कान तो खुले हैं ही...तुम्हारे कान में आवाज़ जाती है पर यदि तुम्हारा मन कहीं और है, तो क्या तुम मेरी बात सुन सकोगे? नहीं। है कि नहीं? तो, इस मन से ही तुम महसूस करते हो। ठीक है ना? जो पांचों इन्द्रियों के ज़रिये बाहर जाता है और अनुभव करता है, वो मन है।

अच्छा, अगर तुम मन से अनुभव कर रहे हो तो बुद्धि क्या है? जब तुम अनुभव करते हो, तो कहते हो, ‘ओह! ये अच्छा है। ये अच्छा नहीं है। मुझे ये चाहिये। मुझे वो नहीं चाहिये।’ तुम्हारी बुद्धि तय करती है। ये विवेक शक्ति है। मैं बोल रहा हूं और तुम्हारा मन कह रहा है, ‘ये बात मुझे पसंद नहीं है।’ या, ‘मैं ये बात मानता हूं।’ या, ‘मैं ये बात नहीं मानता।’ तुम अपने भीतर एक वार्तालाप कर रहे हो। ये बुद्धि है।

और फिर, स्मृति वो है जो जानकारियों को संभाल कर रखती है। तो, कभी कभी कोई अनुभव करते हुये तुम्हें लगता है, ‘ओह! मैंने ऐसा अनुभव पहले किया है।’ अगर तुम एक सेब की मिठाई का मज़ा पहले ले चुके हो तो तुम कह उठते हो, ‘ओह! मैं पहले भी इसका मज़ा ले चुका हूं। मैंने ये सेब की मिठाई पहले भी खाई है।’ तो स्मृति का काम है अनुभव को पहचानना और उसे स्मृति में संजो कर रखना।

फिर आया अहंकार। अहंकार है – ‘मैं कुछ हूं। मैं बुद्धिमान हूं। मैं मूर्ख हूं। मुझे ये पसंद है। मुझे वो पसंद नहीं है। मैं अमीर हूं। मैं बहुत ग़रीब हूं। मैं बदसूरत हूं। या, मैं सुंदर हूं। मैं कुछ हूं। मैं हूं,’ ये अहंकार है।
जब तुम अहंकार को जान गये, तो कहोगे कि क्या बस इतना ही है? नहीं! अहंकार को जानने के बाद भी कुछ जानना बाकी है। वो क्या है? वो आत्मा है।

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"विश्वास तुम्हारी चेतना के सभी बिखरे कणों को केन्द्रित करता है"

विश्वास और शक

विश्वास से तुम में पूर्णता आती है। विश्वास तुम्हारी चेतना के सभी बिखरे कणों को केन्द्रित करता है। इससे तुम्हारा संपूर्ण व्यक्तित्व सुव्यवस्थित बनता है। शक से तुम बिखर जाते हो। शक से तुम नष्ट हो जाते हो।

चिंताओं का बह जाना

एक प्रयोग कर के देखो – जब तुम बहुत चिंतित हो, तनावग्रस्त हो, तब एक नदी या बहते हुये जलस्त्रोत्र के पास जाकर बैठ जाओ, और बस उस बहते हुये पानी को देखते रहो। तुम्हें पता है, कुछ ही क्षणों में तुम्हें एक खिचाव महसूस होगा, मानो तुम्हारा मन उस पानी के बहाव की ओर खिंचा चला जा रहा है...और कुछ ही देर में तुम्हारी चिंता, तनाव, जो भी तुम महसूस कर रहे थे पानी के बहाव में बह जाता है। तुम तरोताज़ा हो जाते हो।

सभी स्तरों को प्रभावित करना

जब तुम ध्यान करते हो तो केवल खुद में ही समरसता नहीं ला रहो हो, तुम सृष्टि के सूक्ष्म स्तरों को, सृष्टि के अस्तित्व के विभिन्न स्तरों पर सूक्ष्म शरीरों को प्रभावित करते हो।

मनुष्य शरीर

हर मनुष्य के लिये, हर आत्मा के लिये बिना किसी शर्त के प्रेम में रहने की आशा है। तभी तो मनुष्य शरीर इतना मूल्यवान है – क्योंकि इस शरीर में रह कर तु में ये क्षमता है कि तुम सभी नकरात्मक वृत्तियों को मिटा सको।

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"नुक्सानदायक आदतों से छुटकारा पाने के उपाय"

प्रश्न : मुझे पता है कि क्या करना अच्छा नहीं है, फिर भी मैं वो क्यों करता हूं? इससे छुटकारा कैसे पा सकता हूं?

श्री श्री रवि शंकर:
तुम जानते हो कि वो करना अच्छा नहीं है, और फिर भी करते हो। तुम ये पूछ रहे हो कि तुम ये क्यों करते हो? ठीक है। तुम प्रार्थना करो कि स्थिति बदल जाये, और ये भी जान लो कि विरोधाभासी मूल्यक, एक दूसरे के पूरक होते हैं। इससे तुम्हें ताकत मिलेगी। और ये भी जान लो कि सब कुछ बदल जाता है।

ज्ञान पर ना चलने के दो ही कारण हैं:

एक तो बुरी आदतें। बुरी आदतें जल्दी नहीं जाती हैं।

दूसरे, कुछ सुख पाने के लालच में तुम ग़लत काम करते हो। उदाहरण के लिये, तुम जानते हो कि अधिक आइसक्रीम खाने से तुम्हारे भीतर चीनी की मात्रा बढ़ जायेगी, तुम्हारे डौक्टर ने भी सावधानी बरतने को कहा है, पर तुम्हारा लालच कहता है, ‘नहीं, मुझे ये खाना है। बस एक दिन और खा लूं।’ तुम ऐसा करते हो क्योंकि इस में तुम्हें स्वाद आता है।

अगर तुम नियमों के उल्लंघन का फल भुगतने के लिये तैयार हो तभी ऐसा करो। तुम जानते हो कि रात्रि आठ बजे के बाद भोजन करना अच्छा नहीं है? यदि तुम ये जानने पर भी ऐसा करते हो तो तुम रात में देर तक जगोगे, डकार मारते रहोगे, अपच से बेचैन रहोगे! अगर ये तुम्हें ठीक लगता है, तो करो।

तो, केवल इन दो बातें के वजह से तुम ज्ञान पर नहीं चलते हो।

तुम जानते हो कि धूम्रपान करना सेहत के लिये हानिकारक है, पर फिर भी करते हो। धूम्रपान से तुम्हें कोई सुख नहीं मिल रहा है, पर उसे छोड़ना बहुत कठिन हो गया है क्योंकि वो एक बुरी आदत बन चुका है।

आदतें सिर्फ़ तीन ही तरह से छूट सकती हैं:

एक तो लालच से। अगर कोई तुमसे कहे कि तुम एक महीने धूम्रपान नहीं करोगे तो तुम्हें एक मिलियन डौलर मिलेंगे, तो तुम कहोगे, ‘एक महीने क्यों, मैं ३५ दिनों तक धूम्रपान नहीं करूंगा। पांच दिन अधिक धूम्रपान नहीं करूंगा, कि कहीं गिनती में कोई कमी ना रह जाये।’ लालच से तुम उन आदतों से छूट सकते हो जो तुम्हें पसंद नहीं हैं।

दूसरा उपाय है भय। अगर कोई कहे कि तुम्हें धूम्रपान करने से विभिन्न प्रकार के कैंसर हो जायेंगे, तब तुम धूम्रपान को हाथ भी नहीं लगाओगे।

तीसरा उपाय है, जिससे तुम प्रेम करते हो उससे वादा करना। अगर तुम अपने प्रियजन से वादा करते हो तब भी तुम धूम्रपान छोड़ दोगे।

मैं इस तीसरे उपाय के पक्ष में हूं।

या फिर, अंततः तुम खुद ही जान जाओगे कि, ‘ओह! इस में बहुत तकलीफ़ है। मैं इस आदत को बरकरार रख कर दुख ही पा रहा हूं।’ तो, एक दिन जब तुम ये जान जाओगे तो वो आदत स्वतः छूट जायेगी।

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"रक्षा बंधन पर श्री श्री रवि शंकर जी का कुछ वर्ष पहले दिया हुआ संदेश"

कोपनहैगन, डेनमार्क
२० अगस्त १९९७


ये पूर्णिमा ऋषियों को समर्पित है। इसे रक्षा बंधन भी कहते हैं। बंधन का अर्थ है जो बांधता है, और रक्षा का अर्थ है बचाना। एक ऐसा बंधन जो आपकी रक्षा करता है – ज्ञान के साथ बंधना, गुरु के साथ बंधना, सत्य के साथ बंधना, आत्मा के साथ बंधना – ये सब आपकी रक्षा करते हैं। एक रस्सी का उपयोग आपको बचाने के लिये भी हो सकता है और आपका गला घोटने के लिये भी हो सकता है। आपका छोटा मन और सांसारिकता आपका गला घोट सकते हैं। आपका बृहद मन और ज्ञान आपकी रक्षा करते हैं।

इस बंधन से आप बंधते हैं सत्संग से, गुरु से, सत्य से, ऋषियों के प्राचीन ज्ञान से, और वही आपका रक्षक है। जीवन में बंधन आवश्यक है। उस बंधन को दिव्य बनाइये जिससे कि जीवन बंधन से मुक्त हो।

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"अधिक अंतर्ज्ञान का अर्थ है अधिक सफलता"

KPMG magazine से श्री श्री रवि शंकर जी के साक्षात्कार के अंश

प्रश्न : विविधता की सबसे बड़ी महत्ता क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
अब हम दुनिया में अलग थलग नहीं जी सकते। हमारा ज्ञान और संचार विस्तृत होता जा रहा है, और दुनिया और छोटी होती जा रही है, इसलिये अब व्यवसाय, किसी एक भौगोलिक क्षेत्र तक सीमित रह कर पनप नहीं पायेंगे। हमारे पास, विविधता का सम्मान करने के सिवा अब कोई रास्ता नहीं बचता। ये एक आवश्यकता है, इसमें अब कोई विकल्प नहीं है।

ये हमारे स्वभाव में है, बौधिकता और विकास का लक्षण है कि हम ये महसूस करें कि सभी संस्कृतियां, सभ्यतायें, विचारधारायें, सब हमारी हैं।

अफ़सोस है कि अज्ञान की वजह से हुई हूढ़ मत ही हमें विविधता को अपनाने से बाधित करती है। उदाहरण के तौर पर – २५ साल पहले जब हमने योरोप में योग, श्वांस प्रक्रियाओं और ध्यान के बारे में बात की, तब उसे अजीब समझा गया। उस समय पूर्वीय प्रभावों के प्रति पूर्वभावनायें प्रचलित थीं। पर अब लोग ये समझ गये हैं कि योग उनके स्वास्थ्य के लिये अच्छा है, और वे उसे अपना रहे हैं। ठीक उसी तरह आज के समय में कुछ इस्लामिक देशों में योग और ध्यान के प्रति पूर्वधारणायें हैं। इन सभी पूर्वधारणाओं को मिटाना होगा।

प्रश्न : क्या कंपनियों के भीतर विविधता की ओर ध्यान देते ही, उच्च पदों पर महिलाओं की कम प्रतिशत होने पर ध्यान ना देकर, कुछ अधिक करना चाहिये?

श्री श्री रवि शंकर :
कई जगहों पर सबसे पहली कमी लिंग भेद ही नज़र आती है। लिंग भेद आजकल प्रत्यक्ष है। लिंग, धर्म, नागरिकता, सांस्कृतिक भिन्नता, इन सभी को नज़रंदाज़ करना चाहिये।

मैं ये नहीं कह रहा हूं कि आप ज़बरदस्ती किसी विशेष श्रेणी के व्यक्ति को काम दीजिये जब कि वो उसके काबिल ही ना हो। ये भी ग़लत होगा।

पहले काबलियत देखनी चाहिये। उसके बाद ही विविधता पर ध्यान दीजिये। विविधता के नाम पर हम ऐसे लोगों को ले आते हैं जिनकी योग्यता उस काम के काबिल नहीं होती है। इसकी वजह से व्यवसाय को नुक़्सान होता है।

विविधता लागू करने के लिये किसी नियम का सहारा ना लेकर, उसे स्वाभाविक रूप से आने दें। ये हमारे नज़रिये के बदलाव से आना चाहिये, ना कि सरकारी नियमों के तहत।

प्रश्न : नेताओं को शुरुवात कहां से करनी चाहिये?

श्री श्री रवि शंकर
: नेताओं को बोर्डरूम से, दफ़तर से शुरुवात करनी चाहिये। एक उत्सव का माहौल बनाने के लिये, सही मनोभाव की आवश्यकता है, और सही मनोभाव को लाना ही होगा। इसमें टीम की सहभागिता की आवश्यकता हो सकती है, सब को ये मनोभाव अपनाना होगा।

एक उत्सव का माहौल – विश्वास, सहयोग, अपनापन – इन सभी को आना होगा। मुझे यक़ीन है कि लोग खुद को तरोताज़ा करने के इच्छुक होंगे ही, ज़रूरत है सिर्फ़ उनके सामने इसे कारगर तरह से रखने की। उन्हें मौका मिलना चाहिये। जब लोगों में सृजन शक्ति, ताकत और अपनेपन की कमी हो जाती है तो आखिरकर कंपनी को नुक़्सान होता है।

अब नियम और नियंत्रण का सैन्य शासन काम नहीं करता है। केवल प्रेरणा और उत्साहवर्धन ही कारगर तरीके हैं। ऐसा करने के लिये विश्व के विभिन्न भागों में प्रचलित प्राचीन सिद्धांतों को कार्यक्षेत्र में उतारने से काम का माहौल खुशनुमा हो जायेगा।

प्रश्न : क्या अगले २०-३० सालों में विश्व की व्यवस्था प्रणाली कुछ अलग ही होगी?

श्री श्री रवि शंकर :
हम पहले ही ये कह चुके हैं। भूतकाल में विश्व की व्यवसायिक व्यवस्था, वाणिज्य के दबाव पर चलती है, पर आज ग्लोबल मार्केट बहुत खुला हो गया है, और कई विकल्प मौजूद हैं। लोगों में पिछले सालों के मुकाबले, सजगता भी अधिक आ गयी है, और वे भ्रमण करना चाहते हैं। यहां नहीं तो कहीं और अच्छी नौकरी मिल जायेगी। इससे व्यवसायिक दृष्टि एकदम बदल गयी है। पहले ये अंचलों में बंटी हुई थी, क्योंकि आप एक नौकरी करना चाहते थे और नौकरियां कम थी।

प्रश्न : कार्य क्षेत्र को बेहतर कैसे बना सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
हमारे कार्यक्रम में एक बात आती है ‘Let out the steam and get into the team’ – ये हमारा नारा है। दूसरे शब्दों में, प्रबंधक का लेबल छोड़कर, अपनी कंपनी में एक खुला भाव लेकर सब के साथ बैठो। बैठ कर उनसे बात करो, उनसे अपना नज़रिया बांटो। इस तरह का आदान प्रदान शिक्षात्मक होता है। इससे लोगों में शक्ति आती है, और आपसी सहयोग बढ़ता है। इसके साथ हम श्वांस प्रक्रियाओं और व्यायाम को जोड़ कर एक ऐसी स्थिति बनाते हैं जिसमें सहभागी, स्वतंत्र हो कर तनाव के भावों को मिटा कर स्थिति को नये दृष्टिकोण से देखते हैं।

किसी भी व्यवसाय में आपको अंतर्ज्ञान की आवश्यकता होती है। जितना ही बौस का अंतर्ज्ञान विकसित होगा, उतनी ही व्यवसाय में सफलता प्राप्त होगी। अधिक अंतर्ज्ञान का अर्थ है अधिक सफलता, और यदि आपका अंतर्ज्ञान ग़लत है तो आप सफलता नहीं प्राप्त कर सकते।

हमारे कार्यक्रम का उद्देश्य है तनाव को कम करना और अंतर्ज्ञान को बढ़ाना – इससे कार्यक्षेत्र में सृजनात्मकता और उत्साह भी बढ़ता है। आज की व्यस्त दुनिया में लोग अक्सर थक जाते हैं और बीमारियां भी बहुत हैं। मानसिक बीमारियों पर योरोपियन यूनियन में ३-४ प्रतिशत GDP व्यय होता है, और ये ख़र्च कई सौ बिलियन यूरोज़ में जाता है।

वर्ल्ड हेल्थ और्गनाइज़ेशन के मुताबिक, योरोप में सभी बीमारियों में २० प्रतिशत हिस्सा मानसिक अस्वस्थता की बीमारियों का है। इस में अवसाद भी शामिल है जो चार में से एक व्यक्ति को जीवन में कभी ना कभी प्रभावित करता है। हमारे कोर्स में सिखाई गयी जीवन को बदल देने वाली प्रणालियों से लोगों को अपनी बीमारियों को मिटाने में बहुत सहायता मिलती है।

प्रश्न : क्या व्यवसायियों के लिये ये संभव है कि अपने दैनिक कार्य कलापों में वे नैतिकता का समन्वय कर सकें?

श्री श्री रवि शंकर
: व्यवसायों में अनैतिकता इसलिये प्रचलित है क्योंकि व्यक्तिगत रूप से लोगों में भय व्याप्त है। इस भय से आध्यात्मिक साधना के द्वारा निबटना होगा।
इस तरह जब आप में भय कम है, जब आप विश्वसनीय बनना चाहते हैं, जब आप प्रतिबद्ध होना चाहते हैं, नैतिक होना चाहते हैं, तब आप कभी ग़लत काम नहीं करेंगे जिनसे कि हज़ारों, लाखों लोग प्रभावित हो सकते हों। इसीलिये व्यवसायों को सामाजिक ज़िम्मेदारी उठानी चाहिये (Corporate Social Responsibility)। ये केवल एक बौधिक वस्तु नहीं है – ये हरेक व्यक्ति के हृदय से आनी होगी।

हमारे जैसे कोर्स इस प्रक्रिया में सहायतार्थ तैयार किये जाते हैं। जिन व्यवसायियों ने ये कौर्पोरेट कोर्स किया है उनके लिये हम ‘व्यवसाय और नैतिकता’ पर सफल सम्मेलनों का आयोजन करते हैं। वे आकर नैतिकता के साथ व्यवसाय करने के अपने सफल अनुभव यहां बांटते हैं।

इससे दूसरे व्यवसायियों को प्रेरणा मिलती है। फिर भी अक्सर लोग ये सोचते हैं कि बिना बे‍ईमानी के सफल नहीं हो सकते हैं। पर, ऐसा नहीं है। ये एक भ्रमात्मक बुलबुला है।

हां, संतुलन की आवश्यकता है – आप सामाजिक ज़िम्मेदारी उठा कर कंपनी को घाटे में नहीं जाने दे सकते हैं। और दूसरी तरफ़, आप अपने कर्मचारियों को परेशान कर के भी फ़ायदे में नहीं रहेंगे, क्योंकि परेशान कर्मचारी अंततः नौकरी छोड़कर चले जायेंगे। इन दोनों ही परिस्थितियों में आपकी नौका डोलने लगेगी। आपको बढ़िया संतुलन बनाये रखना है। आप अपने फ़ायदे पर भी नज़र रखें, कर्मचारियों का भी ख़्याल करें, और सामाजिक ज़िम्मेदारी भी उठायें।

प्रश्न : आपकी संस्था ने २५ सालों में ३० मिलियन लोगों के जीवन को प्रभावित किया है, और साथ ही बहुत प्रगति भी की है। इसकी व्यवस्था आपने कैसे की?

श्री श्री रवि शंकर
: मैंने कोई व्यवस्था नहीं की, मैंने उसे स्वाभाविक रूप से बढ़ने दिया। मैं उसकी प्रगति में रोड़ा नहीं बना। ये संस्था स्वयंसेवियों द्वारा चलाई जाती है, और हमारे पास नेता भी हैं। मेरा बस नाम जाता है सेवा प्रौजेक्टस में, और बाकी सब लोग काम करते हैं!

गंभीरता से बात करें तो, हम जो देते हैं वो लोगों के लिये बहुत उपयोगी है, और हम विविध प्रकार के कार्यक्रम आयोजित करते हैं। हमारा अंतर्ज्ञान काम करता है और हम जो भी परियोजना हाथ में लेते हैं वो सफल होती है।
अब हम १५१ देशों में कार्यरत हैं, और हमारे ४१ मुख्य केन्द्र हैं, और कई शहरों में स्थानीय केन्द्र हैं। हमारे १०० स्कूल भी हैं जिन में शुल्क लिया जाता है, और १०८ स्कूल हैं जो निशुल्क हैं और ग़रीबों के लिये हैं।

इस स्वाभाविक प्रगति के लिये आवश्यक है धैर्य, दृढ़ता और शुद्ध संकल्प! इसमें ध्येय का ठीक ज्ञान होना आ्वश्यक है, ग़लतियों को संभालने का लचीलापन होना आवश्यक है, और अच्छे संकल्प से प्रगति के लिये दूर दृष्टि आवश्यक है।

किसी भी व्यवसाय की स्वाभाविक प्रगति के लिये, नेता को ज्वरित नहीं होना चाहिये, और इल्ज़ामबाज़ी में नहीं पड़ना चाहिये। इसका मतलब है कि उन्हें सीखना चाहिये! भूतकाल से सीखना चाहिये और भविष्य के लिये एक ध्येय होना चाहिये। और उन्हें सबकी इज़्ज़त करनी चाहिये, चाहे कोई अच्छा काम करे या ना करे।

प्रश्न : लोगों को अच्छा महसूस कराने के लिये क्या श्वांस प्रक्रियायें, ध्यान और अंतर्ज्ञान काफ़ी है?

श्री श्री रवि शंकर :
ये सही है! हमें स्कूल या घर पर नकरात्मक भावनाओं जैसे कि दुख, ईर्ष्या, या क्रोध से निबटना नहीं सिखाया गया। इसका ज्ञान नहीं दिया गया। पर अगर आपको अपने क्रोध, अपनी भावनाओं को अपनी श्वांस के ज़रिये संभालना सिखा दिया जाये तो इससे आपको बहुत फ़ायदा होता है। श्वांस और ध्यान के ज़रिये ये ज्ञान पाना संभव है।

मैं सदियों से चीन, जापान और भारत में बौध और हिंदु मान्यताओं के साथ रहा हूं, पर हमारी प्रणाली और पुरानी प्रणालियों में फ़र्क ये है कि, हमारी प्रणाली आज के समय के लोगों के लिये जिनके पास समय की कमी है, उपयुक्त हैं। ये प्रणाली आज के समाज में उपयोगी और सुलभ है।

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"जीवन में कोई दीवारें ना हो, सबके साथ अपनापन हो"

१५ अगस्त २०१०

प्रश्न : मेरा परिवार बहुत अच्छा है, मेरे पति मेरा ख़्याल रखते हैं, मेरी तीन प्यारे बेटियां हैं, धन की लोई समस्या नहीं है, पर मैं बिना कारण ही रह रह कर विचलित हो जाती हूं! मेरे पिता डिप्रेशन के मरीज़ हैं, क्या मेरा विचलित होना मुझे उनसे विरासत में मिला है? मेरे दादा ने बहुत पहले ही आत्महत्या कर ली थी; मेरे पिता उनसे नफ़रत करते थे!

श्री श्री रवि शंकर :
देखो, सब कुछ बदल जाता है! एक साल में तुम्हारे शरीर की हरेक कोषिका बदल जाती है, और जब तुम आध्यात्म के पथ पर हो तो ये और शीघ्र होता है। तुम्हारा भूतकाल कैसा भी रहा हो, उसे छोड़ो। ठीक है?

हां, पिछले समय में लोग अपने मन को संभालना नहीं जानते थे, पर अब तुम तो जानती हो, ठीक है?

ये धारणा कि, ‘अवसाद, मेरी पुश्तैनी समस्या है,’ तुम्हारे मन को तनाव मुक्त नहीं होने देगी।

सब कुछ बदल सकता है, और बदल रहा है। प्राणायाम के अभ्यास से तुमने कुछ बदलाव अनुभव किया होगा। ये सुधार बढ़ता ही रहेगा। कुछ और अडवांस कोर्सों और कुछ और ध्यान से भी मदद मिलेगी।

प्रश्न : मैं शरीर में जहां तहां दर्द के लिये बहुत ऐलोपैथिक दवायं लेता हूं, पर फिर भी दर्द से पीड़ित रहता हूं।

श्री श्री रवि शंकर :
हम अपने शरीर का ध्यान नहीं रखते हैं, हम उचित मात्रा में व्यायाम नहीं करते हैं। हम जो भोजन करते हैं उसमें रसायन, कीटनाशक, रसायनिक खाद, इत्यादि होते हैं, जो हमारे शरीर में दर्द पैदा करते हैं। एक बार अपने भीतर से ये ज़हर निकलवा दो तो पाओगे कि ये दर्द भी चले जायेंगे।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, मुझे दो व्यक्ति पसंद हैं, पर समस्या ये है कि मैं नहीं जानती कि किसका चयन करूं? उनमें से एक व्यक्ति मुझे बहुत प्रेम करता है। और उनमें से दूसरे व्यक्ति को प्रेम करना मुझे एक चुनौतीपूर्ण कर्य लगता है। मैं किसको चुनूं?

श्री श्री रवि शंकर
: तुम्हें पता है कि इन मामलों में मैं चयन तुम पर छोड़ कर तुम्हें आशीर्वाद देता हूं!
अगर मैं तुम्हारे लिये चयन करूं, तो जब भी तुम उस व्यक्ति से झगड़ोगी तो कहोगी, ‘मैंने तुम्हें नहीं चुना था। गुरुजी के चुनाव की वजह से मैंने तुम से शादी की!’ तब तुम्हारे साथ मैं भी मुसीबत में आ जाऊंगा! सबसे अच्छा तरीका है कि तुम चयन करो, और ये जान लो कि तुम जिसे चुनोगी, वही तुम्हारे लिये सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति होगा। तुम जिसे नहीं चुनोगी वो कभी भी तुम्हारे लिये सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति नहीं हो सकता है, ये मेरा अश्वासन है।

प्रश्न : मैं भूतकाल को कैसे छोड़कर आगे बढ़ूं?

श्री श्री रवि शंकर :
हमें भूतकाल को भाग्य के रूप में देखना चाहिये और भविष्य को स्वतंत्र इच्छा के रूप में, और वर्तमान क्षण में सुखपूर्वक जीना चाहिये। आमतौर पर हम लोग इसका ठीक विपरीत करते हैं। हम क्या करते हैं? हम भूतकाल को स्वतंत्र इच्छा से निर्मित समझते हैं और भविष्य को भाग्य मान कर, वर्तमान में निष्क्रिय और दुखी रहते हैं। ऐसा बेवकूफ़ लोग करते हैं। बुद्धिमान लोग क्या करते हैं? बुद्धिमान लोग देखते हैं कि भूतकाल तो अब है नहीं, वो तो चला गया है, ख़त्म हो गया है, और ऐसा होना ही निश्चित था, भाग्य था।

कुछ अच्छा हुआ और आपने उससे कुछ सीखा, और कुछ बुरा हुआ और आपने उससे कुछ सीखा। दोनों ही स्थितियों में आपने कुछ सीखा। तो, भूतकाल भाग्य था। हम वर्तमान से भविष्य का निर्माण कर सकते हैं। हमारी चेतना में ये क्षमता है कि वह देख सकती है कि उसे क्या चाहिये है। भविष्य हमारी स्वतंत्र इच्छा है। वर्तमान में सब लोगों के साथ एक हैं और खुश हैं। हमें खुश रहने के कारण ढूढने चाहिये, पर हम क्या करते हैं? हम इसका उल्टा करते हैं। हम दुखी होने के सभी कारण ढूंढ लेते हैं।

हां, जीवन में चुनौतियां आती हैं, अच्छी घटनायें घटती हैं; अप्रिय घटनायें घटती हैं – तो क्या हुआ, हां!

प्रश्न : मैं बहुत आनंदित हूं कि मैं आर्ट आफ़ लिविंग के साथ जुड़ा हूं। मैं बौद्ध हूं। क्या मैं आर्ट आफ़ लिविंग का शिक्षक बन सकता हूं?

श्री श्री रवि शंकर :
हां, ज़रूर! बिल्कुल बन सकते हो। तुम सचमुच बुद्ध की वाणी समझते हो और उसी के मुताबिक अपना जीवन जीते हो।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, मैं इस अडवांस कोर्स में भाग ले रहा हूं, पर इस बार मैं सभी ध्यानों के समय सोता रहा। क्या मैं पूछ सकता हूं कि मेरे साथ क्या गड़बड़ है?

श्री श्री रवि शंकर :
हां, तुम ही नहीं, दूसरों ने भी ग़ौर किया है कि तुम गहरी नींद में सोते रहते हो। कोई बात नहीं, ये ठीक है। तुम्हें पता है जब तुम्हारा शरीर बहुत थका हुआ होता है, तुम देर रात में सोते हो, और बहुत तनाव जमा किया होता है, तो नींद आ जाती है। इसीलिये ये कोर्स चार दिनों का है।

तुम्हारे सोने का एक कारण हो सकता है कि तुम्हारा शरीर बहुत थका हुआ हो। दूसरा कारण हो सकता है कि भोजन बहुत स्वादिष्ट है, इसलिये तुम कुछ आवश्यकता से कुछ अधिक खा लेते हो, और यदि दोपहर में थोड़े गरिष्ठ भोजन के साथ थोड़ा दही खा लिया हो, तो कभी कभी नींद आ जाती है। तो, तुम अपने भोजन को कुछ कम कर सकते हो, सिर्फ़ १-२ चम्मच कम। भोजन कुछ कम करो और फल, सब्ज़ी और जूस अधिक लो। तीसरा कारण हो सकता है प्राणवायु की कमी। अगर तुमने सुबह कुछ व्यायाम या तेज़ रफ़्तार से टहलना, या जौग्गिंग नहीं किया है तब भी ऐसा हो सकता है। भस्त्रिका के एक या दो दौर से भी मदद मिलती है।

प्रश्न : अनुवाद के बिना कोर्स बहुत अच्छा रहेगा। क्या हम अनुवाद बंद करा सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
अच्छा, मेरी बात सुनो – ये तुम्हारी धारणा है। ज़रा कल्पना करो कि उनकी जगह तुम होते और मैं सिर्फ़ चीनी भाषा बोलूं, अंग्रेज़ी बिल्कुल ना बोलूं, और कोई अनुवाद करने वाला ना हो, तब तुम क्या करते? ‘ओह! कृपया अनुवाद करवा दीजिये।’ अपने मन में ऐसी धारणा मत रखो कि, ‘अनुवाद से मुझे विक्षेप होता है।’ नहीं। उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। अनुवाद को चलने दो। उसे संगीत की तरह सुनो।

हम लोग जो चीनी भाषा नहीं पढ़ सकते हैं, जब हम हौंग कौंग जाते हैं तो हर तरफ़ चीनी लिखावट, किसी सजावट की तरह दिखती है। सभी साइनबोर्ड किसी सजावट की तरह लगते हैं...जैसे कोई रंगोली हो, कोई डिज़ाइन हो। पूरा हौंग कौंग ही डिज़ाइन बोर्डों से सजा मालूम पड़ता है। इनसे मन में कोई परेशानी नहीं होती है। पर अगर आप चीनी भाषा जानते हैं तो सभी साइन बोर्ड पढ़ने से आप परेशान हो जायेंगे। जब आप चीनी भाषा ही नहीं जानते हैं तो ये बहुत सुंदर लगते हैं।

प्रश्न : हम इस दुनिया को एक बेहतर जगह कैसे बना सकते हैं? और ऐसा कब होगा?

श्री श्री रवि शंकर :
मुझे खुशी है कि तुमने ऐसा सोचा है, और तुम सही जगह पर हो। चलो हम सब मिल कर कुछ बढ़िया काम करते हैं...।

प्रश्न : प्रेम क्या है, और शांति कैसे प्राप्त करें?

श्री श्री रवि शंकर
: मैंने इसके बारे में नारद भक्ति सूत्रों में बताया है – प्रेम क्या है, कितने प्रकार का है? उन टेपों को सुनो।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, मुझे एक देश में अच्छी नौकरी और वीज़ा पाने की बहुत आवश्यकता है, कृपया मेरी मदद कीजिये!

श्री श्री रवि शंकर
: हां, प्रार्थना और ध्यान करो। तुम जो भी मांगते हो, तुम्हें मिल रहा है ना? तुम में से कितनों को अपनी इच्छानुसार सब मिल रहा है? तुम इच्छा करते हो और वो पूरी हो जाती है, तुम्हारा काम हो रहा है। कितनों की इच्छायें पूरी हो रही हैं? (बहुत से लोग अपने हाथ उठाते हैं।)

प्रश्न : मैं अपने परिवार के साथ भारत जाना चाहता हूं।

श्री श्री रवि शंकर :
हां, तुम्हारा स्वागत है। हम लोग इंतज़ाम करेंगे। मेरे ख्याल से उस दिन स्टेडियम में भी कई लोग ऐसे थे जो भारत आना चाहते थे। अगर एक बड़ा सा ग्रूप होगा तो मज़ा आयेगा। यहां कोई अच्छा ट्रैवेल ऐजेन्ट है? यहां कोई ट्रैवेल ऐजेन्ट मौजूद है? फिर हम इंतज़ाम करेंगे, और सभी को आना चाहिये। यहां से बहुत नज़दीक है – सिर्फ़ ४ घंटा।

प्रश्न : स्मरण शक्ति को कैसे बढ़ायें और अधिक रचनात्मक और कल्पनाशील कैसे बनें?

श्री श्री रवि शंकर
: स्मरण शक्ति कैसे बढ़ाये? मैं तुम्हें अगले साल बताऊंगा, देखते हैं कि तुम्हें अपना प्रश्न स्मरण रहता है कि नहीं!

तुम्हारी स्मरण शक्ति अच्छी है ही। अगर तुम्हें लगता है कि अच्छी नहीं है तो थोड़ा अधिक प्राणायाम करो, और आयुर्वेद में भी कुछ उपाय हैं, तुम ब्रह्मी और शंखपुष्पी जड़ी बूटियां ले सकते हो, ये स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिये अच्छी हैं।

प्रश्न : मैं पेट में वायु विकार, और कब्ज़ से कैसे निबटूं? इनकी वजह से मेरे भाव बहुत ख़राब हो जाते हैं, ख़ास तौर पर काम करते समय।

श्री श्री रवि शंकर :
भोजन, भोजन, भोजन। अपनी भोजन संबंधी आदतों को बदलों। यहां कोई आयुर्वेदिक या चीनी चिकित्सक है? वे किसी जड़ी बूटी की सलाह देंगे। आयुर्वेद में एक चीज़ है – त्रिफला, जो शरीर की भीतरी सफ़ाई करता है। हर रात त्रिफला की २-३ गोलियां खाओ और कब्ज़ चला जायेगा! यह बहुत ही सामन्य दवा है, कोई नुक्सान नहीं करती है। क्या यहां आयुर्वेद है? हमें ये जड़ी बूटियां यहां उपलब्ध करानी चाहिये, ये बहुत लाभदायक हैं।

प्रश्न : जब दो बच्चे आपस में झगड़ना पसंद करते हों, तो मेरी इसमें क्या भूमिका होनी चाहिये?

श्री श्री रवि शंकर :
उनके साथ जुट जाओ! देखो कि उनके पास कोई नोकीली चीज़ ना हो। बच्चों को लड़ना चाहिये। वे लड़ते हैं और फिर एक दूसरे के गले लग जाते हैं। वे आपस में प्रेम करते हैं, और एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं। पर सुलह करने में वयस्कों को कई महीने, साल या जीवन काल तक लग जाते हैं। बच्चे ऐसे नहीं होते, वे एक पल लड़ते हैं, और अगले ही पल हाथों में हाथ डाल कर साथ घूमते हैं। बेहतर होगा कि तुम उनके मामले में दखल ना दो। बच्चे वर्तमान में जीते हैं। बच्चे, इस क्षण में जीते हैं। वे अभी लड़ते हैं और अभी भूल जाते हैं, ये इनकी लड़ाई की सुंदरता है।

प्रश्न : आर्ट आफ़ लिविंग के शिक्षक कैसे बन सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
हां, कोर्स के अंत में एक सूची होगी, और जो भी शिक्षक बनना चाहता है उसमें अपना नाम लिखा दे। तुम शिक्षक बनना चाहते हो तो बन सकते हो।

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"प्रेम के साथ ज्ञान हो तो आनंद होता है"

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प्रश्न : कई आध्यात्मिक किताबों में मन और विचारों पर नियंत्रण करने पर बहुत ज़ोर दिया जाता है, पर सामान्य जीवन में यह बहुत कठिन कार्य लगता है। आपसे अनुरोध है कि बारे में कुछ उपयोगी उपाय बतायें।

श्री श्री रवि शंकर :
हां, अब हम यही करने वाले हैं। ध्यान। तब तुम जान जाओगे कि विचारों के साथ कैसे पेश आना है।

प्रश्न : किसी को अच्छा या बुरा घोषित करने की प्रवृत्ति से कैसे छुटकारा पायें?

श्री श्री रवि शंकर :
ओह! (हंसी) ये अपने आप ही छूट जाता है। एक बार आप जान गये कि आप किसी को अच्छा या बुरा व्यक्ति मान रहे हैं, आप उससे बाहर आ जाते हैं। देखो, जो हो गया उसके बारे में आप कुछ नहीं कर सकते हैं। जिस क्षण आप सजग हो गये कि आप किसी को निर्णयात्मक नज़रिये से देख रहे हैं तो आप उसी समय उस से बाहर आ जाते हैं। आप मुड़ कर देखें कि कितनी बार आपने लोगों को अच्छा या बुरा समझा, पर उस समय का वो निर्णय अक़सर ग़लत सिद्ध हुआ।

अपने अनुभव से आप ज्ञान में बढ़ते हैं। ये बाहर से नहीं लाया जा सकता है। ये भीतर से ही लाना है। आपको पीछे मुड़कर देखना है कि वो कैसा था और आपने क्या किया।

प्रश्न : आपने जिस गांव के बारे में बताया, वहां किस वजह से इतना बदलाव आया?

श्री श्री रवि शंकर :
ध्यान, श्वांस प्रक्रियायें, शिक्षा, और भजन कीर्तन। हर दिन वहां सब शाम को मिलकर गाते हैं। हफ़्ते में एक दिन प्रीति भोज होता है, जहां सब साथ में मिल कर खाते हैं। इस परिवर्तन का प्रेरणा स्तोत्र है Youth Leadership Training Programme.

प्रश्न : क्या हम ये प्रयास गुणगांव के गांवों मे कर सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
हां, ज़रूर।

प्रश्न : क्या मैं इसका हिस्सा बन सकता हूं?

श्री श्री रवि शंकर :
अवश्य। आपका स्वागत है।

प्रश्न : क्या आज आप हमारे साथ गायेंगे?

श्री श्री रवि शंकर :
हम ध्यान करेंगे।

प्रश्न : क्या आधुनिक भारत में व्यापार और नैतिक मूल्यों का समन्वय हो सकता है?

श्री श्री रवि शंकर :
ये मान्यता कि सिर्फ़ ग़लत काम कर के ही आदमी आगे बढ़ सकता है, ग़लत है। ये सत्य नहीं है। आप देखिये कि भारत में ऐसे कई बिज़नेस हैं जो नैतिक कार्य कर रहे हैं और आगे भी बढ़ रहे हैं। पर इन का प्रचार नहीं किया गया है। कई लोगों को मालूम नहीं है।

कुछ छोटे बिज़्नेस ये नहीं जानते कि कुछ बड़े बिज़्नेस पूरी तरह नैतिक कार्य कर रहे हैं, जैसे कि टाटा, इन्फ़ोसिस, विप्रो...ये सभी बिल्कुल नैतिक काम कर रहे हैं। ये किसी को ठग नहीं रहे और ना ही कोई अनैतिक कार्य कर रहे हैं। हमें ऐसी बातों को जनता के सामने उजागर करना है। ये काम अभी होना है। कितने ही ऐसे छोटे व्यवसाय हैं जहां लोग नैतिकता से काम करते हैं, पर इनकी ख़बरें नहीं बनती हैं। केवल सत्यम ही ख़बरों में आया (हंसी)! मीडिया को बुरी ख़बरों का प्रचार करने में अधिक रुचि रहती है, ना कि सकरात्मक ख़बरों में।

प्रश्न : भारत में लोग नैतिकता से व्यापार करने और अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी के प्रति जागरूक हो रहे हैं। आप इस बारे में कुछ बतायेंगे?

श्री श्री रवि शंकर :
मुझे लगता है कि यह बात अमरीका के लिये भी सत्य है, और विश्व में सभी जगहों में भी। आज इस ग्लोबलाइज़्ड दुनिया में सभी जगह यही बात है कि हम नैतिकता की ओर कैसे लौटें?

योरोपियन पार्लियामेंट में हर साल Art of Living एक सेमिनार कराता है – ‘व्यवसायिक संस्कृति और आध्यात्म।’ दुनिया भर से व्यवसायी आते हैं, और जो लोग नैतिकता से व्यवसाय करते हैं, दूसरों को बताते हैं कि वे ऐसा कैसे करते हैं, व्यवसाय की सामाज के प्रति ज़िम्मेदारी कैसे निभाते हैं, और व्यवसाय में आध्यात्म को कैसे जोड़ सकते हैं। ये सेमिनार हर साल अक्तूबर-नवंबर में होता है।

प्रश्न : कृपया प्रेम के बारे में बताइये – माता पिता, सेक्स, बच्चे, परिवेश, मित्र, इत्यादि के लिये प्रेम।

श्री श्री रवि शंकर :
प्रेम के बारे में मैं तुम्हें बताता हूं – तुम प्रेम से ही बने हो। तुम एक पदार्थ से बने हो जिसका नाम है प्रेम। तुम्हारी चेतना प्रेम से भरी है। प्रेम के कई प्रकार होते हैं। माता पिता का प्रेम, भाई बहन का प्रेम, बच्चों के लिये प्रेम, जीवनसाथी के लिये प्रेम – ये सब इसके विभिन्न स्वाद हैं। भिन्नता है, पर उसके पीछे मैं प्रेम को केवल एक भावना के रूप में नहीं देखता – प्रेम हमारा अस्तित्व है। तुम्हारे शरीर के सभी अणु एक दूसरे से प्रेम करते हैं और तभी तो तुम एक मनुष्य के रूप में हो। तभी तो एक मालिक है। जिस क्षण ये प्रेम का बंधन छूट जाये उसी क्षण इस शरीर का नाश हो जाता है। मैं प्रेम को अस्तित्व के रूप में देखता हूं, ना कि केवल एक भावना के रूप में। प्रेम के साथ ज्ञान हो तो आनंद होता है।

अज्ञान की वजह से, ज्ञान के बिना प्रेम की वजह से ईर्ष्या, लालच, क्रोध, निराशा, और सभी कुछ आता है। ये सभी नकरात्मक भाव, प्रेम से ही उपजे हैं। अगर प्रेम ना हो तो तुम किसी से ईर्ष्या नहीं करोगे। है कि नहीं? यदि तुम्हें लोगों से अधिक चीज़ों से प्रेम हो तो उसे लालच कहते हैं।
आप किसी को आवश्यकता से अधिक प्रेम करें तो उससे उस पर स्वामित्व जताने लगते हैं। आपको उत्तमता से प्रेम हो तो आपको ज़रा सी तृटि से क्रोध आ जाता है। है कि नहीं? प्रेम को ज्ञान की लगाम की आवश्यकता है।

भक्ति सूत्रों (प्रेम के सूत्र) पर २० सी डी हैं, तुम उसे ले सकते हो। उसमें मैंने विभिन्न प्रकार के प्रेम के बारे में बताया है, और कैसे वे हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं।

प्रश्न: हमारे चर्च में कुछ नवयुवकों की टोली है, और कुछ सामाजिक कार्य चलते रहते हैं। हमने देखा है कि हमारे नवयुवकों में कोई भी नेत्रत्व नहीं करता है। कोई ज़िम्मेदारी लेने के लिये आगे नहीं बढ़ता है। एक नेता को कैसा होना चाहिये? और युवाओं को नेतृत्व की ओर कैसे प्रेरित करें?

श्री श्री रवि शंकर :
नेताओं को नेता बनाने चाहिये, और साथ ही नेताओं को अपना प्रभुत्व नहीं जताना चाहिये। नेताओं को पार्श्व से काम करना चाहिये और सेवा के भाव से भरा और करुणामय होना चाहिये। कोई व्यक्ति सेवा कार्य में रुचि क्यों नहीं ले रहा है? हो सकता है वो तनावग्रस्त हो। अगर आप खुद ही दुखी हैं तो किसी और के लिये कुछ करने की ओर प्रेरित नहीं होते हैं। तो, पहले आप शांति पा लीजिये।

इसीलिये मैं कहता हूं कि मुस्कुराओ और फिर सेवा करो। अगर तुम्हारी सेवा में मुस्कुराहट नहीं है तो वो सेवा कुछ ही समय चल पायेगी। तुम २-३, ५ दिन सेवा करोगे, फिर और नहीं कर पाओगे, क्योंकि तुम में ऊर्जा ही नहीं है। तो, भीतरी शांति और सब से अपनेपन का उदय हो तो तुम सेवा किये बिना रह ही नहीं पाओगे, सेवा करना तुम्हारे स्वभाव का अंग हो जायेगा।

प्रश्न : प्रेरणा का स्तोत्र कहां ढूढें?
श्री श्री रवि शंकर : मैं देखता हूं कि हरेक बच्चा कुछ प्रेरणा देता है।

प्रश्न : जीवन का अर्थ क्या है? जंगलों में देखें तो शिकारी जानवर दूसरे जानवरों को अपना आहार बना लेते हैं। जन्म और मृत्यु किसी यंत्र जैसे चलित लगते है। जीवन का कोई ख़ास अर्थ नहीं है। पर मनुष्य जाति को देखें तो वे आयु को बढ़ाने में लगे रहते हैं। क्या ये आवश्यक है?

श्री श्री रवि शंकर : हां, जानवर अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जाते हैं, प्रकृति के नियमों के विरुद्ध नहीं जाते हैं। उनका जीवन यंत्रवत चलता है। उन्हें स्वतंत्रता नहीं है। पर मनुष्यों के पास वो स्वतंत्रता है। तुम्हारे पास बुद्धि है कि तुम्हारे पास नियमों के विरुद्ध जाने की स्वतंत्रता है। यही तो हमे जानवरों से अलग बनाता है, है ना? तो, जानवरों की समझने की, ग्रहण करने की शक्ति से अधिक शक्ति हम में है। हम ब्रह्माण्ड के बारे में जानते हैं, सौर मण्डल के बारे में जानते हैं, मिल्की वे के बारे में जानते हैं, अणु के बारे में, पूरे संसार के बारे में जानते हैं। ये जानने की शक्ति, रचना करने की शक्ति, बदलने की शक्ति, हम में निहित है। इसे विवेक कहते हैं।

प्रश्न : आध्यात्मिक पथ पर साधक निराकार, साकार के बीच भटक सकता है, ध्यान में मंत्र या विपासना...किसी रास्ते पर जाकर फिर ये समझना कि उसके लिये दूसरा रास्ता सही होता, इस में साधक का समय नष्ट हो सकता है?

श्री श्री रवि शंकर :
देखो, सभी संभावनाये हैं। ऐसा नहीं है कि जो लोग साकार उपासना में जाते हैं, उन्हें प्राप्ति नहीं होती है। उनकी प्राप्ति के लाखो उदाहरण हैं। इस देश में हज़ारों संत, साकार से निराकार तक पंहुच गये। अगर हम तुलसी रामायण देखें तो जो तुलसी ने लिखा है, ‘राम निरंजन अरूप,’ ये अनुभव के बिना नहीं कह सकते थे। पहले वे राम को एक व्यक्ति के रूप में देखते हैं, फिर उन्होंने पाया कि राम का सार निराकार है। उसी तरह, असीसी के सेंट फ़्रांसिस भी साकार से निराकार में आये। मीरा साकार से निराकार तक पहुंच गई। गुरु नानक देव...। इस देश में ऐसे कई उदाहरण हैं कि जहां साधक की लगन सच्ची है तो कभी गलती नहीं होती। ऐसा मेरा मानना है। क्योंकि प्रकृति तुम्हारा मार्गदर्शन करेगी।
देखों वह व्यापक बुद्धि, परमात्मा कभी आपका साथ नहीं छोड़ते। वो आपको सही रास्ते पर ले जाते हैं। मुझे नहीं लगता अलग अलग कि साधना के पथ पर कहीं भी समय नष्ट होता है। पर अपने विवेक का प्रयोग करो।

तो अब हम थोड़ा ध्यान करें? आप में से कितनों को लगता है कि ध्यान का अर्थ है एकाग्रता? किसी को नहीं लगता कि ध्यान का अर्थ एकाग्रता है? ये बहुत अच्छा है। तो तुम पहली सीढ़ी पर आ गये हो। अक़्सर लोग ध्यान को मन की एकाग्रता या विचारों पर नियंत्रण करना समझते हैं। ऐसा नहीं है। ध्यान है गहरा विश्राम। ठीक है...

ध्यान के लिये तीन चीज़े आवश्यक हैं। पहली बात ये है कि अगले दस मिनट के लिये हम ध्यान करेंगे – ये जान लो कि, ‘अगले दस मिनट तक मुझे कुछ नहीं चाहिये।’ क्या सब लोग ऐसा कर सकेंगे? क्या आप कह सकते हैं कि, ‘अगले दस मिनट तक मुझे कुछ नहीं चाहिये।’ नहीं, ज़ोर से कहने की कहने की ज़रूरत नहीं है (हंसी)। देखो, अगर तुम कहो कि, ‘ओह! मुझे एक गिलास पानी चाहिये। मैं प्यासा हूं।’ तो तुम्हारा मन फंसा हुआ है।

‘अगले दस मिनट के लिये मुझे कुछ नहीं चाहिये।’

हम सब अपने मोबाइल फ़ोन का लाल बटन दबा दें – ये ध्यान के लिये एक आवश्यक क्रिया है। तो अगले दस मिनट के लिये आप सभी यहां रहेंगे। आप बीच में उठ कर दूसरों के ध्यान में बाधा नहीं डालेंगे। तो, पहली बात है, ‘अगले दस मिनटों के लिये मुझे कुछ नहीं चाहिये।’

दूसरी आवश्यक बात है, ‘मैं कुछ नहीं करता हूं।’

हम तीन बार ॐ का उच्चारण करेंगे। ॐ एक स्पंदन है। पूरब के सभी धर्मों ने - बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सिख धर्म, टाओ धर्म, शिंटो धर्म, हिंदु धर्म – सभी ने ॐ को ध्यान में सुन कर धर्म में सम्मिलित किया है। तो, ये योग से जुड़ा हुआ है। हम तीन बार ॐ का उच्चारण करेंगे।

तीसरी बात है, ‘मैं कुछ नहीं हूं।’ अगर तुम सोचते हो कि तुम बहुत बुद्धिमान हो, तो ध्यान भूल जाओ। अगर तुम सोचते हो कि तुम बेवकूफ़ हो, तब भी ध्यान नहीं हो पायेगा। अगर तुम सोचते हो कि तुम अमीर हो तो...बाइबल की वो बात याद है कि अमीर लोग नहीं जा पायेंगे...क्या है? तो, अगर तुम सोचते हो कि तुम अमीर हो, तो तुम ध्यान नहीं कर पाओगे। अगर तुम सोचते हो कि तुम ग़रीब हो तब भी ध्यान नहीं कर पाओगे। अगर तुम सोचते हो कि तुम पापी हो तो ध्यान असंभव है। अगर तुम सोचते हो कि बहुत पवित्र हो, तब भी ध्यान नहीं होगा। तो, तुम्हें क्या होना चाहिये? ‘मैं कुछ नहीं हूं।’

मुझे कुछ नहीं चाहिये। मैं कुछ नहीं करता हूं। मैं कुछ नहीं हूं।
क्या हम ये तीन बातें कर पायेंगे? मैं बहुत बुद्धिमान नहीं हूं, मैं बहुत बड़ा बेवकूफ़ भी नहीं हूं। मैं ना अमीर हूं, ना ग़रीब हूं, ना पापी हूं, ना संत हूं। मैं कुछ भी नहीं हूं। ठीक है?

तो हम बस ये तीन बातें रखेंगे। इन्हें मन में बार बार दोहराना नहीं है। ये बस एक विचार है। ठीक है? विचार ऐसा ही होता है।

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"बिना किसी के प्रश्न पूछे जवाब ना दें"

योरोपियन बिज़नेस ग्रूप
इम्पीरियल होटल, नई दिल्ली
१० अगस्त २०१०


श्री श्री रवि शंकर : मैं खुद ही आपको अपना परिचय देता हूं...इजाज़त है? मैं एक बालक हूं जिसने बड़े होने से इंकार कर दिया है। (हंसी) ये हुआ एक वाक्य में मेरा परिचय। मैंने देखा है कि हर व्यक्ति में बालवत स्वभाव है पर वह भूतकाल के अनुभवों और भविष्य की चिंताओं के बोझ तले दब जाता है।

हमारा या जो भी व्यक्ति समाज का भला चाहता है उसका कार्य है इस कूड़े कचरे के बोझ को हटाना ताकि प्रकृति ने हमें जो स्वाभाविकता उपहार स्वरूप दी है वो खिल सके – सहजता, स्वाभाविकता, मानवीय गुण, करुणा, सदभाव, दोस्ती...। इन गुणों की खेती नहीं करनी पड़ती है। ये हम में हैं हीं, इन्हें केवल पुष्ट करना है और उजागर करना है। मैं इसे ही आध्यात्म कहूंगा।

देखो, हम सभी जड़ और चेतन से बने हैं। जड़ – अमीनो ऐसिड्ज़, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, इत्यादि। चेतन – प्रेम, करुणा, अपनापन, सब के साथ एक होना, अपने बारे में, अपने जीवन के बारे में, विश्व के बारे में एक बृहद दृष्टिकोण - ये सब चेतन का अंश है। और जिस भी चीज़ से चेतना और आध्यात्मिक गुणों का उत्थान हो उसे मैं आध्यात्मिकता कहता हूं। आप की क्या राय है? हां। ये कोई कर्मकाण्ड या विचारधारा नहीं है। ये उससे कहीं ज़्यादा है। ये एक अच्छे इंसान का सार तत्व है। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है जो अपने जीवन में सुख, प्रेम और करुणा ना चाहता हो। इस पैमाने से हर व्यक्ति आध्यात्मिक है, चाहे वो इसे पहचाने या ना पहचाने।

तो, आज की इस शाम की बात करें – मैं चाहूंगा के आप मुझ से प्रश्न पूछें। आप जानते हैं कि प्राचीन भारत की एक कहावत है, कि बुद्धिमत्ता का पहला चिह्न है कि व्यक्ति मौन रहे (हंसी) और यदि पहला चिह्न आप में खो गया है तो दूसरा चिह्न है कि, बिना किसी के प्रश्न पूछे जवाब ना दें (हंसी)। इसीलिये, हमारे सभी शास्त्र एक प्रश्न से शुरु होते हैं।

आप चाहे भगवद गीता लें, पुराण लें या रामायण लें – आप कोई भी प्राचीन शास्त्र देखें तो पायेंगे कि किसी ने एक प्रश्न पूछा और फिर किसी ने उसका समाधान किया। ये संभाषण एक गुरु शिष्य के बीच हो, या पति पत्नि के बीच हो, साधकों और संत के बीच हो – ये हमेशा प्रश्न उत्तर के रूप में ही होता है। आप को कैसी लगी ये बात?

प्रश्न : आप भारतीय राजनीति के नेतृत्व को सत्यपरायण कैसे बनायेंगे?

श्री श्री रवि शंकर :
किसी भी प्रश्न का एक ही जवाब होता है, पर कुछ प्रश्नों का जवाब नहीं देना चाहिये – उस प्रश्न को ही पथ बना लेना चाहिये। एक सड़क पर कई बार चला जा सकता है। उसी तरह ये प्रश्न हमें अलग अलग स्थितियों में बार बार पूछना होगा। कोई व्यक्ति सत्यपरायण क्यों नहीं होता है? एक अपनेपन के अभाव में। क्या आप जानते हैं कि भ्रष्टाचार अपनेपन के दायरे के बाहर से ही शुरु होता है?

कोई अपने परिवार के साथ भ्रष्टाचार नहीं करता है। इस दायरे को थोड़ा बढ़ा दो तो अपने प्रियजनों के साथ कोई भ्रष्टाचार नहीं किया जाता। अपने मित्रों से वे भ्रष्टाचार नहीं करते। पर जब अपनी मित्रता के दायरे के बाहर जब वे एक सीमा रेखा खींच लेते हैं और उन्हें लगता है कि केवल उस रेखा की भीतर जो लोग हैं वही उनके अपने हैं, उसके बाहर के लोगों से अपनापन नहीं होता, और तभी भ्रष्टाचार शुरु होता है। हमें लोगों को इस अपनेपन के दायरे को बढ़ाने की सीख देनी है।

भ्रष्टाचार का दूसरा कारण है असुरक्षा की भावना। जिन लोगों के मित्र नहीं होते हैं वे धन में सुरक्षा ढूढते हैं। अरे! वे ये जानते ही नहीं कि धन से उन्हें सुरक्षा नहीं मिलने वाली। अच्छे लोगों की संगति से उनके जीवन में सुरक्षा बढ़ेगी। आप को पता है अगर आप किसी स्कूली बच्चे से पूछें कि उसके कितने मित्र हैं, तो अपनी उंगलियों पर अपने मित्र गिन सकें, इतनी संख्या होगी – २, ३, ४, ५। फिर मैं उनसे पूछता हूं, ‘देखो तुम एक कक्षा में ५०-१०० बच्चों के साथ ५-८ घंटे रहते हो – क्या तुम उन सब से दोस्ती नहीं कर सकते हो?’ और स्कूल कालेज से बाहर निकल कर तुम १ बिलियन लोगों के साथ, विश्व के ६ बिलियन लोगों के साथ कैसे रहोगे?

तो, मित्रता के भाव ने हमारे बच्चों के भीतर घर नहीं किया है। फिर क्या होता है? असुरक्षा की भावना अपने भीतर आ जाती है। और इस असुरक्षा से निबटने के लिये वह व्यक्ति उपाय खोजता है, ‘ठीक है, मुझे अधिक धन कमाना चाहिये। कैसे भी कर के धन का संग्रह करो, भ्रष्ट बनो।’

तो, सब से पहले हमें राजनीति में आध्यात्मिक्ता, व्यापार में सामाजिक कार्य, और धर्म मंक सभी धर्मों के प्रति सम्मान का भाव लाना होगा। यदि हम ये तीन चीज़ें कर सके तो समाज बेहतेर होगा और हम एक बेहतर जीवन जी पायेंगे।

हर नेता को अपनी जाति और धर्म से आगे देखना चाहिये। उनकी दृष्टि में संपूर्ण मानवताअ के लिये स्थान होना चाहिये। एक हिंदु पुजारी को केवल हिंदुओं के लिये ही नहीं, समस्त मानवता के लिये प्रार्थना करनी चाहिये। इसी तरह, एक मुस्लिम इमाम और ईसाई पादरी को भी समस्त मानवता के लिये प्रार्थना करनी चाहिये, तभी हम धर्म के उद्देश्य को पूरा कर पायेंगे।

इसलिये, मैं कहूंगा कि सभी धर्मों का समान सम्मान हो, और व्यवसायों में सामाजिक कार्य जुड़ा हो। अगर हर व्यवसायिक संस्थान corporate social responsibility के तहत अपने मुनाफ़े का १, २, १०, या जो भी प्रतिशत, गांवों के विकास में लगायें तो मेरा यक़ीन मानो, इस ग्रह पर कहीं भुखमरी, बीमारी और निरक्षरता नहीं रह जायेगी। क्योंकि सरकारें अकेले ये कार्य नहीं कर सकती हैं। व्यवसायिक संस्थानों एवं ग़ैर सरकारी संगठनों के तालमेल से बहुत कुछ संभव है। इसलिये, व्यवसाय में सामाजिक कार्य जोड़ो, और राजनीति में आध्यात्मिकता लाओ। महात्मा गांधी के समय में अच्छे चरित्र की वजह से राजनेताओं का बहुत सम्मान था। आज की स्थिति उसके ठीक विपरीत हो गई है।

आप जानते हैंकि हमें राजनीति में आध्यात्मिकता लाने की आवश्यकता है। राजनेताओं को देश का ख़्याल होना चाहिये।
मैं अपने दादाजी के समय की एक कहानी सुनाना चाहूंगा। मेरे दादाजी जब महात्मा गांधी से मिले तो वे उनके साथ सेवाग्राम में २० साल रहे और उन्हें मेरी दादीजी का १०.५ किलो सोना दिया। मेरी दादी बहुत ही सुंदर थीं। उन दिनों महिलायें बहुत से सोने के आभूषण पहना करती थीं, किंतु मेरी दादी ने स्वेच्छा से अपने मंगलसूत्र को छोड़कर अनय सभी आभूषण देते हुये कहा, ‘मैं बच्चों की देखभाल करूंगी, आप जाकर देश की सेवा कीजिये।’ तो वो जाकर महात्मा गांधी के आश्रम में रहे।

आजकल देनें की भावना पर मान नहीं किया जाता है। अगर दान कर के व्यक्ति खुद को कृत्य कृत्य समझे तो बहुत फ़र्क आयेगा। दान पर गौरव, अहिंसा पर गौरव, ये दोनों ही आज की शिक्षा में शामिल नहीं हैं। अगर हम फ़िल्में देखें तो हीरो को गुस्सैल और अक्रामक दिखाया जाता है। जो शांत, सहनशील, दूसरा गाल भी आगे करने वाले व्यक्ति होते हैं, उन्हें हीरो नहीं समझा जाता। इन मूल्यों को बदलना होगा।

मैं अभी अभी अमरीका में था, और शिकागो में ज़िलों के स्कूली बच्चों के लिये एक कार्यक्रम था। वहां एक स्कूल था जहां पिछले साल २६८ अपराधिक कृत्य हुये थे। और जब हमने स्कूलों में ध्यान, प्राणायाम और मानवीय गुणों को सम्मिलित किया जैसे कि हर दिन एक नया दोस्त बनाओ, और करुणा करो – इससे अपराध की दर २६८ से गिर कर ६० पर आ गई। वे बड़े चकित थे, और स्कूलों के डिस्ट्रिक्ट काउंसिलर मेरा धन्यवाद करने के लिये आये। शिक्षा के क्षेत्र के ५० उच्चतम अफ़सरों ने कहा कि जो प्रक्रियायें हमने सिखाई हैं उनसे समुचित बदलाव आया है। नहीं तो, वहां के लोग सुरक्षित नहीं महसूस करते हैं – वे नहीं जानते कि कल क्या हो सकता है, उनका बच्चा बिना हड्डी पसली तुड़वाये, सही सलामत घर आयेगा कि नहीं।

हमें सुरक्षा की भावना को वापस लाना है – अपनेपन से, एक दूसरे की देखभाल से, बांटने से, और देने में गौरव अनुभव करने से।

प्रश्न : ‘जीवन जीने की कला’ से दान देने की कला – हमने सुना है कि जिन देशों को हम कम आध्यात्मिक समझते थे, वहां लोग दान अधिक देते हैं। हमने हाल ही में सुना है कि अमरीका में कुछ अरबपति अपनी ५०% संपत्ति सामाजिक विकास के लिये दे रहे हैं। क्या ऐसे अब भी ऐसे देश को कम आध्यात्मिक कह सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर
: मैं कहूंगा कि अमरीका बहुत ही आध्यात्मिक है। पिछले १० सालों में वहां आध्यात्मिकता में ५००% तरक्की हुई है। आप अगर कैलिफ़ोर्निया जायें तो पायेंगे कि वहां आध्यात्मिकता में, विशेषकर पूर्व से आई आध्यात्मिकता में बहुत बढ़ोतरी हुई है। भारत में ये बहुत पुरानी परंपरा रही है कि व्यापारियों द्वारा अस्पताल, धर्मशालायें, तालाब बनवाये जाते थे। व्यापारिक संगठन मंदिर बनवाते थे, ना कि सरकार।

भारत में अगर आध्यात्म अभी भी है तो वह व्यापारिक संगठनों की वजह से है, ना कि सरकार की वजह से। हां, कुछ सालों से दान देने में कमी आई है। ये आध्यात्म की कमी है। हो सकता है कि वे आध्यामिक गुणों में नीचे जा रहे हों।

हो सकता है कि कुछ स्थानों में लोग अधिक धार्मिक हो रहे हैं, पर आध्यात्मिक कम हो रहे हैं। ये भी एक कारण हो सकता है। पर आज भी अगर आप गांवों में जायें तो वहां के लोगों का मेल-जोल, मिल-बांट कर रहना अद्वितीय है। आप किसी भी गांव में जायें – यदि उनके पास एक ही गिलास लस्सी है तब भी वे आधा गिलास लस्सी आपको देंगे। वे बांट कर खाने के गुण को महत्ता देते हैं। गांवों में ऐसा है, पर शहरों में, जैसा कि आपने कहा, ये लुप्त होता जा रहा है। और, इसे वापस लाना है।

प्रश्न : मेरा प्रश्न है कि हम अपने कार्य को करने में जी जान से जुट जाते हैं, और उसके परिणाम से आसक्त हो जाते हैं। अगर परिणाम अच्छा हो तो हमें खुशी होती है पर यदि परिणाम अच्छा ना हो, तो अच्छे परिणाम में अपनी आसक्ति की वजह से हमें तनाव और दुख होता है। अपनी सीमित समझ के साथ मैं कहूंगा कि भगवद गीता में कहा है कि वैराग्य के साथ कर्म करो, पर अगर हम ऐसा करते हैं तो हो सकता है कि परिणाम अच्छा ना हो। इसका समाधान कैसे हो?

श्री श्री रवि शंकर :
हां, गीता की ये समझ कुछ फ़र्क है। असल में गीता से ये समझना है कि, ‘तुम मेहनत से काम करो, अपना १०० प्रतिशत दो, उद्देश्य को देखो, उद्देश्य को पूरा करने की ओर देखो, पर साथ ही श्रद्धा और विश्वास रखो, और विश्राम करो।’

आपको पता है कि कुछ भी पाने के लिये ३ तरह का विश्वास होना आवश्यक है? पहले तो, खुद पर विश्वास रखो, तब तुम्हें घबराहट नहीं होगी। ‘ये काम संभालना मेरे लिये सरल है। मैं ये कर सकता हूं।’ दूसरा, अपने आस पास के लोगों पर, समाज पर विश्वास रखो। अगर तुम जानो कि तुम्हारी टीम अच्छी है, और वे उद्देश्य की प्राप्ति कर ही लेंगे, या सामाजिक व्यवस्था सुचारू है और तुम्हारे साथ न्याय होगा। तुमने अगर अच्छा काम किया है तो तुम्हें अच्छा ही मिलेगा।

पर यदि आपको सामाजिक व्यवस्था पर विश्वास नहीं है, वह भ्रष्ट है इसलिये आप उस से पास नहीं हो पायेंगे। तो, हमें व्यवस्था पर विश्वास होना चाहिये। तीसरा विश्वास है उस उच्च शक्ति पर, परमात्मा पर जो करुणामय है, सब के लिये श्रेष्ठतम ही करता है। ये तीन प्रकार के विश्वास हमें चिंता से बचाते हैं। मैं कहूंगा, अपने लिये कुछ समय निकालो, विश्राम करो और पीछे मुड़ कर देखो कि पहले भी तुम कितनी बार तनावग्रस्त हुये थे, तुमने कुछ पराजयों का सामना किया था, और फिर प्राप्ति भी की थी। उसी तरह तुम अब भी प्राप्ति कर लोगे। इससे तुम्हें भीतरी शक्ति मिलती है, जिस की उस समय ख़ास आवश्यकता भी होती है।

ये एक सेलफ़ोन के जैसा है। सेलफ़ोन के लिये आपको एक सिम कार्ड चाहिये, ठीक है ना? और बैटरी भी चार्ज होनी चाहिये, और नियंत्रक टावर से नज़दीकी भी होनी चाहिये (हंसी)। रेंज के भीतर होना चाहिये। इन में से एक की भी कमी रह जाये तो आप फ़ोन मिलाते रहिये, हेलो कहते रहिये, पर कोई जवाब नहीं आयेगा।

प्रश्न : आध्यात्म की लगन को जैसे जागृत रखें, उसे दैनिक दिनचर्या में बुझने से कैसे बचायें? बिना अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह मोड़े अपने आप में आध्यात्म को कैसे जागृत रखें? एक आत्मज्ञानी होने के नाते से आप हमें क्या सलाह देंगे? आपने जो कहा, मुझे बहुत सुंदर लगा – खुशियां बांटों, स्वाभाविक, सादा जीवन, और दान।

श्री श्री रवि शंकर :
मैं तुम्हें तीन सलाह दूंगा। पहली तो ये कि अपने साथ कुछ १०-१५ मिनट बिताओ – तुम्हें क्या चाहिये? ये जीवन क्या है? मैं ५०-६० साल पहले कहां था और आने वाले ५० सालों में कहां हो‍ऊंगा? मैं कहां से आया हूं? मैं क्या हूं?

तुरंत ही किसी जवाब की तलाश में मत रहो। खुद से ये प्रश्न करना कि, ‘जीवन क्या है?’ भी चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाता है। इसे मैं ज्ञान कहता हूं। कुछ समय ज्ञान के साथ रहते हुये तुम कुछ किताबें पढ़ सकते हो जैसे कि योग वाशिष्ठ, अष्टावक्र गीता, या भगवद गीता। किसी भी अच्छे ज्ञान की किताब से कुछ पंक्तियां पढ़ो। और फिर १०-१५ मिनट का ध्यान करो।

अब हम सब थोड़ी देर के लिये ध्यान करेंगे।

एक १०-१५ मिनट के ध्यान से ही तुम में इतनी स्फूर्ति आ जायेगी की दिमाग़ और शरीर तरोताज़ा हो जायेगा। बहुत बढ़िया!

और तीसरी बात – कुछ सेवा कार्य करो। अपनी दिनचर्या से हट कर किसी के भी लिये कुछ सेवा कार्य करो। चित्रकला या संगीत के साथ कुछ समय बिताओ। ये तीनों चीज़ें करने से तुम्हें पूर्णता का अनुभव होगा और तुम तनाव से दूर रहोगे।

पिछले महीने तुमने News 24 चैनेल पर एक कार्यक्रम देखा होगा जिसमें महाराष्ट्र में नान्देद के पास काठियावाड गांव के बारे में बताया गया था। हमारे एक शिक्षक वहां गये, और तीन महीने उस गांव में रहे। उन्होंने पूरे गांव का कायापलट कर दिया। ७०० परिवार!

इस गांव में सभी ने अपने दरवाज़ों से ताले हटा दिये हैं। और वहां एक दुकान है जहां कोई दुकानदार नहीं है। लोग सामान लेते हैं और एक डिब्बे में पैसे डाल देते हैं। वह गांव बहुत ही स्वालंबी है। गांव में सभी ने जैविक खेती को अपनाया है।

रोज़ सभी लोग मिलकर सत्संग में गाते हैं। जाति पाति की सभी ताख्तियां हटा दी हैं। और यहां इस देश में फिर से जाति को राष्ट्रीय जनगणना में शामिल करने की बात हो रही है! इस गांव में सबसे पहले उन्होंने जाति की तख्तियां हटा दी – दलित, क्षत्रिय, ब्राहमण – सभी तख्तियां हटा दी।

भारत सरकार ने भी उस गांव को पुरुस्कृत किया। ये गांव अपराध-मुक्त है। ये गांव पहले बहुत ही बदनाम हुआ करता था, यहां अपराध के बहुत वाक्ये होते थे। आज, तीन सालो में ये गांव एक स्वालंबी गांव है। सभी के पास पानी है, सड़के हैं, हर घर में शौचालय है, और धूम्ररहित चूल्हे हैं। बहुत ही सत्यपरायण गांव है। इस गांव से ११८ गांवों ने प्रेरणा ली है।

इस गांव में एक भी व्यक्ति शराब-तंबाकू का नशा नहीं करता है। सभी ने शराब, तंबाकू, और नशीली ड्रग्ज़ को छोड़ दिया। इससे शिक्षकों और कार्यकर्ताओं में नई स्फूर्ति आ गई। महात्मा गांधी ने जिस रामराज्य का सपना देखा था, वो संभव है। जहां कोई डकैती ना हो, अपराध ना हो – आज ये संभव है। आप इस गांव के बारे में यूट्यूब में देख सकते हैं।

मेरी इच्छा है कि हम ऐसा कई गांवों में करें - अगर विभिन्न कौरपोरेट कंपनियां १०-१० गांव की ज़िम्मेदारी ले लें। इसमें ज़्यादा खर्च नहीं है। ये सिर्फ़ लोगों को शिक्षित करने की बात है, जागरूक करने की बात है साफ़ सफ़ाई के बारे में। अब वहां हर घर गुलाबी रंग का है।

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"प्रेम की मांग करने से प्रेम मर जाता है"

१४ अगस्त, २०१०, पेनांग, मलेशिया

प्रश्न : मैं इस साल की शुरुवात से ही आर्ट आफ़ लिविंग के साथ जुड़ी हूं, और मेरे स्वास्थ्य में इससे बहुत सुधार आया है। मैं इन प्रक्रियाओं को करने के बाद बहुत अच्छा महसूस करती हूं। मुझे पांच साल पहले ब्रेस्ट कैंसर हुआ था, पर मैंने पूरी तरह से अपना इलाज कर लिया है।

श्री श्री रवि शंकर
: तुम्हें पता है कि शोध ये मालूम हुआ है कि हमारे शरीर में ३०० जीन्ज़ हैं जो कि हृदय रोग, कैंसर, मधुमेह इत्यादि के लिये ज़िम्मेदार होते हैं। जब हम सुदर्शन क्रिया और प्राणायाम करते हैं तो इन जीन्ज़ को बीमारियों पैदा करने से रोका जाता है। वैज्ञानिक लोग शोध से इस निष्कर्ष पर आये हैं। यहां आने से पहले मैंने एक लेख देखा जिसे किसी ने मुझे भेजा था – न्यू यार्क के एक अस्पताल में ॐ का उच्चारण करने की सलाह दी जाती है। हृदय रोग के इलाज से पहले वे आपसे ॐ का उच्चारण करवाते हैं, ध्यान और विश्राम करवाते हैं।


प्रश्न : ग्लोबल वार्मिंग एक बहुत ही गंभीर समस्या हो गई है। सभी जगह प्राकृतिक आपदायें हो रही हैं। इस ग्रह के निवासी होने के कारण हमें क्या करना चाहिये? लोगों को त्रासदियों से परेशान देखकर मुझे दुख होता है। मैं क्या योगदान कर सकता हूं?

श्री श्री रवि शंकर :
हमें जागरूकता बढ़ानी है। आर्ट आफ़ लिविंग के साथ जुड़ जाओ। हम हर रोज़ कहीं ना कहीं पेड़ लगाते हैं। ग्लोबल वार्मिंग की रोकथाम के लिये और अधिक लोगों को शाकाहारी बनने की आवश्यकता है। कहते हैं कि अगर विश्व की १०% जनसंख्या भी शाकाहारी हो जाये तो ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पूरी तरह हल हो जायेगी। जानवरों के कत्लख़ानों से उपजी मीथेन गैस ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने में एक अहम्‍ भूमिका निभाती है। एक पाउंड मांस के उत्पादन में जितना धन आउर ऊर्जा खर्च होती है, उतने में तो ४०० लोगों को शाकाहारी भोजन खिलाया जा सकता है! तो, अधिक लोगों को शाकाहारी बन जाना चाहिये, इससे पर्यावरण में सुधार आयेगा।

प्रश्न : रिश्तों को स्वस्थ रखने का क्या उपाय है?

श्री श्री रवि शंकर :
मुझे इस क्षेत्र का अनुभव नहीं है! (हंसी) फिर भी मैं कुछ सलाह दे सकता हूं।

पहली सलाह है महिलाओं के लिये – कभी भी अपने आदमी के अहं को ठेस मत पहुंचाना। हमेशा उसका उत्साह बढ़ाओ, अहं को सहारा दो। चाहे पूरी दुनिया उसे नाकारा कहे, तुम ऐसा मत कहना! तुम उससे कहना कि उसके पास विश्व का श्रेष्ठतम दिमाग है – वो उसका प्रयोग नहीं करता है इसका मतलब ये नहीं है कि उसके पास वो दिमाग नहीं है! तुम्हें हमेशा कहना चाहिये कि वो सर्वश्रेष्ठ आदमी है। हमेशा उसके अहं का पोषण करो। अगर तुम उसे नाकारा कहोगी तो वो सचमुच ऐसा ही हो जायेगा।

अब एक सलाह है पुरुषों के लिये – कभी भी स्त्री की भावनाओं को ठेस मत पंहुचाना। हां, वो कभी कभी अपने घरवालोंके बार में शिकायत कर सकती है, अपने भाई के बारे में, अपने पिता या मां के बारे में, पर तुम कभी उसकी बात से सहमति मत जताना। अगर तुमने उसकी बात से सहमति जताई तो वह पलट कर तुम्हें ही बुरा भला कहेगी। कभी भी उसके परिवार की बेइज़्ज़ती मत करना। उसे कभी भी ख़रीददारी करने से या किसी आध्यात्मिक कार्यक्रम में जाने से मत रोकना। अगर वो ख़रीददारी करने जाना चाहे तो उसे अपना क्रेडिट कार्ड दे देना।

अब एक सलाह, दोनों के लिये – कभी भी एक दूसरे से प्रेम का प्रमाण मत मांगना। ये मत पूछना, ‘क्या तुम मुझे सचमुच प्रेम करते हो? तुम मुझे पहले जैसा प्रेम नहीं करते।’ अपने प्रेम को प्रमाणित करना बहुत बोझिल कार्य है। अगर कोई तुम से कहे कि अपने प्रेम को प्रमाणित करो तो तुम कहोगे, ‘हे भगवान! मैं इस व्यक्ति को कैसे बताऊं?’ हर काम कुछ ख़ास अदाज़ में और मुस्कुराते हुये करो।

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"सदभाव कहीं बाहर से नहीं लाया जा सकता है, इसे भीतर से ही लाना है"

प्रेस मीटिंग, दोपहर १२.०० बजे, १३ अगस्त २०१०, मलेशिया

प्रश्न : आप ११ साल बाद मलेशिया आये हैं। इस बार मलेशिया आने की कोई ख़ास वजह है?

श्री श्री रवि शंकर :
यहां के उन लोगों का प्रेम जो कि इतने सालों से भारत आते रहे हैं...मैंने उनसे वादा किया था कि मैं इस साल अवश्य ही मलेशिया आऊंगा, और मुझे अपना वादा पूरा करना था।

प्रश्न : क्या आपको इतने सालों के बाद मलेशिया में कुछ फ़र्क दिख रहा है?

श्री श्री रवि शंकर :
बहुत फ़र्क है...बुनियादी सुविधाओं में विकास हुआ है...बाकी का अभी मुझे देखना बाक़ी है, मैं कल रात ही तो आया हूं। अभी तो आया हूं, एक ही रात में कोई विचार नहीं बना सकता! आज मैं लोगों से मिलूंगा, और कल से पेनांग में विश्व के दक्षिण पूर्वी भाग से आये सभी शिक्षकों के साथ एक चार दिवसीय कार्यशाला होगी, तथा मौन, ध्यान और साधना होगी। हां, मलेशिया से कई लोग नियमित रूप से हमारे बैंगलोर स्थित आश्रम में आते रहे हैं। मैं उनसे योरोप और अमरीका में भी मिलता रहता हूं, और वे हमेशा पूछते रहते हैं, ‘आप कुआला लंपुर कब आयेंगे? मलेशिया कब आयेंगे?’ तो, इस बार मैंने समय निकाल ही लिया!

प्रश्न : आप तो हमेशा विश्व भ्रमण करते रहते हैं। विश्व में हो रहे बदलाव को आप किस नज़र से देखते हैं?

श्री श्री रवि शंकर
: आप जानते हैं, विश्व का मतलब ही बदलाव है। कुछ बदलाव लाभदायक सिद्ध हुये हैं और कुछ विघटनशाली हैं। आप देखें तो पायेंगे कि मानवीय गुणों में विघटन आया है, तनाव बढ़ रहा है, प्रदूषण और पर्यावरण की समस्यायें हैं, परिवार छोटे-छोटे परिवारों में विभाजित होते जा रहे हैं, आर्थिक रूप से असुरक्षा बढ़ी है, विश्व के बाज़ार के विघटन से लोगों को बहुत फ़र्क पड़ा है। पर साथ ही बहुत से सकरात्मक विकास कार्य भी हुये हैं। लोग पर्यावरण के प्रति जागरूक हो गये हैं, करुणा बढ़ी है, लोग विनाश से त्रस्त लोगों की मदद करने के लिये आगे आ रहे हैं। तो, आप देख सकते हैं कि दोनों ही तरह के बदलाव हो रहे हैं। आवश्यकता है समाज में सकरात्मकता को बढ़ावा देने की और तनाव को कम करने की। और ऐसा संभव करने के लिये ये श्वांस प्रक्रियायें आवश्यक हैं। इससे लोगों में अपनापन बढ़ता है, विभिन्न संप्रदायों में, तथा विभिन्न उम्र के लोगों में एक जुड़ाव आता है।

प्रश्न : गुरुजी, हम पत्रकार बहुत तनाव का सामना करते हैं। हमें खबरे एकत्र कर के रिपोर्ट कर के लेख लिखने पड़ते हैं। ध्यान करने का समय नहीं है। ध्यान के अलावा कोई विधि है जिस से हम उस तनाव से निबट सकें जो कि अपने कंप्यूटर के सामने होने पर या अपने बौस की वजह से हमें होता है?

श्री श्री रवि शंकर :
कुछ लंबी गहरी सांसें! आप ये नहीं कह सकते कि आपके पास सांस लेने का समय नहीं है! कुछ सांसें लो और ये जान लो कि उस परेशानी से निबटने की क्षमता तुम में है। ये भरोसा रखो कि, ‘मुझ में किसी भी समस्या से निबटने की क्षमता है। मैं तनाव से निबट सकता हूं। मुझ में ये क्षमता है।’ इस से स्वयं में विश्वास जागृत होगा।

प्रश्न : आप खुद को तनाव से मुक्त कैसे करते हैं? आप तो हर समय ही व्यस्त रहते हैं...

श्री श्री रवि शंकर
: मैं तनाव को अपने भीतर ही नहीं आने देता हूं! तनाव से मुक्त होने के लिये पहले तनाव को भीतर लेना होना, है कि नहीं? मैं उसे वही से फ़िल्टर कर देता हूं।

प्रश्न : ये आप कैसे करते हैं?

श्री श्री रवि शंकर
: ये अभ्यास से होता है, साथ ही एक बृहद दृष्टिकोण से कि सब काम ठीक तरह से हो जायेगा। देखो, हमारे पास कुछ ही समय होता है और बहुत से काम रहते हैं। इतना कुछ हम ऊर्जा के निम्न स्तर से कैसे कर सकते हैं? तो, हमें अपनी ऊर्जा को बढ़ाना होगा, कार्य को कुशलता से करना होगा, समय का ठीक उपयोग करना होगा। इस सब के लिये हम आर्ट आफ़ लिविंग के कोर्स सिखाते हैं। ये कोर्स इन तीनों ही आयामों में मदद करता है। ये आपके जीवन काल में उत्कृष्ठ गुणवत्ता जगाता है और आपकी ऊर्जा के स्तर को बढ़ाता है, अंतर्ज्ञान को बढ़ाता है।

प्रश्न : आप विश्व भ्रमण में इतने व्यस्त रहते हुये भी अपने स्वास्थ्य को कैसे बनाये रखते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
मैं चिंता नहीं करता हूं! मैं बिल्कुल चिंता नहीं करता। और जब आप उच्च ऊर्जा के क्षेत्र में होते हैं, और सब खुश रहते हैं, और आप अपनी ऊर्जा के स्तोत्र से जुड़े होते हैं तो आप एक कठिन दिनचर्या भी संभाल सकते हैं।

प्रश्न : क्या आपका भोजन कुछ विशेष होता है, और क्या आप व्यायाम करते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
मैं २० मिनट व्यायाम करता हूं और शाकाहारी भोजन लेता हूं।

प्रश्न : आपके इतने सारे अनुनायी क्यों हैं? क्या वे इसलिये आपके अनुनायी है क्योंकि आप एक गुरु हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
ये तो आप को उनसे ही पूछना होगा! उन सब के पास अलग अलग कारण हो सकते हैं – मैं उनकी तरफ़ से नहीं बोल सकता हूं। एक चीज़ मैं देखता हूं कि लोग इतने प्रसन्न और कृतज्ञ हो जाते हैं कि वे अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये आते हैं। दुनिया में बहुतों की कायापलट हो रही है। लाखों लोग अपने निजी जीवन में, कामकाजी जीवन में, सामाजिक जीवन में सकरात्मक रूप से बदल रहे हैं। दुनिया में कई जगह ये कोर्स हो रहे हैं – विद्यालयों में, कारागृहों में, और व्यवसायिक क्षेत्र में भी...। और समाज के ग़रीब तबके में, हम उन्हें शिक्षित करते हैं, स्वालंबी बनाते हैं, उनका आत्मविश्वास बढ़ाते हैं।

प्रश्न : आपने लोगों में आ रहे बदलाव के बारे में बताया। क्या ये बदलाव आपका अनुनायी बनने से आता है या वे खुद ही बदल जाते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
मैं श्रेय लेने में आगे रहता हूं!
मुझे लगता है कि सभी में क्षमतायें होती हैं, उन्हें बस ज़रा से मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिये मैंने विभिन्न कोर्स बनाये हैं। बच्चों के लिये कोर्स बनाये हैं कि वे तनाव मुक्त हो सकें। हाल ही में शिकागो में एक कौन्फ़रेंस में शिक्षा के क्षेत्र के विशेषज्ञ आये थे और वे अपने अनुभव बांट रहे थे कि कैसे एक ज़िले के विद्यालयों में ये कोर्स करने के छः महीने बाद बहुत बदलाव आया है। उनमें से एक बड़ा ही विकट शहरी विद्यालय था जिसमें ड्रौपाउट दर और अपराध की दर घट गयी थी। कोर्स से पहले अपराध दर २६८ थी जो कि कोर्स के छः महीने बाद घट कर ६० हो गयी! इस से ये स्पष्ट है कि बच्चों को अहिंसक तौर तरीके सिखाये जा सकते हैं।

प्रश्न : मनुष्य ऐसी स्थिति में रहते हैं जहां सब कुछ उनके नियंत्रण में नहीं होता है। विश्राम करना, ध्यान करना, या लंबी गहरी सांसें लेना भी उनके लिये संभव नहीं हो पाता है। क्या जीवन को सुचारू रूप से चलाने का और कोई तरीका है?

श्री श्री रवि शंकर :
एक कहावत है कि तुम युद्धक्षेत्र में जाकर तीरंदाज़ी सीखना शुरु नहीं कर सकते हो। तुम्हें युद्ध की स्थिति आने से पहले ही तीरंदाज़ी सीखनी होगी। तो उस क्षण में जब तुम तनाव महसूस करते हो तो तुम कुछ नहीं कर पाते हो, पर उस स्थिति में आने से पहले कुछ ऐसा करो कि तनाव की वो स्थिति आने ही ना पाये। ‘तुम मंच पर जाकर कोई नई ताल नहीं सीख सकते हो,’ हांलाकि मैं इस कहावत को नहीं मानता असल में कुछ भी असंभव नहीं है।

मैं कहूंगा कि अपने बर्ताव को बदलो, अपने खान पान को बदलो, और जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलो, अपनी बातचीत की शैली को बदलो, आलोचना से निबटने की क्षमता जगाओ... मोटे तौर पर, जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने से बहुत फ़र्क पड़ता है। परमात्मा से निकटता महसूस करने से तुम्हारी कार्यक्षमता बढ़ जाती है।

तो, मैं तुम्हें कई प्रक्रियायें दूंगा, जिन्हें तुम कर सकते हो – सिर की मालिश, आंखों का व्यायाम, सही भोजन, पैदल घूमने जाना, सूर्यास्त को देखना...शायद कुआला लंपुर में इन ऊंची इमारतों की वजह से सूर्यास्त देखना संभव नहीं हो! प्रकृति के साथ रहें। अफ़सोस है कि आमतौर पर हम बस सोफ़े पर बैठ कर टेलिविज़न देखते हैं, और तुरंता भोजन खाते हैं। इस का असर समाज में नज़र आ रहा है। हमें एक स्वस्थ समाज बनाने के लिये अपनी आदतों को बदलना होगा।

प्रश्न : आपको किन चीज़ों से प्रसन्नता होती है?

श्री श्री रवि शंकर :
जब हर आंसू एक मुस्कुराहट में परिवर्तित हो जाता है तो मुझे प्रसन्नता होती है। और ऐसा हर समय होता रहता है।

प्रश्न : हम जानते हैं कि प्रेम से हम एक बुरे व्यक्ति को अच्छा व्यक्ति बना सकते हैं, बुरी आदतों को सुधार सकते हैं। पर हम प्रेम से अपराधियों और माफ़िया के लोगों को कैसे सुधार सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
ओह! हमारे पास इसके कई उदाहरण हैं! आप जानते हैं कि हम कारागृहों में कोर्स कराते हैं। हर अपराधी के भीतर एक प्रताणित व्यक्ति मदद के लिये पुकार रहा होता है। तो गर आप उस प्रताणित व्यक्ति को चंगा कर दें तो अपराधी ग़ायब हो जाता है। ये हम एक बहुत बृहद स्तर पर कर रहे हैं। विभिन्न सामाजिक मान्यताओं वाले इस देश मलेशिया में एक अपनेपन के भाव का जागृत होना बहुत आवश्यक है। सभी को सदभाव के साथ रहना है। सदभाव कहीं बाहर से नहीं लाया जा सकता है, इसे भीतर से ही लाना है। ये भीतरी सदभाव और सौहार्द तभी आता है हब हम तनाव से मुक्त हो और जीवन के प्रति एक बृहद दृष्टिकोण रखते हों।

प्रश्न : सुदर्शन क्रिया से बीमारियों से लड़ने में क्या मदद मिलती है?

श्री श्री रवि शंकर
: सुदर्शन क्रिया से कई बीमारियों की रोकथाम हो जाती है। ओस्लो यूनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर जो कि जीन्ज़ पर काम कर रहे हैं, कहते हैं कि हाइपर्टेंशन और कैंसर इत्यादि को बढ़ावा देने वाले ३०० क्रोमोज़ोम, प्राणायाम और सुदर्शन क्रिया की वजह से उन बीमारियों को बढ़ावा नहीं दे पाते हैं। तो, अगर कोई व्यक्ति नियमित रूप से इनका अभ्यास करता रहे तो इन बीमारियों के होने की संभावना घटती जाती है।

प्रश्न : हम प्रेम की शक्ति का प्रयोग कर के प्राकृतिक प्रकोपों को कैसे रोक सकते हैं या शांत कर सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
ये धीरे धीरे होगा। अगर तुम पेड़ पौधों से और अधिक प्रेम करने लगो तो इसका प्रभाव ज़रूर होगा। तुम जानते हो कि खनन कार्यों से हमने सबसे बड़ी विनाशकारी समस्या बना रखी है। हम पृथ्वी के अंदरूनी भाग पर बमबारी करते हैं। पृथ्वी जीवंत है, जड़ नहीं। तो जब हम हम उसके पेट में बम फोड़ते हैं तो उस में कंपन होता है, और अधिक भूकंप आते हैं। प्राकृतिक आपदाओं का एक बहुत बड़ा कारण ये खनन कार्य हैं। दूसरा कारण है पेड़ों को काटना। पेड़ लगाने के प्रति तो जागरूकता हुई है, पर खनन कार्यों में बमबारी से हो रही हानि के प्रति लोग चुप हैं। हमें इसे संभालना हैं।

प्रश्न : विकास कार्यों में और धरती को बचाने में समतुलना कैसे लाई जाये?

श्री श्री रवि शंकर:
साइकिल पर अपना संतुलन कैसे बनाते हो? उसी तरह! प्राचीन भारत में एक प्रथा थी कि यदि आप को एक पेड़ काटना पड़े तो उसे काटने से पहले एक प्रणाली अपनाई जाती थी, जिसमें उस पेड़ से वादा किया जाता था कि ५ नयें पेड़ लगाये जायेंगे, तदुपरान्त ही उस पेड़ से उसे काटने की अनुमति मांगी जाती थी। ये पेड़ से बात करने जैसा था।

आदिवासी इलाकों में लोग पर्यावरण की बहुत देखभाल करते थे। वे पहाड़ों, नदियों, पेड़ों को पूजनीय मानते थे। पूजा के भाव से प्रकृति का सम्मान करने लगते हैं, और उसकी देखभाल करते हैं। नेटिव अमरीकन प्रकृति को पूजनीय मानते थे और वे कभी बमबारी से धरती को नहीं फोड़ सकते थे।

प्रश्न : योग और सुदर्शन क्रिया में क्या अंतर है?

श्री श्री रवि शंकर :
अफ़सोस है कि योग को केवल शारीरिक व्यायाम तक ही सीमित समझा गया है। उसके आगे आती है सांस, और फिर आता है मन। ऊर्जा के भीतरी स्तोत्र तक पंहुचना बहुत आवश्यक है। ध्यान के बिना योगासन पूर्ण नहीं हैं। सुदर्शन क्रिया तुम्हें गहरे ध्यान में ले जाती है जहां शरीर, सांस और मन एक ही ताल में आकर अपने भीतरी स्तोत्र से जुड़ जाते हैं।

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"हमें जाग कर देखना ये है कि ये ग्रह हमारा घर है"

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प्रश्न : गुरुजी, मैं एक साल का संकल्प लेने की क्षमता नहीं रखती हूं। मैं क्या करूं?

श्री श्री रवि शंकर :
क्षमता नहीं रखती हो? एक एक दिन कर के चलो। तुम एक दिन के लिये एक संकल्प ले सकती हो, तो इतना काफ़ी है। हरेक दिन तुम ऐसा कर सकती हो। ये मत सोचो, ‘हे भगवान! एक साल तक मुझे ये करना है!’ आज मैं कर रही हूं – ये अच्छा है। कल मैं करूंगी – ये अच्छा है।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, मैंने बहुत प्रार्थना की थी कि आप इस हफ़्ते यहां आयें। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। मैं बहुत आभारी हूं। प्रार्थनाओं के बारे में हमें कुछ बताइये।

श्री श्री रवि शंकर :
जब तुम बहुत अभारी महसूस करते हो या एकदम लाचार महसूस करते हो, तब प्रार्थना का जन्म होता है। प्रार्थना के उदय होने का तीसरा कारण है, जब तुम ज्ञान में स्थित होते हो। तब तुम देखते हो कि चेतना का विस्तार हुआ है, तुम चेतना के एक नये आयाम तक पंहुचे हो, जो कि पूर्णता लिये हुये है और अंतर्ज्ञान, ज्ञान और प्रेम से भरा हुआ है।

प्रश्न : कृपया रिश्तों के बारे में बताइये – कई बार ये इतने मुश्किल क्यों हो जाते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
तुम्हें एक बार फिर ‘Celebrating Love’ पुस्तक पढ़नी चाहिये। तुम्हें क्या लगता है कि रिश्तों में मुश्किलें क्यों आती हैं?

प्रश्न : मुझे अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करना नहीं आता है। चूंकि मैं अपनी भावनाओं को छुपाने का प्रयास करता हूं, मुझे तनाव हो जाता है। मुझे नहीं पता कि मैं इस स्थिति से कैसे निबटूं। क्या आपके निर्देशों के अनुसार ध्यान करने पर भी मन को ख़ाली करना मुश्किल है?

श्री श्री रवि शंकर :
अगर तुम्हें बहुत विचार आते हैं, तो इसके कुछ कारण हैं। एक कारण तो ये है कि अगर तुम्हारा पेट साफ़ ना हो, पेट ख़राब हो, कब्ज़ियत हो, तो मन में बहुत विचार आते हैं। अगर शरीर में रक्त संचार सुचारू रूप से नहीं हो रहा है, तब भी विचार बहुत आते हैं। है ना? तो, योगासन और प्राणायाम से तुम्हें मदद मिलेगी। सही आहार से मदद मिलेगी। किसी आयुर्वेदिक डौक्टर को देखाओ। वो बतायेगा यदि तुम्हारे शरीर में पित्त अधिक है तो तदनुसार उपयुक्त भोजन से मदद मिलेगी।

प्रश्न : ऐसे लोगों के साथ कैसे काम करूं जिनमें अक्रामकता, ईर्ष्या तथा असंतुलन जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियां हो?

श्री श्री रवि शंकर :
कुशलता से। उनके बर्ताव पर प्रतिक्रिया करते हुये करुणा का प्रयोग करो और देखो कि तुम उनके साथ कैसे काम कर सकते हो। हां? इससे पहली बात तो ये होगी कि तुम्हारी कुशलता बढ़ेगी। दूसरे ये कि तुम्हारा धैर्य बढ़ेगा। तीसरी बात ये है तुम ये जान जाओगे कि व्ह व्यक्ति हर समय ईर्ष्यालु या गुस्से मेम नहीं होता है। वह भी बदलता है! तुम ये देख कर अचरज करोगे कि कैसे लोग बदलते हैं।

प्रश्न : बच्चे जैसे बन जाना और ज़िम्मेदारी लेना, इन दोनों बातों में क्या साम्य है?

श्री श्री रवि शंकर :
तुम ज़िम्मेदारी लेते हो, ये एक बात हुई। बच्चे जैसा होने से ज़िम्मेदारी लेने में कोई ख़लल नहीं पड़ता है। बल्कि इससे तुम्हें ज़िम्मेदारी लेने में मदद ही मिलती है।

बचकाना होने में और बालवत होने में क्या अंतर है? बचकानेपन में तुम ज़िम्मेदारी नहीं लेते हो! बालवत होकर ज़िम्मेदारी लेते हो, तुम स्वाभाविक रहते हो, सबसे तालमेल में रहते हो, सबकी प्रतिक्रिया मांगते हो, और अगर कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया हो तो तुम उस आलोचना से परेशान नहीं हो जाते हो। हमें आलोचना का सामना करना चाहिये। अगर आलोचना सार्थक है तो उसे स्वीकार करो, और अगर वह निरर्थक है तो बिना अपना आपा खोये उसे नज़रंदाज़ कर दो।

प्रश्न : ये कितना आवश्यक है कि हम इस ग्रह के लिये काम करें? हम क्या कर सकते हैं? हम इसे कैसे बनाये रख सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर
: हमें इस ओर जागरूक होना है कि यह ग्रह हमारा घर है। जब आप ऊपर जाते हैं तो आप विभाजन रेखायें नहीं देखते हैं। विभाजन रेखायें हमारी समझ की सीमा है, हमारा भ्रम है। असलियत में कोई विभाजन रेखा नहीं है। आकाश कोई विभाजन रेखा नहीं जानता। बादल कोई सीमा नहीं जानते। हवा कोई सीमा नहीं जानती है। इस पृथ्वी के पंचतत्व, विभाजन रेखायें नहीं जानते हैं। ये ग्रह सभी का घर है। हम सब एक ही परिवार हैं, इसलिये हमें बृहद दृष्टिकोण रखने की आवश्यकता है। सही दृष्टिकोण क्या है? ये कि ये पूरा ग्रह हमारा है।

हम अपना पणमाणु कचरा किसी और स्थान पर नहीं फेंक सकते हैं। दुनिया में कोई भी स्थान हो, पर वह वापस हमारे पास ही पहुंचेगा! हम किसी एक स्थान को सीमाबद्ध कर के साफ़ सुथरा नहीं बनाये रख सकते हैं। ऐसा संभव ही नहीं है। हमे पूरे ग्रह की ही देखभाल करनी है। हमें पूरी दुनिया को जैविक खेती की ओर ले जाना है। जब भोजन या अन्न उगाने की बात हो तो आप ये नहीं कह सकते हैं कि, ‘ठीक है, मैं केवल यहां ही जैविक खेती करूंगा, बाकी दुनिया में रसायनों से प्रदूषण होने दो!’ क्योंकि, हवा से प्रदूषण तो सभी जगह पहुंचने वाला है! हमने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर के बहुत से वाइरसों को जन्म दिया है। हमने पृथ्वी पर कई जीव लुप्त कर दिये हैं। हमने पृथ्वी की देखभाल नहीं की है, जिसकी वजह से भोजन का उत्पादन बहुत कम हो गया है। आने वाली पीढ़ी को इस से बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

मुझे लगता है कि इस ग्रह पर हरेक व्यक्ति को पृथ्वी को प्रदूषण से मुक्त करने की, पृथ्वी को बनाये रखते हुये विकास करने की, जलाशयों और जल के संरक्षण की तथा और अधिक वृक्ष लगाने की ज़िम्मेदारी लेनी होगी। ये बहुत आवश्यक है!

विश्व की एक और बड़ी समस्या है जल की कमी। लाखों लोग भुखमरी की कगार पर हैं! हमें पूरे विश्व पर दृष्टि रखते हुये पूरे विश्व का ही ध्यान रखना चाहिये। हां, हमें अपने घर, अपने आस पड़ोस, जिस जगह हम रहते हैं, उसका तो ख़्याल रखना ही है। ये सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, पर साथ ही हमें ये ध्यान रखना चाहिये कि इस ग्रह पर हर कोई एक ही परिवार का अंग है।

प्रश्न : क्या ये संभव है कि हम प्रेम भी करें और भीतर से मज़बूत भी रहें, प्रेम भी करें और तर्कसंगत भी रहें, प्रेम भी करें और वैराग्य में भी रहें, प्रेम भी करें और ईर्ष्या और परिग्रह से दूर भी रहें?

श्री श्री रवि शंकर : यक़ीनन। अगर ज्ञान है, तो ये संभव है कि तुम प्रेम भी करो और इन नकरात्मक भावों से दूर भी रहो। ज्ञान के साथ प्रेम का होना आनंदमय है। अगर प्रेम के साथ ज्ञान ना हो, तो वो सब होता है जो तुमने अभी कहा – ईर्ष्या, लालच, इत्यादि।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, क्या आप मेरा मार्गदर्श्न करेंगे – मैं जिस व्यक्ति से एक साल से प्रेम करती आई हूं, क्या वो मेरे लिये सही व्यक्ति है?

श्री श्री रवि शंकर :
तुम किसी से गहरा प्रेम करती हो तो वह व्यक्ति अभी के लिये ठीक ही होगा। पर वह भविष्य में भी तुम्हारे लिये ठीक होगा, ये तो कोई नहीं कह सकता है। ये तुम पर निर्भर करता है कि तुम स्थिति को कैसे संभालती हो! तुम किसी से प्रेम करती हो, पर पहले ये पता लगाओ कि क्या वो भी तुम से प्रेम करता है। अगर वह व्यक्ति भी तुम से प्रेम करता है तो तुम दोनों मिल कर ज्ञान को साथ रख कर देखो कि इस प्रेम को कैसे बनाये रखोगे – कैसे आगे चलोगे, कैसा बर्ताव करोगे, इत्यादि। ठीक है?

प्रेम की शुरुवात बहुत सरल होती है, पर कई लोग प्रेम को बनाये रखना नहीं जानते हैं।
किसी को तुम से प्रेम हो जाये और तुम्हें उसे स्वीकार करना, उसे पुष्ट करना ना आये तो उस प्रेम को खो देते हो। ‘Celebrating Love’ किताब में मैंने उस कौशल के बारे में बताया है जिससे तुम प्रेम को संजो सको।

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"तुम में इच्छायें हों, पर तुम इच्छाओं से नियंत्रित ना हो जाओ"

बाद अन्तौगस्त, जरमनी
८ अगस्त, २०१०


राष्ट्रों ने बहुत हानि पंहुचायी है।

बम - इराक़ पर टनों बम बरसाये गये, जिनसे कि लोगों के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ा है।
ऐसबेस्टस – दुनिया भर में ऐस्बेस्टस के प्रयोग हो रहा है जिससे कि बहुत हानि हुई है।
और आजकल के सेलफ़ोन! – कहते हैं कि सेलफ़ोन और उनके ताररहित खंभे इतनी रेडियशन दे रहे हैं जिसे मनुष्य सहन नहीं कर सकते हैं। शहरों से पक्षी ग़ायब होते जा रहे हैं! गौरया चिड़िया को आप जानते हैं? पहले, शहरों में गौरया चिड़िया होती थी। बैंगलोर में भी लोगों के घरों में गौरया चिड़िया आती थीं। वे आकर घर में या घर के आस पास अपने घोंसलें बनाती थीं। आज एक भी गौरया नहीं दिखती है। हां, आश्रम में बहुत सारी चिड़िया आती हैं, क्योंकि वह शहर से और उन ऊंचे ताररहित खंभों के जंगल से दूर है।

इस रेडियेशन तथा हमारी जीवनशैली की वजह से बहुत सी स्वास्थ्य की समस्यायें पैदा होती हैं। हम ठीक से व्यायाम नहीं करते हैं। और भोजन! कीटनाशक, रसायन, होर्मोन! जानवरों में, भोजन में सुई द्वारा होर्मोन्ज़ डाले जाते हैं! तो, कई मुद्दे हैं। हर चीज़ पर तुम्हारा नियंत्रण नहीं है। तुम केवल कुछ ही चीज़ें नियंत्रित कर सकते हो। साथ ही तुम ये भी जानते हो कि तुम्हारे शरीर में ताक़त है, रोग प्रतिरोधक शक्ति है तथा प्रकृति का सहयोग है, इसलिये तुम इन स्वास्थ्य समस्याओं से निबट लोगे।

और, एक ना एक दिन हमें जाना ही है, कोई और रास्ता नहीं है। ऐसा सोच कर परेशान होना, ज्ञान का लक्षण नहीं है।

तुम सभी को एक दिन जाना है, भले ही स्वस्थ हो या बीमार। ऐसा नहीं है कि केवल बीमार लोग ही मरते हैं। स्वस्थ लोग भी मरते हैं। ये तय बात है। तो, कोई बीमारी आती है तो हम सावधानी से उससे निबटते हैं। जो भी करने की आवश्यकता होती है, हम करते हैं। पर इतना ही। बीमारी के बारे में सोचते मत रहो, ना ही दिन भर उस के बारे में बात करते रहो। इससे तुम्हारी ऊर्जा कमज़ोर पड़ जाती है! और तुम्हें लोगों पर तरस नहीं खाना चाहिये, ‘ओह, तुम कितने बेचारे हो! तुम्हें ये समस्या है, तुम्हें वो समस्या है...’

छोड़ो भी! आत्मा को कोई बीमारी नहीं है, कोई समस्या नहीं है, कोई मृत्यु नहीं है। पर शरीर के आथ तो हर समय कुछ ना कुछ लगा ही रहता है। कभी उसे कोई छोटी मोटी बीमारी हो जाती है तो कभी कोई बड़ी बीमारी हो जाती है। पर उससे निबटा जा सकता है। शरीर बीमारी से लड़ लेगा, है ना?

प्रश्न : मैं इच्छाओं के बारे में जानना चाहता हूं, और ये कि हमें इच्छाओं के साथ क्या व्यवहार करना चाहिये? मुझे लगता है कि मुझे इच्छाओं में नहीं जीना चाहिये, पर मैं बहुत कुछ प्राप्त करना चाहता हूं, या खुद को किसी व्यक्ति के प्रति आकर्षित पाता हूं। अगर इच्छा ही ना हो, तो जीवन में कुछ भी करने की उमंग कहां से आयेगी? धन्यवाद।

श्री श्री रवि शंकर :
ठीक है, इच्छायें रखो। किसने मना किया है? तुम में इच्छायें हों, पर तुम इच्छाओं से नियंत्रित ना हो जाओ। घुड़सवारी करते हुये तुम्हें घोड़े पर नियंत्रण करना है ना कि घोड़े से नियंत्रित होना है। अगर तुम घोड़े के नियंत्रण में हो जाओ तो ये मुसीबत वाली बात है।
मुल्ला नसरुद्दिन की एक कहानी है। वो एक घोड़े पर सवार था और घोड़ा एक ही जगह पर चक्कर लगा रहा था! तो, लोगों ने पूछा, ‘मुल्ला, कहां जा रहे हो?’ वो बोला, ‘मैं क्या जानूं, घोड़े से पूछो!’

हम भी अपने जीवन में अक्सर इसी स्थिति में होते हैं। हमारी इच्छायें हम पर सवार हो जाती हैं और हमें बर्बाद कर देती हैं। बल्कि होना यूं चाहिये कि तुम में इच्छायें तो हों, पर तुम जब चाहे उन्हें छोड़ सको, और जब चाहे उन्हें धारण कर सको! तुम जब चाहे घोड़े पर चढ़ सके और जब चाहे घोड़े से उतर सको, बजाये इसके कि घोड़े की पीठ पर ही तुम फंस जाओ, या जब चाहे घोड़ा तुम्हें नीचे गिरा दे! ठीक है? नहीं तो घोड़े पर बैठना दुखदायी है।

प्रश्न : कुछ आर्ट आफ़ लिविंग कोर्स करने के बाद मैंने बहुत खुशी महसूस की! मुझे ऐसे लगा कि मैं खुशी से फूल कर फट जाऊंगा! कुछ समय बाद मुझे लगा कि उस खुशी के साथ एक किस्म का ज्वर था, तब मैं दुखी हो गया। ये एक भावनात्मक चक्करघिन्नी की तरह था। मैं ज्वर को संभालूं?

श्री श्री रवि शंकर :
तुम पहले ही इस के दृष्टा बन गये हो। तुमने देखा कि तुम एक भावनात्मक चक्करघिन्नी पर हो। तुम देख रहे हो कि तुम्हारे भाव आ रहे हैं और जा रहे हैं। ग़ौर करो, भाव पहले भी आते जाते थे, पर अब ऐसा धीरे धीरे कम होता जा रहा है। पहले तुम इसके प्रति सजग नहीं थे। अब कम से कम तुम भावों के इस आवागमन के प्रति सजग तो हो। इस पथ पर चलने से, इस ज्ञान में रहने से तुम मज़बूत बनते जाते हो। हां!

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, अपने पिता की नकरात्मकता देख कर मुझे बहुत दुख होता है। जितना ही अधिक मैं और मेरे भाई बहन आध्यात्म की ओर जाते हैं, उतना ही उन्हें कष्ट होता है। उन्हें लगता है कि हमने जीवन में कुछ हासिल नहीं किया है। हम में से किसी ने भी विवाह नहीं किया है, और उन्हें पोते पोतियों को देखने की इच्छा है। उनका कष्ट देखा नहीं जाता। ईश्वर ने मुझे ज़रूरत की हर चीज़ दी है। मैं अपने माता पिता की मदद कैसे करूं?

श्री श्री रवि शंकर :
मेरी शुभकामना और आशीर्वाद है! जितना हमसे हो सके हमें करना चाहिये। कभी कभी बहुत कुछ करने पर भी माता पिता दुखी ही रहते हैं। तब हम जान नहीं पाते कि उन्हें आशीर्वाद दें, या उनकी मदद करें।

उनके साथ अच्छा समय बिताओ। उन्हें हर समय पढ़ाओ मत कि उन्हें क्या होना चाहिये, क्या करना चाहिये, उन्हें आध्यात्मिक होना चाहिये, क्योंकि तुम भी आध्यात्मिक हो, इत्यादि। उन्हें ऐसे प्रवचन मत दो।

तुम्हें पता है कि बुज़ुर्ग लोग सिर्फ़ तुम्हारा साथ चाहते हैं। जब तुम उनके साथ रहते हो तो बस गाओ, खेलो, हंसी मज़ाक करो, उनके साथ में भोजन करो, उनसे उनकी रुचि की बातें करो। उन्हें तुमसे ज्ञान की बातें सुनने में, या कोई नई प्रणाली सीखने में रुचि नहीं होती। अपने बुज़ुर्ग माता पिता के साथ साथ अध्यापक जैसा व्यवहार मत करो। बीच बीच में ज्ञान की कुछ बात करो, और देखो कि क्या वे उसमें रुचि दिखा रहे हैं या उसे ग्रहण कर रहे हैं। वर्ना, केवल उनके साथ समय बिताना ही काफ़ी है।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, मेरे लिये अपना मुंह बंद करना आसान है, पर अपने विचारों को बंद करना आसान नहीं है। कृपया मेरी मदद कीजिये।

श्री श्री रवि शंकर :
तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। यहां तुम्हारे लिये सब कुछ किया जा रहा है। हिरेन सभी कोर्स ले रहा है। वह तुम्हें अलग अलग समय पर अलग अलग ध्यान तथा प्रक्रियायें करायेगा, और स्वतः ही तुम्हारे मन के विचार शांत हो जायेंगे। इसीलिये तुम्हारा यहां होना ज़रूरी है। शुरु में Hollow and empty – तुम्हारा अडवांस कोर्स, तुम्हें कुछ कठिन लग सकता है , पर उस में आगे जाओगे तो निश्चित ही वो तुम्हें बहुत उपयोगी लगेगा।

प्रश्न : स्थिति को स्वीकार करना और उसे बदलने के लिये क्रिया के बीच विभाजन रेखा कहां आती है?

श्री श्री रवि शंकर :
कोई विभाजन रेखा नहीं है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, आप ही मेरे गुरु हैं, और मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूं, और जहां आप जाते हैं, मैं भी जाता हूं। पर फिर भी मैं व्यक्तिगत रूप से बहुत दूरी महसूस करता हूं। कभी कभी मुझे डर लगता है। ये मुझे समझ नहीं आता है। ये एक प्रश्न नहीं है, पर क्या आप इस पर कुछ कहेंगे?

श्री श्री रवि शंकर :
तुम्हें पता हम विभिन्न भावों से गुज़रते हैं। हम किसी को पसंद करते हैं, और फिर उसी व्यक्ति को नापसंद करते हैं। हम किसी पर विश्वास करते हैं, फिर उसी पर शक करने लगते हैं। तो विभिन्न भाव आते जाते रहते हैं। उनसे डरो नहीं। ये सभी भाव तुम्हें भीतर से एक बहुत मज़बूत व्यक्ति बनाते हैं। जब तुम जान लेते हो कि ये सभी भावनायें आती जाती रहती हैं, परिवर्तनशील हैं, और तुम उनसे कहीं बड़े हो, तब तुम मज़बूत और केन्द्रित हो जाते हो। किसी भी भावना में अटक मत जाओ, या उसे मन में एक सिद्धांत के रूप में ना बांध लो।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, मैं क्या कर सकता हूं जब मैं किसी को बहुत काम कर के अपने शरीर और भावनाओं को बीमार बनाते देखती हूं? वे मुझ से उम्र में बहुत बड़ी हैं, और मैं उन्हें बहुत प्रेम और सम्मान देती हूं। उन्हें देख कर मुझे बहुत दुख होता है।

श्री श्री रवि शंकर : देखो, चाहे कोई काम करे या ना करे, बीमार तो हो ही सकता है! इस पृथ्वी पर आलसी लोग भी हैं जो बीमार हो जाते हैं। वे ज़्यादा बीमार होते हैं, क्योंकि उनका मन बीमार है, और शरीर और अधिक बीमार हो जाता है! तुम्हें काम को बीमारी से जोड़ने की आवश्यकता नहीं है। कुछ लोग स्वास्थ्य के प्रति इतने सजग रहते हैं, फिर भी बीमार हो जाते हैं! तो, बीमारी किसे एक वजह से नहीं आती है। बीमारी के कई कारण हो सकते हैं। एक कारण तो है पिछले कर्म, पिछ्ली छाप। दूसरा कारण है, प्रकृति के नियमों का उल्लंघन। तीसरा कारण है जेनेटिक, या परिवार में जन्म से मिली बीमारी।

कभी कभी तुम समय से सोती नहीं हो, खाती नहीं हो, और शरीर से अधिक काम लेते हो, उससे अधिक काम करवाते हो - हां, ये भी एक कारण है।

फिर, पृथ्वी का पर्यावरण भी बीमारी का एक कारण हो सकता है। देखो, अमरीका, गल्फ़ आफ़ मेक्सिको के सागर में तेल रिसने से कितना नुक्सान हुआ है!

‘मुझे इस दुनिया से जो थोड़ा बहुत चाहिये, मैं उसे लेकर तृप्त हो जाऊं। और मैं दुनिया को क्या दे सकता हूं, इस ओर मेरी दृष्टि हमेशा रहे।’ – यही सफलता की कुंजी है। तुम इस भाव में रहो कि, ‘मैं दुनिया के लिये और अधिक क्या कर सकता हूं, और कम से कम लेकर कैसे जीऊं।’ मैं ये नहीं कह रहा हूं कि सब कुछ छोड़ कर गरीबी में रहो। नहीं नहीं, तुम आराम से रहो, संपन्नता में रहो। पर अधिक मांग, मन की गरीबी दर्शाती है।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, क्या ये सच है कि शिक्षक आपको अधिक प्रिय हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
बिल्कुल नहीं। अगर उन्होंने तुम्हें ऐसा जतायाअ है तो उनकी इस बात पर विश्वास मत करो। मुझे सभी प्रिय हैं, चाहे हो वे शिक्षक हों, या ना हों, चाहे वे आर्ट आफ़ लिविंग में हों, या ना हो। कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे सभी प्यारे हैं। पर, अगर तुम आर्ट आफ़ लिविंग में हो तो तुम मुझ से अधिक प्राप्ति करते हो, बस इतना ही है।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, मेरे पास शब्द नहीं हैं जिनसे मैं आपके प्रेम और संरक्षण के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रगट कर सकूं। मुझे लगता है जैसे आपने मुझे अपनी हथेली पर उठा रखा है। आप मुझे प्रेम करते हैं। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। मैं हमेशा आपकी आज्ञा पालन करने के लिये उपस्थित हूं।

श्री श्री रवि शंकर :
बहुत बढ़िया। मुझे तुम सब की आवश्यकता है। तुम में से हरेक बहुत क़ीमती है – तुम सब ने ज्ञान का दीपक आने वाली पीढ़ियों के लिये जला कर रखा है। तुम सब, तनाव में, हिंसा में, निराशा में डूबती हुई दुनिया के लिये ज्ञान के स्तंभ हो। तुम सब का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण है धर्म के, ज्ञान के संरक्षण के लिये। तुम सब को ये ज्ञात हो कि तुम सभी क़ीमती हो, और जीवन के उत्थान के लिये, विश्व को बेहतर बनाने के लिये कार्यशील रहो।

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"बंधन मन में है"

बाद अन्तौगस्त, जरमनी
७ अगस्त २०१०


प्रश्न : क्या आप यहां सूरज को और अधिक ला सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
आज के लिये सूरज काफ़ी है। एक एक दिन की बात करते हैं।

प्रश्न : क्या जेनेटिकली मौडिफ़ाइड बीज ठीक हैं, या हमें उनका विरोध करना चाहिये?

श्री श्री रवि शंकर :
मुझे जेनेटिकली मौडिफ़ाइड भोजन ठीक नहीं लगता हैं। पर जेनेटिक प्रणाली से हम लोगों को बीमारियों तथा समस्याओं से मुक्ति दिला सकते हैं। जेनेटिकली मौडिफ़ाइड अनाज के बारे में मैं बहुत चिंतित हूं।

प्रश्न : गुरुजी, मैं मुक्त होना चाहता हूं। ऐसा कैसे करूं?

श्री श्री रवि शंकर :
(हंसी) मुक्ति? मैं मुक्त कैसे हो‍उंगा? तुम्हें ये मानना होगा कि तुम मुक्त हो। बंधन भी मन की एक मान्यता है, तो मुक्ति भी मान लो। बंधन मन में है।

आज एक बहुत ही ख़ास दिन है। हर दिन ख़ास होता है, पर आज ‘शनि प्रदोष’ है, यानि शनिवार की शिवरात्रि है। हर महीने में शिवरात्रि होती है। पूर्णिमा के तेरहवें दिन, या नये चंद्रमा के दो दिन पहले शिवरात्रि होती है। ये या तो सोमवार को होती है या शनिवार को। अगर ये शनिवार के दिन हो तो इसे बहुत ही शुभ मानते हैं। लोग जप करते हैं, और शाम को बहुत से शिव भजन गाते हैं तथा ध्यान करते हैं।

प्रश्न : गुरुजी, हमें प्रदोष के बारे में बताइये।

श्री श्री रवि शंकर :
प्रदोष ऐसा समय है जब पृथ्वी पर दिव्य शक्ति आकर सभी आत्माओं का उद्धार करती है। बहुत सी आत्मायें हैं। जो लोग मर कर आत्मा रूप में होते हैं, प्रदोष के दिन उनका उद्धार हो जाता है। मुक्ति मिलती है। केवल उस आत्माओं को ही नहीं, अपितु मनुष्यों को भी मुक्ति मिलती है। इच्छायें पूरी होती हैं और मन साफ़ हो जाता है। शिवरात्रि जो साल में एक बार आती है उसे महाशिवरात्रि कहते हैं। ये शिव की महान रात्रि बहुत ही ख़ास है।

हर महीने शिवरात्रि का पर्व होता है। इस उत्सव को मनाने में व्यस्त होने से चिंता करने या कुछ और करने का समय नहीं रहता।

प्रश्न : कृपया हमें प्रदूषण रोकने के उपाय बताइये।

श्री श्री रवि शंकर :
हमें अधिक वृक्षारोपण करना है, प्रकृति की देखभाल करनी है। कम गाड़ियां चलाओ, कार पूल करो, इत्यादि।

प्रश्न : कोई वादा कर के उसे वापस ले लें तो?

श्री श्री रवि शंकर :
वादे से अधिक महत्व की बात है कि सब के लिये क्या श्रेष्ठकर है। अगर तुमने अपने बेटी को स्कींग के लिये ले जाने का वादा किया हो, और बाद में मौसम ख़राब होने की चेतावनी सुनो, तो तुम क्या करोगे? क्या तुम उसे स्कींग के लिये ले जाओगे क्योंकि तुमने उससे वादा किया था? या तुम बुद्धिमानी से काम लोगो कि, ‘उस वादे से अब ख़ुशी नहीं मिलेगी तो मैं अपना वादा वापस लेता हूं?’


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