सेवा हमारा स्वरूप है, और वह एक फूल की पँखुड़ी की भांति लगनी चाहिये - कोमल, सहज प्राकृतिक!

प्रश्न : हमारे मन व शरीर पर रात और दिन के समय का क्या असर पड़ता है?
श्री श्री रवि शंकर : तुम्हारे पास मन है और वह मन समय के साथ बदलता रहता है। इस बात का कभी परीक्षण क्यों नहीं करते!  तुम्हारा मनोभाव सुबह, दोपहर, शाम और रात में-समय परिवर्तन के साथ बदलता रहता है। प्रातः काल में सजगता और जागरुकता रहती है। प्रेम भरे गीत शायद ही कोई भोर सुबह या दोपहर में सुनना पसन्द करता हो। शायद कोई प्रेमी जोड़ों के यां उनके जो नव दम्पत्ति है सिर्फ़ वो ही सुनते हों!
सुबह - ज्ञान
दोपहर - गतिशील कार्य
और
संध्या विश्राम।
जो दुखी रहना चाहता है वह सब समय दुखी रह सकता है और जो खुश रहना चाहता है वह पूरे दिन खुश रह सकता है। नासमझ व्यक्ति हर पल दुखी रहता है और समझदार व्यक्ति भावों के उथल पुथल के बीच भी खुश रह सकता है।
इसी प्रकार मौसम के बदलाव का भी मन पर असर पड़ता है।
अवश्य ही मन व समय का एक अनूठा प्रगाढ़ सम्बन्ध है। पर यदि तुम मन से ऊपर उठ जाओ तो वहाँ अनन्त आनन्द, अखन्ड शांति और शीतलता का अनुभव प्राप्त होता है।

प्रश्न : हम अपनी जड़ों को मजबूत करने पर क्यों जोर दें यदि हमें अगले जन्म में एक भिन्न धर्म या परम्परा मिलनी है तो?
श्री श्री रवि शंकर : यह इस वक्त के लिये है! अपनी जड़ों को मज़बूत करना यानि पूर्ण रूप से योग्य बनना - यही मतलब है । जड़ों को मजबूत करना, यह किसी धर्म या परम्परा को मजबूत करना नहीं, अपितु कुशल और स्थिर व्यक्ति बनना है।

प्रश्न : मेरे से यही भूल होती है कि मैं भूल पर भूल करता जाता हूँ। क्या करूँ?
श्री श्री रवि शंकर : भूल भी जीवन का ही एक भाग है। कभी कभी भूल हो जाती है तो ठीक है। भूल को स्वीकार करो और आगे बड़ो। बार बार उस गलती को दोहराने पर जो पीड़ा होगी, वो तुम्हे उस गलती से उभारती है। जिस गलती से तुम्हें यातना और पीड़ा की चुभन मिलती है, वही तुम्हें उस गलती से बाहर निकलने को प्रेरित करती है। पर अपनी गलतियों को कभी सही बताने का प्रयत्न मत कर।

प्रश्न : आपके जैसे सरल रहना कैसे सीखा जाये? जीवन इतना जटिल है।
श्री श्री रवि शंकर : जीवन में जटिलता मत खोजो। अपनी दृष्टि सिर्फ़ एक दिशा में रखो। संस्कृत में एक कहावत है, "अन्तर्मुखी सदा सुखी"। यदि मनुष्य के मन की दृष्टि भीतर की ओर रहे तो वह सदा सुखी रहे। जटिल क्या है?- लोगों का मन! लोग अपने मन से परेशान रहते हैं, पर तुम क्यों उनकी परेशानी मोल लेना चाहते हो?
यदि कोई बीमार है तो सब डाक्टर तो उसके साथ बीमार होने में शामिल नहीं होते ना। तुम भी अपने आप को डाक्टर ही जानो और अपना ध्यान वहीं पर रखो। लोगों में परेशानियाँ हैं पर वे कम होंगी,  धैर्य व करुणा रखो।

प्रश्न : पूर्णिमा के समय मन इतना विचलित क्यों होता है? और उत्तर अमरीका में अपराध बहुत बढ़ गया है। इसके लिए क्या करें।
श्री श्री रवि शंकर : सब ग्रहों के प्रभाव से बचने का एक इलाज है - " ॐ नमः शिवाय"। इस मन्त्र के स्वर से पैदा हुई तरंगे हमारे चारों ओर एक कवच बना देती हैं जिससे हमारे शरीर को सुरक्षा के साथ शक्ति भी मिलती है।

प्रश्न : जब भी किसी सुंदर लड़की को देखता हूँ तो प्रेम में पड़ जाता हूँ। यह प्रेम है या मात्र आकर्षण ?
श्री श्री रवि शंकर : यह तो वक्त ही बतायेगा तुम्हें! पहले यह तो मालूम करो कि दूसरी तरफ़ भी प्यार है या नहीं? यदि वह बराबर हो तो एक बात है। और यदि बात दोनों ओर की नहीं तो एक अलग ही बात है। जो भी बात हो, तुम परिपक्व जरूर हो जाओगे । प्रेम में नीचे मत गिरो, प्रेम में ऊपर उठो। प्रेम में कुछ पाने की इच्छा नहीं रखते दूसरे से। यदि कुछ पाने की इच्छा रहे तो वह प्रेम नहीं केवल जरूरत है। किसी भी सम्बंध में कुछ पाने की इच्छा रहती है पर सच्चे प्रेम में नहीं। प्रेम तुम्हारा स्वरुप है। अगर यह अभी ज्यादा दार्शनिक लगे तो इस बात को मन में कहीं पीछे रख कर विश्राम करो। एक दिन, दिल टूटने पर यां जब तुम समझ जाओगे कि तुमने बहुत अधिक इच्छाएँ रखी थी तुम्हें समझ आ जायेगा, और तब मन के पर्दे के पीछे से कोई विचार निकल कर तुम्हें बचायेगा।

प्रश्न : आध्यात्म में रुचि रखने पर भी दुर्घटनायें क्यों घटती हैं जीवन में ?
श्री श्री रवि शंकर : घटना दुर्घटना हो जाती है जब तुम उससे प्रभावित होते हो। वही घटना किसी अन्य को तुलना में निम्न व तुच्छ लग सकती है । पर कुछ घटनाओं के लिये साधारण कारण नहीं मिलते हैं। लोगों की मृत्यु क्यों होती है? कई बातों का कोई कारण नहीं होता। ऐसे क्षणों में हम कहते हैं " मेरे साथ ही ऐसा क्यों?" किन्तु यह जान लो, "क्यों" दुख से जुड़ा है और "कैसे" आश्चर्य से जुड़ा है। जब कभी यह प्रश्न तुम्हारे या किसी अन्य के मन में उठे कि मेरे साथ ही यह परेशानी क्यों?, तो कुछ जवाब देने से कुछ नहीं होता। कोई भी उत्तर, समाधान या सन्तुष्टि नहीं देगा। सभी प्रश्नों को उस समय पर तुम्हें छोड़ना होगा और समय तुम्हें आगे ले जायेगा । समय तुम्हें उन घटनाओं से पार लगायेगा। हमारी आदत होती है उत्तर देने की या सान्त्वना देने की । पर एक मुस्कान या फिर कुछ क्षण का मौन ही बेहतर हल है। कोई भी तरीके, समाधान, विचार लाभदायक सिद्ध नहीं होंगे। ऐसा मेरा मत है।

प्रश्न : यीशू (जीसस) का जन्म स्थान बेथेलेहम है, पर आज उनके जन्म स्थान में ही इतनी हिंसात्मक घटनायें क्यों हो रही हैं?
श्री श्री रवि शंकर : यह बड़ी अनोखी बात है! इस जगह जीसस के होने से पहले भी अशांति थी और उनके जाने के बाद भी। यह आश्चर्य करने की बात है कि इस जगह ने लगातार रक्तपात और हिंसात्मक घटनाएँ देखी हैं। क्यों? इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है। कम से कम मुझे तो इसका कोई उत्तर नहीं मालूम। पर यदि आप इतिहास देखें तो मोसेज़ के समय से पहले और पश्चात भी पूरे पूर्वी मध्य स्थान में और मिस्र (ईजिप्ट) ने लगातार बहुत कष्ट सहा है। ऐसे स्थानों में ज्ञान की सबसे अधिक आवश्यकता है।

प्रश्न : प्राचीन समय से नाक में छिद्र व कर्ण छिद्र की प्रथा रही है पर आजकल तो लोग यहाँ वहाँ, शरीर के किसी भी स्थान पर छिद्र करते हैं । क्या यह उचित है?
श्री श्री रवि शंकर : कान छिद्र करने के पीछे वैज्ञानिक कारण दिखता है: मस्तिष्क में जो नाड़ियाँ सजगता प्रदान करती हैं वे सब कान के नीचे भाग में एकत्रित होती हैं। इसलिये प्राचीन समय के लोग कर्ण छिद्र अधिक सजगता जगाने हेतु करते थे। अरे भई, मुझे शरीर के अन्य जगह पर छिद्र कराने की प्रथा के बारे में नहीं पता।

प्रश्न: सुखी दाम्पत्य जीवन का खास नियम क्या है?
श्री श्री रवि शंकर : मैं इस विषय पर बोलने का अधिकारी तो नहीं हूँ पर मेरा विचार यह होगा कि तुम उन लोगों का परामर्श क्यों नहीं लेते जो खुशहाल दम्पत्ति हैं?
किसी ने कहा है दम्पत्ति के लिये!
शादी से पहले -  एक दूसरे के लिए पागल।
और कुछ समय बाद - एक दूसरे की वजह से पागल!

मेरे विचारानुसार विवाह धैर्य, त्याग, एक दूसरे के प्रति ध्यान, सहानुभूति रखने की एक विधि व सम्बंध है। यदि एक दुखी हो तो दूसरे को उसी समय दुखी नहीं होना चाहिए। उसे अपनी बारी के लिए प्रतीक्षा करनी चाहिये! दोनों एक ही समय पर दुखी होंगे तो मुश्किल होगी! हाँ, बच्चों के सामने अवश्य ही सही व्यव्हार होना चाहिये।

प्रश्न : चक्र ध्यान क्या है? उसके बारे में बतायें।
श्री श्री रवि शंकर: चक्र ध्यान यानि प्रत्येक उर्जा चक्र पर भोलेपन से सहजता पूर्वक थोड़े समय के लिए ध्यान ले जाना। ज़्यादा कोशिश करने की जरूरत नहीं, उससे ध्यान नहीं लगता। बस थोड़ा सा ध्यान। जैसे, जब तुम केला या नारंगी शब्द सुनते हो तब क्या केला या नारंगी के रूप की कल्पना करते हो? नहीं, बस तुम को भान हो जाता है।
आजकल कल्पना करने की भी कई विधियाँ निकाली गयी हैं। पर इसमें प्रत्न करना होता है और जब प्रयत्न होता है तो मन और भी अधिक कार्यशील होता है, तब फिर ध्यान कहाँ लग सकता है?
इसलिये, मन को शांत करो, ध्यान हलके से चक्र पर केन्द्रित करो और फिर ध्यान वहाँ से भी हटाकर विश्राम करो।

प्रश्न : मनुष्यों में दोष व अपूर्णता होती ही है तो मानव में दिव्यता कैसे देखें?
श्री श्री रवि शंकर : कौन कहता है कि मनुष्य अपूर्ण हैं? हर मनुष्य के भीतर दिव्यता मौजूद है। उस दिव्यता को जाग्रित करो । एक गुण से दूसरे गुण की ओर बढ़ो, न कि एक दोष से दूसरे दोष की ओर ।
नकारात्मक दृष्टि से तुम सब वस्तुओं में दोष देख सकते हो जैसे दूध का फट कर दही होना और दही का नष्ट होकर मक्खन होना-ऐसा समझना केवल दोष देखना होगा और दूसरे दृष्टिकोण से तुम एक पूर्णता का अन्य पूर्णता में परिवर्तित होना देख सकते हो ।

प्रश्न : क्या हम आप के जैसे बन सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : तुम मेरा एक अभिन्न अंग हो और मैं तुम्हारा। बस अधिक खाली हो जाओ।

प्रश्न : क्या ज्ञान मार्ग के अलावा अन्य कोई मार्ग भी है?
श्री श्री रवि शंकर : ध्यान, भक्ति, ज्ञान और कर्म - ये चारों मार्ग एक ही रथ के चार पहिये समान हैं। तुम किसी भी एक को अपनाओ, बाकी तीन भी पीछे आ जायेंगे।

प्रश्न : अगर भगवान सब में है तो प्राकृतिक प्रकोप क्यों ?
श्री श्री रवि शंकर : मानलो फ़िल्मों में केवल हीरो ही हो और कोई विलन ना होता! जब कई रोचक घटनाएँ शामिल होती हैं तभी फ़िल्म मज़ेदार होती है। फ़िल्म में केवल हीरो हीरोइन ही होते, शादी करते और बस फ़िर एक साथ रहते, ऐसी फ़िल्म होती तो क्या पसंद करते? यह जीवन भी तो एक ड्रामा है, एक खेल है, जिसमें सभी तरह की बातें होती रहती हैं। यह जगत परिवर्तन शील है, हर तरह की घटनाएँ होती रहती हैं, यह जान कर विश्राम करो। केवल पड़े रहना विश्राम नहीं है, अपने मन को विश्राम दो।
सेवा में कार्यरत रहो, जहाँ कहीं भी सेवा की जरूरत हो उसमें लग जाओ। सेवा हमारा स्वरूप है और हम सेवा के बिना नहीं रह सकते। सेवा भार स्वरुप नहीं लगनी चाहिये- एक फूल की पँखुड़ी की भांति लगनी चाहिये- कोमल, सहज प्राकृतिक!
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