(सत्संग पूरे विश्व से आये हुए श्रद्धालुओं की अपनी राष्ट्र भाषा में गाये हुए भजनों और गीतों से प्रारंभ हुआ, विभिन्न देशों के लोग और भारत के विभिन्न हिस्सों से आये हुए लोग संगीत और गान से जुड़ गए)
यह नवरात्रि की सच्चा अर्थ है - समस्त विश्व को जोड़ना। पुराने समय में हर व्यक्ति अलग अलग वेद में महारत हासिल करता था और नवरात्रि में सब इकट्ठे होते थे और ज्ञान, संगीत, नृत्य, संस्कृति का आदान प्रदान करते थे। आपने देखा होगा की परसों हमने संगीत बनाया, भिन्न प्रकार के साज़ बजाये, तबला, ड्रम, और गान। विश्व में मौजूद सब प्रकार की विभिन्नता एक ही ज्ञान को प्रस्तुत करती है, कि एक ही चेतना है, एक ही आत्मन जो कि ईश्वरीय चेतना है, ईश्वर है।
आपको ईश्वर से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वो आपके लिए एक माँ के जैसे है| जो आपको प्यार करते हैं, आपका ध्यान रखते हैं, आपको पसंद करते हैं, और आपका उद्धार करते हैं। ईश्वर में सब माँ के गुण मौजूद हैं। अक्सर लोग कहते हैं, "ईश्वर से डरो, ईश्वर आपको सजा देगा" नहीं,
ये गलत विचार है, ईश्वर आपको कभी सजा नहीं देते, बस आपको ज्ञान देते हैं और ऊपर उठा देते हैं। हमें ज़िन्दगी को ख़ुशी एवं उत्सव के जैसे मानना चाहिए। हम सबने सुना है, ला इल्लाह इल्लल्लाह - अर्थात केवल एक ही चेतना है और वो चेतना कोई ऊपर आसमान में नहीं बैठी हुई है। ये पंचतत्वो में हैं - धरती, वायु जल, आकाश एवं अग्नि। इसलिए धरती का सम्मान करो, जल का सम्मान करो, अग्नि का सदुपयोग करो, केवल बाहर की अग्नि का ही नहीं, भीतर की अग्नि का भी सदुपयोग करो। हर एक के अन्दर एक आग होती है, एक जोश, उसे सही दिशा में बना के रखिये। आप जानते हैं कि आग केवल नष्ट ही नहीं करती, सृष्टि भी करती है| इसलिए अपने अन्दर की आग को, जोश को कुछ सृजनात्मक कार्य में लगाइए। अपने भीतर की आग को एक दिशा दीजिये। पानी प्यास भी बुझा सकता है और डुबा भी सकता है। इश्वर के माँ स्वरुप को याद रखिये; ईश्वर पंचतत्वो में है और आत्मा में है, और सच्चा उत्सव अपनी आत्मा के पास पूर्ण शांति और सहजता से आ जाना है| तो हम में ये विश्वास होना चाहिए कि ईश्वर मुझे बहुत प्यार करते हैं। इसके बारे में न तो कोई सवाल, न कोई शक। इसके अलावा खुद की तुलना किसी से मत कीजिये, ये भी ज़रूरी है। अरे, वोव्यक्ति गा सकता है, मैं नहीं गा सकता; वो व्यक्ति समझदार है, मैं नहीं हूँ, नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है! आपके भीतर सब कुछ है, अलग अलग समय पर अलग अलग चीज़ें बाहर आती हैं, सिर्फ थोड़ा सब्र कीजिये। एक और बात, हम कहते हैं की हमें आशीर्वाद चाहिए, कृपा चाहिए; आशीर्वाद बहुत है, लेकिन आपका बर्तन छोटा है तो मैं क्या करूँ? अगर आप एक छोटा सा कप लोगे और कहोगे की मुझे इसमें २ लीटर दूध दे दो तो मैं उस छोटे से कप में २ लीटर दूध कैसे दूँ? कप बहुत छोटा है और आप बहुत ज्यादा मांग रहे हैं। आपको ३ लीटर की क्षमता वाला कप लाना होगा, तभी मैं उसमें २ या ३ लीटर दूध, जितना भी आप चाहोगे, मैं दे दूंगा। तो एक बात आपको याद रखनी होगी, कि आपको जितना भी मिलता है वो आपकी क्षमता के अनुसार मिलता है| अगर आपको ज्यादा चाहिए तो इंतज़ार कीजिये और अपनी क्षमता बढाइये। जब हमारी क्षमता बढती है तब निश्चित रूप से आपको अधिकता में मिलता है। यही वजह है की लोग नाखुश है, वो एक छोटा सा कप लाते हैं और कहते हैं किमुझे इस में १ लीटर दूध दे दीजिये, तब ये कप छलकने लगता है, और येही बात हमें समझने की ज़रूरत है।
देखिये, जीवन में अक्सर चिढ और जलन हमें घेरती है, अरे वो व्यक्ति अच्छा नहीं है, मैं ये सब लोगों के साथ नहीं रह सकता, वो मेरी बे-इज्ज़ती करते हैं| इस प्रकार की छोटी छोटी बातें हमारे दिमाग में घूमती हैं, और जब हम ध्यान करने बैठते हैं तब ये सब आकर हमें परेशान करती हैं, करती है न! अपना हाथ उठा कर इमानदारी से बताओ कि जब भी आप ध्यान करने बैठते हो तब ये सब बारे में सोचते हो कि नहीं, "अरे अगर मेरे पति ऐसा करें तब ज्यादा अच्छा होगा, अरे, मेरा बच्चा मेरी बात नहीं सुनता। पड़ोसियों, दोस्तों, जान पहचान के लोग, अनजान लोगों के बारे में ये सब बातें दिमाग में आती हैं और इन सब से आपके अन्दर गुस्सा, चिढ, निराशा पैदा होती है। तो आप इस चिढ, इस गुस्से से कैसे निपटते हैं? मानिए की आप कुछ ज़रूरी काम कर रहे हैं और एक मक्खी आकर आप पर बैठ जाती है, इस बात से आपको कितना फर्क पड़ता है? नहीं, आपको ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा, आप हलके से उस मक्खी को उड़ा देंगे। ये सब बातें भी ऐसे ही हैं| ये छोटो छोटी चिढ, गुस्सा आपके अन्दर स्वीकार करने की शक्ति को बढ़ाते हैं| चिढ मतलब स्वीकार न करना| अस्वीकृति का अर्थ होता है की अपनी मुट्ठी को कसकर बंद कर लेना, स्वीकार करना मायने अपनी मुट्ठी को खोल देना। चिढ, गुस्सा ये सब अकडन की निशानी हैं| क्या जब आप चिढ़ते हैं आपको अपने अन्दर एक जकडन-अकडन महसूस नहीं होती? स्वीकार करना मतलब खुलना, और जब आपका हाथ खुला है तब आसमान ही सीमा है, सब कुछ आपके अन्दर है (खुले हाथ की ओर इशारा करते हुए), और जब आप बंद होते हो (बंद मुट्ठी की ओर इशारा करते हुए) तब अन्दर कुछ भी नहीं है। इसलिए छोड़ देना, जाने देना बहुत महत्वपूर्ण है।
अब सवाल उठता है की अगर जाने दें, छोड़ दें तो मैं कार्य कैसे करूँ? कोई अन्याय करता है और आप सोचते हैं कि अरे गुरुदेव स्वीकार करने को कहते हैं तो इसको भी स्वीकार कर लेना चाहिए, नहीं! देखिये, आग तो वहां है बस अब आपको उसको सही दिशा देनी है। नाराज़ होकर, चिढ के कार्य करने से कुछ नहीं होगा, पहले स्वीकर करो और फिर सही कार्यवाही करो। इसके लिए बहुत से धैर्य और साहस की आवश्यकता है।
दूसरा मुद्दा है, अपमानित होना। मैं कहता हूँ की अपमानित होना भी बहुत अच्छा है, यह अपमान ही है जिस से आपकी क्षमता बढती है| इस से आपकी पात्रता बढती है, ये अपमान ही है जिससे "मैं" ख़त्म होता है, आपका अहम् ख़त्म होता है, और आप बिलकुल एक मासूम बच्चे की तरह हो जाते हैं। आप एक बच्चे को अपमानित नहीं कर सकते क्योंकि वो अन्दर से खाली और शून्य होता है, कुछ नहीं हो जाता है। जब हम कुछ होते हैं तब हम अपने बारे में कुछ मान्यता बना लेते हैं, और तब हमें लगता है कि अरे ये तो अपमान है। कोई कहता है की ये मत करो, यहाँ मत आओ, और ये सब छोटी छोटी बातें आपको परेशान करना शुरू कर देती हैं| इसीलिए इसे माया कहते हैं, क्योंकि ये सब वो बातें हैं जिनके ऊपर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं होती लेकिन तब भी इनमें मन अटक जाता है। और जब आप हैं कि ये भी मेरा नहीं है| तब उसको महामाया कहते हैं; ये ईश्वर का खेल है, क्योंकि आप इस से लड़ना शुरू करते हैं और जब आप इससे लड़ना शुरू करते हैं, तब ये और बढ़ जाता है। ये चक्रव्यूह के जैसे हो जाता है, आप उसमें पहिये की लकीर के जैसे गोल गोल फँस जाते हैं। इसलिए अपमान से भागने की ज़रूरत नहीं होती है, अगर कभी अपमान होता है तब इसे तपस के जैसे लीजिये, (तपस मायने अग्नि, हिन्दू धर्मं में तपस को अक्सर होने वाले दुःख के जैसे, आत्मसंयम के जैसे बताया गया है); अच्छा ये तामस है| मैं इसको स्वीकार करता हूँ, मैं इसको सहन करूंगा। तपस आपको और मज़बूत और खूबसूरत बना देता है।
इसलिए ऐसा कहा गया है, "ज्ञानिनामपि चेतंसी देवी भगवती ही सा, बलादाकृष्य मोहे महामाया प्रयाछाती।" यही दुर्गासप्तशती में कहा गया है जिसे हमने कल ही गाया था।
इस माया की शक्ति, अज्ञानता की शक्ति इतनी मज़बूत होती है कि यहाँ तक कि सबसे समझदार लोग और विशारद भी इसमें बह जाते हैं। वो सबको बहा लेती है, और इसलिए ही कहा जाता है, "हे प्रिय देवी माँ, आपने हमें इस माया के खेल में बहा दिया।" हमें उन बातों को महत्ता दी जो महत्व देने लायक नहीं थी, हमने उन बातों को महत्ता दी जो क्षणभंगुर है, और जो हमेशा टिकने वाली नहीं हैं| वो सब आती हैं और चली जाती हैं, इसलिए ही इसे महामाया कहते हैं।
आप जानते हैं की कल मैंने कहा था, "या देवी सर्वभूतेषु, भ्रन्तिरुपें समास्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः"| चेतना न केवल शांति और शक्ति के रूप में बल्कि भ्रम के रूप में भी मौजूद है, वो भूख के रूप में, भ्रम के रूप में, माया के रूप में, और इस तरह से सब रूपमें मौजूद है। जब आपको ये समझ आता है, तब आप मन के इस खेल पर मुस्कुराने लगते हैं। और तब जब ये छोटा दिमाग काम करता है, तब आप इसमें फंसते नहीं हो| आप इसके परे हो जाते हो और जहाँ आपको परमशान्ति मिलती है - चिर शांति। मन तब एकदम शांत हो जाता है, जो बिलकुल मज़बूत रहता है और हिलता नहीं है, ये जीवन में पाने के योग्य है और इसके लिए आशीर्वाद की आवश्यकता है।
आज हमने ऋषि होम किया,सदियों से बहुत से संतो ने इस ज्ञान को संभाल के रखा है, इस प्रथा में पराशर ऋषि हैं जिनकी खासियत पूजा थी। गुरु पूजा में हम गाते हैं, नारायणं पदम् भावं वाशिश्ठं च तात परशराम च, इस प्रथा में पांचवे संत पराशर थे, उन्होंने पूजा के माध्यम से प्यार और भक्ति के भाव पर विशेष जोर दिया है- "पूजदिश्यु अनुराग इति परशर्याह"| आज आपने देखा कि आयुध पूजा भी हुई, हम जितने भी औजार इस्तेमाल करते हैं, ये उनके सम्मान में की जाती है। कल जब आप शहर में जायेंगे तब आप देखेंगे की बसों पर चन्दन-कुमकुम लगाया हुआ होगा, फूलो से उन्हें सजाया हुआ होगा, लोग अपने वाहनों को सजाते हैं। इसका अर्थ ये है की एक सुई से लेकर खम्बे तक, सब कुछ ईश्वर के ही स्वरुप का हिस्सा है. इसलिए सब यंत्रो का आदर सम्मान किया जाता है। यहाँ तक कि छोटी छोटी वस्तुएं जैसे पिन, चाकू, कैंची, पेंचकस, पाना, ये सब का सम्मान किया जाता है| और ऐसा कहा जाता है कि देवी माँ सब में मौजूद है इसलिए हम इन सब का सम्मान करते हैं।
आपने देखा होगा कि साल में एक दिन सब कारखानों में सब औजारों को साफ़ किया जाता है, इन सब का सत्कार करके औज़ारो के प्रति, वाहनों, बसें, कारें, इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाती है, क्योंकि इन सब में ईश्वर का ही वास है| आयुध पूजा नवरात्री के नौवें दिन होती है, दसवें दिन विजया दशमी होती है, विजय का दिन।इसलिए जब माया मन पर हावी हो जाती है तब ये समझना चाहिए की ये सब मन की माया मात्र है, ये सिर्फ मन है जो इधर उधर भाग रहा है और ये सब करा रहा है| इसलिए उसे जाने दें, छोड़ दें, यही नवरात्री का प्रमुख सन्देश है।