२२
२०१२
अक्टूबर
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बैंगलुरु आश्रम, भारत
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मुख्य बात ये
है, कि हमें तृप्त हो जाना है, संतुष्ट रहना है| यही
हमारे नियमों में है, ‘संतृप्ति’ व ‘संतोष’| हमें जितना संतोष होगा, उतना और अधिक हमें मिलता जाएगा| आज ये सब दैवीय आराधना का केवल एक ही सन्देश है कि आप बहुत
प्यारे हो| आप ईश्वर के इतने प्यारे हो कि आप
इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते! बस इतना मान लीजिए, इतना मान कर चलिए| मैं आपको ये बोल रहा हूँ और यदि आप चाहें, तो मैं आपको ये
बौंड पेपर पर लिख कर भी दे सकता हूँ! आप ईश्वर के इतने प्यारे हो, वे आपको इतना
चाहते हैं!
जैसे एक माँ
अपने बच्चे को चाहती है, फिर चाहे वो जितनी भी गड़बड़ करें, या लात मारे, पेशाब
करें, गन्दगी करे, माँ क्या करती है? वह फिर से उसे पोंछकर, साफ़ कर के और फिर उसको
लाडला समझ कर प्यार करती है| इसी तरह से परमात्मा भी आपको
इतना चाहते हैं| और आप उनको इतने प्यारे हैं! बस
इतना कहने के लिए ही हम हैं, बस और कुछ नहीं है|
(हँसते हुए) अगर आप ये समझ जाएँ, तो हमारा काम खत्म!
गीता में भी भगवान
श्रीकृष्ण अर्जुन को पहले यही बोलते हैं, ‘अर्जुन तुम मेरे बहुत प्यारे
हो’| तब तक वे इतने संशय में रहें, बाद में भी संशय में
रहें| लेकिन आखिरी में जाकर वे यह बोले,
कि ‘हाँ, मैं स्वयं को आपके लिए न्योछावर
करता हूँ|’ इसलिए, कुछ परिश्रम करने की
आवश्यकता है ही नहीं| भक्ति में परिश्रम नहीं है| इससे चार चीज़ें उपलब्ध होती हैं, ‘दुःख-निवृत्ति’ होती है, ‘चिर-शान्ति’ की प्राप्ति होती है, ‘अटूट भक्ति’ और ‘जीवन मुक्ति’ मिलती है|
हमारा जितना
भी दुःख है, वह भूत काल के बारे में है| उस सब को छोड़कर, भूल कर यदि
हम ये याद रखें, कि वर्तमान में हम निर्दोष हैं, ईश्वर के प्यारे हैं, उनके दुलारे
हैं, तो इसे समझ कर हमें अपने आप में विश्राम करना चाहिये| ये सब भक्ति से होता
है| दिन भर में हम कुछ न कुछ करते रहते हैं, उससे हमारा संतोष कहीं खो जाता है| अचानक हमें ये लगता है, कि ‘अरे,
हमारी खुशी कहाँ चली गयी’| दिन भर हम इसमें उसमें लग
गए| हमने भी यही सोचा, कि कहाँ हम भ्रष्टाचार के खिलाफ़,
दुनियादारी में फँस गए, ये गलत वह सही, इन सब चीज़ों में दिन भर यदि हम पड़ गए, तो
कहीं तो हमारी खुशी खो जाती है|
दैवीय चेतना
हमारे अंदर यही जागृत करती है, कि नहीं नहीं, हमें अपना संतोष नहीं खोना है| इसी लिए, कहा गया है, ‘योगस्थ
कुरु कर्माणि’,अपने में रहिये, और साथ साथ कर्म भी
करिये| नहीं तो संतोष कहीं खो जाएगा| ये चाहिये, वो चाहिये| फिर जब वह मिल जाता है, तब
फिर दूसरा कुछ चाहिये होता है| फिर जब वह दूसरा भी मिल
जाता है, तब फिर कुछ और चाहिये| ये चाह का सिलसिला जब तक
बना रहेगा, तो संतोष तो गायब हो ही जाएगा| तब फिर संतोष कहाँ रहेगा| फिर तो आप केवल मुँह लटकाकर बैठे रहेंगे|
नहीं, हमें
ऐसा नहीं करना है| हमें प्रसन्नचित्त रहना है| ‘यज्ञ’ यही करता है| जीवन में, साल भर में हमने
जो भी किया या नहीं किया, गलत किया या सही किया उन सबका जो भी धूल-मैल जमा हो जाता
है, उस सबको एक बार में ही धो डालता है| ये कितनी सुन्दर बात है, है
न?
अच्छा, और
केवल यज्ञ से ही नहीं चलेगा| थोड़ा ध्यान हो, ज्ञान हो| उसके साथ यज्ञ हो, तभी बात बनती है| जैसे, एक केक होता है, उस पर आइसिंग होती है, तभी बात बनती
है| सिर्फ आइसिंग कौन खाता है? जैसे जलेबी चाशनी के अंदर
होती है| सिर्फ चाशनी कौन पीता है? जलेबी हो,
तो उसे चाशनी में डुबोकर खाते हैं| उसके लिए जलेबी तो चाहिये
ही! वो है, ध्यान, ज्ञान और साधना| और इन सबके ऊपर कर्म-कांड| सिर्फ कर्मकांड से बात नहीं बनेगी| उसके साथ साथ निष्ठा चाहिये, मन में वह लगाव चाहिये| और वह लगाव तो है ही, उसे आपको अपने अंदर जगाने के कोई ज़रूरत
नहीं है, वह तो है ही| है कि नहीं? (लोग कहते हैं,
‘हाँ!) बिल्कुल है, लगाव है, लगन भी है|
तो परमात्मा
परिश्रम से नहीं मिलता है| बल्कि विश्वास और विश्राम
से मिलता है| बस ये दो ही चाहिये! परिश्रम से
नहीं!
और जैसा मैंने
पहले कहा, कि आप ईश्वर के बहुत प्यारे हो! और वे अभी हैं, यही हैं| और ये नहीं सोचना, कि वह गुरूजी के रूप में सामने हैं| गुरूजी तो आपके दिल में भी हैं!
आज आपने देखा
न, कि इन्द्राणी (आश्रम में निवास करने वाली हथिनी) जब यहाँ पूजा के समय आयी, तो
उसने स्क्रीन में अपने आप को देख लिया, और घबरा गयी|
(हँसते हुए) अपने ही रूप को देख कर पहचान नहीं पायी| उसे
लगा कि वह दूसरा कोई और है| उसको लगा कि दूसरी कोई और
हथिनी वहां खड़ी है| क्योंकि उसने अपने आप को शीशे में
तो देखा नहीं है| उसे अपनी पहचान नहीं हुई, और इसलिए,
अपनी परछाई से भी वह डर गयी| तब हमने कहा, कि यही तो
दुनिया में हो रहा है! अपने जीवन में आप यही तो
करते हैं! आपके जैसे कोई व्यक्ति यदि आपके
सामने आ जाते हैं, तो आप डर जाते हैं| वे आपकी ही परछाई हैं| कोई पराया तो है नहीं| ये बिल्कुल सच बात है| जब हमें अपने आप से परिचय नहीं है, तब हमें सबसे डर लगता है,
अपने खुद के प्रतिबिम्ब से भी डर लगता है! अपने आप से डर लगता है,
अपने अंदर जाने में डर लगता है| है न?
इसीलिये, गुरु
और ज्ञान चाहिये| गुरु क्या करते हैं? वे एक दर्पण
होते हैं, कि इसमें आपका ही चेहरा है| देखिये! “जो मैं हूँ, सो तू है”, तू मुझे जिस रूप में देखना चाहेगा,
मैं उसी रूप में तुझे दिखूंगा”|
आपकी दृष्टी
से ही आपकी सृष्टि है| और आपकी दृष्टि में यदि
श्रद्धा है तो वैसा दिखेगा| अश्रद्धा है, तो वैसा
दिखेगा| आपकी दृष्टि से यदि गलत है तो गलत
ही दिखेगा| दृष्टि सही है, तो सही दिखेगा| ऐसा ही दुनिया में भी है| जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि| ये कितनी सच्ची बात है, है न?
तो ये सारा
ज्ञान, ध्यान, ये सारी मस्ती|
अबकि बार यही
यज्ञ ३० जगहों पर और हुआ है| जगह जगह हुआ है| लोग काफी आनंदित हैं, मस्त हैं| खुशी को जितना फैलाएं, तो वह उतनी बढ़ती है| अपने में भी बढ़ती है| तो इसी संकल्प को लेकर हमें
काम करना चाहिये|
तो अबकि बार
आप यहाँ से क्या क्या लेकर जायेंगे? एक तो ‘शौच’ – माने अंदर की शुचि और बाहर
की शुचि| भई, दुनिया की तो रीत ही है, कि कुछ
न कुछ, कहीं न कहीं, तो गड़बड़ होता ही है| और उस गड़बड़ी के बारे में
सोच सोच कर ही हमारे मन में गुस्सा आता है, राग उत्पन्न होता है, द्वेष उत्पन्न
होता है| ‘उसने
वो ठीक नहीं किया’, ‘उसने
मुझे धक्का दिया’, ‘उसने
मुझे आने नहीं दिया’, ‘मुझे
पीछे बिठा दिया’, इस तरह मन में कुछ न कुछ शिकायत
चलती रहती है| किसी न किसी के ऊपर ये चलता रहता है| ये हमारे मन को ही संकुचित बनाये रखता है, अहंकार की पुष्टि
करता है| और यही अहम आपको शून्य अवस्था तक
पहुँचने में अवरोध पैदा करता है| वहां तक पहुँचने ही नहीं
देता| इसलिए, शून्य अवस्था तक पहुँचने के
लिए, ‘आत्मरतिः
अविरोधेना इथि शाण्डिल्य’| मैंने भक्ति सूत्रों में इस बारे में
बोला है, आप उसे सुनियेगा| भक्ति क्या है? कि आपकी
भक्ति में कोई भी काँटा न लगे| जो कुछ भी है, उसे स्वीकार
करिये| स्वीकार करते करते, आपको लगेगा कि
कितनी परम शान्ति है| परमानन्द है, हमारे ही भीतर| प्रसन्नता है, संतोष है| संतोष उत्तम धन है| उससे बड़ा धन कुछ नहीं है| सबसे उत्तम धन है – संतोष| इससे बड़ा लाभ कोई हो ही
नहीं सकता| और यदि संतोष नहीं है, तब जितना भी
लाभ हो, वह लाभ, लाभ है ही नहीं| वह लाभ नुकसान के बराबर है| वह भाता ही नहीं है| तो इसलिए संतोष रखिये| हमें ये नियम बनाना पड़ेगा, कि हम खुश रहेंगे| आपके संतोष को छीनने के लिए, बिगाड़ने के लिए हज़ार
परिस्थितियां आ सकती हैं, तब ज्ञान काम आता है| तब आप यह सोचिये, कि ‘सब नश्वर है, सब एक न एक दिन खत्म होने वाला है, सब समाप्त हो
जायेगा, पूरा जीवन, पूरी दुनिया, ये सब समाप्त
हो जाएगा| मैं क्यों अपने संतोष को खो बैठूं?’ बस यही एक ख्याल काफी है, जो आपको वापस लौटकर अपने संतोष में
ले आएगा|
अच्छा अब कुछ
लोग कहते हैं, कि ‘गुरूजी, ज्ञान से ये नहीं हो पाता है| मैं कितनी बार ये कहता हूँ, लेकिन खुश नहीं हो पाता हूँ’| तब याद रखिये, कि आपके लिए कोई तो है, कोई आपके प्रिय, आप उन्हें अपनी तकलीफें दे दीजिए| और बोलिए, ‘कि हमारे लिए कोई हैं, वो
हमारा सब देख लेंगे|’ ऐसा विश्वास जगाईए| उस विश्वास से भी हमारा मन शांत हो जाता है| या फिर भक्ति रस में थोड़ी थोड़ी देर डूब जाईये| या फिर ये सोचिये, कि ये मेरा कर्म है, इसे मैं भोगूंगा| इसे मैं भोग कर खत्म करूँगा|” ऐसा
भाव लगा लीजिए| तब भी खत्म हो जाएगा| ये तो बिल्कुल सीधी सी बात है, ज्यादा कुछ है नहीं! कुछ भी करो, सुख से करो, संतोष से करो| यही नियम है|
जैसे यम-नियम
होते हैं| पाँच यम; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रह| तथा पाँच नियम – शौच, संतोष, तपस, स्वाध्याय
और ईश्वर प्रणिधान| बहुत सुन्दर हैं! परिशुद्धता, ये सब
बहुत ज़रूरी है|
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