५
२०१३
फरबरी
|
बैंगलुरु आश्रम, भारत
|
प्रश्न : ईश्वर
सर्वव्यापक हैं और किसी को गुरु के साथ गहरे नाते की अनुभूति होती है, तो क्या फिर
भी मंदिर जाने की आवश्यकता है ? रीति रिवाज़ों का क्या महत्त्व है ?
श्री श्री
रविशंकर :
देखिये, आपको किसी भी मंदिर, मस्जिद अथवा चर्च में जाने की आवश्यकता नहीं है ।
जहाँ भी आप हैं, बैठ जायें और ध्यान करें, वहीं आप को ईश्वर दिखाई देंगे । परंतु
जीवन में रीति रिवाज़ों का होना भी अच्छा है । बहुत ज्यादा नहीं, बस थोड़ा सा ही ।
रीति रिवाज़ों
के बिना जीवन थोड़ा रूखा और एक रस हो जाता है । रीति रिवाज़ ही हैं, जो जीवन में कुछ
स्वाद, कुछ मस्ती, कुछ रंग भर देते हैं । इसलिये मैं कहूँगा कि, हमें समय समय पर
कुछ रीति रिवाज़ों को शामिल करते रहना चाहिये; यह अच्छा है ।
देखिये, किसी
ऐसे घर में जायें जहाँ बिल्कुल भी रीति- रिवाज़ न निभाये जाते हों , और फिर ऐसे घर
में जायें जहाँ हर दिन दिया जलाया जाता है, अगरबत्ती जलाई जाती है, और जहाँ
शुद्धता हो; तो दोनों के वातावरण में अंतर होता है । आप में से कितने लोगों ने यह
अनुभव किया है ?
कुछ अंतर होता
है। यह एक तरह के वातावरण का निर्माण करता है । सूक्ष्म भी वहां जीवंत हो जाता है
। ऐसा ही है न ?
इसलिये
रोज़मर्रा के जीवन में थोड़े से रीति रिवाज़ अच्छे रहते हैं । प्रात: जब आप उठते हैं,
तो बैठ जायें और ध्यान करें । हाँ, आपको ध्यान के साथ प्राणायाम भी अवश्य करना है
।
चाहे घर का एक
सदस्य ही घर में कहीं दिया जलाये: हरेक को ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है , घर का
एक सदस्य ही दीपक जलाता है तो यह सारे वातावरण को जीवंत कर देता है । मैंने
व्यवहारिक रूप से यही देखा है । मैं कितने ही घरों में गया हूँ : छोटे, बड़े, झोंपड़े,
बंगले और सब जगह, मैंने एक बात अवश्य देखी है , यहाँ तक कि एक छोटी झोंपड़ी में भी
,उन्होंने एक छोटा सा आला बना रखा है और उसमें मोमबत्ती या कुछ और रख रखा है; और
सारे वातावरण में इसका प्रभाव है, कुछ अच्छा सा ।
यदि किसी ऐसे
घर में आप जायें, जहाँ कुछ नहीं है, पवित्रता का कोई भी प्रतीक या दिया आदि नहीं जलाया
जाता, वहाँ एक प्रकार की नीरसता की अनुभूति होती है ।
मैंने ऐसा
देखा है । इसीलिये मैं कहूँगा कि, घर में आले का होना, थोड़ी रीतियों का होना
आवश्यक है । घर में कोई एक ऐसा कर सकता है; घर की स्त्री या पुरुष कोई भी । बच्चों
के लिये भी यह देखना ठीक है कि उन्हें भी धर्म या अध्यात्म के स्वाद को ग्रहण करने
के लिये कुछ करना चाहिये ।
इस देश में
आपको ऐसा बसों में भी मिल जायेगा । हर बस, टैक्सी, कार, रिक्शा का चालक सुबह सब से
पहले एक छोटा फूल रख कर या अगरबत्ती जला कर सिर झुकाता है और यह छोटी सी चीज़ उनके
जीवन में गुणकारी परिवर्तन लाती है । भारत में दुकानों और होटलों में भी दीपक रखने
का आला बना रहता है ।
आप उनसे पूछ
सकते हैं कि “आप ऐसा क्यों करते हैं?” शायद कोई इस पर शोध भी कर सकता है ।
यह उन्हें एक
प्रकार का मानसिक बल प्रदान करता है । एक प्रकार से यह वातावरण को जीवंत बनाता है
। मुझे ऐसा ही लगता है । भारत में, सरकारी दफ्तरों में भी ऐसा किया जाता है । अपने
दफ्तर में हर अफसर ने दिया जलाने का स्थान बना रखा होता है ।
कर्नाटक में
तो यह कुछ ज्यादा ही है । यदि मुख्यमंत्री को शपथ लेनी होती है , या फिर नये दफ्तर
में जाना होता है, तो वह वहाँ एक सम्पूर्ण पूजा या और सब का आयोजन किया जाता है ।
विश्व भर में
ऐसा ही है । यू एस की सीनेट में और कनाडा के सदन में, हर रोज़ प्रार्थना का समय
होता है । हर सदन के लिये एक पादरी है, जो आता है और पवित्र बाइबल का पाठ करता है
। केवल भारत में ही हम धर्म निरपेक्षता और धर्म निरपेक्षता की बात करते हैं । यह
एक प्रकार की बीमारी है जिस से कि हम स्वयं को सारी समझ, ज्ञान और प्राचीन
परम्पराओं से दूर रखने का प्रयत्न करते हैं । लोग ऐसा करने का प्रयत्न तो करते
हैं, परंतु ऐसा होता नहीं है । यह हर एक में इतने गहरे से धँसा है ।
प्रश्न : गुरुदेव,
किसी भी प्रकार के अन्याय से निपटने का सर्वोत्तम तरीका क्या है ?
श्री श्री
रविशंकर :
कभी कभी आप जिसे अन्याय समझते हैं वो दूसरे की दृष्टि में अन्याय नहीं होता । हो
सकता है कि यह अन्याय हो ही न ।
आपको अन्याय
के खिलाफ खड़ा होने की आवश्यकता है, परंतु बुद्धिमत्ता और जागरुकता के साथ, क्योंकि
हर कोई जो गुस्सा या परेशान होता है, हमेशा कहता है, “मैं अन्याय सह रहा हूँ ।”
गुस्से की आग
के पीछे, न्याय के लिये पुकार होती है, या न्याय की गुहार होती है। परंतु, जब आप
विश्लेषण करते हैं, इसकी गहराई में जाते हैं, तो इसको बिल्कुल भी सही नहीं पाते। यह
बिल्कुल भी ठीक नहीं होता ।
इसलिये, मैं
कहूँगा कि,पहले आपको शांत दिमाग से विश्लेषण करना चाहिये, और फिर अन्याय के खिलाफ
खड़े होना चाहिये ।
प्रश्न : गुरुदेव,
यह कहा गया है कि अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ने के लिये ब्रह्मचर्य एक महत्त्वपूर्ण
अंग है । ब्रह्मचर्य को मन में कैसे लाया जाये ? क्या यह केवल शारीरिक है या
मानसिक अधिक है?
श्री श्री
रविशंकर :
दोनों ही है । ब्रह्मचर्य का पालन हो जाता है , इसे आप स्वयं पर थोप नहीं सकते । देखिये,
जब परीक्षा के दिन होते हैं और आप परीक्षा के लिये पढ़ रहे होते हैं , उन दिनों ,
सभी विद्यार्थी अपरिहार्य रूप से यह कहते हैं, “हमें सेक्स के विषय में कोई विचार नहीं आते । हम
परीक्षा में इतने व्यस्त होते हैं ।”
इसी प्रकार जब
आपको कोई अति महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट पूरा करना होता है और आप बहुत मेहनत कर रहे
होते हैं, तो भी ब्रह्मचर्य का पालन स्वयं ही हो जाता है ।
ऐसे ही ध्यान
के द्वारा; जब आपके भीतर ऊर्जा जागृत होती है तो आपको ऐसे परमांनद, रोमांच व
हर्षातिरेक की प्राप्ति होती है कि ब्रह्मचर्य का पालन स्वयं ही होने लग जाता है ।
वास्तव में, ऊपरी तौर पर यह पीड़ादायी है ।ब्रह्मचर्य मन के भीतर की ओर जाने का ही
परिणाम है । जब आप देखते हैं कि ये सब कुछ नहीं है ; कोई भी चीज़ कुछ भी नहीं है ।
यदि कुछ हो भी रहा है तो यह ऊपरी स्तर पर ही हो रहा है । ऊपरी स्तर से सम्बन्धित
होने के कारण सभी क्रियायें हैं लगभग अप्रासंगिक हो जाती हैं, और यहीं पर
ब्रह्मचर्य का पालन शुरु हो जाता है ।
इसका अर्थ यह
नहीं है कि आप यह कहें कि , ‘ओह, जब ऐसा होगा तब होगा ।
तब तक ऐसे ही चलने दो’। नहीं !
मध्य पूर्व के
एक प्रोफेसर ने बहुत ही दिलचस्प बात कही है । उसने कहा कि शरीर का हर द्रव्य
मस्तिषक के द्रव्य से जुड़ा है, और किसी भी द्रव्य के नष्ट होने पर मस्तिष्क का
द्रव्य 20% तक कम हो जाता है । यह एक बहुत बड़ा शोध कार्य है, जोकि वे लोग कर रहे
हैं ।
तो इसीलिये,
पहले समय में लोग यह कहते थे कि यदि आप विद्यार्थी हैं और आप को दिमागी काम करना
पड़ता है, तो आप को ब्रह्मच्र्य का पालन अवश्य करना चाहिये ।
इसलिये, पहले
पच्चीस साल में, व्यक्ति को ब्रह्मचर्य (शिक्षा का यौवनावस्था के पूर्व का वो
समय,जिसमें कि ब्रह्मचर्य को कड़ाई से अपनाना होता था) का पालन करना चाहिये।
फिर 25 से 50
साल तक आता है – गृहस्थ आश्रम । तब आप पारिवारिक
जीवन का आनंद व मज़ा ले सकते हैं, परंतु 50 के बाद नहीं ।
50 के बाद,
आपको धीरे धीरे बाहर निकलना होता है, नहीं तो यह आपके लिये लत बन जायेगी ।जब लोगों
को यह लत लग जाती है तो शरीर काम नहीं कर पाता, पर दिमाग इसी लिये उत्कण्ठित रहता
है । मन और शरीर को साथ साथ चलना चाहिये । नहीं तो, यह एक प्रकार की बीमारी, मैं
कहूँगा कि ब्युलीमिया, बन जाती है । आपका शरीर तो कहता है कि और खाना नहीं, पर, मन
कहता है, नहीं, और खाओ ।
इसी प्रकार,
70-80 साल के लोग पोर्नोग्राफी देखते हैं, चाहे वे कुछ नहीं कर सकते । यह बहुत ही
अफसोसजनक स्थिति है । यह ब्रह्मचर्य नहीं है। यह मन है जो कि होश में नहीं है ।
संयम ही
ब्रह्मचर्य कहलाता है ; संयम ब्रह्मचर्य है ।
प्रश्न : गुरुदेव,
आज जो भोजन हम खा रहे हैं, उसमें बहुत से रसायन हैं और सरकारी नीतियां इसको बढ़ावा
देती हैं । इस से कैसे निपटें ?
कृप्या जैविक
भोजन और जैविक कृषि के विषय में भी चर्चा करें ।
श्री श्री
रविशंकर :
जैविक कृषि धरती का भविष्य है । यदि हम चाहते हैं कि धरती पोषित रहे, तो हमें
जैविक होना ही पड़ेगा । कोई और रास्ता नहीं है । ऐसे लोग भी हैं, जोकि इतने लोभी और
स्वार्थी हैं कि वह पृथ्वी की चिंता नहीं करते, इसलिये वे किसानों में इन हानिकारक
पदार्थों का प्रचार करते हैं । एक या दो फसलें बहुत अच्छी आ जाती हैं और यह
किसानों को लुभाता है और वे इन्हें ले लेते हैं । एक बार वे इसका प्रयोग करते हैं
तो, तीसरी या चौथी फसल से सब खराब होने लग जाता है और यहां तक कि धरती की बेकार हो
जाती है । धरती कृषि के योग्य नहीं रहती । यही समस्या है ।
इसीलिये, हमने
किसानों को जैविक कृषि; प्राचीन समय जैसी खेती, सिखाने के लिये एक कृषि संस्थान की
स्थापना की है ।
प्राचीन समय
में, वे तीन फसलें एक साथ उगाते थे । यदि एक फसल मर भी जाती तो दो अन्य तो बनी
रहती । इसलिये लोग कभी भूखे नहीं मरते थे । वे कभी दिवालिया नहीं होते थे, और न ही
कभी घाटे में जाते थे । वे गन्ने को, किसी दाल के साथ उगाते थे और यदि एक फसल खराब
हो जाती, तो बाकि दो तो रहती ही । प्राय : तीनों फसलों की ही पैदावार हो जाती थी
और विवधता के कारण धरती में नाइट्रोजन की मात्रा अपनेआप ही बनी रहती थी । यही वो
खेती है, जिसकी ओर कि हमें वापिस जाना होगा ।
हमें “अग्निहोत्र यज्ञ” करना होगा और यह हानिकारक कीड़ों व विनाशकारी कीटों को
नियंत्रित करेगा । इसलिये आपको कीट नाशकों के छिड़काव की आवश्यकता नहीं है । फिर
प्राकृतिक कीट नाशक, जैसे कि ग़ौमूत्र, नीम के पत्ते और ऐसी बहुत सी चीज़ें भी तो
हैं ।
इसलिये हमें
इस प्रकार की खेती को ओर वापिस जाने की आवश्यकता है जोकि जल, पृथ्वी और लोगों के
स्वास्थ्य का नाश न हो ।
प्रश्न : गुरुदेव,
मैंने अपने परिवार के तीन सदस्यों को खो दिया, क्योंकि हम तीन गलत डॉक्टरों के पास
चले गये । हम चिकित्सीय सेवायों के साथ क्या गलत कर रहे हैं, और हम इन्हें कैसे
सुधार सकते हैं ?
श्री श्री
रविशंकर :
इस विषय में तो चिकित्सकों को बैठ कर चर्चा करनी होगी ।
सबसे पहले तो
मैं कहूँगा कि, चिकित्सकों को ध्यान करना चाहिये । जब वे ध्यान करेंगे, तो उनके मन
साफ होंगे और वो अपने भीतर गहरे में छिपे अंतर्ज्ञान तक पहुँच पायेंगे ।
आयुर्वैदिक
चिकित्सक ऐसा ही करते हैं । वे बस आप की नब्ज़ पकड़ते हैं और बता देते हैं कि आपको
क्या परेशानी है । ऐसा करने के लिये भी उन्हें ध्यान करना चाहिये, यह बहुत
महत्त्वपूर्ण है । अंतर्ज्ञान के भीतरी स्रोत तक पहुँचने के लिये मन का कम्पायमान
होना आवश्यक है ।
देखिये यदि
उन्हें अंतर्ज्ञान नहीं होगा तो वे अंधकार में ही तलाशते रहेंगे कि कौन सी दवा दें
। इसी कारण, चिकित्सक तो बहुत से हैं परंतु कुछ के पास ही लोगों को स्वस्थ करने की
प्रतिष्ठा है । क्यों ? ऐसा इसलिये कि उनके पास अपनी अंतर्ज्ञान की योग्यता तक
पहुँचने का और रोगी को सही दवा देने का उपहार है ।
चिकित्सकों को
ध्यान करना चाहिये और फिर शांत मन से रोग की पहचान करके दवा देनी चाहिये । हाल ही
में, मैंने एम्ज़ द्वारा किये गये एक सर्वे को पढ़ा जहाँ पर कि उन्हें पता चला कि
60% चिकित्सक स्वयं ही बीमार हैं । उनके ध्यान का विस्तार इतना कम है । इसीलिये
नर्स को ऑप्रेशन के दौरान चिकित्सक को दिये जाने वाले औज़ारों को गिन कर देना पड़ता
है और फिर वापिस लेने के बाद फिर से गिनना पड़ता है । बहुत बार वे चिमटी, चाकू या
सूइयां शरीर के अंदर ही छोड़ देते हैं और इसे सी देते हैं ।
इसलिये उन्हें
सूचि बनानी पड़ती है कि कितने औज़ार उन्होंने दिये और कितने वापिस लिये ।
इसलिये हर चिकित्सक
को कुछ समय निकाल कर विश्राम करने की आवश्यकता है, वे तनावयुक्त होने का खतरा मोल
नहीं ले सकते ।
पायलट, एयर
कंट्रोल टॉवर में काम करने वाले लोग, चिकित्सक, ये कुछ ऐसे कार्य हैं जहाँ बहुत
मात्रा में मानसिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है । उन्हें हमेशा तैयार रहना पड़ता है ।
उन्हें सदा सचेत रहना होता है । वे एक छोटी सी गलती करने का भी जोखिम नहीं उठा
सकते ।
एयर कंट्रोल टॉवर में बैठा व्यक्ति एक मिनट ले
लिये भी झपकी नहीं ले सकता, उसे बहुत ही निश्चित और सचेत रहना होता है । पर वे ऐसा
कैसे कर सकते हैं जब तक कि उनके पास मानसिक ऊर्जा या ध्यान से प्राप्त जागरुकता न
हो ? इसीलिये इन लोगों के लिये, जिन्हें कि अति दबाव और अति जोखिम में काम करना
होता है, के लिये ध्यान आवश्यक है ।
प्रश्न : गुरुदेव,
सहज रहना मुझे जीवन में कैसे सफल बना सकता है ? कृप्या विस्तार से बतायें ।
श्री श्री
रविशंकर : जैसे
कि तीर को आगे की ओर छोड़ने के लिये आपको इसे पीछे की ओर खींचना पड़ता है न ?इसी
प्रकार सहजता आपको गहन विश्राम प्रदान करती है, और यह आपको अंतर्ज्ञान,
सृजनात्मकता और ऊर्जा के स्रोत तक पहुँचने में सहायता करती है । तब आप उसमें से
बाहर आकर काम करते हैं ।
आप यह नहीं कह
सकते कि, “मैं सितार या गिटार सीखने के
लिये कोई यत्न नहीं करूँगा, पर मैं एक महान सितार वादक बनना चाहता हूँ ।” यह असम्भव है । आपको यत्न करना पड़ता है । साथ ही,
सहजता आपको यत्न करने में सहायता करती है ।
प्रश्न : क्या
हर आत्मा को एक दिन मोक्ष की प्राति होगी ? यह सृष्टि कब तक चलेगी और क्या हमें
अगले जन्म में भी कृपा की प्राप्ति होगी ?
श्री श्री
रविशंकर :
आप अपनी बात करिये । आप विश्व की सब आत्मायों के बारे में क्यों पूछ रहे हैं ? सबसे
पहले तो क्या सारी आत्मायें मोक्ष चाहती भी हैं ? वे शायद चाहती ही न हों, है न ?
जानते हैं,
कभी कभी हम ऐसे व्यापक कथन बोलते हैं और ऐसे ही व्यापक प्रश्न पूछते हैं । मुझे
बिल्कुल भी पता नहीं कि सभी आत्मायों को मोक्ष की प्राप्ति होगी या नहीं, परंतु
यदि आप इसे पाना चाहते हैं, तो हाँ, यह सम्भव है । पूरी पूरी सम्भावना है ।
आइये इसे इसी
जन्म में पूरा कर लें, मुझे अगले जन्म में भी क्यों घसीट रहे हैं?
ईश्वर हर रूप
में है । कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ ईश्वर मौजूद न हों । ईश्वर हर जगह है ।
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