२३
२०१३
जून
|
बैंगलुरु आश्रम, भारत
|
प्रश्न: आज
हजारों वालंटियर सेवा में जुट गए हैं, तो उन सबके लिए आपका क्या सन्देश है?
श्री श्री
रविशंकर: देखिये,
हम युद्ध के समय तीर चलाना सीखने जाए, ऐसा तो नहीं होता| पहले से ही ये वालंटियर
तैयार हैं| ये एक बेहतर भारत के लिए स्वयंसेवक हैं| और ऐसे मौके पर वो इस बात की
प्रतीक्षा नहीं करते कि गुरूजी कुछ बोलेंगे तभी हम जायेंगे| जहाँ जहाँ ज़रुरत पड़ी,
वहां वहां वे खुद ही कूद पड़ते हैं|
प्रश्न:
हजारों लोग इन तीर्थ स्थानों पर पूरी श्रद्धा और भक्ति से गए थे| तो भगवान शिव ने
उन्हें क्यों नहीं बचाया?
श्री श्री
रविशंकर: पहली
बात आप ये समझिये, कि भगवान शिव सिर्फ एक जगह नहीं हैं| भगवान शिव के लिए सब बराबर
है| पूरी दुनिया उनकी अपनी है| कण-कण में भगवान है| हम तीर्थ यात्रा भगवान को
ढूँढने के लिए या फिर उन्हें देखने के लिए नहीं करते हैं| हमारे पूर्वजों ने तीर्थ
यात्रा की पद्धति इसीलिये बनाई ताकि इससे समाज जुड़ सके| पूरब से पश्चिम, उत्तर से
दक्षिण तक भारत एक होकर जुड़ जाए| इसीलिये उन्होंने तीर्थ स्थानों की स्थापना करी| ऐसा
नहीं है, कि भगवान सिर्फ तीर्थ-स्थानों में ही मिलेंगे| भगवान तो सब जगह हैं| जहाँ
भी तुम हो, वहां हैं| हाँ, हम तीर्थ-स्थान जाते हैं, क्योंकि किसी स्थान की भी कोई
विशेषता और महिमा होती है|
और हमें ये सब
नहीं सोचना चाहिए कि भगवान ने हमें क्यों नहीं बचाया, उन्हें क्यों बचाया| या
उन्हें क्यों बचाया, किसी और को क्यों नहीं बचाया? इस तरह के प्रश्न फ़िज़ूल हैं|
समझ रहे हैं न?
तो ईश्वर सब
जगह हैं| ईश्वर को ढूँढ़ते हुए आप कैलाश मानसरोवर की यात्रा मत करिए| हाँ, वहां
जाईये और वहां बैठकर ध्यान करिए| जैसे ही स्थान का परिवर्तन होता है, तब मन में भी
परिवर्तन आता है| पहले ज़माने में लोग पैदल चला करते थे| पैदल चलकर शरीर का भी
व्यायाम हो जाता है, और पहाड़ चढ़ते चढ़ते सांस में भी उतार-चढ़ाव आता है| फिर, मन और
शरीर के दोष दूर हो जाते थे| तब वे ठन्डे पानी में बैठ कर स्नान करते थे, और ध्यान
करते थे| इस वजह से लोग तीर्थ जाते थे| ऐसा नहीं है, कि भगवान वहां ऊपर बैठे हैं,
और आपके वहां न जाने पर आपसे नाराज़ होंगे| नहीं, ऐसा नहीं है|
ईश्वर को
ढूँढ़ते हुए आपको कहीं नहीं जाना| हाँ, तीर्थ यात्रा तो करिए, लेकिन ईश्वर को साथ
लेकर! और प्रकृति की आपदाएं तो समय समय पर होती ही हैं| लेकिन मनुष्य के अपराधों
के कारण यह अधिक हो जाता है| हम लोग पर्यावरण का संरक्षण नहीं करते हैं| उसपर
ध्यान नहीं देते| इसीलिये ऐसी दुर्घटनाएं होती हैं|
अब ऐसी ऐसी
जगहों पर जब इतनी भीड़ होती हैं, इतने लोग जाते हैं, तो उसके लिए ठीक से यातायात का
प्रबंध भी होना चाहिए| सिर्फ एक नहीं, दो या तीन सड़कें होनी चाहिए| एक के टूटने पर
दूसरा कोई विकल्प होना चाहिए| हजारों सालों से हमारे यहाँ के तीर्थ स्थान एक
उपेक्षित अवस्था में पड़े हुए हैं| तो हमें इसको सुधारना है| एक सड़क के टूटने पर
दूसरी सड़क की सुविधा तो होनी ही चाहिए| इन सबकी ऐसी उपेक्षा करी है, इसीलिये ये
दुर्घटना हुयी है|
भगवान शिव को
तो सब प्रिय हैं, उनके लिए सब बराबर हैं| तो ऐसा मत सोचिये कि उनकी कृपा में कोई
कमी है| जीवन में सुख आता है, दुःख आता है, प्रकृति का विकोप भी होता है – ये प्रकृति का ढंग हैं|
प्रश्न:
गुरूजी, जिन्होंने इस आपदा में अपने मित्र, सगे-सम्बन्धी और परिवारजनों को खोया
है, उनके मन में आस्था और श्रद्धा की पुनर्स्थापना कैसे करें?
श्री श्री
रविशंकर: मृत्यु
कहीं भी आ सकती है| ऐसा नहीं है, कि आप किसी जगह पर जायें तभी आपकी मृत्यु होगी|
घर बैठे बैठे भी मृत्यु आ जाती है| ये जन्म-मरण की प्रक्रिया है, इससे कोई बच नहीं
सकता| जन्म और मरन ये दोनों प्रकृति-जनक हैं|
इसलिए, आप
धीरज रखिये| आत्मा अमर है| और जो उस पार हैं, उनकी आत्मा की सद्गति के लिए आप शांत
होकर प्रार्थना करिए, और अपने आप को संभालिये| इस तरह की घटनाएं होती हैं, कभी
एक्सीडेंट हो जाता है, या लापरवाही हो जाती है| जिस भी वजह से हुआ हो, ‘ऐसा क्यों हुआ’, ये सोच-सोच कर अफ़सोस करने
के बजाय, आप इसे स्वीकार करके आगे बढ़िये| श्रद्धा और आस्था खोने से हमें कोई विशेष
लाभ नहीं होगा| यदि ऐसा करेंगे तो और नुकसान हैं, आपका और मन गिरने लगेगा| इसलिए,
आपनी श्रद्धा और आस्था को बनाएं रखें| एक डूबते हुए को एक तिनका भी काम आ जाता है|
इस तरह से, हमारे भीतर जितनी भी श्रद्धा और विश्वास है, उसे पकड़ के रखिये और इस
भरोसे के साथ रहिये कि ऐसी दुर्घटना फिर न हो| और जीवन में जो दुःख आपको झेलना पड़
रहा है, उस दुःख से आपको राहत मिले| ईश्वर आपको वह बल और शक्ति दे कि आप इस घोर दुःख
से बाहर निकल पाएं|
प्रश्न:
टीवी में कई चैनलों पर शिव जी की मूर्ति पानी में डूबी हुयी दिखा रहे हैं, और साथ
में हैडलाइन है ‘अब किसको प्रार्थना करें’|
श्री श्री
रविशंकर: हम
मूर्ति की प्रार्थना थोड़े ही न करते हैं| मूर्ति तो केवल एक चिन्ह है| प्रार्थना
तो परमात्मा की ही होती है| ये कुछ चैनल जानबूझ कर ऐसा करते हैं, ताकि वे लोगों की
आस्था तोड़े और उन्हें नास्तिक बनाएं| या फिर उन्हें किसी और धर्म में ले जाने की
चेष्टा करते हैं| इससे बचना चाहिए| इस तरह के दुरुद्देश्य के साथ जो कार्य करते
हैं, वह निंदनीय है| प्रार्थना तो तभी करते हैं, जब पानी नाक तक आ जाए, नहीं तो
प्रार्थना कब करोगे? आपत्ति में भी यदि कोई प्रार्थना न करे, तो फिर कब करेगा? जब
संपत्ति आती है, तब तो वह वैसे भी प्रार्थना करना भूल ही जाएगा| ये आपत्ति का समय
प्रार्थना का ही समय है| “अब किसकी प्रार्थना करोगे” – ये बात नहीं है| जिसकी भी करोगे, वो ‘उस एक’ का ही रूप है| उस एक को ही
शिव कहते हैं, विष्णु, कृष्ण कहते हैं| अलग अलग नाम हैं, उसे ही गुरु तत्व कहते
हैं| उसी की प्रार्थना करो| प्रार्थना ही तुम्हारा जीवन-रक्षा कवच है| उसको पहन के
चलिए|
प्रश्न: जब
कभी कोई दुर्घटना होने वाली होती है, तब कुछ जीव-जंतुओं को पहले ही इसका आभास हो
जाता है| लेकिन मनुष्यों को अपने वैज्ञानिक विकास के बाद भी इसका पता नहीं चलता|
इसका क्या कारण है?
श्री श्री
रविशंकर: वे
अंतर्मुखी होना भूल गए हैं| यदि वे थोड़ा सा भी अंतर्मुखी हो जाएँ, तो हमें खबर मिल
सकती है| हमें लगने लगता है, कि यहाँ से चलना ही ठीक रहेगा, यहाँ से हटें तो ठीक
है| पशु-पक्षी को बचाने वाला जो है, वो हमारे अन्दर भी है, लेकिन हम उस आवाज़ को
सुनते ही नहीं हैं| हमारे भीतर भी वह आवाज़ हैं, लेकिन हम अपनी आत्मा से जुड़े नहीं
हैं| हम आज भी परमात्मा से स्वयं को अलग समझते हैं – बस
यही कारण है|
प्रश्न: अब
ये जो तीर्थ स्थान तहस–नहस हो गए हैं, तो अब आगे
क्या होगा?
श्री श्री
रविशंकर: देखिये,
तीर्थ-यात्रा हजारों साल से चली आ रही है, और आगे भी चलती रहेगी| पर इन सब
तीर्थ-स्थानों का उद्धार करना सरकार का कर्तव्य है, और उन्हें स्वच्छ रखना आम-जनता
का कर्तव्य है| सरकार अपना कदम उठाये, इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाये, और उसकी रक्षा करने
में आम-जनता अपना कदम उठाये| तब तीर्थ-यात्रा चलती रहेगी| आज तीर्थ-यात्रा ही है,
जिसने भारत को इस तरह जोड़कर रखा हुआ है| कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, अमरनाथ से
लेकर रामेश्वरम तक, सोमनाथ से लेकर कामख्या तक - यदि कोई एक कड़ी है तो वह धार्मिक
भावना है, तीर्थ-यात्रा है|
इन
तीर्थ-यात्राओं को और धार्मिक स्थलों को स्वच्छ रखना और वहां सुविधा बनाये रखना – ये आवश्यक है| अब यहाँ की व्यवस्था तो दो-सौ साल पुरानी है|
200 साल पहले जैसे लोग पगडंडियों पर चलते थे, आअज भी वैसे ही चल रहे हैं| यातायात
की अच्छी सुविधा होनी चाहिए| इन्फ्रास्ट्रक्चर बढ़ाना चाहिए| पर्यावरण को नुक्सान
पहुंचे, ऐसे प्रोजेक्ट वहां नहीं करने चाहिए|
तो
तीर्थ-यात्रा हम भगवान से मिलने जाने के लिए नहीं करते, बल्कि हम जहाँ भी हैं,
वहीं भगवान है – ऐसा मानिये| भगवान कण-कण में हैं|
एक विशेष स्थान पर नहीं हैं| किसी स्थान पर जाने का कारण सिर्फ एक ही है – भारत को जोड़ना| यही हमारे पूर्वजों ने सोचा था| इसीलिये,
तीर्थ-यात्रा बनी| हम वहां आस्था के साथ जाते हैं, ये सोचकर कि वहां पुण्य मिल
जाएगा|
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