"थोड़ा सा त्याग करने से भी व्यक्ति का व्यक्तित्व खिल उठता है"

बैंगलोर आश्रम, १ सितंबर २००९

प्रश्न: हम मे से हरेक के पास विश्व के लिये एक संदेश है, पर वह माया से ढक जाता है। उस संदेश को बाहर कैसे लायें?

श्री श्री:
जब हम शांत और अनासक्त होते हैं, तो हमारा संदेश खुद ही बाहर आ जाता है।

प्रश्न: संकल्प का क्या महत्व है, और इसे कैसे शक्तिशाली बनायें? क्या विश्व संकल्प के बल पर ही चलता है?

श्री श्री:
मन में संकल्प और विकल्प भरे हुये हैं। हर काम संकल्प से ही पूरा होता है। अपना हाथ हिलाने की प्रक्रिया के पहले हाथ हिलाने का संकल्प आता है। अगर मन में एक साथ २० संकल्प उठें तो कोई काम नहीं होता। जब हमारा मन शांत और विश्राम की स्थिति में हो तो हमारा संकल्प शक्तिशाली बनता है।

एक कमज़ोर मन का संकल्प कमज़ोर होता है, और शक्तिशाली मन का संकल्प शक्तिशाली होता है। हम अपने मन को साधना और ज्ञान से शक्तिशाली बना सकते हैं। तब संकल्प भी शक्तिशाली होगा। एक ज्ञानी व्यक्ति ५० दिनों के बाद एक संकल्प करता है और एक अज्ञानी व्यक्ति एक दिन में ५० संकल्प करता है।

प्रश्न: अगर विपरीत मूल्य एक दूसरे के पूरक होते हैं, तो क्या मैं अच्छा हूं या बुरा, या दोनो ही?

श्री श्री:
तुम अपने आप पर अच्छे या बुरे होने का लेबल क्यों लगाना चाहते हो? लेबल को छोड़ो और सहज हो कर रहो। शांति से रहो। जब हम किसी दुर्गुण को अपना समझते हैं तो हम आत्मग्लानि से भर जाते हैं। जब हम किसी सदगुण को अपना समझते हैं तो हम घमंड से भर जाते हैं। ये दोनों ही स्थितियां मन की अस्वस्थता दिखाती हैं। सदगुण और दुर्गुण, दोनों ही परमात्मा को समर्पित कर दो।

एक समर्पित व्यक्ति अच्छा ही होगा। समर्पण से जीवन केंद्रित और चरित्रवान हो जाता है। इन दोनों के बिना जीवन को दिशा नहीं मिलती।

थोड़ा सा त्याग करने से भी व्यक्ति का व्यक्तित्व खिल उठता है। त्याग के बिना तेज नहीं आता। त्याग से जीवन में लंबा सा दुखी चेहरा लटकाकर नहीं रहना होता। विरक्त आनंद में रहते हैं, जबकि कामी लोग दुख के बोझ से दबे रहते हैं। अपने आप को खाली कर देना, समर्पण है, साधना है।

प्रश्न: क्या आत्मसाक्षात्कार के लिये दिन में एक घंटे की साधना काफ़ी है?

श्री श्री:
२४ घंटे भी काफ़ी नहीं हैं और दस या दो मिनट की समाधि भी काफ़ी है। साधना समय सापेक्ष नहीं है। अपने पूरे जीवन को साधना बना लो। पर, साधना ना करने के लिये ये बहाना नहीं बनाना! और ये भी मत सोचना कि दिन में एक घंटे साधना कर लेने पर तुम बाकी समय मनमानी कर सकते हो।

प्रश्न: मैं परमात्मा पर केंद्रित हूं, फिर भी बेचैनी है। हालांकि बाहर से सब एकदम ठीक लगता है।

श्री श्री:
हरेक साधक के जीवन में ऐसा समय आता है जब दिल बेचैन हो जाता है। पश्चिमी देशों में इसे कहते हैं - आत्मा के लिये काला दिन।

ऐसा समय आता है जब सत्वगुण कम हो और रजोगुण और तमोगुण अधिक हो, तो बेचैनी का जन्म होता है। तीन तरह की ताप जीवन में आते हैं, जिनमें से एक है, आध्यात्मिक ताप। पर ये थोड़े समय के लिये ही होता है। इसीलिये सत्संग बहुत आवश्यक है, खासतौर पर तब जब तुम्हारा मन सत्संग करने का बिल्कुल नहीं होता। १२ वर्षों में एक बार आध्यात्म में कमी आती है। तब अपने आप पर, साधना के मार्ग पर और गुरु पर शंका होती है। शास्त्रों में ऐसा बताया है। इसीलिये कुंभ मेला १२ साल में मनाया जाता है और तब सब संत मिलकर अपने सभी पाप धो लेते हैं। ये परंपरा बहुत पुरानी है। जिस स्थान पर साधक सत्संग करते हैं और जहाँ वेदों का उच्चारण होता है, वहां कलियुग कभी नहीं आता।

प्रश्न: कोई कार्य करने से पहले मुहूर्त देखने का क्या महत्व है?

श्री श्री:
ज्योतिष को ज्ञान की आंख कहा गया है। पर आजकल के ज्योतिषियों पर पूरी तरह विश्वास नहीं कर सकते हैं। ज्योतिष के पीछे दौड़ो मत। ज्योतिष ज्ञान का एक क्षेत्र है, शास्त्र है, और सत्य है। ज्योतिष एक विज्ञान है पर हर ज्योतिषी विज्ञानी नहीं है। साधना में बहुत शक्ति होती है। शिवजी, महाकाल हैं। जैसा भी काल हो, बस ॐ नमः शिवाय कहो। शिव में सभी पंचतत्व आ जाते हैं। शिव के बाहर कुछ नहीं है। ये बहुत शक्तिशाली मंत्र है।

जब तुम मंत्र का जप करो तो ये मत समझ लेना कि शिव यानि पूरे शरीर पर भस्म लगाये, हाथ में त्रिशूल लिये कहीं बैठें हैं...ये सिर्फ़ एक चित्रकार की कल्पना है। शिव, चैतन्य तत्व है, हमारी आत्मा है, हर जगह वर्तमान है, ऊर्जा का क्षेत्र है।

तुम्हें पता है कि हम माथे पर भस्म क्यों लगाते हैं? हमारे माथे पर तीन प्रकार के mites होते हैं, जो कि हमारे अंगूठे के निशान की तरह हर व्यक्ति में दूसरों से अलग होते हैं। इन mites को इनके स्थान में रखने के लिये हम माथे पर तीन रेखायें बनाते हैं।

रूस में हुये एक अध्य्यन में ये पाया गया कि गाय के गोबर या अग्निहोत्र की भस्म से लिपे हुये स्थान पर Chernobly disaster के दौरान परमाणु radiation से हुये बुरे असर बहुत कम हो गए थे।

प्रश्न: मै आश्रम में अपने आप को सुरक्षित महसूस करता हूं। बाहर की दुनिया में वापिस जाने के विचार से ही मुझे भय लगता है। मैं क्या करूं?

श्री श्री:
ठीक है, भय को रहने दो। जोश को जागृत करो। जो भी हो उसे होने दो। कम से कम ये विश्वास रखो कि तुम अकेले नहीं हो। दिव्य शक्ति तुम्हारे साथ है।

इस बात पर गौर करो कि भय के स्पंदन को तुम शरीर में कहां मह्सूस करते हो? हृदय में, कंठ में, शरीर के अन्य भागों में? प्राणायाम, भस्त्रिका और सुदर्श्न क्रिया करो। अपने आप को व्यस्त रखो, खाली बैठकर सोचने का समय ना दो। तब भय के लिये कहां समय है?


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