"ध्यान में बैठना सर्वोत्तम पूजा है"


बैंगलोर आश्रम, ४ सितंबर २००९

प्रश्न : लाखों लोग आध्यात्म के पथ पर चलते हैं, पर कोई कोई व्यक्ति ही लक्ष्य तक पहँच पाता है। क्या मैं उन भाग्यशाली व्यक्तियों की गिनती में आ सकता हूं?

श्री श्री रवि शंकर :
ये कोई नई बात नहीं है। भगवद गीता में भगवान कृष्णः ने कहा था कि विश्व की इतनी जन्संख्या में से कुछ ही लोग इस पथ पर चलते हैं।

जैसे प्रधान मंत्री की कुर्सी के लिये कई लोग चुनाव लड़ते हैं, पर अंत में एक ही चुना जाता है। जैसे कई लोग IPS, IAS अफ़सर बनना चाहते हैं..। आध्यात्म के पथ पर ये अच्छी बात है कि हर व्यक्ति लक्ष्य तक पहुँच सकता है।

बुद्ध के काल में दस हज़ार लोगों ने मुक्ति प्राप्त की। आज भी लाखों लोग साधना कर रहें हैं और उन में से कई लक्ष्य को पा लेंगे।

सागर के पास कुछ लोग जाते हैं ताज़ी हवा खाने के लिये। कुछ लोग सागर से मोती निकालने जाते हैं। कुछ लोग सागर से तेल निकालने के लिये जाते हैं। हमारी पात्रता ये निर्धारित करती है कि हम कहां पहुँचेंगे। इस पथ पर एक भी कदम बेकार नहीं जाता है। वो तुम्हें आगे ही ले जायेगा।

एक बार तुम प्रेम में पीड़ा का अनुभव कर लेते हो तो तुम मुक्ति चाहते हो। शांति और प्रेम के बिना, आनंद अधूरा है। आनंद हमारा स्वभाव है। वहाँ पहुँचने में कोई व्यवधान नहीं है। ये ना सोचो कि तुम वहाँ पहुँच पाओगे या नहीं। अगर तुम ऐसा चाहते हो, तो ये होगा – आज या कल।

प्रश्न : ईसाई धर्म में ‘फ़ैसले के दिन’ का क्या रहस्य है?

श्री श्री रवि शंकर :
ईसाई धर्म कहता है कि फ़ैसले का दिन आयेगा। उस दिन सभी मुर्दे धरती से बाहर आ जायेंगे, और उनसे उनके अच्छे और बुरे कर्मों का हिसाब लिया जायेगा, जिसके हिसाब से उन्हें स्वर्ग यां नर्क में भेजा जायेगा।

आज जो ‘फ़ैसले के दिन’ का मतलब समझा जाता है, वो उसका असल रूप नहीं है। समय के फेर और भिन्न व्याख्याओं से इसका अर्थ वो नहीं रहा जो कि असल में था। जिस भौगोलिक स्थान पर ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म का जन्म हुआ था, वहाँ लकड़ी की कमी थी। वहाँ की धरती पहाड़ी और पथरीली थी। वहाँ मुर्दों को दफ़न करना बेहतर विकल्प था, और ये महंगा भी नहीं था।

भारत में लकड़ी की तादाद बहुत थी, तो यहां मृत शरीर को जलाने की प्रथा चली। जबकि इस्लाम और ईसाई धर्म जहाँ जन्में वहाँ मुर्दों को जलाना संभव नहीं था। तो, स्थान के अनुसार लोग प्रथा बनाते हैं।

‘फ़ैसले के दिन’ की लोक प्रचलित व्याख्या ये है कि मरे हुये लोग अपनी समाधि से बाहर आयेंगे। पर ऐसा नहीं है।

बाइबल में ईसा ने कहा है, ‘Judge not and ye shall not be judged.’ ईसा कहते हैं, किसी व्यक्ति की आलोचना मत करो। निर्णय का काम भगवान पर छोड़ दो। एक दिन (फ़ैसले के दिन), भगवान अपना निर्णय उस व्यक्ति को देंगे।

भारत में हम कर्म पर विश्वास करते हैं, जिसका अर्थ है कि तुम अपने सभी कर्मों का फल भोगोगे। अच्छे कर्म सुख लायेंगे और बुरे कर्म दुख लायेंगे। इसी तरह, ईसाई धर्म में कहा कि किसी के कर्म की आलोचना मत करो, सबको अपने कर्मों का सलीब उठाना ही है।

प्रश्न : कभी कभी मैं अपने भीतर कई विकार पाता हूं, और ये महसूस करता हूं कि मैं आध्यात्म के पथ पर चलने लायक नहीं हूं। मैं क्या करूं?

श्री श्री रवि शंकर :
आत्मग्लानि से छुटकारा पाओ। अभी तक तुम आत्मग्लानि में तप रहे थे और तुम्हें ये पता तक नहीं था। अब जब तुम ये जान गये हो, तो इसे और नहीं सह पाओगे। इससे तुम साधक बन गये। कितने लोगों ने अपने विकार छोड़ दिये हैं। सत्संग और सेवा करते रहो और ध्यान की गहराई में जाओ – इस से तुम्हारे सब विकार और पुराने संस्कार मिट जायेंगे। अगर तुम एकदम नाकारा होते तो तुम्हें यहाँ, सत्संग में, इस पथ पर आने का सौभाग्य नहीं मिलता। तुमने कुछ अच्छे कर्म किये हैं। अपने अच्छे कर्मों पर भी ध्यान दो।

प्रश्न : क्या समाधि से आगे भी कुछ है?

श्री श्री रवि शंकर :
समाधि से आगे है बोध मात्र शुद्ध सत्ता।

ऐसी सजगता जो ना भीतर की है और ना बाहर की। बेहोशी नहीं है। शुद्ध चेतना है। कोई फ़र्क नहीं पड़ता चाहे आंखें खुली हों या बंद – सब एक जैसा ही लगता है।

प्रश्न : समाधि क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
जब मन केन्द्रित और विश्राम में होता है, तब समाधि की एक झलक मिलती है। सुदर्शन क्रिया के बाद जब तुम लेटते हो तो ये अनुभव तुम्हें होता है। जब तुम्हें लगता है – मुझे पता नहीं मैं कहाँ हूं, पर मैं हूं।

प्रश्न : आप कहते हैं कि भगवान के सभी रूप चित्रकार की कल्पना से बने है। फिर मंत्रजाप से इनका क्या संबंध है?

श्री श्री रवि शंकर :
कांचीपुरम के कामाक्षी मंदिर में एक सुंदर स्वरूप है। वहाँ तुम्हें प्रसाद मिलता है। पर ऐसा कहा जाता है कि इस का फल तुम्हें तब तक नहीं मिलेगा जब तक तुम इसे मंदिर के पीछे अरूप लक्ष्मी को अर्पित नहीं करते। अरूप लक्ष्मी से तुम्हें फिर प्रसाद मिलता है।

इसका अर्थ बहुत गहरा है। ये एक प्रथा है जिसकी जड़ वेदांत में है। तुम्हें रूप से अरूप तक ले जाया जाता है। पहले तुम रूप की पूजा करते हो, फिर शालिग्राम (काले रंग का गोलाकार पत्थर) की। मन, जब रूप में केंद्रित हो जाता है, तब उसे गोल पत्थर में केंद्रित किया। जब वहाँ मन लग जाये तो उससे आगे मंत्र आता है।

भगवान कहीं आसमान में नहीं हैं, बल्कि स्पंदन में है – हमारी चेतना है। ध्यान में बैठना सर्वोत्तम पूजा है। उस में मंत्रों को भी समर्पित कर देते हैं। मंत्र का उपयोग भी कुछ कुछ रूप जैसा ही है (केंद्रित करने के लिये)। ये एक पड़ाव है।

प्रश्न : प्रसाद का वैज्ञानिक महत्व क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
प्रसाद वही है, जिसके मिलने से मन प्रसन्न हो जाता है। कर्नाटक के एक संत ने लिखा है कि, ये समय जो हमें मिला है, ये प्रसाद है, हमारी सांस, शरीर, मन, प्राण और भाव, सभी प्रसाद हैं। हमें जीवन में जो भी मिला है वो प्रसाद है। जो मैंने बिछाया है वो प्रसाद है, और जिससे मैंने अपने आप को ढका है, वो भी प्रसाद है।


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