"मन की आनंदित और जागृत अवस्था के बीच चैतन्य विश्राम करता है। "

बैगलोर आश्रम, ३ सितम्बर २००९

प्रश्न: कई बार सुख की इच्छा और पुरानी याद की वजह से मैं गलतियां दोहराता हूं। इससे ऊपर कैसे उठूं?

श्री श्री रवि शंकर: इससे ऊपर उठने के तीन उपाय हैं। सबसे पहले, अपने आप को याद दिलाओ कि पूर्व भी तुम्हें इसकी वजह से कितना कष्ट उठाना पड़ा था। हर बार सुख की लालसा से तुम्हें दुख ही मिला है। यां तो खुद पर बीते अनुभव याद करो यां दूसरों के अनुभव से सीख लो।

दूसरा उपाय है, सर्वोत्तम आनंद की एक झलक भर पा लो। बिना प्रयत्न के जो सुख प्राप्त होता है, वो प्रयत्न से प्राप्त सुख से श्रेष्ठ है।

तीसरा उपाय है, अपने आप को व्यस्त रखो। जब तुम व्यस्त रहोगे तो सुख का लालच छिपा रहेगा, यां उसका बीज अंकुरित नहीं होगा।

प्रश्न: अनंत पद्म चतुर्दशी का क्या महत्व है, और कलाई पर लाल धागा बांधने का क्या उद्देश्य है?

श्री श्री रवि शंकर: अनंत पद्म चतुर्दशी का त्यौहार अनंत को मनाने का उत्सव है। (अनंत चतुर्दशी के दिन अनंत पद्मनाभ स्वामी (भगवान विष्णु) की पूजा होती है।)

जीवन का उच्चतम ध्येय है अनंत का अनुभव करना। बिना अनंत के अनुभव के मनुष्य जीवन पशु के जीवन के समान है। आत्मा की अनंतता की एक झलक मात्र पा जाने से जीवन में बदलाव आ जाता है। सभी साधक इसके ज़रिये ही साधक बनते है - ध्यान में साधक अनंत की एक झलक का अनुभव कर लेते हैं।

चित्रकार ने भगवान विष्णु को क्षीर सागर (दूध के सागर) पर नाग के बिछौने पर विश्राम करते हुये दिखाया है। मन की आनंदित स्थिति क्षीर सागर है, जहाँ संतोष की लहरे हिलोरे लेती हैं। नाग, मन की जागृत अवस्था का प्रतीक है - कुण्डलिनी शक्ति जो कि हमारे भीतर है। मन की आनंदित और जागृत अवस्था के बीच, चैतन्य विश्राम करता है। इसकी तीन परते हैं। दूध के सागर का अर्थ है कि वातावरण अनुकूल है। वातावरण के अनुकूल होने पर ही समाधि संभव है। शास्त्रों का अध्य्यन मनन करने के लिये भी ये आवश्यक है कि वातावरण में कोई व्यवधान ना हो। अगर आस-पास भूकंप यां बाढ़ आई हो, तो कोई बैठ कर शास्त्र का पाठ, यां ज्ञान की चर्चा नहीं करेगा। इसीलिए क्षीर सागर अनुकूल वातावरण का प्रतीक है।

जब तक ज्ञान का गहराई से अनुभव ना हो, वह ज्ञान सतही रहता है। जितना चाहे कोई वेदांत का अध्य्यन कर ले, पर बिना अनुकूल वातावरण के...।

जब कुण्डलिनी शक्ति ऊपर उठती है, तब हमारे भीतर जो चैतन्य शक्ति है, जो अनंत है, उसी का राज हो जाता है। उस अनंत शक्ति की नाभि से बिना किसी प्रयास के ही कमल का प्रागट्य हो जाता है। इसी तरह सृजन शक्ति का जन्म हुआ।

चैतन्य के आनंदित स्वरूप से सृजन शक्ति का उदय होता है। बड़े से बड़े वैज्ञानिकों ने विश्राम करते हुये ही नये अविष्कार किये हैं।

शोधकर्ताओं के लिये ये परम आवश्यक है कि उनका वातावरण अनुकूल हो - कोई शोर या व्यवधान ना हो। आप किसी से दो दिन में कोई नया अविष्कार करने को नहीं कह सकते हैं। अविष्कार, समय के बंधन से परे है, और प्रतिकूल वातावरण में नहीं हो सकता है।

नाभि को दूसरा मस्तिष्क भी कहा जाता है। इस तरह, हमारे शरीर में दो मस्तिष्क हैं। एक तो सिर है, और दूसरा है नाभि। इसे मणिपुर चक्र (solar plexus) कहते हैं। दिमाग जो कार्य करता है, मणिपुर चक्र उसकी सहायता करता है। आधा कार्य तो मणिपुर चक्र ही करता है। इसीलिये, जब पेट अस्वस्थ होता है, तो अक्सर दिमाग में उथल पुथल होती है, मन में बहुत सारे विचार होते हैं।

इसलिये कहा गया है कि योग साधना से मणिपुर चक्र खिल उठता है। जो लोग योग साधना नहीं करते, उनका मणिपुर चक्र एक आमले के आकार का होता है। जब कुण्डलिनी शक्ति विकसित हो, तो मणिपुर चक्र का आकार एक संतरे से भी बड़ा हो जाता है - एक खिले हुये कमल के फूल की तरह।

धागा एक बहुत बढ़िया प्रतीक है। भारत में हर महीने कोई ना कोई उत्सव होता है। जिसका उद्देश्य है किसी ना किसी तरह उत्सव मना कर चेतना को ऊँचा उठाना। कुछ लोग व्रत करते है, कुछ लोग पूजा करते हैं, और एक प्रतीक के रूप में एक धागे में १४ गांठ लगा कर कलाई में बांधते हैं। हमारे देश में, पूर्णिमा के एक दिन पहले यां बाद में अक्सर कोई ना कोई उत्सव होता है। मन का संबंध चंद्रमा से है। पूर्णिमा और अमावस्या के आस पास के दिनों में मन में अधिक हलचल रहती है। इस दौरान मानसिक और शारीरिक रोग बढ़ जाते हैं। इन दिनों अगर हम उत्सव में व्यस्त हों तो स्वास्थ्य भी ठीक रहता है।

पूर्णिमा के दिन, नींद भी कम आती है। इस समय उत्सव की व्यस्तता के बाद नींद में भी मदद मिलती है।

हर व्रत के साथ कोई कथा जुड़ी है। इन कथाओं में किसी राजा यां व्यापारी की कहानी होती है जो वह व्रत करने से अपनी समस्याओं को सुलझा सका, और बहुत लाभ प्राप्त किया। तो, इस लालच से कई लोग कोई व्रत-नियम करते हैं। हर कथा ये दर्शाती है कि कैसे पूजा करने से समस्या का समाधान हो गया। आजकल लोग सोचते हैं कि इन कथाओं के श्रवण मात्र से वे अपनी समस्याओं से छुटकारा पा जायेंगे। हमारे पूर्वज बड़े कुशल थे। हर उत्सव के साथ उन्होंने कोई लाभ जोड़ दिया था।

जीवन में हमें जो कुछ मिला है, उसके लिये कृतज्ञ होना सर्वश्रेष्ठ है। किसी लाभ के लोभ में पूजा करना, मध्यम प्रकार की पूजा है। और भय के कारण पूजा करना निम्न प्रकार की पूजा है। पर, कैसे भी करें, लाभ ही है।

प्रश्न: ये कैसे जाने कि हमें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया है या नहीं?

श्री श्री रवि शंकर: इसका क्या प्रमाण है कि तुम्हारे पैर में दर्द है? तुम ये कैसे जानते हो कि तुम्हारे पैर में दर्द है? आत्मज्ञान हो जाने पर ऐसे प्रश्न मन में नहीं उठेंगे। दूसरों से पूछना कि तुम्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया है कि नहीं, ये अज्ञान है। आत्मज्ञान हो जाने पर हमें प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती है। जैसे तुम्हारा दर्द, स्वयं ही प्रमाण है, वैसे ही आत्मज्ञान स्वयं ही प्रमाण है। पर कल्पनाओं में नहीं फंसना कि आत्मज्ञान कैसा होगा। सहज रहो।

तुम वो हो, जो तुम हो, इसलिये विश्राम करो। कुछ करने से आत्मज्ञान नहीं होता, अपितु विश्राम करने से आत्मज्ञान होता है। और विश्राम तुम कुछ करने के बाद ही कर सकते हो।

प्राणायाम और आसन करने से रजोगुण से तुम निवृत्त होते हो। और तब सत्वगुण बढ़ता है। जब ऐसा होता है तब हम ध्यान कर सकते हैं और सजगता बड़ती है। अगर ठीक तरक से नींद ना आये तो सत्वगुण नहीं जगेगा।रजोगुण के द्वारा तमोगुण से ऊपर उठा जा सकता है। और रजोगुण से ऊपर उठने के लिये आवश्यकता है विश्राम की और कर्म की।

भगवद् गीता में कहा है, 'युक्ताहार विहारस्य योगः भवति सिद्धितः।' समाधि ना तो अधिक सोनेवाले लोगों के लिये है, और ना ही उनके लिये जो बहुत अधिक कार्यों में पूरे दिन व्यस्त रहते हैं।


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