सहजता और सरलता का अभाव ही अहंकार है!

प्रश्न: अच्छे और बुरे कर्म में क्या अंतर है?
श्री श्री रवि शंकर:
कर्म को अच्छा बुरा title हम देते हैं। तनाव से जो करते हैं वो कर्म सब बुरे हैं। प्रसन्न चित्त से जो भी करते हैं वो सब अच्छे हैं। एक बार की बात है - बोद्धिसत्व गए चीन। तो चीन के चक्रवर्ति स्वागत करने आए, बोले "हमने इतने तलाब खुलवाएं हैं, यह सब किया है, अन्न दान किया है, यह किया है, वो किया है।" यह सब सुनने के बाद बोद्धिसत्व ने कह दिया तू तो नर्क जाएगा। यह कोई अच्छा कर्म है! क्यों? मैं कर रहा हूँ। मैं कर्ता हूँ! यह कर्तापन से किया है। तनाव से किया है। अहंकार से किया है। सो वो अच्छा कर्म ही क्यों ना हो वो बुरा ही तुम्हारे लिए बन जाता है।



प्रश्न: गुरुजी अहंकार क्या है और उसे कैसे मिटा सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर
: अपने आपको इस समष्टि से अलग मानना ही अहंकार है। औरों से अपने आप को अलग मानना। मैं बहुत अच्छा हूँ, सबसे अच्छा हूँ यां सबसे बुरा हूँ। दोनो अहंकार है। और अहंकार को तोड़ने की चेष्टा ना करो। ऐसा लगता है, उसको रहने दो। ऐसा लग रहा है मुझ में अहंकार है तो बोलो ठीक है, मेरी जेब में रह जाओ! कोई बात नहीं! वो अपने आप सहज हो जाएगा। सहजता का अभाव ही अहंकार है। सरलता का अभाव अहंकार है। अपनापन का अभाव अहंकार है। आत्मीयता का अभाव अहंकार है। और इसको तोड़ने के लिए सहजता, आत्मीयता, माने अपनापन, सरलता को जीवन में अपनाना पड़ेगा।



प्रश्न: अगर किसी करीबी का निधन हो जाए तो उनकी आत्मा की शांति के लिए क्या कर सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर
: तुम शांत हो। जैसे तुम शांत होते हो, प्रेम से भर जाते हो, भजन में एक हो जाते हो, ज्ञान में एक हो जाते हो, ज्ञान में उठ जाते हो, तो जो व्यक्ति उस पार चले गए हैं उनको भी बहुत अच्छा लगता है। अभी आप यहाँ बैठ कर ध्यान कर रहे हो, किए हो, सबका असर सिर्फ़ आप तक नहीं है, उन तक भी पहुँचता है जो उस पार चले गए।



प्रश्न: हम हमारी सहनशीलता को कैसे बड़ा सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर
: फ़िर वही बात! सहनशीलता मुझमें नहीं है जब मान के चलते हो तो वैसे हो जाएगा। हमारी दादी माँ कहा करती थी कभी कोई चीज़ नाकारात्मक नहीं बोलना। क्यों। कहती थी कुछ देवता घूमते रहते हैं उनका नाम है अस्तु देवता। वो बोलेंगे तुम कुछ कहोगे - तथास्तु। मानलो घर पर मिठाई नहीं है तो कभी नहीं कहती थी मिठाई नहीं है। कहती थी बाज़ार मिठाई से भरा हुआ है चलो बाज़ार चलते हैं। शब्दों में भी वो यह नहीं कहती थी कि मिठाई खत्म हो गई है। कहदोगे तो पता नहीं कहाँ अस्तु देवता घूम रहे होंगे तो तथास्तु कह देंगे। फ़िर खत्म ही रहेगा सब। इस तरह काजु चाहिए हमे, काजु भरा हुआ है बाज़ार चलते हैं!

उस पीढ़ि के लोगों में कितना विश्वास था मन में। और यह बात सच भी है। वैज्ञानिक तौर से भी सही है। हम जिसको नहीं समझ के मानते है वैसा होता है। आभाव को मानोगे तो अभाव ही रहता है। कई लोग बोलते हैं पैसा नहीं है हमारे पास तो अस्तु देवता बोल देंगे तथास्तु ऐसे हो जाए। तो जिन्दगी भर वही नहीं नहीं गीत गाते चले जाते हैं। तो कभी भी तृप्ति नहीं होती। एक समृद्धि का अनुभव करो, महसूस करो। मेरे पास सब कुछ है। फ़िर तुम्हारे पास होने लगता है। मेरे पास नहीं है, मुझ में प्यार नहीं है - फ़िर ऐसा ही लगने लगता है। मैं बहुत प्यारा हूँ। समझ कर चलो तो प्यार ही प्यार मन में झलकता है।


एक बड़े कंजूस व्यक्ति हमारे पास आए तो मैं बोलता हूँ तुम कितने उदार हो। तो एक बार हमारे पास आकर बोलते, "गुरुजी आप हमेशा बोलते हैं मैं उदार हूँ मैं उदार हूँ। मैं कहाँ उदार हूँ? मैं तो कितना कंजूस हूँ। मैं अपने पत्नि तक दस रूपय नहीं खर्चा करने देता हूँ। आप कैसे मुझे उदार बोलते हो? बच्चे जाते हैं काँगेस exibition में तो एक से दूसरी कैन्डी खरीद के देने में मुझे हिचकिचाहट होती है। मैं एक ही मिठाई खरीद के देता हूँ, और आप मुखे उदार बोलते हैं। ताकिं तुम उदर बन जाओ।
तो जिस भावना को अपने में उभारना चाहते हैं, उसको मानके चलना पड़ता है वो है हमारे में। उसको नहीं है मानकर चलोगे तो नहीं है हो जाएगा।
यह याद रखो, "काजु भरा है, बाज़ार चलते हैं!"


प्रश्न: गुरुजी, शादी में इतने प्यार के बावज़ूद भी झगड़े क्यों होते हैं?
श्री श्री रवि शंकर
: क्या कहें? हमे तो पता ही नहीं है! ना पता लगाने की चेष्टा करी मैने! हो सकता है कुछ जोड़ स्वर्ग में बनकर स्वर्ग से थक गएं हों, फ़िर नर्क में उतर आए हों, यां स्पेशल category में बने होंगे नर्क में।

देखो, हर संबंध में कभी न कभी, कुछ न कुछ, कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ भी होता है और ठीक भी होता है। तो हर परिस्तिथि में हम अपने मन को समझाएं, और थामे रहो तो सब चीज़े ठीक हो जाती हैं। देर सवेर सब ठीक हो जाता है।
विलायत में अभी किसी देश में एक ब्यासी साल का पुरुष, ८० साल की अपनी पत्नि पर कोर्ट में केस कर दिया। डाइवोर्स ले लिया और केस कर दिया ८० साल के बाद। ४० साल साथ रहे, ४०-४५ साल दोनो। आखिरी में केस क्यों कर दिया? जिस कुर्सी पर वो बैठता था रोज़, पत्नि वो कुर्सि नहीं देना चाहती थी! नहीं छोड़ना चाहती थी। बाकी सब डिविज़न हो गया, कुर्सी की बात पर कोर्ट में इतना बड़ा केस हो गया! आदमी का दिमाग बहुत विचित्र है! जिस से दोस्ती करता है उसी से लड़ता है। और जिससे लड़ता है फ़िर उसी से दोस्ती की प्यास में पड़ा रहता है। तो यह जीवन बहुत ज़टिल है, और ज़टिल जीवन के बीच में मुस्कुराते मुस्कुराते गुज़र जाना बुद्धिमानी है। सिर्फ़ व्यक्ति को ही देखते रहोगे तो अज्ञान में रग जाओगे। व्यक्ति नहीं है व्यव्हार। व्यक्ति के पीछे जो चेतना है, सत्ता है, उसको देखो तो वो एक ही चेतना है - इस व्यक्ति से ऐसा कराया, उस व्यक्ति से वैसा कराया, उस व्यक्ति से वैसा कराया। इस तरह से व्यक्ति से पीछे जो चेतना जिस के कारण सब है और सब होता है, उसको पहचानना ज्ञान है। समझ में आया यह।
हम सब को देखो तो हर व्यक्ति भीतर क्या है - Hollow and Empty. और जैसा विचार आया कुछ वैसा उन्होने व्यवहार कर दिया। उसका क्या कसूर है।


प्रश्न: क्या गुरु और ऋषियों से कुछ माँगना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर
: यह तो माँग ही लिया। कुछ उत्तर तो माँग ही लिया। जब माँग उठता है तो उठने के बाद ही तुम सोचते हो माँगना चाहिए नहीं माँगना चाहिए। उठ गया माँग। प्यास लग गया तो पानी की माँग उठ ही गई। पानी की माँग को ही प्यास कहते हैं। भूख को ही कहते हैं भोजन की माँग। माँग स्वभाविक है। माँग जब उठ जाता है तो उसके बाद तुमको पता भी चलता है उठ गया माँग! क्या? नहीं? अभी करना चाहिए नहीं करना चाहिए - बात ही नहीं। कर लिया। करने के बाद समझ में आया मैने माँगा है। वो सच्चा माँग भीतर से उठी है, एकदम गहराई से, आवश्यकता है। ऐसी आव्श्यक माँग पूरी होनी ही है। पूरी हो जाती है।



प्रश्न: बेसिक कोर्स में कहते हैं, "जो जैसा है उसे वैसा स्वीकार कर लें"। तो क्या इसका मतलब यह है कि भ्रष्ट नेताओं को भी स्वीकार कर लें जो अपने देश को बेचने पर तुले हैं?
श्री श्री रवि शंकर
: तीन तरह की दक्षता समझो - शारीरिक, वाचिक और मानसिक - कृत्य में, वाणी में और भावना में। जैसे कुछ लोग करते हैं - बोलते बहुत अच्छा हैं, मीठा मीठा बोलते हैं पर काम की बात हो तो काम तो करेंगे ही नहीं। यह क्या? वाणी में तो ठीक रहे मगर कृत्य में ठीक नहीं रहे। कई लोगों का मन बहुत साफ़ है, वह भावनाओं में ठीक रहते हैं पर जैसे मुँह खोलेंगे तो आग बरसता है। समाज में यह बहुत बड़ी समस्या है। व्यक्ति बहुत अच्छे हैं, काम भी बहुत अच्छा करते हैं पर जैसे मुँह खोलेंगे तो लोगों को लगता है कान बंद कर के भाग जाएं। और कुछ लोग काम ठीक ठीक कर देते हैं पर बोलते ठीक नहीं। और कुछ लोग काम भी ठीक करते हैं बोलते भी ठीक हैं पर मन खट्टा रहता है, भावनाएं ठीक नहीं रहती। विरले ही लोग मिलेंगे जिनमें भाव भी शुद्ध है, वाणी भी शुद्ध है और कृत भी समय पर है। कई बार आप टेलर को कपड़े देते हो वो अच्छी मीठी मीठी बातें करेगें, दीवाली से एक दिन पहले आ जाओ दे देंगें! उनके मन में कोई गलत भावना नहीं होगी, उनके मन में तुम्हे झूठ बोलने की यां थोका देने की कोई भावना नहीं होगी - भाव भी ठीक है, वाणी भी ठीक है मगर कृत में गड़बड़। कई लोग अपने कृत में गड़बड़ करते हैं। बोलते अच्छा हैं, भाव भी ठीक होता है पर तुम लोग क्या समझते हो उसने जानबूझ कर ऐसा किया - तब तुम्हारा भाव गड़बड़ हो गया। उसका कृत गड़बड़ हुआ और तुम्हारा भाव गड़बड़ हुआ - तुम दोनो एक ही नांव में हो। तीनो अंतर्कन की शुद्धि चाहिए - वाणी की शुद्धि चाहिए, कृत की शुद्धि चाहिए और भावना की शुद्धि चाहिए - तभी सिद्ध होगें - Perfection.

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