३१
२०१२
अगस्त
|
ब्राजील, दक्षिण अमरीका
|
आपमें से
कितने लोगों को ऐसा लगता है कि आपने कुछ भी बुरा नहीं किया, फिर भी आपके बहुत से
शत्रु बन गए हैं?
लोग आपके
शत्रु बन जाते हैं| आपने उन्हें कोई नुकसान नहीं
पहुँचाया है, उनके साथ कुछ बुरा नहीं किया है लेकिन फिर भी वे आपके शत्रु बन जाते
हैं|
उसी प्रकार,
आपने किसी पर कोई विशेष उपकार नहीं किया है, लेकिन फिर भी वे आपके बहुत अच्छे
मित्र बन जाते हैं| है न?
आपमें से
कितने लोगों का ऐसा अनुभव रहा है?
देखा आपने, बस
इतना ही है, लोग किसी विचित्र कर्म से, किसी विचित्र नियम से आपके मित्र या शत्रु
बन जाते हैं| कोई बड़ा ही विचित्र नियम है जिसके
कारण अचानक मित्र शत्रु बन जाते हैं और शत्रु घनिष्ट मित्र बन जाते हैं| इसलिए, सभी मित्रों और शत्रुओं को एक टोकरी में डालकर, आप
मुक्त हो जाईये|
देखिये, आपके
मन को क्या विचलित करता है? या तो आपके मित्र, या शत्रु| ऐसा ही है न?
जब आप ध्यान
के लिए बैठते हैं, आप उन सबको एक तरफ रख दीजिए, अपने मित्रों को, शत्रुओं को, सबको!
उन सबको एक तरफ रख दीजिए, आराम से बैठिये और विश्राम करिये और मुक्त हो जाईये|
आप क्या कहते
हैं? क्या यह सही नहीं है!
जब आपका मन
तृप्त होता है, जब वह शांत और खुश होता है, तब उसे एक अत्यधिक विलक्षण शक्ति
प्राप्त होती है, यानि आशीर्वाद देने की शक्ति|
जब आप खुश और
तृप्त होते हैं, तब आप दूसरे लोगों को आशीर्वाद दे सकने में सक्षम होते हैं|
अगर आपका मन
उत्तेजित है, या आपके मन में बहुत सी इच्छाएं हैं, तब आप आशीर्वाद नहीं दे सकते| अगर आप आशीर्वाद देते भी हैं, तब वह उतनी भली-भांति फलीभूत
नहीं होता| इसलिए, समय समय पर हमें ये देखना
चाहिये, कि हम संतुष्ट हैं| जब आप संतुष्ट होते हैं, तब
आप सिर्फ अपनी इच्छाएं ही नहीं, बल्कि दूसरे लोगों की इच्छाएं भी पूरी कर सकते हैं|
प्रश्न : कृपया करुणा के बारे में बात करें|
श्री श्री
रविशंकर : जीवन में तीन बातें हैं, जो
महत्वपूर्ण होती हैं|
१.
जोश (passion)
२.
वैराग्य (dispassion)
३.
करुणा (compassion)
जोश ऐसा है,
मानो साँस अंदर ले रहें हैं, और वैराग्य ऐसा जैसे साँस बाहर फेंक रहें हैं|
कोई ये नहीं
कह सकता, कि ‘मैं केवल साँस अंदर लेना चाहता हूँ,
मैं साँस बाहर नहीं छोड़ा चाहता|’ असंभव!
इसलिए, साँस
लेना आवश्यक है और यही जोश है, जीवन की वस्तुओं के लिए|
फिर, वैराग्य
भी आवश्यक है| वैराग्य का अर्थ हुआ, सब कुछ छोड़
देने की क्षमता|
वैराग्य से
आपको शान्ति मिलती है और फिर करुणा आपका स्वभाव बन जाता है|
इसलिए, जब आप
काम करते हैं तब आपके अंदर जोश होना चाहिये, जब आप विश्राम करना चाहें, तब वैराग्य
होना चाहिये, और करुणा तो आपका स्वभाव है ही| बस इतना ही!
प्रश्न : ध्यान और विश्राम की क्या आवश्यकता है?
श्री श्री
रविशंकर : जब आप विश्राम करते हैं, तब आपके मन
का विस्तार होता है| क्या आपने ध्यान दिया है, कि जब आप
खुश होते हैं तब क्या होता है? आपके भीतर किसी चीज़ का
विस्तार होने लगता है|
और जब आप दुखी
होते हैं, तब क्या होता है? आपके अंदर कुछ सिकुड़ने लगता है|
तो जब आप शरीर
को विश्राम देते हैं, तब मन भी खिलने लगता है|
प्रश्न : कृपया आदान-प्रदान के बारे में बात करें|
श्री श्री
रविशंकर : आदान-प्रदान बहुत स्वाभाविक है|
मन की उच्च
अवस्थाओं में, आदान-प्रदान तो तात्कालिक होता है|
सिर्फ जब कोई संवेदनशील नहीं होता, तभी आदान-प्रदान संभव नहीं होता|
अक्सर लोग
सिर्फ बुरी बातें आपस में बदलते हैं| अगर आप किसी की निंदा करते
हैं, तब वे भी आपकी फ़ौरन ही निंदा करने को आतुर हो जाते हैं| अगर आप किसी का अपमान करते हैं, तो वे भी आपका तुरंत ही
अपमान करते हैं| लेकिन अच्छी बातों के लिए ऐसा नहीं
है| अगर आप किसी के लिए कुछ अच्छा करते हैं, तो कोई ज़रूरी
नहीं कि वे भी आपकी अच्छाई का बदला अच्छाई से करें| यह
सिर्फ तभी होता है, जब मन ऊंचे स्तर पर हो|
प्रश्न : मेरी शादी टूट रही है| मैंने और मेरी पत्नी ने अलग अलग
रास्तें चुन लिए हैं और अलग जीवन जीने का निर्णय लिया है| हम दोनों ही चाहते हैं, कि हमारा बच्चा सिर्फ हमारे साथ रहे|
ऐसे परिस्थिति में क्या करना बुद्धिमानी होगा?
श्री श्री
रविशंकर : बच्चे को दोनों ही रास्ते दिखाए
जाएँ, और उसे अपनी मर्जी से कुछ भी चुनने की अनुमति मिले| अगर पति-पत्नी में आपसी समझ नहीं है, तो निश्चय ही बच्चे के
लिए यह बहुत ही कष्टदायक है| दोनों माता-पिता को इस बात
का ध्यान रखना चाहिये, कि वे बच्चे के सामने सिर्फ एक दूसरे को दोष ना दिए जाएँ| बच्चे को माता या पिता, किसी एक भी विरोध में करना अच्छा
नहीं है| यह बहुत ही संकुचित दृष्टिकोण है|
प्रश्न : कृपया हमें बताएं कि मृत्यु क्या है?
श्री श्री
रविशंकर : मृत्यु को परिभाषित करने की
आवश्यकता नहीं है| यह एक बहुत ही स्वाभाविक घटना है| हमने जन्म लिया है, और हम एक दिन मरने भी वाले हैं|
जब हम इस
दुनिया में आये थे, तब जो काम हमने सबसे पहले किया था, वह था एक गहरी साँस अंदर
लेना, और फिर हम रोने लगे थे| और जो आखिरी काम हम जीवन
में करेंगे, वह होगा साँस बाहर छोड़ना और फिर बाकी लोग रोयेंगे|
अगर हम बाकी
लोगों को नहीं रुलाते हैं, तो इसका मतलब हमने अच्छा जीवन नहीं जिया है|
जब आत्मा शरीर
को पूरी तृप्ति के साथ छोडती है, भरपूर प्रेम और ज्ञान के साथ, तब वह वापस आने के
लिए बाध्य नहीं होती| तब वह अपनी इच्छा से वापस आती है|
प्रश्न : मैं यह कैसे जानूं कि मैं सही निर्णय ले रहा हूँ?
श्री श्री
रविशंकर : जब आप कोई निर्णय लेते हैं, तब आपको
अंदर से एक आभास होता है जो कहता है, ‘हाँ, ये सही है’|
एक बात जो
आपको जाननी चाहिये, कि अगर आप गलत निर्णय ले भी लेते हैं, तब भी आपका विकास ही
होता है| आप और अधिक मज़बूत हो जाते हैं, आप
अपने भीतर कहीं, उससे शिक्षा ले लेते हैं| इसीलिये, चिंता मत करिये|
प्रश्न : गुरुदेव, कभी कभी जो बात मुझे खुशी देती है, वह मेरे परिवार
और मित्रों की उम्मीदों के विपरीत होती है| ऐसी स्थिति में मैं क्या
करूँ?
श्री श्री
रविशंकर : हाँ, आपको दोनों में संतुलन करना
होगा| अपनी आनंद की खोज और दूसरे लोगों की
आपसे अपेक्षाएं; इन दोनों में संतुलन करना चाहिये| यह
थोड़ा नाज़ुक तो है, मगर आपको निश्चय ही प्रयत्न करना चाहिये|
प्रश्न : कृपया हमें यह बताईये, कि मनुष्यों के लिए सबसे बड़ी सीमा
क्या है?
श्री श्री
रविशंकर : शरीर की सीमा है, मन की सीमा है,
लेकिन आत्मा की कोई सीमा नहीं है| जब आप सोचते हैं, कि आप
शरीर हैं, तब आपकी सीमा है| तब आप सिर्फ उतना ही कर
सकते हैं| जब आप सोचते हैं कि आप मन हैं, तब
मन की भी कुछ सीमाएं होती हैं| लेकिन आपके प्रेम की कोई
सीमा नहीं है| आपकी चेतना की कोई सीमा नहीं है|
देखिये, एक
छोटे से सेल फोन से आप पूरी दुनिया तक पहुँच सकते हैं| आप सिर्फ एक सेलफोन से कितने भी फोन नम्बरों तक पहुँच सकते
हैं, हैं न?
उसी तरह,
हमारा मन जिसने सेलफोन का अविष्कार किया, वह एक सेलफोन से कहीं ज्यादा ताकतवर है| आपको सिर्फ उसे उपलब्ध कराना है|
प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, कभी कभी मुझे लगता है कि मैं बहुत हठी हूँ| मैं अपने गुस्से और हठ से कैसे पीछा छुड़ाऊं? मैंने आर्ट ऑफ
लिविंग का कोर्स किया है और मैं अपनी साधना भी कर रहा हूँ|
श्री श्री
रविशंकर : एक बात पर तो आपको ध्यान देना
चाहिये, कि पहले भी आप हठी होते थे, लेकिन आप उसके बारे में सजग नहीं थे| अब कम से कम आप इस बारे में सजग तो हैं, कि आप गुस्सा कर
रहें हैं, अभिमान कर रहें हैं| यह सजगता तो है, ‘ओह! यह हो रहा है!’
इस सजगता का
होना अच्छा है| यह उससे बाहर निकलने का पहला कदम है|
दूसरा कदम है
कि आप अपने खुद के जीवन के बारे में थोड़ा विशाल दृष्टिकोण रखें|
आप जितना और
अधिक ज्ञान में आयेंगे, आप देखेंगे, कि ये सारे छोटे छोटे खेल जो हमारा मन खेलता
है, ये बिल्कुल ऐसे है, जैसे कोई छोटा बालक खेल खेलता है| जब आप ये देखेंगे, तब आपको इसका फ़र्क नहीं पड़ेगा, और आप इसे
स्वीकार करके इसके परे चले जायेंगे|
जब आप देखते
हैं कि आपका मन ऐसे है, जैसे एक छोटा बच्चा खेल रहा है, तब आप इसे एक विशाल
दृष्टिकोण से देख पायेंगे, एक बड़े नज़रिए से|
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