विज्ञान और आध्यात्मिकता दोनों ही आत्मा में संतोष लाने के लिए आवश्यक हैं


प्रश्न : गुरुजी, आपके सानिध्य में ऐसा लगता है कि वृन्दावन यहीं बन गया है। परंतु बाहर दुनिया में वापस जाने जग-जंजाल में फिर उलझ जाते हैं। इससे मुक्त कैसे हों?

श्री श्री रवि शंकर :
बार बार आते रहो। क्या तुमने ये महसूस किया है कि जंजाल अब तुम्हें पहले से थोड़ा कम विचलित करते हैं? उनकी पकड़ तुम पर कुछ ढीली पड़ गई है? धीरे धीरे जैसे तुम अपने भीतर अधिक केन्द्रित होते जाओगे, तुम पाओगे कि सांसारिक उलझनें तुम्हें विचलित नहीं कर पायेंगी।

प्रश्न : श्रद्धा और अंध-श्रद्धा में कैसे अंतर करें?

श्री श्री रवि शंकर :
अंध-श्रद्धा वह है जो तुम्हें कोई सकरात्मक परिणाम ना दे। अंध-श्रद्धा में आप कही सुनी बातों को मान कर, अपने लिये भी वैसी आशा करते हो। या तो तुम भ्रमित हो, या किसी तीव्र इच्छा की पूर्ति की मांग के कारण ऐसा करते हो।

प्रश्न : आप अक्सर कहते हैं कि हम सब आपके बाल जैसे हैं, और एक भी बाल खिंचा तो आप जान जाते हैं। मैं कई दिनों से आपका ध्यान आकर्षित करने के लिये आपके बाल खींच रहा हूं, पर लगता है, आप ने अभी तक गौर नहीं किया।

श्री श्री रवि शंकर :
(शरारत से हंसतें हुए) हां, मेरे कुछ बाल उखड़ गये हैं!
हर बात का नियत समय होता है। अगर तुम प्रार्थना करो और चाहो कि तुम्हारी इच्छा अभी पूरी हो जाये, तो ये ज़रूरी नहीं है। धीरज रखो (दाहिने हाथ से अभय मुद्रा, और बाहिने से वरद (देने की) मुद्रा दर्शाते हुए। तुमने देवी देवताओं के हाथ इन मुद्राओं में देखें हैं? लक्ष्मी, विष्णु? तुम्हें इनका अर्थ पता है? ‘धीरज रखो, मैं दे रहा हूं।’ यह एक अर्थ हुआ, जब तुम्हारी कोई आवश्यकता है। दूसरा अर्थ है, ‘आओ, समर्पित हो जाओ। तुम्हें किसी से डरने की आवश्यकता नहीं है।’

ये अभय मुद्रा है (दाहिने हाथ की हथेली दर्शकों की ओर इंगित)। अभय अर्थात, जहां कोई भय ना हो।

ये वरद मुद्रा है (बाहिने हाथ की हथेली नीचे और दर्शकों की ओर इंगित)। इसका अर्थ है, ‘जो भी तुम्हें चाहिये, मैं दे रहा हूं। कुछ और मांगो तो वो भी सहर्ष दूंगा।’

प्रश्न : अगर टोकरी में रखे सेबों में कोई एक भी सड़ा हो, तो वो बाकी के सेबों को भी प्रभावित करता है। उसी तरह, कुछ मुठ्ठी भर अच्छे लोग विश्व को एक स्वस्थ, सुरक्षित स्थान कैसे बना सकते हैं? विश्व में अच्छे लोगों से कुछ अधिक संख्या में बुरे लोग हैं।

श्री श्री रवि शंकर :
ये असलियत नहीं है। विश्व में बुरे लोगों से कहीं अधिक संख्या अच्छे लोगों की है। विश्व में प्रेम नफ़रत से अधिक मात्रा में है। दुख से अधिक सुख है। पर इसका विपरीत प्रतीत होता है। समाज को दोष मत दो। तुम्हारी भी ज़िम्मेदारी है, और तुम उसे निभाते रहो। सत्संग (सत्य का संग) का प्रसार करते रहो। महात्मा गांधी ने भी यही किया था।
स्वतंत्रता से पूर्व भारत के लोग ये सोच कर उदास हो गये थे कि वे सदा ही गुलाम रहने वाले हैं। उस समय महात्मा गांधी ने क्या किया? उन्होंने देश भर में कई स्थानों पर सतसंग शुरु किया। इससे जनसमूह में साहस का संचार हुआ। उसी तरह, हमें भी सत्संग और जागरूकता की लहर का प्रसार करना है। नफ़रत का नहीं।

प्रश्न : गुरुजी, आप तो कुछ भी कर सकते हैं। फिर आप, विश्व से भ्रष्टाचार और हिंसा का निर्मूलन कर, एक सुंदर विश्व क्यों नहीं बना देते?

श्री श्री रवि शंकर :
(मज़ाक में) ये बचने का अच्छा तरीका अपनाया है तुमने! सब कुछ मैं ही करूं, तो फिर तुम्हारे करने लायक क्या बचेगा? तुम इस दुनिया में किसलिए आये हो? तुम्हारी भी एक भूमिका है। अगर एक ही व्यक्ति सब भूमिकायें अदा करे तो ये तो एकपात्रीय नाटक हो जायेगा। मैं ये करने यहां नहीं आया हूं। मैं संभाषण के लिये भी नहीं आया हूं। मैं बहु-संवाद के लिये आया हूं (हंसी)। हरेक को अपनी भूमिका अदा करनी है।

तुमने गिलहरी वाली कहानी सुनी है? जब श्री राम वानर सेना की मदद से सागर पर सेतु बना रहे थे, तो उनकी सहायता के संकल्प से एक छोटी सी गिलहरी भी बालू ला ला कर डाल रही थी। कार्य-समूह के कुछ सदस्य उसके इस कृत्य पर हंसे भी, ‘ एक छोटी सी गिलहरी क्या योगदान कर पायेगी!’ पर वह गिलहरी प्रसन्न थी कि श्री राम की सेना में उसकी भी एक भूमिका थी। वह प्रसन्न थी कि उसके करने लायक भी यहां कुछ काम था। श्री राम उस पर बहुत प्रसन्न हुए और प्यार भरा आशीर्वाद देते हुए उसकी पीठ पर हाथ फेरा। गिलहरी इतनी छोटी थी कि श्री राम कि केवल तीन ही अंगुलियों से उसका पीठ ढक गई, और उन तीन अंगुलियों की छाप उसकी पीठ पर पड़ गई। ये एक काल्पनिक कहानी हो सकती है, पर इसका संदेश है – ‘भगवान सब कुछ कर रहें हैं, फिर भी हमारी कुछ ज़िम्मेदारी है। हम जो भी कर पायें, करें।’ जितना हम कर सकते हैं, उतना करना हमारी ज़िम्मेदारी है।

प्रश्न : गुरुजी, एक भक्त की श्रद्धा को धक्का लग जाये तो वो क्या करे?

श्री श्री रवि शंकर :
श्रद्धा को धक्का लगने से तुम्हें उस श्रद्धा की ताकत के बारे में कुछ संदेश मिल रहा है। डरने की क्या बात है? उसे और धक्का दो, हिलाओ, डुलाओ। मैं तो कहूंगा कि वही श्रद्धा पक्की है जो हिलने के बाद भी बनी रहे। तुम्हारी श्रद्धा को हिलाना और उसे मज़बूत बनने का मौका देना, ये गुरु का कार्य है। गुरु तुम्हारी श्रद्धा को दृढ़ नहीं करता, वो उसे हिलाता है। प्राचीन समय से ये एक प्रणाली चली आ रही है। अगर श्रद्धा हिली, तो इससे पता चलता है कि उसे और मज़बूत किया जा सकता है। अगर सच्ची श्रद्धा है तो वो वैसे भी और मज़बूत हो जायेगी। इस पूरी प्रक्रिया में तुम ये जान जाओगे कि ये सिर्फ़ तुम्हारे मन का खेल है। श्रद्धा और विश्वास हमेशा थे। सत्य के प्रति भक्ति कभी नष्ट नहीं हो सकती।
मन के भ्रम की वजह से तुम्हें लगता है कि श्रद्धा को धक्का लगा है।

प्रश्न : घर में शांति रहे, इसके लिये कोई उपाय है?

श्री श्री रवि शंकर :
तुमने बहुत कठिन प्रश्न किया है! पर इसका उत्तर सरल है। तुम्हारे आस पास चाहे जो हो, तुम मुस्कुराते रहो। अगर शोर हो रहा है, उसे स्वीकार करो। कोई चिल्ला रहा है, थोड़ी देर चलने दो। ऐसा समझो कि तुम्हारे घर का माहौल एक टी वी सीरियल देखने जैसा है। क्या टेलिविज़न देखते व़क्त तुम परेशान होते हो?

कुछ लोग बता रहे थे कि जैसे विवाद टी वी सीरियलों में होते हैं, ठीक वैसे ही उनके घरों में भी होते हैं। ऐसा समझो कि घर में किसी कार्यक्रम का सीधा प्रसारण चल रहा है। सिर्फ़ कैमरे की कमी है। जब तुम इस बात को याद रखोगे, और अपने आप को अभिनेता ना जानकर निर्देशक जानोगे, तब कम से कम तुम्हारे दिल में तो शांति रहेगी। और बाकी लोग भी आख़िर कब तक उस भूमिका में रहेंगे? वो भी कभी थक जायेंगे। ये सब परेशानी केवल जागृत अवस्था में है। स्वपनावस्था या निद्रावस्था में नहीं हैं।

ईश्वर ने तुम्हें कुछ समय निद्रा के लिये और दैनिक कर्म करने के लिये दिया है। इस तरह कम से कम १० घंटों के लिये तो तुम शांति में हो। (मज़ाक में) बाकी के १४ घंटे टी वी सीरियल के सीधे प्रसारण का मज़ा लो। और क्या कर सकते हो? हां, अगर तुम आनंदित रहना चाहते हो, तो याद रहे कि अभिनेता नहीं बनना।

प्रश्न : गुरु के साथ शिष्य का क्या संबंध होना चाहिये? शिष्य एक साधारण व्यक्ति है, और गुरु के पास कई शक्तियां हैं। क्या ये संबंध सखा भाव में होना चाहिये, या प्रियतम के भाव में?

श्री श्री रवि शंकर :
प्रेम को प्रेम ही रहने दो। उसे कोई नाम ना दो। प्रेम, सभी संबंधों से ऊंचा है। गुरु से प्रेम होना वैसा ही है जैसे ईश्वर से प्रेम होना। गुरु, ईश्वर, आत्मा, इन में कोई अंतर नहीं है। ये तीनों एक ही हैं। एक ही सत्ता है – एक अद्वितीय सत्ता। सब दिव्य है।

प्रश्न : कुंभ क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
जहां भी लोग साथ मिल कर सतसंग करते हैं, वही कुंभ है।

प्रश्न : क्या ग्रहों का हम पर कुछ प्रभाव पड़ता है?

श्री श्री रवि शंकर :
हां, ग्रहों का हम पर प्रभाव पड़ता है, परंतु जो लोग साधना, सत्संग और ज्ञान में हैं, उन पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है। साधकों के लिये ग्रहों के दुष्प्रभाव कम हो जाते हैं और अच्छे प्रभाव बढ़ जाते हैं। जैसे तुम अगर कड़ी धूप में छाता लेकर निकलो, तो सिर पर कम गर्मी लगती है। क्रियायें और मंत्र इसका उपाय है।

प्रश्न : क्या जन्म-कुण्डली में विश्वास करना चाहिये?

श्री श्री रवि शंकर :
अगर तुम्हारा मन कहे कि विश्वास करना चाहिये, तो करो। पर इसे बहुत महत्व नहीं देना चाहिये। कभी कभी, कुण्डली में दर्ज जन्म का समय या स्थान सही नहीं होते। इसमें कई पहलू होते हैं।ना तो हमें इसे पूरी तरह नज़रंदाज़ करना चाहिये और ना ही पूर्णतः सत्य समझना चाहिये।

प्रश्न : क्या भावनाओं से प्रेरित होना ठीक है?

श्री श्री रवि शंकर :
मानव और पत्थर में यही अंतर है कि मानव में भावनायें होती हैं। जब भावनायें ज्ञान से संयुक्त हो, तो अच्छा है। जैसे जल अगर दो किनारों के बीच में बहे तो उसे नदी कहते हैं। परंतु अगर जल हर तरफ़ बहे, तो उसे बाढ़ कहते हैं। जीवन में बुद्धि के साथ भावनायें को पुष्ट करें, ताकि बुद्धि और भावनाओं के बीच एक साम्य बना रहे।

प्रश्न : मुक्ति क्या है? क्या इस जन्म में मुक्त होना संभव है?

श्री श्री रवि शंकर :
ये इसी जन्म में संभव है। तुम्हें अष्टावक्र गीता की विवेचना सुननी चाहिये।

प्रश्न : मैं संतुष्ट कैसे बनूं? कई आवश्यकतायें मन पर आक्रमण करती रहती हैं।

श्री श्री रवि शंकर :
एक बात बताओ, क्या तुम आज संतुष्ट हो? (प्रश्नकर्ता ने कहा, ‘नहीं।’)
तुम्हें क्या चाहिये? (प्रश्नकर्ता ने कहा, ‘मुझे कुछ चाहिये, जिसे पाने के बाद मेरी सब इच्छाएं शांत हो जाएं।)

ये अच्छी बात है अगर तुम्हें आभास है कि कई इच्छाएं तुम्हें अशांत कर रही हैं। ये इच्छा, ‘मैं इच्छाओं से छुटकारा चाहता हूं,’ मुमुक्षत्व है।

प्रश्न : क्या आप कर्म से भाग्य बनने के बारे में कुछ बतायेंगे?

श्री श्री रवि शंकर :
हां, तुम्हारे कर्म से तुम्हारा भाग्य बनता है। इन सब बातों के बारे में मैंने ‘An intimate note to the sincere seeker’ किताब में बताया है। तुम्हें पढ़ना चाहिये।

प्रश्न : ऐसे समय में क्या करें जब लगे कि हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है, और कुछ समझ न आये कि रिश्तों में या कार्यक्षेत्र में क्या करें, क्या ना करें?

श्री श्री रवि शंकर :
उस समय ध्यान करो। जब तुम इतने भ्रमित हो, कुछ समय के लिये ध्यान करो। इससे तुम तुरंत ही मन में स्पष्टता को उदय होता पाओगे।

प्रश्न : मैं क्या प्रश्न पूछूं?

श्री श्री रवि शंकर :
मेरे प्यारे, तुम मुझसे ही प्रश्न बताने को भी कह रहे हो! क्या तुमने नये साल में, चाहे जो हो जाये, दिमाग ना इस्तेमाल करने का प्रण किया है? तुम प्रश्न भी उधार लेना चाहते हो! बिल्कुल नहीं। प्रश्न तुम्हारा होना चाहिये। ये कोई विद्यालय नहीं है, जहां प्रश्न और उत्तर दोनों दिये जाते हैं। यहां ये आवश्यक है कि प्रश्न तुम्हारा हो। प्रश्न पूछना अनिवार्य नहीं है। अगर तुम्हारे भीतर कोई प्रश्न उठे, तभी वो तुम्हारा प्रश्न है। तुम्हें इस बारे में कोई बाध्य नहीं कर सकता कि तुम ये प्रश्न पूछो, ये प्रार्थना करो, ये खोजो। ये भीतर से उपजा एक सहज भाव है। तुम्हारी आवश्यकता कोई और तय नहीं कर सकता। आवश्यकता का भान तुम्हें भीतर से ही होगा। असलियत में जब तुम इस उर्जा के सानिध्य में आते हो तो तुम्हारे प्रश्न स्वतः मिट जाते हैं।

प्रश्न : वर्तमान क्षण में कैसे मौजूद रहें?

श्री श्री रवि शंकर :
(चुटकी बजाते हुए) ऐसे। क्या तुम इस वक़्त यहां हो? (प्रश्नकर्ता ने हामी मे सिर हिलाया।) तो, इस वक़्त यहां रहो।


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