"स्वतंत्रता चाहना एक प्राकृतिक घटना है"
प्रश्न : गीता में भगवान श्री कृष्ण ने उस व्यक्ति को अपने अधिक निकट बताया है जो उन्हे याद करता है और उनकी सेवा करता है। दूसरी तरफ़ हम कहते हैं कि भगवान सबको एक दृष्टि से देखता है। कृप्या इस बारे में बताएं।
श्री श्री रवि शंकर : १२वें अध्याय में श्री कृष्ण ने बहुत तरह के लोगों को अपने अधिक निकट बताया है। जिसके मन में किसी के लिए नफ़रत नहीं है, जो सबके लिए करुणा और मैत्री भाव रखता है, जिसमें किसी के लिए अत्याधिक मोह नहीं है, जो हर तरह की परिस्थिति में संतुलित भाव बनाए रखता है - इन सबको अपने निकट बताया है। तुम भी तो अपनी पसन्द व्यक्त करते हो। किसी चीज़ं को पसन्द करने से अन्य चीज़ें नापसन्द नहीं हो जाती।
श्री कृष्ण ऐसा भ्रम पैदा करने के लिए भी कहते हैं। जब अर्जुन का मन पूर्ण रूप से विचलित हो गया तो उसके दिल से एक निश्चित बात सुनने की प्राथना जगी। तब श्री कृष्ण कहते हैं - "सब एक ही है। चाहे मैं अलग अलग बात कहता हूँ पर सब एक ही है।"
प्रश्न : हम समाज को सेवा के लिए एक साथ कैसे ला सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : तुम सेवा करते रहो। अन्य लोग अपने आप जुड़ जाएंगे। तुम उन्हे प्रेरित कर सकते हो। अगर तुम सेवा में आनंद ले रहे हो तो अन्य लोग स्वयं ही प्रेरित हो जाएंगे। लीडर को ऐसा ही होना चाहिए।
प्रश्न : तपस्या क्या है?
श्री श्री रवि शंकर: तपस्या वह है जो हो सकता है तुम्हे पसन्द न हो पर तुम्हारे लिए हितकारी हो।
प्रश्न : प्रार्थना का अर्थ क्या है?
श्री श्री रवि शंकर : प्रार्थना का अर्थ है दिल की गहराई से उठी मांग। जब बच्चे रो कर अपनी माँ को पुकारते है, वही प्रार्थना है। दूसरा, जब हम कोई भी कार्य पूरे दिल से करते हैं तो वो प्रार्थना है।
प्रश्न:सामाजिक जीवन और आध्यात्मिकता में संतुलन कैसे लाएँ?
श्री श्री रवि शंकर : अगर तुम चलना जानते हो तो तुम संतुलन बनाना समझते हो। तुम दोनो कदम ज़मीन पर एकसाथ नहीं रखते और ना ही तुम दोनो कदम ज़मीन से एकसाथ उठाते हो।
अगर तुम सब काम छोड़कर केवल ध्यान ही करने लगोगे तो ध्यान होगा ही नहीं। अगर तुम केवल सामाजिक कामों में ही लगे रहोगे तो भीतर से अपने आप ही ध्यान की तड़प उठेगी। अपने दिल की सुनो। इसका झुकाव दोनो तरफ़ ही है। एक संतुलन से दोनो ही करना है।
प्रश्न : क्या मनुष्य जीवन एक ही बार मिलता है? क्या हम सब योनियों से होकर मनुष्य बने हैं?
श्री श्री रवि शंकर : तुम इस जन्म में मनुष्य रूप में पैदा हुए हो - इसके प्रति सजगता ज़्यादा महत्वपूर्ण है। तुम भी यहीं हो और मैं भी। अपनी यात्रा इसी जीवन में पूरी करने का प्रयास करते रहना चाहिए।
प्रश्न : नियम और कानून का उल्लंघन करने वालों का किस हद तक विरोध करना चाहिए? अगर विरोध के बावजूद भी फल हमारे हित में ना हो तो क्या करना चाहिए? केवल भय के कारण हम चुप है। कृप्या मार्ग दर्शन करें।
श्री श्री रवि शंकर : संघे शक्ति कलयुगे - कलयुग में संघ की ही शक्ति है। हमें समुह में कार्य करने की आवश्यक्ता है। जो भी तुम्हे गलत लगता है उसके विरोध में आवाज़ उठाओ। लोगों को उसके बारे में जागरूक करो। आज भी समाज में बहुत अच्छे लोग हैं। सबको इसमे शामिल करो।
प्रश्न : गुरु तत्व क्या है?
श्री श्री रवि शंकर : तुमने यह सवाल पूछा क्योंकि तुम कुछ जानना चाहते हैं। कुछ जानने के लिए प्यास शिष्यत्व है। जो तुम्हे उत्तर देता है वो गुरु है। और वो स्रोत जिसमे जीवन का हर उत्तर निहित है, गुरु तत्व है। हमें उत्तर क्यों चाहिए? ताकिं हम पूर्ण महसूस करें। ज्ञान हमें पूर्ण करता है। जिस तत्व की उपस्थिति में जीवन में कोइ कमी नहीं रहती, वो गुरु तत्व है।
प्रश्न : हमारे शरीर में उर्जा के कौन कौन से केन्द्र हैं?
श्री श्री रवि शंकर : शरीर का हर कण उर्जा का स्रोत है। पूरी चेतना उर्जा की एक अभिव्यक्ति है।
प्रश्न : क्या अंतर्ज्ञान(intuition) गलत हो सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : तो वो अंतर्ज्ञान नहीं है।
प्रश्न : सदगुरु को कैसे पहचाने? जो कोई भी किसी गुरु से जुड़ता है उसे अपना गुरु ही सच्चा लगता है। मगर कई बार इस विश्वास का गलत फ़ायदा उठाया जाता है। मुझ इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन लगता है।
श्री श्री रवि शंकर : दुनिया में ऐसे कितने लोग हैं जो मित्रता में विश्वासघात करते हैं। पर इस भय से तुम मित्र बनाना तो नहीं छोड़ देते।
कई डाक्टर शरीर के अंगों की चोरी करते हैं पर इस भय से तुम उनके पास जाना तो नहीं छोड़ते। किसी रेल दुर्घटना के बाद रेल से सफ़र करना तो नहीं छोड़ते। इसलिए इतना डरने की आवश्यकता नहीं है। अपने हृदय की सुनो। अगर तुम्हारा विश्वास सच्चा है तो गुरु का कुछ गलत करना भी तुम्हे नुकसान नहीं पहुँचाता। अगर कोई गुरु गलत करता है तो उसे इसका दुष्परिणाम भी झेलना होगा। तुम्हारा हृदय तुम्हे सही रास्ता बताएगा।
प्रश्न : क्या गुरु पर अंधविश्वास होना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर : विश्वास कभी अंधा नही होता। जब विश्वास टूटता है तो लगता है कि वो अंधविश्वास था। जब ऐसा हो तो अपने में विश्वास लाने का यत्न मत करो। विश्वास अपने आप ही होता है। मैं तो कहूँगा तुम जितना चाहो संशय करो। फिर भी जो ठहर जाए वही सच्चा विश्वास है। मेरा काम तुम्हे विश्वास दिलाना नहीं है, पर तुम्हे संशय मे डालना है। तुम्हारा काम है कि तुम उसमे से बाहर आओ।
प्रश्न : मुझसे गुस्सा नियंत्रण नहीं होता। पर आपको देखने के बाद गुस्सा एकदम चला जाता है। मुझे गुस्सा नियंत्रित करने के लिए क्या करना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर : तुम्हारे कहने का मतलब है कि मुझे देखकर तुम्हारा गुस्सा खत्म हो जाता है। तो ठीक है तुम मुझे देख सकती हो।
प्रश्न : पथ पर आने वाली बाधाओं से कैसे निपटा जा सकता है?
श्री श्री रवि शंकर : उन्हें बाधा की तरह मत लो।
प्रश्न : गुरुजी,मुझे मेरी पत्नी का यहाँ आने से रोकना पसन्द नहीं। मैं क्या करूँ?
श्री श्री रवि शंकर : उसका ऐसा करने का कारण उसका भय हो सकता है कि तुम कहीं सब छोड़ कर साधु ना बन जाओ। ऐसे में उसे विश्वास दिलाओ कि गुरुजी तुम्हें ऐसा करने ही नहीं देंगे।
प्रश्न : मेरा परिवार आध्यात्मिक मार्ग में कब आएगा?
श्री श्री रवि शंकर : तुम चिन्ता मत करो। धीरे धीरे सब इस मार्ग पर आएंगे।
प्रश्न : हम कैसे जान सकते हैं कि जो ज्ञान हमे आप से मिलता है, उसे हम उसी रूप में आगे बाँटते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : इसीलिए teacher प्रशिक्षण (training) है। इससे गुज़रने की बाद तुम यह ज्ञान उसी शुद्द रूप में बाँट सकते हो।
प्रश्न : भगवान का कया मतलब है?
श्री श्री रवि शंकर : जिसमे भूमि की तरह सहनशीलता, पानी की तरह तरलता, अग्नि की तरह तीक्षणता, हवा की तरह सूक्ष्मता हो, और जो आकाश की तरह सर्वव्यापी है।
प्रश्न : भगवान तक पहुँचने का सर्वश्रेषठ मार्ग कौन सा है - भक्ति का मार्ग, यां ज्ञान का मार्ग?
श्री श्री रवि शंकर : तुम किसी को जाने बिना उसे पसन्द नहीं कर सकते। अहर तुम्हे गुलाब जामुन पसन्द है,तो उसके बारे में जानना ज्ञान योग है। उसे खरीद कर खाना कर्म योग है, और उसे पसन्द करना भक्ति योग है। भक्ति मतलब पसन्द करना। जब तुम किसी चीज़ को पसन्द करते हो तो उसके बारे में जानने की इच्छा स्वाभाविक ही उठती है। तीनो एकसाथ चलते हैं।
प्रश्न : हम मुक्ति क्यों चाहते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : मुक्ति चाहना स्वाभाविक ही है। परीक्षा खत्म होने के बाद तुम जो अनुभव करते हो, वो मोक्ष का एक छोटा सा अनुभव है। जीवन में भी तुम आशा और इच्छाओं से जलते रहते हो। यह अब इच्छाएं तुम्हे कष्ट ही देती हैं। जब तुम इससे बाहर निकल कर विश्राम
करते हो, तुम मुक्त महसूस करते हो। ’मुझे कुछ नहीं चाहिए’, मैं कुछ नहीं हूँ, और ’ मुझे अभी के लिए कुछ नहीं करना’ - जब तुम इस भाव से ध्यान में बैठते हो, तुम मुक्ति अनुभव करते हो।
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