धनतेरस के बहुत से अर्थ हैं। जीवन में हर तरह की समृद्धि होनी चाहिए। आमतौर पर पैसे को समृद्धि के साथ जोड़ा जाता है। भीतरी तृप्ति ही सही समृद्धि है। हवा, पानी और भूमि भी समृद्धि है। समय का सही उपयोग भी बहुत आवश्यक है। ज्ञान में समृद्धि है, और उसका रस हमारी चेतना होना चाहिए। जो भी हमारी पास है, हम जहाँ भी बांट सके हमें बाँटना चाहिए। हमे कुछ ना कुछ दान अवश्य करना चाहिए।
आज यहां विद्वान पंडितों ने यज्ञ और वेदिक अनुष्ठान किए हैं। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना ही पूजा है। आठ साल पहले हमने यहाँ यज्ञ किया था। उसके बाद से यहाँ कभी सूखा नहीं पड़ा। पहले यहाँ हर जगह बंजर भूमि होती थी पर आज यहाँ चारों तरफ़ हरियाली है। हम लक्ष्मी देवी के प्रति कृतज्ञ हों और उनकी कृपादृष्टि हम पर यूं ही बनी रहे।
दिव्य प्रेम कहीं दूर नहीं है, वो अभी यहीं है मेरे करीब। अगर हम में यह विश्वास है तो हम कभी भी दिव्य प्रेम से अलग नहीं महसूस करते। मैं आपको यही कहने आया हूँ कि आप ईश्वर से कभी दूर नहीं हो सकते। अगर आप में आज यह विश्वास जग जाता है तो मैं सोचूंगा मेरा काम हो गया।
देवी और देवता ईश्वर के विभिन्न अंग हैं। उनके लिए श्रद्धा से हम अपने सूक्ष्म स्वरूप में विश्राम करते हैं। क्या मिठाई केवल एक ही तरह की होती है? तो फिर का एक ही रूप क्यों हो! कल यहाँ 5600 तरह के व्यंजन परोसे गये थे। 35, 000 बच्चों ने इतने व्यंजन कभी देखे भी नहीं थे, कल यहाँ सब चखे।
दो साल पहले १२00 सितार वादकों का ब्रह्म नाद हुआ था। लोगों ने कहा यह संभव ही नहीं है। असंभव को संभव बनाना ही हमारा काम है, और फ़िर गुजरात की टीम ने अन्न ब्रह्म के इस कार्यकम को सामने रखा।
यह सब लक्ष्मी देवी का ही एक रूप है।
आठ प्रकार की समृद्धि हर किसी के जीवन में आती है। हम लक्ष्मी माँ के आशीर्वाद को आज जीवन में पुनः ग्रहण करें। बस इतना जान लो कि जो भी तुम्हें चाहिए वो तुम्हे मिलेगा।
भगवान कृष्ण ने कहा सब धर्म छोड़ दो और मुझ में विश्राम करो। मैं तुम्हे हर पाप से मुक्त करा दूँगा। पर हम उल्टा ही करते हैं। हम धर्म से चिपके रहते हैं कि हमें पापों से मुक्ति मिले। रोज़मर्रा की भागदौड़ में हम भूल जाते हैं कि दिव्यता हमारे भीतर ही है।
आज यह संकल्प लेते हैं कि इसे नहीं भूलेंगे कि दिव्य संगीत हमारे भीतर है। मैं और मेरा परिवार यह संकल्प लेते हैं कि पूरे विश्व में लोग खुश रहें और मैं इस मे योगदान दे सकूँ।
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