"स्वतंत्रता चाहना एक प्राकृतिक घटना है"


प्रश्न : गीता में भगवान श्री कृष्ण ने उस व्यक्ति को अपने अधिक निकट बताया है जो उन्हे याद करता है और उनकी सेवा करता है। दूसरी तरफ़ हम कहते हैं कि भगवान सबको एक दृष्टि से देखता है। कृप्या इस बारे में बताएं।

श्री श्री रवि शंकर :
१२वें अध्याय में श्री कृष्ण ने बहुत तरह के लोगों को अपने अधिक निकट बताया है। जिसके मन में किसी के लिए नफ़रत नहीं है, जो सबके लिए करुणा और मैत्री भाव रखता है, जिसमें किसी के लिए अत्याधिक मोह नहीं है, जो हर तरह की परिस्थिति में संतुलित भाव बनाए रखता है - इन सबको अपने निकट बताया है। तुम भी तो अपनी पसन्द व्यक्त करते हो। किसी चीज़ं को पसन्द करने से अन्य चीज़ें नापसन्द नहीं हो जाती।
श्री कृष्ण ऐसा भ्रम पैदा करने के लिए भी कहते हैं। जब अर्जुन का मन पूर्ण रूप से विचलित हो गया तो उसके दिल से एक निश्चित बात सुनने की प्राथना जगी। तब श्री कृष्ण कहते हैं - "सब एक ही है। चाहे मैं अलग अलग बात कहता हूँ पर सब एक ही है।"

प्रश्न : हम समाज को सेवा के लिए एक साथ कैसे ला सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
तुम सेवा करते रहो। अन्य लोग अपने आप जुड़ जाएंगे। तुम उन्हे प्रेरित कर सकते हो। अगर तुम सेवा में आनंद ले रहे हो तो अन्य लोग स्वयं ही प्रेरित हो जाएंगे। लीडर को ऐसा ही होना चाहिए।

प्रश्न : तपस्या क्या है?

श्री श्री रवि शंकर:
तपस्या वह है जो हो सकता है तुम्हे पसन्द न हो पर तुम्हारे लिए हितकारी हो।

प्रश्न : प्रार्थना का अर्थ क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
प्रार्थना का अर्थ है दिल की गहराई से उठी मांग। जब बच्चे रो कर अपनी माँ को पुकारते है, वही प्रार्थना है। दूसरा, जब हम कोई भी कार्य पूरे दिल से करते हैं तो वो प्रार्थना है।

प्रश्न:सामाजिक जीवन और आध्यात्मिकता में संतुलन कैसे लाएँ?

श्री श्री रवि शंकर :
अगर तुम चलना जानते हो तो तुम संतुलन बनाना समझते हो। तुम दोनो कदम ज़मीन पर एकसाथ नहीं रखते और ना ही तुम दोनो कदम ज़मीन से एकसाथ उठाते हो।
अगर तुम सब काम छोड़कर केवल ध्यान ही करने लगोगे तो ध्यान होगा ही नहीं। अगर तुम केवल सामाजिक कामों में ही लगे रहोगे तो भीतर से अपने आप ही ध्यान की तड़प उठेगी। अपने दिल की सुनो। इसका झुकाव दोनो तरफ़ ही है। एक संतुलन से दोनो ही करना है।

प्रश्न : क्या मनुष्य जीवन एक ही बार मिलता है? क्या हम सब योनियों से होकर मनुष्य बने हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
तुम इस जन्म में मनुष्य रूप में पैदा हुए हो - इसके प्रति सजगता ज़्यादा महत्वपूर्ण है। तुम भी यहीं हो और मैं भी। अपनी यात्रा इसी जीवन में पूरी करने का प्रयास करते रहना चाहिए।

प्रश्न : नियम और कानून का उल्लंघन करने वालों का किस हद तक विरोध करना चाहिए? अगर विरोध के बावजूद भी फल हमारे हित में ना हो तो क्या करना चाहिए? केवल भय के कारण हम चुप है। कृप्या मार्ग दर्शन करें।

श्री श्री रवि शंकर :
संघे शक्ति कलयुगे - कलयुग में संघ की ही शक्ति है। हमें समुह में कार्य करने की आवश्यक्ता है। जो भी तुम्हे गलत लगता है उसके विरोध में आवाज़ उठाओ। लोगों को उसके बारे में जागरूक करो। आज भी समाज में बहुत अच्छे लोग हैं। सबको इसमे शामिल करो।

प्रश्न : गुरु तत्व क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
तुमने यह सवाल पूछा क्योंकि तुम कुछ जानना चाहते हैं। कुछ जानने के लिए प्यास शिष्यत्व है। जो तुम्हे उत्तर देता है वो गुरु है। और वो स्रोत जिसमे जीवन का हर उत्तर निहित है, गुरु तत्व है। हमें उत्तर क्यों चाहिए? ताकिं हम पूर्ण महसूस करें। ज्ञान हमें पूर्ण करता है। जिस तत्व की उपस्थिति में जीवन में कोइ कमी नहीं रहती, वो गुरु तत्व है।

प्रश्न : हमारे शरीर में उर्जा के कौन कौन से केन्द्र हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
शरीर का हर कण उर्जा का स्रोत है। पूरी चेतना उर्जा की एक अभिव्यक्ति है।

प्रश्न : क्या अंतर्ज्ञान(intuition) गलत हो सकता है?

श्री श्री रवि शंकर :
तो वो अंतर्ज्ञान नहीं है।

प्रश्न : सदगुरु को कैसे पहचाने? जो कोई भी किसी गुरु से जुड़ता है उसे अपना गुरु ही सच्चा लगता है। मगर कई बार इस विश्वास का गलत फ़ायदा उठाया जाता है। मुझ इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन लगता है।

श्री श्री रवि शंकर :
दुनिया में ऐसे कितने लोग हैं जो मित्रता में विश्वासघात करते हैं। पर इस भय से तुम मित्र बनाना तो नहीं छोड़ देते।
कई डाक्टर शरीर के अंगों की चोरी करते हैं पर इस भय से तुम उनके पास जाना तो नहीं छोड़ते। किसी रेल दुर्घटना के बाद रेल से सफ़र करना तो नहीं छोड़ते। इसलिए इतना डरने की आवश्यकता नहीं है। अपने हृदय की सुनो। अगर तुम्हारा विश्वास सच्चा है तो गुरु का कुछ गलत करना भी तुम्हे नुकसान नहीं पहुँचाता। अगर कोई गुरु गलत करता है तो उसे इसका दुष्परिणाम भी झेलना होगा। तुम्हारा हृदय तुम्हे सही रास्ता बताएगा।

प्रश्न : क्या गुरु पर अंधविश्वास होना चाहिए?

श्री श्री रवि शंकर :
विश्वास कभी अंधा नही होता। जब विश्वास टूटता है तो लगता है कि वो अंधविश्वास था। जब ऐसा हो तो अपने में विश्वास लाने का यत्न मत करो। विश्वास अपने आप ही होता है। मैं तो कहूँगा तुम जितना चाहो संशय करो। फिर भी जो ठहर जाए वही सच्चा विश्वास है। मेरा काम तुम्हे विश्वास दिलाना नहीं है, पर तुम्हे संशय मे डालना है। तुम्हारा काम है कि तुम उसमे से बाहर आओ।

प्रश्न : मुझसे गुस्सा नियंत्रण नहीं होता। पर आपको देखने के बाद गुस्सा एकदम चला जाता है। मुझे गुस्सा नियंत्रित करने के लिए क्या करना चाहिए?

श्री श्री रवि शंकर :
तुम्हारे कहने का मतलब है कि मुझे देखकर तुम्हारा गुस्सा खत्म हो जाता है। तो ठीक है तुम मुझे देख सकती हो।

प्रश्न : पथ पर आने वाली बाधाओं से कैसे निपटा जा सकता है?

श्री श्री रवि शंकर :
उन्हें बाधा की तरह मत लो।

प्रश्न : गुरुजी,मुझे मेरी पत्नी का यहाँ आने से रोकना पसन्द नहीं। मैं क्या करूँ?

श्री श्री रवि शंकर :
उसका ऐसा करने का कारण उसका भय हो सकता है कि तुम कहीं सब छोड़ कर साधु ना बन जाओ। ऐसे में उसे विश्वास दिलाओ कि गुरुजी तुम्हें ऐसा करने ही नहीं देंगे।

प्रश्न : मेरा परिवार आध्यात्मिक मार्ग में कब आएगा?

श्री श्री रवि शंकर :
तुम चिन्ता मत करो। धीरे धीरे सब इस मार्ग पर आएंगे।

प्रश्न : हम कैसे जान सकते हैं कि जो ज्ञान हमे आप से मिलता है, उसे हम उसी रूप में आगे बाँटते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
इसीलिए teacher प्रशिक्षण (training) है। इससे गुज़रने की बाद तुम यह ज्ञान उसी शुद्द रूप में बाँट सकते हो।

प्रश्न : भगवान का कया मतलब है?

श्री श्री रवि शंकर :
जिसमे भूमि की तरह सहनशीलता, पानी की तरह तरलता, अग्नि की तरह तीक्षणता, हवा की तरह सूक्ष्मता हो, और जो आकाश की तरह सर्वव्यापी है।

प्रश्न : भगवान तक पहुँचने का सर्वश्रेषठ मार्ग कौन सा है - भक्ति का मार्ग, यां ज्ञान का मार्ग?

श्री श्री रवि शंकर :
तुम किसी को जाने बिना उसे पसन्द नहीं कर सकते। अहर तुम्हे गुलाब जामुन पसन्द है,तो उसके बारे में जानना ज्ञान योग है। उसे खरीद कर खाना कर्म योग है, और उसे पसन्द करना भक्ति योग है। भक्ति मतलब पसन्द करना। जब तुम किसी चीज़ को पसन्द करते हो तो उसके बारे में जानने की इच्छा स्वाभाविक ही उठती है। तीनो एकसाथ चलते हैं।

प्रश्न : हम मुक्ति क्यों चाहते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
मुक्ति चाहना स्वाभाविक ही है। परीक्षा खत्म होने के बाद तुम जो अनुभव करते हो, वो मोक्ष का एक छोटा सा अनुभव है। जीवन में भी तुम आशा और इच्छाओं से जलते रहते हो। यह अब इच्छाएं तुम्हे कष्ट ही देती हैं। जब तुम इससे बाहर निकल कर विश्राम
करते हो, तुम मुक्त महसूस करते हो। ’मुझे कुछ नहीं चाहिए’, मैं कुछ नहीं हूँ, और ’ मुझे अभी के लिए कुछ नहीं करना’ - जब तुम इस भाव से ध्यान में बैठते हो, तुम मुक्ति अनुभव करते हो।


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जब भीतर खालीपन का भान हो तो सत्य की खोज का प्रारंभ होता है

१० मार्च, २०१०
ऋषिकेश, भारत

प्रश्न : सभी सांसारिक सुख और परिवार के होते हुए भी अगर कोई भीतर ख़ालीपन महसूस करे तो क्या करें?

श्री श्री रवि शंकर :
अपने आप को भाग्यवान मानना चाहिए कि उसे ये भान हुआ कि जीवन में खाने, पीने और सोने से अधिक भी कुछ है। जब भीतर इस ख़ालीपन का भान हो, तब सत्य की खोज का प्रारंभ होता है।

प्रश्न : प्रार्थना-केन्द्रित और ध्यान-केन्द्रित धर्म में क्या अंतर है?

श्री श्री रवि शंकर :
हर चीज़ का अपना स्थान है। प्रार्थना माने ईश्वर से कुछ मांगना, और ध्यान माने ईशवर की सुनना। दोनों ही आवश्यक हैं।

प्रश्न : क्या ज्योतिष और ग्रहों का कुछ महत्व है? कई टी वी चैनेलों पर ऐसे कार्यक्रम आते है जहां ग्रहों और मणियों के बारे में बताते हैं। क्या इन पर विश्वास करना चाहिये?

श्री श्री रवि शंकर :
ज्योतिष का अपना महत्व है। ज्योतिष एक विज्ञान है, पर हर ज्योतिषी वैज्ञानिक नहीं है। हर किसी ज्योतिषी पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ग्रहों का प्रभाव होता है, परंतु ये जान लो कि तुम में उन से कहीं अधिक शक्ति है। ’ॐ नमः शिवाय’ मंत्र एक कवच की तरह है, और ये सभी ग्रहों के प्रभाव को संभाल लेता है।

प्रश्न : क्या अपनी जीविका के लिये जूझता व्यक्ति आध्यात्म के मार्ग पर प्रगति कर सकता है?

श्री श्री रवि शंकर :
कुछ लोग कहते हैं कि आध्यात्म के मार्ग पर चलने के लिये तुम्हें अपना रोज़गार छोड़ना होगा। पर मैं कहता हूं कि तुम अपनी जीविका या व्यवसाय को चलाते हुए आध्यातम के मार्ग पर प्रगति कर सकते हो। ये एक दूसरे के पूरक हैं। आध्यात्म मार्ग पर चलने से तुम्हारे रोज़गार में भी कार्य सिद्ध होते हैं। इस ज्ञान को केवल सुनने से कोई लाभ नहीं होगा। इसके साथ साथ अपनी साधना करना अतिआवश्यक है।

प्रश्न : प्रेम और मोह में क्या अंतर है?

श्री श्री रवि शंकर :
मोह वही है जो तुम्हे पीड़ा देता है। प्रेम वही है जिसके बिना तुम रह नहीं सकते हो। अगर प्रेम मोह में परिवर्तित हो जाये, तो वही प्रेम जो तुम्हें आनंद दे रहा था, पीड़ा देने लगता है। मोह में कुछ बदले में पाने की भावना रहती है। अगर तुम प्रेम करो और बदले में कुछ न चाहो, तब वो प्रेम मोह में परिवर्तित नहीं होता। नारद भक्तिसूत्र के विवेचन में मैंने प्रेम के विषय में बताया है।

प्रश्न : अगर ईश्वर ही हमारा उद्गम स्थान है, हम ईश्वर का ही अंश है, ईशवर में मिल जाना हमारा गंतव्य है, तो फिर हम ईश्वर से दूर जाने की बेवकूफ़ी क्यों करते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
कभी कभी तुम घर में बैठे-बैठे बोर हो जाते हो, और कहीं घूमने चले जाते हो। पर तुम वापस घर आ जाते हो। अगर तुम वापस न आओ तो मेरे जैसा कोई व्यक्ति तुम्हें वापस घर ले चलने के लिये आ जाता है।

प्रश्न : विवाह करना, भारत में इतना आवश्यक क्यों माना जाता है?

श्री श्री रवि शंकर :
समाज में रहने के लिये उसके नियमों का पालन करना होता है। ये नियम समाज में सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये होते हैं।

प्रश्न : शराब अगर नैसर्गिक उपज से बनाई जाती है फिर भी इसका सेवन स्वास्थ्य के लिये हानिकारक क्यों होता है?

श्री श्री रवि शंकर :
मैनें पाया है कि शराब का सेवन करने वाले व्यक्ति वस्तुतः भीतर से दुखी होते हैं। एक बार शराब का नशा उतर जाये तो दुख का फिर उदय होता है, और पहले से दोगुने आयाम से वह प्रभावित करता है। जीवन का ध्येय है जागरूक रहना, ना कि जागरूकता को खो देना। दुख से छुटकारा पाने के लिये जागरूकता की आवश्यकता है। नशा उसे केवल कुछ देर के लिये रोक सकता है। फिर दुख दोगुने आयाम में वापस आता है। नशा तुम्हारा स्वास्थ्य ख़राब करता है, तुम्हारी बुद्धि को क्षीण करता है और मन में कितनी ही दुविधाओं को जन्म देता है। ये ना सिर्फ़ तुम्हारे जीवन को खराब करता है, बल्कि तुम्हारे आस पास रहने वालों का भी। अगर तुम अपने स्वास्थ का नुकसान चाहते हो, और वो भी अपने खर्च पर, तो नशा करते रहो।
गांवों में लोग अच्छा कमाते हैं लेकिन कमाई का ६० प्रतिशत हिस्सा नशाखोरी में मिटा देते हैं, और इस तरह गरीबी और बीमारी की अवस्था बनी रहती है। आनंदित रहने के लिये तुम्हारे पास सत्संग एक उतकृष्ट साधन है। ये ना सिर्फ़ तुम्हें, बल्कि तुम्हारे आस पास के लोगों को भी आनंदित करता है। सत्संग का नशा महसूस करने के बाद तुम्हें अन्य नशीले पदार्थ फीके लगेंगे।

प्रश्न : मासांहारी भोजन न लेने के पीछे कोई तर्क है?

श्री श्री रवि शंकर :
जीव में तीन प्रकार होते हैं – शाकाहारी, मांसाहारी और मरे हुये जानवर खाने वाले। मांसाहारी जीव शिकार मार कर भोजन करते हैं। जानवर मार कर वे ताज़ा मांस खाते हैं। भूख ना होने पर वे दूसरे जानवरों को नहीं मारते। स्कैवेन्जर जीव, मरे हुए जानवर खाते हैं। कुछ ही
जीव इस श्रेणी के होते हैं।
अगर तुम कुछ बौद्धिक कार्य करना चाहते हो, तो मांसाहारी भोजन तुम्हारी लिये उपयुक्त नहीं है। आइन्स्टाइन जैसे अपूर्व बुद्धि वाले वैज्ञानिक, शाकाहारी थे। शरीर के स्वास्थ्य और बुद्दि की प्रखरता के लिये शाकाहारी भोजन सर्वोत्तम है।

प्रश्न : कहा जाता है कि अनेकानेक पुण्य अर्जित करने के बाद जीव को मनुष्य जन्म मिलता है। आजकल के मनुष्य तो पुण्यात्मा नहीं जान पड़ते, तो फिर विश्व में मनुष्यों की जनसंख्या इतनी बढ़ क्यों रही है?

श्री श्री रवि शंकर :
कई जीवों की जन्संख्या घट भी रही है, जैसे कि बिच्छू, सांप, इत्यादि। तुम सोचना इस बात पर।

प्रश्न : किसानों के लिये आपका क्या परामर्श है?

श्री श्री रवि शंकर :
जिन फ़सलों की पैदावार भारत में प्रचुर मात्रा में होती थी, अब उनका आयात करना पड़ रहा है। इसलिये कीमतें भी कई गुना बढ़ गई हैं। पहले समय में खेतों में तीन फ़सलें हुआ करती थी। अगर एक फ़सल को नुकसान हो जाये तब भी किसान की जीविका के लिये दो फ़सलें तो बच जाती थी। इस तरह एक से ज़्यादा फ़सलें उगाने की वजह से किसान कर्ज़दारी से बच जाता था।
परंतु वर्ण-संकर फ़सलों(Hybrid crops) में केवल पहले एक या दो वर्षों तक ही अच्छी उपज हो पाती है। फ़िर धरती से पौष्टिक तत्व नष्ट हो जाते हैं।
मेरा सभी के लिये परामर्श है कि प्राचीन कृषि के तरीकों को अपनायें।
एक से अधिक फसलों को एक साथ उगाने से अच्छा मुनाफ़ा होता है।(Multiple croping)
महाराष्ट्र में हमनें बीजों का बैंक शुरु किया है। इस वर्ष ५० किसानों को १ किलो बीज दिये गये हैं। १ किलो बीज से उन्हें ४०-४५ किलो उपज मिलेगी और अगले वर्ष वे किसान २ किलो बीज बैंक को वापस करेंगे। इस तरह अगले वर्ष १०० किसानों को मुफ़्त बीज मिल पायेंगे।
अच्छा हो अगर ऐसे बैंक पंजाब और हरयाणा में भी शुरु किये जायें। किसान खुश होंगे और सबको अच्छी फ़सल भी मिलेगी। अन्यथा जो उपज हम रासायनिक कृषि से पाते हैं वो हमारे शरीर में जगह जगह दर्द और रोग देते हैं। इसलिये एक से अधिक फसलों को एक साथ उगाना
और जैविक कृषि(Organic farming) इस समस्या का सर्वश्रेष्ठ उपाय है।

प्रश्न : कृपया बी टी फ़सलों के बारे में हमें जानकारी दीजिये। ऐसा क्यों कहा जाता है कि बी टी फ़सलों का उपभोग नहीं करना चाहिये?

श्री श्री रवि शंकर :
बी टी – बायो टेक (Bio - tech)। हां, हमें इसका उपयोग नहीं करना चाहिये। बी टी रुई की वजह से हज़ारों किसानों ने आत्महत्या की थी। साथ ही, इससे निकले जीवाणुओं ने कई और वनस्पतियों को भी नुकसान पंहुचाया। १०-१५ साल पहले नीम की पत्तियां झुलसती नहीं थी। बी टी रुई की वजह से अब ऐसा हो रहा है।

कुछ लोगों ने तैयारी की थी भारत में बी टी बैंगन की खेती की शुरुवात की। लेकिन इसके विरोध में सामूहिक आवाज़ की वजह से अभी के लिये ये योजना टल गई है। फ़्रांस और अमरीका ने भी इन बीजों पर प्रतिबन्ध लगाया है। शोध से ये जानकारी हुई है कि इन बीजों से गुर्दे, लिवर, हृदय पर दुष्प्रभाव पड़ता है। साथ ही कैंसर भी बढ़ता है। परंतु भ्रष्टाचार के चलते भारत में बी टी चावल इत्यादि की शुरुवात की जाने वाली थी। इसलिये ये आवश्यक है कि अच्छे लोग, संत और सामाजिक कार्यकर्ता मिलकर आवाज़ उठाएं और सामान्य लोगों को इसकी जानकारी हो।

प्रश्न : क्या विभिन्न आध्यात्मिक संस्थाओं के बीच टकराव नहीं होता?

श्री श्री रवि शंकर :
प्रणाली एवं पद्दति में भेद होने पर भी, ध्येय एक ही है – मानव का उत्थान। सभी पद्दतियां अच्छी हैं। समय समय पर धार्मिक सभायें भी होती हैं। जहां तक मेरी जानकारी है, उनके बीच टकराव नहीं है।

प्रश्न : अविद्या क्या है, और ज्ञान में स्थित होने का क्या अर्थ है?

श्री श्री रवि शंकर :
अगर एकांत में भी कई विचार तुम पर हमला कर रहे हैं, तो तुम अविद्या में हो। अगर भीड़ में भी तुम शांत हो, तो तुम ज्ञान में स्थित हो।


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अध्यात्मिक ज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान साथ साथ चलतें हैं

ऋषिकेश,भारत-०८ मार्च २०१०

प्रश्न : शिव कौन है?

श्री श्री रवि शंकर :
पूछना यह चाहिए कि कौन शिव नहीं है? पूरा संसार शिव
से भरा है| शिव-जिसका शरीर पूरे ब्रह्माण्ड में है| कलाकारों के लिए शिव
का चित्र बनाना बहुत कठिन है, क्योंकि शिव कल्पना से परे है| इस कारण शिव को
नीला रंग दिया गया| नीले का अर्थ है- सर्व-व्यापक, अनंत जिसकी कोई सीमा न
हो| शिव का कोई आकार नहीं है| वेदों के ज्ञान का
कोई आकार नहीं है, लेकिन यह ज्ञान ब्रह्माण्ड के कण-कण में बसा हुआ है|
“साम्ब सदा शिव” – शिव तत्त्व में शिव और शक्ति दोनों मौजूद है ( नर और
नारी शक्ति)| पार्वती शिव से अलग नहीं हैं| पार्वती यज्ञ से उत्पन्न
हैं|शिव तत्त्व के बिना यज्ञ सम्भव नहीं है| शिव और शक्ति को एक क्षण
के लिए भी अलग नहीं किया जा सकता| यदि शिव हर जगह है, तो शक्ति इसकी
परिधि के बाहर कैसे ही सकती है| पुराणों में शिव की तमाम कहानियाँ हैं,
जिनकी रचना यह ध्यान में रख कर की गई है कि एक बच्चा भी शिव तत्त्व के बारे में कुछ जान सके|
तुम सब चेतना की तीन अवस्थाओं का अनुभव करते हो- जागृत, स्वप्न और सुप्त|
शिव चेतना की चौथी अवस्था है, जिसे “तुरीया” कहते हैं, जिसका अनुभव तुम गहन ध्यान में करते
हो| जब तुम उस अवस्था का अनुभव करते हो, तो भोलापन उदय होता है|
और बिना भोलेपन के तुम उस तत्त्व में विलीन नहीं हो सकते | इसीलिये
शिव को भोलेनाथ भी कहा जाता है|

प्रश्न : भोलापन क्या है? भोलापन कैसे चला जाता है?

श्री श्री रवि शंकर :
भोलेपन के लिए तुम्हें समझना होगा कि कोई अन्य नहीं है|

प्रश्न : शिवजी के गले में विष रोकने की कथा का क्या मतलब है?

श्री श्री रवि शंकर :
इसका गहरा अर्थ है| बोलने से ही विष फैलता है| बोलने से
मन उत्तेजित होता है| सभी झगड़े सही ज्ञान की कमी और कठोर शब्दों के कारण ही
होते हैं| शिवजी को नीलकंठ भी कहा जाता है – जिसका अर्थ है कि जब महादेव
विषपान करते हैं, यह उनके पूरे शरीर में नहीं पहुंचता| जब सही और गलत
विचारों में संघर्ष होता है, विष पैदा होता है| शिव तत्त्व में उस विष को
रोक कर रखने की शक्ति होती है| यदि तुम्हें किसी की आलोचना करनी भी पड़े, तो
इसे होठों से करो – दिल से नहीं| जब तुम इसे दिल से करते हो, यह तुम्हें
नुकसान पहुंचाता है| जब यह केवल होठों के स्तर तक रहता है, तो समाज में
किसी का भला होता है| तुम हर समय मीठे बोल नहीं बोल सकते| यह अपने-आपको
तथा दूसरों को धोखा देना होगा| तुम्हें दूसरों को शीशा दिखाना पड़ता है,
लेकिन यह दिल के स्तर से नहीं होना चाहिये| यहाँ तक कि शिव भी गुस्सा
होते हैं, पर अंदर से नहीं| अंदर वही शांति रहती है| यह बच्चों द्वारा
अपनी माँ से गुस्सा होने जैसा है| पर तुरंत ही बच्चों की मुस्कान लौट आती है| यही
भोलपन है| बड़े लोग ही झगड़ों को लंबे समय तक रोके रखते है|

प्रश्न : बच्चा गलत भाषा कैसे सीखता है?

श्री श्री रवि शंकर :
प्रत्येक बच्चा जन्म के समय भोला होता है| लेकिन वे
वातावरण से गलत भाषा सीख जाते हैं| पहले-पहल वे केवल अपने माता-पिता या
अपने आस-पास के लोगों की नक़ल करते हैं| लेकिन बाद में यह आदत बन जाती है|
जो तुम देते हो, वही तुम्हारे पास लौटकर आता है| उससे केवल तुम्हारा ही
दिमाग खराब होता है|

प्रश्न : शिव के त्रिशूल का क्या महत्व है?

श्री श्री रवि शंकर :
त्रिशूल पकड़ने का अर्थ है कि शिव जागृत, स्वप्न और
सुप्त – तीनों अवस्थाओं से परे हैं| लेकिन इन सभी को साथ में लेकर चलते हैं|

प्रश्न : क्या किसी की निकटता अनुभव करने में भौतिक दूरी बाधक है?

श्री श्री रवि शंकर :
मन के लिए कोई दूरी नहीं है| जब तुम भावनाओं से जुड़ते
हो, सभी दूरियां समाप्त हो जाती हैं| यदि कोई भाव नहीं है, तो तुम अपने
बिलकुल पास बैठे व्यक्ति से भी निकटता नहीं महसूस करते| यह बात ईश्वर,
देवता और सभी सम्बन्धों के लिए सत्य है| जब पूरे ब्रह्माण्ड से ऐसा
सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, तो तुम शिव तत्व का अनुभव करते हो|

प्रश्न : प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति में शिव को कैसे देखा जा सकता है?

श्री श्री रविशंकर :
“शिव हर जगह है”|यह आध्यात्मिक सत्य है और दूसरा
व्यवहारिक ज्ञान है| दोनों को साथ में लेकर चलो | जो केवल सामाजिक व्यवहार
में अटका रहता है, उसे कुछ नहीं मिलता| यह उसके लिए भी सत्य है जो केवल ध्यान
और आध्यात्मिकता की परिकल्पना में बहुत अधिक डूबा हुआ है|
यदि तुम्हारे घर में चोर घुस आता है, तो तुम उसे शिव का रूप मानकर उसे
मनमानी करने नहीं दे सकते|(हँसते हुए) तब शिव के इस रूप को पुलिस रूपी
शिव को संभालने दो|

तुम ड्रग या शराब पीने को यह कहकर उचित नहीं ठहरा सकते कि इनमें भी शिव
मौजूद है| हमारा शरीर ऐसा बना है कि यदि तुम अपनी चेतना और प्राण को बढ़ाते हो, तो तुम ईश्वरत्व का अनुभव करते हो | और यदि तुम
इन्हें घटाते हो, तो तुम सुस्ती का अनुभव करते हो|
जहाँ प्राण हैं, वहीं सच्ची सुंदरता या शिव है|


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सेवा के ३० बर्ष मनाते हुए

संतों की उपस्थिति और सत्संग ने ऋषिकेश के वातावरण को और भी रंगमय बना दिया। सब से मिलते हुए श्री श्री ने बताया कि पुणे में हुए संगीतमय कार्यक्रम, अंतर्नाद, नें गिन्नीज़ बुक(guinness book) में रिकौर्ड स्थापित किया है।

इस खुशी के माहौल में श्री श्री ने ये भी बताया कि अगले वर्ष आर्ट आफ़ लिविंग के ३० वर्ष पूरे होने पर एक उत्सव का अयोजन होगा। भक्तों ने इस उत्सव में शामिल होने की इच्छा जताई।


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विज्ञान और आध्यात्मिकता दोनों ही आत्मा में संतोष लाने के लिए आवश्यक हैं


प्रश्न : गुरुजी, आपके सानिध्य में ऐसा लगता है कि वृन्दावन यहीं बन गया है। परंतु बाहर दुनिया में वापस जाने जग-जंजाल में फिर उलझ जाते हैं। इससे मुक्त कैसे हों?

श्री श्री रवि शंकर :
बार बार आते रहो। क्या तुमने ये महसूस किया है कि जंजाल अब तुम्हें पहले से थोड़ा कम विचलित करते हैं? उनकी पकड़ तुम पर कुछ ढीली पड़ गई है? धीरे धीरे जैसे तुम अपने भीतर अधिक केन्द्रित होते जाओगे, तुम पाओगे कि सांसारिक उलझनें तुम्हें विचलित नहीं कर पायेंगी।

प्रश्न : श्रद्धा और अंध-श्रद्धा में कैसे अंतर करें?

श्री श्री रवि शंकर :
अंध-श्रद्धा वह है जो तुम्हें कोई सकरात्मक परिणाम ना दे। अंध-श्रद्धा में आप कही सुनी बातों को मान कर, अपने लिये भी वैसी आशा करते हो। या तो तुम भ्रमित हो, या किसी तीव्र इच्छा की पूर्ति की मांग के कारण ऐसा करते हो।

प्रश्न : आप अक्सर कहते हैं कि हम सब आपके बाल जैसे हैं, और एक भी बाल खिंचा तो आप जान जाते हैं। मैं कई दिनों से आपका ध्यान आकर्षित करने के लिये आपके बाल खींच रहा हूं, पर लगता है, आप ने अभी तक गौर नहीं किया।

श्री श्री रवि शंकर :
(शरारत से हंसतें हुए) हां, मेरे कुछ बाल उखड़ गये हैं!
हर बात का नियत समय होता है। अगर तुम प्रार्थना करो और चाहो कि तुम्हारी इच्छा अभी पूरी हो जाये, तो ये ज़रूरी नहीं है। धीरज रखो (दाहिने हाथ से अभय मुद्रा, और बाहिने से वरद (देने की) मुद्रा दर्शाते हुए। तुमने देवी देवताओं के हाथ इन मुद्राओं में देखें हैं? लक्ष्मी, विष्णु? तुम्हें इनका अर्थ पता है? ‘धीरज रखो, मैं दे रहा हूं।’ यह एक अर्थ हुआ, जब तुम्हारी कोई आवश्यकता है। दूसरा अर्थ है, ‘आओ, समर्पित हो जाओ। तुम्हें किसी से डरने की आवश्यकता नहीं है।’

ये अभय मुद्रा है (दाहिने हाथ की हथेली दर्शकों की ओर इंगित)। अभय अर्थात, जहां कोई भय ना हो।

ये वरद मुद्रा है (बाहिने हाथ की हथेली नीचे और दर्शकों की ओर इंगित)। इसका अर्थ है, ‘जो भी तुम्हें चाहिये, मैं दे रहा हूं। कुछ और मांगो तो वो भी सहर्ष दूंगा।’

प्रश्न : अगर टोकरी में रखे सेबों में कोई एक भी सड़ा हो, तो वो बाकी के सेबों को भी प्रभावित करता है। उसी तरह, कुछ मुठ्ठी भर अच्छे लोग विश्व को एक स्वस्थ, सुरक्षित स्थान कैसे बना सकते हैं? विश्व में अच्छे लोगों से कुछ अधिक संख्या में बुरे लोग हैं।

श्री श्री रवि शंकर :
ये असलियत नहीं है। विश्व में बुरे लोगों से कहीं अधिक संख्या अच्छे लोगों की है। विश्व में प्रेम नफ़रत से अधिक मात्रा में है। दुख से अधिक सुख है। पर इसका विपरीत प्रतीत होता है। समाज को दोष मत दो। तुम्हारी भी ज़िम्मेदारी है, और तुम उसे निभाते रहो। सत्संग (सत्य का संग) का प्रसार करते रहो। महात्मा गांधी ने भी यही किया था।
स्वतंत्रता से पूर्व भारत के लोग ये सोच कर उदास हो गये थे कि वे सदा ही गुलाम रहने वाले हैं। उस समय महात्मा गांधी ने क्या किया? उन्होंने देश भर में कई स्थानों पर सतसंग शुरु किया। इससे जनसमूह में साहस का संचार हुआ। उसी तरह, हमें भी सत्संग और जागरूकता की लहर का प्रसार करना है। नफ़रत का नहीं।

प्रश्न : गुरुजी, आप तो कुछ भी कर सकते हैं। फिर आप, विश्व से भ्रष्टाचार और हिंसा का निर्मूलन कर, एक सुंदर विश्व क्यों नहीं बना देते?

श्री श्री रवि शंकर :
(मज़ाक में) ये बचने का अच्छा तरीका अपनाया है तुमने! सब कुछ मैं ही करूं, तो फिर तुम्हारे करने लायक क्या बचेगा? तुम इस दुनिया में किसलिए आये हो? तुम्हारी भी एक भूमिका है। अगर एक ही व्यक्ति सब भूमिकायें अदा करे तो ये तो एकपात्रीय नाटक हो जायेगा। मैं ये करने यहां नहीं आया हूं। मैं संभाषण के लिये भी नहीं आया हूं। मैं बहु-संवाद के लिये आया हूं (हंसी)। हरेक को अपनी भूमिका अदा करनी है।

तुमने गिलहरी वाली कहानी सुनी है? जब श्री राम वानर सेना की मदद से सागर पर सेतु बना रहे थे, तो उनकी सहायता के संकल्प से एक छोटी सी गिलहरी भी बालू ला ला कर डाल रही थी। कार्य-समूह के कुछ सदस्य उसके इस कृत्य पर हंसे भी, ‘ एक छोटी सी गिलहरी क्या योगदान कर पायेगी!’ पर वह गिलहरी प्रसन्न थी कि श्री राम की सेना में उसकी भी एक भूमिका थी। वह प्रसन्न थी कि उसके करने लायक भी यहां कुछ काम था। श्री राम उस पर बहुत प्रसन्न हुए और प्यार भरा आशीर्वाद देते हुए उसकी पीठ पर हाथ फेरा। गिलहरी इतनी छोटी थी कि श्री राम कि केवल तीन ही अंगुलियों से उसका पीठ ढक गई, और उन तीन अंगुलियों की छाप उसकी पीठ पर पड़ गई। ये एक काल्पनिक कहानी हो सकती है, पर इसका संदेश है – ‘भगवान सब कुछ कर रहें हैं, फिर भी हमारी कुछ ज़िम्मेदारी है। हम जो भी कर पायें, करें।’ जितना हम कर सकते हैं, उतना करना हमारी ज़िम्मेदारी है।

प्रश्न : गुरुजी, एक भक्त की श्रद्धा को धक्का लग जाये तो वो क्या करे?

श्री श्री रवि शंकर :
श्रद्धा को धक्का लगने से तुम्हें उस श्रद्धा की ताकत के बारे में कुछ संदेश मिल रहा है। डरने की क्या बात है? उसे और धक्का दो, हिलाओ, डुलाओ। मैं तो कहूंगा कि वही श्रद्धा पक्की है जो हिलने के बाद भी बनी रहे। तुम्हारी श्रद्धा को हिलाना और उसे मज़बूत बनने का मौका देना, ये गुरु का कार्य है। गुरु तुम्हारी श्रद्धा को दृढ़ नहीं करता, वो उसे हिलाता है। प्राचीन समय से ये एक प्रणाली चली आ रही है। अगर श्रद्धा हिली, तो इससे पता चलता है कि उसे और मज़बूत किया जा सकता है। अगर सच्ची श्रद्धा है तो वो वैसे भी और मज़बूत हो जायेगी। इस पूरी प्रक्रिया में तुम ये जान जाओगे कि ये सिर्फ़ तुम्हारे मन का खेल है। श्रद्धा और विश्वास हमेशा थे। सत्य के प्रति भक्ति कभी नष्ट नहीं हो सकती।
मन के भ्रम की वजह से तुम्हें लगता है कि श्रद्धा को धक्का लगा है।

प्रश्न : घर में शांति रहे, इसके लिये कोई उपाय है?

श्री श्री रवि शंकर :
तुमने बहुत कठिन प्रश्न किया है! पर इसका उत्तर सरल है। तुम्हारे आस पास चाहे जो हो, तुम मुस्कुराते रहो। अगर शोर हो रहा है, उसे स्वीकार करो। कोई चिल्ला रहा है, थोड़ी देर चलने दो। ऐसा समझो कि तुम्हारे घर का माहौल एक टी वी सीरियल देखने जैसा है। क्या टेलिविज़न देखते व़क्त तुम परेशान होते हो?

कुछ लोग बता रहे थे कि जैसे विवाद टी वी सीरियलों में होते हैं, ठीक वैसे ही उनके घरों में भी होते हैं। ऐसा समझो कि घर में किसी कार्यक्रम का सीधा प्रसारण चल रहा है। सिर्फ़ कैमरे की कमी है। जब तुम इस बात को याद रखोगे, और अपने आप को अभिनेता ना जानकर निर्देशक जानोगे, तब कम से कम तुम्हारे दिल में तो शांति रहेगी। और बाकी लोग भी आख़िर कब तक उस भूमिका में रहेंगे? वो भी कभी थक जायेंगे। ये सब परेशानी केवल जागृत अवस्था में है। स्वपनावस्था या निद्रावस्था में नहीं हैं।

ईश्वर ने तुम्हें कुछ समय निद्रा के लिये और दैनिक कर्म करने के लिये दिया है। इस तरह कम से कम १० घंटों के लिये तो तुम शांति में हो। (मज़ाक में) बाकी के १४ घंटे टी वी सीरियल के सीधे प्रसारण का मज़ा लो। और क्या कर सकते हो? हां, अगर तुम आनंदित रहना चाहते हो, तो याद रहे कि अभिनेता नहीं बनना।

प्रश्न : गुरु के साथ शिष्य का क्या संबंध होना चाहिये? शिष्य एक साधारण व्यक्ति है, और गुरु के पास कई शक्तियां हैं। क्या ये संबंध सखा भाव में होना चाहिये, या प्रियतम के भाव में?

श्री श्री रवि शंकर :
प्रेम को प्रेम ही रहने दो। उसे कोई नाम ना दो। प्रेम, सभी संबंधों से ऊंचा है। गुरु से प्रेम होना वैसा ही है जैसे ईश्वर से प्रेम होना। गुरु, ईश्वर, आत्मा, इन में कोई अंतर नहीं है। ये तीनों एक ही हैं। एक ही सत्ता है – एक अद्वितीय सत्ता। सब दिव्य है।

प्रश्न : कुंभ क्या है?

श्री श्री रवि शंकर :
जहां भी लोग साथ मिल कर सतसंग करते हैं, वही कुंभ है।

प्रश्न : क्या ग्रहों का हम पर कुछ प्रभाव पड़ता है?

श्री श्री रवि शंकर :
हां, ग्रहों का हम पर प्रभाव पड़ता है, परंतु जो लोग साधना, सत्संग और ज्ञान में हैं, उन पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है। साधकों के लिये ग्रहों के दुष्प्रभाव कम हो जाते हैं और अच्छे प्रभाव बढ़ जाते हैं। जैसे तुम अगर कड़ी धूप में छाता लेकर निकलो, तो सिर पर कम गर्मी लगती है। क्रियायें और मंत्र इसका उपाय है।

प्रश्न : क्या जन्म-कुण्डली में विश्वास करना चाहिये?

श्री श्री रवि शंकर :
अगर तुम्हारा मन कहे कि विश्वास करना चाहिये, तो करो। पर इसे बहुत महत्व नहीं देना चाहिये। कभी कभी, कुण्डली में दर्ज जन्म का समय या स्थान सही नहीं होते। इसमें कई पहलू होते हैं।ना तो हमें इसे पूरी तरह नज़रंदाज़ करना चाहिये और ना ही पूर्णतः सत्य समझना चाहिये।

प्रश्न : क्या भावनाओं से प्रेरित होना ठीक है?

श्री श्री रवि शंकर :
मानव और पत्थर में यही अंतर है कि मानव में भावनायें होती हैं। जब भावनायें ज्ञान से संयुक्त हो, तो अच्छा है। जैसे जल अगर दो किनारों के बीच में बहे तो उसे नदी कहते हैं। परंतु अगर जल हर तरफ़ बहे, तो उसे बाढ़ कहते हैं। जीवन में बुद्धि के साथ भावनायें को पुष्ट करें, ताकि बुद्धि और भावनाओं के बीच एक साम्य बना रहे।

प्रश्न : मुक्ति क्या है? क्या इस जन्म में मुक्त होना संभव है?

श्री श्री रवि शंकर :
ये इसी जन्म में संभव है। तुम्हें अष्टावक्र गीता की विवेचना सुननी चाहिये।

प्रश्न : मैं संतुष्ट कैसे बनूं? कई आवश्यकतायें मन पर आक्रमण करती रहती हैं।

श्री श्री रवि शंकर :
एक बात बताओ, क्या तुम आज संतुष्ट हो? (प्रश्नकर्ता ने कहा, ‘नहीं।’)
तुम्हें क्या चाहिये? (प्रश्नकर्ता ने कहा, ‘मुझे कुछ चाहिये, जिसे पाने के बाद मेरी सब इच्छाएं शांत हो जाएं।)

ये अच्छी बात है अगर तुम्हें आभास है कि कई इच्छाएं तुम्हें अशांत कर रही हैं। ये इच्छा, ‘मैं इच्छाओं से छुटकारा चाहता हूं,’ मुमुक्षत्व है।

प्रश्न : क्या आप कर्म से भाग्य बनने के बारे में कुछ बतायेंगे?

श्री श्री रवि शंकर :
हां, तुम्हारे कर्म से तुम्हारा भाग्य बनता है। इन सब बातों के बारे में मैंने ‘An intimate note to the sincere seeker’ किताब में बताया है। तुम्हें पढ़ना चाहिये।

प्रश्न : ऐसे समय में क्या करें जब लगे कि हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है, और कुछ समझ न आये कि रिश्तों में या कार्यक्षेत्र में क्या करें, क्या ना करें?

श्री श्री रवि शंकर :
उस समय ध्यान करो। जब तुम इतने भ्रमित हो, कुछ समय के लिये ध्यान करो। इससे तुम तुरंत ही मन में स्पष्टता को उदय होता पाओगे।

प्रश्न : मैं क्या प्रश्न पूछूं?

श्री श्री रवि शंकर :
मेरे प्यारे, तुम मुझसे ही प्रश्न बताने को भी कह रहे हो! क्या तुमने नये साल में, चाहे जो हो जाये, दिमाग ना इस्तेमाल करने का प्रण किया है? तुम प्रश्न भी उधार लेना चाहते हो! बिल्कुल नहीं। प्रश्न तुम्हारा होना चाहिये। ये कोई विद्यालय नहीं है, जहां प्रश्न और उत्तर दोनों दिये जाते हैं। यहां ये आवश्यक है कि प्रश्न तुम्हारा हो। प्रश्न पूछना अनिवार्य नहीं है। अगर तुम्हारे भीतर कोई प्रश्न उठे, तभी वो तुम्हारा प्रश्न है। तुम्हें इस बारे में कोई बाध्य नहीं कर सकता कि तुम ये प्रश्न पूछो, ये प्रार्थना करो, ये खोजो। ये भीतर से उपजा एक सहज भाव है। तुम्हारी आवश्यकता कोई और तय नहीं कर सकता। आवश्यकता का भान तुम्हें भीतर से ही होगा। असलियत में जब तुम इस उर्जा के सानिध्य में आते हो तो तुम्हारे प्रश्न स्वतः मिट जाते हैं।

प्रश्न : वर्तमान क्षण में कैसे मौजूद रहें?

श्री श्री रवि शंकर :
(चुटकी बजाते हुए) ऐसे। क्या तुम इस वक़्त यहां हो? (प्रश्नकर्ता ने हामी मे सिर हिलाया।) तो, इस वक़्त यहां रहो।


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अपनी आत्मा को आनंद के रंगों से विकसित करो

सोमवार, १ मार्च, २०१०

होली, रंगों का त्योहार है। ये विश्व रंगमय है। प्रकृति की तरह, हमारी भावनायें भी रंगों से संबंधित हैं। लाल रंग, क्रोध से संबंधित है। ईर्ष्या, हरे रंग से संबंधित है। उत्साह और आनंद, पीले रंग से संबंधित है। प्रेम, गुलाबी रंग से संबंधित है। नीला रंग, व्यापकता से संबंधित है। सफ़ेद रंग, शांति से संबंधित है। केसरिया रंग, बलिदान का द्योतक है। बैंगनी रंग ज्ञान का द्योतक है। हर व्यक्ति रंगों का एक फ़व्वारा है, जिसमें की रंग बदलते रहते हैं।

पुराणों में कई रंगबिरंगे दृष्टांत और कथायें आती हैं। उन में होली के संबंध में एक कथा है।

एक असुर राजा, हिरण्याकश्यप, चाहता था कि सब उसकी पूजा करें। परंतु उसका पुत्र, प्रह्लाद, श्री नारायण का भक्त था। हिरण्याकश्यप श्री नारायण के प्रति शत्रुता का भाव रखता था। क्रोध में आकर हिरण्याकश्यप ने अपनी बहन होलिका से प्रह्लाद को मिटाने के लिये कहा। होलिका के पास ऐसी विद्या थी कि वो अग्नि का ताप सह सकती थी। वह जलती हुई लकड़ियों के ढेर में प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर बैठ गई। परंतु प्रह्लाद को अग्नि से कोई हानि नहीं हुई, जबकि, होलिका जल कर मिट गई।

हिरण्याकश्यप मोटी बुद्धि का प्रतीक है। प्रह्लाद, निष्पाप, सरलता, विश्वास और आनंद का प्रतीक है। आत्मा को केवल पदार्थों के प्रेम में नहीं बांधा जा सकता। हिरण्याकश्यप की आनंद की खोज केवल पदार्थों में थी। पर वो उसे प्राप्त नहीं कर सका। एक जीवात्मा, हमेशा के लिये पदार्थों के प्रेम में बंध कर नहीं रह सकती। जीव का नारायण की ओर, अपने उच्चतम स्वरूप की ओर बढ़ना स्वाभाविक है।

होलिका अतीत के संस्कारों का प्रतीक है। उन पूर्व संस्कारों के बोझ का जो प्रह्लाद की स्वाभाविकता(innocence) को नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। प्रह्लाद की नारायण भक्ति दृढ़ होने की वजह से वह अपने पूर्व संस्कारों को भस्म कर सका।

जब व्यक्ति भक्ति में दृढ़ हो तो उसके जीवन में आनंद के कई रंग उभर कर आते हैं। जीवन एक उत्सव बन जाता है।

पूर्व संस्कार भस्म कर के तुम एक नई शुरुआत के लिये तैयार होते हो। अग्नि की ही तरह भावनायें तुम्हें जलाती हैं। परंतु जब ये भावनायें रंगों के फ़व्वारे की तरह हों तो जीवन में रस आता है। अज्ञानता में भावनायें परेशानी का कारण बनती हैं। ज्ञान में वही भावनायें जीवन को रंगीन बनाती हैं।

एक कथा है, जब पार्वती तपस्या में थी, और शिव समाधि में, तब शिव और पार्वती के दिव्य मिलन के लिये कामदेव ने प्रयत्न किया। शिव नें कामदेव को जला कर भस्म कर दिया। शिव को पार्वती से मिलन के लिये समाधि से बाहर आना पड़ा। पर्व का अर्थ है, त्योहार। पार्वती का अर्थ है जिसका जन्म पर्व से हुआ, उत्सव।

समाधि और उत्सव के मिलन हेतु कामना आवश्यक थी। इसलिये, कामदेव का आह्वाहन किया गया। परंतु उत्सव मनाने के लिये कामना से ऊपर उठने की आवश्यकता है। इस कारण शिव ने तीसरा नेत्र खोल कर कामना को जला कर भस्म कर दिया। जब मन में कामना खत्म होती है तब जीवन में उत्सव होता है। जीवन रंगमय हो जाता है।

होली की ही तरह जीवन भी रंगमय होना चाहिये, उदास नहीं। जब हर रंग अलग अलग दिखाई दे, तो जीवन रंगमय दिखता है। अगर सब रंगों को मिला दो, तो काला रंग हो जाता है। इसी प्रकार, जीवन में भी हम विभिन्न भूमिकायें निभाते हैं। हर भूमिका और भावना को परिभाषित करने की आवश्यकता है। भावनात्मक भ्रम से समस्यायें जन्म लेती हैं।
जब तुम पिता हो, तो तुम्हें पिता की भूमिका अदा करनी है। दफ़्तर में तुम पिता की भूमिका में नहीं रह सकते। जीवन में जब तुम अपनी भूमिकाओं का मिश्रण कर लेते हो, तो भूल हो जाती है। तुम जिस भी भूमिका में हो, उसे पूरी तरह निभाओ। विविधता में एकता जीवन को जीवंत, आनंदमय और रंगमय बनाती है।
जीवन में तुम जिस आनंद की अनुभूति करते हो, वो तुम्हारे भीतर से ही आता है -- जब तुम सब पर अपनी पकड़ छोड़ कर अपने भीतर के आकाश में केन्द्रित हो जाते हो। इसे ध्यान कहते हैं। ध्यान कोई विशेष क्रिया नहीं है। कुछ ना करने की कला ही ध्यान है! ध्यान में जो विश्राम मिलता है, वो गहरी से गहरी नींद के विश्राम से अधिक है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि ध्यान में तुम सब कामनाओं से ऊपर उठ जाते हो। इस से दिमाग को ठंडक मिलती है और शरीर और मन को पूर्ण विश्राम।

तभी हम आत्मा की उच्च अवस्था का अनुभव कर सकते हैं और ये देख पाते हैं कि समस्त विश्व आत्मा या चेतना ही है। उत्सव आत्मा का सहज स्वभाव है। मौन से जिस उत्सव का जन्म हो, वही सच्चा उत्सव है। अगर उत्सव के साथ पवित्रता का समागम हो जाये, तो वो पूर्ण-उत्सव है, जिसमें केवल शरीर और मन ही नहीं, आत्मा भी उत्सव मनाती है।

उत्सव के उत्साह में अक़्सर ही मन दिव्यता को भूल जाता है। हमें दिव्य शक्ति की उपस्थिति और अपने इर्द-गिर्द उसके दिव्य प्रकाश को अनुभव करना चाहिये। तुम में उस तत्व को अनुभव करने की इच्छा होनी चाहिये जिसकी शक्ति से पूरी दुनिया चल रही है। पूरे मन से ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये। अगर प्रार्थना करते समय तुम्हारा मन कहीं और बंटा है, तो ये प्रार्थना नहीं है।

जब तुम समस्याओं से घिरे हो, तो गहरी प्रार्थना से चमत्कार हो सकता है। प्रार्थना दो ही स्थिति में, यां इन दोनों स्थितियों के समन्वय में होती है। जब तुम खुद को कृतज्ञ महसूस करते हो, या बिल्कुल असहाय। कृत्ज्ञता ना होने पर
तुम दुख अनुभव करते हो। कृतार्थ भाव तुम्हें किसी भी असफलता के धक्के से बाहर ले आयेगा। एक बार तुम ये जान लेते हो कि तुम कृपा के पात्र हो, तुम्हारी शिकायतें, बड़बड़ाहट, असुरक्षित होने की भावना, सभी दूर हो जाती हैं।

सहज ही जीवन एक रंगमय उत्सव हो जाता है।


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