अपने मन और बुद्धि को ईश्वर में विश्राम दो

हमारे शास्त्रों में तीन मुख्य दर्शन हैं -
न्याय
वैशेषिक
सांख्य
उसके बाद योग आता है।
न्याय - सीखने के बाद हम यह देखते हैं कि वो कहाँ तक सही है। जो सुना है और अनुमान से प्राप्त होने वाले ज्ञान में जो भेद है, इसे परखने का तरीका है न्याय।


वैशेषिक तरीके में पदार्थ और उसके गुणों का विश्लेषण करते हैं। चीनी में मिठास नहीं हो तो उसे फ़िर भी चीनी कहोगे क्या? पदार्थ में गुण होते हैं। वैसे ही जगह और काल को भी पदार्थ (तत्व) गिना है। काल का प्रभाव मन और बुद्धि पर पड़ता है। सुबह जो हमारे मन को अनुभूति होती है, वैसे श्याम को नहीं।


ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव भी मन पर पड़ता है। कभी श्रद्धा आती है, कभी द्वेष उमड़ के आता है। इस तरह से तरह तरह की लहर...भाव मन में उठना सहज है। पर यह जानना कि मैं इन सबसे अलग हूं, मैं आत्मा हूं, यह समझदारी का लक्षण है। पदार्थों के विश्लेषण के बाद मन को वहां टिकाना जो बदलता नहीं है। सब कुछ बदल रहा है पर कुछ ऐसा है जो कभी नहीं बदलता, और मन को वहाँ टिकाना सांख्य योग है। भक्ति माने क्या? 'ईश्वर में मन को लगाओ। ईश्वर में बुद्धि को टिकाओ।' इतना ही करना है। जब श्रद्धा डगमगाती है तो बड़ों से आशीर्वाद लो, योग करो।


मैत्री और करुणा - चित शांत हो जाये, इसके लिये मैत्री भाव रखो, करुणा भाव रखो। यदि किसी में अपूर्णता यां त्रुटि मन को परेशान करे तो उस कमी को नज़र अंदाज करो। किसी के प्रति द्वेष करना ज़हर पीने बराबर है। पातांजलि ने कहा, 'विपरीत भावना को मन में जगाओ।' यही साधना है। गुस्सा आया, तो करुणा जगायें, तो शरीर में एक नयी रसायन प्रक्रिया शुरु हो जायेगी।


गुरु का स्मरण इसीलिये ही करते हैं, रासायनिक प्रक्रिया बदल जाती है। उल्लास, आनंद, वैराग्य खुद ही उठने लगता है।


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