१६ मार्च, बैंगलोर आश्रम
प्रश्न : आदरणीय गुरुजी, हर समय स्वयं को प्रेरणा से भरपूर व उत्साहित कैसे रखा जा सकता है? क्योंकि विपरीत स्थितियाँ प्राण शक्ति को क्षीण करती रहती हैं और शरीर में प्राण शक्ति के कम होने पर मुझे अच्छा नहीं लगता, जिससे जीवन मे एक कदम भी और आगे बढ़ने की प्रेरणा महसूस नहीं होती।
श्री श्री रवि शंकर: जब तुम हतोत्साहित होते हो तो यह संदेश मिलता है कि यह थकान है और तुम्हें विश्राम की जरूरत है। तुमने खुद कहा कि तुम्हें प्राण शक्ति की कमी महसूस होती है, तो दो-तीन दिवस के लिये पूर्ण विश्राम करो। उसके साथ थोड़ा मौन, ध्यान, योग, प्राणायाम और तरल भोजन के सेवन से आराम मिलेगा।
आपने यह गौर किया होगा कि कभी गलत चीज़ों के सेवन करने से भी शिथिलता लगती है। कितने लोगों के अनुभव में आया भी है यह। इसका कारण है कि जब हम अस्वस्थ और थकावट महसूस करते हैं तो और ज़्यादा खाने का सोचते हैं और इससे और अधिक थकावट महसूस करने लगते हैं, तो यह तो एक घुमावदार चक्कर है जो चलता रहता है! इसलिये थोड़ा शरीर को विषामुक्त करना, फलों के रस सेवन व उचित भोजन करके और उसके साथ साथ प्राणायाम। जब तुम्हें हताशा हो और कुछ भी न करने का मन हो, इतना आलस्य लगे कि श्वास प्रक्रियाएँ भी करने का जी न हो, तो मेरी यही सलाह होगी कि तुम २-३ दिन शरीर और मन को शुद्ध करो। तुम स्वयं फ़र्क महसूस कर पाओगे।
प्रश्न : कई बार शत प्रतिशत अपनी क्षमता से कार्य करने पर भी सफलता हासिल नहीं होती, इसका कारण क्या है?
श्री श्री रवि शंकर: देखो, यह मत सोचो कि अपना शत प्रतिशत देने से ही हर कार्य सिद्ध हो जायेगा। कार्य सिद्ध होने या सफलता मिलने के लिये पाँच चीज़ होना जरूरी है - सबसे पहले, जो कार्य कर रहा है उस व्यक्ति का कार्य करने का उद्देश्य, फिर साधन की उपलब्धता जिसके द्वारा कार्य सम्पन्न होगा, फिर कार्य करने का मन होना, फिर सही समय पर उस कार्य का होना क्योंकि हर कार्य को करने का एक उचित समय होता है और उस समय नहीं किया तो कोई फ़ायदा नहीं होगा। जैसे फरवरी में बीज डालो और सोचो मैंने बीज डाले तो अभी फसल क्यों नहीं आती? तुम्हें अप्रेल माह तक इन्तज़ार करना होगा और वर्षा के बाद बीज डालने से ही परिणाम प्राप्त होगा। सो समय का बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव है इसलिये परिणाम तुरंत मिलेगा या बाद में यह नहीं कह सकते ।
जब हम पहले इस स्थान पर आये थे, जहाँ आज यह आश्रम है, तब वहाँ केवल बंजर भूमी थी, एक भी पेड़ पौधा देखने को नहीं मिलता था वहाँ। परंतु आज देखो कितनी हरियाली, कितने पेड़ पौधे हैं यहाँ, और ये सब कोई एक दिवस में प्राप्त नहीं हुए। अनेक लोगों के परिश्रम की वजह से, कुछ समय पश्चात सब पैदावार हुई। सो समय का प्रभाव बहुत बड़ा होता है। फिर इसके बाद जो आखिरी चीज़ सफलता के लिये जरूरी है, वह है कृपा। ईश्वर की कृपा के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। और कृपा प्राप्ति के लिये तुम्हें सेवा, साधना, सत्संग करना चाहिये, जिसके करते रहने से तुम्हें अपने प्रयत्नों का फल अवश्य मिलेगा। ठीक है न ? यह आश्वासन रखो कि तुम्हारे कोई भी प्रयत्न बेकार नहीं जायेंगे, यदि अभी नहीं तो बाद में परिणाम अवश्य देखोगे ।
प्रश्न: गुरुजी सेवा का क्या महत्व है? इससे ध्यान में क्या लाभ मिलता है?
श्री श्री रवि शंकर: सुनो, यदि तुम किसी जगह पर असहाय अकेले खड़े हो और जाती गाड़ियों से साथ ले जाने की मदद चाहते हो पर कोई भी अपनी गाड़ी नहीं रोकता हो, तो तुम कैसा महसूस करोगे?
वैसे ही उदाहरण के लिये, मानो तुम्हारे हाथ में दो दो बैग हैं और तुम्हें स्टेशन पर प्रसाधन कक्ष इस्तेमाल करना है पर तुम बैग कहीं अकेला छोड़ नहीं सकते हो, तो तुम क्या करोगे?
तुम किसी सभ्रान्त बुजुर्ग के पास जाकर उनसे विनती करोगे तुम्हारे सामान की देख रेख करने की, है न? तो तुम्हें किसी ना किसी समय दूसरों से मदद की ज़रूरत पड़ती है कि नहीं? और फिर यदि दूसरे तुम्हें मदद करना बंद कर दें तो तुम कैसे रहोगे? हाँ तो जानो, इस दुनिया में रहते हम सब मनुष्यों को एक दूसरे की मदद करने की जरूरत पड़ती है, और उसी को सेवा कहते हैं।
सेवा का अर्थ क्या है? ’सः’ यानि वह (ईश्वर के लिये कहा गया है) और ’इव’ यानि उसके जैसा- तो सेवा का अर्थ है- उसके (ईश्वर) जैसे कार्य करना । ईश्वर तुम्हारे लिये इतना कार्य करते है, बिना किसी अपेक्षा के। चाहे तुम उसको प्रार्थना करते हो या नहीं, धन्यभागी महसूस करते हो यां नहीं, इससे ईश्वर को कोई फ़र्क नहीं पढ़ता। वो तुम पर कोई एहसान नहीं कर रहा है। जब तुम ईश्वर को धन्यवाद जताते हो तो वह अपने मन की शांति के लिये करते हो, ईश्वर को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। इसी प्रकार तुम्हारे कार्य के प्रति लोग आभार प्रकट करें या नहीं, तुम्हारी वाह-वाही करें या नहीं, पर तुम कार्य करते रहो यह समझ कर कि वह कार्य महत्वपूर्ण है और उसको करना जरूरी है, ठीक?
प्रश्न: जब हर घटना जो होनी है वह सुनिश्चित है, तो हमें कर्म करने की क्या आवश्यकता है और तब फिर कर्म के नाम पर हम फल क्यों भोगें?
श्री श्री रवि शंकर: फ़िर तुम यह प्रश्न भी क्यों पूछ रहे हो?
देखो दो तरह के स्तर हैं। परमाणु स्तर पर सब चीज़ एक है, जैसे यह ढ़ाँचा जो देख रहे हो यहाँ वह लकड़ी का बना है, दरवाज़ा भी लकड़ी का बना है -कुर्सी आदि इतनी चीज़ें लकड़ी की बनी हुई हैं यहाँ, पर तुम दरवाज़े पर बैठ नहीं सकते हो, ना ही तुम कुर्सी को दरवाज़ा बना सकते हो चाहे सभी लकड़ी है। उसी प्रकार एक स्तर पर हम कह सकते हैं कि सब कुछ हो रहा है पर अन्य स्तर पर हमें कर्म भी करना होगा। तुम कार्य करते रहो और जैसे जैसे कार्यशील होगे वैसे कुछ समय बाद तुम्हें लगेगा, "मैने कुछ नहीं किया, सब कुछ हुआ या हो रहा है", और यह ज्ञान है।
एक बार मैं जेल के कैदियों को सम्बोधित करने गया था । उन कैदियों ने कोर्स खत्म किया था और उसके बाद मेरे साथ उनका वार्तालाप रखा गया था। मेरे इस प्रश्न पूछने पर कि कितने लोगों ने कोई अपराध किया है, किसी ने भी हाथ नहीं उठाया। फिर मेरे यह पूछने पर कि कितने अपने आप को निर्दोष मानते हैं फिर भी जेल में हैं, तो सबने हाथ ऊपर किये। "हम निर्दोष हैं, हमने कुछ अपराध नहीं किया पर जेल में हैं , हमने कुछ नहीं किया पर कुछ हो गया।"
तो एक चोर भी कहता है कि मैंने कुछ नही किया, पर कुछ हो गया । एक व्यक्ति ने किसी की हत्या की थी और उसने भी पूछने पर कहा- "मैंने कुछ नहीं किया, पता नहीं उस समय क्या हुआ मेरे दिमाग को कि हो गया।"
तो जो व्यक्ति जघन्य से जघन्य अपराध भी कर चुका है, वह भी कहता है उसने कुछ नहीं किया । वैसे ही जो लोग अच्छा कार्य करते हैं उनसे भी यदि पूछो, वह श्रेष्ठ कार्य उन्होंने किया है क्या तो उनका भी यही जवाब होगा- मैने कुछ नहीं किया, सब कुछ हो गया अपने आप से ।
तो यह चेतना का एक स्तर है जिसमें यह महसूस होता है कि हमारे प्रयत्न से कार्य नहीं हो रहा अपितु किसी विधि से, सृष्टि की किसी शक्ति द्वारा सब कार्य हो रहा है, समझे?