दिव्यता को विविधता से प्रेम है


जुलाई ३०, २०११

प्रश्न : उपनिषद के इस श्लोक ‘‘तैल्यधारावत् अनुसन्धानम् नैरंतर्यध्यानं’’ की व्याख्या आपने यह की है कि तेल के प्रवाह के जैसे चेतना में धुंधली सी कल्पना रह जाती है| यह धुंधली कल्पना क्या है ? क्या यह जीवन में ज्ञान के सिद्धांत है या यह हमारे भीतर ऊर्जा का प्रवाह है ?
श्री श्री रवि शंकर: यह उर्जा का धुंधला प्रवाह है | जब आप सहज ध्यान करते है तो मंत्र तो है, परन्तु जो धुंधलीसी कल्पनाये होती है, यह वहीं है |

प्रश्न : जब मेरे बुरे कर्म दूसरों को दुःख देते है, फिर उस स्थिति को कैसे संभाला जाये ?
श्री श्री रवि शंकर: जब आपके  बुरे कर्म से दूसरों को दुःख हुआ है तो फिर यह संकल्प लीजिये कि आप उसे फिर से नहीं दोहराएंगे | अपने आप से कहे, मैने ऐसा कुछ किया है जिससे दूसरों को दुःख हुआ है, अब मैं इसे दोबारा नहीं करूंगा ’| इस संकल्प से आपको सहायता मिलेगी, आप दो तीन बार असफल हो सकते है परन्तु अपने संकल्प पर दृढ रहे |

प्रश्न: इस बात का ज्ञान होना कि मैं खाली और खोखला हूँ और दुःख होने के कारण जानने के उपरान्त भी मेरा मन वस्तुओं और लोगों में फँस जाता है? यह तूफ़ान के जैसे आकार निकल जाता है |विशेष रूप से लड़कियों के उम्र के इस पड़ाव पर ऐसा होता है, मैं क्या करू ?
श्री श्री रवि शंकर: मन वस्तुओं और लोगों में फँस जाता है, परन्तु अभी ध्यान कैसा हुआ?(उत्तर – गुरूजी बहुत अच्छा ) |क्या मन उन चीजों से मुक्त हुआ ?(उत्तर-हाँ)| फिर उसे निरंतर करते रहे | समय समय पर इस तरह की चीजे आती जाती रहती हैं | आप उनका पीछा न करे | यदि वे आती है तो उन्हें रहने दीजिये | हमारा नियम है क्या ? और उसका सिद्धांत है कि उसे रहने दीजिये |

प्रश्न: गुरूजी आप बहुत सारा ज्ञान प्रदान करते है, आपके बहुत सारे ज्ञान के सत्र होते है | कभी वे मुझे समझ में आ जाते है और कभी कभी वे मेरे सिर के ऊपर से निकल जाते है | गुरूजी मैं क्या करूं जिससे मेरी ज्ञान को सुनने और समझने की क्षमता बढ़ जाये ?
श्री श्री रवि शंकर: उसे सुनते रहे और फिर किसी दिन आप कहेंगे कि “अच्छा गुरूजी यह कह रहे थे” | इसके तीन चरण होते है, पहला- श्रवण –सुनना, दूसरा- मनन- उसके बारे में बार बार सोचते रहना, तीसरा- निधिध्यास- जब वह आपका अपना बन जाता है, जब वह ज्ञान आपका हिस्सा बन जाता है |

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