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२०१२बैंगलुरु आश्रम, भारत
जून
हम परेशान किससे
होते हैं? पशु-पक्षी से नहीं होते हैं, बादल से नहीं होते हैं, प्रकृति से नहीं होते
हैं, आज तो ‘विश्व-पर्यावरण दिवस’ भी है| तो हम किससे परेशान होते हैं? हम अपने आस-पास के लोगों
से परेशान होते हैं| हमारे दोस्त भी हमें परेशान करते हैं, और दुश्मन भी परेशान करते
हैं, है न? मन कहाँ पर अटक जाता है? दोस्तों में अटकता है, या दुश्मनों में अटकता है|
हम या तो दोस्त के बारे में दिन भर सोचते रहते हैं, या दुश्मन के बारे में|
क्या आपने देखा
है कि कभी कभी हमारे कुछ गलत किये बिना, किसी का कुछ बुरा किये बिना भी, लोग हमारे
दुश्मन हो जाते हैं| होते हैं, कि नहीं? ऐसा आपमें से बहुत लोगों का अनुभव रहा है|
हमने कभी किसी के साथ कुछ गलत नहीं किया, किसी के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया, फिर भी
लोग हमारे दुश्मन बन जाते हैं| आश्चर्य होता है हमें, कि अरे ये क्यों हमारे दुश्मन
बन गये? कल तक तो दोस्त थे!
इसी तरह से हमने
किसी पर कभी कोई विशेष उपकार नहीं किया पर वे हमारे गहरे मित्र बन गए|
इसलिए, मैं कहता
हूँ, कि यह कोई विचित्र कर्म है, कि कुछ भी पता नहीं कोई कैसे दोस्त बन जाते हैं, और कैसे
दुश्मन बन जाते हैं|
इसलिए, हमें क्या
करना चाहिये? हमें दोस्तों और दुश्मनों, दोनों को एक टोकरी में डालकर, खुद खाली हो
जाना चाहिये| (हँसते हुए) बिल्कुल मस्त हो जाना चाहिये| क्योंकि यह सब कुछ तो किसी
नियम से चलता है, पता नहीं कैसे, कौन, कहाँ से आये| है न? किसका क्या भाव कैसे बदल
जाएगा, कब किसका कौन सा भाव अनुकूल होगा, या प्रतिकूल होगा – कुछ कह नहीं सकते| इसलिए, हमें अपने विश्वास को अपने परमात्मा
और अपनी चेतना पर टिकाना चाहिये| दोस्ती और दुश्मनी पर अपना विश्वास नहीं लगाना चाहिये,
अपना समय व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिये| क्या ख्याल है, ठीक है न?
इसका मतलब यह नहीं
है, कि आप दोस्त की दोस्ती से दूर हो जाओ| दोस्ती न करो – मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ! मित्रता हमारे स्वभाव में होनी चाहिये|
हम स्नेही हैं| कोई पास आकर बैठ जाएगा, तो हम उससे दो-चार बात करेंगे ही| मेरी बात
का यह मतलब यह नहीं है, कि आप कहें – ‘क्या दोस्त है, क्या दुश्मन है, मुझे किसी से कोई मतलब नहीं है’, और आप अपना मुहँ फुलाकर एक कोने में बैठ जाएँ! नहीं! यह ज्ञान
नहीं है, यह अज्ञान है| आप व्यवहार सबके साथ करें, मगर अपने में टिके हुए! क्या आप
समझ रहें है, मैं क्या कह रहा हूँ? तब हमारे मन को न दुःख होगा, न द्वेष उठेगा, न गुस्सा
आएगा| है न? ठीक है न? और आपको किसी तरह की निराशा भी नहीं होगी|
हम कभी कभी उदास
हो जाते हैं, कि देखो, हमने इसके साथ इतनी दोस्ती निभाई, और ये तो अब हमसे बात ही नहीं
करते| हमने इसका इतना उपकार किया, लेकिन अब तो ये हमारे विरोध में हो गयें| यही सब
सोच सोच कर, हम वर्तमान का समय खराब कर देते हैं| यह नहीं करना चाहिये, ठीक है?
जिंदगी थोड़ी सी
है, कम समय के लिए है, और इस कम समय की जिंदगी में, कुछ अच्छा कर जाईये| कुछ भला कर
जाईये| त्याग बुद्धि होनी चाहिये| त्याग से बल मिलता है| जितना बल त्याग से मिलता है,
उतनी मजबूती और किसी चीज़ से नहीं मिलती| जब आप त्याग करते हैं, तो एकदम मजबूती आ जाती
है| और त्याग तो हम करते ही हैं, थोड़े थोड़े अंश में हम सब त्याग करते हैं| आज दुनिया
में एक भी व्यक्ति त्याग के बिना नहीं है| उनको करना ही पड़ता है, कुछ न कुछ त्याग करते
ही हैं| जहाँ प्यार होता है, वहां त्याग होता ही है| एक माँ बच्चे को इतना प्यार करती
है, तो उसको अपना सुख तो त्याग करना ही पड़ता है, करती भी है| हर माँ रात भर जगी रहती
है, जब बच्चा छोटा होता है, तो माँ कितना कम सोती है| माँ की निगाह उस पर (बच्चे पर)
रहती है| दिन रात अपनी सुख सुविधा को वह भूलकर बच्चों के लिए करती है| फिर इसी तरह
से, कुछ लोग होते हैं, जो समाज के लिए करते हैं| है न? इसी तरह से एक पिता घर के लिए
दिन रात मेहनत करता है| नहीं तो एक अकेला आदमी क्यों इतनी मेहनत करे? मेहनत किसलिए
करता है? अपने लिए थोड़े ही न करता है| अपनी सुविधा को त्याग करके, अपने परिवार के लिए
मेहनत करता है| है न? एक अकेले व्यक्ति को क्या चाहिये, कितना चाहिये? बैठने-उठने के
लिए, खाने-पीने के लिए, उसके लिए तो पर्याप्त हो ही जाता है| उसके लिए ज्यादा मेहनत
नहीं करनी पड़ती| एक बुद्धिमान को इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती, वह अपने आप में संतुष्ट
रहता है| मगर, बाकी परिवार की ज़िम्मेदारी, समाज की जिम्मेदारी - उसके लिए मेहनत करनी
पड़ती है| अपनी सुख-सुविधा का त्याग करना पड़ता है|
तो हर व्यक्ति,
हर इंसान, कुछ न कुछ अंश में, चाहे ५ प्रतिशत, या १० प्रतिशत, या १५ प्रतिशत – कुछ तो त्याग उसको करना ही पड़ता है| वह करता भी है| और त्याग
की मात्रा जितनी अधिक होती है, उतनी ही व्यक्ति के अंदर अधिक मजबूती आ जाती है|
कुछ लोग तो अपनी
सुख-सुविधा त्याग करने के लिए तैयार हैं| कुछ लोग अपने धन को त्याग करने के लिए तैयार
हैं| कुछ लोग अपने रिश्ते-नातों को त्याग करने के लिए तैयार हैं, कुछ लोग अपने मान-सम्मान का त्याग करने के लिए तैयार हैं| और अगर विपरीत
दृष्टि से देखिए, तो कुछ लोग ऐसे हैं, कि वे अपने मान-सम्मान को त्याग नहीं कर सकते|
कुछ लोग ऐसे हैं, कि उनके लिए बाकी सब ठीक है, लेकिन अगर कोई उनका अपमान कर दे, तो
बस वह आदमी खत्म हो जाता है| तो उसकी कमजोरी वहां है| यह सब हमको देखना पड़ेगा| ठीक
है?
(सत्संग में बैठे
लोग गुरूजी के साथ हंसी-मज़ाक कर रहें हैं)
मस्ती के साथ-साथ
थोड़ा ज्ञान भी तो चाहिये| यहाँ सुनकर, कभी तो काम आ ही जायेगा| हम अपने मन से ही तो
परेशान होते हैं| अपने मन, अपनी बुद्धि से ही हम परेशान रहते हैं| जब मन से परेशान
होते हैं, तब सुनी हुई कुछ बातें बुद्धि में झलकने लगती हैं, तब थोड़ा ब्रेक लगने लगता
है| (हँसते हुए) नहीं तो ब्रेक-डाउन होने लगते हैं| तो ब्रेक-डाउन न हो, और मन की परेशानी
पर थोड़ा ब्रेक लग जाए, इसीलिये हम थोड़ी-थोड़ी ज्ञान की बातें बताते हैं, वह मस्तिष्क
में बैठ जाती है, और कभी याद आ जाती है, तो अच्छा होता है| (हँसते हुए) हाँ, अगर आपने
एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया, तब भी कोई बात नहीं है| तब भी आपने कम से कम
सुन तो लिया! थोड़ा बहुत ही सही!
इसीलिये, जिस व्यक्ति
में जितना अधिक मात्रा में त्याग होता है, उसमें मज़बूती आती है| जिसके पास कुछ भी नहीं
है, अगर वह कहे, कि ‘मैंने सब कुछ त्याग कर दिया’, तो वह सही नहीं है| सब कुछ होते हुए, सारी जिम्मेदारी निभाते
हुए, जिसके मन में त्याग की बुद्धि रखे, वह सबसे श्रेष्ठ है| एक फ़कीर कह सकता है, कि
‘मेरे पास कुछ भी नहीं है, झोपड़ी भी नहीं है, मैं तो बड़ा
त्यागी हूँ’| तो उनके त्याग को मैं त्याग नहीं मानता
हूँ| क्योंकि उनके पास कोई जिम्मेदारी ही नहीं है| मगर जिनके पास इतने आश्रम हैं, इतने
लोग हैं, इतनी बड़ी संस्था है, और इस सबको चलाना भी है, फिर भी वे इससे अलिप्त रहें
और त्याग भी रहा, तो यह भगवान कृष्ण का तरीका है| ये तरीका सबसे श्रेष्ठ है| तो अर्जुन
ने कहा, कि ‘मैं सब कुछ छोड़कर हिमालय जा रहा हूँ,
न युद्ध करना है, न राज्य चाहिये, न भोग चाहिये, मैं यह सब क्यों करूँ? कृष्ण, तू मुझे
क्यों मजबूर करता है? मुझे जाने दो, मैं हिमालय जाता हूँ|’ तब भगवान कृष्ण बोले, ‘नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिये|
कर्म का त्याग मत करो, कर्म-फल का त्याग करो|’
सब काम करिये,
सब जिम्मेदारी उठाईये, और त्यागी बनिए| देश का नेतृत्व करिये, लेकिन मन में त्यागी
बनिए| ऐसा नहीं, कि देश के सारे पैसे उठाकर विदेश में रख दिए| देश को ही त्याग दिया|
काले धन को अपने पास रख लिया, यह त्याग तो गलत हो गया न! (हँसते हुए) सारी जनता जिसपर
भरोसा रखे, जिसको एक आसन पर बिठाया, उस व्यक्ति ने क्या किया? बस देश को ही त्याग दिया!
देशवासियों को भी त्याग दिया| यहाँ के सारे सफ़ेद धन को काला कर के, सफ़ेद देश में ले
जाकर रख दिया! बर्फ में रख दिया! (हँसते हुए) ये काले धन को सफ़ेद देश में रखने की जो
कला है, इसको इन लोगों ने अच्छे से आजमाया है| यह गलत है| ऐसा नहीं करना चाहिये| काले
धन को छोड़कर, जनता के साथ जुड़ना चाहिये|
कबीरदास ने एक
बहुत सुन्दर बात कही है, ‘झूठ न छोड़ा, क्रोध न छोड़ा,
सत्य-वचन क्यों छोड़ दिया; क्रोध न छोड़ा, काम न छोड़ा, नाम-जपन क्यों छोड़ दिया’
नाम जपना क्यों
छोड़ दिया! हाँ, जब नाम पक जाता है, तब नाम पकड़ कर मत रखिये| नाम जपने से अजप में चले
जाईये – ऐसा कहते हैं| पर पहले ही छोड़ दिया – यह गड़बड़ है| अरे भई, यहाँ गाड़ी में चढ़ना है, और जहाँ जाना है,
वहां पहुँच कर उतरना है| कोई कह सकता है, कि जब उतरना ही है, तो हम गाड़ी में चढ़े ही
क्यों? ये कुछ लोग कहते हैं| (हँसते हुए) इनको समझ नहीं है, कि हम चढ़ते कहीं और हैं,
और उतरते कहीं और हैं! इसलिए, पकड़ते कहीं और हैं, और उस पकड़ से छूटते कहीं और हैं|
यही जीवन की धारा है, जीवन की शैली ऐसी होनी चाहिये|
तो त्याग आवश्यक
है| त्याग के बिना सिर में बोझ हो जाता है| एक त्यागी को जितनी भी प्रशंसा मिले, वह
टिकती ही नहीं| मन में लगती ही नहीं| ज्ञानी, त्यागी और भक्त को प्रशंसा से कोई दिक्कत
नहीं होती| लेकिन अगर कोई भीतर से मज़बूत नहीं है, और फिर उन्हें किसी को प्रशंसा मिल
गयी, तो थोड़े समय के बाद वह उनको बोझ लगता है| प्रशंसा भी, और प्रेम भी बोझ लगने लगता
है|
तो बोझ उतरने की
जब वे चेष्टा करते हैं, तो वे भागते हैं| भगोड़े बन जाते हैं| है न? कई प्रेम-विवाह
ऐसे ही टूटते हैं| कैसे? कि एक व्यक्ति अपने पति या पत्नी के प्रति इतना प्रेम दिखाता
है, कि दूसरा उसे सहन नहीं कर पाता| वे समझ नहीं पाते, कि इसको कैसे लें, कैसे समझाएं,
इन्हें कैसे संभालें? उनको लगता है, कि अरे भई, कहीं भाग जाते हैं! ऐसा कितने लोगों
ने होते हुए देखा है? (बहुत लोग हाथ उठाते हैं) कई लोग हमारे पास आकर बोलते हैं, ‘मैं किसी के प्रेम में पड़ा हुआ हूँ| मैं जिस जिस से प्रेम करता
हूँ, वे सब मुझसे भाग जाते हैं’ (हँसते हुए) मैंने उनसे कहा,
‘कि अरे बेवक़ूफ़, तुम उनको दिन-रात ये बताते हो, कि मैं तुमसे
प्रेम करता हूँ, तुम उनके सामने गिडगिडाते रहते होंगे, तो यह सुन सुन कर उनके कान पक
गए होंगे!’ खास तौर पर विदेशों में, लोग हर समय
‘आय लव यू’, ‘आय लव यू’ कहते रहते हैं| बात बात में
‘हनी, हनी’ करते चलते हैं| फिर बाद में
उनको डायबिटीज़ हो जाता है! उठते बैठते, वे कहते हैं, ‘हनी, हनी’.. बस बाद में कहते हैं, ‘Can’t Stand!!’ (बर्दाश्त नहीं कर सकता)| प्रेम
को भी बहुत ज्यादा व्यक्त नहीं करना चाहिये, थोड़ा सा ही करना चाहिये| भारत में प्रेम
बिल्कुल व्यक्त नहीं करते थे| गांव में जाईये, वहां अगर मन में प्रेम है भी, तो वो
हमेशा मन में ही रहता है, वहीँ मुरझा जाता है, वे उसको व्यक्त नहीं करते| और विदेश
में इतना व्यक्त कर देते हैं, कि फिर वह उड़ जाता है, रहता ही नहीं है| तो प्रेम एक
बीज की तरह है| जैसे मिट्टी को थोड़ा सा खोद कर, आप बीज रखते हैं| आपको उसको इतनी गहराई
में नहीं रखना है, कि फिर अंकुर फूटे ही नहीं! दस फीट गहराई पर यदि कोई बीज लगा दो,
तो बस वो मर ही जायेगा| हिंदुस्तान के गांवों में यही हालत है| जिंदगी भर जीते हैं,
साथ साथ रहते हैं, कभी एक दूसरे से प्रेम व्यक्त नहीं करते|
पर शहरों में,
विदेशों, में यह समस्या है, कि रात दिन, उठते बैठते, ‘आय लव यू’, ‘आय लव यू’ – फिर उस बात की गहराई नहीं रहती| फिर वो ऐसा ही होगा, जैसे ‘सॉरी’ और ‘थैंक्यू’ बोलते हैं| किसी ने आपको एक
ग्लास पानी दिया, तो आप बोलेंगे, ‘Thank
you sooooooo much’ (बहुत बहुत धन्यवाद)| एक ग्लास पानी
यदि किसी ने यहाँ से उठाकर वहां आपको दे दिया, तो फिर ‘Thank you sooooooo much’ कहने
का क्या अर्थ है! (हँसते हुए) अरे, कोई मरुस्थल में होता, तीन दिन से बिना पानी के
तड़प रहें होते, तब कोई पानी का ग्लास आपको देता, और आप ‘Thank you sooooooo much’ कहते,
तब ईमानदारी की बात होती! (हँसते हुए) अपने ही घर में आप इधर से उधर डब्बा दे रहें
हैं, तो उसमें Thank you sooooooo much बोलते हैं! इसका कोई मतलब नहीं होता|
इसलिए, हमें चाहिये
कि भाषा भाव की गहराई को पकड़े| पूरी तरह से तो वह पकड़ नहीं सकता, भाव की गहराई को थोड़ा
भाषा में लपेट कर देना पड़ेगा| भाव को वैसे प्रकट करना बहुत मुश्किल है| तो भाषा का
प्रयोग और उपयोग भी ऐसे ही करना चाहिये|
कन्नड़ में एक बहुत
सुन्दर दोहा है| हमारी वाणी कैसी होनी चाहिये, ‘जब बोलते
हैं, तो जैसे मोती की माला, सफ़ेद माणिक्य की भांति चमक होनी चाहिये, और स्फटिक की तरह
पारदर्शी होनी चाहिये|’ और बोलने से ऐसा होना चाहिए,
कि शिव भी सिर हिलाकर, ‘हाँ हाँ, सही कह रहें हैं’ – ऐसा बोलें| शिव जी हमेशा चुप
बैठे रहते हैं, तो वे भी ‘हाँ, हाँ’ कहें और आपकी बात शिव को भी पसंद होनी चाहिये|
ऐसा इस दोहे में
कहा गया है|
प्रश्न : गुरूजी,
यदि चेतना के स्तर पर ही प्रेम स्थायी है, तो संबंधों की क्या आवश्यकता है?
श्री श्री रविशंकर :
चेतना व्यक्ति से ही तो प्रकट होता है| और व्यक्तियों से संबंध तो बन ही जाता है| संबंध की आवश्यकता तुम्हें लगता है, कि नहीं है, तो आप ज़बरदस्ती संबंध नहीं बना
सकते| अब जब आप पूछ रहें हैं, कि संबंध की क्या आवश्यकता है, तो इसका मतलब, आपको
कहीं तो लग रहा है, कि आवश्यकता है! नहीं तो प्रश्न ही नहीं उठता| यानी, आप खुद से
लड़ रहें हैं| संबंध की आवश्यकता लग रही है, लेकिन ऊपर से आपका अहंकार आ रहा है| नहीं
मुझे आवश्यकता नहीं है| इसलिए मैं कहता हूँ, कि संबंध रहें, या न रहें, आपको कोई
फ़र्क नहीं पड़ना चाहिये| आप विश्राम करिये, अपने में| ठीक है न?
जब आप ध्यान में
जाते हैं, अपने में जाते हैं, तब सब कुछ छोड़ कर बैठिये| और जब व्यवहार में आते हैं,
तब सबसे अच्छा सम्बन्ध बनाईये| ठीक है?
प्रश्न : गुरूजी,
आकर्षण से कैसे बचें, और प्रेम में कैसे रमें?
श्री श्री रविशंकर :
ये बचने की बात से ही एक ब्रेक लग गया समझिए| वैसे अच्छा है, गाड़ी में ब्रेक होना चाहिये|
नहीं तो आप मुसीबत में पड़ जायेंगे| (हँसते हुए)
जीवन में प्रेम
है – यह मान कर चलिए| प्रेम की वृद्धि करने
की चेष्टा हम नहीं कर सकते| तनाव मुक्त होते ही हमारे भीतर प्रेम पूर्ण रूप से व्यक्त
हो जाता है| बस तनाव से मुक्ति, और विश्राम – ये दो चीज़ होनी चाहिये|
प्रश्न : गुरूजी,
कभी घर की घंटी बजे, दरवाज़ा खुले और आप निकलें? मोबाइल की घंटी बजे, जब उठाएं तो आपकी
आवाज़ आये? गुरूजी साधना करने वाले के लिए तो सब कुछ संभव है| तो क्या मैं इंतज़ार करूँ?
श्री श्री रविशंकर :
हाँ हाँ, बिल्कुल! मैं बताऊँ एक दिन मैं यहाँ आश्रम से निकल गया था| एक जन मेरे साथ
और थे, और हम ड्राईवर और गाड़ी लेकर निकल गए| और किसी को यहाँ आश्रम में पता नहीं था
कि हम कहाँ गए| (हँसते हुए) हम चले गए, और दूर जाकर एक जगह एक गांव में एक मकान के
सामने हमने कहा कि यहाँ गाड़ी रोक दो| और उस मकान के अंदर गए, वहां एक आदमी बैठा था|
वह आदमी एक किसान था, उसके पास आधा एकड़ से भी कम ज़मीन थी, जहाँ वह टमाटर उगाता था|
उसकी छोटी सी झोपड़ी थी, लेकिन घर में टीवी था| उसने टीवी में हमारा प्रोग्राम देखा
था| उसे देखने के बाद उसके मन में इतनी उत्कंठा हुई, इतनी इच्छा जागी, कि “कैसे मैं
गुरूजी से मिलूँ!” वह सोच रहा था, कि “मैं बंगलौर भी नहीं जा सकता, मेरे पास इतने पैसे
भी नहीं हैं| किसी तरह से मुझे गुरु जी से मिलना है|” और उसी घर में जाकर हम खड़े हो
गए| और एक दम उस व्यक्ति को अचम्भा हुआ! वह गिडगिडा कर रोने लगा! वह एक किसान था, सिर्फ
टमाटर उगाता था, आधा एकड़ से भी कम जगह थी उसके पास| छोटा सा घर और छोटा सा परिवार था|
तो इसी तरह से
हम एक बार एक स्कूल में चलें गए| और उस स्कूल में सारे टीचर और बच्चों की हमने एक-दो
घंटे की क्लास ली| उन लोगों से बात करी| वे एक-दो घंटे में ही इतने प्रोत्साहित हो
गए! गांव में सारे टीचर ऐसे उदास उदास बैठे थे| तो मैंने कहा कि “गांव तो हमारे देश
की नींव है| गांव के ऊपर तो देश खड़ा है|” और टीचर को भी हमने प्रोत्साहन दिया| सबके
चेहरे चमकने लगें|
ज्ञान की बात सुनने
से, और जीवन में अमल करने से चमक अपने आप आ जाती है| तो कुछ भी, कभी भी संभव है|
एक बार हम किशोर
दा के साथ असम से अरुणाचल प्रदेश जा रहे थे| रास्ते में असम का एक गांव था, वहां हमने
एक घर के बाहर गाड़ी रोकने के लिए कहा| हमने कहा, कि इस घर के अंदर जाकर एक महिला को
७०० रुपये दे देना| जब रुपये दे दिए, तब उसके बाद हम भी अंदर चले गए| उस महिला के पति
का कोई ऑपरेशन होना था, जिसमें उसे २१०० रुपये चाहिये थे| उसके पास केवल १४०० रुपये
थे| वह वहां बैठी थी, और उसके सामने काली माँ की मूर्ती थी, और साथ में रामकृष्ण परमहंस
का चित्र लगा था, और वह प्रार्थना कर रही थी, कि ‘भगवान,
अब तुम ही मुझे कुछ देना’, ‘मेरी मदद करो’| तो हम गाड़ी से वहां से जा रहें
थे, तो हमने उसे वो पैसा दे दिया| हम उनसे मिल कर भी आये|
मैं यह कह रहा
हूँ, कि यह सारी सृष्टि एक शक्ति से बनी हुई है| वही तत्व मैं हूँ, वही आप हो| ठीक
है न? इसलिए, कोई कहीं भी प्रणाम करे, तो वह एक ही जगह आता है| अब यह बात कोई २० साल
पुरानी रही होगी| वह महिला हमें जानती भी नहीं थी| लेकिन उसके मन में गहरी भक्ति थी|
इसलिए सच्चे दिल से जब हम पुकारते हैं, हमारा सब काम होता ही है| (लोग ताली बजाते हैं)
ऐसे तो आप सब लोगों के साथ हुआ ही है, किसके साथ नहीं हुआ? कितने सारे लोगों के साथ
कितने चमत्कार हुए हैं! (अधिकतर लोग हाथ उठाते हैं) अगर चमत्कार नहीं हो, तब आश्चर्य
करना चाहिये! कहिये, कि ‘क्यों नहीं हुआ चमत्कार’! कुछ तुरंत होते हैं, कुछ देरी से होते हैं|
प्रश्न : (अश्राव्य)
श्री श्री रविशंकर :
त्याग से बल मिलता है, त्याग के लिए आत्मबल और मनोबल चाहिये| और यही ज्ञान से मिलता
है| अज्ञान में त्याग का बल नहीं होता, ज्ञान में त्याग का बल मिलता है| देखिए, जब
आपने यह बात सुनी, तब सुनते ही बल मिला न? यह तुरंत होता है, फ़ौरन होता है!
प्रश्न : गुरूजी,
कहते हैं, कि ‘प्रेम गली अति-संकरी, जा में दो न समाएं’ हमारे गली में तो पहले से ही हमारे जीवनसाथी हैं, और अब आप भी
आ गयें हैं| तो क्या गली में एक की जगह तीन चल जायेंगे?
श्री श्री रविशंकर :
(हँसते हुए) आजकल की गलियां थोड़ी सी बड़ी हो गयी हैं| तो कोई बात नहीं|
दो होते ही नहीं,
दो नहीं समझना चाहिये| एक ही चेतना का सारा खेल है| तुम और मैं अलग नहीं हैं|
प्रश्न : (एक बच्चे
के द्वारा) – गुरूजी, हमारी माँ कहती हैं, कि बड़े
होकर बहुत कुछ अच्छा बनना चाहिये| उससे क्या फ़ायदा होगा?
श्री श्री रविशंकर :
हाँ, अच्छे से फ़ायदा ही होता है, बुरा करने से नुकसान होता है| अच्छे से कभी नुकसान
होता है क्या? (उत्तर- नहीं) और फ़ायदा अभी नहीं दिखेगा, उस वक्त जो चाहिये, वही होगा|
फ़ायदा तो होगा ही|
प्रश्न : गुरूजी,
आपके YLTP प्रोग्राम से हमारे इलाके में बहुत परिवर्तन आया है| इस क्रांति का उद्देश्य
क्या है, और एक युवाचार्य बनकर मुझे अपने कार्य में क्या उद्देश्य रखना चाहिये?
श्री श्री रविशंकर :
श्रेयस और प्रयास – दोनों| तुम्हारा अपना उत्थान, अपनी उन्नति,
और साथ ही साथ समाज और देश की उन्नति| ये दोनों| एक के बाद एक नहीं होगा, यह युगपथ
होगा, ये दोनों साथ साथ होने चाहिये| ठीक है न? तो यही YLTP का उद्देश्य है| तुम्हारा
भी उत्थान, और एक से डेढ़ साल के लिए, तुम देश के लिए अपनी सुख-सुविधा त्याग करके खड़े
हो जाओ, देश की भलाई करो, देखना तुम्हारा और अधिक उत्थान होने लग जाएगा| जितना हम किसी
इमारत को ऊंचा करना चाहते हैं, उतना ही नीचे भी खोदना पड़ेगा| इसलिए, जितना तुम अपने
आप को एक अच्छे, उन्नत पदवी पर देखना चाहते हो, उतना ही तुमको त्याग भी करना पड़ेगा,
और मेहनत भी करनी पड़ेगी| खाली बैठे बैठे, आराम से बैठे-बैठे आप यह सोचो कि मैं ऊपर चढ़
जाऊँगा, ये बात नहीं बनेगी| इसके लिए थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी| मेहनत का फल ज़रूर मिलेगा|