अपने जीवन को ही अपनी साधना समझे!!!


२५
२०१२ बैंगलुरु आश्रम
मई

प्रश्न : गुरूजी, भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, मेरा जीवन और कर्म दोनों ही दिव्य हैं| कृपया इसका व्याख्यान करें|
श्री श्री रविशंकर : हाँ, जब आप आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, तब आपको महसूस होता है कि आपका जन्म और कर्म दोनों ही दैवीय हैं| यह आपको ज्ञात हो जाता है|
एक बार, यदि आपमें अनुशासन और नैतिकता स्थापित हो जाएँ, तब आपसे बिल्कुल भी कोई गलती नहीं हो सकती| आपके मुहँ से एक भी गलत शब्द नहीं निकल सकता| आपके दिल में किसी के लिए भी नफरत या बुरी भावनाएँ नहीं पनप सकतीं| ऐसा हो ही नहीं सकता, क्योंकि हर एक कोई आपको अपना ही हिस्सा लगता है; बिल्कुल अपना लगता है| यही प्रेम की पराकाष्ठा है| यह प्रेम की वह स्थिति है, जहाँ आपके दिल में किसी के भी लिए कोई गलत विचार नहीं हैं| जब यह ज्ञान, यह चेतना आपके अंदर दृढ़ता से स्थापित हो जाती है, तब समय आने पर आपको आत्म-साक्षात्कार अनुभव होता है|
गीता में यही कहा गया है तत् स्वयं योग संसिद्धिं क्लेन आत्मनि विन्दथी
देखिये, जीवन में आपको सिर्फ यह समझने की ज़रूरत है मैं जो भी कर रहा हूँ और मैंने अब तक जो भी किया है, वह ईश्वर से प्रेरित है| और ये सभी कर्म ईश्वर को समर्पित हैं’|
सबसे पहले, आप यह अनुभव करें कि आप ईश्वर को समर्पित हैं, तब आप गलत कर्मों में भी प्रयासहीनता का अनुभव करते हैं|
हालाँकि, इसका अर्थ यह नहीं है, कि आप अपनी गलत कर्मों और कमजोरियों को अनदेखा करें| अगर आपने कुछ गलत किया है, किसी राग या द्वेष के कारण कोई गलती करी है, तब आपको उसका समाधान भी ढूँढना होगा, और उसे सुधारने के उपाय खोजने होंगे| जैसे जैसे आप यह करते जायेंगे, एक समय ऐसा आएगा कि आप प्रेम की उस अवस्था में पहुँच जायेंगे, जब आपको यह ज्ञात होगा, कि सब कुछ ईश्वर से ही प्रेरित है|

प्रश्न : गुरूजी, मैं आपको कैसे जानूं, कि एक गुरु, जो शरीर के परे हैं ? मैं गुरु को कैसे समझूं? मेरी समझ इसके लिए बहुत छोटी लगती है|
श्री श्री रविशंकर : जब आपको यह आभास होता है, कि यह आपकी समझ के परे हैं , तो बस यही काफी| बस विश्राम करिये, और स्वयं में स्थापित हो जाईये|
यही तो प्रेम है| प्रेम माने क्या? अभेद, मैं उनसे (गुरु से) अलग नहीं हूँ और वे मुझसे अलग नहीं हैं| देखिये, जब कोई किसी बच्चे को अपशब्द कहता है, तो पिता क्या कहता है? अगर तुमने मेरे बच्चे को गाली दी है, इसका मतलब तुमने मुझे गाली दी है
या फिर अगर आप किसी के माता या पिता को गाली देते हो, तो बच्चा क्या कहता है? वह कहता है, मेरे माता-पिता को गाली देना और मुझे गाली देना, एक ही बात है वे इसका विरोध करेंगे, है न? इसका मतलब यहाँ एकता है| जहाँ अपनापन है, वहीँ एकता है, यही प्रेम का प्रतीक है|

प्रश्न : गुरूजी, गरुण पुराण में मृत्यु के उपरांत जो होता है, उसका बहुत डरावना वर्णन है, लेकिन आप कहते हैं कि मृत्यु एक सुन्दर गहरी नींद के समान है| कृपया इस पर कुछ प्रकाश डालें|
श्री श्री रविशंकर : हाँ, हम मृत्यु के बारे में बाद में बात करेंगे; अभी चलिए हम जीवन के बारे में बात करते हैं| अगर हम इस जीवनकाल में हे संतुष्ट हो जाएँ और एक पूर्णता की अनुभूति के साथ यहाँ से विदा हों, तो सब कुछ ठीक ही रहेगा| लेकिन अगर हम अपने आखिरी क्षणों में उदास रहेंगे, या लोगों को गाली देंगे, श्राप देंगे, या गुस्सा रहेंगे, तब गड़बड़ है| इसलिए, जीवन के आखिरी क्षण तक बल्कि खास तौर पर आखिरी क्षण में, हमें इस शरीर को खुशी खुशी और संतुष्टि के साथ ही छोड़ना है|
लेकिन, अब हम यह नहीं जानते कि वह आखिरी पल कब आएगा, इसलिए आप पूरी जिंदगी ही खुशी खुशी और आनंद के साथ बिताएं|

प्रश्न : क्या आत्मा समय के परे है?हम ऐसा क्यों कहते हैं, कि पृथ्वीलोक के १०० साल मतलब पित्रलोक के १ दिन के बराबर है?
श्री श्री रविशंकर : ऐसा ही है| हमारे जीवन का एक साल उनके (पूर्वजों के) एक दिन के बराबर होता है| यही हमारे ग्रंथों में भी लिखा है| हम सब पित्रलोक जाकर आ चुके हैं, बस फ़र्क इतना है, कि यह हमें याद नहीं है| आपको आभास नहीं है, कि आपने वहां कितना समय बिताया है| ऐसा ग्रंथों में लिखा है, इसीलिये हम उसका विश्वास कर लेते हैं|

प्रश्न : गुरूजी, आपने भगवान शिव के बारे में बहुत चर्चा करी है| हम भगवान शिव को एक शिव लिंग के रूप में क्यों देखते और पूजा करते हैं?
श्री श्री रविशंकर : लिंग मतलब पहचान, एक प्रतीक जिसके माध्यम से हम सत्य को, वास्तविकता को पहचान सकते हैं| जो दिखता नहीं है, लेकिन जिसे किसी एक चीज़ के माध्यम से पहचाना जा सकता है, वही लिंग है| जब किसी शिशु का जन्म होता है, तो आप कैसे जानते हैं कि वह बालक है या बालिका? सिर्फ शरीर के एक हिस्से के द्वारा ही आप जान सकते हैं, कि यह शिशु नर है या मादा| नहीं तो, बच्चे तो एक उम्र तक एक जैसे ही लगते हैं| लेकिन एक हिस्सा है, जो आपको भविष्य के बारे में बताता है| और यही वजह है, कि जननांग को लिंग भी कहते हैं| उसी प्रकार, आप इस सृष्टि के भगवान को कैसे पहचानेंगे? उनका कोई रूप नहीं है| तो तब उन्होंने कहा, कि उनको (भगवान को) पहचानने के लिए कोई प्रतीक होना चाहिये| इसलिये , वह चिन्ह जिसके द्वारा आप बालक या बालिका को पहचानते हैं, उन दोनों को मिलाकर, सिर्फ एक ही चिन्ह बना दिया गया| उस भगवान के प्रतीक के रूप में जिसका न तो कोई रूप है, न ही कोई पहचान| जो इस पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, वही शिव लिंग है|
इसीलिये कहा गया है, नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपं निर्वाणरूपं’’| उनका न तो कोई शरीर है, न ही कोई रूप; विभुं का अर्थ वे सर्व-व्याप्त हैं; ब्रह्मवेदस्वरूपं का अर्थ वे ब्रह्म ज्ञान के साक्षात अवतार हैं|
देखिये, इंटरनेट कैसे काम करता है, टेलीफोन कैसे काम करता है? ये सभी उपकरण कैसे काम करते हैं? आकाश के कण कण में ज्ञान व्याप्त है| यहाँ, अभी इसी वक्त, जहाँ हम सब बैठे हैं| दुनिया के कितने सारे चैनल चल रहें हैं, इतनी सारी तरंगें हैं, कितने सारी ईमेल सब यहीं मौजूद हैं| इसीलिये, जब आप अपना कंप्यूटर खोलते हैं, और अपना ईमेल खोलते हैं, तो वे सारी ईमेल आपके कंप्यूटर में डाउनलोड हो जातीं हैं|
आप जितने भी अक्षर टाइप कर के एस एम एस के ज़रिये भेजते हैं, वे सभी इसी आकाश में मौजूद हैं! अगर आप किसी पर नाराज़ होते हैं, तो वह भी आकाश में रहता है| अगर आप किसी की प्रशंसा करते हैं, तो वह भी आकाश में ही रहता है| इसी तरह से यह सब कुछ एक सेलफोन से दूसरे में जाता है, और इसीलिये, यह सभी ज्ञान इस आकाश तत्व में निहित है| और सिर्फ आज की ही नहीं, हज़ारों साल पहले का ज्ञान भी इसमें मौजूद है| आप इस पल में रहकर देख सकते हैं, कि हज़ारों साल पहले क्या हुआ था, और अगले हज़ार साल बाद क्या होने वाला है; आप यह सब देख सकते हैं, क्योंकि यह सब पहले से ही लिखा हुआ है, सब आकाश तत्व में रिकॉर्ड हो रहा है, और यह सब यहाँ इस पल में मौजूद है|
तो आप किस तरह उस आकाश तत्व को पहचान सकते हैं? पुराने ज़माने के लोग एक गोल पत्थर रख कर और उसके ज़रिये इस सृष्टिकर्ता को याद करते थे|

प्रश्न : गुरुदेव, ज्ञान और भक्ति के बीच क्या सम्बन्ध है? क्या भक्ति बिना ज्ञान के फलदायक हो सकती है?
श्री श्री रविशंकर : अब मान लीजिए कि आपको रसगुल्ले बहुत पसंद हैं, सिर्फ तभी तो आपको उन्हें खाने की इच्छा होगी न? जिस चीज़ के बारे में आप कुछ जानते ही नहीं हैं, आप उसे पाने की इच्छा कैसे कर सकते हैं? आप उसकी इच्छा भी कैसे कर पायेंगे, ओर उसे पसंद भी कैसे कर पायेंगे? तो इसलिए, उसे पसंद करना भक्ति है|
और आप किसे पसंद करेंगे, या पाना चाहेंगे? जिसके बारे में आप पहले से ही कुछ जानते हैं; तो यह जानना ज्ञान है| और एक बार यदि आप किसी वस्तु को या व्यक्ति को पसंद करने लगते हैं, तब आप प्रयास करते हैं, कि उनके बारे में और अधिक जानें|
पति-पत्नी के बीच अक्सर यही होता है| वे शादी होने से पहले एक दूसरे से प्रेम करते हैं, और शादी होने के बाद, वे एक दूसरे को और अधिक समझने का प्रयास करते हैं| वे जानना चाहते हैं, कि दूसरा क्या कर रहा है, वह कहाँ जा रहा है| अगर वे दो अलग शहरों में भी हैं, तो वे एक दूसरे से फोन पर पूछेंगे, आप अभी क्या कर रहें हैं? आपने क्या खाया?
एक माँ भी ऐसे ही करती है, यदि उसके बच्चे किस दूसरे शहर में चले जाएँ तो| आज क्या खाया? कहाँ कहाँ गए, और क्या पहना?
जब आप किसी को प्रेम करते हैं, और वह आपसे दूर होता है, तो मन में एक बेचैनी रहती है, यह जानने के लिए, कि वे क्या कर रहें हैं, क्या पहन रहें हैं| ऐसा इसलिए, क्योंकि जब आप किसी से प्यार करते हैं, तो आप उसके बारे में सब कुछ जानने का प्रयास करते हैं| इसीलिये, कभी कभी शादी में, पति-पत्नी को लगता है, कि दूसरा उनकी जासूसी कर रहा है| यह सहज है, और स्वाभाविक ही होता है|
जहाँ ज्ञान होता है, वहां सहज ही प्रेम पनपने लगता है| जैसे कोई खगोलशास्त्री है, वह ब्रह्माण्ड के बारे में पढ़ते रहता है और उसमें उसकी रूचि इतनी बढ़ जाती है, कि वह उसमें पूरी तरह से रम जाता है, और उसके प्रेम में पड़ जाता है| इसलिए, आप ज्ञान और भक्ति को अलग नहीं कर सकते| शुरुआत में, अगर ज्ञान है, तो भक्ति उसके पीछे पीछे आएगी| अगर शुरुआत में भक्ति है, तो ज्ञान भी जल्द ही पीछे आएगा| इसीलिये, कभी भी इन दोनों को दो अलग अलग रास्ते मत समझिए|

प्रश्न : गुरुदेव, आपने अक्सर एक सफल शादीशुदा जिंदगी के लिए पति और पत्नी के किरदारों के बारे में बताया है| आज कृपया यह बताएं, कि एक खुशनुमा शादी के लिए उनके ससुरालवालों का क्या योगदान होना चाहिये|
श्री श्री रविशंकर : देखिये, आपके माता-पिता ने आपको कितनी बार डाँटा है, है न? जब आपकी माँ आपको डांटती हैं, तो आप आसानी से मान लेते हैं| लेकिन अगर वही बात आपकी सास आपसे कहती है, तो आपको दुःख पहुँचता है और परेशानी होती है, जैसे आपके गले में कुछ अटक गया है|
वास्तव में, आपके सास ससुर आपसे कुछ कहने के पहले थोड़ा हिचकेंगे| वे आपको आपके माता-पिता जितना नहीं डांटेंगे, वे तो आपको उनसे कम ही डांटते हैं| जितने हक से वे अपने बच्चों को डांटते हैं, उतने हक से वे अपनी बहू या दामाद को नहीं डांटते|
और जब कोई आप पर अपना हक समझता है तब वह आपको डांट भी सकता है और कभी कभी कुछ अनचाही बात भी कह सकता है| लेकिन उनकी कही बात आपको अधिक इसलिए चुभती है, क्योंकि आप उन्हें अपना नहीं समझते, आप उन्हें पराया समझते हैं| अगर आप अपनी सास को अपनी माँ की तरह समझेंगी, तब अगर आपका उनसे झगड़ा हो भी जाता है, तो आप उन्हें जाकर गले लगा लेंगी| लेकिन अगर आप उन्हें पराया समझेंगी, तो आप उम्मीद रखेंगी, कि झगड़े के बाद वे आयें, और आपको गले लगाएं, या आपसे माफ़ी मांगे|
असली बात तो यह है, कि यदि आपके सास-ससुर आपको डांटते हैं, तो यह अच्छी बात है! आपको इसे ऐसे समझना चाहिये| इसका मतलब वे आपमें और अपने बच्चों में कोई अंतर नहीं समझते|
क्या आपने कभी अपनी माँ से लड़ाई नहीं करी? बस एक बार तुलना कर के देखिये| ये दोनों पहलू सिर्फ एक बार देखिये!
आपने अपनी माँ से कितनी बार लड़ाई करी है| कितनी बार उन्होंने भी आपको फटकारा है| लेकिन क्या उससे कभी आपको दिल में दर्द हुआ है? नहीं, उससे आपको कभी दुःख नहीं हुआ| इसलिए इस बात को छोड़ दीजिए|
आप आज अपनी माँ से लड़ाई करती है, और फिर उसी दिन आप जाकर लड़ाई सुलझा लेती है, और फिर उनके साथ बैठ कर ऐसे बात करती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं| तो यही चीज़ अपनी सास के साथ भी करिये! झगड़े के बाद, जाईये, उनके साथ बैठिये और ऐसे ही बात करिये जैसे आप अपनी माँ के साथ करेंगीं| और वे भी इसे दिल से नहीं लगाएंगी|
धीरे धीरे वे भी आपके साथ अपना व्यवहार बदल लेंगी| उनका भी दिल बदलेगा|
प्यार से आप किसी को भी जीत सकते हैं| संकल्प के साथ आप उन्हें जीत सकते हैं| अगर प्यार और संकल्प दोनों ही हार जाते हैं, तो सिर्फ प्रार्थना करिये| कृपा से आप निश्चय ही उससे जीत पायेंगे|

प्रश्न : गुरूजी, भगवद गीता में कहा है कि भगवान श्री कृष्ण परमात्मा हैं और वह स्वयं ही सब कुछ हैं| और शिव तत्व में कहा है कि शिव ही सब कुछ हैं| इनमे से क्या सत्य है?
श्री श्री रविशंकर : दोनों, क्योंकि दोनों में कोई अंतर नहीं है| वह जो शिव है| वो कृष्ण है और वह ही भगवान है, और बाकि सब कुछ है| ये दो नहीं हैं, एक ही है|
एक ऋषि थे, जो मानते थे कि भगवान श्री कृष्ण (हरि) और भगवान शिव (हर) अलग हैं| और कुछ लोग केवल हरि का जाप करते थे, और कुछ केवल हर का| इसलिए, भगवान ने ऋषि को अपना वो रूप दिखाया जिसमे वे आधे कृष्ण थे और आधे शिव, और कहा कि हरि और हर में कोई अंतर नहीं है| वे एक दूसरे से अलग नहीं हैं|
इसी प्रकार, कुछ लोग सोचते हैं कि शक्ति और शिव अलग हैं| एक महान ऋषि थे, ऋषि भृंगी, जो यही मानते थे| वे उनमे से थे जो सोचते थे कि मर्दाना रूप स्त्री रूप से उच्च होता है|
बहुत से धर्मों में महिलाओं को उनका सही स्थान नहीं दिया गया है| उन्हें दूसरे दर्जे का समझा जाता है और पुरुषों के साथ उच्च व्यवहार होता है|
ऋषि भृंगी भगवान शिव कि आराधना करते थे और उनके स्त्री रूप की उपेक्षा करते थे| वे शक्ति की आराधना नहीं करते थे| तो भगवान ने सोचा कि उन्हें सही ज्ञान सिखाना चाहिए| कभी कभी अत्यधिक सदाचारी व्यक्ति भी पथभ्रष्ट हो जाते हैं| वे अच्छे हैं पर उनकी धारणाएं गलत होती हैं; उनकी सोच धुंधली हो जाती है| इस लिए, ऋषि भृंगी को सही ज्ञान देने के लिए, भगवान ने उन्हें अपना वो रूप दिखाया जिसमे वे पुरुष और स्त्री दोनों हैं; आधे शिव, आधी शक्ति (अर्धनारीश्वर)|
यह देखने के बाद, ऋषि भृंगी ने शिव और शक्ति के रूप की प्रदक्षिणा की| वे केवल शिव रूप की पूजा या प्रदक्षिणा नहीं कर सकते थे क्योंकि वे दोनों रूप एक में ही देख रहे थे| इस लिए, उन्हें दोनों की प्रदक्षिणा करनी पड़ी और शक्ति की भी पूजा करनी पड़ी|
एक स्त्री को वही सम्मान मिलना चाहिए जो एक पुरुष को मिलता है| हमें पुरुष और स्त्री में भेदभाव नहीं करना चाहिए| जिसकी हम आज भी बात करते हैं, नारी अधिकार-प्रदान इसकी चर्चा लाखों साल पहले भी इस देश में हुई है| तो, अर्धनारीश्वर रूप में भगवान ने यह ज्ञान ऋषि भृंगी को दिया था|
भृंगी शब्द का अर्थ है, भ्रमरा’| भगवान के प्रति प्रेम सदैव ऋषि भृंगी के दिल में गूंजता था, एक दम वैसे जैसे भ्रमर के भुनभुनाने की गुंजन| जैसे एक भंवरा हर फूल पर केवल रस लेने जाता है, वैसे ही ऋषि भृंगी हर व्यक्ति से केवल शिव तत्व एकत्रित करते थे| इतने बड़े भक्त थे वो| पर क्योंकि वो स्त्रियों का आदर नहीं करते थे, भगवान ने उनको सही ज्ञान दिया अपना अर्धनारीश्वर रुप दिखा कर|
यह पौराणिक कथा है या शायद सत्य है ; पर अभिप्राय यह है कि इस प्रकार वे ये जान पाए कि हरि और हर एक ही हैं| श्री कृष्ण साहित्य में एक महान व्यक्ति थे| पर शिव का कभी जन्म नहीं हुआ था, इसी लिए उन्हें स्वयम्भु कहा जाता है| उनका कभी जन्म नहीं हुआ था|
इस्लाम में भी कहा गया है कि अल्लाह का कभी जन्म नहीं हुआ था, और यही शिव के लिए कहा जाता है| वे स्वयं ही प्रकट हुए| वे समय के अधिराज हैं इसलिए मृत्यु उन्हें छू भी नहीं सकती| यही बात सिख धर्म में भी कहा है, एक ओमकार सतनाम कर्ता पुरख निर्भाव निरवैर अकाल मूरत| सभी धर्मों ने एक ही तत्व की बात की है और यही भगवान श्री कृष्ण नें गीता में कहा है|
अवजनती मम मुधा मनुसिम तनुं असृतम; परम भवम अजनन्तो मम भुत-महेश्वरम|
मूर्ख सोचते हैं मैं यह शरीर हूँ| मेरी अतींद्रिय प्रकृति को ना जानते हुए, लोग सोचते हैं मैं केवल एक मनुष्य शरीर और दिमाग हूँ| मूर्ख व्यक्ति उसको पहचान नहीं पाते| मैं एक मनुष्य शरीर में हूँ पर मेरी चेतना वही सर्वोत्तम चेतना है, हे अर्जुन! तुम्हें मुझमे वो ईश्वरीय तत्व ही देखना चाहिए|
इसीलिए कहा गया है कि भगवान में मनुष्य की बुद्धि या चित्त मत खोजो क्योंकि जिस तरह आप देखते हो, वैसे ही वे तुम्हें दिखेंगे| यदि आप एक मूर्ती को केवल एक पत्थर की तरह देखते हैं, तो वह आपको केवल एक पत्थर ही प्रतीत होगा| पर यदि आप उस मूर्ती में प्रभु को देखेंगे तो आपको प्रभु उसमे भी मिल जायेंगे|
इसी तरह, यदि हर व्यक्ति में हम ईश्वरीय तत्व देखें और प्रेम करें, तो हम अपने आस पास सब में एकात्मकता देखे पाएंगे, क्योंकि वे सब उसी एक इश्वर से आये हैं| मनुष्य बुद्धि का अर्थ है केवल बाहरी सीमित रूप देखना, जबकि हमें देखना चाहिए सर्व व्यापी इश्वर को|

प्रश्न : गुरुदेव, जैसे हम ज्ञान प्राप्त करते और समझते हैं, क्या वैसे ही उसे खो भी देते हैं?
श्री श्री रविशंकर : ज्ञान पूरी तरह नहीं खोता| ज्ञान प्राप्त करने के बाद उसे खो देना असंभव है| पर जब कोई अधूरा ज्ञान प्राप्त करता है तो वो अपनी समझ में आगे पीछे जाते रहते हैं|

प्रश्न : जब भी मैं साधना के लिए बैठता हूँ, मेरा मन इधर उधर भटकता है| अपने मन को काबू में करने के लिए मैं क्या करूं?
श्री श्री रविशंकर : देखो, अपने जीवन को ही अपनी साधना समझे | अपने पूरे जीवन को अपनी साधना समझे| मन कहाँ भटकता है? वो वहीँ जाएगा जहाँ उसे तृप्ति मिलती है| इस लिए, अगली बार ऐसा हो तो गौर करिये, क्या मेरा मन वहां भटक रहा है जहाँ मुझे तृप्ति मिलेगी?
इस प्रकार, जब आप ज्ञान के साथ देखते और तर्क करते हैं तो आप पाते हैं कि मन न यहाँ है न वहां, और फिर मन शांत हो जाता है| फिर वह सर्व में ठहर जाता है| इसीलिए ध्यान के लिए इतने उपाय बनाये गए हैं, सी डी बनायी हैं| इन्हें करते रहिये| पर ध्यान मात्र से लाभ नहीं होगा| ज्ञान के साथ ध्यान भी करने से मन को शांत करने में सहायता होगी|

प्रश्न : गुरुदेव, जब कोई प्रिय या बहुत समीप का हमें छोड़ कर चला जाता है, उन्हें हम कैसे वापस अपने जीवन में ला सकते हैं, खासकर जब हम इस पथ पर हैं?
श्री श्री रविशंकर : जो भी चला गया है वो अपने सही स्थान पर गया है| जब भी कोई प्रियजन चला जाता है, यह आपको याद दिलाने के लिए है कि जीवन अस्थायी है और समाप्त हो जायेगा| आप समझ रहे हैं ? मुझे भी एक दिन जाना होगा| आप भी सब कुछ छोड़ कर एक दिन चलें जायेंगे| हाँ, उन क्षणों में आपको दुःख होता है| इसी लिए ध्यान, साधना और सत्संग है| यह सब आपको दुःख और बिछड़ने के शोक से बहार आ पाने में सहायक होंगे|

प्रश्न : गुरूजी, मैं आश्रम में रहना चाहता हूँ|
श्री श्री रविशंकर : हाँ, आश्रम के प्रशासन विभाग में बात करिये| जैसा मैंने कहा, यह पूरा संसार मेरा आश्रम है| आप जहाँ भी हैं, लोगों को ज्ञान बांटिये और उनकी सहायता करिये| तो वो स्थान आश्रम बन जाता है| हर घर एक आश्रम है| आश्रम क्या है? आश्रम वो स्थान है जहाँ मन को गहन विश्राम मिलता है बिना किसी प्रयत्न के , शरीर स्फूर्तित हो जाता है, बुद्धि को ज्ञान मिलता है, आत्मा को शान्ति मिलती है और जीवन एक उत्सव बन जाता है|

प्रश्न : यदि आत्मा कभी नहीं मरती तो इस ग्रह की जनसंख्या कैसे बढ़ रही है?
श्री श्री रविशंकर : बहुत सी जीव प्रजातियां धरती से लुप्त होती जा रही हैं| सांप, कीड़े, शेर, इत्यादि धरती से लुप्त हो रहे हैं| गधों की संख्या भी कम हो रही है| आपको इतने बन्दर भी अब नहीं दिखते| जंगलों को उखाड़ा जा रहा है और सब जगह शहर बन रहे हैं| बन्दर कहाँ जायेंगे? तो वो घरों में घुसने लगते हैं|

प्रश्न : जब भी मैं किसी बम फटने की खबर सुनता हूँ या कोई विमान दुर्घटना जिसमे छोटे बच्चो की मृत्यु होती है, मैं पूरा दिन बहुत उदास रहता हूँ, और उम्मीद करता हूँ कि मृत्यु के बाद वो ठीक होंगे| क्या आप उनका भी ख्याल रखते हैं?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, चिंता मत करो, ऐसा महसूस करना स्वाभाविक है| जब आप किसी और के दर्द को महसूस करते हैं, इसका अर्थ है कि आप इन्सान है| ऐसे दिल क्या भला है जो दूसरों का दर्द न महसूस कर सके? पर आपको इसमें अटक नहीं जाना चाहिए कि आप कुछ और कर ही न सकें| उस भावना को अपनी सेवा में डालिए और कुछ सेवा करिये, ठीक है!