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२०१२ बून, उत्तरी केरोलिना, अमरीका
जुलाई
ईश्वरो गुरुरात्मेती
मूर्ति भेद विभागिने, व्योमवाद व्याप्त देहाय दक्षिनामुर्ताये नमः
(गुरु, आत्मा
और ईश्वर में कोई अंतर नहीं है| भगवान दक्षिणामूर्ति के प्रति श्रद्धा नमन, जो परम
शक्ति के प्रतिरूप हैं, वह आत्मा जो संपूर्ण आकाश में समायी है)
गुरु, आत्मा और
ईश्वर में कोई अंतर नहीं है| ये तीनों एक ही हैं – आपकी
आत्मा, गुरु तत्व और ईश्वर| और ये तीनों ही शरीर नहीं हैं| उनका रूप कैसा है? आकाश
जैसा है|
व्योमवाद व्याप्त
देहाय (व्योम
– आकाश, देह – शरीर, व्याप्त – समाना )
आप शरीर नहीं हैं,
आप आत्मा हैं, और आत्मा का स्वरुप आकाश जैसा है| यह गुरु के लिए भी समान है| गुरु को
एक सीमित शरीर के रूप में मत देखिये| गुरु एक तरंग है, एक ऊर्जा है, जो सर्वव्यापी
है, आत्मा की तरह| और गुरु का सम्मान करना अर्थात अपनी आत्मा का सम्मान करना|
पुराणों में एक
बहुत ही सुन्दर कहानी है| एक बार समस्त विश्व के जो स्वामी थे, उन्होंने सोचा कि वे
अपने पुत्र को पाठशाला भेजें| तो उनका पुत्र पाठशाला में गया और वहां शिक्षक ने उन्हें
अक्षर ABCD, अ-आ-इ-ई पढ़ाने शुरू किये| लेकिन उस
बालक ने कहा, कि ‘मुझे सबसे पहले परम ज्ञान पढ़ाईये’| अब शिक्षक परेशान हो गयें| वे बोले, ‘मैं तो आपको केवल अक्षर ही पढ़ा सकता हूँ, मैं तो नर्सरी स्कूल
टीचर हूँ’| लेकिन वह बालक बोला, ‘नहीं, मुझे तो सबसे पहले परम ज्ञान ही पढ़ना है’| तो वे शिक्षक, जो कि स्वयं ब्रह्मा थे, बालक को वापिस उसके पिता
के पास ले गए, जो विश्व स्वामी शिव थे, और उनसे बोले, ‘कि आपका पुत्र तो बहुत शरारती है, यह चाहता है कि मैं इसको परम
ज्ञान पढ़ाऊँ, जबकि उसके बारे में तो मुझे स्वयं ही जानकारी नहीं है|’ तब शिव ने बालक से कहा कि, ‘मुझे खुद
भी इस की जानकारी नहीं है, इसलिए अगर तुम यह जानते हो, तो तुम ही बताओ’|
अक्सर बच्चे ऐसे
सवाल पूछते हैं, जिसके उत्तर माता-पिता खुद भी नहीं जानते| ‘भगवान को किसने बनाया?’, ‘भगवान ने यह दुनिया क्यों बनाई?’ – इस तरह के प्रश्न बच्चे पूछते
हैं| लेकिन अक्सर माता-पिता उनके प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाते|
शिव ही प्रथम गुरु
हैं, जो समय के परे हैं, गुरु तत्व हैं| स्वयं उन्हें ही ‘ओम्’ शब्द का अर्थ नहीं पता था| और
उस बालक ने यही प्रश्न पूछा था, कि ‘ओम् का अर्थ क्या है?’ शिव ने कहा, ‘मैं नहीं जानता’| बालक ने कहा, ‘लेकिन मैं जानता हूँ’| तब शिव ने कहा, ‘कि ठीक है, अगर तुम जानते हो,
तो तुम ही कहो|’ तब फिर बालक ने कहा, कि ‘ऐसे नहीं बता सकता| पहले आपको मुझे गुरु का स्थान देना होगा|’ गुरु का स्थान हमेशा ऊंचा होता है, और शिष्य नीचे बैठ कर सुनते
हैं| तो ऐसे में फिर शिव अपने पुत्र को कहाँ बिठाएंगे? क्योंकि शिव तो खुद ही सबसे
ऊंचे हैं, सबसे महान हैं! तब पार्वती ने कहा, कि ‘आप पुत्र
को अपने कंधे पर बिठा लीजिए|’ तब शिव ने बालक को ऊपर उठाकर
अपने कंधे पर बिठाया, और फिर धीरे से उनके पुत्र कार्तिकेय ने शिव के कान में परम सत्य
का असली अर्थ बताया| कि ओम् क्या है, ओम् का अर्थ क्या है|
इस कथा में प्रतीक
यह है, कि गुरु तत्व बिल्कुल एक बच्चे की तरह है, बहुत नाज़ुक, मासूम, लेकिन मेधावी
है| विनम्र है, लेकिन उच्च है| उस शिव तत्व ने उस गुरु तत्व को ऊंचा उठाया, सिर्फ उसी
परिस्थिति में वह ज्ञान उन्हें मिला, अर्थात, जैसे पानी अगर टंकी में होता है, तब आपको
फव्वारे से नहाने के लिए उसे ऊपर पम्प करना पड़ता है| उसी तरह, गुरु तत्व को वह स्थान
देना होता है| जीवन में गुरु तत्व को सम्मान देना चाहिये| जब आप उसका सम्मान करते हैं,
इसका अर्थ है, कि आप अपनी आत्मा का सम्मान कर रहें हैं| आत्मा, गुरु और ईश्वर, ये सभी
अनंत हैं| गुरु शरीर नहीं हैं, वे एक ऊर्जा हैं, जो सर्व-निहित है| इसी तरह आत्मा भी
है|
तो इस कथा में
यह बताया है, कि गुरु एक बालक की तरह हैं – मासूम, बुद्धिमान, उच्च है,
लेकिन विनम्र है| और गुरु तत्व का सम्मान करना मतलब खुद का सम्मान करना| और यही गुरु
पूर्णिमा है - गुरु तत्व का सम्मान करना| गुरु का सम्मान अर्थात, ज्ञान का सम्मान,
मासूमियत का सम्मान, प्रेम का सम्मान|
और फिर शिव के
पुत्र कार्तिकेय ने ओम् का क्या अर्थ बताया? उन्होंने कहा, ‘ओम् का अर्थ है प्रेम, आप प्रेम हैं, मैं प्रेम हूँ, यहाँ जो भी
कुछ मौजूद है, वह सब प्रेम है|’
प्रेम ही जीवन
का सार है| यह इतना नाज़ुक होता है| प्रेम और श्रद्धा को ज़रा ध्यान से संभालना चाहिये|
(हँसते हुए) और गुरु का शरीर प्रेम और श्रद्धा से बना है| गुरु पूर्णिमा एक ऐसा उत्सव
है, जहाँ आप प्रेम के महत्व को समझें, भाग्य के महत्व को समझें, और यह जानें कि इन्हें
कैसे सहेज के रखना है| है न? क्या यह ठीक लग रहा है? ‘हैण्डल विद केयर’ – ‘ध्यान से रखिये’| (हँसते हुए)
इसलिए, यह कहानी
बहुत अद्भुत है| गुरु तत्व एक बालक की तरह है|
आज हमारे हज़ारों
टीचर विश्व भर में हैं| यहीं कोई १५,००० टीचर होंगे, १०,००० तो केवल भारत में ही हैं|
मैं चाहता हूँ, कि वे सब अपने जीवन को शुद्ध बनाएँ, ईमानदार रहें, और उन्हें जीवन में
कभी भी कोई कमी नहीं होगी| मैंने हमेशा एक उदाहरण कायम किया है| इतने सालों में, न
तो विचार से, न शब्दों से और न ही कर्म से मैंने कभी भी किसी का बुरा नहीं किया, किसी
एक भी व्यक्ति को मैंने कभी बुरा नहीं कहा| मैं उसका श्रेय नहीं लेना चाहता, क्योंकि
मैं तो ऐसा ही हूँ| लेकिन मैं चाहता हूँ, कि आप भी अपने जीवन को ऐसे ही संभाल कर चलें,
ध्यान रखें| मैं सिर्फ यह कह रहा हूँ, कि ऐसा संभव है, यह असंभव नहीं है| ऐसा संभव
है, कि आप एक शुद्ध जीवन जियें, और साथ ही संसार में भी सफल रहें| असली सफलता सिर्फ
तभी आती है, जब हम ज्ञान के मार्ग पर चलें| इसलिए, जो हमारे हज़ारों टीचर हैं, आप एक
बात याद रखें, कि आपको विनम्र होना हैं| विनम्र रहें| विनम्रता के साथ- साथ गरिमा भी
रखें| शिष्ट गरिमा के साथ विनम्रता!
विनम्र होने का
अर्थ यह नहीं है, कि आप लचीले wiggly-wiggly कमज़ोर रहें| वह तो कोई भी हो
सकता है, विनम्र, नूडल्स जैसा, spaghetti जैसा! और फिर आपको शिष्ट होने
के लिए बहुत कठोर भी नहीं होना है| शिष्ट रहें – और शिष्टता
के साथ विनम्रता|
करुणा और बल|
मासूम और बुद्धिमान|
आप इसमें और भी शब्द जोड़ सकते हैं|