प्रबोधन सबसे बढ़ी ख़ुशी है

बैंगलोर आश्रम ९/१२/२००९ :

वह जो निष्क्रिय है उसे किसी चीज कि जरुरत नहीं होती और न ही उसकी कोई जिम्मेदारी होती है| इसके साथ वह व्यक्ति जो पूरी तरह से प्रबुद्ध है उसे किसी चीज की आवश्यकता नहीं होती और न ही वह कोई जिम्मेदारी समझता है| इन दो प्रकार के लोगों के अतरिक्त सभी लोगों कि कुछ जरूरतें और जिम्मेदारियां होती हैं|
अब प्रश्न यह है कि आप अपने जिम्मेदारियों और जरूरतों को कैसे पूरा करते हो? यदि आप अपनी ज़िम्मेवारियों पर अधिक ध्यान देते हो तो आप कि जरूरतों का ख्याल रखा जाता है|यदि आपकी जरूरतें बहुत ज्यादा होंगी और आप केवल उन्हीं पर ध्यान देते हैं तो आपकी जिम्मेदारियां नजरंदाज हो जाती हैं| यह आलस और उदासीनता का मार्ग है|जब हम जिम्मेदारियों को नहीं समझते तो हमेशा शिकायत करते है,असंतुष्ट रहते है और खुश नहीं रहते|

यदि आप जिम्मेदारी समझते हो और आपकी जरूरतें भी ज्यादा नहीं होती तो आप उत्साहपूर्ण और खुश रहते हो, और नई कलाएं भी सीख पाते हो| आपके जीवन में एक ऐसा समय आता है जब आप अपनी जरूरतों और जिम्मेदारियों का समर्पण कर देते हैं| परन्तु उस स्तिथि तक जाने के लिए कई स्तरों से गुजरना पड़ता है| जैसे कि यदि कोई भूखा है तो क्या?तब उसे खाना खाना पड़ेगा|यदि किसी को प्यास लगी हो तो पानी पीना पड़ेगा|ये सारी जरूरतें शरीर से सम्बंधित हैं|आपका शरीर इस समाज और दुनिया के लिए है|यह दुनिया/समाज इसका ख्याल भी रखेगा|आप इश्वर के हो और इश्वर ही आप का ख्याल रखेगा|वस्तव में इश्वर ही आप का ख्याल रख रहा है|आप यह जान लो कि आप इस शरीर से अलग हैं| जितनी जल्दी आप इस अंतर को समझ जाओगे कि आप शरीर से अलग हो तो आपकी मुस्कान स्थाई हो जायेगी|तब गुरूजी ने उपस्थित लोगों से प्रश्न पूछने के लिए कहा|

प्रश्न : ग्रहणशीलता को कैसे बढाया जाए?
 श्री श्री रवि शंकर :
आप सुन रहे हो पर अगर मन कहीं और है तब एकाग्रता नहीं होती| जब आप का मन बहुत सी इच्छायों से भरा रहता है और विषय आपकी इच्छाओं से सम्बंधित न हो तो आप ध्यान से नहीं सुन पाते|और यदि सम्बंधित हो तो भी आप अपनी कल्पना की उड़ान भरने लगते हो|एक वाक्य सुनते हो और कल्पना लोक में चले जाते हो|जैसे किसी आदमी की मुख्यमंत्री बनने कि बहुत इच्छा हो और यदि कोई उनसे यह कह दे कि उनके मुख्यमंत्री बनने का पूरा चांस है तो तुरंत उनकी कल्पना शुरू हो जाती है|इसलिए सिर्फ सुनो, बस सुनो|यदि मन बहुत से विचारों से भरा हो तो भी जल्दी ध्यान नहीं दे पाते|मन कि एकाग्रता के लिय वात और कफ के असंतुलन को संतुलित करके भी ठीक किया जा सकता है|जब मन कुछ भी देखते या सुनते ही एकदम उतेजित हो जाता है तो भी मन की एकाग्रता नहीं बन पाती| लगातार sensory stimuli से भी ग्रहण करने की क्षमता और एकाग्रता नहीं बन पाती| क्या आपने यह अनुभव किया है? तीन घंटे की फिल्म देखने के बाद कोई आपको कुछ बताना चाहे तो आप सुनना नहीं चाहते और कह देते हो बाद में बताना|
एकग्रता बढ़ाने के लिए क्या करें? मौन,प्राणायाम,सही भोजन,मन में कम इच्छाएं,इन सब से मदद मिलेगी|यदि कोई विष्य आप को पसंद आता है तो इसमें ध्यान लगता है| अक्सर किशोरों के जीवन में एक कठिन दौर आता है जब उन्हे विषय चुनना होता है - गणित ,कंप्युटर इन्जीनियरिंग आदि और यदि कोई सभी विष्य में अच्छा हो तो और मुश्किल हो जाती है|

प्रश्न : आत्म समर्पण में कौन किसके प्रति समर्पण करता है?
श्री श्री रवि शंकर :
तुम स्वयं को समर्पण करते हो| जब आत्म समर्पण करते है तो पता चलता है कि अन्य कोई है ही नहीं|

प्रश्न : प्रसन्नता और प्रबोधन में एक को चुनना पढ़े तो हमें क्या चुनना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर :
प्रबोधन सबसे बढ़ी ख़ुशी है|तो यदि सबसे बड़ी ख़ुशी मिल रही हो तो छोटी ख़ुशी के लिए क्यों जाएँ? इश्वर में विश्वास करना आसान नहीं है|इश्वर है - यदि आप इस पर विश्वास कर लेते हो तो मन शांत हो जाता है|तब आप को लगता है कि केवल इश्वर ही है, मैं तो हूँ ही नहीं |

इन आँखों से आँख मिला के देखो तो सही,प्यार दिखता है कि नहीं,
एक कदम बढ़ा के देखो तो सही,रास्ता मिलता है की नहीं,
हाथ बढ़ा के देखो तो सही काम होता है की नहीं,
एक बार मुस्करा के देखो तो सही,दुनिया अपनाती है की नहीं,
एक बार नाम लेके देखो तो सही,जीवन सफल होता है की नहीं|

प्रश्न : मन की राय बनाने की आदत से कैसे निकलें?

श्री श्री रवि शंकर : यदि आप को पता है की आप की राय बनाने की आदत है तो आप पहले से ही इस से मुक्त हो गए|

प्रश्न : आत्म निर्भरता वैराग से कैसे भिन्न है?
श्री श्री रवि शंकर :
पूर्ण आत्मनिर्भरता संभव नहीं है|एक दूसरे के उपर निर्भरता रहती है|तुम्हे एक दर्जी पर कपड़ों के लिए निर्भर होना पड़ता है|एक किसान फसल उगाने के लिए उत्तरदायी है तो इस तरह आप उस पर निर्भर करते हो|यदि तुम बीमार हो जाते हो तो डाक्टर के पास जाते हो, इस तरह एक डाक्टर पर निर्भर होना पड़ता है|शिक्षा के लिए शिक्षक पर निर्भर होना पड़ता है|हर कोई किसी न किसी तरह एक दुसरे पर निर्भर करते है|परन्तु हमे भी कदम बढ़ाना है|बैचैनी और उदासी तब तक बनी रहती है जब तक हम किसी के लए उपयोगी न बने|
निर्भरता क्या है?
एक दिन आप की बाई नहीं आती और आप अपने घर की सफाई न करे तो यह निर्भरता है|आप जो भी कर सकते हो करते रहो|यह महत्पूर्ण है कि आप की आत्मनिर्भरता आप का अभिमान न बने|"मैं कभी भी किसी की मदद नहीं लेता, सब कुछ स्वयं करता हूँ - यह अभिमान है|"

आप एक जिम्मेदार नागरिक हो,आप के उपर आपके परिवार की जिम्मेदारी है| परन्तु आप की जिम्मेदारी वही है जो आप कर सकते हो|जो आप नहीं कर सकते वोह आपकी जिम्मेदारी नहीं है|यदि आप एक डाक्टर नहीं हो तो आपकी जिम्मेदारी डाक्टर को बुलाने की है न कि इलाज करने की|जो कुछ भी हम आसानी से कर सकते हैं, वही हमारी जिम्मेदारी है|जब मन और बुद्धि का विस्तार होता है तो आप बड़ी जिम्मेदारी उठाते हो, और जब आप और अधिक जिम्मेदारी उठाते हो तो आपको अधिक शक्ति मिली है|
क्या आपने पर्भुपाद की कहानी सुनी है?७५ की आयु में उनके गुरु ने उनसे कहा कि वे कृष्ण भगवान का नाम प्रसिद्ध करें|इस आयु में भी वह अमरीका चले गए|एक महीने तक जहाज पे रहे|वे बहुत कठिन हालत में रहे,बहुत ठंडी जगहों पे रहे ,किसी के तहखाने में रहे ,परन्तु उनकी आस्था इतनी पक्की थी कि १००० लोग सत्संग करने लगे और इश्वर का नाम जपने लगे |जब किसी का संकल्प और इरादा पक्का होता है तो आयु का भी कोई फरक नहीं पड़ता| मैं किसी भी स्तिथि और परस्तिथि से उपर उठूँगा - ऐसा इरादा रखना चाहिए|

प्रश्न : गुरूजी मैंने आपको सपने में देखा और ऐसा महसूस किया कि आप सचमुच वहां थे|क्या आप सचमुच वहां सपने में थे?
श्री श्री रवि शंकर :
यह भी एक सपना हो सकता है|क्या तुम्हे पूरा विश्वास है कि यह सपना नहीं है?(हंसी)जब कभी भी कुछ अच्छा होता है तो वह सपने की तरह ही लगता है|

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