"जीवन प्रतिबद्धता से चलता है, ना कि सिर्फ़ भावनाओं से"


प्रश्न : जो कुछ भी आज तक मैने आप से पाया है, उसके लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद। मुझे पता है कि आप चौबीस घंटे उपलब्ध है! मदद मांगने में शर्म आ रही है। जब किसी के परिवार में किसी का देहान्त हो जाये तो आप उस व्यक्ति की मदद कैसे कर सकते हैं कि वो शांति से जी सके और आप भी शांति की अनुभूति करें? धन्यवाद गुरुजी।

श्री श्री :
किसी के प्रियजन का देहान्त हुआ है और आप सांतवना देना चाहते है तो मौन रहें। ज़्यादा शब्दों का यहां कोई अर्थ नहीं होता। कोई दुखी है तो आप उनके साथ रहें। अपने दिल में शांति की अनुभूति करें। आप शांत होंगे तो वो भी शांति महसूस करेंगे, आराम महसूस करेंगे। जब आप शांत होते हैं तो आपसे शांति प्रसारित होती है, और उससे वे भी भीतर की शांति महसूस करेंगे। आपको ये कहने की ज़रूरत नहीं है, "ओह! बेचारा। ये तुम्हारे साथ क्या हो गया! ऐसा नहीं होना चाहिये था।" ऐसी बातें करने से ना आपको मदद मिलेगी ना ही उनको। आप सिर्फ़ उनके साथ रहें और कहें, "ईश्वर आपको शक्ति देंगे"। आप को इतना ही करना चाहिये। या जो व्यक्ति गुज़र गया है, उसका नाम लेकर कहें कि वो आपको शक्ति देगा इस मुश्किल समय से गुज़रने के लिये। एक दो शब्द कहना काफ़ी है। ज़्यादा बात ना करें, सिर्फ़ उनके साथ रहें। आपका कुछ क्षण का साथ उनकी मदद करेगा। ठीक है?

प्रश्न : हम दुनिया को कैसे सिखा सकते हैं कि दुनिया में सबके लिये बहुत भोजन है, बहुत प्यार है? हमें कमी के भय के कारण लालची नहीं होना चाहिये।

श्री श्री :
इसके लिये हमें आध्यात्म को फैलाना होगा। लोगों को आध्यात्म का महत्व मह्सूस कराना होगा। लोगों को ध्यान करना होगा। सिर्फ़ ध्यान से ही वो भीतर की अमीरी, भीतर की पूर्णता जान पायेंगे। आप जो भी भीतर महसूस करते हैं वही बाहर आता है। अगर आपके भीतर भय है तो आप बाहर भी भयभीत दिखेंगे। अपने भीतर कमी, गरीबी महसूस करेंगे तो बाहर भी वही पायेंगे। प्रचुरता का अहसास भीतर से लाना है। इसके लिये ध्यान करना होगा।

प्रश्न : जब गुरु पर संदेह हो तो क्या करें? इस संदेह से ऊपर कैसे उठें? संदेह को जगने से रोकें कैसे?

श्री श्री :
आपको पता है कि आपका संदेह हमेशा अच्छी बात पर होता है? आप सच पर संदेह करते हो, झूठ पर कभी संदेह नहीं करते। आप खुशी पर संदेह करते हैं, अवसाद(depression) पर नहीं। अगर आप अवसाद में हो, और आपसे कोई पूछे, "क्या आप अवसाद में हो?" आपको विश्वास होता है कि आप दुखी हो। आप ये नहीं कहते, "शायद।" जब आप खुश होते हैं तो कहते हैं, "मुझे पक्का पता नहीं है कि मैं खुश हूं या नहीं।" हम प्रेम पर संदेह करते हैं। जब कोई कहता है, "मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं।" तो आप कहते हैं, "सच?" अगर कोई कहे, "मैं तुमसे नफ़रत करता हूं।" आप कभी नहीं पूछते, "सच?" हमारा संदेह हमेशा किसी सकरात्मक बात पर होता है। संदेह तो आते हैं, जाते हैं। और संदेह करो। मैं नहीं कहूंगा कि संदेह मत करो। जितना ज़्यादा हो सके, संदेह करो। मैं आपको बताता हूं, संदेह अपने आप छूट जाता है। संदेह टिक नहीं सकता। एक गुरु तो शिष्य को संदेह करने के लिये प्रोत्साहित करेगा। गुरु संदेह को नहीं मिटायेगा। गुरु का काम है संदेह को बढ़ाना ताकि आप खूब पक जाओ और एकदम ठोस हो जाओ। क्योंकि, आज नहीं तो कल आपको संदेह होगा ही। तो बेहतर है कि आज ही संदेह कर लो। जितना हो सके संदेह करो। एक ही संदेह बार बार नहीं आता। अलग अलग संदेह उठते हैं। जब संदेह आये तो उससे कतराओ नहीं। उसके साथ रहो। एक समय आयेगा जब आप बिलकुल ठोस हो जाओगे। इससे आप पहले से ज़्यादा मज़बूत, शक्तिवान, केन्द्रित और ज़िम्मेदार बनोगे। मैं कहूंगा, गुरु के बारे में संदेह हुआ है, आने दो। उस संदेह के साथ पको। संदेह एक ऐसा ईधन है जो मन को पका सकता है। आप देखोगे कि आप संदेह से ज़्यादा ताकतवर हो। आपका विश्वास, आपका सौंदर्य, आपका सच, किसी भी संदेह से सौ गुना ज़्यादा शक्तिशाली है। विश्वास सूरज के समान है। संदेह बादल के समान है। कितने भी बादल हों, सूरज को ज़्यादा देर तक नहीं ढक सकते। संदेह के बादल आते हैं, जाते हैं। हां, किसी किसी दिन बादल ज़्यादा देर रह सकते हैं। उसे रहने दो। अंततः सूरज फिर चमकेगा।

प्रश्न : गुरुजी, मुझे नई नौकरी मिली है, जिससे कि मुझे आर्थिक और सामाजिक प्रतिष्ठा मिली है। ये अच्छा है। काम का वातावरण प्रदूषित है। मेरे साथ काम करने वाले भी मुझ में अवसाद और झूठ का ज़हर घोलते हैं। फिर भी मैं अपने काम को सौ प्रतिशत करता हूं और एक अच्छी मिसाल देता हूं। पर मुझे लगता है कि ये स्थिति मेरे लिये अच्छी नहीं है। आप क्या सुझाव देंगे?

श्री श्री :
ऐसी स्थिति में तुम अपने आप को रेगिस्तान में एक छोटे जल के स्रोत की तरह जानो। सोचो, अगर रेगिस्तान से वो भी गायब हो जाये तो लोग कैसे जियेंगे? तुम्हारा वहां होना लोगों पर एक अच्छा प्रभाव डालता है। ऐसे ही अच्छा प्रभाव डालते रहो और देखो कि उसी माहौल में क्या तुम अपने जैसे एक, दो, तीन या चार व्यक्ति बना सकते हो। माहौल बदल सकता है। तुम में वो शक्ति है कि तुम अपने माहौल को बदल सकते हो।
व्यवसायिक माहौल से आये तुम्हारे जैसे लोगों की मांग पर हमने एक कोर्स बनाया है। इसे हम APEX कोर्स कहते हैं। वर्ल्ड बैंक और कई और संस्थान इसे कर रहे हैं और उपयोगी पा रहे हैं।

प्रश्न : गुरुजी, मुझे ऐसा लगने लगा है कि अब आपके पास आना मेरे लिये एक अह्म की बात हो गया है। मैं आपके पास इस आशा से आने लगा हूं कि आप मुझसे कुछ कहेंगे, मुझ पर ध्यान देंगे, ना कि इसलिये कि मैं आपसे गहरा प्रेम करता हूं, या आपका शुक्रगुज़ार हूं। मैं पहले जैसे प्रेम और शुक्राने का भाव चाहता हूं। मै उसी भाव से आपकी सेवा करना चाहता हूं।

श्री श्री :
तुम्हें पता है, भावनायें तो बादलों जैसी होती हैं! सागर की सतह पर लहरों की तरह भावनायें उठती हैं, आती हैं, जाती हैं। ये बदलती हैं। हमें अपनी भावनाओं के आधार पर ज़्यादा नहीं रहना चाहिये। क्या तुम समझ रहे हो? जीवन committment से चलता है, ना कि सिर्फ़ भावनाओं से। प्रेम एक उपहार है। तुम किसी को प्रेम मह्सूस करने के लिये बाध्य नहीं कर सकते। तुम प्रेम में डूबना चाहते हो, यह इच्छा ही प्रेम में डूबनें में रुकावट डालती है। विश्राम करो। भक्ति-सूत्र में इस बारे में मैने बताया है। जब तुम प्रेम चाहते हो, यह इच्छा ही प्रेम के प्रागट्य में देरी का कारण बनती है। प्रेम महसूस करने का प्रयत्न छोड़ दो, विश्राम करो। तुम पाओगे कि तुम्हारा स्वरूप ही प्रेम है। प्रेम तो हमेशा है। प्रेम प्रकट होगा जब उसके प्रकट होने की आवश्यक्ता होगी। जैसे सूरज हर समय चमकता है, पर अपने समय से ही हमारे लिये दिन में प्रकट होता है।
सूरज चौबीसों घंटे है, पर हर समय हमें दिखता नहीं है। किसी अन्य स्थान पर तो वो है!
वैसे ही, जीवन की सभी सुन्दर भावनायें तुम्हारे पास हमेशा हैं, पर तुम उन्हें ज़बरदस्ती प्रकट नहीं कर सकते। वो जीवन में अलग अलग समय में प्रकट होती रहती हैं। इसलिये तुम विश्राम करो, और सहज रूप में जब वो सुन्दर भावनायें आये तो आने दो।

प्रश्न : कभी कभी मुझे बहुत गुस्सा आता है, जैसे कोई भूत मेरे अंदर घुस गया हो। मैं इस गुस्से से कैसे छुटकारा पाऊं?

श्री श्री :
अंदर कोई भूत नहीं है! ना। अगर कोई तुमसे ऐसा कहता है, तो उसकी बात ना सुनो। समझे? तुम पवित्र प्रकाश हो। प्रकाश से तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम्हे सिर्फ़ जागने की ज़रूरत है। थोड़ा और मौन, थोड़ा और ध्यान...। शरीर और मन में हो रहे स्पंदन के प्रति जागरूक हो जाओ। हां? ऐसे ही, गुस्से की एक लहर आती है, फिर शांत हो जाती है। थोड़ा समय लगेगा फिर गुस्से की लहर उठेगी ही नहीं। जैसे जैसे वैराग्य बढे़गा, हम केन्द्रित होंगे, वैसे वैसे गुस्सा कम होता जायेगा।
गुस्से का कारण है उत्तमता की चाह। उत्तमता की इच्छा ही क्रोध का कारण है। इच्छा हमारे में क्रोध लाती है। जब तुम दृष्टा हो कर ये देखते हो, इच्छा शांत हो जाती है। तुम अंदर से लचीले हो जाते हो। तुम अंदर से खिल जाते हो। तुम पाओगे कि बहुत कम स्थितियां ऐसी आयेंगी कि तुम्हें गुस्सा आये। कभी कभी गुस्सा होने में कोई हर्ज नहीं है।

प्रश्न : मैं मनोरोग चिकित्सक बनना चाहता हूं। पर आध्यात्म में आने से मुझे अब यह लगता है कि पाश्चात्य मनोविग्यान पूर्ण नहीं है। मैं पूर्व और पश्चिम के मनोविग्यान का समन्वय कैसे कर सकता हूं?

श्री श्री :
हां, ज़रूर! तुम्हे ये करना चाहिये। पाश्चात्य मनोविज्ञान में व्यवहार का संबन्ध मन पर पडी़ छाप और मानसिक रसायनों के मुताबिक बताया जाता है। जबकि पूर्व का मनोविज्ञान चेतना का अध्ययन करता है। अगर तुम इन दोनों को ही पढ़ो तो अच्छा होगा। तुम पूर्व का मनोविज्ञान पढ़ो, फिर पश्चिम का मनोविज्ञान पढ़ना, ताकि तुम उन्हें समझा सको कि पूर्व का मनोविज्ञान क्या कहता है। क्योंकि, पूर्व का मनोविज्ञान कालांतर में परीक्षित हो चुका है। ये पुरातन है। दस हज़ार सालों से ये प्रयोग में लाया जा रहा है। ये काम तुम्हें बड़ा रुचिकर लगेगा। जैसे कि, अगर तुम प्रेम को ही लो, और जानों कि पूर्व और पश्चिम के मनोविज्ञान में प्रेम के बारे में क्या कहा है। ये बहुत रुचिकर है।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, वेद कितने पुराने हैं? क्या सभी वेद आज भी हमारे पास हैं? मैनें सुना है कि उस ज्ञान का कुछ हिस्सा लुप्त हो गया है।

श्री श्री :
तुम सही कह रहे हो! चार मुख्य वेद हैं। वेद का अर्थ है कविता, वो शब्द जो ऋषि मुनियों ने गहरे ध्यान की अवस्था में सुने। उन्होनें जो अनुभव किया अपने शिष्यों को शब्दों में बताया। ये शब्द सत्य के स्वरूप को दर्शाते हैं। इन्हें ब्रह्मांडीय चेतना से download किया गया है। उन दिनों में भी download करने की प्रकिया थी। ये प्रकिया है -- आंखे बन्द करो, ध्यान करो। ध्यान में जो तुम्हें ज्ञात हो, click कर के उसे download करो। Surfing! Surfing around and downloading. तो इस तरह वेदों को download किया गया। ऋषि का अर्थ है, जिसने देखा, या जिसने सुना। ऐसे एक हज़ार से भी अधिक ऋषि रहे। उन्होंने अपने आप नहीं लिखा। उन्होंने अपने शिष्यों को सुनाया, और शिष्यों ने कालांतर में अपने शिष्यों को सुनाया। बहुत लंबे समय तक ये ज्ञान ऐसे ही मौखिक रूप में प्रसारित होता रहा।
इसलिये इस ज्ञान का नाम हो गया श्रुति। मूलतः वेदों को चार भाग में बांटा गया। ऋगवेद में मूलतः २१ शाखायें थी, पर अब केवल ३ ही प्राप्त हैं। इसी प्रकार, सामवेद में हज़ारों ऋचायें थी, कई शाखायें थी। पर अब केवल ३ ही प्राप्त हैं। बाकी सब लुप्त हो गया। मध्य काल में जब भारत पर कई आक्रमन हुये तो वेद के वो सभी हिस्से लुप्त हो गये।

प्रश्न : किस वेद में चिकित्सा संबंधी जानकारी है?

श्री श्री :
उसे आयुर्वेद कहते हैं। ये चारों वेदों की उपशाखा है। आयुर्वेद, ऋगवेद और अथर्वेद - पहले और आखिरी, दोनों ही वेदों से संबंधित है। इसीलिये, आयुर्वेद की सभी कथायें बड़ी सुन्दर हैं। कहा जाता है कि एक साथ में एक हज़ार ऋषि बैठ कर ध्यान कर रहे थे तभी एक ने भारद्वाज ऋषि से कहा, "तुम जागते रहो। हम सब ध्यान में जा रहें हैं। गहरे ध्यान में जो ज्ञान हमें प्राप्त होगा उसे हम बतायेंगे। उस समय उस ज्ञान को लिखने के लिये तो कोई होना चाहिये।" इस तरह महर्षि भारद्वाज ने एक एक ऋषि के पास जाकर इस ज्ञान को संग्रहित किया। इस तरह से आयुर्वेद की किताबें लिखी गई। इसलिये इतने हज़ारों वषों बाद भी आयुर्वेद आज भी माइने रखता है। यह Materia medica है। इसमें लिखा है किस वनस्पति का शरीर के किस भाग पर क्या प्रभाव पड़ता है। इस में स्वास्थ्य सें संबन्धित पूरी जानकारी है, क्या करना, क्या नहीं करना, शरीर की कार्य प्रणाली, औषधि...
भारत पर अंग्रेज़ों के राज के समय अंग्रेज़ी शासन के प्रतिनिधि ने इंगलैंड की महारानी विक्टोरिआ को पत्र में लिखा, "यहां भारत में आकर लोगों को प्लास्तिक सर्जरी का अध्ययन करना चाहिये। नाक को कैसे सुन्दर बनायें, त्वचा को, पैरों को...।"
ये आश्चर्यजनक बात है कि जब इंगलैंड में ज्ञान शून्य या नहीं के बराबर था, उसी समय भी भारत में ज्ञान कितना समृद्ध था!

लौर्ड मकौले ने पार्लियामेन्ट में अपना मत रखा, " अगर भारत पर राज करना हो, तो सर्वप्रथम भारत के आध्यात्म को मिटाना होगा।" मकौले के वक्तव्य पर बहुत कुछ कहा जा चुका है। मकौले ने ये भी कहा," मैनें भारत में पूरे देश में भ्रमण किया और पाया कि यहां कोई भिखारी नहीं है, कोई दरिद्र नहीं है। यहां के लोग विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र के बारे में बहुत अच्छी जानकारी रखते हैं। केवल दक्षिण भारत में ही ८८,००० चिकित्सा संस्थान हैं।" तो, अंग्रेज़ों ने योजनाबद्ध तरीके से चिकित्सा संस्थानों को बन्द किया। सभी शास्त्र संस्कृत भाषा में थे, इसलिये सभी संस्कृत विद्यालयों को बन्द किया ताकि अगली पीढ़ियों तक ये ज्ञान ना पहंच सके। ऐसा ही हुआ।
मकौले ने एक विस्तृत अध्य्यन प्रस्तुत किया था कि भारत पर कैसे राज किया जा सकता है। ये सब तो अब इतिहास है। मैं ये कह रहा हूं कि आयुर्वेद का ज्ञान आज भी बहुत कार्यकारी है। आज भी आयुर्वेद एक विज्ञान है। हालांकि आयुर्वेद के कई शास्त्र अब लुप्त हो चुके हैं, क्योंकि उन्हें जला दिया गया था।
एक समय भारत में एक सनकी राजा हुआ, औरंगज़ेब। अपने पिता को जेल में डाल कर उसने राजगद्दी को हथिया लिया था। औरंज़ेब ने भारत में नालंदा जैसे ज्ञान के भंडारों में आग लगवा दी। इतिहास में ऐसा कहा है कि नालंदा के पुस्तकालय की पुस्तकें छ: महीनों तक जलती रही। नालंदा के पुस्तकालय में हज़ारों वर्षों से ज्ञान संग्रहित था - बौद्ध, सनातन, जैन एवं सिख दर्शन शास्त्र यहां थे। चिकित्सा शास्त्र, पुरातन शास्त्र, ज्योतिष, धातु-शोधन, निर्माण, विज्ञान...सभी विषयों पर पुस्तकें थी। सब जला दी गई। जो कुछ भी लोग बचा सके और कंठस्थ कर सके वही बच पाया। ये सब इतिहास है।

प्रश्न : मुस्लिम देशों में सोहम शब्द को लेकर कुछ प्रतिरोध है। कुछ नये अध्यापक भी इस गिनती में आते हैं। किसी ने इन्टर्नेट पर सोहम का अनुवाद पाया, "मैं भगवान हूं।" ये मान्यता इस्लाम के मुताबिक सही नहीं है। क्या आप सोहम शब्द का अर्थ और प्रयोजन बतायेंगे?

श्री श्री :
सोहम हमारी सांस की स्वाभाविक ध्वनि है। जब तुम सांस बाहर छोड़ते हो, तो स्वाभाविक आवाज़ आती है, हं। इसे तुम उल्टा कर के देखो तो शब्द का अर्थ हुआ, जो ऊपर उठाये, तैराये, विवेक लाये। वो चेतना जो सही और ग़लत में फ़र्क दिखाये, नित्य और अनित्य का अंतर बताये, सुन्दर और कुरूप में अंतर दिखाये - चेतना।
सोहम का अर्थ, "मैं भगवान हूं," नहीं है। सोहम का अर्थ है, "मैं वही हूं।" ‘वही’ क्या है? ‘वही’ प्रेम है। ‘वही’ सत्य है। ‘वही’ सुन्दर आकाश है। ‘वही’ मैं असल में हूं। पहले मुझे विचार आता है कि मै केवल विचार हूं, भाव हूं, मन हूं। लेकिन यथार्थ अनुभूति में जानते है कि, "मैं विचार नहीं हूं। मैं शरीर नहीं हूं। मैं ‘वही’ हूं। ‘वही’ क्या है? ये अनुभूति शब्द के परे है। वह सत्य समझ से परे है। वह सुन्दरता कल्पना से परे है।वह सत्य जिसे तुम पूरी तरह समझ नहीं सकते। मैं ‘वही’ प्रेम हूं। और अगर प्रेम ही ईश्वर है, और ईश्वर ही प्रेम है, और मैं प्रेम हूं, तो मैं भी ईश्वर हूं। जीसस ने कहा है, "प्रेम ही परमात्मा है।" और कहा, "मैं प्रेम हूं!मैं वही हूं! मैं हूं!" ऐसा बाइबल में भी कहा है। तुम भी वही हो। पर अर्थ इतना महत्व का नहीं है जितना का कि सोहम शब्द का स्पंदन। सोहम शब्द का ब्रह्माण्ड में एक निश्चित स्पंदन होता है जो कि हमें खिलने में सहायता करता है। यही इसका प्रयोजन है।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, आपके साथ यहां बैठ कर मैं आज ये जान रहा हूं कि जीवन में अभी तक के मेरे जो अनुभव रहे वो ज़रूरी थे ताकि मैं वो अनुभव कर सकूं जो आज कर रहा हूं...पूर्णता, प्रेम, आभार, उत्साह, प्रेरणा। ये सिर्फ़ इसलिये सम्भव हुआ है क्योंकि आपने इतना कुछ दिया है इस दुनिया में। क्या गुरु की शक्ति इस बात में निहित है कि वे एक पिता के रूप में हमारे उन ज़ख्मों को भरते हैं जो कि हमारे अस्ली पिता से हमें मिले हों?

श्री श्री :
ज़ख्मों को भरने की ज़रूरत है। ज़ख्म भरना मुख्य है। रिश्ते को तुम जो भी नाम दो इतना महत्व नहीं रखता। संसार को नये नज़रिये से देखो। जिस किसी ने तुम्हे कभी दुख पंहुचाया हो, ये जान लो कि उन्होनें ऐसा इसलिये किया क्योंकि उन्हें ज्ञान नहीं था। वे आध्यात्मिक ज्ञान से वंचित थे, इसीलिये ऐसा व्यवहार कर रहे थे। उनके हाथों में हथकड़ी थी। उनकी आंखों पर पट्टी थी। वे स्वयं विपत्ति-ग्रस्त थे, शिकार थे। उन्हें इस दृष्टि से देखो तो तुम्हें उनसे सहानुभूति होगी, और अपने जीवन में तुम्हें जो मिला है उस कृपा को महसूस कर सकोगे। हां?

प्रश्न : कृपया ये समझाइये कि हम जो महसूस कर रहे हैं उसके लिये हम कैसे ज़िम्मेदार है? जैसे कि, एक सुन्दर लड़की देखी तो मन में एक विचार आया, फिर सुख की अनुभूति हुई।

श्री श्री :
शायद तुम भूल रहे हो, जब तुम पांच, छ:, सात या आठ साल के थे, तब तुम्हें सुन्दर लड़की आकर्षित नहीं करती थी। तब तुम सुन्दर भोजन से आकृष्ट होते थे! मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। इस में तीन पीढ़ी के लोग, पिता, पुत्र और दादा, एक साथ छुट्टी मनाने गये। परिवार का सबसे छोटा सदस्य खुश हो गया, उसे बढि़या भोजन जो मिला। उसके पिता खुश थे, कैम्प में मौजूद सुन्दर सुन्दर लड़कियां देख कर। दादाजी बोले, "मुझे यहां बहुत आराम मिला! कितना अच्छा हुआ हम छुट्टी मनाने यहां आये! आज मेरा पेट अच्छी तरह साफ़ हुआ। ऐसा कभी नहीं हुआ! कितना अच्छा लग रहा है!" और वे आगे बोले, "तुम दोनों कितनी बचकानी बातें कर रहे हो! ये भोजन से खुश हो और तुम सुन्दर लड़कियां देख कर खुश हो! मेरी उम्र में आओगे तो असली खुशी जानोगे।" किसी बुज़ुर्ग का पेट ठीक से साफ़ हो जाये, या उन्हें अच्छी नींद आ जाये, उनके लिये ये स्वर्ग के सुख जैसा है। अभी कुछ समय और रुको तो जानोगे कि जीवन में और अधिक सुंदर क्या है।

प्रश्न : प्रिय गुरुजी, आज जब विडियो में चक्रों की ऊर्जा के बारें में बात हो रही थी, तो मन में एक प्रश्न आया। मैं अपने दूसरे चक्र में लगातार ऊर्जा का अनुभव करता हूं, पर मुझे sex में रुचि नहीं है। Sex के बाद मैं थकावट और तमस महसूस करता हूं। पर दूसरी ओर, मेरी सृजनात्मक शक्ति उजागर नहीं हो पा रही है। मैं सृजन करना चाहता हूं, लिखना चाहता हूं, गाना चाहता हूं, नाचना चाहता हूं। मेरा मार्गदर्शन कीजिये कि मैं मेरी सृजनात्मक शक्ति जागृत हो।

श्री श्री :
हां, ध्यान करते रहो। अगर कोई एक चक्र बहुत ज़्यादा प्रयोग में रहा हो, तो स्वतः वहां ज़्यादा ऊर्जा जाती है। ऊर्जा चलती रहेगी। निश्चित रूप से चलती रहेगी। तुम नाभि चक्र पर ज़्यादा ध्यान केन्द्रित करो और फिर नाचो, गाओ। नृत्य और गायन तो हमारी साधना पद्दति में है ही। ये कई तरह से तुम्हें ऊपर उठाता है।


art of living TV

© The Art of Living Foundation For Global Spirituality