"खुशी के स्रोत आपके भीतर है"

बैंगलोर आश्रम, भारत
०५.०१.२०१०

प्रेम सभी जगह उपस्थित है। बुद्धिमान व्यक्ति प्रेम को विकृत होने से बचा लेते हैं। प्रेम विकृत हो जाये तो लालच, ईर्ष्या, भय और घृणा का रूप ले लेता है।
जब व्यक्ति आसक्त हो जाता है, तो मोह का जन्म होता है - obsession.
हर भावना का स्रोत प्रेम ही है। भावना चाहे सकरात्मक हो या नकरात्मक। प्रेम कि बिना उसका अस्तित्व ही संभव नहीं है। हमें प्रेम चाहिए। ऐसा प्रेम जिसमें दुख ना हो, जो सुख और शांति लाए। पवित्र प्रेम ही आनंद बन जाता है। आध्यात्म का मार्ग, प्रेम को लालच से दूर रखता है और तुम्हें आनन्द और सुख की ओर ले जाता है। यही इन क्रियाओं की उपयोगिता है।

प्रश्न : गुरुजी, क्या आप शब्दों की उपयोगिता के बारे में बताएंगे?

श्री श्री रवि शंकर :
विचार शक्ति में बहुत सामर्थ्य है। जब तुम असमंजस में होते हो तो तुम्हारे शब्दों का दूसरों पर खास प्रभाव नहीं पड़ता। तुम्हारी सोच जितनी स्पष्ट होगी, तुम्हारे शब्दों को उतनी ही शक्ति मिलेगी। अगर तुम दुविधा में हो तो तुम्हारे शब्द भी कमज़ोर होंगे। प्राणायाम और ध्यान करने से मन स्वच्छ होता है। जो विचार उस स्वच्छ मन से आते हैं वो भी सीधे और स्पष्ट होते हैं। एक संतुष्ट व्यक्ति के शब्दों में भी ताक़त होती है।
भारत में बड़ों से आशीर्वाद लेने की प्रथा है। हम ये मानते हैं कि उनका मन शांत होता है। जब उस शांत मन से आशीर्वाद देते हैं तो उस आशीर्वाद में बहुत शक्ति होती है। विवाह हेतु निमंत्रण पत्र में परिवार के सबसे बड़े व्यक्ति का आशीर्वाद लिया जाता है। ऐसी ही प्रथा उत्तर अमरीका, आस्ट्रेलिया, और न्यूज़ीलैन्ड के मूल निवासियों में भी है। पूरी दुनिया में पुरानी सभ्यताओं में बड़ों के सम्मान की प्रथा रही है। सम्मान के बिना, ५० वर्ष से अधिक उम्र के लोग भी अब अवसाद और तनाव की ओर जा रहे हैं। इसे बदलना होगा । माता पिता भी आनंदित और उत्साहपूर्ण होने चाहिए उम्र के साथ साथ प्रसन्न्ता भी बढ़ती रहनी चाहिए।

प्रश्न : सेवा की ज़िम्मेदारी लेने पर उसको अच्छे से पूरा करने की चिन्ता महसूस होती है। मुझे क्या करना चाहिए?

श्री श्री रवि शंकर :
उतना करो, जितना के कर सकते हो। अपनी क्षमता को धीरे धीरे बढ़ाओ। इस तरह से हमें खुद को एक नई दिशा देनी है।
समाज में होने वाली घटनाओं का फ़र्क न पड़ना, याँ शिकायत करते रहना - दोनों ही बर्ताव सही नहीं हैं। कर्म ना करना भी ठीक नहीं है, और जीवन की अंतिम घड़ी तक दूसरों में कमियां निकालते रहना भी ठीक नहीं है।

प्रश्न : हम कहते हैं कि स्थिति को स्वीकार करो। परंतु घर में अगर चोर घुस आये तो उस स्थिति को कैसे स्वीकार कर सकते हैं?

श्री श्री रवि शंकर :
जब एक चोर दरवाज़े से भीतर आता है तब तुम डर से कांपने लगते हो, सवाल करने लगते हो। चोर तुम्हारे घर चोरी करने क्यों आया, ये सवाल बेकार है! ये उसका काम है। स्वीकार कर लो कि वो एक चोर है। और फिर कोई कदम उठाओ।
अगर कोई तुम्हें धोखा देता है तो तुम इस बात को लेकर उलझ जाते हो कि, "मुझे धोखा क्यों दिया?" तुम परेशान हो जाते हो, और काम नहीं कर सकते। जब तुम चोर को स्वीकार करते हो तब तुम आगे काम करते हो, पुलिस को बुलाते हो, इत्यादि।
माता पिता चिंतित रह्ते हैं, "मेरा बच्चा पढ़ता नहीं है।" स्वीकार कर लो, तब तुम सही कदम उठा पाओगे। जब तक आप स्वीकार नहीं करते, भावनायें ऊठी रहती हैं और बुद्धि में स्पष्टता नहीं आ पाती। ऐसे में लिए हुए कदम पर पछताना पड़ता है।

प्रश्न : आपदा पीड़ित (डिसास्टर विक्टिम्स) व्यक्तियों को ध्यान से क्या लाभ है?

श्री श्री रवि शंकर :
ध्यान से गहन पीड़ा से हुये मानसिक घाव भर जाते हैं। परामर्श से केवल मन की ऊपरी सतह का इलाज संभव है। आनंद का स्रोत हमारे भीतर है। घटनायें स्थायी नहीं होती। ध्यान मन पर किसी घटना की छाप नहीं पड़ने देता। अपने मन को शीशे की तरह साफ़ रखना, यही योग और ध्यान का कार्य है।

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