०९
२०१२
अक्तूबर
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बैंगलुरु आश्रम, भारत
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प्रश्न : गुरुदेव! उपनिषदों में हमें अक्सर समित-पाणि (गुरु को सूखी डंडियाँ देने की प्रथा) का ज़िक्र मिलता है| गुरुदेव, कृपया बताएं कि इसका क्या महत्व है?
श्री श्री रविशंकर : समित वो लकड़ी होती है जो आग पकड़ने के लिए एकदम तैयार होती है, यहाँ ये तैयार होने का सूचक है अर्थात जब आपको ज्ञान दिया जाता है आप उसे ग्रहण कर सकें, समझ सकें| समित-पाणि के बहुत से अर्थ हैं, एक है, सजग होना,दूसरा है कि १००% देने को तैयार रहना| आप जानते हैं, समित वो लकड़ी है जिसे जब अग्नि में डाला जाता है तब वो पूरी तरह से जल जाती है और कुछ भी शेष नहीं बचता| तो समित पाणि का अर्थ है कि ज्ञान को समझने के लिए पूरी तरह से तैयार रहो, उसको समझो, उसको जियो, अपनी तरफ से १००% दो|
समित का अर्थ गुरु के पास स्थिरता से जाना भी होता है, एक विद्यार्थी को कुछ सहनशीलता और धैर्य रखना भी ज़रूरी होता है, अगर विद्यार्थी थोड़ी सी कठिनाई से डर के चला जाता है तो वो कभी कुछ सीख नहीं पायेगा, अक्सर ऐसा होता है कि इंजीनियरिंग कॉलेज और मेडिकल कॉलेज के छात्र सिर्फ यूँ ही पल्ला झाड के वहां से चले जाना चाहते हैं, ऐसा आपके साथ भी हुआ है न! कितने मेडिकल कॉलेज और इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों को ऐसा महसूस हुआ है? ऐसा इसलिए क्योंकि ये बहुत कठिन प्रतीत होता है लेकिन आपको इस से गुज़ारना होता है, इस कठिन वक़्त से आपको गुज़ारना ही होता है| समित पाणि का अर्थ धैर्य और सहनशीलता भी होता है| पूर्व समय में ऐसा कहा जाता था कि गुरु के पास कभी ख़ाली हाथ नहीं जाना चाहिए, कुछ लेकर जाना चाहिए| गुरु आपको ज्ञान देता है और आप उन्हें उसके बदले एक छोटी लकड़ी दे सकते हैं, कुछ न कुछ बदले में अवश्य देना चाहिए क्योंकि ज्ञान आदान प्रदान के साथ फैलता है, कुछ प्राप्त किया जाता है और कुछ दिया जाता है|
तो इस तरह से समित-पाणि के बहुत से अर्थ हैं, अध्यन के लिए पूर्ण उत्साह, जोश और लगन के साथ जाना चाहिए किसी भी तरह की कठिनाई झेलने को तैयार रहना चाहिए| एक कहावत है, "अगर आप विद्यर्थी है तो आपके लिए कोई सुख नहीं है और अगर आप सुखों के पीछे भागने वाले हैं तो आपके लिए कोई ज्ञान नहीं है", तो एक विद्यार्थी को कठिनाइयों से गुज़ारना ही पड़ता है| इसका अर्थ है कि अगर आप केवल सुख के पुजारी हैं तो आप पढने वाले लोगो में से नहीं हैं| अंग्रेजी में studious शब्द का अर्थ है अधिक ध्यान देना और सुख या इच्छा के पीछे नहीं भागना बल्कि अपने आरामदायक स्तिथि से बाहर निकलना|
प्रश्न : गुरुदेव, अक्सर पुराणों में कहा जाता है की इंद्र ने कुछ पाप किया हमने कभी अग्नि, वायु, वरुण या किसी और देवता को पाप करते हुए नहीं सुना, इसके पीछे भी कुछ महत्वपूर्ण बात या सीख होगी, जैसे गणेश जी की कथा से मिलती है,कृपया इसका आध्यात्मिक महत्त्व बताएं|
श्री श्री रविशंकर : इंद्र एक सामूहिक मानसिकता है, हम सामूहिक वृत्ति को क्या कहते हैं? एक समूह की अपनी कुछ सोच होती है, इस सामूहिक सोच को इंद्र कहते हैं| कहते हैं की इंद्र की एक हज़ार आँखें थी, इसका ये अर्थ नहीं की किसी के सारे शरीर पर १००० आँखें थी, इसका अर्थ ये है कि 500 लोगों की एक समूह था, एक भीड़ थी| ये समूह ने एक चेतना जागृत की, एक सोच बनायीं, जिसका नाम इंद्र है| इसीलिए जब कोई विद्वान व्यक्ति पैदा होता है तब इंद्र को ये पसंद नहीं आता क्योंकि सामूहिक सोच उसको अपना नहीं पाती| एक विद्वान् एवं जागरूक व्यक्ति सामूहिक मानसिकता को उभरने नहीं देता, आप समझ रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूँ| वो लोगो के दिमाग में बुद्धि डालता है, वो हर एक को कहता है कि अपने खुद के दिमाग से सोचो, जागो, हर एक व्यक्ति अपने दिमाग से सोचो| इसीलिए जब भी कोई ऋषि या साधू समाधी में बैठे हैं, इंद्र को डर लगने लगता है| ये सामूहिक सोच, मानसिकता ये इंद्र कहलाती है, इंद्र कोई वहां आसमान या स्वर्ग में बैठा व्यक्ति नहीं है, वो तो यहाँ ही है| जैसे हम सब के पास ५ तत्व; धरती, जल, वायु, अग्नि एवं आकाश होते हैं ऐसे ही इंद्र में भी होता है| सामूहिक मानसिकता के साथ अक्सर ऐसा ही होता है, कोई कहता है कि हमारे नेता का अपमान हो गया और बस सारी भीड़ उग्र हो जाती है, बसें जलने लगती है, मूर्तियाँ टूटती है, आदि| वो बिना सोचे समझे बस आगे बढती जाती है, वो उपद्रव मचाती है, लोगों को नुक्सान पहुंचाती है, जीवन और सामान को नष्ट करती है| है न! तो ये सामूहिक मानसिकता है| ये वहां नहीं टिक सकती जहाँ ज्ञान होता है, बुद्धि होती है, जागरूकता होती है|
प्रश्न : ऐसा क्यों है कि बहुत से विद्वत्त गुरुओं को, जिन्होंने बहुत से लोगों को ठीक किया, उन्हें खुद बहुत तकलीफ से गुज़ारना पड़ा?
श्री श्री रविशंकर : देखिये, आत्मा या बुद्धि को कोई तकलीफ नहीं होती, ये सिर्फ शरीर है जिसकी अपनी कुछ सीमाएं होती हैं इसलिए अगर आप शरीर को बहुत ज्यादा फैलायेंगे तो सीधी सी बात है कि उसको अपनी दिनचर्या से गुज़ारना ही होगा, इसलिए शरीर को खांसी-जुकाम होगा, ये सब बीमारियाँ आएँगी| एक संत का शरीर श्रद्धा, प्यार और विश्वास से बना हुआ होता है, तो जब विश्वास और प्यार टूटता है तो शरीर पर भी प्रभाव आता है, ऐसा कहा जाता है कि पुराने समय में संत और विद्वान उन लोगो को दुर्वचन कहते थे जो उनके बहुत क़रीब होते थे, ऐसा इसलिए किया जाता था क्योंकि जब किसी प्रकार की बुरी भावनाएं या क्रोध उन व्यक्तियों में उभरता था जो उनके क़रीब होते थे, उसका असर उन संतों पर भी पड़ता था|
उदाहरण के लिए, एक ब्यक्ति जो घर में बैठा हुआ उत्पात मचा रहा है, वो आपको ज्यादा नुक्सान पहुंचाएगा बजाय उस के जो बाहर उत्पात मचा रहा है, जैसे कि जो कचरा बाहर सड़क पर है उस से आपको उतना फर्क नहीं पड़ेगा जितना कि घर के अंदर के कचरे से| ऐसा होता है न! इसी तरह ये भी है| इसलिए ही कहा जाता है कि चरित्र की शक्ति बहुत आवश्यक है, हर एक के पास षत संपत्ति (६ संपत्ति, या ६ प्रकार के गुण) होनी चाहिए :
१. साम (मन की शांति)
२. दाम (आत्मसंयम)
३. उपरति (संतृप्ति)
४. तितिक्षा (सहनशीलता)
५. श्रद्धा (विश्वास) और
६. समाधान (मन की एकाग्रता)
जब तक व्यक्ति के पास ये ६ धन नहीं होते, वो मुमुक्षु (जिसे मोक्ष की इच्छा हो) नहीं बनता और जब तक वो मुमुक्षु नहीं बनता उसे ज्ञान नहीं दिया जाता| इसलिए मुमुक्षु बनने के लिए विवेक, वैराग्य और षट संपत्ति होनी चाहिए तभी आपको एक भक्त, छात्र, एक अनुयायी की उपाधि दी जा सकती है| वरना ये ऐसा है कि एक मूर्ख व्यक्ति को नाव में बैठा लिया जाए और अगर उसे पागलपन का दौरा चढ़ जाए या वो मूर्खो के जैसे नाचना शुरू कर दे तो वह नाव और बाकि के सब यात्री भी डूब जायेंगे|
इसीलिए बुद्ध ने भी कहा है एक शिष्य में शील, समाधी, और प्रज्ञा होनी चाहिए| उसके पास, अहिंसा, शील आदि गुण होने चाहिए, उसने समाधी की अवस्था का अनुभव किया हुआ हो तभी वो प्रज्ञावान (जिसके पास ज्ञान और बुद्धि होती है) बन सकता है|
प्रश्न : गुरुदेव आप कहते हैं कि हमें संयमशील होना चाहिए, लेकिन मैं आपके प्रति ऐसे संयम-शाली कैसे बनूँ? मैं आपसे प्रेम करता हूँ और आपके प्रति मेरा लगाव दिन प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा है|
श्री श्री रविशंकर : अगर इस लगाव की वजह से आप बेकार की बातों से हट पा रहे हो, अगर इससे आपका ध्यान केन्द्रित हो रहा हो तब तो ठीक है और अगर इसकी वजह से आपमें जलन, क्रोध लालच और इस तरफ के और नकारात्मक भाव उठने शुरू हो गए हो तो आपको खुद के उपर काम करने की आवश्यकता है| कोई भी लगाव अगर आपको ऊपर ले जाता है तब तो वो ठीक है लेकिन अगर वो आपको नीचे खींच रहा हो तब आपको ज्ञान में वापस आना चाहिए|
हम अपने किसी भी कृत्य के लिए खुद के अंदर देखना चाहिए, अगर हम किसी और पर दोषारोपण कर रहे हो तो उसका अर्थ ये है की हम उसके बिना नहीं रह सकते अधिकतर ये देखा जाता है कि अगर कोई बहुत बुरा है तब आप उससे दूर हो जाते हैं, लेकिन अगर आप उससे घृणा करने लगते हैं, तो उसका अर्थ ये है कि आपका उस से अंदर कोई गहरा सम्बन्ध है जिसकी वजह से आप उस से दूर नहीं हो पा रहे हैं| आप उनके साथ रहना चाहते हैं और इसी वजह से आप उन्हें नापसंद करने लगते हैं|
मैं बताता हूँ, ये मन बहुत पेचीदा है, जटिल है| इसीलिए मैं कहता हूँ कि आपको मनोरंजन के लिए किसी भी और माध्यम की आवश्यकता नहीं, ये मन ही पर्याप्त है आपका मनोरंजन करने को, इसमें ही सब कार्यक्रम चलते रहते हैं, जो व्यक्ति मन के इस भंवर में फँस गया हो उससे करुणा रखनी चाहिए क्रोध नहीं| ज़्यादातर आप क्या करते हैं? अगर कोई गलत है, या आपके खिलाफ है तो आप उनसे नाराज़ हो जाते हैं आपको लगता है कि उनके पास आजादी है| मैं इसका उल्टा सोचता हूँ, मुझे उन पर दया आती है क्योंकि वो बेचारे मन के इस भंवर में फँस गए हैं, उन्हें समझ ही नहीं आता कि वो क्या कर रहे हैं, और ये उनके कार्यों से साफ़ दिखता है| और ऐसे लोग अगर कहीं कुछ गलत हो रहा हो तो बहुत खुश होते हैं अगर कहीं कोई अच्छा कार्यक्रम चल रहा हो और बारिश आकर उसे खराब कर दे तो वो लोग कहते हैं, "देखो, बारिश आ गयी, यहाँ तक कि भगवान ने भी उसका साथ नहीं दिया ", वो इस बात से बहुत खुश होते हैं लेकिन ये ग़लत बात है| अगर कोई व्यक्ति अन्दर से नकारात्मक भाव में घिरा हुआ है तो वो केवल तब खुश होगा जब कहीं कुछ ग़लत हो जायेगा| ये बहुत अजीब सी बात है, इससे पता चलता है कि उस व्यक्ति का मन बीमार है, वो संसार में कहीं किसी के साथ कुछ अच्छा हो ये बर्दाश्त नहीं कर पाते| तो ऐसे व्यक्तियों के प्रति आप सिर्फ करुणा रख सकते हैं|
प्रश्न : गुरुदेव, यदि हम अपनी चप्पल खो दें,
या कोई उसे उठा कर ले जाये, तो क्या यह सच है कि वे हमारे बुरे कर्म भी ले जाता
है?
श्री श्री रविशंकर : यदि वह कीमती चप्पल थी, तो हाँ, ऐसा
सोचना ही उपयुक्त है| कम से कम आपको रात को शांत नींद तो आएगी| पर यदि वे सस्ती
चप्पलें थीं, (गुरूजी अपना सिर हिलाते हैं)
देखिये, प्रमुख विचार था लोगों को वर्तमान क्षण में रहने के लिए कहना| अतीत
में मत अटके रहिये, और उसके बारे में सोच कर इस क्षण को खराब मत करिये| जो हो
गया, वो हो गया| समाप्त| आप यातायात
अवरोध में फंसे हैं, बस| अब जब आप घर पहुँच जाते हैं, उसके बाद
दो घंटे उसके बारे में बोल कर समय न व्यर्थ कीजिये, कि कैसे आपको दूसरा रास्ता ले
लेना चाहिए था| यह बेकार की समय की खपत है| हमारे
पूर्वजों के पास इतने अच्छे उपाय होते थे, इस लिए वे आपसे कहते थे, “ओह, यह तो सितारों
के कारण तुम्हारे साथ ऐसा हो गया”| अब आप सितारों पर तो क्रोधित नहीं हो सकते| इस
लिए, आस पास के लोगों पर क्रोधित होने के बजाय आप कहते थे, “ओह, यह तो मेरे
कर्मों या सितारों के कारण हुआ है”|
तो आपको कुछ शान्ति, और स्वीकरण मिलता है, और यह आपको जीवन में बिना कड़वाहट के
आगे बढ़ने में सहायक होता है| यह भारत के बारे में बहुत खूबसूरत बात
है| भारतीय समाज में चाहे बुरी घटनाएं हों, पर हम उसके कारण
कड़वाहट नहीं रखते, और उसके बारे में शिकायत नहीं करते रहते| काश
कि सारा विश्व यह सबक सीखे|
यह हमारी संस्कृति में ही है, हमारे खून में है| यदि समाज में
कुछ बुरा होता है, हम काफी लचीले रहते हैं, उसके बारे में निरोध करे बिना आगे बढ़
जाते हैं| यह बहुत रोचक है|
आमतौर पर लोग कहते हैं, “तुमनें ५० वर्ष पहले मेरे साथ ऐसा किया था, इस लिए
तुम आज भी मेरे दुश्मन हो”| लोग यह दुश्मनी, यह वैरभाव अपने मन में और दिल में
रखे रखते हैं| पर यहां यह बहुत ही विशिष्ट बात है| हम बैर या दुश्मनी नहीं पालते|
प्रश्न : आप कहते हैं कि समाज का भ्रष्टाचार
समाज की आध्यात्मिकता से जुड़ा है| पर यह कैसे है कि पश्चिमी देशों में
जबकि आध्यात्मिकता भारत से कम है, उनमें भ्रष्टाचार भी भारत से कम है? चीन
में भी आध्यात्मिकता कम है पर फिर भी वे भारत से बहुत अच्छा कर रहे हैं यदि प्रगति
की बात करें तो|
श्री श्री रविशंकर : भारत अभी भी अपनी पहले की आध्यात्मिकता
की झलक पर जिंदा है| जैसे रसोई में खाने की गंध है पर
बर्तनों में खाना नहीं है| आप रसोई में घुसते हैं और वहां बज्जी
और बोंडे की खुशबू आ रही है, पर ये मत सोचिये की बर्तनों में अभी भी बोंडे हैं|
तो यह भारत के पास अपने अतीत से है| वे बहुत बोंडे
बनाते थे और सब खाते थे| भारत आध्यात्मिकता के बहुत ऊंचे स्तर
पर था| पर आज और पिछले २० वर्षों से, समाज गैर ज़िम्मेदारी
के बहुत ही निचले स्तर तक गिर गया है और अपनत्व एवं सत्यनिष्ठा की कमी हो गई है,
खासकर राजनीति में और इसका प्रभाव देश पर पड़ रहा है|
आम आदमी चाहे बहुत ईमानदार हो, पर जब नेतृत्व ईमानदार नहीं है, तो समाज में
भ्रष्टाचार रिसने लगता है| एक कहावत है, “यथा रजा, तथा
प्रजा”| यह “यथा प्रजा, तथा
राजा” नहीं
है| ऊपर से नीचे प्रवाह होता है| यदि ऊपर
भ्रष्टाचार है, तो वह रिसने लगता है| कम से कम भारत
अभी अखंड है| यह इसलिए क्योंकि कुछ आध्यात्मिकता का भाव है जिसने
चीज़ों को संभाल कर और लोगों को जोड़ कर रखा है| नहीं तो भारत
के बहुत पहले टुकड़े हो गए होते|
प्रश्न : गुरुदेव, आध्यात्म के मार्ग पर चलने
के लिए क्या हमें अच्छा स्वाभाव विकसित करने के लिए प्रयत्न करना पड़ेगा, जैसे
सहजता, सादगी? या ये अपने आप बन जाते है?
श्री श्री रविशंकर : नहीं, व्यक्ति को अच्छे गुण विकसित
करने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता| सद्गुण स्वयं
ही अपने में पनप उठते हैं| ठीक वैसे ही जैसे एक कली अपने आप फूल
बन जाती है, वैसे ही सद्गुण स्वाभाविक रूप से आप में आ जाते हैं| आपको
बस ऊपर से ढक्कन उठाना है| देखिये, यदि आप कली पर एक ढक्कन रख
दें, तो क्या वो खिल पायेगी? आपको वो ढक्कन हटाना है और फिर वो खिल पायेगी|
सदगुणों के साथ भी ऐसा ही है| केवल प्रयत्न करने से अच्छे गुण हम में
नहीं पनपते| यह गहन विश्राम, यानि ध्यान, से होता है| जब आप
तनाव मुक्त, निश्चिन्त और स्वयं में स्थिर होते हैं, तब सद्गुण सहज ही आप में पनप
उठते हैं|
प्रश्न : गुरुदेव, बहुत बार कार्यालय में बहुत
से लंबित काम होते हैं, मन अस्थिर होता है और हम बहुत हैरान महसूस करते हैं और जान
नहीं पाते कि क्या हो रहा है| ऐसे वक्त में क्या करें?
श्री श्री रविशंकर : एक सूची बनाइये अपने सारे कार्यों की
और फिर उन्हें प्राथमिकता के आधार पर रखिये| और इन सब प्राथमिकताओं में ध्यान को
भी एक स्थान दीजिए| आपको विश्वास होना चाहिए कि आपकी सारी कामनाएं पूरी होंगी, और
इस भावना के साथ ध्यान करने के लिए बैठें|
भगवान कृष्ण ने यह वचन दिया है कि जो भी अपना मन और मति मुझ पर केंद्रित
करेगा, मैं उस से कभी दूर नहीं हूँ, और वो मुझ से दूर नहीं है| इस
लिए, यह याद रखिये|
हमें प्रतिदिन कुछ समय ध्यान करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए| तब
भगवान अवश्य हमारी प्रार्थनाओं को सुनेंगे| बल्कि, तब
हमें मांग करने का हक भी होगा!
जैसे आप पॉइंट जमा कर के उनके बदले कुछ ले सकते हैं| तो जब
आप सेवा करते हैं, आपको पॉइंट मिलते हैं जिनके बदले आप कुछ मांग सकते हैं| कई
बार जब मैं बाहर किसी सत्संग में जाता हूँ, लोग मुझे ऐसे ब्लैकमेल करते हैं|
(हंसी) जब मैं अपने कमरे में विश्राम करने जाता हूँ कार्यक्रम के बाद, तब भी लोग
आते हैं, ११, १२ बजे दर्शन के लिए| आयोजक मुझे
कहते हैं, “इन लोगों ने इतनी सेवा की है और आपका आशीर्वाद लेने आये हैं| कृपया
इन्हें मिल लीजिए गुरूजी”| तब मैं कहता हूँ, “ठीक है, मैं
आऊंगा”|
क्योंकि उन्होंने बहुत सेवा की है, मेरे पास कोई चारा नहीं है दर्शन देने के
अलावा| तो इस तरह हमें अपने पोइंट्स बढ़ाते रहना चाहिए| इस
तरह एक भक्त भगवान से अपनी प्रार्थनाओं को पूरा करवा सकता है| भगवान
के पास कोई विकल्प नहीं होता अपने भक्तों के कार्यों को पूरा करने के सिवा| इसी
प्रकार हम संसार में भी जीत सकते हैं|
जब हम भले काम करेंगे तो कोई क्यों हमें नापसंद करेगा? क्या कोई भले काम करने
वाले को नापसंद करता है? ऐसा कभी नहीं हो सकता|
आमतौर पर हम अपने आराम के दायरे में ही रहते हैं, और अपने आराम को अधिक महत्व
देते हैं और वही करते हैं जो हम करना पसंद करते हैं| तब क्या कोई हमें पसंद करेगा?
प्रश्न : गुरुदेव, आपने धर्म के दस विशिष्ट
लक्षणों के बारे में कहा है| क्या आप बता सकते हैं हम कैसे इन गुणों
को बढ़ा कर इस गृह पर धर्म को ला सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर : वही कर के जो हम इस वक्त कर रहे हैं| अधर्म
है क्योंकि दिमाग में स्पष्टता की कमी है, और तनाव के कारण| जब
दिमाग केंद्रित नहीं होता और दिल दुखी होता है तब अधर्म होता है|
इस लिए, ज्ञान और बुद्धि आपको धर्म के मार्ग पर लायेंगे|
प्रश्न : गुरुदेव, प्राण किस प्रकार शरीर को
छोड़ते हैं और क्या निर्धारित करता है कब ये शरीर में आते हैं?
श्री श्री रविशंकर : अच्छा, मैं आपसे एक प्रश्न पूछता चाहता
हूँ! आप अपने वस्त्र क्यों बदलते हैं? आप वही कमीज़ आजीवन क्यों नहीं पहेनते? आप कपड़े
बदलते हैं क्योंकि वे घिस जाते हैं, है ना?
मिल गया उत्तर?
प्रश्न : प्रिय गुरुदेव, मेरु पर्वत कहाँ है?
उसका महत्व क्या है?
श्री श्री रविशंकर : मेरु पर्वत शक्ति का काल्पनिक प्रतीक
है| इसका कोई वास्तविक स्थान नहीं है|
प्रश्न : गुरुदेव,
मैं २१ वर्ष का हूँ और बहुत सी लड़कियां मुझ से आकर्षित होती हैं| मेरे
शिक्षक मुझे कहते हैं कि वे मेरे भीतर की गुरु शक्ति से आकर्षित होती हैं| मैं
क्या करूं?
श्री श्री रविशंकर : २१ साल की उम्र बहुत छोटी है कोई भी
फैसला लेने के लिए|
आपके पास बहुत से विकल्प हैं पर आपको कुछ वर्ष इन्तज़ार करना है निर्णय लेने के
लिए| देखिये, यदि कोई आपकी तरफ आकर्षित नहीं होगा, तो भी समस्या
है| यदि लोग आपकी ओर आकर्षित हो रहे हैं, तो आपको यह भी समस्या प्रतीत हो रही है| जीवन
हर ओर से एक संघर्ष है| बस उसको स्वाभाविक रूप से लीजिए और
आनंद उठाइए|
इस सब का आनंद लीजिए पर अभी अपना फासला बनाये रहिये| उनसे
कहिये आप अभी तैयार हो रहे हैं और दो तीन साल और तक उपलब्ध नहीं है|
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