तृप्त होने के लिए विज्ञान और ज्ञान दोनो चाहिए

कोलकता (भारत), १२ फ़रवरी २०१०

रुद्र पूजा शुरु करने से पहले, श्री श्री ने शिव तत्व और शिवरात्रि का सार बताया:

आइये हम सब शिव तत्व के बारे में थोड़ा जानने का प्रयास करते हैं। थोड़ा ही जान सकते हैं। इसे समझने के लिए बुद्धि को संतुष्ट और शुद्ध भावनाओं का उदय करने की ज़रुरत है।

हमें विज्ञान और ज्ञान, दोनों से तृप्त होना है। ईश्वर की खोज के लिये लंबी तीर्थयात्राओं पर जाना आवश्यक नहीं है। जहां तुम हो, वहां तुम्हें ईश्वर की प्राप्ति न हो, तो कहीं और भी नहीं हो सकती। जब मन लीन हो जाता है, वही शिव है। जहां तुम हो, वहीं स्थिर हो जाओ। जैसे ही तुम अपने भीतर के केन्द्र में स्थिर हो जाते हो, तुम ईश्वरीय दिव्य शक्ति को हर जगह पाते हो। यही ध्यान है।
शिव का एक नाम विरूपाक्ष है। इसका अर्थ है कि वह निराकार है, परंतु सब को देख रहा है। हम जानते हैं कि वायु हमारे इर्द गिर्द सभी जगह व्याप्त है। हम वायु को महसूस कर सकते हैं।अगर वायु भी हमको महसूस करने लगे, तो? हम आकाश तत्व से घिरे हैं, और उसे पहचानते हैं। अगर आकाश भी तुम्हें देखने और महसूस करने लगे, तो? ऐसा होता है। बस, हम इसके प्रति सजग नहीं है। विज्ञान की भाषा में इसे Theory of Relativity कहते हैं। देखने की प्रक्रिया में दृष्य और दृष्टा, दोनों पर कुछ प्रभाव पड़ता है। ईश्वर की दिव्य शक्ति चारों ओर से तुम्हें देख रही है। ये निराकार दिव्य शक्ति है। ये निराकार तत्व ही सृष्टि के अस्तित्व का मूल है और लक्ष्य भी। दृष्टा भी वही है, दृष्टि और दृश्य भी। ये निराकार दिव्य शक्ति शिव है। इस तत्व को अपने भीतर जगाना और इसे अनुभव करना ही शिवरात्रि है।

आमतौर पर उत्सव के जोश में हम होश खो देते हैं। शिवरात्रि उत्सव में गहन विश्राम के साथ सजगता का समन्वय है। शिवरात्रि में हम सजगता के साथ विश्राम करते हैं। कहा गया है कि जब सब सो रहे हों, तब भी योगी सचेत रहता है। एक योगी के लिये हर दिन शिवरात्रि है। भगवान शिव की व्याख्या आदि शंकराचार्य ने बड़े सुन्दर भाव से इन पंक्तियों में की है... (श्री श्री उनमें से कुछ पंक्तियां गाते हैं।)
आदिय्न्तहीनं – जिस का ना आदि है ना अंत। भोलेनाथ, जो सभी लोगों के भोले नाथ हैं। और सर्वदा सभी जगह उपस्थित हैं। हम सोचते हैं कि शिव गले में सर्प डाल कर कहीं बैठे हैं। ऐसा नहीं है। यह केवल चित्रकारों की एक कल्पना है। शिव वो है जिस में सृष्टि का जन्म हुआ है, जिसमें इस समय सब मौजूद हैं, और जिसमें सृष्टि लीन होती है। तुम जगत में जितने भी आकार देखते हो, सब उसी शिव के आकार हैं।

समस्त सृष्टि में शिव समाये हैं। शिव अजन्मा है, और उनका अंत भी नहीं है। शिव चेतना की चौथी अवस्था हैं; तुरीया अवस्था, ध्यान की अवस्था - जो जाग्रत, सुषुप्त और स्वप्नावस्था से ऊंची है।

ये अद्वैत चेतना सब जगह उपस्थित है। इसीलिये शिव की पूजा शिवमय होकर करनी चाहिये। चिदानंदरूप – शिव सत चित आनंद है।

तपोयोगम्य – जिसे तप और योग से जाना जा सकता है। शिव तत्व को वेदों के ज्ञान में अनुभव किया जा सकता है, शिवोहं (मैं शिव हूं), शिवकेवल्योहं (केवल शिव ही है) की अवस्था तक जीव पंहुच जाता है।

शिवरात्रि का दिन आनंद और संतोष के अनुभव के लिये है। योग के बिना शिव तत्व का अनुभव नहीं हो सकता। योग का अर्थ केवल योगासन नहीं है। योग का अर्थ है शिव तत्व की अनुभूति जो प्राणायाम और ध्यान से होती है - जब हम भीतर से ‘वाह’ अनुभव करते है।

शंभो शब्द भी उसी मूल से आया है – ये अनुभव करना कि दिव्यता, यह सृष्टि, और अपना खुद का स्वरूप कितना सुंदर है! ये एक आश्चर्य है कि वही दिव्य चेतना इस जगत के हरेक जीव के भीतर है! इससे बड़ा कोई आश्चर्य नहीं है। वह एक अनेक कैसे बना? शिवरात्रि हमें अनेक से एक की ओर ले जाती है। इसके लिये योग और ध्यान आवश्यक हैं। ध्यान के बिना मन शांत नहीं होता।

भजन और ध्यान शिवरात्रि के उत्सव का अंग हैं। पूर्ण हृदय से सभी इस में सहभागिता करते हैं। सभी को गाना चाहिये।

शिव सभी कारणों के कारण हैं। शिव के कारण ही सब हो रहा है। शिव के कारण ही सब है – पेड़ उग रहे हैं, सूर्योदय हो रहा है, हवा चल रही है...हर कार्य का कारण शिव है। शिव के बिना कुछ नहीं होता।
पंचमुख यां पंचतत्व – शिव के पांच मुख हैं – जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि और आकाश। इन पांच तत्वों को जानना तत्वज्ञान है।
फिर शिव की उपासना अष्टमूर्ति (आठ आकारों) में होती है – मन, चित्त और अहंकार इसी में आते हैं। यह शिव का साकार और निराकार रूप हुआ।

शिव की उपासना का अर्थ है, शिव तत्व में लीन होकर शुभ कामना करना। क्या कामना करें? उदार हृदय से विश्व के कल्याण के लिये कामना करें। कोई दुखी ना रहे। सर्वे जनः सुखिनो भवन्तु।
हां, इस मौके पर एक संकल्प कर सकते हो। ऐसा संकल्प जो तुम्हारी सांस की तरह, तुम्हारे हृदय की धड़कन की तरह बार बार तुम्हारे ज़हन में आये। जब तुम ऐसा संकल्प दिव्य शक्ति को समर्पित करते हो, तो वह अवश्य पूरा होता है।

हम प्रकृति की भी उपासना करते हैं। इस धरती पर जो कुछ भी है, उसमें दिव्य शक्ति का समावेश है। वृक्ष, पहाड़, नदियां, पृथ्वी और उस पर रहने वाले सब लोग - इन सब का आदर किये बिना पूजा पूर्ण नहीं होती। सब का सम्मान करना, दक्षिणा है। दा का अर्थ है, देना। दक्षिणा का अर्थ है, जिसे देने से हमारे भीतर की अपवित्रता दूर हो जाती है। दक्षिणा के बिना पूजा अधूरी है।
जब हम समाज में दक्षता से, और मन की भ्रांतियों से मुक्त होकर कार्य करते हैं, तो नकरात्मक वृत्तियां, जैसे क्रोध, चिंता और दुख नष्ट हो जाते हैं।

मैं कहूंगा अपनी समस्यायें, चिंता और दुख, मुझे दक्षिणा में दे दो। ये कैसे होता है? साधना, सेवा और सत्संग (सत्य का संग) से।


art of living TV

© The Art of Living Foundation For Global Spirituality