बंगलौर आश्रम,23 फ़रवरी
प्रश्न : गुरूजी,मैं चाहता हूँ कि कुछ ऐसा हो जाए कि मेरी कोई इच्छा ही न रहे|
श्री श्री रवि शंकर : तुम्हारी यह इच्छा कि कोई इच्छा न रहे अपने आप में एक इच्छा ही है| यह एक समस्या है| जो जैसा है ठीक है - यह संमति है| चाहे तुम्हारे पास पूछने के लिए प्रश्न है या नहीं,यह ठीक है| चाहे तुम्हे जबाब मिले या नहीं ,यह ठीक है| 'सब सही है' यह निवृति का रास्ता है| हम प्राय: कहते हैं, यह सही नहीं है, वह सही नहीं है| कुछ सही न होने पर मन का प्रवाह उसे सही करने की दिशा में रहता है। ऐसे में तुम विश्राम नहीं कर सकते क्योंकि मन उसी दिशा में रहता है और कुछ करने का रवैया बना रहता है| इस कारण से तनाव होता है और अच्छा आराम नहीं मिल पाता|
हमें जीवन में दो तरह से सोचना चाहिए - प्रवृति और निवृति|
जब आप दुनिया के कार्य करते थक जाएँ तो यह आवश्यक है की आप अपने आप में विश्राम करे| प्रकृति ने भी इसी तरह से बनाया है:12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात | कुछ जगहों पर जैसे उतरी और दक्षिणी ध्रुव में ग्रीष्म ऋतु में रात लगभग चार घंटे की और दिन लगभग 18 से 20 घंटे का होता है| परन्तु सर्दियों में यह विपरीत हो जाता है और दिन केवल चार - पांच घंटे का रह जाता है| इस तरह से प्रकृति इस संतुलन को बनाये रखती है|12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात यह प्रकृति का नियम है| रात का अपने आप में अर्थ है किसी भी प्रकार की कोशिश से निवृति| दिन प्रवृति का प्रतीक है और रात निवृति का प्रतीक है|
विवेक मतलब प्रवृति और निवृति क्या है इसकी समझ| हम सोचतें है की निवृति का मतलब है 60 साल की उम्र में नौकरी से निवृत हो जाना और छूटी पर जाना| नहीं ,वेदों में बार बार कहा गया है ,निवृति का रास्ता अपनाओ| अर्थात अपने भीतर जाना जिससे पूर्ण विश्राम मिलता है। और ऐसा तभी होता है जब तुम कार्य करके थक जाते हो। पूर्ण विश्राम लेना ही निवृति है|
दो प्रकार के आराम हैं| एक तो कुछ कार्य किये बिना आराम। इससे कुछ आराम मिलता है परन्तु मन को पूर्णतया आराम नहीं मिलता| दूसरा है सजगता से विश्राम करना।आप आराम कर रहे हो परन्तु भीतर से आप जागरूक और सजग होते हो,यह ध्यान है| सजगता से आराम ध्यान है|
ध्यानमय आराम बहुत बेहतर है क्योकि इसी से पुरे शरीर को वास्तविक आराम मिलता है| जब हम ध्यान में जाना चाहतें हैं तब उस समय 'सब सही है' वाला रवैय्या अपनाना चाहिए| किसी चीज की कमी नहीं है और 'अभी इस क्षण में मुझे कुछ भी नहीं चाहिए'| जब आप सोचते हो कि सब ठीक है तो आपका मन शांत होता है और आप भीतर जा सकते हो|
अपने भीतर जाते ही आप ख़ुशी,संतुष्टि,आनंद और शांति अनुभव करते हो। उसके बाद तुम्हे प्रवृति के पथ पर आना होता है| इस तरह से प्रवृति का अर्थ है जब तुम्हे लगे कि चीजें सही नहीं हैं और इन्हे सही करना है| कब निवृत होना है और कब प्रवृत - यह ज्ञान अध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा आता है|
मानव कि संरचना ऐसे है कि कोई भी हमेशा न तो केवल निवृति में और न केवल प्रवृति में रह सकता है| दोनों जीवन में निरंतर साथ साथ चलेंगे| जब हम प्रवृति में आतें हैं तभी हम कार्य करने लगतें हैं और हम चीजों को सुधारने लगतें हैं|(अपने आस पास बहुत छोटी छोटी त्रुटियों की ओर इशारा करते हुए) छोटी छोटी बातें आपका ध्यान अपनी ओर ले जाती है और आप सब को सही करना चाहते हो| यह प्रवृति है| परन्तु यदि कोई इस रवैये में अटक के रह जाए तो आँखें बंद करके भी इन्ही त्रुटियों के बारे ही सोचता रहेगा और निवृति में नहीं जा पायेगा| इस से कोई भी पगला जायेगा और तनाव से भर जायेगा| इसे कहतें है असुरी वृति |
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में इसके बारे में कहा है| तमोगुण कि प्रवृति वाले व्यक्ति को पता नहीं चलता कि कब दोनों में से किस रास्ते पर चलना है|उसमें विवेक नहीं होता| जब काम कर रहा होता है तो वह सोचता है कि सब ठीक चल रहा है| यह निवृति को प्रवृति में इस्तेमाल करने का एक उदहारण है| वह सोचता है कि भ्रष्टाचार भी ठीक है,क्योंकि इसको होना ही है| वह कार्य नहीं करता और उदासीनता का मनोभाव रखता है| वह सोचता है कि उसे काम करके क्या लेना है। और फ़िर वह प्रवृति को निवृति में इस्तेमाल करता है| सारी रात वह सोचता है और परेशान रहता है| सिर्फ सोचने से कोई कार्य पूरा नहीं हो सकता| जब दोनों रुख साथ साथ चलें तब आप निपुणता,सफलता और बिना तनाव के कार्य पूरा कर लेते हो|
गीता में यह भी कहा गया है कि बुद्धिमान व्यक्ति जानता है कि निवृति के लिए कौन सा मनोभाव ठीक है| जब आप अंतर्ध्यान होना चाहतें हैं तो उस समय यह मनोभाव होना चाहिए "इश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ती भी नहीं हिलती| सब सही है और उत्तम है|" तब मन स्थिर होता है, आपको पूरा आराम मिलता है और गहरे ध्यान में डूब जाते हो| एक बार जब ध्यान से बाहर आते हो तो आप और भी स्पष्ट व चौकस हो जाते हो, तथा छोटे से छोटे दोष को भी पकड़ लेते हो| जब आप दोष देखते हो आप उन्हें सुधार सकते हो| आपमें बहुत छोटी सी गलती को देखकर, उसमें सुधार ला सकने की कुशलता आती है|
आप कभी भी सारा समय ध्यान में नहीं रह सकते। आपको कार्य और निष्क्रियता में बदलाव करना पड़ता है| कार्य और आराम मानव व्यक्तित्व के दो पहलु हैं और दोनों की जरूरत मानव विकास के लिए जरुरी है| दोनो में संतुलन बनाए रखना एक कला है| पूरा जीवन आप को इस पर चलना है| ध्यान कैसे करें?यहाँ तक की मुश्किलों में आप अपने मन को बंद करके रखें| इस तरह से आप देखोगे कि आप का आधा काम अपने आप हो जाता है और जो आधा रह जाता है वह प्रवृति के मनोभाव से पूरा हो जाता है| इसलिए दोनों की जरूरत है|
प्रश्न : प्रकृति पूर्ण संतुलित है। तो हम प्रकृति में यह संतुलन कैसे देख सकते हैं?
श्री श्री रवि शंकर : प्रकृति में इस तरह का संतुलन है| गर्मियों में दिन बड़े होतें हैं और सर्दियों में रातें बड़ी होती हैं| इस प्रकार प्रकृति किसी तरह से संतुलन बनाये रखती है| एक स्थान पर ठण्ड होगी तो दूसरी किसी जगह गर्मी होगी| इस तरह गर्मी और सर्दी,रात और दिन, प्रकृति में संतुलन लातें हैं| और ये बहुत से तरीकों से आप को बतातें हैं कि आपको कार्य और आराम में संतुलन लाना है|
प्रश्न : लोग भगवान शिवजी के प्रसाद के रूप में अफीम खातें हैं| क्या मुझे खाना चाहिए? और यदि यह सही नहीं है तो मैं बाकि लोगों को कैसे समझाउं?
श्री श्री रवि शंकर : आप को नहीं खाना है| यहाँ सत्संग में जो रस मिलता है वो किसी भी और वस्तु से अधिक आनंद देता है। ज़रा उन लोगों के चेहरे देखो जो अफीम खातें है| क्या आपको उनके चेहरे पर तेज़ दिखता है? क्या वे बहुत संतुष्ट और आनंदपूर्ण लगते हैं?बिलकुल भी ऐसा नहीं लगता| उनके चेहरे पर कोई चमक,रौनक या मुस्कान नहीं होती| भगवान शिवजी का प्रसाद मिल जाए तो आनंदमय,संतुष्ट और खुश रहने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं रहता| परन्तु जो लोग अफीम खाते हैं उनमें ऐसा नहीं दिखता| मैं इसे प्रसाद नहीं समझता|
अपनी समझदारी से उन्हें ऐसा करने से रोक सकते हो| उन्हें सुदर्शन क्रिया का अनुभव करवाओ|
प्रश्न : जीवन में सामजस्य(consistency) कैसे प्राप्त करें? मैं अपने आप को प्रगति करते देखता हूँ और तब अचानक अपने आप को नीचे जाते देखता हूँ|
श्री श्री रवि शंकर : सामजस्य लाने की इच्छा ही तुम्हे सही रास्ते पर ले जायेगी| जब तक तुम प्रगतिशील हो, एक दो बार नीचे आ भी जाते हो तो उस पर ध्यान देने की आवश्यक्ता नहीं| यदि तुम इसके लिए चिंता करते हो, यां तो तुम खुद को दोषी ठहराने लगते हो यां गुस्से और तनाव में आ जाते हो। इसलिए इसको स्वीकार करो|
(प्रशनकर्ता:परन्तु नीचे गिरने के डर के लिए मैं क्या कर सकता हूँ?)
पीछे मुड़ के देखो और समझो| यदि तुम दस कदम आगे बड़े हो तो कभी भी पूरे दस कदम पीछे नहीं गए| यदि आप उपर चढ़ रहे हो तो आप तीन,चार या पांच कदम वापिस आ सकते हो परन्तु कभी भी सारे दस कदम वापिस नहीं आ सकते|
क्या तुमको अपने आप में सकरात्मक बदलाव दिखते हैं?
(जबाब:हाँ)
इस से आपको पूर्ण आत्मविश्वास आता है कि आप कभी भी दस कदम वापिस नहीं आये|
प्रश्न : गुरूजी,सत्व के बढ़ने से हमारे कार्य पूरे हो जाते हैं| तब समाज में उन लोगों के काम कैसे पूरे होतें है जो बुरे काम करतें हैं?
श्री श्री रवि शंकर : ऐसा केवल कुछ समय के लिए ही होता है| बाद में आप देखते हो कि वे बुरी तरह से नाकामयाब होतें हैं| अमेरिका में बर्नार्ड मैडोफ्फ़ था| लोग उसके साथ फोटो लेने के लिए लट्टू थे| वह इतना बड़ा व्यपारी था कि वह जो भी कहता था एकदम पूरा होता था| फ़िर क्या हुआ?उसके बारे में सब सच पता चल गया| वह अब जेल में है| उसके अपने बेटे ने ही उसे पकड़वाया|
इस तरह जो कोई भी झूठ के रास्ते पर चलता है, उनके लिए कुछ अच्छा समय आता है परन्तु बाद में उनका पतन होना निश्चित है|
झूठ के रास्ते की समस्या है कि तुम्हे नींद ठीक से नहीं आती और बेचैन रहते हो| कम से कम जो सच के रास्ते पर चलता है चैन की नींद सोता है|
प्रश्न : गुरूजी,वो क्या है जो आसक्ति और अनासक्ति से परे है?
श्री श्री रवि शंकर : मैं !
प्रश्न : कृपया महाराष्ट्र में छात्रों में बढती आत्महत्या के बारे बताइए|
श्री श्री रवि शंकर : महाराष्ट्र में छात्रों में आत्महत्या की संख्या बढ़ रही है। इसलिए हमने अखबारों में एक विज्ञापन दिया था कि वे लोग हमारे साथ सम्पर्क करें जिन में ज़रा सी भी आत्महत्या की प्रवृति है| दो दिन में ही 250 के करीब फ़ोन आये| तब वे कोर्स में आये और ध्यान किया| एक व्यक्ति ने बताया कि वह और उसके पिता दोनों आत्महत्या करने वाले थे परन्तु अब वे कोर्स करने के बाद ऐसा कभी नहीं करेगें| इस तरह से लोगों को कोर्स में लेकर आओ ओर ध्यान करवाओ|
प्रश्न : गुरूजी, आप कहते हो कि आप में और मुझ में कोई अंतर नहीं है, पर आप में इतना तेज़ है और मेरे में नहीं है?
श्री श्री रवि शंकर : आप खिलो और तब आपको पता चलेगा कि सब जगह रोशनी है| हर कली के पास वह सब है जो उसे एक फूल बनने के लिए चाहिए| एक कली और फूल में बहुत ज्यादा अंतर नहीं होता| कली अभी पूरी खिली नहीं है पर खिल जायेगी| यदि आप भी ऐसे सत्संग में जाते रहोगे तो पता चलेगा आप के पास भी वही तेज़ है| वो तेज़ आपके पास बड़ी आसानी से आने लगेगा|
प्रश्न : गुरूजी,समर्पण के बाद भी मन अटक जाता है| मुझे क्या करना चाहिए?
श्री श्री रवि शंकर : कम से कम थोड़े समय के लिए तो मन आज़ाद होता है| मन के साथ ऐसे ही होता है| माया की पहुँच दूर तक है| ये कई तरफ से आप को पकड़ लेती है| जब आपको लगता है कि यह आप को कोई ख़ुशी दे रही है तो मन इसकी ओर आकर्षित हो जाता है| इसे समर्पण, भोग या समझदारी से खत्म कर दो| यदि कुछ भी नहीं तो समय के साथ यह अपने आप समाप्त हो जाएगा|
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