७ मार्च २०१२, बैंगलुरू आश्रम
© The Art of Living Foundation
प्रश्न : गुरूजी, कृपया कृतज्ञता के बारे में बात करें। आपने कहा है, कि हम जितने अधिक कृतज्ञ होते हैं, उतनी ही अधिक कृपा हमारे जीवन में बहती है। कैसे मैं हर दिन और अधिक कृतज्ञ
बनूँ?
श्री श्री रविशंकर : सबसे पहले तो इस ‘अधिक’ को छोड़ दें। अधिक भक्ति, अधिक कृतज्ञता, अधिक आनंद, अधिक खुशी, हमें इन
सबको छोड़ना है, ‘मुझे और अधिक चाहिये’।
पहले तो आप सोच रहे
हैं, ‘मुझे और ज्यादा पैसा चाहिये, ज्यादा आनंद, ज्यादा खुशी और ज्यादा मनोरंजन’। फिर उसके बाद आपने अपनी प्रवृत्ति बदल ली, और अब आपको ज्यादा शान्ति, ज्यादा ज्ञान, यह थोड़ा ज्यादा और वह थोड़ा ज्यादा। जब तक आप ज्यादा पाने की होड़ में शामिल हैं, आप ठहर नहीं पायेंगे। जब तक आप ठहरेंगे नहीं, ना तो शान्ति है, और ना ही कृपा। आप समझ गयें! तो कहीं न कहीं, आप इस ‘मुझे और ज्यादा चाहिये’ के ख्याल को उठा फेंकिए और कहिये, ‘बस, हो गया!’
भगवद्गीता में कहा
है, ‘यद्र्क्च लाभ संतुस्तो द्वंद्वातितो विमात्सारह’
आपको जो भी मिल रहा
है, उसके प्रति आप में एक स्तर तक संतोष होना चाहिये, और संतोष के साथ ही कृपा आती है। अगर आप असंतुष्ट हैं, तो आप कृतज्ञ कैसे होंगे?
अगर आप शिकायत कर
रहें हैं, तो आप कृतज्ञ नहीं हो सकते, और अगर आप कृतज्ञ नहीं हैं, तो कृपा कैसे होगी? क्या आप देख रहे हैं, कि मैं क्या कह रहा हूँ? यह सब आपस में जुड़ सा जाता है।
तो अब, आप मुझसे यह मत पूछिए, कि कोई किस तरह ज्यादा कृतज्ञ हो सकता है? बस शिकायत करना बंद कर दीजिए!
यह जानिये, कि यह पूरा जीवन एक स्वप्न की तरह है। यह सब खत्म हो जाएगा और हर एक चीज़ एक दिन नष्ट हो
जायेगी। यह सजगता ही आपके अंदर एक परिवर्तन लाएगी।
‘यह कहानी एक दिन खत्म हो जायेगी, और पर्दा गिर जाएगा’, यह जानते ही, अचानक एक परिवर्तन आता है, जो संतुष्टि पाने के लिए ‘और अधिक’ की दौड़ से आपको अलग कर देता है। ऐसा होता है।
प्रश्न : प्रिय गुरूजी, गीता में कहा है, ‘अव्यक्तः गतिर दुखम’, जब हम अव्यक्त की पूजा करते हाँ, तो उससे दुःख प्राप्त होता है। क्या पूजा करने के
लिए किसी आकार के होने की आवश्यकता है, या हम निराकार पर ही ध्यान कर सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर : ध्यान निराकार में ही सहज
हो जाता है, लेकिन ध्यान में जाने से पहले, एक आकार ज़रूरी होता है। यह कोई भी आकार हो सकता है।
इसीलिये भगवान कृष्ण
कहते हैं, कि आपको एक मार्गदर्शक, एक शिक्षक, एक गुरु की ज़रूरत है। ईसा मसीह ने भी यही कहा है, ‘अगर तुम मेरे पिता के पास जाना चाहते हो, तो तुम्हें मेरे द्वारा जाना होगा’। ऐसा ही है।
भगवान कृष्ण ने भी
यही कहा, ‘अव्यक्ताही गतिर दुखम देह्वाद्विर वाप्याते’ जो लोग शरीर और आकार के प्रति जागरूक हैं, उनके लिए, सीधा निराकार में जाना उनके जीवन में दुःख और परेशानी लाता है, यह सत्य है, हमने देखा है।
अगर आप यहूदियों को
देखें, वे कितनी परेशानियों से गुज़रे हैं, इतना कष्ट। वे यह नहीं कह रहें हैं, कि यह पथ गलत है, या बुरा है। निराकार का मार्ग है, मगर वह मार्ग बहुत कष्टकारी है, यह बहुत ही कठिन रास्ता है और यह उसपर चलने वालों के लिए बहुत कष्ट लाता है।
हमने पूरी दुनिया
में यहूदियों के साथ ऐसा होता हुए देखा है। और ऐसा मुसलमानों के साथ भी हुआ है। मुस्लिम धर्म में तो ऐसा शुरुआत से ही हो रहा है। लेकिन अगर आप दूसरी ओर
ईसाइयों को देखें, तो हालाँकि थोड़ी बहुत दिक्कत थी, मगर इतनी नहीं थी।
बौद्ध धर्म, जैन, ताओ, शिन्तो, ये सभी मार्ग काफी आसान थे और इनमें इतना कष्ट नहीं था, जितना लोगों ने मुहम्मद के समय में झेला था।
पैगंबर मुहम्मद के
समय में, उन्हें खुद इतना कष्ट झेलना पड़ा था यही बात यहूदियों के पैगम्बर के साथ भी थी। उनका पूरा जीवन, उनका रास्ता, दुःख से भरा था, कठिनाईयों से भरा था, संघर्ष से भरा था, पूरे रास्ते लड़ाई थी| और काफी हद तक, सिख धर्म के लोगों को भी इससे गुज़ारना पड़ा था। सिखों ने भी अव्यक्त की पूजा करी थी – अगोचर और निराकार।
प्रश्न : प्रिय गुरूजी, संकल्प, ध्यान और अभिव्यक्ति, इसके पीछे का घन विज्ञान क्या है? ये आपस में कैसे जुड़े हुए हैं?
श्री श्री रविशंकर : ये सब आपस में जुड़े हुए
हैं। एक संकल्प उठता है और जब आप उसपर थोड़ा सा भी ध्यान
देते हैं, तो वह अभिव्यक्त हो जाता है।
नहीं तो, बहुत से संकल्प उठते हैं, और आप उनपर ध्यान नहीं देते, है न? लेकिन जब किसी संकल्प को थोड़ा बहुत भी ध्यान देते हैं, जिसका मतलब है, कि आप उन संकल्पों पर थोड़ा काम करते हैं, तो उनकी अभिव्यक्ति ज़रूर होती है।
प्रश्न : गुरूजी, अगर आपको हमें दुनिया में सफलता का सिर्फ एक रहस्य
बताना हो, तो वह रहस्य क्या होगा?
श्री श्री रविशंकर : जब आप किसी चीज़ की प्रबल
इच्छा करें, तो बस मन में मान लें, कि वह होने वाला है। बस यह मान लें, कि देने वाला इतना दयालु है, कि आपको जो चाहिये, यदि वह आपके लिए अच्छा है, तो वह आपको मिल जाएगा। यह श्रद्धा है, ‘जो मेरे लिए सबसे अच्छा है, देने वाला मुझे वह दे देगा’, इसी से काम हो जाता है।
प्रश्न : गुरूजी, आप कहते हैं, कि सब कुछ बदल रहा है| तो अगर हमारे जीवन में स्थिरता है, तो क्या वह भी बदलनी चाहिये?
श्री श्री रविशंकर : सारे परिवर्तनों के बीच
आपको एहसास होगा, कि आपके अंदर कुछ ऐसा है, जो कभी नहीं बदलता। परिवर्तन का उद्देश्य ही यही है, कि आप पहचानें के कुछ है जो बदल नहीं रहा।
प्रश्न : गुरूजी, एक साधक को ऐसा क्या करना चाहिये कि वह किसी भी तरह
के झगड़े से दूर रहे?
श्री श्री रविशंकर : अधिक साधना करिये, सेवा, ध्यान और प्राणायाम करिये। ये सभी क्रियाएँ इसी के लिए हैं। आप जितना करेंगे, आप किसी टकराव या झगड़े के समय उतना अधिक संतुलन रख
पायेंगे।
प्रश्न : गुरुदेव, क्या सभी पांच तत्व बराबर हैं, या फिर आकाश तत्व बाकी तत्वों से श्रेष्ठतर है?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, पाँचों तत्वों में से आकाश तत्व थोड़ा अलग है। आकाश सिर्फ एक साक्षी है – आत्मा की तरह।
बाकी सभी चार तत्व
आकाश तत्व के अंदर निहित हैं। आकाश के बिना ना तो पृथिवी है, न जल, न वायु और न ही अग्नि। इन चारों तत्वों का आधार ही आकाश तत्व है, और आकाश तत्व इनमें से किसी भी तत्व का विरोध नहीं
करता। अगर आप देखें, तो जल और अग्नि के बीच एक गहरा सम्बन्ध है और वे एक
दूसरे के विपरीत हैं। जल अग्नि को बुझा देता है, और अग्नि जल को वाष्प बना देती है, अग्नि पानी को सुखा सकती है। इसी तरह, वायु अग्नि को और तेज करती है, और वायु चाहे तो अग्नि को बुझा भी सकती है। अगर आप इस दृष्टिकोण
से देखें, तो आप पाएंगे, कि सभी पांच तत्व एक दूसरे के विरोधी हैं, और वे एक दूसरे के पूरक भी है। उनमें से कोई भी दूसरे के बिना नहीं रह सकतॆ। इसीलिये, पाँचों तत्वों को एक साथ जोड़ दिया जाता है, और उन्हें ‘प्रपंच’ कहा जाता है।
इसलिए, आकाश तत्व जो बाकी सभी चारों तत्वों का साक्षी है, वह अछूता है, और अप्रभावित है। वह साक्षी है। इसीलिये आकाश तत्व को आत्मा के समरूप मानते हैं।
इसी तरह, मनुष्यों में, मन, बुद्धि, स्मृति और अहंकार; ये चार मौजूद हैं, और आत्मा इन सबकी साक्षी है। ये चारों आत्मा में
विराजमान हैं, और ये अपने अपने स्वभाव के अनुसार काम करते हैं।कभी
कभी मन में अशांति होती है, और कभी कभी मन और बुद्धि का संघर्ष हो जाता है। कभी कभी स्मृति और अहंकार अपना खेल खेलते हैं, मगर आत्मा इन सबका केवल साक्षी है।
प्रश्न : गुरूजी, मैं आज विश्व पुस्तक मेले में गया और वहां से
भगवद्गीता लेकर आया हूं। इसके पहले मैं केवल रोमांस या एक्शन की किताबें ही पढ़ता
था। अब मेरी माता जी परेशान हैं कि मेरे साथ सब ठीक है कि
नहीं। मैं उन्हें क्या कहूँ?
श्री श्री रविशंकर : उनसे कहिये, कि सब कुछ ठीक है! गाड़ी पटरी पर ही है। हालत ऐसी हो गयी है, कि गलत करने वाले लोगों के बीच में अगर कोई एक सही करने वाला मिल जाए, तो वही एक अकेला पड़ जाता है। यह तो वही कहावत है, ‘जिस गाँव में सभी नग्न रहते हैं, वहां जो कपड़ा पहनता है, वही अकेला पड़ जाता है’। परेशान मत होईये, आप बिल्कुल ठीक हैं!
प्रश्न : गुरूजी, जब कोई झगड़ा होता है, तो क्या भगवान किसी की तरफ होते हैं, या फिर वे निष्पक्ष होते हैं?
श्री श्री रविशंकर : नहीं, भगवान किसी की तरफदारी नहीं करते; वे निष्पक्ष और असंलग्न होते हैं। लेकिन जो भगवान की शरण लेता है, वह भगवान के पक्ष में हो जाता है।
महाभारत में, जब श्री कृष्ण आराम कर रहे थे, तब अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही उनके पास गये। और वे दोनों ही उनके पास गए, क्योंकि उन दोनों को ही यह श्रद्धा थी कि कृष्ण
निष्पक्ष हैं, और उनकी प्रार्थना स्वीकार कर लेंगे।
अगर दुर्योधन को ऐसा
लगा होता कि वे निष्पक्ष नहीं हैं, तो वह उनसे बात करने नहीं गया होता। दुर्योधन इसलिए श्री कृष्ण के पास गया, क्योंकि उसे भी यह पता था, कि कृष्ण निष्पक्ष हैं।और अर्जुन भी इसीलिये गए क्योंकि
वे जानते थे कि कृष्ण निष्पक्ष हैं।
जब वे दोनों उनके
पास पहुंचे, तो श्री कृष्ण ने एक शर्त रखी, ‘एक तरफ मेरी पूरी सेना है, और दूसरी तरफ मैं हूँ, और मैं कोई भी शस्त्र नहीं उठाऊंगा। मैं लडूंगा नहीं। अब पूछिए कि अआप्को क्या चाहिये। आपको निर्णय लेना पड़ेगा, कि आपको मेरी सेना चाहिये या मैं।
तब दुर्योधन ने अपना
दिमाग लगाया। ऐसी परिस्थिति में जो भी कोई अपनी बुद्धि लगायेगा, वह यही सोचेगा, कि जो व्यक्ति युद्ध में लड़ेगा नहीं, उसे लेने से क्या फ़ायदा, बेहतर होगा कि उसकी सेना को ही ले लिया जाए। तो
उसने सेना को चुन लिया तो दुर्योधन ने श्री कृष्ण की सेना को मांग लिया और
वह खुश हो गया।
और यही बात लोग आज
भी सोचते हैं। उन्हें गुरूजी नहीं चाहिये, मगर वे उनकी संस्था के लोग चाहते हैं जो उनके साथ
विरोध में खड़े हो जाएँ। अगर संस्था के लोग उनके साथ आ जाएँ तब वे विरोध कर सकते हैं।
तो दूसरी ओर अर्जुन
थे। वे भगवान कृष्ण की शक्तियों को नहीं जानते थे, मगर वे जानते थे कि वे बहुत चतुर हैं, और जैसा वे कहते हैं, वैसे ही होता है| तो इसलिए उन्होंने श्री कृष्ण को अपना सारथी बनने
को कहा।
जो रथ को चलाता है, वह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना वह जो तीर चलाता है। सारथि कोई कम महत्वपूर्ण नहीं होता। तो अर्जुन ने
कृष्ण का सानिध्य माँगा, क्योंकि उन्होंने अपने दिमाग से नहीं, बल्कि अपने दिल से काम लिया, या ऐसे मानिए, कि उन्होंने बुद्धि की चरम सीमा से सोचा।
तो उन्होंने कृष्ण
की शरण ली, और पूरे दिल से उनके समर्थन की प्रार्थना करी।
‘मैं युद्ध के लिए तैयार हूँ| कृपया आप मेरी तरफ हो जाएँ’।
तो कृष्ण भी तैयार
हो गये। वैसे भी यही वे भी चाहते थे। वे जानते थे, कि जिस तरफ वे होंगे, वही पक्ष जीतेगा।
इसीलिये, जो भगवान की शरण लेता है, वह भगवान के पक्ष में हो जाता है। और जो अहंकारी
होता है, वह स्वतः ही भगवान से दूर
हो जाता है। दुर्योधन इतना अहंकारी था, कि वह भगवान से दूर हो गया।© The Art of Living Foundation