०८.०३.२०१२, ‘आत्मोत्सव’, रतलाम, मध्य प्रदेश
जब आप किसी
दुकान में कुछ खरीदने जाते हैं, तो वह एक पैकेज के साथ आता है| वह एक पैकेट में होता है|
पैकेजिंग
आवश्यक है, मगर पैकेज वस्तु नहीं है| वस्तु को पैक करके भेजते
हैं, है न? इसी तरह औपचारिकता एक पैकेज है, बाहरी पेपर है| असली बात है; आत्मीयता, अपनापन| अपनापन न हो, तो फिर वह
सत्संग नहीं है, वह उत्सव नहीं है| मैं दुनिया भर में घूम कर
देख चुका हूँ| किसी भी देश में धार्मिकता और उत्सव इतनी गहराई से जुड़े नहीं है,
जितना भारत में है| एक तरफ धार्मिकता होगी, दूसरी तरफ लोग खूब पार्टी करेंगे, तब
ही मस्त रहेंगे| धार्मिक संस्थानों में मस्ती नहीं
है, आनंद नहीं है, वहां पर लोग बड़े गंभीर, मुँह लटका के रहेंगे| भारत में भी हम लोग यह करते हैं| बहुत गंभीर हो जाते हैं| नहीं! होली मस्ती का त्योहार है ! आज सबने होली खेली न? (समूह
में से उत्तर आता है, ‘हाँ’) कौन सी होली? सिर्फ वह नहीं जिसमें आप एक दूसरे पर रंग
फेंकते हैं, बल्कि वह जिसमें आप आत्मा के रंग में रंग जाते हैं| आप लोगों ने इस सत्संग को बहुत अच्छा नाम दिया,‘आत्मोत्सव’| आत्मा का उत्सव ही सारा
संसार है|
जब भी कोई बड़ा
प्रोग्राम होता था, चाहे बंगलौर में, या कहीं भी, कई सारे लोग यहाँ रतलाम से आते
थे, और यही पूछते थे, कि ‘आप रतलाम कब आयेंगे, गुरूजी?’ अभी हम आ गए रतलाम! (सब ताली बजाते हैं)
आत्मीयता जीवन
का सार है| आत्मीयता माने अपनापन| जब अपनापन होता है, तो नीरसता नहीं होगी| जब नीरसता नहीं होगी, तो लोभ नहीं आएगा, काम नहीं सताएगा,
विकार दूर हो जायेंगे| विकारों की जननी आपको पता है
क्या है? नीरसता - कुछ अच्छा नहीं लग रहा है| तो नीरसता से ही सब आता है| तो आत्मीयता जहाँ होती है, नीरसता वहां मिट जाती है, मस्ती छा
जाती है| फिर यह शराब और सारे नशे की चीज़ें
अपने आप छूट जाती हैं| लाखों लोगों को अपने जीवन
में यह अनुभव में आया है, कि जैसे ही वे ध्यान करते हैं, सुदर्शन क्रिया करते हैं,
तो उनकी बुरी आदतें सब अपने आप मिट जाती हैं|
मेरे हिसाब से
हर एक व्यक्ति जब पैदा होता है, तो बहुत अच्छा व्यक्ति हो कर ही पैदा होता है| उसके अंदर खूबी होती है|
फिर चलते चलते
कहीं तो वह चीज़ छुप जाती है| सारे विकार फिर आने लगते हैं| इसका कारण अज्ञान है, अज्ञान मतलब आध्यात्मिक ज्ञान का अभाव|
जीवन कैसे जीयें, यह कोई सिखाता नहीं है| न तो घर में, ना ही कोई
स्कूल में सिखाता है| मन को कैसे संभालें, यह हम
नहीं जानते| हम बाकी सब सीख लेते हैं, लेकिन अपने
आप को कैसे संभालें, मन को कैसे संभालें, यह नहीं सीखते| यह सीखना बहुत ज़रूरी है|
देखिये, कितना
अच्छा लग रहा, आप लोग कितने अनुशासन से बैठें हैं| बहुत अच्छा|
(कोई गुरूजी
को फूलों का हार भेंट करता है)
(मुस्कुराते
हुए) मैं आपका भाव समझता हूँ इस फूल के पीछे|
हम अपने भाव को
अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं| फूल एक माध्यम बन जाता है| मगर मैं कहता हूँ, कि इसकी कोई ज़रूरत नहीं है| आपके चेहरे पर एक मुस्कान हो, वह काफी है| आप खुद ही खिले हुए रहें, आपके चेहरे पर वह मुस्कान हो, वह
फूल से भी बड़ा है| मुझे वह बहुत खुशी देता है|
तो हम लोग
क्या बात कर रहें थे? आत्मीयता, अपनापन| जहाँ अपनापन खत्म होता है, वहां से
भ्रष्टाचार शुरू होता है| अपनों से किसी ने आज तक
भ्रष्टाचार नहीं किया, अत्याचार नहीं किया, दुराचार नहीं किया| यह हम उन्हीं से करते हैं, जिन्हें हम अपना नहीं मानते| इसलिए यदि हमें आज समाज में फिर से शान्ति की स्थापना करनी
हो, तो फिर से समाज में एक आध्यात्म की लहर उठनी चाहिये| सही है न? हम सबको इस पर काम करना पड़ेगा| हमें एक हिंसा-विहीन समाज चाहिये| एक ऐसा समाज जहाँ पर कोई चोरी नहीं है, कोई दुर्भाव नहीं है,
एक दूसरे में समरसता है| ऐसा समाज चाहिये| एक ज़माने में हमारा समाज ऐसा रहा है| जब भारत में आध्यात्मिकता अपनी ऊंचाई पर थी, उन्हीं दिनों में
भारत की आर्थिक व्यवस्था भी अच्छी थी, लेकिन जब आध्यात्मिकता में गिरावट आयी, तब
आर्थिक तौर पर भी हम गिर गए| इसको दोनों तरह से देख सकते
हैं, कि जब आर्थिकता गिरी, तब आध्यात्मिकता भी गिर गयी| मगर मैं यह कहता हूँ, कि हम समाज को फिर से एक आध्यात्मिकता
की लहर में लेकर आते हैं| योग, उद्योग और यज्ञ ये सब
साथ में लेकर चलते हैं, तो हम कल्पना कर सकते हैं कि भारत फिर से राम राज्य बन
सकता है, जैसा महात्मा गाँधी ने सोचा था| तो आज ‘आत्मोत्सव’ में हम लोग तीन चीज़ें करेंगे,
गान, ज्ञान और ध्यान!
(गुरूजी २०
मिनट का बहुत सुन्दर ध्यान कराते हैं)
वह उत्सव भी
क्या है, जिसमें मौन नहीं है, और वह मौन क्या है, जो उत्सव में नहीं बदले? उत्सव
को मौन गहरायी देता है, तो मौन की अंदरूनी शक्ति को मौन बाहर प्रकट करता है| इसलिए, थोड़ी थोड़ी देर बैठ कर हमें शांत होने का, ध्यान करने
का अभ्यास करना चाहिये| यह बहुत आवश्यक है| इससे बुद्धि तीक्ष्ण होती है, शरीर स्वस्थ रहता है| अच्छा बताईये, कि कितने लोगों को शरीर में दर्द है? (बहुत लोग
हाथ ऊपर उठाते हैं) पता है क्यों? हम जहर को ज़मीन में डालते हैं; रासायनिक और
कीटनाशक खाद डालते हैं, तो उससे जो अनाज उपजता है, जब उसे खाते हैं, तो शरीर में
दर्द होता है| याद है, पहले हम घर में जो अनाज रखते
थे, उसमें कीड़ा लग जाता था, है न? आज कल किसी भी चीज़ में कीड़े नहीं लगते, मतलब
कीड़े भी ऐसी चीज़ नहीं खाते जो हम खाते हैं|
उसको पता है,
कि यह जहरीली चीज़ है| फिर शरीर में दर्द, कैंसर
होता है| तो हमें रसायन मुक्त खेती करनी चाहिये, और जैविक भोजन करना चाहिये| अगर हमें ढंग से भोजन करना आ जाए, तो हम बीमारी से बच सकते
हैं| तो शरीर को शुद्ध करना हो, तो
आयुर्वेद का इस्तेमाल करना चाहिये| हफ्ते में एक बार त्रिफला का
चूर्ण लीजिए| तो पेट साफ़ रहता है| शरीर शुद्धि के
लिए हमें आयुर्वेद चाहिये| फिर हमें प्राणायाम करना
चाहिये, थोड़ी थोड़ी देर| इससे शरीर में मजबूती आती
है, मन प्रसन्न रहता है| और संगीत सुनना चाहिये, थोड़ी
थोड़ी देर| हम सब सुनते तो हैं, लेकिन ध्यान से
नहीं| संगीत बजता रहता है, और हमारा ध्यान
कहीं और रहता है| ऐसा नहीं, थोड़ी देर बैठकर संगीत
सुनना चाहिये| ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है| दान से धन की शुद्धि होती है, और घी से आहार की शुद्धि होती
है|
प्रश्न :
गुरूजी, आखिर हम जीवन में चाहते क्या हैं और क्यों? जीवन का उद्देश्य क्या है?
श्री श्री
रविशंकर : ऐसा प्रश्न मन में उठा, यह बहुत अच्छा है| खुद को बड़ा भाग्यशाली समझिए|
अच्छी किस्मत होने से यह प्रश्न आता है, नहीं तो हम जीवन ऐसे ही जीते हैं, सोचते
भी नहीं हैं, कि जीवन क्या है| सोचिये, इस बारे में सोचिये| जो जानता है, वह नहीं बताएगा, और जो बताता है, वह नहीं जानता|
प्रश्न :
गुरूजी, यदि भगवान हमारे भीतर हैं, तो हम जीवन में दुःख क्यों महसूस करते हैं?
श्री श्री
रविशंकर : क्योंकि हम भगवान से विमुख होते हैं|
सूरज तो है,
लेकिन अगर उससे पीठ करके खड़े होंगे, तो छाया ही दिखेगी| दुःख वही छाया है| दुःख असली बात नहीं है, वह
विमुखता की छाया है| जब हम परमात्मा से विमुख होते हैं,
तो जीवन में दुःख होता है |
प्रश्न :
गुरूजी, भगवद गीता और महाभारत में क्या अंतर है?
श्री श्री
रविशंकर : महाभारत का एक अंग व एक अध्याय है, भगवद गीता|
प्रश्न :
गुरूजी, गुरु और सद्गुरु में क्या अंतर है?
श्री श्री
रविशंकर : कोई अंतर नहीं है, एक ही है| जिसमें सत्य नहीं है, वह
गुरु ही नहीं है|
प्रश्न :
गुरूजी, एक ही जिज्ञासा मन में है कि सफलता क्या है और हम पूर्ण सफल कैसे हो सकते
हैं?
श्री श्री
रविशंकर : सफलता का चिन्ह यही है, कि आपके चेहरे पर मुस्कान रहें| कुछ भी हो, यदि आप मुस्कुराते रहते हैं, तो यही सफलता का
चिन्ह है|
प्रश्न:
गुरूजी, क्या आप नक्सलवादियों और आतंकवादियों को एक अच्छा इंसान बना सकते हो?
श्री श्री
रविशंकर : बिल्कुल! बल्कि वे बने हैं| बहुत से आतंकवादी मुख्यधारा
से जुड़कर अच्छे इंसान बने हैं| हर बार झारखण्ड में चुनाव के
समय बहुत दिक्कत होती थी| बहुत जानें जाती थीं| इस बार एक भी हिंसा का घटना नहीं हुई| अच्छे लोगों ने भाग लिया|
हज़ारों
नक्सलवादियों ने मुख्यधारा से जुड़ना शुरू कर दिया है |
प्रश्न :
कर्म, धर्म एवं आध्यात्म; तीनों में से किसे जीवन में प्राथमिकता देनी चाहिये?
श्री श्री
रविशंकर : टेलीविजन पहले देखते हैं, या सुनते हैं, पहले ये बताईये? पहले सुनता हूँ,
बाद में देखता हूँ, या पहले देखता हूँ, बाद में सुनता हूँ| ऐसे चलेगा ? नहीं ! सब साथ में चलता है| धर्म, कर्म और आध्यात्म सब साथ में चलता है |
प्रश्न : हम
आर्ट ऑफ लिविंग का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो हमारा सांसारिक आचरण कैसा होना
चाहिये?
श्री श्री
रविशंकर : एक अच्छे इंसान के तौर पर| प्रमाणिकता के साथ| बनावटी नहीं| भीतर बाहर एक सा| इसका मतलब यह नहीं कि सत्य को लेकर हम गुस्सा करें| अकसर जो लोग परफेक्शन चाहते हैं, कि बिल्कुल वैसा ही हो जैसा
वे चाहते हैं, वे लोग गुस्सा ज्यादा करते हैं|
हमें अज्ञान को
भी संभालना आना चाहिये| तो आप सहज और सरल रहें, यदि
प्रमाणिकता से व्यवहार करेंगे, तो आप जीवन जीने की कला सीख चुके हैं|
प्रश्न : हमें
कैसे पता चलेगा कि हम ठीक कर रहें है या गलत?
श्री श्री
रविशंकर : अरे, आप अपने आप से पूछिए, अपनी अंतर आत्मा से पूछिए| गलत किया होगा तो अंदर से कुछ चुभेगा| सही किया हो, तो अंदर से लगेगा, कि हाँ बिल्कुल सही किया| जब भी आप सही करते हैं, तो कोई भय नहीं होता, आप निर्भय रहते
हैं| गलत किया होता है, तो अंदर से कुछ
चिड़चिड़ाहट रहती है, कुछ मुश्किल रहती है|
प्रश्न : क्या
भ्रष्टाचार और आतंकवाद खत्म होगा? क्या सनातन धर्म का अंत होगा?
श्री श्री रविशंकर
: नहीं, सनातन धर्म का अंत कभी नहीं होगा| यह प्राचीन काल से अस्तित्व
में है और आगे भी अस्तित्व में रहेगा| यह आर्ट ऑफ लिविंग के ३०
वर्ष पहले से है| आज हम कह सकते हैं कि १५२ देशों में
योग, प्राणायाम और सुदर्शन क्रिया का अभ्यास किया जाता है| अगर आप दक्षिण ध्रुव के आखरी शहर, तिएर्रा देल फ़ुएगो में
जायेंगे, वहां पर भी आप हजारों लोगों को प्राणायाम, ध्यान करते हुए शाकाहार की और
परिवर्तित होते हुए पाएंगे| अगर आप उत्तरी ध्रुव के आखरी शहर, ट्रोमसो, वहां
जहाँ पर दो महीने सूर्य की रोशनी नहीं आती है, और सूर्य एवं चन्द्रमा का उदय नहीं
होता, वहां पर भी हवाई अड्डे पर लोग मुझसे मिलने के लिए खड़े थे, यह देखकर मुझे
आश्चर्य हुआ| वे लोग बोले कि हम लोग विश्विद्यालय
में साधना कर रहे हैं| यह दुनिया के हर कोने में है|
११ मार्च को
मैं पाकिस्तान भी जा रहा हूँ| पिछले बार मैं करीब साढ़े सात
साल पहले वहां गया था| मैं इंदौर आया था और फिर
पाकिस्तान गया था|
इस बार भी,
मैं मध्य प्रदेश में इंदौर और रतलाम आने के बाद मैं पकिस्तान जा रहा हूँ| वहां पर भी हजारों लोग साधना कर रहे हैं| वे मुझे वहाँ आने के
लिए बहुत अनुरोध कर रहे हैं| वे वास्तव में चाहते हैं कि
मैं पाकिस्तान आउॅँ और इसलिए मैं यहाँ से पाकिस्तान जा रहा हूँ| दुनिया के हर कोने
मैं हमारी पारंपरिक ज्ञान और ध्यान की मांग है|
हमें उसे
सार्थक तरीके से उन तक पहुँचाना है| जब मैं पाकिस्तान गया था तब
वहां लोगों ने मुझसे पूछा कि आप के देश में लोग कितने सारे भगवानों को पूजते हैं,
जबकि हमारे देश मैं हम सिर्फ एक भगवान को पूजते हैं|
मैंने कहा कि
हम लोग भी सिर्फ एक भगवान को पूजते हैं, आप जानते हैं कैसे ? जैसे कि गेहूं के उसी
आटे से आप समोसा, पराठा, हलवा और दूसरे पकवान बनाते हैं| वह सब एक ही आटे से बनता है| करांची
का हलवा भी गेहूं के आटे से ही बनता है|
मैंने उनसे
पूछा कि आप गेहूं से इतनी सारी चीजें क्यों बनाते हैं? उसी तरह, भगवान सिर्फ एक
है, परन्तु हम उसे अलग अलग तरह से पूजते हैं|
भगवान मैं हर
तरह के गुण हैं, और उनके हर गुण के लिए हमने उन्हें एक रूप दिया है| इस्लाम मैं अल्लाह तो ९९ नामों से जाना जाता है|
सनातन धर्म
में १०८ नाम हैं और हमने उतने ही रूप उन्हें दिए हैं| केवल १०८ नहीं हजारों (सहस्रनाम)| पर भगवान एक है, एक नूर, एक परमात्मा और सिर्फ उन्हीं को हम
विभिन्न नाम और रूपों से जानते हैं| उन्हें यह सुनकर बहुत अच्छा लगा|
उन्होंने कहा
कि उन्हें ऐसा इस तरह से कभी नहीं सुना, हमें यह ज्ञान कभी नहीं मिल पाता| हम दूसरों को (दूसरे धर्म को मानने वाले) अपने से अलग समझते
थे|
सनातम धर्म
क्या है? प्राचीन काल से कहा जाता है “वासुदेव कुटुम्बकम” याने यह हमारी दुनिया है, यह दुनिया एक परिवार है| अगर इस तरह उदार आपके विचार हैं, तो आप अपने को धार्मिक कह
सकते हैं|
प्रश्न :
गुरूजी, इस प्रद्योगिकी पीढ़ी में, युवाओं नें आध्यात्मिकता खो दी है?
श्री श्री
रविशंकर : बिलकुल नहीं| देखिये, यहाँ पर कितने सारे
युवा बैठे हुए हैं|
प्रश्न : लोग
पैसे के पीछे भाग रहे हैं| ऐसी परिस्तिथि में कैसे हम
अपने को आध्यात्मिकता से जोड़कर रख सकते हैं? हम कहाँ से शुरुआत करें?
श्री श्री
रविशंकर : पहले इस तथ्य को जान लीजिए कि आध्यात्मिकता और आर्थिक तंत्र एक दूसरे के
शत्रु नहीं हैं| इस तथ्य को स्वीकार करें| ऐसा बिलकुल नहीं है कि जीवन में समृद्ध नहीं होना ही आध्यात्मिकता का अर्थ है| समृद्ध बनिए, धन संग्रह कीजिये, उसमें कोई बुराई नहीं हैं,
परन्तु धार्मिक तरीके से|
प्रश्न :
गुरूजी, इतने सारे धार्मिक आयोजनों के बावजूद धार्मिकता कहीं खो गयी है| इसका क्या कारण हो सकता है?
श्री श्री
रविशंकर : मैं ऐसा नहीं मानता| अगर आपको ऐसा दिख रहा है तो
अपनी आँखें को मलिए| दुनिया में बहुत सारे अच्छे लोग हैं| जो गलत कर रहे हैं उनकी संख्या बहुत कम है| हालाँकि अच्छे लोग शांत रहते हैं, यह गलत है|
अच्छे लोगों
के चुप रहने और निष्क्रिय होने की वजह से समाज में गिरावट आई है| राक्षसी लोग बहुत कम हैं|
जिस दिन अच्छे
लोग सक्रिय हो जायेंगे, राक्षसी लोगों का पतन हो जायेगा|
प्रश्न :
गुरूजी, सन २०१२ के बारे में बहुत कुछ कहा गया है| इन
परिस्तिथियों में आपको भारत का भविष्य कैसा दिखता है?
श्री श्री रविशंकर
: भारत का भविष्य उज्जवल है| लोग इस साल जाग जायेंगे| और मुझे यकीन है कि युवा जाग रहे हैं| यह चुनावों में दिखने लगा है| लोग
जाग रहे हैं और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज़ उठा रहे हैं|
प्रश्न :
गुरूजी, स्त्री और पुरुष के बीच इतना भेदभाव क्यों है?
श्री श्री
रविशंकर : भेदभाव नहीं करना चाहिए| भारत एक ऐसा देश है जहाँ
भगवन को अर्धनारीश्वर के रूप में देखा जाता है, आधे स्त्री और आधे पुरुष| भारत देश में महिलाओं को पुरुषों से एक कदम आगे माना जाता है| एक जोड़े का संबोधन श्रीमती और श्री, जिसमे श्रीमती महिला के
लिए होता है| दूसरी जगहों मिस्टर और मिसेज होता है| अंग्रेजी में, आप कभी मिसेज और मिस्टर नहीं कहते| परन्तु भारत में श्रीमती और श्री कहा जाता है|
प्रश्न :
गुरूजी, जीवन में किसको ज्यादा महत्त्व
देना चाहिए, हमारे आस पास के लोगों की खुशियाँ या हमारी खुद की खुशियों को?
श्री श्री
रविशंकर : इसे अपनी दोनों आँखों की तरह विचार कीजिये| अगर आप खुश हैं, तभी आप दूसरों को खुश रख सकते हैं| और अगर आपको दूसरों को खुश करने में खुशी मिलती है, तब आप
जीवन में बहुत तरक्की करेंगे|
प्रश्न :
गुरूजी, जीवन के उतार और चढ़ाव में हम अपने को संतुलित और खुश कैसे रख सकते हैं?
श्री श्री
रविशंकर : गान, ज्ञान और ध्यान|
प्रश्न : गुरूजी,
मुक्ति का क्या रास्ता है?
श्री श्री
रविशंकर : आप सही जगह पर हैं और सही ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं| जो खुद मुक्त हो चुका है वही आपको मुक्त कर सकता है| आप समझ रहे हैं मैं क्या कह रहा हूँ?
प्रश्न :
गुरूजी, आपको किस उम्र में आध्यात्मिक रूचि जागृत हुई?
श्री श्री
रविशंकर : मैं पैदा होने के समय ही साथ में लाया था| मैं
सोचता हूँ कि यही मेरा स्वभाव था| मुझे पता हैं, परन्तु जिस
समय से मुझे दुनिया का अहसास हुआ, सब ऐसा ही था| मुझे
दुनिया दोनों नई और पुरानी लगती है| सब मुझे अपने लगते है, कोई
भी मेरे लिए अजनबी नहीं है |
प्रश्न : यदि
काफी प्रयास करने के उपरांत भी हम किसी गलत व्यक्ति को सही पथ पर लाने में असफल हो
जाते हैं तो फिर हमने क्या करना चाहिये?
श्री श्री
रविशंकर : एक गलत व्यक्ति को सही पथ पर लाने के लिये प्रयास करे| यदि प्रयास से परिणाम नहीं मिलता तो उसके लिये प्रार्थना करे,
वह निश्चित ही सही पथ पर आ जायेगा|
प्रार्थना का
अर्थ सतही तौर पर की गई प्रार्थना नहीं होता|आपको उसे गलत मार्ग पर चलते हुये
देखने की पीड़ा को महसूस करना होगा| आपको उस पीड़ा को अपने पास
नहीं रखना है| उस पीड़ा को भगवान को समर्पित कर
दीजिये|
प्रार्थना को
दिल की गहराई से उठाना चाहिये, ‘काश यह व्यक्ति जल्दी ही ठीक
हो जाये’और वह निश्चित ही पूरी हो जायेगी| यदि वह भी काम न आये तो वह उसका कर्म है, उसे आप भूल जाये|
प्रश्न : क्या
भगवान का आस्तित्व सही में है? यदि हाँ तो उनका अनुभव कैसे करे?
श्री श्री
रविशंकर : मैं यहाँ यहीं बताने के के लिये आया हूँ कि भगवान का आस्तित्व है और वे
आप के साथ है| मैं आप को यहीं बताने के लिये आया
हूँ| उन्हें देखने की चेष्टा न करे|
यदि कोई आप से
कहता है कि वह आपको भगवान को दिखाने में मदद करेगा, तो यह सोचे कि वह मूर्ख है| भगवान कोई भौतिक पदार्थ नहीं है और न ही वह दृष्टि है, वह
द्रष्टा में है| इसलिये आप सिर्फ ध्यान के ही द्वारा
भगवान को प्राप्त कर पायेंगे| एक व्यक्ति जिसका मन बाहर की
ओर होता है, वह कभी भगवान को प्राप्त नहीं कर सकता| यदि
कोई सोचता है कि उसे भगवान हनुमान दिखते हैं, तो फिर निश्चित ही कुछ भ्रम या माया
है| उसके दिमाग में कुछ समस्या है| क्यों? इसलिये कि आप द्रष्टा को दृष्टि के रूप में कभी नहीं
देख सकते| वह कोई दृष्टि, भौतिक पदार्थ नहीं है
और नाही वह आप से भिन्न है| परमात्मा आत्मा में छुपा हुआ
होता है| जब आप ध्यान करेंगे तो पायेंगे कि
जिसे आप इधर उधर खोज रहा थे वह आप में ही मौजूद है| आपको
इसका अनुभव होगा| इसके बाद आपको कोई भी हिला नहीं सकता| कोई भी आपके चेहरे से मुस्कुराहट को नहीं ले सकता| भगवान हम सब में इसी क्षण यहाँ पर मौजूद है| इसे जान कर और स्वीकार कर के सिर्फ विश्राम करे| विश्राम में ही राम है|
प्रश्न : गुरूजी, जीवन का सत्य क्या है? कभी कभी मुझे लगता है कि मैं माया में फँस गया हूँ?
श्री श्री
रविशंकर : हाँ! माया से निकलना ही जीवन का सत्य है|
प्रश्न : गुरूजी, मैं समाज के लिये कैसे अपना योगदान दे सकता हूँ?
श्री श्री
रविशंकर : यह एक अच्छा प्रश्न है| आप यह विचार करे कि मैं समाज
के लिये क्या कर सकता हूँ| मैं चाहता हूँ कि सारे युवा
हमारे साथ ६ महीने के लिये जुड़े और फिर हम पूरे देश में एक क्रांति की लहर लेकर आयेंगे| फिर देखे कि देश में कैसा बदलाव आयेगा| मेरा यह सपना है कि मैं भारत को इस विश्व का सबसे विकसित देश
देखना चाहता हूँ| मैं चाहता हूँ कि भारत सबसे
शक्तिशाली देश बने और वहीं गौरव और सम्मान को पुनः प्राप्त करे जो उसे प्राचीन काल
में प्राप्त था| आप में से कितने मेरे साथ हैं ?
भारत को एक
शक्तिशाली देश के रूप में उभारना होगा और
मैं एक भी युवा को बेरोजगार नहीं देखना चाहता|
यहाँ पर कितने
युवा बेरोजगार हैं? मैं चाहता हूँ कि आप अपने आप को इस केंद्र में पंजीकृत करे| आज इस देश के लिये बहुत कुछ करना है| आज कल इस देश में नलसाज(प्लम्बर), वाहन चालाक,बावर्ची और
विद्युत मिस्त्री पाना बहुत मुश्किल हैं| ऐसे लोगों की बहुत आवश्यता
हैं| हम उन्हें प्रशिक्षण देंगे|
हमारी शिक्षा
प्रणाली इतनी पुरानी हो चुकी है और यह अनुपयुक्त भी है कि लोग अपनी पूरी पढ़ाई करने
के उपरांत भी बेरोजगार रह जाते हैं| हमारे देश में अशिक्षित
लोगों को नौकरी मिल जाती हैं और ५९% स्नातकोत्तर छात्र बेरोजगार हैं| इतने साल उन्होंने गहन अध्ययन किया और स्नातकोत्तर शिक्षा
प्राप्त की और फिर भी वे बेरोजगार हैं| शिक्षा व्यवसाय पर आधारित
होना चाहिये| हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी
होनी चाहिये कि हमें व्यवसाय कौशल पर उचित ध्यान देना चाहिये| यदि शिक्षा व्यवसाय पर आधारित होगी तो जैसे ही विद्यार्थी
अपनी शिक्षा पूरी करेंगे तो उन्हें तुरंत ही नौकरियां मिल जायेंगी| हमें इस बदलाव को लाना होगा| मैं
सभी चिकित्सकों से साल में तीन निशुल्क चिकित्सा शिविरों का आयोजन करने का निवेदन
करूंगा| यदि आप वकील है तो साल में कम से कम
तीन प्रकरण मुफ्त में करें| यह साल में हर चार महीने में
उनके लिये करें जो बहुत गरीब हैं और आपकी फीस नहीं दे सकते|
क्या आप ऐसा कर सकते हैं?
क्या आप ऐसा कर सकते हैं?
और सभी स्कूली शिक्षकों को उन छात्रों
को मुफ्त में ट्यूशन देना चाहिये जो अत्यंत कमजोर हैं| साल में ऐसे तीन छात्र चुन लीजिये| और यदि आप छात्र है तो लोगों में मत का प्रयोग करने के लिये
सजगता लानी चाहिये| सभी लोगों को मत का प्रयोग कने के
लिये कहिये और भ्रष्टाचार के खिलाफ मत का प्रयोग कीजिये|
प्रश्न : गुरूजी
आप राम अवतार, कृष्ण अवतार और अभी के आप के अवतार में क्या अंतर पाते हैं?
श्री श्री
रविशंकर : इस अंतर तो जानना मैंने आप पर छोड़ दिया है| मैं आप को यह क्यों बताऊँ? मैं तो सिर्फ उसे देखता हूँ जो मुझ में है और आब
सभी में भी हैं|
प्रश्न : गुरूजी जीवन में गुरू की वास्तव में आवश्यकता होती है?
श्री श्री
रविशंकर : क्या आपको इस प्रश्न का उत्तर सच
में चाहिये? जो कोई भी प्रश्नों का उत्तर देता है वह गुरू बन जाता है और जो उसे
सुनता है वह शिष्य बन जाता है| इस प्रश्न को पूछ कर के आप
फँस गये| क्योंकि आपने यह प्रश्न किया, आप ने
कहा, “मुझे गुरू की आवश्यकता है”|
यह वैसे ही है
कि आप किसी सोते हुये व्यक्ति से पूछे कि “क्या
तुम सो रहे हो”? यदि वह हाँ या ना गये उसका
अर्थ एक ही है कि वह सो नहीं रहा| उसी तरह जब आप पूछते हैं “क्या हमें गुरू की आवश्यकता है?” क्योंकि आप यह प्रश्न कर रहे हैं इसका है कि आपको
उसकी आवश्यकता है|
प्रश्न : गुरूजी हमने पहले दिल की या दिमाग की सुननी चाहिये?
श्री श्री
रविशंकर : जब व्यापार करे तो दिमाग की सुने| जब आप जीवन जीते हैं और कोई सामाजिक कार्य करते हैं तो दिल की
सुने| जब आप अपने परिवार के साथ में हैं तो
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