सृजनकर्ता और सृष्टि एक दुसरे से अलग नहीं है

२८
२०१२
दिसंबर
बैड एंटोगस्त, जर्मनी

प्रश्न : प्रिय गुरूजी, हमें गुरुओं की वंशावली के बारे में कुछ बताइए|
श्री श्री रविशंकर : मैं यह तो नहीं बता सकता कि यह कब से शुरू हुई, क्योंकि यह हज़ारों वर्ष पीछे तक जाती है| योग, ध्यान का ज्ञान, और यह ज्ञान कि सारा ब्रह्माण्ड एक ही ऊर्जा से बना है, गुरु प्रथा से ही लोगों में प्रचलित होता आया है| आम तौर पर जब आप कुछ बनाते हैं, तो बनाने वाला और वह वस्तु भिन्न होते हैं| जैसे कि, यदि आप एक मोमबत्ती बनाते हैं, तो आप सोचते हैं कि यह मोमबत्ती मुझसे अलग है| और आप इसे अपने से दूर रखेंगे| आप सोचेंगे यह मेरी कृति है पर मेरा हिस्सा नहीं है|
तो, लोग आमतौर पर सोचते हैं कि सृजनकर्ता और सृष्टि दो अलग चीज़ें हैं| पर यदि आप मानते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी है, तो वह अपनी हर रचना में भी विद्यमान होगा| जब किसी वस्तु की अपने आप से बाहर रहने की स्थिति हो, तो क्या वह सर्वव्यापी हुई? नहीं ना? यदि मैं सर्वशक्तिमान हूँ तो क्या कुछ मुझसे अधिक शक्तिमान हो सकता है? असंभव| इस लिए, सृजनकर्ता और सृष्टि दो अलग चीज़ें नहीं हैं| केवल एक ही चीज़ हैं|
अब हम कैसे समझें कि सृजनकर्ता और सृष्टि एक हैं? एक नर्तक और नृत्य के उदाहरण से| क्या आप नर्तक को उसे नृत्य से अलग देख सकते हैं? नहीं! यह संभव नहीं है| यदि आपको नृत्य देखना है तो आप उसे उस नर्तक के द्वारा ही देख सकते हैं|
एक चित्रकार और उसका चित्र अलग होते हैं| चित्रकार चित्र बना कर उस से दूर हो सकता है, और चित्र फिर भी रहेगा| पर एक नर्तक अपने नृत्य से दूर नहीं हो सकता| इस लिए, सृजनकर्ता और सृष्टि उस नर्तक और नृत्य की भांति हैं|
वह शक्ति जिसे हम भगवान, या प्रेम या रौशनी कहते हैं वह सारी सृष्टि में और उसके हर कण में विद्यमान है| यह प्राचीन ज्ञान का सार है, और यही आधुनिक विज्ञान, और भौतिक विज्ञान भी विस्तृत करते हैं|
सारा विश्व एक ही क्षेत्र है, एक ही ऊर्जा है| यह तथ्य धर्मशास्त्रियों की बहुत सी उलझनें सुलझा देता है|

प्रश्न : हम आभाव के विचार को आधिक्य (भरमार) में कैसे बदल सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर : यह विचार ही कि आप ऐसा करना चाहते हैं कहता है कि आप इस दिशा में अग्रसर हो चुके हैं|
आप देखिये आपकी ज़रूरतें क्या हैं और आप पाएंगे कि वे हमेशा पूरी होंगी| जो भी आपको चाहिए वह सदैव आप तक आता है| पर इस सोच को अति तक न ले जाइए कि, “मैं कुछ नहीं करूँगा, सब कुछ स्वयं ही मेरे पास आने दो”| नहीं, यह ठीक नहीं है|
आपको अपने प्रयत्न करने हैं, और आप में साहस है| यह दोनों चीज़ें आपके लिए समृद्धि लाएंगी| संस्कृत में एक कहावत है, “उद्योगिनाम पुरुष सिंहं उपायती लक्ष्मी| अर्थात, असीम धन उस को प्राप्त होता है जिसमे एक सिंह का साहस हो और जो अपने सारे प्रयत्न अपने उद्योग में डालता है| इसलिए अपने सारे प्रयत्न करिये और एक सिंह की भांति रहिये|
क्या आप जानते हैं, सिंह सबसे सुस्त पशु है? वो तो सिंहनी है जो शिकार करती है और उसे सिंह को ला कर देती है| सिंह बस जाता है और शिकार को खा लेता है| सारा काम सिंहनी करती है| सिंह शिकार करने का काम भी नहीं करता| वह सुस्त है पर फिर भी जंगल का राजा है, और उसमे गहरा आत्मविश्वास है|
इसलिए, आपके पास यह होना ज़रूरी है आत्मविश्वास और एक सिंह के जैसा प्रताप| इसके उपरान्त आप को अपने पूरे प्रयत्न डालने हैं और तब धन समृद्धि आपके पास आती है| बैठ के सोचने और सपने लेने से, या उसके लिए उत्तेजित होने से कुछ नहीं होगा| उत्तेजित न हो कर, बस ठान कर उस कार्य को करिये| बाद में आप देखेंगे कि आपको उसके साथ धन समृद्धि भी मिलेगी|

प्रश्न : प्रिय गुरूजी, आपने बताया था कि भिन्न प्रकार के प्राणा होते हैं, क्या आप कृपया इसके बारे में और बता सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर : दस प्रकार के प्राणा होते हैं| इन में, पांच प्रधान होते हैं और पांच अप्रधान| आज मैं पांच प्रधान प्राणों के बारे में बात करूँगा| पहले प्रमुख प्रकार को प्राणा कहते हैं, जो आपकी नाभि से ऊपर सर की ओर आता है| एक और प्रकार का प्राणा जो नाभि से नीचे की ओर जाता है, उसे अपान कहते हैं| जब प्राणा बहुत अधिक होता है, तो आप सो नहीं सकते; आपको अनिद्रा हो जाती है और आप उखड़े हुए महसूस करते हैं| परन्तु, यदि अपान का स्तर बहुत अधिक हो, तो आप इतने थके हुए महसूस करते हैं कि आप बिस्तर से उठना भी नहीं चाहते| क्या आपने इसका अनुभव किया है? कभी कभी आप इतना भारी और थका हुआ महसूस करते हैं| यह अपान के असंतुलन से होता है|
तीसरे प्रकार का प्राणा होता है समान, जो हमारे पाचन तंत्र में, अर्थात हमारे पेट में, पाचन अग्नि की तरह होता है| यही अग्नि भोजन के पाचन में सहायक होती है| समान पाचन और बाकि शारीरिक क्रियाओं में सहायक होता है|
फिर उदान वायु या उदान प्राणा जो दिल के पास होता है और हमारी भावनाओं के लिए जिम्मेवार होता है| सुदर्शन क्रिया में कुछ लोग रोने लगते हैं, कुछ हँसते हैं और आप पाते हैं कि आपकी भावनाएं उमड़ पड़ती हैं| यह उदान वायु के कारण होता है| तो, उदान वायु सब भावनाओं के लिए जिम्मेवार है|
पांचवा प्राणा व्याना कहलाता है, जो शरीर की सारी हरकत के लिए जिम्मेवार होता है| यह सारे शरीर में फैला होता है|
सुदर्शन क्रिया में आप कुछ सनसनी, कुछ ऊर्जा सारे शरीर में महसूस करते हैं| क्या आपने यह अनुभव किया है?
सुदर्शन क्रिया में पाँचों प्राणा संतुलित हो जाते हैं इसी लिए, आप रोने लगते हैं, या हँसते हैं और पूरे शरीर में एक झुनझुनाहट महसूस होती है| और क्रिया के बाद बहुत भूख भी लगती है, है ना?
तो हमारे शरीर के यह पांच प्राणा हमारे जीवन को चलाते हैं| यदि समान असंतुलित है, तो पाचन रोग होते हैं और आप भोजन ठीक से नहीं पचा पाते, या आपका दिल मिचलाता है| यह सब समान के असंतुलन से होता है|
जब उदान प्राणा अटका होता है तो आपको भावुकता पर रोक महसूस होती है और यह आपकी सोच और मन को भी प्रभावित करता है| जब व्याना जो सारे शरीर में होता है वह असंतुलित हो तो जोड़ों का दर्द, चलने में कठिनाई होती है, या आप बेचैन और झुंझलाए रहते हैं, या आपका मन नहीं करता कुछ करने को| ऐसी अवस्था में चलने फिरने से बहुत कष्ट होता है और पूरे शरीर में बैचैनी पैदा होती है| यह सब व्याना के असंतुलन से होता है|
सुदर्शन क्रिया के बाद आपने देखा होगा सारा असंतुलन चला जाता है| क्या ऐसा नहीं हुआ आपके साथ? शरीर की हलचल में या संचार में होने वाले कष्ट, और सारे दर्द सब सुदर्शन क्रिया के बाद समाप्त हो जाते हैं|
तो यह हैं पांच प्रमुख प्राणा| ऐसे ही पांच अप्रमुख प्राणा भी हैं, पर हम किसी और समय उनकी बात करेंगे|

प्रश्न : प्रेम और अनासक्ति कितने अनुकूल हैं?
श्री श्री रविशंकर : जीवन में आसक्ति और अनासक्ति, दोनों आवश्यक हैं| सामान्यतः हम सोचते हैं, “यदि मैं जोशीला हूँ तो मैं आसक्त कैसे हो सकता हूँ? यदि मैं जीवन में आसक्त हो जाऊँगा तो किसी भी काम के लिए जोश कैसे ला पाऊंगा?” लोगों के मन की सामान्य धारणा यही है| मैं आपसे कहता हूँ, ऐसा नहीं है| यह ऐसा है कि सांस लेना मानो जोश है, और सांस छोड़ना आसक्ति और इन दोनों के बीच में है सहानुभूति| आपको तीनों की आवश्यकता है|
आपको जीवन में किसी क्षेत्र में जोशीला होना चाहिए, नहीं तो आप उदासीनता में डूब जाओगे| ज्ञान के प्रति, सेवा करने के लिए, सोचने के लिए, या किसी और चीज़ के लिए जोशीले रहिये, तामसी रहिये| जीवन में कुछ तमस आवश्यक है| आप में बुद्धि पाने के लिए भी जोश हो सकता है| इस लिए, जोश या तमस अनिवार्य है|
अनासक्ति भी अनिवार्य है| अनासक्ति के बिना कोई खुशी नहीं है, कोई उल्लास नहीं है| यदि आप में तनिक भी अनासक्ति नहीं है तो आप दुखी हो जाओगे|
और हाँ, सहानुभूति भी जीवन में आवश्यक है| इसलिए, तीनों आवश्यक हैं|

प्रश्न : यदि इस जीवन में हम मोक्ष नहीं पाते तो क्या होता है? क्या हम अगले जीवन में आपका साथ पा सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, बिलकुल| इस बारे में चिंता मत करिये|

प्रश्न : प्रिय गुरूजी, मुझे अचरज होता है क्यों इतने दम्पतियों कि संतान नहीं हो पाती| पश्चिमी संसार में क्या हो रहा है?
श्री श्री रविशंकर : यह तो आपको वहां के चिकित्सकों से पूछना होगा| वे आपको सही रोग निदान दे पायेंगे| हम इसके बारे में व्यापक अनुमान नहीं लगा सकते| हाँ, शराब और मादक पदार्थ इसका एक कारण अवश्य हैं| यह ठीक नहीं है| लोग विद्यालय और महाविद्यालयों की पढ़ाई के दौरान ही शराब का सेवन करने लगते हैं| यह अच्छा नहीं है| यह विश्व एक बहुत बेहतर जगह होगी यदि लोग मदिरा और नशीले पदार्थों से दूर रहें|