बैंगलोर आश्रम, भारत ९ जनवरी २०११
यथा दृष्टि तथा सृष्टि
तुम जैसा सोचते हो, जैसी तुम्हारी दृष्टि है, वैसा ही जीवन में होता जाता है। कोई इच्छा करना, उस पर अपने ध्यान को रखना, इतना करने से तुमने जो इच्छा की थी वह घटित होने लगती है, भले ही वह सकरात्मक हो या नकरात्मक; यह क्रम है। आध्यात्म मार्ग पर चरित्र में शील होना बहुत आवश्यक है। कुछ आचरण यहां अपेक्षित है, जैसे कि किसी को बुरा-भला ना कहें, श्राप ना दें। पहले तुम में श्राप देने की शक्ति आती है और फिर आशीर्वाद देने की शक्ति आती है। यदि तुम श्राप देने लगे तो फिर आशीर्वाद देने की शक्ति क्षीण पड़ जाती है। यदि तुम आशीर्वाद दो, तो तुम्हारी आशीर्वाद देने की शक्ति बढ़ती जाती है।
सत्य बोलो, पर सुखद सत्य बोलो। दुखद सत्य मत बोलो और ना ही सुखद झूठ बोलो। ऐसा करना बहुत सरल है और साथ ही जटिल भी। तुम जो भी इच्छा करते हो, वह मुड़ कर तुम्हारे पास वापस आती है। वह घूम कर वापस हमारे पास ही आती है। ब्रह्माण्ड की रचना ऐसी ही है।
जब तुम एकजुट होकर कोई कार्य करते हो, तब तारतम्यता होती है। तो, जब तुम कोई इच्छा करते हो तो सभी के लिये करो, तब वह स्वतः तुम्हारे लिये भी पूरी हो जाती है। तो, इस बात का ध्यान रखें कि हम किसी के उत्साह के ऊपर ठंडा पानी ना डाले। ऐसा करने पर वही तुम्हारे साथ भी हो सकता है। क्या तुमने ध्यान दिया है कि एक बच्चा कितनी बार कुछ अच्छा करना चाहता है और हम कहते हैं, ‘नहीं, ऐसा मत करना।’ इससे एक नकरात्मक तरंग पैदा होती है, और इसका एक तात्पर्य और भी है। इसीलिये, प्राचीन समय में ऐसा कहा जाता था कि किसी को हतोत्साहित ना करें, उसके सामने विकल्प ना रखें। एक विशेष समय रखा जाता था, जब वाद-विवाद किया जाता था। उसे उस समय तक ही सीमित रखा जाता था। यह बहुत वैज्ञानिक है। अगर कुछ अपशगुन दिख जाये तो फिर किसी किसी स्थान पर लोग शुभ कार्य शुरु नहीं करते थे। पर आज हम ऐसे शगुन-अपशगुन के आधार पर नहीं जी सकते हैं। कितने ही लोग कितनी ही बातें कहेंगे! यही अच्छा है कि अपने अंतर्मन की बात मानें।
पांच साल पहले जब रजत जयंती महोत्सव होने वाला था, तब बहुत से लोगों ने कहा कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिये। उस समय सभी जगह आतंकी हमले हो रहे थे। कुछ ही दिन पहले चिन्नई में भीड़ भाड़ में भगदड़ मचने की भी ख़बर थी। लोगों ने हर तरह का तर्क देकर यह प्रयास किया कि वह कार्यक्रम ना कराया जाये। पर हम नें किसी की नहीं सुनी। और, विश्व शांति के लिये विश्व में एक यादगार कार्यक्रम हुआ, जिसमें विश्व भर से विभिन्न जातियों और परंपराओं से आये २५ लाख लोगों ने एक साथ मिलकर यह महोत्सव मनाया। ऐसा ही ब्रह्मनाद भी हुआ! कई सितार वादक यह कहेंगे कि कई वादकों के लिये मिलकर एक साथ सितार बजाना असंभव बात है! पर ऐसा हुआ। तुम्हें सपने देखने चाहिये। बड़े बड़े सपने देखो और अपना ध्यान अपनी इच्छा पर रखो। और फिर उसमें जीत या हार, परमात्मा को समर्पित कर दो। जीत मिले या हार, दोनों ही स्थितियों में तुम्हें कुछ सीखने को मिलता है। कुछ सीख मिलती है कि क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये। इच्छा रखो, उसे पूरा करने के लिये काम करो, और साथ ही उसे परमात्मा को समर्पित भी कर दो। कुछ लोग इच्छा तो रखते हैं पर उसे पूरा करने के लिये तनाव में आ जाते है! एक दूसरी तरह के लोग होते हैं, ‘जो ईश्वर की मर्ज़ी होगी वही होगा,’ कहते हुये कोई परिश्रम नहीं करते हैं। बीच के मार्ग पर आओ। दोनों साथ में चलें – इच्छा पर ध्यान रखो और भक्ति में रहो।
प्रश्न: आप इतने प्रसिद्ध हैं, और सब आपको इतना प्रेम करते हैं। क्या इससे आपने अपनी स्वतंत्रता नहीं खोई है?
श्री श्री रवि शंकर: मैं अपनी स्वतंत्रता किसी भी क़ीमत पर नहीं छोड़ सकता। मेरे पास केवल समय की कमी है। मेरे पास समय के सिवा सभी कुछ बहुतायात में है।
प्रश्न: क्या एक आत्मज्ञानी के साथ होने से व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास तेज़ गति से होता है?
श्री श्री रवि शंकर: यह तो तुम बताओ, मैं नहीं बता सकता। क्या यहां आने से तुम्हारे आध्यात्मिक विकास में गति आ जाती है? जहां कहीं भी ध्यान हो रहा होता है और तुम जा कर बैठते हो तो तुम्हें वहां स्वाभाविक रूप से ही अच्छा लगने लगता है, क्योंकि हमारा मन हमारे आस पास के लोगों से प्रभावित होता है। जब तुम ऐसी जगह में होते हो जहां सकरात्मक ऊर्जा अधिक मात्रा में होती है तो तुम भी उस सकरात्मकता को ग्रहण कर लेते हो। सकरात्मकता तो भीतर है ही, बस तुम खिलने लगते हो।
प्रश्न: मन छोटी छोटी बातों में उलझा रहता है। तो क्या शरीर में पित्त दोष के बढ़ जाने से ऐसी दशा होती है?
श्री श्री रवि शंकर: कुछ भी हो सकता है। अगर पित्त दोष बढ़ा हुआ हो तो किसी आयुर्वेदिक डौक्टर से मिलो। दूध, त्रिफला, इत्यादि लेने से भी पित्त कम हो जाता है।
प्रश्न: कई बार शगुन-अपशगुन देखकर मुझे ऐसा लगता है कि प्रकृति मुझे कुछ करने या ना करने की सलाह दे रही है। आप इस बारे में क्या कहते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: जो कुछ हो रहा है उस में हर चीज़ के पीछे के अर्थ को जानने का प्रयत्न मत करो। मैंने ऐसे लोग देखें हैं जो हर बात के पीछे कोई अर्थ निकाल लेते हैं, ‘ओह! प्रकृति मुझे कुछ संदेश दे रही है! प्रकृति कह रही है कि मुझे नहीं जाना चाहिये!’पर अगर तुम उस से आगे निकल सको तो तुम पंहुच जाओगे। प्रकृति तुम्हें जाने से रोक नहीं रही है, वह देख रही है कि तुम्हारा संकल्प कितना दृढ़ है। फिर भी इतने भी अंधे होना ठीक नहीं कि आस पास के संकेत ना पढ़ सको। यदि, तुम अटक गये तो तुम्हारा अंतर्ज्ञान या परमात्मा से तारतम्यता खो जाती है। तो अपने इरादे को मज़बूत करो। विजय हमेशा तुम्हारे साथ होगी।
प्रश्न: आध्यात्मिक मार्ग बहुत कठिन है। इसमें केवल कुछ ही लोग क्यों आत्मज्ञान पाते हैं?
श्री श्री रवि शंकर: कठिन क्यों? आध्यात्म का अर्थ केवल अपनी आंखों को बंद रखना ही नहीं है। आध्यात्म का अर्थ है परमात्मा के साथ एक रिश्ता। परमात्मा, या फिर उसे जिस भी नाम से पुकारना चाहो! बस इतना ही है!
क्या तुम परमात्मा से साथ एक जुड़ाव अनुभव करते हो? हर साधना का ध्येय इतना ही है कि वह जुड़ाव हो। बस यह जानना पर्याप्त है कि वह जुड़ाव है। क्या तुम कार चलाते हुये ऐसा नहीं कर सकते हो? बस इतना ही है! जीवन और आध्यात्म को अलग अलग मत करो। तुम्हारा पूरा जीवन ही आध्यात्मिक है। तुम्हारा जीवन ही साधना है। सब कुछ उसी का अंग है। पर इसे ध्यान में ना बैठने का बहाना मत बना लेना! ध्यान से तुम्हारे नर्वस सिस्टम को विश्राम मिलता है, भीतर से तनाव मिटता है। क्या तुम ने ध्यान दिया है कि जब तुम तनाव में होते हो तो तुम्हें अपने प्रिय जनों तक के पास बैठने की इच्छा नहीं होती? तुम एकांत में रहना चाहते हो, पर तुम नहीं जानते कि ऐसा क्यों होता है। जैसे, एक शिशु सोना चाहता है पर वह नहीं जानता कि कैसे सोये और वह रोता है। तब मां उसे लोरे सुनाती है, थपथापाती है, कुछ करती है, और वह सो जाता है। ऐसा सब के साथ होता है। सभी अपने स्त्रोत तक वापस जाना चाहते हैं पर वे नहीं जानते कि कैसे जायें। तनाव और कुछ नहीं है बस मन को शांत ना कर पाना है।
प्रश्न: आध्यात्म के पथ पर तमस की काली रात आये तो क्या करें?
श्री श्री रवि शंकर: तुम सही जगह पर आये हो। आसन, सत्संग, भजन, जप, इन सब से यह अंधेरा मिट जायेगा।
प्रश्न: बुरे विचारों को बढ़ावा ना देना और उन से बचना, इस में क्या अंतर है?
श्री श्री रवि शंकर: तुम ने खुद ही जवाब दे दिया है। तुम दो शब्दों का प्रयोग कर रहे हो, इसका अर्थ है कि तुम उन में कोई बारीक अंतर पहले से ही देख रहे हो। अपने आप को नकरात्मक विचारों से दूर रखने के बजाये, अपने आप को व्यस्त रखो। अगर तुम व्यस्त हो तब वे तुम्हें परेशान नहीं करेंगे।
प्रश्न: आत्मज्ञान से आगे क्या है?
श्री श्री रवि शंकर: कुछ कुतूहल बना रहने दो। अगर तुम सब कुछ अभी जान गये तो बोर हो जाओगे। ये तो ऐसा ही है जैसे कोई बच्चा पूछे, ‘आकाश के ऊपर क्या है?’आकाश के ऊपर आकाश है!
प्रश्न: भगवान ने भय क्यों बनाया? मैं भय से छुटकारा कैसे पाऊं?
श्री श्री रवि शंकर: भगवान ने केवल प्रेम ही बनाया! प्रेम सिर के बल उल्टा खड़ा होकर भय बन गया।
प्रश्न: कुछ प्रार्थनाओं का जवाब क्यों नहीं मिलता?
श्री श्री रवि शंकर: हो सकता है वे तुम्हारे भविष्य के लिये लाभकारी ना हो। देखो, तुम्हारे जीवन में ऐसा कितनी बार हुआ है कि तुमने भगवान से कुछ मांगा और वो नहीं मिला, और आगे जाकर तुमने धन्यवाद दिया कि तुम्हारी वह प्रार्थना पूरी नहीं हुई? तो, धीरज रखो। तुम्हारे लिये जो भी अच्छा होगा, वही होगा।
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