चेतना के विकास पर और गहन विज्ञान

जनवरी २०११, बंगलौर

प्रश्न : ओम शब्द और उसके महत्व के बारे में कुछ बतायें।
श्री श्री रवि शंकर: इसे एक कर्तल ध्वनि, यानि एक हाथ की ताली की आवाज़ में भी सुन सकते हैं। एक ऐसा शब्द जो ब्रह्मांड में उत्पन्न हुआ है, किसी घर्षण से नहीं, वही सर्वलौकिक शब्द है ओम । पुरातन काल में कुछ ऋषियों ने गहन ध्यान में इस शब्द को सुना और तब से, लाखों वर्षों से किसी न किसी तरह से इसका उच्चारण हो रहा है।
हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया कि ओम शब्द की ध्वनि की frequency पृथ्वी की अपनी धुर्री पर घूमने की रफ़्तार के बिल्कुल एक समान है।
ओम ध्वनि के स्पन्दन से प्राण शक्ति हमारे समूचे शरीर में प्रसारित होती है। ओम शब्द की ध्वनि प्रकृति की ही प्रतिध्वनि है। सागर के किनारे खड़े होकर यदि तुम उठती गिरती लहरों की आवाज़ ध्यान से सुनो, तो ओम की ही ध्वनि सुन पाओगे। ऊंचे पर्वत के शिखर पर खड़े होकर बहती हवा की आवाज़ सुनो-ओम की ही आवाज़ सुनने को मिलती।
योग के निर्माता महर्षि पतांजलि ने कहा था जीवन की सभी बाधाओं को दूर करने के लिये ओम का उपयोग किया जा सकता है। जब हम तीन बार ओम के उच्चारण के बाद जो भी सहज का मन्त्र है, ध्यान करते हैं तो अत्याअधिक गहन ध्यान होता है।

चीन के एक प्रसिद्ध डाक्टर ने, जो सात बड़ी बीमारियों से स्वयं पीड़ित थे, अपना यह अनुभव सुनाया कि उन्हें ५०० ग्राम दवाई का हर रोज़ सेवन करना पड़ता था पर कोई लाभ नहीं हो रहा था। फिर उन्होंने १-२ घंटे प्रतिदिन ओम के साथ अभ्यास करना शुरू किया  और दो वर्ष में ही वे उन सब बीमारियों से छुटकारा पागये जिनको दवाइयों द्वरा ठीक करना असम्भव था। उनके अन्य साथियों के लिये यह अचरज की बात थी। अब वो Music therapy के नाम से चीन के लोगों को अपने राष्ट्रीय टेलीविज़न पर सिखा रहे हैं!
 
यह अपना अनुभव जब उन्होंने सुनाया तब हमने कहा कि यह तो वही तथ्य है जो महर्षि पतांजलि ने वर्षों पूर्व कहा - "एक तत्व अभ्यास" ( एक तत्व या सिद्धान्त का अभ्यास करो। चीन में अब ओम के गान द्वारा उपचार को Music Therapy कहा जा रहा है।
ध्वनि एक ऊर्जा ही है, विद्युत की धारा ही है। हमारा सम्पूर्ण शरीर भी विद्युत शक्ति है और ओम का हमारे शरीर के सभी कोषों पर प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न : गुरुजी, ॐ ध्यान अन्य प्रकार के ध्यान से कैसे भिन्न है?
श्री श्री रवि शंकर: ध्यान कई प्रकार के होते हैं व प्रत्येक अपने तरीके से अद्भुत है। किसी एक की दूसरे से तुलना करना आवश्यक नहीं है क्योंकि हर किसी व्यक्ति के लिये सभी विधियां उपयुक्त नहीं होती हैं। अलग अलग व्यक्तियों के लिये कोई कोई विधियाँ ही ठीक होती हैं समय अनुसार। ओम शब्द (ओंकार) का प्रयोग सदा ध्यान के शुरु में करना बेहतर है पर इसका ध्यान के वक्त मन्त्र स्वरूप प्रयोग करना ठीक नहीं।

प्रश्न : बतायी गयी विधि से ध्यान करने और ओम विधि के ध्यान में क्या अंतर है?
श्री श्री रवि शंकर: बतायी गयी विधि द्वारा कराये ध्यान में, तुम्हें कुछ नहीं करना है, तुम्हारे लिये ध्यान कराया जा रहा है। बस केवल महसूस करो - "दिव्यता मेरे लिये ध्यान कर रही है, मुझे केवल विश्राम करना है"। यह तुम्हारे विमान में बैठने समान है, जिसमें कोई और विमान चला रहा है, तुम्हें केवल कुर्सी की पेटी (सीट बेल्ट) बाँध कर बैठना है और विश्राम करना है।

प्राण बढ़ाने के लिये प्राणायाम करना लाभदायक होता है पर, ओम ओम का रट लगाये मत बैठे रहना, इससे तुम्हें शक्ति के संचार में अचानक वृद्धि महसूस हो सकती है। इतनी बड़ी हुई ऊजा में नींद का अभाव भी हो सकता है।

प्रश्न: कई आध्यात्मिक मार्ग में स्त्री-पुरुष के प्रेम को बाधा माना जाता है| उद्धव गीता में कृष्ण ने कहा कि जब कोई निर्वाण पाने के करीब होता है तो देवता लोग उन्हें नीचे गिराने के लिये, उनका ध्यान भंग करने के लिये, किसी नारी को उनके पास भेज देते थे। उसे पथ भ्रष्ट कराने का सर्वोच्च साधन माना जाता है। आज के इस युग में भी क्या स्त्री को किसी पुरुष के आध्यात्म पथ यात्रा में बाधक माना जाता है? क्या स्त्री-पुरुष के प्रेम की सहमति नहीं है? क्या दिव्य प्रेम में इसके लिये स्थान नहीं?
श्री श्री रवि शंकर: तो तुम्हारा प्रश्न क्या यह है कि कृष्ण ने उद्धव को यह क्यों कहा? देखो, कृष्ण ने भिन्न भिन्न लोगों को भिन्न भिन्न बातें कहीं समयानुसार। मैं अभी यहाँ कृष्ण की वकालत नहीं करने वाला हूँ! पर हाँ, यदि उद्धव को कहा था तो अवश्य ही जीवन के मोड़ का कोई निश्चित समय होगा, ठीक? परन्तु तुम्हारी अवस्था में यदि तुम्हें अभी किसी से प्रेम हो गया हो तो कोई हर्ज़ नहीं!
यह सोच गलत है कि प्रेम के लिये कोई स्थान नहीं है या प्रेम आध्यात्म के खिलाफ़ है, बिलकुल नहीं । हाँ, Promiscuity आध्यात्म के विरुद्ध है। दूसरों का गलत फायदा उठाना आध्यात्म के विरुद्ध है। यदि तुम परस्पर एक दूसरे से वाकई में प्रेम करते हो तो विवाह अच्छा है। पर बाद में भी प्रेम बना रहे। दूसरों के साथ भी प्रेम हो तो गड़बड़ होगी दोनों ओर। फिर फ़ायदा केवल टेलिफोन कम्पनी को ही होगा! और हाँ, यदि तुम प्रेम करते हो और तुम्हारे माता-पिता भी सहमत हों तुम्हारे चयन से, तो बहुत ही अच्छा हो। और फिर तुम्हारा यह प्रेम बाद में भी उसी पार्टनर के साथ बना रहना चाहिये!

पिछले माह ही एक लड़के का विवाह हुआ था यहाँ। उसने कहा वह तीसरी बार शादी कर रहा है उसी लड़की से- पहले अमरीका में, फिर दिल्ली में और अब यहाँ। आध्यात्म किसी भी प्रकार की भ्रष्टता के विरुद्ध है। प्रेम के नाम पर यदि वासना के रूप में किसी का शोषण हो रहा हो तो वह ठीक नहीं है।
प्रेम कहता है- "मैं तुम्हारे लिये हूँ, मेरे पास जो कुछ भी है वह तुम्हारे लिए है"।
प्रेम में देना श्रेष्ठ है।
केवल भारत देश में ही दिव्य प्रेम की चर्चा है..राधा कृष्ण का नाम तो पूरा देश जानता है!
कृष्ण ने उद्धव को स्त्री बाधक समान कहा जब उद्धव काफ़ी वृद्ध हो चले थे। तुम भी यदि यहाँ पचास साल बाद आकर कहो कि तुम प्रेम में पड़ गये हो तो मैं कहूँगा यह बाधक है। हाँ, अभी यदि तुम २५ साल के हो और कहते हो कि प्रेम में पड़ गये हो तो अलग बात है। पर ५५ साल के हो तो!

प्रश्न: एकाग्रता और विचार के लिये उपयुक्त विधियों में क्या भिन्नता है?
श्री श्री रवि शंकर: साधारणतः हम बैठ कर ज्ञान की चर्चा करते है या ग्रंथों की बातों पर विचार करते हैं। इसमें हम मन को कार्यरत रखते हैं। मन फिर बस सोचता रहता है,सोचता रहता है। सोच भी एक कार्य है, और इससे मन को विश्राम नहीं मिल पाता। इसलिये सोचना विचार करना ध्यान नहीं है।
एकाग्रता में बहुत मेहनत होती है। तुम अपने मन को केन्द्रित कर एक जगह ठहराना चाहते हो, जो मन की आदत नहीं है। मन तो अति चलायमान है, एक जगह से दूसरी ओर , एक लुभवनी से दूसरी लुभावनी वस्तु पर जाता रहता है। मन सदा उस ओर भागता है जो ज़्यादा अच्छी चीज़ हो। जब तुम अच्छा भोजन कर रहे हो तो उसमें मन लगा होता है पर जैसे ही टी वी पर कोई लुभावना दृश्य दिखा तो खाने की ओर से मन हट कर सुन्दर दृश्य में जा अटकता है।
तुम्हारा मन इधर-उधर जाता रहता है। मन एक चीज़ से दूसरी पर जाता है और ज्यादा सुखदायक लगने वाली चीज़ पर जाता है। हालांकि, कोई ज्यादा सुखदायक चीज़ है, यह केवल मन की सोच है, असल में वह चीज़ सुख का स्त्रोत शायद नहीं या बिल्कुल ही नहीं हो।
एकाग्रता- मन को एक जगह केन्द्रित करना है जो उसकी प्रकृति के विपरीत है। इसमें हम अपने मन को केन्द्रित करने के लिये ताकत लगाते हैं। बच्चों में बहुत तनाव पैदा हो जाता है जब उनकी इच्छा के विपरीत मन को कहीं और लगाने की कोशिश की जाती है। उनको जिन विषयों में रुचि नहीं हो, उन्हें जबर्दस्ती पढ़ने पर मजबूर कर दिया जाता है। इससे तनाव और बडता है
एकाग्रता यानि मेहनत, तो फिर यह ध्यान नहीं हो सकता। हाँ, आपको जीवन में एकाग्रता की आवश्यकता जरूर पड़ती है। ध्यान से एकाग्रता और intelligence बड़ती है। ध्यान तो बिना किसी श्रम के, सहजता से होता है!
जब गहन ध्यान होता है तो मन एक दम ताज़ा और खिला हो जाता है।
तब ऎसे गहरे विश्राम के बाद एकाग्रता स्वयं होती है स्वाभाविक रूप से, और बेहतर निर्णय लिए जाते हैं। दुर्भाग्य से, विश्व के कई भागों में ध्यान को एकाग्रता या विचार करना समझा जाता है, जो सत्य नहीं है।
ध्यान कुछ भी नहीं करने की कला है। यह कला है मन को केवल शांत करने की और कुछ भी न करके केवल अन्तर मन की उस गहराई को मह्सूस करने की।
सहजता ही ध्यान की कुंजी और रोज़ कुछ मिनट ध्यान लगाने से तुम्हारी एकाग्रता बढ़ती है व बुद्धि तीव्र होती है।

प्रश्न : गुरुजी, सुदर्शन क्रिया के अभ्यास करने के बाद की ध्यान अवस्था अन्य ध्यान अवस्था से कैसे भिन्न है?
श्री श्री रवि शंकर : सुदर्शन क्रिया तुम्हें अपने अन्तःस्थल का अनुभव कराती है जो है एक शांत , स्थिर, विचार रहित अवस्था है। ध्यान की कला द्वारा उस अवस्था की और भी गहराई में जा सकते हैं। इस तरह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। यदि सुदर्शन क्रिया के बाद ध्यान करते हो तो गहन ध्यान लगता है और तुम यदि नियमित ध्यान करते हो तो क्रिया करना आसान व सहज हो जाता है।

प्रश्न: क्या यह कहा जा सकता है कि एक ही लक्ष्य तक ले जाने के लिए ध्यान की कला में मन शरीर का नेतृत्व करता है और क्रिया में शरीर मन का?
श्री श्री रवि शंकर :यह कहना उचित नहीं होगा कि शरीर मन का नेतृत्व करता है या मन शरीर का। यह कह सकते हो कि सुदर्शन क्रिया से शरीर, साँस व मन एक ताल में होते हैं। अन्तःकरण की गहराई का अनुभव और शरीर व श्वास के स्तर पर उस का आभास कर सकना ही ध्यान है। मंत्र द्वारा चेतना की गहराई का अनुभव कर रोज़मर्रा के जीवन में उसे उतारना - यही ध्यान है।


प्रश्न : प्राचीन काल से चली आ रही उन पवित्र वैदिक परम्पराओं के महत्व के बारे में बतायें जिन्हें गुरुओं ने आज भी सम्भाल कर जीवित रखा है। क्या ध्यान की कला इन गुरुओं के पवित्र परम्परा की ही देन माने?
श्री श्री रवि शंकर : हज़ारों सालों से, कई ऋषि मुनियों ने पारम्परिक रूप से इस ध्यान की कला को समभाल के रखा है और यह मानवता के लिये एक अमूल्य उपहार है। मध्य कालीन समय में, यह कला केवल सुपात्र शिष्य को व एक सच्चे जिज्ञासु को ही दी जाती थी । पर मैंने इसके विपरीत सोचा कि यदि ध्यान की कला आसानी से किसी को दी जाये तो सच्चाई उसके जीवन में खिलने लगेगी । अतः मैंने इसे सब जन तक पहुँचाने का बेड़ा लिया जिससे हर एक का जीवन बेहतर और सुखद बने और ध्यान की कला पाने से जब वे लोग ज्ञान में ऊपर उठना चाहें तो इसकी गहराई का अनुभव कर पाएं। इस तरह जिस भी स्तर तक वह जाते हैं सबके लिये कुछ न कुछ लाभ तो है ही।
मैं सागर का उदाहरण देना पसंद करता हूँ - जैसे, कुछ लोग सागर के किनारे टहलने जाते हैं, और बस शुद्ध हवा , आक्सीजन पाकर ही खुश हो जाते हैं। दूसरे कुछ लोग पानी में पाँव डुबोकर, टकराती लहरों के प्रवाह को महसूस करने से ही उस अथाह सागर का आनन्द लेते हैं ।
अन्य कुछ लोग सागर के भीतर गहरी डुबकी लगा कर अमूल्य चीजें खोज लेते हैं। तो इस प्रकार सब तुम पर निर्भर करता है कि तुम किनारे पर ही टहलना पसन्द करोगे, या तैर कर लहरों का प्रवाह देखोगे, या डुबकी लगाकर गहराई में उतरोगे । सागर तुम्हारे लिये सदा उपस्थित है।
यही उदाहरण ध्यान के लिये भी है। ध्यान लगाकर तुम शारीरिक स्थिति सुधार सकते हो, या मानसिक स्तर पर उन्नति करना चाहते हो या फिर उसी ध्यान कला द्वारा ही कुछ गहराई में उतर कर आध्यात्म पथ में ऊपर उठना चाहते हो।
सब मौजूद है!


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