गायत्री मंत्र का महत्व

०२
२०१२
अगस्त
बैंगलुरु आश्रम, भारत
आदिशंकराचार्यजी सब ज्ञान देने के बाद, अंत में कहते हैं, हे शिव! तुम मैं हूँ और मैं तुम शिवोहम्! (शिवोहम् मैं शिव हूँ)।
आत्मात्वम् आत्मा शिव है, और गिरिजामति: - हमारी बुद्धि देवी माँ का रूप है। और बुद्धि तीन प्रकार की होती है : सात्विक, राजसिक और तामसिक; अर्थात सदोगुण प्रधान बुद्धि, रजोगुण प्रधान बुद्धि व तमोगुण प्रधान बुद्धि।
भाव यह है कि मैं शिव हूँ और मेरी मति (बुद्धि) स्वयं सती (देवी माँ) है।आत्मा शिव है और मति सती है। और यह आत्मा कैसी है यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी मति कैसी है।
जब मति तामसिक होती है तो यह काली (देवी माँ का रौद्र अवतार) का रूप ले लेती है और शिव(आत्मा) पर सवार हो जाती है और सब विध्वंस कर देती है।
जब मति सात्विक होती है तो यह सरस्वती (ज्ञान व बुद्धि की देवी) का रूप ले लेती है; और राजसिक होती है तो लक्ष्मी (धन व समृद्धि की देवी) का।
इसलिये, जैसी मति, वैसी गति। जैसी हमारी बुद्धि होती है, वैसे ही हमारे कर्म हो जाते हैं।
आपने देखा होगा कि कुछ लोगों में बहुत सी नकारात्मक भावनायें हावी रहती हैं। वे हर चीज़ में दोष ढूँढते हैं और हर चीज़ को गलत सिद्ध करने में लगे रहते हैं। चाहे कोई कितना भी अच्छा कार्य क्यों न कर रहा हो, वे कोई न कोई गलती खोज ही लेते हैं, उसे बिगाड़ने में लग जाते हैं। यह तामसिक बुद्धि है विध्वंसकारी मति।
यदि राजसिक मति हो तो लगता है यह भी चाहिये, वो भी चाहिये, यह बना लो, वो बना लो और फिर यह-वो पाने में ही जुटे रह जाते हैं।
सात्विक मति है - आनंदमय, प्रसन्न चित्त, संतोष, सहाय; दूसरों का साथ देना, उनके काम आना प्रसन्न रहना, मस्त रहना, ज्ञान में रहना, होश में रहना।
तो, गायत्री का यही अर्थ है इन तीनों गुणों से, तीनों तापों से परे निकल जाना।
इसीलिये, हम ग़ायत्री मंत्र के जाप द्वारा यह प्रार्थना करते हैं कि यह बुद्धि उस परम चैतन्य द्वारा, उस दैवीय शक्ति द्वारा प्रेरित रहे।
 उस परम चैतन्य से हम यही प्रार्थना करते हैं कि, तमोगुण से निकल कर रजोगुण की ओर चलें; और फिर रजोगुण से मुक्त हो, सतोगुण की ओर। और फिर, सतोगुण से भी परे निकल जायें। सतोगुण से भी परे चले जाना निर्मल, निर्विकार चित्त को प्राप्त कर लेना यही गायत्री है।
इसीलिये सब दु:ख-दर्द, सब पापों को दूर कर देने वाली शक्ति को ही गायत्री के रूप में जाना जाता है, जिसके जाप से सभी दु:खों से छुटकारा मिल जाता है। जिसको गाने से हम तर जाते हैं यही गायत्री है।
यह एक दुष्चक्र है। तमोगुण से रजोगुण में जाना, और फिर रजोगुण से सतोगुण में जाना। जब हम सतोगुण को थामे रखने का प्रयत्न करते हैं, तो रजोगुण आ जाता है। और यदि हम रजोगुण में रहने का प्रयत्न करते हैं तो हम वापिस तमोगुण में आ गिरते हैं। इस तरह, ऊपर उठना, फिर गिरना, फिर उठना - यह चलता रहता है। इसका मूल कारण अहं है, अहं रूपी सूक्ष्म अणु।
और इस अहं रूपी अणु का प्रचोदन करने के लिये ही गायत्री मंत्र है। यही गायत्री मंत्र की विशेषता है धियो यो न: प्रचोद्यात। इसका अर्थ है, मेरी बुद्धि का प्रचोदन करो, मेरी बुद्धि ठीक चले। इस तरह हम प्रार्थना करते हैं कि हमारी बुद्धि से पाप हटें, निंदा हटे, अन्य सब दोष हटें। इसी को कहते हैं - गायत्री जाप ।
ब्रह्मतेजो हे प्रभु, हम तेजोमय हों और ब्रह्मा की तरह ज्योतिर्मय हो जायें।
तो फिर सर्वोत्तम प्रार्थना क्या है? यह जो मति है, यह सद्गति में चले। धियो यो न: प्रचोद्यात और हम प्रार्थना करते हैं कि ऐसा सबके साथ हो न:, का अर्थ है कि सबकी बुद्धि इस प्रकार से प्रेरित हो।
यदि एक व्यक्ति की बुद्धि गलत दिशा में चली जाती है, और आप उस के साथ लग जाते हैं, तो उसकी नकारात्मक तरंगें आप तक भी आ जाती हैं। कितने लोगों को ऐसा अनुभव हुआ है? अपने हाथ उठायें।
यदि आप दिन रात किसी ऐसे व्यक्ति के साथ रहते हैं, जोकि नकारात्मक बातें बोलता रहता है, तो आपका मन भी नकारात्मकता से व्याकुल हो उठता है, विचलित हो जाता है। और, आपको अपने में सुखद अनुभव की प्राप्ति नहीं होती। इसीलिये, भर्गो देवस्य धीमहि: का अर्थ है, “हमारे सारे पाप भस्म हो जायें, सभी पापों का विनाश हो!”
और इस प्रकार, हम प्रार्थना करते हैं कि वह परमात्म शक्ति, इस पूरे विश्व में विद्यमान वह परमात्मा की शक्ति हमारे पापों का विनाश करे व हमारी बुद्धि को सही दिशा में, सद्गति की ओर ले जाये।
कितना बढ़िया है, है न?
तो, हमें रोज़ यही प्रार्थना करनी चाहिये कि केवल अच्छी बातें ही हमारी बुद्धि में आयें। सबको सन्मति दे भगवान यह तो गाते ही हैं। हम सबको सद्बुद्धि मिले, हम सब में परमात्म प्रकाश आये!
हमें यही प्रार्थना करनी चाहिये। जैसा जैसा हम सोचते हैं, वैसा वैसा ही होने लगता है।

श्री श्री रविशंकर : अब कोई प्रश्न?

प्रश्न : क्या पैगम्बर मोहम्मद निर्गुण उपासक थे? यदि हाँ, तो फिर विग्रह आराधना का प्रचलन कैसे हुआ?
श्री श्री रवि शंकर : हर एक को सगुण उपासना से निर्गुण उपासना की ओर बढ़ना चाहिये।
काबा सलीब भी तो पूजा जाता है न? यह भी तो सगुण उपासना के समान है। उन्हें काबा सलीब के चारों ओर सात बार परिक्रमा करनी होती है। और वे सब ऐसा करते हैं। वे जाते हैं और इसे चूमते हैं। यह और कुछ नहीं, बस ईश्वर का सगुण रूप में पूजन है। यह शिव स्थली के समान ही है।
ऐसा हमारे पुराणों में है। वामन अवतार के समय भगवान विष्णु ने जो तीन चरण धरती नापी थी, उसमें पहला चरण उन्होंने गया में रख था। यदि आप गया जायें तो आपको चरण- चिन्ह मिलेगा। वहाँ एक प्रतिमा भी है।
दूसरा चरण उन्होंने मक्का में रखा। यह पैगम्बर मोहम्मद के जन्म से कहीं पहले से तीर्थ स्थान रहा है। वहाँ बहुत सी प्रतिमायें थी, इसलिये पैगम्बर मोहम्मद को लगा कि इतनी सारी प्रतिमायें क्यों, एक ही होनी चाहिये। और उन्होंने वो एक सलीब वहाँ रख दी। यह तो बहुत ही प्राचीन तीर्थ स्थान है।
इसलिये, सगुण उपासना हो या निर्गुण उपासना, इस विषय में भगवान कृष्ण कहते हैं, “क्लेशो धिक्तरस्तेषाम् अव्यक्तासक्त-चेतषाम् अव्यक्ता हि गतिर् दु:खम् देहवद्भिर अव्याप्ते”।
देहधारियों के लिये सीधे अव्याप्त की ओर जाना, बहुत से दु:खों व मुसीबतों का कारण बन जाता है। ऐसा सच में होता है। यदि आप यहूदियों को देखें तो उन्होंने कितनी मुसीबतों को झेला, कितने कष्ट सहे। वह यह नहीं कहते कि यह मार्ग सही है या गलत। अव्याप्त का मार्ग बहुत दुर्गम है, यह बहुत ही कठिन मार्ग है और इस पर चलने वालों को बहुत ही पीड़ा झेलनी पड़ती है।
हमने ऐसा यहूदियों के साथ होते देखा है, और ऐसा ही मुस्लिम लोगों के साथ हुआ। उनके साथ तो यह शुरु से ही होता आया है। क्रिश्चनों को देखें तो कष्ट तो उन पर भी आये, पर इतने नहीं।
बौद्ध, जैन, ताओ यह सब मार्ग सरल रहें हैं, इन लोगों को वैसे कष्ट नहीं झेलने पड़े जैसे कि मोहम्मद के समय लोगों को झेलने पड़े। पैगम्बर मोहम्मद को तो स्वयं को ही कितने कष्ट उठाने पड़े थे। ऐसा ही यहूदियों के पैगम्बर के साथ हुआ। उनका सारा जीवन, सारा मार्ग दु:खों,कष्टों व संघर्ष से भरा रहा। कुछ हद तक सिखों को भी इस से गुजरना पड़ा। सिखों ने भी अव्यक्त को पूजा अदृश्य व निर्गुण को।
इसलिये दोनों का होना ही आवश्यक है। यदि आप जीवन में प्रसन्नता चाहते हैं तो सगुण उपासना का अभ्यास करें। और यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो आपको ईश्वर के निर्गुण स्वरूप का पूजन व ध्यान करना होगा।
आपको परमात्मा के सगुण व निर्गुण दोनों स्वरूपों का सम्मान करना होगा। यही सबसे अच्छा तरीका है।
वैदिक विचारधारा में यह कहा गया है कि दु:खों व कष्टों से निवृत्ति के लिये व्यक्ति को पूजन, हवन व अन्य धार्मिक संस्कार करने चाहिये। और आनन्द की प्राप्ति के लिये, उसे निर्गुण स्वरूप का ध्यान करना चाहिये। इसलिये, इस दुनिया में और उस दूसरी दुनिया में भी, हमें श्रेय (जोकि सही व लाभकारी है) व प्रेय: (जो आपको प्रिय है) दोनों का अभ्यास करना होगा और ध्यान करना होगा। इसलिय, दोनों का अभ्यास करना चाहिये और साधना करनी चाहिये।