२६
२०१२
जुलाई
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बैंगलुरु आश्रम
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यह शरीर संसार का है| संसार से आया है, संसार में वापस जाएगा| तो इस शरीर को संसार से, समाज से,
दुनिया से अलग कभी नहीं कर सकते - और यह संसार इस शरीर की जरुरत को पूरा करने के लिए सब कुछ करता है| इसी तरह से हमारी जो आत्मा है, हमारी जो चेतना है, मन है - ये ईश्वर से
कभी अलग हो ही नहीं सकता, आप चाहो भी तब भी यह अलग हो नहीं सकता|
तो "मेरा मन मेरी आत्मा ईश्वर का है, ईश्वर में ही है और रहेगा" - इतना समझ के विश्राम करिये, तो ध्यान अपने आप हो जाता है| मैं ईश्वर का हूँ और शरीर समाज का है| और समाज ईश्वर का है; जब समाज ईश्वर का समझते हैं तो सेवा करिये और हम ईश्वर के हैं ऐसा समझ के मस्ती करिये|
मैं ईश्वर का हूँ समझने के बाद क्या कोई कमी लगेगी जीवन में? नहीं, यह असम्भव है ! मैं ईश्वर का हूँ, ईश्वर मुझ में हैं - तो
तृप्ति है|
समाज ईश्वर का है तो फिर समाज सेवा ही पूजा बनती है | इतनी सी धारणा और ज्यादा कुछ जानने की आवश्यकता भी नहीं है कि “शरीर संसार का है और इस शरीर की जरूरतों को समाज पूरा करेगा” | जब आप छोटे बच्चे थे; आप अपने आप थोड़ी ही न स्वबलंबी/स्वतंत्र थे - किसी ने आप को बड़ा किया - समाज ने तो आप को सब कुछ दिया| शरीर के तौर पर हम हमेशा पराबलंबी बने रहेंगे और आत्मा के तौर पर हम सदा स्वावलंबी बने रहेंगे| और जब इन दोनों को हम जान लेते हैं तो शांत होते हैं व तृप्त होते हैं| और जब शांत और तृप्त होते हैं; तो जो चाहिए वो चीज़ें अपने आप होने लगता है| आपमें से कितने लोगों के सारे काम हो रहें हैं? (सारे लोग हाथ उठाते हैं)
यही भक्त का लक्षण है - जो वह चाहता है, वह पूरा हो जाता है| इसलिए
कहते हैं कि भगवान भक्तों के नौकर/दास हैं
- मालिक नहीं हैं| ज्ञानियों के मालिक हैं, लेकिन
भक्तों के नौकर/दास है| और जो भगवान है सो गुरु है|
प्रश्न : गुरूजी, कहते हैं कि कर्म करते समय इच्छा का त्याग कर कर्म करना चाहिए| और कोई भी कर्म करने से पहले संकल्प करना चाहिए| तो क्या इच्छा और संकल्प में कुछ अंतर है? श्री श्री रवि शंकर : हाँ| संकल्प वही है कि एक इच्छा उठी - उसको विसर्जन किया, समर्पण किया - संकल्प से ही सारी सृष्टि है संकल्प से सब कुछ चलता है| जब अंतर्मुखी होना हो तो हमें संकल्प छोड़ के अंतर्मुखी होना पड़ेगा| जब अंतर्मुखी होने के बाद फिर बाहर समाज में काम करना हो तो संकल्प लेकर काम करना पड़ेगा| इसलिए इच्छा भी करिये, कामना भी करिये लेकिन सत्य-कामा बनो - मतलब सत्य का संकल्प लीजिए; तो वह प्रवृति में होता है| निवृति में निष्काम और प्रवृति में निष्काम कर्म| इन दोनों का योग होना चाहिए| निष्काम और कर्म योग दोनों साथ होने चाहिए| यह दोनों अलग अलग लगते हैं मगर पूरक हैं - कर्म योग और निष्कामता| जैसे कोई बड़ा इमारत खड़ी करनी होती हो तो नींव पहले खोदनी पड़ती है| जितनी ऊँचाई पर जाना होता है उतना नीचे जाना पड़ता है| उसी तरह से निष्काम जितने होते हैं, उतने हम सत्य-काम, सत्य संकल्प और कर्म योगी बन सकते हैं| प्रश्न : गुरूजी सहनशीलता कैसे बढाए? श्री श्री रवि शंकर : मैं दो साल के बाद बताऊंगा इस प्रश्न का जवाब| सहन होगा न! तो समझ ही जाएंगे फिर| जब कोई प्रश्न दिमाग में आ जाता है तो वो बिलकुल कांटें जैसे चुभता रहता है – लगता है कि किसी तरह से इसको बाहर निकालो| जब तक नहीं निकालेंगे तो तब तक मन में चैन नहीं पड़ता| तो इसलिए यह हमें जरूरी है| प्रश्न : प्रणाम गुरूजी, श्री हनुमान और श्री राम के प्रति उनकी भक्ति के बारे में कुछ बताने की कृपा करें| श्री श्री रवि शंकर : कथावाचक से सुनिए इस बारें में| वे बहुत सुन्दर बताते हैं इस बारें में| राम से बढ़कर राम के भक्त | - ऐसा ही कहते हैं| रामजी की तो बारह कला बताई गयी लेकिन हनुमानजी के तो चौदह| जितने बड़े भक्त होतें हैं उतना ही मुसीबत - भगवान को झेलना पड़ता है| इसलिए पता नहीं कितने कितने भक्त तपस्या करके भगवान से वरदान मांग लिए और वरदान देकर फ़स गए भगवान; क्यों पूछते हैं, (हँसते हुए) भगवान की मुसीबत तो बहुत हुई है| कितनी बार तो अवतार लेना पड़ा| भक्तों को सब वरदान दे दिए फिर देखिये सब झेलना पड़ा न! (हँसते हुए)
प्रश्न : गुरूजी आप कहतें हैं कि
वर्तमान में आप शुद्ध हो, भूत काल में चाहे कैसे भी गलती की हो, तो क्या यह सिर्फ मान
लेने भर से भूत काल के कर्म से हम मुक्त हो जायेंगे?
श्री श्री रवि शंकर : हाँ| यह पहला कदम है| क्योंकि हर क्षण चेतना नयी है| हमारा मन या चेतना एक प्रवाह जैसा है, नदी जैसा है| एक नदी में बार बार आप डुबकी नहीं लगा सकते हैं, क्योंकि जब तक आपने एक बार डुबकी लगाई और फिर उठे तब तक तो नदी आगे बह गयी - आगे निकल गयी| ऐसा ही मन भी है; ऐसी ही चेतना| इसलिए बहती हुई दरिया जैसी चेतना होनी चाहिए; वह ज्ञान के ज़रिए होती है| नहीं तो एक कुँए की तरह उसी पानी में डुबकी लगाते रहिये| कुँए में तो पानी बदलता ही नहीं | जब तक नहीं निकालेंगे तो तब तक उसमे पानी नहीं बदलेगा| मन को कुआँ जैसा नहीं बनायिये, बहती हुई गंगा बनाइये| वह निर्दोषता को मानने से होने लगता है| हम मांगने से बंधन में फ़सते हैं, मानने से मुक्त होते हैं | मान्यता ही तो है! प्रश्न : गुरूजी आपने किसी समस्या को सुलझाने के लिए चार तरीके बताए - ज्ञान से, शक्ति से, समर्पण से और समाधि से| कृपा कर के बताइये कि समाधि से समस्या कैसे दूर हो ? श्री श्री रवि शंकर : असल में होता तो समाधि से ही है| समाधि से क्षमता बढती है, समाधि से अपना भाग्य खिलता है, समाधि से व्यवहार में कुशलता आती है, समाधि से मन परिवर्तन होता है; अपना भी – व औरों का भी| इसलिए समाधि बहुत ही आवश्यक है| प्रश्न : गुरूजी, गुरु का ऋण कैसे उतारा जा सकता है? कृपया समझाएं| श्री श्री रवि शंकर : अरे आप ऋण उतारने की मजबूरी क्यों बना रहे हैं? आपका अपना घर है; ऋण तो किसी दूसरे से लिया जाता है; अपनों से नहीं| कर्जा चुकाना हो तो दूसरों का चुकाते है अपनों का नहीं| आपको लगा कि आपने इतना पाया, तो जो आपने पाया वो दूसरों को बाँट दीजिए| ऐसे चुकाने का मन हो तो ऐसा करिये| जो ज्ञान आपने पाया, दूसरे लोगों तक वह खुशी, वह ज्ञान, भक्ति पहुँचाइये| भक्ति का बीज बो दीजिए सब के दिल में - ये ज़रूरी है| वो वहां पनपेगा वो भी खुश हो जायेगा, सुखी हो जायेगा| प्रश्न : गुरूजी, मैं आपके पास दुख लेकर आता हूँ| पर आप को देखते ही ये चेहरा खिल जाता है और आप इस चेहरे को देखकर समझते हैं कि मैं बहत खुश हूँ| तो अब क्या करें? श्री श्री रवि शंकर : मैं तो ये समझता हूँ कि आप ख़ुशी और गम से परे हो| अरे जीवन में होता है - थोड़ी खुशी कभी गम; कभी गम कभी ख़ुशी - ये सब आता है जाता है| मगर इस सब से आप परे हो - मैं ये जानता हूँ| ये सब आना जाना तो है ही| मैं आप को बताऊं, अभी परसों ही एक जगह सत्संग था, पूजा थी| फिर हम को वहां भोजन के लिए ले गए| फिर नीचे लाते वक़्त लिफ्ट में वे हमको सीधा बसेमेंट में ले गए, जहाँ पर गाड़ी से हम बाहर निकल पाये; क्योंकि वहां भक्तों की काफी भीड़ थी, लोग बहुत देर से इंतज़ार कर रहे थे पहली मंज़िल पर|
तो लोगों ने कहा ‘अरे वहां पहली मंज़िल पर/लॉबी में जायेंगे तो वहां भीड़-भडक्का होगा और सब गुरूजी पर टूट पड़ेंगे|
तो गुरूजी को
तुरंत गाड़ी में बिठा देना चाहिये, और हम उन्हें नीचे से ही हवाई अडडा ले जायेंगे|” तो ऐसा करके वे हमको
गाड़ी में बिठाकर हवाई अडडा ले गए; वैसे टाइम भी हो रहा था| और जितने लोग लॉबी में बैठे थे, वे सब लोग कितनी
दूर दूर से आये थे, वे सब दुखी हो गए| हमने देखा कि वे सब लोग
दुखी हो गए; तब फिर हमने उन लोगों से कहा,
"अरे दस मिनट ज्यादा
समय लगता; वहां सबके बीच में से हम निकल जाते, आप उन
सबको आराम से
बिठा देते"| लेकिन उनकी बात भी तो सच थी, अब आजकल हमारे लोगों की भीड़ को संभालना काफी मुश्किल
है| उनकों
कुछ और नहीं दिखता - सिर्फ गुरूजी दिखतें हैं; आस-पास वाले कोई है ही नहीं
जैसे! इससे तो स्वयंसेवक लोग
भी डरते हैं| हमें तो डर लगता है कि किसी को चोट न लग जाये| तो यह भीड़ देखकर बड़े मुश्किल से
हम हवाई अड्डे से वहां पहुंचे जहाँ पहुंचना था और बहुत कम समय बचा था,
सिर्फ चार-पांच
घंटे का समय – फिर वहां से दुबारा हवाई जहाज़ पकड़ना था|
तो लोगों ने ऐसा प्लान किया कि नीचे
बेसमेंट में गाड़ी रखी और सीधा मुझे गाड़ी में बिठा दिया| लेकिन फिर
इतने सारे लोग दुखी हो गए| और इतने सारे लोग दुखी हो गए तो हमको रात में नींद
ही नहीं आई| हम को परेशानी हो गयी| हमने कहा इतने लोगों को दुखी करके हम कैसे चैन
से रह सकेंगे| फिर मैंने उनको थोड़ा डांटा
कि “देखो जब अगली बार जब भी कार्यक्रम होता है,
तब आप एक काम
करो कि सब को कतार में बिठा दो”, और हमें यही करना चाहिए|
आप भी मुस्कुराते रहो और हम भी मुस्कुराते रहेंगे| और बाकी सब तो आते जाते हैं| समस्याएँ किसको नहीं आई है बताओ? मुसीबतें तो सब को आई| भगवान श्रीराम को भी आई, श्री कृष्ण को भी आई, बुद्ध को भी आई, ईसा मसीह को तो मुसीबत ही मुसीबत! और मुहम्मद पैगम्बर को तो पूछो ही मत... इतना मुसीबत ज़िन्दगी भर! तो मुसीबतें तो सब को आई है और बड़े बड़े लोगों को भी आई है| यह आती है पर टल जाती हैं| पर ज्ञान में ऐसा बल है, भक्ति में ऐसी ताकत है जो हम इन सब मुसीबतों को आसानी से पार कर जाते हैं| जिस को हम समझते है बहुत बड़ी मुसीबत है - वह ऐसे निकल जाती है जैसे कुछ भी नहीं| प्रश्न : गुरूजी, भारत में सारे आन्दोलन कुछ देर के बाद ठंडे पड़ जाते है; भ्रष्टाचार के खिलाफ भी आन्दोलन कुछ ठंडा सा पड़ गया है| क्या करें कि यह मशाल जलती रहे? श्री श्री रवि शंकर : इस प्रश्न का एक जवाब नहीं है| जगह जगह इस प्रश्न का अलग अलग जवाब उठ सकता है और उन सबपर अमल/पालन करना चाहिए| किसी भी तरह से भ्रष्टाचार के विरुद्ध में आन्दोलन को बनाये रखना चाहिए ताकि आगे इसके दबाव में कमसे कम आकर लोग सच्चाई के मार्ग पर चलने लगेंगे|
और दूसरी बात है कि उदास नहीं होइये| कोई भी आन्दोलन कभी ऊपर
होता है फिर नीचे होता है फिर ऊपर - ये एक लहर
जैसे उठेंगे गिरेंगे ... मगर जब
तक हमारा मन लक्ष्य पर टिका हुआ है - हम कामयाब जरूर होंगे| भारत
आजाद हुआ एक दिन के आन्दोलन से नहीं; कई
बरसों,
कई सदियों के
आन्दोलन के बाद ही; फिर फलीभूत हुआ| इसलिए ये सब आन्दोलन करने का जब संकल्प लिया तो उस
में लगना चाहिए - सोच समझ के करते रहना चाहिए| छोटे छोटे ढंग से करो सिर्फ
एक जगह बैठ के आन्दोलन करना काफी नहीं है| इस चीज़ को जन -मन तक पहुंचायें|
और प्रार्थना करिये
कि भगवान सबको सन्मति दे|
प्रश्न : गुरूजी, हमारे प्राचीन भारत जैसे
देश में लगातार सामाजिक और नैतिक मूल्यों में गिरावट आ रही है| यह बड़ा दुर्भाग्य का विषय है कि भारतीय संसद को संसद भवन में एक कानून पास करना पड़ा है - जिस के अंतर्गत जो माँ-बाप
हैं वृद्ध हैं, जो माता-पिता आश्रित हैं उनकी
देख भाल करने के लिए सरकार को कानून बनाना पड़ा है| इन
मूल्यों को सिर्फ गुरुजन ही बचाकर रख सकतें है| इस के बारे में गुरूजी आप का क्या कहना है?
श्री श्री रवि शंकर : यह सच बात है| हम ने क्या कर दिया - हम सिर्फ कर्म कांड में उलझ गए| हम मंदिर में जाते है वहां नारियल चढ़ा देंगे, पेड़ा चढ़ा देंगे, पैसा चढ़ा देंगे ... आरती और चरणामृत लेकर घर लौट आएंगे| यहाँ तक भी नहीं करेंगे कि वहां बैठके थोड़ी देर कीर्तन भी करें; यह भी लोग कम करते है| और धार्मिकता का एक खाना पूरा करने के लिए कुछ क्रिया कांड, कर्म कांड करके हम लौट आते है| ये काफी नहीं है|
नैतिक मार्ग पर चलना ही धार्मिकता है| हमारे देश में ऐसा पहले था| हर गाँव में, हर शहर में, हर मुहल्ले में दो-तीन
व्यक्ति ऐसे होते थें वे सलाह देते थें| किसी के घर पर कोई झगड़ा हो तो वे
कभी कोर्ट-कचहरी में नहीं जाते थे| वहां जो अध्यापकजी होते थे, पंडित जी होते थे, पुरोहितजी
होते थे - इसलिए उनका नाम पुरोहित रखा माने सिर्फ
कर्म कांड करने वाला नहीं, सारे शहर का हित करने वाल़े
पुरोहित होते थें; तो
पुरोहित के पास जाते थें| वो सलाह देते थे समझाते थे और
धर्म शास्त्र के हिसाब से समझाते थे|
फिर लोग खुश हो कर आपने घर जाते थे| अब
वो बात नहीं रह गयी| वो प्रथा ही ख़तम हो गयी|
जिसको आज काल के भाषा में हम कहते
है काउन्सलर| अब मैरेज काउन्सलर के पास जाते है - उनको ये सब कुछ नहीं
पता होता है| ऊपर से वे और बिगाड़ देते हैं|
हमारे शिक्षकों को ये काम करना पड़ेगा| कितने टूटे हुए परिवारों को जोड़ने की चेष्टा कर रहे हैं| कितने बच्चें आत्म-हत्या करने जा रहे थें, उनको रोका गया है| बहुत सी ऐसी घटनाएँ हुई हैं| तो यह काम हमें करना है, फिर से नैतिकता को समाज में जगाने के लिए योग और आध्यात्म एक ही रास्ता है| इसलिए एक-एक मुहल्ले में अभी हमें ये खोलना चाहिए| योग, ध्यान, प्राणायाम और ज्ञान की बातें सुनो, बैठकर थोड़ी देर जब आप अष्टावक्र गीता और योग वशिष्ठ सुनंगे तो कुछ हरकत करने का कहाँ समय रहेगा| और बच्चे इतनी बड़ी संख्या में इसमें जुड़ रहे हैं कि आप को विश्वास नहीं होगा| कहीं भी जाईये - अभी हम पोलैंड में थे वहां १५०० बच्चे, सब १५ से २० साल के बीच के युवा, वे सब बोल रहे हैं, “हमारे जीवन में परिवर्तन आ गया| अब हम धूम्रपान नहीं करते, शराब नहीं पीते, मार पीट नहीं करते है" - यह सब हो रहा है| अब वहां होलैंड में सरकार के साथ हमारी योजना बन रही है| अब जगह जगह होलैंड में, बुल्गारिया में, पोलैंड में इसको NAP प्रोग्राम कहते हैं – Non Aggression Program – यह नाम दिया गया है इसको| हम ने कहा, "ठीक है| जो भी नाम आपको चाहिए आप उसको रखो"| जो लोग सो रहें हैं, NAP कर रहें हैं, उन लोगों को जगाओ| इतना फ़र्क आया है उन बच्चों में| यही बात अमरीका में हुई| भारत की जो ये परंपरा है, ज्ञान है यह सब जगह, सभी देश इसे अपनाकर इसका फ़ायदा उठा रहें हैं| हमारे देश के लोग, राजनेता लोग यह होने नहीं देते| अब कम से कम योग को स्कूलों-कालेजों में अनिवार्य करने की चेष्टा करी है| यह ज़रूरी है|
इसलिए मैं कहता हूँ हर गाँव से अगर दो आदमी आये तो हम उनको
संस्कार का भी अच्छे से प्रशिक्षण देने का विचार
कर रहे है| पांच तरह के संस्कार है - बच्चे के जन्म पर नामकरण संस्कार,
नया घर
लेने पर गृहप्रवेश का, विवाह का, उपनयन का और ऐसा नहीं कि सिर्फ ब्राह्मण को ही उपनयन का
अधिकार है; नहीं यह सब को अधिकार है, और अंतयेष्टि - कोई मरता है तो उसका मंत्र|
आज कल हमारे पुरोहित - पूछो मत - शादी का मंत्र दहन संस्कार में
पढ़ देते हैं और दाह संस्कार का मंत्र शादी में पढ़ देते
हैं| और
लोग भी जल्दबाजी में लगे रहते है| आधे अधूरे मन्त्र पढ़ें और हो गयी शादी| इतना अर्थपूर्ण है
शादियों के मंत्र - इतनी अच्छी अच्छी बातें हैं शादियों के मंत्रों में;
किसी को पता ही
नहीं! इस
का प्रशिक्षण देना चाहिए|
फिर काउंसेलिंग करना - किसी को कुछ तकलीफ है, मन में
कुछ दुःख है उनको दूर करने के लिए उपाय बताना| इसके लिए हम सोच रहें हैं कि प्रशिक्षण बनायें| और प्रशिक्षित लोग देखें कि समाज
में कहीं हरकत न हो| इस तरह से समाज में नैतिकता बनाये
रखने के लिए वे आगे बढ़ेंगे, मदद करेंगे| ठीक है
न!
तो आप लोग भी इस तरह से ऐसा कार्यक्रम बनाईये कि जगह जगह ५० - १०० लोगों को इकट्ठा करिये, हम उनको एक महीने का प्रशिक्षण दे देंगे और फिर उनको उन-उन जगहों पर - गांवों में शहरों में स्थापित करेंगे; समाज में फिर से नैतिकता की एक लहर उठाने के लिए सब मिलके काम करेंगें|
प्रश्न : गुरूजी,
जब मैं लोगों को बेसिक कोर्से करने के
लिए बोलती हूँ तो बोलतें हैं कि १००० रुपैया, १२५० रुपैया क्यों देना हैं? मतलब वो दे सकते हैं
लेकिन वो चाहते हैं कि निःशुल्क हो|
इसी वजह से यह सब रखा है - सोच समझ के पैसा रखा है| मगर कोई ऐसे लोग हैं जो
नहीं दे सकते हैं| उनको आप बिलकुल निःशुल्क
कोर्स कराएं| यह हर शिक्षक करते ही हैं| १०-१५ प्रतिशत लोग जो सबल नहीं
है, सशक्त नहीं है उनको ज़रूर
बिना शुल्क के लेते हैं| ठीक है न!श्री श्री रवि शंकर : एक तो बात है कि जब आप को कोर्स करना होता है तो कोई तो हॉल लेना पड़ेगा और वहां किसी शिक्षक को पहुँचाना पड़ेगा| काफी सारी और भी व्यवस्था करनी पड़ती है| यह सब कैसे करेंगे? और जब तक कोई शुल्क देकर नहीं आता है तो पहले दिन आयेंगे २० आदमी और दूसरे दिन २! जब शुल्क देकर आते हैं तो लोग बोलेंगे – “कि मैंने तो १००० रुपैया दिया है, कम से कम लाभ तो उठाऊँ” - ये मानसिकता है| इसलिए तभी ये लोग सीखते भी हैं| पैसा दिया है तो चार दिन बैठ के सीखना तो पड़ेगा! सीख से लाभान्वित होते हैं| जिन्होंने भी सीखा है उनसे पूछो आप ने जो किया है क्या वह ठीक है? तो वे कहेंगें, "अरे कुछ भी नहीं है, हमने जीवन में इतना पाया!" मगर यह थोड़ा सा शुल्क रखने की वजह से हम टिके रहे; नहीं तो कहीं बच्चे को सिनेमा देखना हो तो वे क्लास छोड़ के वहां चले जायेंगे| है कि नहीं! लोगों की कुछ इस तरह से धारणा आती है, कि जब गुरूजी आते हैं तो कोई शुल्क नहीं होता| हम गुरूजी के दर्शन करने जाते हैं|” मगर जब शिक्षक सिखा रहें हैं तो शिक्षक से हमें क्या लेना देना| |