०६
२०१२
अगस्त
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बैंगलुरु आश्रम, भारत
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प्रश्न : प्रिय
गुरूजी, गहरे ध्यान में सांस धीमी हो जाती है, और कभी कभी रुक भी जाती है| इस समय
में शरीर कैसे काम करता है?
श्री श्री रविशंकर : जब सांस धीमी हो
जाती है, शरीर के सभी कार्य धीमे हो जाते हैं| समाधि में लगभग शून्य गतिविधि होती
है| मैं नहीं कहूँगा कि शून्य, पर लगभग शून्य गतिविधि| तब भी कुछ थोड़ा सा हो रहा
होगा| थोड़ी सी सांस बहुत धीमी गति से चल रही होगी|
प्रश्न : योग वशिष्ठ
में, भगवान राम हमें बताते हैं कि तीनों विश्व मस्तिष्क की बातों के कारण हैं| यदि
मस्तिष्क गायब हो जाए तो संसार भी गायब हो जायेंगे| मस्तिष्क से उनका क्या
तात्पर्य है? और मस्तिष्क के कारण संसार कैसे हो सकता है?
श्री श्री रविशंकर : यह समझाया नहीं जा
सकता, केवल अनुभव किया जा सकता है| जब तक यह आपका अनुभव नहीं बन जाता, केवल शब्दों
को स्वीकार करिये और स्पष्टीकरण मत खोजिये|
यदि मैं कहूँ लड्डू
मीठा है और यदि आप पूछें, “लड्डू मीठा कैसे है?” तो मुझे नहीं पता| मैं कहूँगा, “बस इन्तज़ार करो जब तुम्हें हाथ में लड्डू मिलेगा
और तुम उसे अपने मुंह में डालोगे, तब तुम अनुभव करोगे”| वैसे ही जब तुम वेदान्तिक सत्य को सुनते हो, जितना
ज़्यादा तुम उसके अर्थ को ढूँढ़ते हो, उतने ही आप उलझ जाओगे| वेदान्तिक शब्दों को केवल सुन कर मन में उतर जाने देना
चाहिए| जब यह मन में उतर जाता है तो फिर अनुभव आता है|
यदि मैं कहूँ कि मैं
ईश्वरीय हूँ, तो आप पूछेंगे, “आप कैसे ईश्वरीय हैं, और मैं कैसे ईश्वरीय हूँ”? इसे समझाने का कोई तरीका नहीं है| जब आप ध्यान की
गहराई में जाते हैं, आप अचानक महसूस करेंगे, “आह! मैं ईश्वरीय हूँ”|
अभी मैं एक ईरानी दल
से मिल रहा था और एक सज्जन मुझे एक कहानी सुना रहे थे| वे एक फिल्म बना रहे हैं,
और उस फिल्म में, ३० लोगों का एक समूह भगवान को पाने किसी रहस्यमयी जगह पर जाता है| तो वे
ढूंढते हैं, और अंत में क्या होता है कि पानी में अपनी छवि देखते हैं और कह उठते
हैं, “अब मुझे भगवान मिल गए – मैं ही भगवान हूँ”|
ऐसी ही कहानियाँ
पंचतंत्र में भी हैं, आप कुछ पाना चाहते हैं, जो पहले ही आपके पास है| पर खोजना
आवश्यक है क्योंकि यह आपको एक पूरा चक्कर लगा के उस जगह पर ले आता है जहाँ आपको
अन्हल्हक का आभास होता है, (अर्थात, “मैं भगवान हूँ”)| यह एक उर्दू शब्द है|
तो अन्हल्हक का अर्थ
है अहं ब्रह्मास्मि| दुर्भाग्यवश, जो भी अन्हल्हक कहते, उन सबको सूली पर चढ़ा दिया गया|
अरबी विश्व में उनके सर काट दिए गए| सौभाग्यवश, भारत में ऐसा नहीं था| जो भी “अहम ब्रह्मास्मि“ कहता उनके लिए एक सुन्दर आसन रखा जाता और हार
चढ़ाये जाते| पर यह ऐसे सत्य है जो व्यक्ति को अपने में अनुभव करने की आवश्यकता है|
कोई भी व्याख्या इसे बिगाड़ देगी|
प्रश्न : आप सबकी स्वतंत्र सोच को प्रोत्साहित करते हैं, पर स्वतंत्र सोच और विश्वास कैसे सहवर्तनीय
हो सकते हैं?
श्री श्री रविशंकर : हाँ, यही सुंदरता
है| आमतौर पर आप सोचेंगे विश्वास का अर्थ है अंधविश्वास, या उसमे चैतन्य का कोई
स्थान नहीं है| पर ऐसा नहीं है|
वेदांत सदैव विचार
और विवेक की बात करते हैं| समाधि में भी कहा गया है, “विचार अनुगम समाधि” – ध्यान की अवस्था जिसमे आप कुछ अनुभवों, विचारों,
भावनाओं के बीच होते हैं; वितार्कानुगम समाधि – ध्यान की अवस्था जिसमे आप सृष्टि की अखंडनीय समझ
रखते हैं|
समाधि में भी तर्क
की अनुमति है| इसी लिए सवितर्क समाधि होती है| ध्यान की अवस्था जिसमे चेतना के एक
भाग का दूसरे भाग से वार्तालाप या तर्क-वितर्क होता है| और निर्वितर्क समाधि,
जिसमें कोई वार्ता नहीं, कोई बोध नहीं होता|
फिर होती है
सर्विचार समाधि, जिसमे कुछ ज्ञान का बहाव होता है| इस गहरी समाधि की अवस्था में कुछ
सूक्ष्म विचार चलते रहते हैं, और निर्विचार समाधि जहाँ कोई विचार नहीं होता| यह
विचारहीन स्थिति है जिसमें खालीपन का अनुभव होता है|
तो तर्क को बुरा या
विश्वास के प्रतिकूल नहीं समझा जाता| तर्क के रास्ते ही लोग विश्वास तक पहुँचते
हैं, है न? जब आपका तर्क संतुष्ट होता है, तब आपका विश्वास दृढ़ होता है; तब उसे
कोई नहीं हिला सकता| यदि कोई कहे, “यदि विश्वास है तो तर्क मत करो” तब विश्वास कमज़ोर है| कमज़ोर विश्वास सदैव तर्क से
डरता है| पर सत्य कभी भी तर्क से नहीं घबराता|
जब सत्य होता है, आप
किसी भी प्रकार से तर्क करें, सत्य वही रहेगा| जब आपको सत्य में विश्वास होता है,
तो सत्य सदैव साफ़ दिखाई देता है|
इसीलिए, भगवान
कृष्ण उपदेश देने के बाद अंत में कहते हैं, “मुझे जो कहना था, मैं कह चुका, अब तुम निर्णय करो|
यदि यह तुम्हारे तर्क को भाये तो इसे ले लो| यतेछसी तथ कुरु (जैसी तुम्हारी इच्छा,
वैसा तुम करो), भगवान कृष्ण कहते हैं|
यह बहुत महत्वपूर्ण
है| विश्वास और तर्क स्पर्धा में नहीं हैं यहाँ पूर्व में| विशेषकर जब ज्ञान अनुभव
पर आधारित हो, ना कि परिकल्पना पर, तब आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं, कि आपका
विश्वास तर्क से डगमगा जायेगा| अब गलत तर्क की अनुमति नहीं है इसमें| तर्क अच्छा
है पर गलत तर्क से यदि आप चीज़ों की निंदा करें, तो यह विश्वास के विपरीत है| इस
लिए, एक सच्चा साधक कुतर्क का प्रयोग नहीं करेगा|
गलत तर्क का एक
उदाहरण है – यदि एक द्वार आधा बंद है, तो आप कह सकते हैं कि द्वार आधा खुला है, पर यदि
द्वार पूरा बंद है तो आप नहीं कह सकते कि द्वार पूरा खुला है| यदि आप कहते हैं कि
द्वार पूरा बंद है जब वो पूरा खुला है, तो यह कुतर्क है|
विज्ञान में पहले
तर्क आता है, फिर विश्वास| सही है ना? आप तर्क करते हैं और फिर जो तर्क में सही
लगता है, उस पर विश्वास करने लगते हैं|
प्रश्न : गुरूजी,
क्या करें जब कोई आपके चरित्र या सत्यनिष्ठ को दोष दे?
श्री श्री रविशंकर : कन्नड़ में एक बहुत
सुन्दर दोहा है, जिसका तात्पर्य है, “ऐसे व्यक्ति को क्या कहें जो शोर से डरता है पर बाजार
में घर बनाता है”?
“ऐसे व्यक्ति को क्या कहें जिसने समुद्र किनारे घर बनाया है पर लहरों से घृणा
करता है”?
“ऐसे व्यक्ति को क्या कहें जिसने जंगल में घर बनाया है और जानवरों से डरता है”?
उसी तरह, आप उस
व्यक्ति को क्या कहें जो समाज में रहता है और आरोपों और प्रशंसाओं से डरे? लोग दोष
देते हैं और बातें कहते हैं पर आप क्या कह सकते हैं? उनसे सीखिए और उन्हें अनदेखा कर
दीजिए|
यदि आपने सब भला ही
किया है तब भी लोग आपको दोष देंगे| वो आपको टेढ़ा या गलत समझेंगे| आप क्या कर सकते
हैं? कुछ भी नहीं|
जैसा मैंने कहा, यदि
आपने कुछ गलत नही किया, तो भी लोग आपके दुश्मन बन जायेंगे| आप में से कितने लोगों
ने यह अनुभव किया है? (सभा में बहुत लोग हाथ खड़ा करते हैं)| आपने उनको कोई क्षति
नहीं पहुंचाई पर वे आपके शत्रु बन गए हैं| उसी तरह, आपने किसी के लिए कुछ बड़ा नहीं
किया फिर भी वे आपके मित्र बन गए हैं, है कि नहीं?
इस लिए, मित्र या
शत्रु बनना किसी और नियम पर निर्धारित है, और वो है कर्म| जब कर्म होता है, आपके
पास कोई शब्द या कारण नहीं होता कुछ घटनाओं के लिए| यह ऐसे ही होता है| इस लिए,
चिंता मत करो यदि लोग आपको उन चीज़ों के लिए दोष दें जो आपने नहीं कीं| परेशान मत
होइए|
बहुत आसान है कहना
कि परेशान मत होइए| आप परेशान तो होते हैं पर उस समय यह ज्ञान आपकी सहायता करेगा, “यह कोई विचित्र कर्म है, इसे होने दो| क्या हुआ, हम
क्या कर सकते हैं? संसार की यही रीत है”| इस तरह आप स्वयं को निष्पक्ष और शांत रख सकते
हैं| जो निष्पक्ष होता है, वह सदैव प्रसन्नचित रहता है|
“कस्य सुखं न करोति विरग:”| कोई खुशी बड़ी नहीं है उस मनःस्थिति से जो किसी खुशी की चेष्टा नहीं करती|
प्रश्न : कभी कभी
मैं सोचता हूँ, मेरी अंतहीन इच्छाएं हैं और आप उन्हें पूरा करते जाते हैं| इस से
मैं मुस्कुरा उठता हूँ| गुरुदेव, कैसे इच्छाओं के पीछे भागने से मुक्त हों?
श्री श्री रविशंकर : आप जानते हैं आपकी
इच्छाएं पूरी हो रही हैं, यह काफी है| दूसरों की इच्छाएं पूरी करने में व्यस्त
रहिये|
देखो, गुरु-शिष्य
प्रथा का महत्व क्या है? यह समझना शिष्य का काम है कि इच्छाओं का कोई अंत नहीं| “महासागर की लहरों की तरह इच्छाएं एक के बाद एक आती
रहती हैं| इसी लिए मुझे अपनी इच्छाओं को एक ओर रख कर गुरु की इच्छा के अनुसार काम
करना चाहिए|”
जब आप ऐसा करते हैं
तब मन खोखला और खाली हो जाता है और आप एक हल्कापन अनुभव करने लगते हैं| जीवन तब सुख
और दुःख से आगे चला जाता है और सारी तृष्णा और द्वेष स्वयं लुप्त हो जाते हैं|
यही एक मात्र उपाय
है तृष्णाओं को मिटाने का| इसी लिए कहा गया है, “न गुरुर अधिकम, न गुरुर अधिकम, न गुरुर अधिकम”| गुरु से बड़ा कुछ नहीं, क्योंकि गुरु स्वरुप है उस
सब का जो सर्वश्रेष्ठ है|
इस लिए, सब कुछ गुरु
पर छोड़ दो और गुरु के आगे समर्पण कर दो| परितोष इच्छाओं से नहीं पाया जा सकता
क्योंकि यदि एक इच्छा पूरी होती है, दूसरी आ जाती है और यदि वह पूरी हो गयी तो एक
और आ जाती है| तब मन इच्छाओं के बीच भटकता रहता है| कोई न कोई इच्छा आपको दिन रात
परेशान करती रहेगी|
क्या आप जानते हैं
यदि संसार में कुछ भी आपको परेशान करता है, उस सूची में आपका अपना मन सबसे ऊपर
होता है| मैं सबसे ऊपर कह रहा हूँ क्योंकि आप यह नहीं देख पाते| आप सोचते हैं कोई
और आपको परेशान कर रहा है| आप सोचते हो आपकी सास आपको परेशान कर रही है, बहू कर
रही है, या आपके पति या पत्नी परेशान कर रही है| इन सबको सूची में दूसरे स्थान पर
रखिये|
यह आपका अपना मन है
जो आपको परेशान कर रहा है, और कोई शत्रु नहीं है वहां| जब आप इसको समझ लेंगे आप
जान जायेंगे कि यह किसी दूसरे की नहीं बल्कि आपके मन की चिंताएं हैं|
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