११
२०१२
अगस्त
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बैंगलुरु आश्रम, भारत
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अन्नकूट (मंच पर सजाई हुए व्यंजनों को देखते हुए श्री श्री ने कहा)
आज यहाँ, महिलाओं ने ४५१ तरह के व्यंजन पकाए हैं, ये गुजरात की खासियत है| ४५१ तरह के विभिन्न प्रकार के व्यंजन गुजरात के स्वयं-सेवको ने बनाये हैं| अन्नकूट मायने भोजन का ढेर, ये दिन कृष्ण की इन्द्र पर विजय के दिन के रूप में मनाया जाता है| अन्नकूट, भोजन का पर्वत, सूचक है गोवर्धन पर्वत का जो श्रीकृष्ण ने लोगों को इन्द्र देव के कोप से बचाने को उठाया था|
भगवान कृष्ण ने भगवत गीता में कहा है, "अहम् वैश्वानरो भूत प्राणिनाम देहामसृतः" - मैं जठराग्नि हूँ, जो पेट में खाना पचाती है, मैं ही भूख हूँ जो सब प्राणियों में उठती है, और मैं ही वो हूँ जो चारो प्रकार के भोजन पचाती है| लेकिन हम क्या करते हैं, भूख को जाग्रत ही नहीं होने देते, इतना ठूंस देते हैं पेट को, हम श्रीकृष्ण को रहने की जगह ही नहीं देते, इसलिए कभी कभी उपवास करना बहुत अच्छा है|
अष्टमी के दिन लोग उपवास रखते हैं जिस से भूख जागृत हो सके, और फिर अगले दिन वो भिन्न प्रकार का भोजन इश्वर को चढाते हैं, तो जब ही आपको भूख लगे समझ लीजियेगा की भगवान कृष्ण आ गए हैं| आपके पेट में जो अग्नि है वो ईश्वर हैं, भूख भी ईश्वर हैं, और भोजन भी ईश्वर हैं| इसलिए ही भगवान कृष्ण कहते हैं कि मैं ही तुम्हारे पेट कि भूख हूँ और मैं ही उस भूख को मिटने वाला भोजन हूँ|
ये बहुत रोचक ज्ञान है, अगर आप विश्व कि समस्त पुस्तकों को पढेंगे तो भी शायद ही कहीं ऐसा ज्ञान मिलेगा| बहुत से लोग इसे नहीं समझते, वो सोचते हैं कि उन्होंने शायद यूं ही ऐसे कहा है लेकिन जो ग्यानी हैं, समझदार हैं वो इसे समझते हैं, वो इस बात का सार और इसके सत्य को समझते हैं|
प्रश्न : गुरूजी, यहाँ ४५१ तरह के भोजन हैं लेकिन आप मिठाई है, वो मिठाई जो हमें कभी नहीं छोड़ेंगे, इस बारे में आप क्या कहते हैं ?
श्री श्री रविशंकर : ये बात सच है, मैं मिठाई हूँ बशर्ते आपको मीठे से परहेज़ न हो और आप मीठे के शौक़ीन हो|
प्रश्न : गुरुदेव, कल आपने कहा था कि भगवान कृष्ण देवों में
कार्तिकेय हैं| कृपया हमें कार्तिकेय के बारे में
थोड़ा और बताईये|
श्री श्री
रविशंकर : जब भगवान शिव के द्वारा शासित पाँच महाभूतों (पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु और आकाश) का मिलन शक्ति (अर्थात शुद्ध चेतना) से हुआ, तब भगवान
कार्तिकेय का जन्म हुआ|
शिव को पंचानन
कहते हैं – अर्थात पाँच सिर वाले भगवान| ये पाँच सिर प्रकृति के पाँच महाभूतों के प्रतीक हैं| जब इन पंचभूतों का मिलन छंटे, यानि चैतन्य शक्ति से हुआ, तब
उन्होंने षडानन (छह सिर वाले) को जन्म दिया| इन्हें भगवान कार्तिकेय भी
कहते हैं|
आप इसे
कुण्डलिनी शक्ति के रूप में भी समझ सकते हैं|
हमारे भीतर
सात चक्र हैं| जब ऊर्जा का प्रवाह इन छह चक्रों
में से होता हुआ, सांतवे चक्र आज्ञाचक्र में स्थापित हो जाता है – तब यह भगवान कार्तिकेय के रूप में खिलता है| यही गुरु तत्व का भी प्रतीक है|
आज्ञाचक्र
गुरु तत्व का भी स्थान है| यहीं पर गुरु तत्व खिलता है
और स्वयं को स्थापित करता है| और यह गुरु तत्व ही
कार्तिकेय तत्व है|
भगवान शिव वह
दिव्यता हैं जो प्रकट नहीं है, जबकि भगवान कार्तिकेय प्रकट हैं, प्रत्यक्ष हैं|
तो आप भगवान
कार्तिकेय को कुण्डलिनी शक्ति का प्रतीक मान सकते हैं|
इच्छा-शक्ति
और ज्ञान-शक्ति – ये दोनों ही कुण्डलिनी-शक्ति के साथ
आते हैं| दरअसल, इच्छा-शक्ति और क्रिया-शक्ति
ये दोनों ज्ञान-शक्ति के ही रूप हैं| तो इच्छा-शक्ति और
क्रिया-शक्ति ये दोनों एक ही कुण्डलिनी शक्ति के अंग हैं, और ये वल्ली और
देइवायाणा – भगवान कार्तिकेय के दो सहभागी हैं| और भगवान कार्तिकेय स्वयं ज्ञान के अवतार हैं|
इसलिए,
कार्तिकेय तत्व का सरल अर्थ है गुरु तत्व|
भगवान शिव
त्रिमूर्ति के तीनों भगवानों में से एक हैं| पुराणों में भगवान
कार्तिकेय के बारे में एक कथा है|
जब कार्तिकेय
एक छोटे बालक थे, तब उनके पिता भगवान शिव ने उन्हें भगवान ब्रह्मा के पास जाकर
पढ़ने के लिए, और ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजा|
तब कार्तिकेय,
भगवान ब्रह्मा के पास गए, और उनसे पूछा कि, ‘कृपया मुझे ओम् का अर्थ
समझाएं|’ भगवान ब्रह्मा ने कहा, ‘पहले अक्षर सीख लीजिए! आप तो सीधा ओम् का अर्थ पूछ रहें हैं|’
कार्तिकेय ने
कहा, ‘नहीं, मुझे सबसे पहले परम ज्ञान
जानना है – ओम् का अर्थ जानना है|’
अब, भगवान
ब्रह्मा को सभी अक्षरों का ज्ञान तो था, लेकिन उन्हें ओम् का अर्थ नहीं पता था|
तो कार्तिकेय
ने भगवान ब्रह्मा से कहा, ‘आप ओम् का अर्थ नहीं जानते,
आप क्या मुझे पढ़ाएंगे? मैं आपसे नहीं पढूंगा|’ और कार्तिकेय वापस अपने
पिता भगवान शिव के पास चले गए|
भगवान ब्रह्मा
ने तब भगवान शिव से कहा, कि ‘आप ही अपने पुत्र को संभाल
सकते हैं| मैं नहीं संभाल सकता| अगर मैं एक बात कहता हूँ, तो ये दूसरी बात करता है| जो भी मैं कहता हूँ, ये उसका उल्टा ही कहता है| मैं इसे पढ़ा नहीं पाऊंगा| तो आप ही निर्णय लीजिए, कि
क्या उत्तम है, और आप ही इसे संभालिए|’
ये सुनकर,
भगवान शिव ने कार्तिकेय से पूछा, ‘क्या हुआ पुत्र? भगवान
ब्रह्मा समस्त सृष्टि के निर्माणकर्ता हैं| तुम्हें इनसे ज़रूर पढ़ना
चाहिये|’
तो इस पर
कार्तिकेय ने उत्तर दिया, ‘ठीक है, फिर आप ही बताएं, कि
ओम् का क्या अर्थ है?’
ये सुनकर,
भगवान शिव मुस्कुराये, और बोले, ‘यह तो मुझे भी पता|’
तब कार्तिकेय
ने कहा कि, ‘तब फिर मैं आपको ओम् का अर्थ बताता
हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ|’
भगवान शिव
बोले, ‘हाँ, अगर तुम जानते हो तो मुझे बताओ|’
कार्तिकेय ने
कहा, ‘मैं ऐसे नहीं बता सकता| आपको मुझे गुरु का स्थान देना होगा| सिर्फ तभी मैं आपको ये बता सकता हूँ, जब आप मुझे गुरु के
ऊंचे पद पर बिठाएंगे|’
गुरु का अर्थ,
कि उन्हें एक ऊंचे पद पर होना चाहिये| शिक्षक हमेशा एक ऊंचे स्थान
पर बैठते हैं, और छात्र नीचे बैठ कर उन्हें सुनते हैं|
अब भगवान शिव
अपने से ऊंचा स्थान कैसे ढूँढें, क्योंकि वे तो खुद ही सबसे महान और सबसे ऊंचे
हैं? तो तब भगवान शिव ने बाल-कार्तिकेय को अपने कंधे पर बिठा लिया| और तब भगवान शिव के कान में, भगवान कार्तिकेय ने प्रणव
मन्त्र का अर्थ समझाया|
कार्तिकेय ने
समझाया, कि पूरी सृष्टि ही ओम् में समाहित है|
त्रिमूर्ति – ब्रह्मा, विष्णु और महेश –
तीनों ओम् में समाहित हैं|
ओम् का अर्थ
है – प्रेम| अभंग और अचल प्रेम ही ओम् है| यही
इसका सार है| और यही ओम् का रहस्य है जो
कार्तिकेय ने भगवान शिव को बताया|
यह सुनने के
बाद माता पार्वती आनंद से भर गयीं, और वे बोलीं, ‘तुम
मेरे भगवान (नाथ) के गुरु (स्वामी) बन गए!’
ऐसा कहते
हुये, पार्वती ने उन्हें स्वामीनाथ कहकर पुकारा| और
तब से भगवान कार्तिकेय को स्वामीनाथ के नाम से भी जाना जाता है|
तो इस तरह,
भगवान कार्तिकेय ने गुरु का स्थान ले लिया और भगवान शिव के कंधे पर बैठ कर उन्हें
ओम् का अर्थ समझाया|
तो इस कहानी
का सार ये है – गुरु तत्व को शिव तत्व से भी ऊंचा
स्थान दिया जाता है! इसी सत्य को समझाने के लिए, स्कन्दपुराण में ये कथा लिखी गयी
थी|
तो इस तरह,
भगवान शिव को भी गुरु तत्व का शिष्य बनना पड़ा था, इसलिये, गुरु तत्व और कार्तिकेय
तत्व एक ही हैं|
एक कहावत है, ‘गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागु पाए, बलिहारी गुरु आपके
गोविन्द दियो मिलाये|’
(गुरु और
ईश्वर दोनों मेरे सामने खड़े हैं, किसके पैर मैं पहले छूंऊं? मैं पहले गुरु के आगे
झुकूंगा, क्योंकि उसके बिना, मैं कभी ईश्वर को पहचान नहीं पाता|)
भगवान
कार्तिकेय को देव-सेनापति भी कहते हैं- दिव्य गुणों के अभिभावक और रक्षक|
भगवान शिव तो
वरदान देने के लिए जाने जाते हैं – फिर चाहे वह असुरों के लिए
ही क्यों न हो|
वे भोले बाबा
हैं – तो जो भी कोई कुछ वरदान या आशीर्वाद
मांगता था, वे फ़ौरन दे देते थे, और फिर बाद में खुद ही फँस जाते थे|
बल्कि, ये
तीनों, ब्रह्मा, विष्णु और शिव – इन तीनो से ही जो भी कोई
वरदान मांगता था, ये फ़ौरन दे देते थे, और फिर अपने जाल में खुद ही फँस जाते थे| ऐसे समय में भगवान कार्तिकेय सामने आकर ऐसे असुरों का सामना
करते थे|
इसीलिये,
उन्हें देवताओं का सेनापति नियुक्त किया गया था|
कार्तिकेय – अर्थात ऐसा तत्व – जो शांत है, और सक्रिय भी
है|
आमतौर पर जो लोग
बहुत ज्यादा सक्रिय होते हैं, वे शांत नहीं होते, स्थिर नहीं होते| और जो लोग शांत होते हैं, वे बहुत निष्क्रिय होते हैं| इसलिए, कार्तिकेय तत्व वे हैं, जो शांत भी हैं और सक्रिय भी
हैं|
आध्यात्मिक
पूर्णता और सांसारिक चतुरता – इन दोनों का साथ में होना| गतिशीलता और स्फूर्ति के साथ गहरा मौन – ये दोनों साथ में कार्तिकेय तत्व बनाते हैं|
जहाँ
इच्छा-शक्ति और क्रिया-शक्ति ज्ञान-शक्ति के साथ आती हैं – वही कार्तिकेय तत्व है| इसीलिये, कहते हैं, कि
क्रिया-शक्ति की उपस्थिति में ही भगवान कार्तिकेय सेनापति बन गए – देवताओं की सेना के जनरल| और उन्होंने देवी-देवताओं
की रक्षा करी|
कार्तिकेय ने
युद्ध में तारकासुर का भी वध किया था|
तारकासुर
अहंकार का प्रतीक है| जब कोई व्यक्ति सोचता है, कि उसने
सब कुछ जीत लिया, सबमें कुशलता प्राप्त कर ली, ‘मैं
सब कुछ जानता हूँ; – तो तारकासुर मन की इस स्थिति का
प्रतीक है|
ऐसे कुछ लोग
होते हैं, जिन्हें आप कुछ भी कहें, उनका जवाब होता है, ‘हाँ, मुझे मालूम है, मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है|’ वे कभी भी नहीं मानेंगे, कि कुछ ऐसा भी हो सकता है, जो वे
नहीं जानते| वे ऐसे व्यवहार करेंगे, जैसे वे सब
जानते हैं|
ऐसे झूठे
अहंकार, ऐसी उद्दंडता – जो अपने सामने आने वाली हर
चीज़ को धुत्कार देती है – यह एक आसुरी गुण है|
विनम्रता,
सरलता और सहजता – ये सभी गुण उद्दंडता के आगे छुप
जाते हैं| इसलिए, ऐसे अहंकार का विनाश करने के
लिए कुण्डलिनी शक्ति, अर्थात कार्तिकेय आगे आते हैं| इसलिए,
कार्तिकेय अहंकार के विनाशक हैं|
इसलिए, कहानी
कुछ ऐसी है, कि कार्तिकेय से पराजित होने के बाद तारका ने एक चूजें (मुर्गे) का
रूप ले लिया| एक मुर्गी कमजोरी का प्रतीक होती
है, जिसमें स्थिरता नहीं है, धैर्य नहीं है|
आमतौर पर यदि
कोई कायर होता है, तो कहते हैं, ‘तुम मुर्गे जैसे हों, है न?’
इस तरह
कार्तिकेय से पराजित होने के बाद तारकासुर एक मुर्गा बन गया|
तारकासुर को
युद्ध में हारने के बाद कार्तिकेय बे उसकी जान बख्श दी, और उससे वरदान मांगने को
कहा| तब तारकासुर ने प्रार्थना करी, कि
वह हमेशा भगवान के चरणों में रहना चाहता है| और तब भगवान कार्तिकेय ने
उसे अपने झंडे का चिन्ह बना लिया| इसका अर्थ है, कि अहंकार को
हमेशा दबाकर रखना चाहिये| अहंकार जीवन में आवश्यक है
लेकिन उसे हमेशा दबाकर रखना चाहिये|
अगर आप कार्तिकेय की मूर्ति को देखें, तो वे एक हाथ
में भाला लिए हुए हैं| इसे वेळ भी कहते हैं| यह ट्रिडेंट नहीं है| यह
कुण्डलिनी शक्ति का प्रतीक है| दूसरे हाथ में उनके पास एक छोटा सा झंडा है, जिसमें
मुर्गे का चिन्ह है| यह मुर्गा असुर तारका का प्रतीक है, जिसने यह
प्रार्थना करी थी, कि वह हमेशा भगवान के साथ रहें| बल्कि, तमिलनाडु के बहुत से
भागों में और दक्षिण भारत के कुछ अन्य क्षेत्रों में कार्तिकेय को ‘मुरुगा’ कहकर
भी बुलाते हैं|
प्रश्न : गुरुदेव, भगवान विष्णु के परशुराम अवतार को लेकर मन में कुछ दुविधा है, ऐसा कैसे संभव है कि भगवान राम ने भी तभी अवतार लिया जब परशुराम जी भी यहाँ ही थे, क्योंकि उन दोनों को ही भगवान विष्णु का अवतार कहा जाता है|
श्री श्री रविशंकर : हमें सबसे पहले ये समझना होगा कि अवतार क्या होता है, ऐसा नहीं है कि अवतार एक समय में केवल एक ही स्थान पर मौजूद हो सकता है दूसरे स्थान पर नहीं| एक अवतार ईश्वर का एक अंश है, और ईश्वर को आप कहाँ पर नहीं पा सकते? ईश्वर का एक अंश हमेशा सब जगह और सब रूपों में मौजूद होता है, वो तो सर्वव्यापी हैं|
जैसे एक घर में चार खिड़की हो सकती हैं, हो सकती हैं न! और सूरज उन चारो में से ही पूर्ण रूप में देखे जा सकते हैं, देखे जा सकते हैं न!
अब आप जीवात्मा कि बात अगर करते हो तो एक जीवात्मा सिर्फ एक ही जगह जन्म ले सकती है दूसरी जगह नहीं, ये सवाल तो आप कर सकते हैं लेकिन परमात्मा, उनके लिए ये सच नहीं है, सर्वव्यापी होने से वो कहीं भी प्रकट हो सकते हैं|
परशुराम में ईश्वर को देखना बहुत ही रोचक बात है, अगर आप उनके जीवन पर एक नज़र डालें तो ऐसा कोई भी काम उन्होंने नहीं किया जिस से लगता हो कि वो ईश्वर का अवतार हैं, सबसे पहले अपनी माँ का सर काट दिया, ये किसी भी बच्चे के लिए कैसे संभव है कि वो अपनी ही माँ का सर काट दे, बहुत मुश्किल है, असंभव सा है, फिर उसके बाद वो सब क्षत्रियो का विनाश करने चल दिए| मुझ से पूछो तो मुझे ये बात बड़ी मूर्खता सी लगती है, हम इस बात से कहीं आगे हैं| तो इन सब का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि कोई साधारण शक्ति ये काम नहीं कर सकती, कोई असाधारण शक्ति ही ये काम कर सकती है, ऐसा अमानवीय कार्य किसी असाधारण शक्ति का ही कार्य है| परशुराम ने जो कार्य किये वो अमानवीय और असाधारण थे, ये काम कोई मनुष्य नहीं कर सकता, ये तो किसी दैवी शक्ति का ही कार्य हो सकता है इसलिए परशुराम को ईश्वर का अवतार कहा गया, ये समझने वाली बात है| इस बात को समझते हुए परशुराम जी को अवतार रूप में माना जाता है| जो भी कार्य उन्होंने किये वो अमानुषीय थे, असाधारण थे और कहीं भी किसी ने भी उनका अनुसरण करने को नहीं कहा है| उनके कार्यों का अनुसरण नहीं किया जा सकता लेकिन फिर भी वो आदरणीय हैं, जानते हो क्यों?
सबसे पहले तो इसलिए कि जो भी उन्होंने किया वो कर्तापन में आकर नहीं किया, उसको भी साक्षी भाव में किया| और दूसरी बात ये कि अगर आप परशुराम जी में ईश्वर को देख सकते हो तो किसी में भी ईश्वर के दर्शन कर सकते हो, हर बच्चे में हर मनुष्य में आपको ईश्वर के दर्शन होंगे| इसलिए ही परशुराम जी को अवतार माना जाता है| अगर आप एक मछली में ईश्वर को देख सकते हो,एक कछुए में उन्हें देख सकते हो, एक शेर में, एक बत्तख में, एक कौवे में, अपने आस पास की हर चीज़ में उन्हें देख सकते हो यहाँ तक कि एक कठोर दिल वाले व्यक्ति में जिसने हजारो लोगो को मारा हो, उसमें भी अगर आप ईश्वर को देख सकते हो तब कार्य हो गया, तब आप हर कृति में ईश्वर को देखोगे, अपने आस पास, हर जगह, उन्हें देखोगे, ऐसी कोई जगह ही नहीं होगी जहाँ आप उन्हें नहीं देख पाओगे| इस ज्ञान को समझाने के लिए परशुराम जी को भी ईश्वर का अवतार कहा गया| आप समझ रहे हैं इस बात को?
तो ईश्वर कोई एक देश, एक क्षेत्र, एक समय में बंधा हुआ नहीं है| वो तो सर्वव्यापी है, इस सृष्टि के कण कण में बसा हुआ है, सब जगह सिर्फ उसका वास है|
भगवान राम को अवतार के रूप में मर्यादा पुरोषोत्तम कहा जाता है, तब भी वो ऋषि मुनियों के आगे झुके, सबका सत्कार किया उन्होंने उनके पैर छुए उनका आदर किया, उन्होंने अगस्त्य ऋषि के चरणों में बैठ कर उनसे ज्ञान प्राप्त किया, शिक्षा ली| वो इतने महान थे कि उन्होंने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को कहा कि जाके रावन के पैर छुओ और उस से शिक्षा लो जब रावन युद्ध भूमि में मृत्यु शैया पर था| उन्होंने रावन के अंतिम क्षणों में अपने भाई को उसके पास भेजा और कहा कि रावण से शिक्षा लो, ज्ञान प्राप्त करो| भगवान राम ने कहा कि अगर मैं उसके सामने जाऊँगा तो वो अपना शरीर छोड़ देगा और उसकी आत्मा मुझ में समा जाएगी, तो इस से पहले कि ये हो तुम जाके उस से शिक्षा प्राप्त करो|
भगवान राम ने शिव जी की पूजा की, भगवान कृष्ण ने भी भगवान शिव की पूजा की, श्रीकृष्ण देवी के बहुत भक्त थे, उन्होंने देवी की हमेशा आराधना की| यहाँ देवी का अर्थ है दैवी शक्ति, जो कि चेतना के रूप में सब जगह मौजूद है, जीव के रूप में सब जगह मौजूद है भूख के रूप में शक्ति के रूप में, कान्ति के रूप में, ज्ञान के रूप में बुद्धि के रूप में और अनेक रूपों में मौजूद है| आज दैवी शक्ति यहाँ माँ अन्नपूर्णा के रूप में मौजूद है, यहाँ ये सब खाना (गुजरात के भक्तो द्वारा अन्नकूट के अवसर पर बनाये हुए ४५१ व्यंजन) उसी देवी का ही एक रूप है|
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